जयनंदन की कहानी 'मलेच्छ'




मनुष्य ने अपने विकास क्रम की प्रक्रिया में धर्म की खोज की और इसी क्रम में उसने ईश्वर की परिकल्पना की. कालांतर में जब मनुष्य तर्क वितर्क की तरफ मुड़ा और विज्ञान की तरफ बढ़ा तो ये सारी परिकल्पनाएँ आधारहीन लगने लगीं. विज्ञान धर्म के सामने चुनौती प्रस्तुत करने लगा. हालांकि धर्म ने विज्ञान की राह में काम अड़ंगे नहीं लगाये. आज भी यह द्वंद्व जारी है. इसी को केंद्र में रख कर जयनंदन ने एक उम्दा कहानी लिखी है जिसे आज हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. तो आइये आज पढ़ते हैं जयनंदन की कहानी मलेच्छ.

 
मलेच्छ


जयनंदन



शोभित शरण सार्वजनिक सभाओं में ईश्वर, आत्मा और तमाम तरह के धार्मिक क्रिया-कलापों को कोसता था, खारिज करता था और इस तरह के कर्मकांडों की खिल्ली उड़ाता था। लेकिन जब उसके पिता मरे तो उसे सारे विधि-विधान के चक्कर में फंस जाना पड़ा। 

हृदयाघात से रोहित शरण अचानक गुजर गये। खबर मिलते ही शोभित अपनी पत्नी के साथ टाटा से बस ले कर सुबह ही सुबह नवादा आ गया और फिर वहां से ट्रेकर द्वारा 12 किलोमीटर दूर अपना गांव भुआलचक पहुंच गया। 

अमेरिका में रह रही अपनी बहन प्रभा और जीजा अवध किशोर को भी मोबाइल से सूचित कर दिया। उन्होंने बताया कि उनके आने में कम से तीन से चार दिन लग जायेंगे। अतः उनका बिना इंतजार किये अंत्येष्टि वगैरह का काम आगे बढ़ा लिया जाये। उसने तय किया हुआ था कि बिना किसी धार्मिक पचड़े में पड़े दाह संस्कार कर देना है और तीन-चार दिनों में बहन-बहनोई के आते ही एक बड़ा सा प्रीतिभोज करवा देना है जिसमें पूरे गांव और जवार के मुख्य मुख्य लोगों को आमंत्रित कर लेना है।

बतौर पुत्र वह अपने पिता की इकलौती संतान था। दाह-संस्कार जब बिना किसी टंट-घंट के सादा-सादी उसने निपटा दिया तो उसके चाचा के कान खड़े हो गये। उन्हें यह जानकारी थी कि यह लड़का धर्म-कर्म का उपहास करता है और विचार व व्यवहार से पूरी तरह नास्तिक है। उन्होंने उसे तलब करते हुए झिड़की दी, ‘‘तुम्हें पता तो है कि अंत्येष्टि और श्राद्ध कर्म में क्या कुछ नेम धर्म के पालन करने होते हैं? दाह-संस्कार तूंने यों ही निपटा दिया। न कोई पंडित, न धूप, न दीप, न केश मुंडन, न उत्तरीय धारण......।’’


‘‘चाचा जी, ये सब आँखों में धूल झोंकने और बेवकूफ बनाने के चोंचले हैं। मुझे माफ कर दीजिए, मैं किसी भी तरह के ढोंग-पाखंड करने में यकीन नहीं करता। ईश्वर, आत्मा और स्वर्ग-नर्क कुछ नहीं होता चाचा जी। ये सब कपोल कल्पित अंधविश्वास के तंतु हैं।’’



‘‘जो भी हो, तुम्हें लोकाचार के लिए तो कम से कम सिर मुंडन करवा कर और उनके नाम का उत्तरीय धारण कर 10 दिनों तक पूजा पाठ करना ही होगा। 12वीं के ब्रह्मभोज के बाद भले ही तुम जो चाहो करो। उनका नाम जीवित रखो या बिसरा दो। कोई पूछने नहीं जायेगा।’’



‘‘सिर्फ दिखावा करना अगर लोकाचार है, तो मैं यह करने वाला नहीं हूं। आप जानते हैं कि मैं जिस संस्था से संबद्ध हूं, वह इन बेवकूफियों का निषेध करता है। हम इन ढकोसलों से दूर रहने का लोगों के बीच जागरुकता अभियान चलाते हैं।’’




‘‘देखो, समझने की कोशिश करो। रोहित भैया का एक और बेटा होता तो वह उत्तरीय ले कर सारे विधि-विधान का निर्वाह कर देता और तुम्हें नालायकी करने के लिए आजाद कर देता। लेकिन ऐसा है नहीं। जो हो बस तुम्हीं हो। अतः आदिम पूर्वजों के जमाने से जिस तरह नियमानुसार श्राद्धकर्म होता आ रहा है, वैसा करना तुम्हारा फर्ज है।’’ 


आसपास के जो रिश्तेदार थे, मामा, फूफा, मौसा सभी आ गये थे। ये लोग भी चाचा जी की हां में हां मिलाते हुए दबाव बनाने लग गये। मामा ने कहा, ‘‘तुम्हारे मरहूम पिता खुद कितने बड़े सात्त्विक और पुजारी किस्म के व्यक्ति रहे, इसे तुम भलीभांति जानते हो। प्रति दिन पूजा-पाठ करते रहे, मंदिर जाते रहे। घर में मौके-बेमौके यज्ञ-हवन, चंडीपाठ, सत्यनारायण कथा, ब्राह्मण भोज आदि कराते रहे। दुनियादारी निभाने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे। रोज तुम जैसे इकलौते बेटे के बेहतर स्वास्थ्य और उन्नति के लिए प्रार्थना करते रहे। हैरत है कि जीवन भर उन्होंने तुम्हें बेइंतहा प्यार दिया, बेइंतहा दुलार दिया, आज तुम उनके नाम पर कुछ भी त्याग करने को तैयार नहीं हो। खोखला सिद्धांत और हवाई मान्यता पर अड़कर अपने जन्म देने वाले पिता के प्रति दुर्भावना दर्शाने की अशिष्टता कर रहे हो।’’



मौसा ने कहा, ‘‘मरने पर उनकी आस्था और श्रद्धा के विपरीत व्यवहार से उनकी आत्मा को बहुत कष्ट पहुंचेगा और सारे लोग तुम्हें नालायक और कुपात्र कहेंगे। अगर तुम अपनी मनमानी करोगे और विधि-सम्मत आचरण नहीं करोगे तो कोई तुम्हारा साथ नहीं देगा। सारे लोग तुम्हें बहिष्कृत कर देंगे और तुमसे सदा के लिए संबंध विच्छेद कर लेंगे।’’



वह सोचने लगा कि कितना गहरा बैठ गया है सबके दिलो-दिमाग में यह पाखंड, यह झूठ,, यह आडम्बर। वह कैसे समझाये सबको? सिर्फ लकीर पीटते चले जाना ही इनके लिए धर्म है। किसने देखा है ईश्वर, कहां है आत्मा....कहां है स्वर्ग और नर्क......किसे पता है कि मरने के बाद क्या होता है



उसने मन ही मन विचार किया कि अब उसकी बड़ी बहन प्रभा और जीजा अवध किशोर आ जायें, तभी उसका पक्ष मजबूत हो सकेगा। वे लोग अमेरिका में रहते हैं, जाहिर है इन संकीर्णताओं और अंधविश्वासों से काफी ऊपर उठ गये होंगे। अवध किशोर तो नासा में साइंटिस्ट हैं, वे भला इन बेसिर-पैर के मिथकों में क्यों यकीन करेंगे।


इस बीच सारे रिश्तेदारों के रहने के लिए जब कमरे की कमी महसूस होने लगी तो उसने घर में स्थित पिता जी के पूजा वाले खास कमरे को खाली करा दिया। वहां रखे सारे कथित भगवान के चित्र-मूर्ति उतार कर स्टोर रूम में रखवा दिये।


वह अर्से बाद गांव आया था। ताड़ी (ताड़ का रस) पीना उसका पुराना शौक था, खासकर अपने कुछ उन दोस्तों के साथ बैठ कर जो उसकी विचारधारा से सहमति रखते थे और उसे बोलते हुए ध्यान से सुनते थे। वह अपने उन्हीं दोस्तों को उसी कमरे में बुलवा कर ताड़ी की मजलिस लगाने लगा। चखना में पोर्क, चिकेन, मटन या मछली आदि का जुगाड़ कर लिया जाता था। दोस्तों में वर्षों से मुसहर और पासी जाति के कई लोग थे, जिनकी बड़ी जातियों के घरों में प्रायः प्रवेश वर्जित रहा करता था, खासकर पूजा घर में तो जरूर ही।



बाउजी जब जीवित थे, तब वह गांव आने पर उन्हें बिना बताये मुसहरी में ही महफिल जमा लेता था। इसकी जानकारी उन्हें हो गयी थी। वे यह भी जानते थे कि बेटा अब धुर नास्तिक और कम्युनिष्ट हो गया है। लेकिन उन्होंने कभी उसे कोई नसीहत नहीं दी। उनका मानना था कि बेटा उनसे ज्यादा पढ़ा-लिखा है, इसलिए उसे कैसे रहना है, इसका फैसला उसे खुद करना है। 


शोभित आई.आई.टी खड़गपुर से इंजीनियरिंग करने के बाद टाटा स्टील में इंजीनियर हो गया। दस साल तक नौकरी की। इस दर्म्यान तरक्की कर के काफी ऊंचे पद पर पहुंच गया। नौकरी के साथ साथ वह राष्ट्रीय समता पार्टी में भी सक्रिय था। पार्टी ने उसे प्रवक्ता बना रखा था और वह अक्सर टेलीविजन के समाचार चैनलों में होने वाले डिबेट में पार्टी का प्रतिनिधित्व कर लिया करता था। एक अच्छे तार्किक वक्ता के तौर पर उसकी पहचान बन गयी थी। कंपनी प्रबंधन को उसका पार्टी में होना मंजूर नहीं था और उसे पार्टी छोड़ना मंजूर नहीं था। लिहाजा उसे कंपनी छोड़ना पड़ा। अब वह इंजीनियरिंग प्रवेश की कोचिंग क्लासेज में अध्यापन से जुड़ गया।



बाउजी दूर से सब देखते-सुनते रहे। कभी उसके किसी मामले में हस्तक्षेप नहीं किया। उन्होंने कभी अपना नेम-धर्म उस पर आरोपित नहीं किया। वे मानते थे कि अपने ही तरीके से जी कर बेटा उनसे ज्यादा सफल है तो जरूर उसका सोचना-विचारना उनसे ज्यादा सही और उपयुक्त होगा। शोभित ने भी कभी अपने पिता की दिनचर्या में अपना उसूल घुसाने का प्रयत्न नहीं किया कि वे ये न करें, वो न करें, पोंगापंथी से बचें।


वे जानते थे कि लड़का ढोंग-ढकोसला की खिल्ली उड़ाता है और पूजा पाठ आदि को बकवास कहता है, फिर भी उन्होंने ऐसा कभी निर्देशित नहीं किया कि उनके मरणोपरांत दाह-संस्कार और श्राद्ध आदि के लिए क्या तरीका अख्तियार करना है। कुछ लोग तो बजाब्ता कह कर या लिख कर जाते हैं कि मेरी अंत्येष्टि आदि कैसे और कहां करना है। कुछ लोग यह बता जाते हैं कि मरने पर उसे काशी या किसी दूसरे गंगा घाट पर ले जाया जाये, चंदन की लकड़ी से जलाया जाये और अस्थियां पांच नदियों में विसर्जित किये जायें। लेकिन बाउजी ने जानते हुए भी ऐसी किसी इच्छा की अभिव्यक्ति कभी नहीं की।


बाउजी के मृत्यु के चौथे दिन प्रभा और अवध किशोर घर पहुंच गये। शोभित को बड़ा बल मिला कि अब दोनों मिल कर उस पर थोपी जाने वाली रूढ़ियों और खटरागों से मुक्ति दिलाने में सहयोग करेंगे। प्रभा ने आते ही मेहमानों की आवभगत और आगे के कार्यक्रम की देखभाल की व्यवस्था संभाल ली। बाउजी के पूजा घर में झांका तो ताज्जुब से उसकी आँखें फटी रह गयीं - देवी-देवताओं की तस्वीरें, मूर्तियां और उनका आसन आदि गायब। ताड़ी की लबनी और प्लेटें इधर-उधर छितरायी हुई। आगंतुकों से पता चला कि यहां शोभित दोस्तों की महफिल जमाता है और देर तक ताड़ीबाजी होती है। चाचा, मामा, मौसा और फूफा आदि ने उसे यह भी बताया कि यहां कोई विधि-विधान नहीं हो रहा। हम लोग तो तुम्हारे आने का इंतजार कर रहे थे, वरना अब तक तो यहां से जा चुके होते।



प्रभा का तांबई चेहरा क्रोध से लाल हो गया और वह अपने भाई शोभित पर बरस पड़ी, ‘‘शोभित, तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया कि पापा के मरने पर शोक मनाने की जगह जश्न मनाने लगे हो। जिन्हें बाउजी ने कभी अपनी चौखट के इस पार आने नहीं दिया उसे उनके मुख्य साधना गृह में बैठाया और खिलाया-पिलाया जा रहा है। किसी के मरने के बाद उत्तरीय लिया जाता है, पीपल में रोज पानी डाल कर बिना नमक का 10 दिनों तक सात्त्विक भोजन किया जाता है। दशकर्म, एकादशा और ब्रह्मभोज के बाद श्राद्ध संपन्न होता है। तुमने सबको अनदेखा कर दिया? साफ-साफ सुन लो शोभित, बाउजी के मामले में तुम्हारा मार्क्सवाद, लेनिनवाद, उत्तर आधुनिकवाद और वामपंथवाद बिल्कुल नहीं चलेगा। मैं आ गयी हूं, अगर तुम उत्तरीय धारण नहीं करोगे तो मैं करूंगी। और ऐसा अगर हुआ तो दुनिया के सभी लोग तुम पर थूकेंगे।’’


अपनी बहन का भाषण सुन कर शोभित हैरान रह गया। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उसकी यह बहन दुनिया के सबसे आधुनिकतम देश अमेरिका से आयी है। लग रहा था जैसे काशी या वृंदावन के किसी मठ से आयी है। उसका समर्थन करने के लिए घर में आये सारे रिश्तेदार उसकी पीठ पर खड़े थे। यहां तक कि जीजा अवध किशोर, जो नासा में साइंटिस्ट थे और उसकी पत्नी, जो उसकी रोज की जीवन-शैली से परिचित थी, प्रतिपक्ष की भूमिका में दिख रहे थे।


शोभित निःशब्द हो गया था। झिझकते हुए उसने अपने जीजा से यों ही पूछ लिया, ‘‘आप साइंटिस्ट हो कर भी इस तरह डपोरशंखी विचारों का पक्ष ले रहे हैं। आप जो सेटेलाइट बनाते हैं उसे आपका विज्ञान उड़ाता है या कि कोई ईश्वर आ कर उड़ा देता है?’’


अवध किशोर ने कहा, ‘‘आज तक सफलता के शिखर पर पहुंचने वाले जितने भी लोग हैं, सबने ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया है। सबने यही कहा कि ईश्वर की कृपा से ही वे यहां तक पहुंचे हैं। ऐसे लोगों में अनेक नाम लिये जा सकते हैं, टालस्टाय, टैगोर, वर्ड्सवर्थ, न्यूटन, नील आर्मस्ट्रांग, अबुल कलाम आजाद, नेहरू, इंदिरा गांधी, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, महात्मा गांधी, अमिताभ बच्चन आदि आदि।’’



‘‘दरअसल ऐसा कहने वाले को जो प्राप्त हुआ वो उनकी काबिलीयत से अधिक था और उसमें एक संयोग भी शामिल रहा, इसलिए उन्हें लगा कि ईश्वर यानी कोई अदृश्य शक्ति ने ही उन्हें इस मुकाम तक पहुंचा दिया है।’’ शोभित ने जवाब दे कर सबको सोचने पर मजबूर कर दिया।


सोचते हुए फूफा ने कहा, ‘‘तो तुम्हारे अनुसार जब ईश्वर है ही नहीं तो सारे मंदिर-मस्जिद व्यर्थ ही बने हुए हैं।’’


‘‘मंदिरों में तमाम तरह के ढोंग और ठगबाजी सरेआम चलती है और लोग आँखें बंदकर उसका अनुसरण करते चले जाते हैं। ईश्वर अगर है तो हर जगह है। ईश्वर अगर सचमुच है तो निश्चय ही मंदिरों, मस्जिदों और गिरिजाघरों में उसका निवास कतई नहीं हो सकता। इन जगहों पर सिर्फ धोखेबाजी, छल, कपट, नाटक और दिखावा करके दुकानदारी होती है।’’


‘‘तो पूजा-पाठ बंद कर देना चाहिए।’’ इस बार मौसा ने हस्तक्षेप किया।


‘‘बेशक मौसा जी। भला ईश्वर क्यों चाहेगा कि कोई उसकी खुशामद और चाटुकारिता करे। वह अगर है और उसने ही एक एक मनुष्य या प्राणी या जीव-जन्तु को भेजा है तो किसी विशेष उद्देश्य लेकर भेजा है। मनुष्य से इतर जो जीव-जन्तु हैं, वे तो अपना काम कर रहे हैं बिना किसी ईश्वर के महिमा गायन किये।


‘‘हम मनुष्य ही हैं जो अन्य प्राणियों की तुलना में खुद को ज्यादा चतुर मान कर दुनिया भर के लोभ-लालच में फंसे रहते हैं। हमें जानने की कोशिश करनी चाहिए कि हमारे जन्म लेने का उद्देश्य क्या है? इस तरह की कोशिश करते हुए हम अपने होने को सार्थक कैसे करें।’’


‘‘जिसने हमें बनाया, उसके प्रति कृत्तज्ञता ज्ञापित करना तो चाहिए ही। यही तो पूजा है।’’ इस बार चाचा जी ने उसे पटकनी देने की कोशिश की। 


‘‘अपनी पूजा करवाना, अपना महिमामंडन करवाना, अपनी बटरिंग करवाना जब आदमी के लिए बुरा माना जाता है, निंदनीय माना जाता है तो भला ईश्वर क्यों इसे पसंद करेगा कि कोई उसका नाहक गुणगान करे। अपना गुणगान सुनना जब एक अच्छा आदमी को झेंप की स्थिति में डाल देता है तो ईश्वर भला क्यों पसंद करेगा कि रात दिन कोई अलग अलग तरीके से उसकी मक्खनबाजी करता रहे।’’


‘‘क्यों ऐसे भी लोग क्या नहीं होते जो अपनी तारीफ सुन कर बहुत खुश होते हैं?’’ अवध किशोर ने अपने बौद्धिक बटुए से एक मिसाइल निकाला।


‘‘होते हैं, लेकिन ईश्वर तो कतई खुश नहीं हो सकता। वह तो बहुत बुरा मानता होगा इस तरह के क्रिया कलाप करने वालों का। शायद यही कारण है कि दुर्घटनाओं में या प्राकृतिक आपदा की चपेट में आ कर ज्यादातर अकाल मौत मरने वाले तीर्थाटन के लिए जाते हुए या आते हुए लोग होते हैं। सैकड़ों उदाहरण हमारे सामने है कि मंदिरों में पूजा करते हुए या मक्का में हज करते हुए भगदड़ मचे है.......भूस्खलन होने लगा है, जिनमें हजारो-हजार लोग मारे गये हैं। ईश्वर इसे नापसंद करता है कि कोई खामखा अपना मूल काम-धंधा छोड़ कर उसकी स्तुति और चारणगिरी करके जो असंभव है उसे पा लेने की फिराक में लगा रहे।’’



शोभित ने लाख तर्क देकर समझाया लेकिन समझने के लिए कोई तैयार नहीं। सब अड़े रहे और उसे बाध्य करने की कोशिश करते रहे कि श्राद्ध उस तरह होना ही चाहिए जिस तरह सारे लोग करते हैं और करते आ रहे हैं। सबने ऐलान कर दिया कि अगर यहां कुछ होना-जाना नहीं है तो आज वे सभी अपने-अपने घरों को लौट जायेंगे।


प्रभा ने डट कर मोर्चा संभाल लिया, ‘‘नहीं मौसा जी! मैं आ गयी हूं, सारे कार्यक्रम तौर-तरीके से होंगे। भले ही मैं लड़की हूं, लेकिन औलाद तो उन्हीं की हूं। उनकी आत्मा को भटकने नहीं दूंगी। श्मशान घाट से उनकी अस्थियां चुन कर मंगायी जाये। अवध किशोर जायेंगे और उसे पांच महानदियों में विसर्जित करेंगे। उत्तरीय मैं लूंगी। नाई को बुलाया जाये......मैं मुंडन कराऊंगी। दुनिया देखे कि यह काम एक बेटी भी कर सकती है। अगर मैं चिता सजते वक्त आ गयी होती तो मुखाग्नि भी मैं ही दे देती।’’


प्रभा के निर्णय पर शोभित विस्मय से भर उठा। दीदी इस स्तर तक जा सकती है उसने इसकी कभी कल्पना तक नहीं की थी। उसे याद आ गया कि उसकी पार्टी का एक कर्मठ और जुझारू नेता मां के मरने पर श्राद्ध कर्म संपन्न कर जब गांव से लौटा तो बाल तो बाल अपनी कड़ियल मूंछें तक मुड़वा ली थी, जिसे वह रोज ऐंठ कर शान से फहराता रहता था।


शोभित ने उसका खूब मजाक उड़ाया था और कहा था, ‘‘इसे ही कहते हैं कथनी और करनी में दोमुंहापन। यहां आदर्श झाड़ते हो कि मंदिर-मस्जिद कलह के घर हैं। ढोंग-आडम्बर और तमाम देवी-देवता पूर्वजों द्वारा संचालित मूर्ख बनाने के औजार हैं और अपना समय आया तो आ गये सफाचट हो कर।’’




मूंछ वाला वह साथी एक खास अंदाज में अपने दिये जाने वाले भाषण में देवी-देवताओं का उपहास उड़ाते हुए कहा करता था कि किसी देवी के आठ हाथ, किसी के चार हाथ, किसी देवता के हाथी मुंह तो किसी देवता का बराह अवतार। किसी की सवारी चूहा, तो किसी का उल्लू, तो किसी का सांड़, तो किसी का सिंह। बताइए यह सब कपोल कल्पना नहीं तो और क्या है। चूहा बेचारा आधा किलो का भार नहीं उठा सकता तो कहां से एक वजनदार देवी का वजन उठायेगा। इस तरह के विचारोत्तेजक भाषण देने वाला आज खुद अपनी लहरदार घनी मूंछों का राम नाम सत्य करके आ गया।


इसी संदर्भ में दूसरा एक वाकिया उसे याद आया अपने एक दूसरे साथी का। उसने अपनी मां की मृत्यु पर किसी तरह का कोई जप-तप नहीं किया और सीधे तीसरे दिन एक प्रीतिभोज करवा दिया। उसके जाति-समाज वालों ने बायकाट कर दिया, यह कह कर कि यह तो सरासर विधर्मी और मलेच्छ वाला काम किया गया है। मृत आत्मा को श्रद्धांजलि तक नहीं दी गयी। ऐसे अशुद्ध भोज में हमलोग शामिल नहीं हो सकते।


उसने मुसहर टोली और चमरटोली के सारे लोगों को न्योत दिया। सबने अघा कर भोज का मजा लिया। जाति और समाज वाले मुंह ताकते रह गये।


प्रभा दी के स्टैंड पर अब उसे क्या रुख अपनाना चाहिए, वह सोच में पड़ गया। प्रभा दी घर में मौजूद बाउजी की डायरी या पुर्जे-पुर्जी में ढूंढने लगी कि शायद वे अपनी अंत्येष्टि के बारे में कुछ लिख कर गये हों। इससे उसका पक्ष मजबूत हो जाता और वह कह सकती कि देखो बाबूजी ने ऐसा चाहा है, फिर भी उसका पालन नहीं किया जा रहा। जब कुछ भी उनका लिखा नहीं मिला तो वह खीज कर रह गयी - बाबूजी को पता था कि उनका बेटा एक नंबर का मलेच्छ है तो कम से कम लिख कर उन्हें जाना था कि वे किस तरह श्राद्धकर्म करवाना चाहते हैं।


अंततः वह अपने निर्णय को कार्यान्वित करने की ओर अग्रसर हो गयी। घर में नाई को बुलाया गया। सारे रिश्तेदार और पड़ोसी इर्द-गिर्द खड़े हो गये। आज गांव में एक नया इतिहास रचा जा रहा था।


नाई उस्तरा निकाल कर पानी से प्रभा का सिर भिगोने लगा। मुंडन के लिए उस्तरा चलने ही वाला था कि शोभित हठात् आवाज लगा बैठा, ‘‘रुको दीदी। जब तुमने ठान लिया है कि भक्ति भाव से सारी रूढ़ियों को निभाना ही है तो फिर मैं ही अपना मुंडन करा लेता हूं। तुम्हें अमेरिका लौटना है। लोग नाहक तुम्हारा मजाक उड़ायेंगे’’



आगे शोभित ने अपने सिर पर उस्तरा चलवा लिया और मुंडन करवा लिया। उसे लगा कि आज उस्तरा उसके सिर पर ही नहीं बल्कि उसके संजोये सारे मूल्यों और सिद्धान्तों पर भी चल रहा है। जिन-जिन साथियों का आज तक वह मजाक उड़ाता रहा था, आज वह स्वयं भी उनके मजाक का पात्र बन गया।



सम्पर्क       
ए - 4/6, चन्द्रबली उद्यान
रोड नं. 1, काशीडीह, साकची
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मोबाइल - 9431328758



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं)




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