राकेश जोशी की ग़ज़लें


राकेश जोशी


परिचय:
अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतः राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेजी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के पद पर मुंबई में कार्यरत रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया.  राकेश की कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं. उनकी एक काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में", दो ग़ज़ल संग्रह “पत्थरों के शहर में” तथा "वो अभी हारा नहीं है", और हिंदी से अंग्रेज़ी में अनूदित एक पुस्तक “द क्राउड बेअर्स विटनेस” अब तक प्रकाशित हुई है.


हिन्दी ग़ज़ल इस मायने में थोड़ी अलग दिखाई पड़ती है कि वह उस जनता की बात करती है जो दलित-दमित होती है. इस ग़ज़ल में प्रतिरोध के मुखर स्वर भी दिखायी पड़ते हैं. युवा गज़लकार राकेश जोशी की ग़ज़लों में हिन्दी ग़ज़ल की वह समृद्ध परम्परा सहज ही देखी जा सकती है जिसकी शुरुआत दुष्यन्त कुमार ने की थी.अपनी ग़ज़लों को समकालीन परिदृश्य से जोड़ कर राकेश जिस प्रतिरोधी स्वर के साथ सामने आते हैं वह अन्यत्र वायरल है. तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं राकेश जोशी की कुछ नयी ग़ज़लें.
    


राकेश जोशी की ग़ज़लें


1

इन ग़रीबों के लिए घर कब बनेंगे
तोड़ दें शीशे, वो पत्थर कब बनेंगे

कब बनेंगे ख़्वाब जो सच हो सकें
और चिड़ियों के लिए पर कब बनेंगे

बन गए सुंदर हमारे शहर सारे
पर, हमारे गाँव सुंदर कब बनेंगे

शर्म से झुकते हुए सर हैं हज़ारों
गर्व से उठते हुए सर कब बनेंगे

योजनाओं को चलाने को तुम्हारे
वो बड़े बंगले, वो दफ़्तर कब बनेंगे

आज तो संजीदगी से बात की है
अब ये सारे लोग जोकर कब बनेंगे

कब तलक कचरा रहेंगे बीनते यूं
तुम कहो, बच्चे ये अफ़सर कब बनेंगे


2

तेरी दावत में गर खाना नहीं था
तुझे तंबू भी लगवाना नहीं था

मेरा कुरता पुराना हो गया है
मुझे महफ़िल में यूं आना नहीं था

इमारत में लगा लेता उसे मैं
मुझे पत्थर से टकराना नहीं था

ये मेरा था सफ़र, मैंने चुना था
मुझे काँटों से घबराना नहीं था

समझ लेता मैं ख़ुद ही बात उसकी
मुझे उसको तो समझाना नहीं था

तुझे राजा बना देते कभी का
मगर अफ़सोस! तू काना नहीं था

छुपाते हम कहाँ पर आँसुओं को
वहाँ कोई भी तहख़ाना नहीं था

मुहब्बत तो इबादत थी किसी दिन
कभी ये जी का बहलाना नहीं था

जहाँ पर युद्ध में शामिल थे सारे
वहाँ तुमको भी घबराना नहीं था




3

दीवारों से कान लगा कर बैठे हो
पहरे पर दरबान लगा कर बैठे हो

इससे ज़्यादा क्या बेचोगे दुनिया को
सारा तो सामान लगा कर बैठे हो

दुःख में डूबी आवाज़ें न सुन पाए
ऐसा भी क्या ध्यान लगा कर बैठे हो

बेच रहा हूँ मैं तो अपने कुछ सपने
तुम तो संविधान लगा कर बैठे हो

हमने तो गिन डाले हैं टूटे वादे
तुम केवल अनुमान लगा कर बैठे हो

अपने घर के दरवाज़े की तख़्ती पर
अपनी झूठी शान लगा कर बैठे हो

ख़ूब अँधेरे में डूबे इन लोगों से
सूरज का अरमान लगा कर बैठे हो

जूझ रही है कठिन सवालों से दुनिया
तुम अब भी आसान लगा कर बैठे हो

कितने अच्छे हो तुम अपने बाहर से
अच्छा-सा इंसान लगा कर बैठे हो


4

या मकानों का सफ़र अच्छा रहा
या ख़ज़ानों का सफ़र अच्छा रहा

जो ज़ुबां लेकर चले थे, मिट गए
बेज़ुबानों का सफ़र अच्छा रहा

भूख के किस्से ग़रीबों ने सुने
दास्तानों का सफ़र अच्छा रहा

झुग्गियों में पल रही है सभ्यता
आसमानों का सफ़र अच्छा रहा

कुछ  बुझे चूल्हे बताते रह गए
कारख़ानों का सफ़र अच्छा रहा

मुश्किलें सारी पहाड़ों पर मिलीं
पर, ढलानों का सफ़र अच्छा रहा

था सफ़र नादान लोगों का कठिन
कुछ सयानों का सफ़र अच्छा रहा

पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां पूजी गईं
हुक्मरानों का सफ़र अच्छा रहा





5

फिर से हाथों में तुम्हारे हल तो हो
रास्ते में फिर कोई जंगल तो हो

फिर से नदियों में रहे पानी ज़रा
और तालाबों में कुछ दलदल तो हो

सर छुपाने के लिए धरती है गर
भाग जाने के लिए मंगल तो हो

जंग हो तो देर तक जारी रहे
पहलवानों में कभी दंगल तो हो

आज को जीने का कुछ मक़सद मिले
सामने कोई सुहाना कल तो हो

जेब में अपनी क़लम रखता हूँ मैं
जिससे मन में हौसला-सम्बल तो हो

सर्द रातों में न बाँटो आग पर
बाँटने को हाथ में कंबल तो हो

बंद हों चाहे यहां सब खिड़कियाँ
पर गली में एक सूखा नल तो हो

फिर से चिड़ियों को ज़रा डर तो लगे
आसमां में फिर कोई हलचल तो हो


6

कोई पानी नहीं रखता, कोई दाना नहीं रखता
मैं तेरी भूख के आगे, कोई खाना नहीं रखता

तुम्हारे कोसते रहने से दीवारें नहीं हिलतीं
तभी मैं भीड़ में लोगों का चिल्लाना नहीं रखता

मेरे भीतर की सारी आग बाहर से भी दिखती है
मैं अपने ख़ूब अंदर तक भी तहख़ाना नहीं रखता

मेरी ऊँची इमारत से नहीं है दोस्ती कोई
मैं इन कच्चे मकानों से भी याराना नहीं रखता

मुझे हारे हुए किरदार अब अच्छे नहीं लगते
तभी नाटक में उनका घाव सहलाना नहीं रखता

कहीं सूरज, कहीं बादल, कहीं चंदा, कहीं तारे
वो धरती के किसी कोने को वीराना नहीं रखता

तेरी-मेरी कहानी में जो फिर से लिख रहा हूँ मैं
तेरा आना तो रखता हूँ, तेरा जाना नहीं रखता

तुम्हें अब तो उदासी की ही धुन पर नाचना होगा
वो खुशियों से भरा कोई भी अब गाना नहीं रखता




7

बंदर खेतों को बंजर कर जाते हैं
लेकिन चिड़ियों के कतरे पर जाते हैं

जिन लोगों का सूरज धुँधला होता है
उन लोगों के सपने भी मर जाते हैं

उनका ही किरदार उन्हें तुम समझाओ
अपना क्या है, डरना है, डर जाते हैं

तुम बस अपना नाम डुबाकर मत जाना
पैसे तो सब लोग कमाकर जाते हैं

उन पौधों को अब भी पानी देता हूँ
जिनके पत्ते सावन में झर जाते हैं

ख़ूब उजाला करते हैं वो दुनिया में
ख़ूब अँधेरों से लेकिन भर जाते हैं

पिछली पीढ़ी वाले अगली पीढ़ी के
काँधे पर सारा बोझा धर जाते हैं

चूल्हा-चौका, खा़ली बर्तन, अंगारे
मिलते हैं जब शाम को वो घर जाते हैं


8

अगर अच्छा नहीं है
सफ़र अच्छा नहीं है

बहुत सहमे हुए हो
ये डर अच्छा नहीं है

वहाँ रहते हो फिर क्यों
जो घर अच्छा नहीं है

भले हैं लोग सारे
शहर अच्छा नहीं है

नसीहत का तुम्हारी
असर अच्छा नहीं है

वो अच्छा तो बहुत है
मगर अच्छा नहीं है

झुका रहता है हरदम
ये सर अच्छा नहीं है

फ़सल फिर से उगाओ
ज़हर अच्छा नहीं है

डराता है तुम्हारा
शहर अच्छा नहीं है


सम्पर्क:

डॉ. राकेश जोशी
असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला
देहरादून, उत्तराखंड

फ़ोन: 9411154939

ई-मेल: joshirpg@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

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