निकानोर पार्रा की कविताएँ (अनुवाद - श्रीकांत दुबे)



निकानोर पार्रा

पाब्लो नेरूदा के ही समकालीन कवि निकानोर पार्रा इक्कीसवीं सदी की एंटीपोएट्री अथवा प्रति-कविता नामक साहित्य आन्दोलन के सबसे प्रमुख स्वर माने जाते हैं। पार्रा और प्रति कविता आन्दोलन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी के साथ पार्रा की कविताओं का अनुवाद किया है युवा कवि श्रीकान्त दुबे ने। आज पहली बार प्रस्तुत है निकानोर पार्रा पर एक टिप्पणी और उनकी कविताएँ   
 


मेरे साथ ही खत्म हो गई कविता: निकानोर पार्रा



विभिन्न सिद्धांतों-दर्शनों के जरिए सृष्टि के क्रमिक विकास की प्रक्रिया का अध्ययन करते प्राय: यह देखने को मिलता है कि कोई एक सिद्धान्त जीव-जगत अथवा ब्रह्मांड आदि से जुड़े रहस्यों का समूचा उद्घाटन कर ही लेने वाला होता है कि एक नया सिद्धान्त वजूद में आ कर पिछली धारणा को ढेर सारे सवालों के हवाले कर अप्रासंगिक करार देता है। उदाहरण के तौर पर अरस्तू और टॉलेमी द्वारा पृथ्वी को ब्रह्मांड का स्थिर केंद्र मानते हुए शेष ग्रहों-उपग्रहों-तारों की गति और अवस्थिति को परिभाषित किए जाने का खंडन कर कॉपरनिकस ने पृथ्वी को स्वयं ही सूर्य के चारो ओर घूमने वाला पिंड बता दिया तथा सूर्य को स्थिर माना। इसी तरह आगे चलकर कॉपरिनिकस की स्थापना को भी खंडन का शिकार होना पड़ा। ग्रहों-उपग्रहों के उद्भव और विकास समक्ष यदि साहित्य के उद्भव पर विचार किया जाय, तो इस यात्रा की समूचा विस्तार नगण्य ही माना जाएगा। किंतु छोटे विस्तार की यात्रा होने के बावजूद साहित्य की सैद्धांतिकी में खंडन तथा पुनर्व्याख्या की घटनाएं किसी भी लिहाज से कम तादात में नहीं हुईं। काव्य, जिसे दुनिया की ज्यादातर सभ्यताओं में लंबे समय तक साहित्य का पर्याय माना जाता रहा है, के बारे में पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों, क्रमश: प्लेटो, अरस्तू तथा फिर सुकरात के मतों के विरोधाभास पर इस लिहाज से गौर किया जा सकता है। जबकि हमारे दौर की पारिस्थितिकी में उस दौर की तुलना में कई गुना अधिक रफ्तार से बदलाव हो रहे हैं, साहित्य की सैद्धांतिकी में बदलाव की रफ्तार करीब-करीब शून्य है। मेरा मानना है कि वर्तमान की पूर्ववर्ती दो सदियां इस लिहाज से सबसे अधिक गति वाली रही हैं। कविता से जुड़ी सैद्धांतिकी जिस दौर की कविता को सर्वाधिक विकसित स्वरूप वाली संपूर्ण कविता मानकर शिथिल होने लगी थी, कहना न होगा कि विश्व कविता में उस दौर के सबसे बड़े कवि पाब्लो नेरूदा ही हुए। पाब्लो नेरूदा बहुत ही कम समय में अपनी भाषिक सीमा को तोड़ समूचे विश्व के पसंदीदा कवि बन गए। नेरूदा मूलत: स्पैनिश भाषा के तथा चिली में जन्मे कवि थे। यहाँ एक और बात बताना जरूरी है कि चूंकि अधिकतम लैटिन अमेरिकी देश स्पैनिश उपनिवेश थे, इसलिए उनके रहन-सहन तथा संस्कृतियों में विलक्षण किस्म का एका देखने को मिलता है। बात यदि लैटिन अमेरिका के साहित्य की हो, तो न सिर्फ समूचे लैटिन अमेरिका बल्कि यूरोप के स्पेन और पुर्तगाल तक को मिला कर एक ईकाई के रूप में लिया जाना चाहिए। ऐसे ऊर्वर भौगोलिक फलक पर पाब्लो नेरूदा के ही समकालीन हुए निकानोर पार्रा। निकानोर पार्रा यानी इक्कीसवीं सदी की एंटीपोएट्री अथवा प्रति-कविता नामक साहित्यआन्दोलन के सबसे प्रमुख स्वर।



23 जनवरी 2018 को 103 वर्ष की आयु पूरी कर निकानोर दुनिया से विदा हो गए। उनका जन्म 05 सितंबर सन् 1914 को चिली के चिलान नगर में अनेक फनकारों वाले नामचीन पार्रा परिवार में हुआ था। उन्होंने चिली के सांतियागो, अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी तथा इंग्लैंड के ऑक्‍सफोर्ड विश्वविद्यालयों में गणित और भौतिकी का गहन अध्ययन-अध्यापन किया तथा अपने समय के अग्रणी गणितज्ञ-भौतिकविदों में शुमार हुए। सन् 1952 से 1991 तक वे चिली विश्वविद्यालय में सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफेसर रहे। लेकिन निकानोर पार्रा की वृहत्तर पहचान उनकी इस वृत्ति और विशेषज्ञता से अलग, एक कवि के रूप में हुई, जिसे उन्होंने बाद में प्रति-कवि अथवा एंटीपोएट नाम देना पसंद किया। प्रति-कविता अथवा एंटीपोएट्री की राह पर आगे बढ़ने के क्रम में पार्रा ने, हालांकि, कविता के बारे में रूढ़ ढेर सारी मान्यताओं का बेबाक तरीके से खंडन किया, लेकिन खुद के ही किसी काम अथवा धारणा के गलत प्रतीत होने पर उसे गलत कहने का साहस भी उनमें था। इसीलिए वे खुद के लिखे हुए से असहमत होने पर 23 वर्ष की उम्र में लिखी अपनी ही पहली किताब कांसिओनेरो सिन नोंब्रे (बिना नाम की गीतमाला) को अंगीकार करने से इनकार कर दिया तथा घोषणा कर दी कि इसे निकानोर पार्रा की किताब के रूप में न लिया जाए। उनकी मैं अपना कहा सब कुछ वापस लेता हूँ शीर्षक वाली कविता भी इस लिहाज से उल्लेखनीय है। एक अंश देखें:





हो सकता है कि मैं इससे अधिक भला न ही होऊं

लेकिन मेरे इन आखिरी शब्दों पर गौर करें:

मैं अपना कहा सब कुछ वापस लेता हूँ।

दुनिया में संभव अधिकतम उदासी के साथ

मैं अपना कहा सब कुछ वापस लेता हूँ।



हालांकि, जैसा कि अपने फन की परंपरा में बड़ा परिवर्तन लाने वाले हरेक फनकार के साथ होता है, उनकी पहली पुस्तक में प्रसंग के अनुसार अप्रासंगिक लगने वाली भाषा, जन-व्यवहार में रूढ़ हो चुकी उक्तियों के धड़ल्ले से प्रयोग तथा मनमौजी और विनोदपूर्ण लहजे आदि की प्रचुरता को आसानी से लक्ष्य किया जा सकता है, जो आगे चल कर प्रति-कविता की मूल विशेषताएं साबित हुईं। सन् 1937 में छपी निकानोर पार्रा की इस किताब पर फेदेरिको गार्सिया लोर्का का बहुत ही गहरा प्रभाव देखा जा सकता था। बाद में भले ही उन्होंने इस किताब को खुद से अलग घोषित कर दिया, लेकिन बतौर कवि उन्हें शुरुआती पहचान दिलाने में उसकी भूमिका बहुत महती रही। इस किताब के प्रकाशन के अगले ही वर्ष उन्हें सांतियागो नगरपालिका द्वारा म्‍यूनिसिपैलिटी प्राइज फार पोएट्री दिया गया। पाब्लो नेरूदा से भी उनकी पहली मुलाकात उन्हीं दिनों हुई थी।


सन् 1954 में उनकी दूसरी किताब कविता और प्रति-कविता (पोएमास ई आंतीपोएमास) प्रकाशित हुई, जिसने कविता की वैचारिकी से जुड़ी दुनिया में भूचाल ला दिया। पार्रा की प्रति-कविता को शुरूआत में आलोचकों ने किसी आन्दोलन की तरह देखने की बजाय प्राय: उसे ध्यान देने योग्य तक नहीं माना तथा उसे ‘काव्येतर प्रयास (Non Poetic Effort) करार दिया, लेकिन फिर धीरे-धीरे उसकी स्वीकार्यता बढ़ती गई। कई बार चुभने वाली तथा सुस्पष्ट भाषा में लिखी निकानोर पार्रा की इन कविताओं ने दैनंदिन के विद्रूप को अक्सरहा जस का तस तथा उसकी विडंबनाओं समेत दर्शाया। सन् 1958 में पार्रा की तीसरी (खुद पार्रा के अनुसार दूसरी) किताब ला कुएका लार्गा (लंबी देर का नृत्य) नाम से छपी, जिसमें उन्होंने चिली के निचले तबके की आबादी के व्यवहार वाली भाषा का समावेश कर उनके हिस्से की दुनिया के विद्रूप को निशाना बनाया। यह किताब प्रति-कविता की राह से उनके भटकाव के लिए चर्चा में रही, क्योंकि इसमें दुबारा से लोकप्रिय कविता की झलक मिलने लगी थी। साथ ही, इस सीमा तक की उनकी कविताओं में नास्टेल्जिया के फार्म वाली रूमानियत भी यदा-कदा नमूदार हो जाती थी। यहाँ तक आते-आते वे न सिर्फ लैटिन अमेरिकी कविता के प्रतिनिधि स्वर के रूप में स्थापित हो चुके थे, बल्कि उनके रचे को आधार बना समीक्षकों के बीच प्रति-कविता की तकनीक के बारे में गहन विमर्श तक शुरू हो चुका था। सन् 1962 में बेर्सोस दे सालोन (दीर्घा की कविताएं) नाम वाली चौथी किताब के प्रकाशन के साथ उन्हें प्रति-कविता की जमीन पर वापस लौट आते पाया गया। इस दरम्यान वे न सिर्फ अकादमिक कार्यक्रमों बल्कि साहित्यिक आयोजनों के चलते भी लैटिन अमेरिका के विभिन्न  देशों समेत अमेरिका, यूरोप तथा सुदूर के एशियाई देशों की यात्राएं करते रहे। लेकिन इन सब से उनकी कविता की ऊर्वरा पर कोई भी नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा तथा बीच में छपे कुछ छोटे काव्य-संकलनों को खुद में समेटे ओब्रा ग्रुएसा (वृहत् संग्रह) नामक संकलन सन् 1969 में प्रकाशित हुआ। ओब्रा ग्रुएसा में निकानोर पार्रा की पहली पुस्तकांसिओनेरो सिन नोंब्रे को छोड़ उनकी तब तक समस्त कविताओं का समावेश था। निकानोर पार्रा के भीतर के असंतोष को इस संकलन में गद्यात्मक भाषा की भरमार में देखा जा सकता है। इसमें पिष्ठोक्तियों (Cliché) और व्यंगपूर्ण प्रयोग की भी प्रचुरता है।


इस बीच, निकानोर पार्रा की कविताई पर बात के दौरान बार-बार आ रहे भाषा के विभिन्न  प्रयोग के जिक्र से इस निष्कर्ष पर पहुचना कतई गलत होगा कि पार्रा की कविता महज़ वाग्‍जाल की कविता है। इस बात की जांच के लिए कविताओं के अनुवाद का इस्तेमाल एक पैमाने की तरह किया जा सकता है। क्योंकि वाग्‍जाल के अनुवाद से हमें महज वाग्‍जाल ही प्राप्त होता है। लेकिन पार्रा का अनुवाद करते समय बतौर अनुवादक भी हमारे पास भाषा को घुमाने-फिराने की गुंजाइश बहुत कम बचती है तथा कई बार अपनी भाषा में अर्थ का अंतरण करने के लिए शब्द: अनुवाद भर पर्याप्त हो जाता है। इसका उदाहरण निरपवाद रूप से पार्रा का समूचा काव्यकर्म है।


सन् 1972 में आर्तेफाक्‍तोस (शिल्पकृति) नाम से प्रकाशित संकलन में निकानोर नई किस्म के प्रयोग के तौर पर पोस्टकार्ड शिल्प वाली संक्षिप्त कविताएं लिखते नजर आए। इसमें पुन: भाषा को उसके सामाजिक और दार्शनिक प्रभाव से अलग न होने देते हुए उसके सरलतम रूप में बरता गया है। हालांकि इस तरह की कविताओं को वे सन् 1967 से ही लिखना शुरू कर दिए थे। इस मुकाम के बाद निकानोर पार्रा की रचनाधर्मिता में दूसरे नए प्रयोग के आग्रह की बजाय एकरूपता दिखाई देती रही, जिसकी मूल प्रकृति को ही प्रति-कविता की आत्मा माना जाता रहा है। उनकी अगली प्रमुख किताबें 1977 में छपी सेर्मोनेस ई प्रेदिकास दे क्रिस्तो दे एल्की’ (एल्की के ईशा के उपदेश और प्रवचन), 1985 में प्रकाशित ओखास दे पार्रा (पार्रा की शाखाएं)[1], 1997 में प्रकाशित दिस्‍कुर्सोस दे सोब्रेमेसा (रात्रिभोज के बाद का विमर्श) आदि रहीं। इसके अलावा भी उनकी विभिन्न  कविताएं और गद्य अनेक अलग-अलग शीर्षकों से प्रकाशित होते रहे। अपनी लंबी रचना यात्रा के दौरान निकानोर पार्रा कुल चार बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामित हुए। लेकिन सन् 2011 में उन्हें स्पैनिश साहित्यजगत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित सेर्वांतेस पुरस्का से सम्मानित किया गया।


निकानोर पार्रा ने वर्षवार दीर्घतर तथा कृतिवार समृद्धतर अपने जीवन में अनेक सीमाओं का अतिक्रमण किया। उनके वहाँ यह अतिक्रमण रचनाशीलता के उद्देश्य, शिल्प और रूप विन्यास आदि से कहीं आगे तक जाता है। अभिव्यक्ति के आवेग में अनेक बार अपनी मूल भाषा ‘स्पैनिश’ का मोह छोड़ वे अंग्रेजी और फ्रेंच तक के शब्द और वाक्य अपनी कविता में झोंक देते हैं। कभी-कभार तो पूरी की पूरी कविता ही अंग्रेजी में। देखिए:


Poetry
the illegitimate child
of Mrs. Reason
& MISTER MYS(T)ERY[2]


प्रति-कविता नाम वाले एक साहित्यिक आन्दोलन के प्रमुख स्वर के रूप में निकानोर पार्रा के बाद अब थोड़ी सी बात स्वतंत्र रूप से प्रति-कविता पर भी। कुछ विद्वानों का मानना है कि प्रति-कविता आन्दोलन का प्रवर्तन करने वाले कवि निकानोर पार्रा न हो कर चिली के ही एक अन्य प्रसिद्ध कवि बिसेंते उइदोब्रो थे। यूँ तो बिसेंते उइदोब्रो ने साहित्य के एक अन्य आन्दोलन सृष्टिवाद (Creationism) की अगुवाई की थी, लेकिन कविता को लेकर उनके विचार काफी हद तक प्रति-कविता की वैचारिकी से मेल खाते हैं। वे कविता को ऐसी अनोखी चीज के रूप में देखते थे, जो रचनाकार द्वारा खुद (कविता) के लिए लिखी जाती है- जिसका उद्देश्य न तो किसी अन्य की प्रशंसा करना होता है, न पाठक को खुश करना और न ही खुद रचनाकार द्वारा समझा जाना। वे अपनी एक रचना मानीफेस्तो ताल बेस (लगभग घोषणा) में कहते हैं- कविता को सबसे बड़ा खतरा कवित्व’ से है। लेकिन चूंकि किसी भी आन्दोलन के पीछे वैचारिकी की एक चुपचाप परंपरा काम करती रहती है, इसलिए प्रति-कविता आन्दोलन की जड़ों को बिसेंते उइदोब्रो से भी पहले के वक्त में खोज लिया जाना किसी अचरज की बात न होगी। तो इस क्रम में एक और नाम आता है पेरू के कवि एनरिके बुस्‍तामेंते बायिवान का जिन्होंने सन् 1926 में प्रति-कविता (आंतीपोएमास) नामक पुस्तक प्रकाशित कराई थी। बिसेंते उइदोब्रो ने सन् 1938 में खुद की लिखी प्रति-कविता से ही आधुनिक कविता की शुरुआत को स्वीकार किया। सन् 1962 में यह कहते हुए कि मेरे ही साथ खत्म होती है कविता निकानोर पार्रा ने भी कुछ उसी तरह की घोषणा की। निकानोर का मेरे साथ ही खत्म हो गई कविता कहना बिसेंते उइदोब्रो द्वारा इंगित उस कवित्व’ वाली कविता के अंत तथा सपाट भाषा में खरी बात कहने वाली प्रति-कविता की शुरुआत की ओर इशारा था। इस बात को पार्रा ने एक और बार कुछ इस तरह कहा:


कविता को ले कर माथापच्ची बंद हो
इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह अच्छी है या बुरी
सच यह है कि कविता अब कोई नहीं पढ़ता।


प्रति-कविता की वैचारिकी से इत्तेफाक रखने वाले पाब्लो गार्सिया इस विषय पर अपनी एक किताब में कहते हैं: प्रति-कविता आन्दोलन का मकसद रूपकों के खिलाफ जंग, बिंबों की विदाई तथा वास्तविक तथ्य एवं वस्तुत्य की चिर-स्थापना है। प्रति-कविता की एक प्रमुख पहचान यह भी है कि वह कहे जाने वाले विषय के अनुसार भावनात्मक स्तर पर भाषा के अलग-अलग रंग न धरते हुए प्रत्येक जगह पर निरपेक्ष दिखाई देती है। इसीलिए प्रति-कविता के ज्यादातर उदाहरणों में हमें रूखे गद्य सरीखी भाषा देखने को मिलती है।


जाहिर तौर पर, कविता की जिन प्रवृत्तियों पर प्रहार के उद्देश्य के लिए प्रति-कविता आन्दोलन का आविर्भाव हुआ था, उस वक्त उसके सबसे मुखर स्वर के तौर पर पाब्लो नेरूदा स्थापित थे तथा जिसके लिए उन्हें 1971 में नोबेल पुरस्कार भी दिया जा चुका था। यही कारण है कि कविता बनाम प्रति-कविता की हरेक बहस नेरूदा बनाम पार्रा का रूप धर लेती रही है। कविता और प्रति-कविता की तुलना के ऐसे ही एक प्रयास में अर्जेंटीना के प्रसिद्ध लेखक-समीक्षक रिकार्दो पिग्लिया ने लिखा, नेरूदा विशिष्ट घटनाओं वाले दिनों के कवि हैं, जबकि पार्रा किसी भी आम दिन के कवि। रिकार्दो पिग्लिया का यह कथन निकानोर पार्रा की कविता (यानी प्रति-कविता) के स्वरूप से ले कर गंतव्य तक के मार्ग का मोटे तौर पर अंदाजा दे जाता है। पाब्लो नेरूदा के पास कल्पना की जितनी ऊंची उड़ान है निकानोर पार्रा के पास गोचर जगत की आमफहम चीजों का उतना ही सपाट बयान। पाब्लो नेरूदा के पास जहाँ चुने हुए शब्दों से रचा एक यूटोपियन रूमानी संसार है, निकानोर के पास उतनी ही शुष्क मितभाषिता से वर्णित रूखा-पथरीला यथार्थ।


साहित्य में कविता का मतलब सिर्फ कविता हो अथवा केवल प्रति-‍कविता, इस बहस से पेश्‍तर मेरी राय में दोनों ही का स्वीकार है। हाँ, कविता के भीतर के पारिभाषिक ‘काव्य तत्वों’ के समावेश वाली कविताई की वाहवाही और हो हल्ले के माहौल में यकीनन यह जरूरी हो जाता है कि प्रति-कविता का अध्ययन भी कविता की एक उतनी ही जरूरी प्रवृत्ति के रूप में हो, जितना कविता के मामले में होता आया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो नेरूदा को जानने वाला विश्व पार्रा को भी क्यों न जाने। मेरा यह उपक्रम इस महती लक्ष्य की ओर जाने के लिए उठाया गया एक कदम भर है। खास तौर पर तब, जब हिंदी भाषी समाज सरीखे समाजों तक दुनिया के अनेक हिस्सों की खूबियां (अंग्रेजी के वर्चस्व वाली) विश्वव्यापी भाषिक राजनीति के कारण नहीं पहुंच पातीं। ऐसे में मूलत: स्पैनिश भाषा के साहित्य में शुरू प्रति-कविता नाम के इस महती आन्दोलन के इस संक्षिप्त परिचय के साथ इसके प्रतिनिधि कवि निकानोर पार्रा की ग्यारह कविताओं के मूल स्पैनिश से किए अनुवाद यहां प्रस्तुत हैं।





निकानोर पार्रा की कविताएँ 

(अनुवाद : श्रीकान्त दुबे)


महंगाई


रोटी की महंगाई के चलते रोटी और महंगी हुई जाती है
किराये के बढ़ते जाने से
शुरू होता है हर तरह के करों के बढ़ते जाने का सिलसिला
पहनने के कपड़ों की महंगाई के चलते
और महंगे हुए जाते हैं कपड़े
घिरते जाते हैं हम एक पतित घेरे में
अनवरत
भोजन बंद है एक पिंजरे के भीतर।
थोड़ा ही सही, लेकिन भोजन है।
उसके बाहर देखें तो हर तरफ सिर्फ आजादी ही आजादी है।



एक तात्कालिक ट्रेन की योजना

 
                                            (सांतियागो और पुएर्तो मोंत के बीच)

 
तत्काल की उस ट्रेन में
इंजन खड़ा होगा गंतव्य (मोंत पुएर्ता) पर    
और उसकी आखिरी बोगी
सफ़र के प्रस्थान बिन्दु (सांतियागो) में होगी
इस की ट्रेन का फायदा यूं होगा
कि यात्री पुएर्तो मोंत ठीक उसी क्षण पहुंच जाएगा
जब वह चढ़ेगा सांतिआगो में
ट्रेन की आखिरी बोगी में
आगे सिर्फ इतना करना होगा
कि ट्रेन के भीतर ही टहलना होगा
साजो सामान के साथ
जब तक कि पहली बोगी न आ जाए


एकबार इस प्रक्रम के पूरा हो जाने पर
उतरा जा सकेगा ट्रेन से
जो कि हिली तक नहीं है
पूरे सफर में


नोट: इस तरह की ट्रेन
बस एक ही ओर की यात्रा के लिए होगी।



कोई मेरे पीछे


मेरे दाहिने कंधे के ऊपर से झांक कर
मेरा लिखा हरेक हर्फ पढ़ता है
मेरी दुश्वारियों पर हँसता है बेशर्मों सरीखा
लबादे वाली कोट पहने और छड़ी थामे एक शख्स

मैं पलट कर देखता हूँ तो कोई नहीं मिलता
हालांकि मुझे मालूम है कि मेरी जासूसी हो रही है।

 

 

 

पहले सब कुछ भला दीखता था


पहले सब कुछ भला दीखता था
अब सब बुरा लगता है

छोटी घंटी वाला पुराना टेलीफोन
आविष्कार की कुतूहल भरी खुशियां देने को
काफी होता था
एक आराम कुर्सी - कोई भी चीज

इतवार की सुबहों में
मैं जाता था पारसी बाजार
और लौटता था एक दीवार घड़ी के साथ
-
या कह लें कि घड़ी के बक्से के साथ -
और मकड़ी के जाले सरीखा
जर्जर सा विक्तोर्ला (फोनोग्राम) ले कर
अपने छोटे से रानी के घरौंदेमें
हाँ मेरा इंतजार करता था वह छोटा बच्चा
और उसकी वयस्क मां, हाँ की

खुशियों के थे वे दिन
या कम से कम रातें बिना तकलीफ की।



एक अजनबी के लिए ख़त



 
जब गुजर जाएंगे साल,
साल जब गुजर जाएंगे और
हवा बना चुकी होगी एक दरार
मेरे और तुम्हारे दिलों के बीच;
जब गुजर जाएंगे साल और रह जाउंगा मैं
सिर्फ एक आदमी जिसने मोहब्बत की,
एक नाचीज जो एक पल के लिए
तुम्हारे होठों का कैदी रहा,
बागों में चल कर थक चुका एक बेचारा इंसान मैं,
पर कहाँ होगी तुम?
, मेरे चुंबनों से रची बसी मेरी गुड़िया!
तुम कहाँ होगी?


मैं अपना कहा सब कुछ वापस लेता हूँ


अलविदा कहने से पहले
मुझे हक मिले अपनी आखिरी ख्वाहिश का:
प्रिय पाठक
         इस किताब को अब आग के हवाले कर दें
मैं जो कुछ भी कहना चाहता था इसमें वैसा कुछ भी नहीं लिखा है
यद्यपि लिखा हुआ यह सब सिंचित है मेरे गाढ़े रक्त से
मैं जो कुछ भी कहना चाहता था इसमें वैसा कुछ भी नहीं लिखा है।

इससे बुरी और क्या हो सकती थी मेरी गति
कि मैं परास्त हुआ अपनी ही परछाई से:
शब्दों ने मुझसे प्रतिशोध ले लिया।


मुझे माफ करना मेरे पाठक
मेरे प्रिय पाठक,
कि मैं गर्मजोशी भरा आलिंगन दिए बगैर
विदा हो रहा हूँ आप सब से:
विदा लेता हूँ मैं आपसे
उदासी भरी इस सायास मुस्कान के साथ।


हो सकता है कि मैं इससे अधिक भला न ही होऊं
लेकिन मेरे इन आखिरी शब्दों पर गौर करें:
मैं अपना कहा सब कुछ वापस लेता हूँ।
दुनिया में संभव अधिकतम उदासी के साथ
मैं अपना कहा सब कुछ वापस लेता हूँ।



मर जाएगी कविता


कविता
मर जाएगी
अगर
उसे
तकलीफ न दो


ले कर के
गिरफ्त में, तोड़ना होगा
उसका दर्प सरेआम


फिर दिखेगा
क्या करती है वह।

प्रश्न और उत्तर 


क्या आपको लगता है
कि यह जांच लेने के बाद कि ईश्वर दुनिया को
व्यवस्थित कर पाता है कि नहीं
उसका अंत कर देना उचित होगा?
-   मेरा मानना है - हाँ।
-    

क्या किसी ऐसा विचार के लिए
जिंदगी से खेल जाना सही रहेगा
जो पूरी तरह खोखला निकले?
-   मेरा मानना है - हाँ।
-    

मैं पूछता हूँ कि क्या
केकड़ों तक का आहार कर लेते हुए भी
उन बच्चों को पालने-पोसने के कोई मायने हैं
जो अपने से बड़ों के विपरीत जाते रास्ते चुन लेते हों?
-   जाहिर तौर पर हाँ
क्या नहीं?
क्या इसका कोई मायने नहीं होता?
मैं पूछता हूँ कि
एक सीडी चलाने के
किसी वृक्ष के अध्ययन के
कोई किताब रखने के कुछ मायने हैं क्या?
यदि हरेक चीज का क्षय ही हो जाना है
यदि कोई भी चीज टिकाऊ नहीं है
-   फिर तो शायद यह सब अनुचित है
-   विलाप बंद किए जाएं
- हास्यास्पद है यह सब
- कोई पैदा ही न हो
    - अब मैं मर रहा हूँ।



स्‍वेच्‍छा से किए जाने वाले सात काम तथा एक बगावती हरकत


1.
कवि किसी झील में पत्थर फेंक
वृत्ताकार अपकेंद्री लहरों को जन्म दे

2.
कवि एक कुर्सी का सहारा ले ऊपर उठे
और लटकने वाली घड़ी की रस्सी बन जाए

3.
गीतकार कवि फूलों से लदे चेरी वृक्ष के समक्ष
घुटनों के बल बैठ जाए
और ईश्वर की प्रार्थना का गायन शुरू कर दे

4.
कवि गोताखोर की पुशाक धारण कर ले
और पार्क के बीच किसी पोखर में गोते लगाए

5.
कवि छाते की मूठ थामे
दिएगो पोर्तालेस टॉवर के अंतिम माले से
हवा में छलांग लगा दे

6.
कवि निविड़ एकांत के स्तूप में अपनी मोर्चाबंदी कर ले
और वहीं से चलाए राहगीरों पर जहर बुझे तीर

7.
अभिशप्त कवि
पत्थरों से परिंदे उड़ा अपना मन बहलाए

बगावती हरकत


कवि अपने वतन के प्रति कृतज्ञता स्वरूप
अपनी शिराएं काट डाले।


टेस्ट


प्रति-कवि कौन होता है?
कफन और भस्म-कलश बेचने वाला कोई व्यवसायी?
कोई पादरी जिसे किसी पर भी यकीन न हो?
कोई सैन्यजनरल जिसे खुद को लेकर ही संदेह हो?
कोई आवारा जो हर चीज को हंसी में उड़ा देता है
हाँ तक कि बुढ़ापे और मृत्यु को भी?
कोई बुरे आचरण वाला संवादी?
गहरी खाई के छोर पर नाचता कोई नर्तक?
कोई सनकी जिसे समूचे विश्व से प्यार हो?
जानबूझकर दयनीय बना हुआ
कोई रक्तरंजित जोकर?
कुर्सी पर आराम फरमा रहा कोई कवि?
आधुनिक समय का कोई कीमियागर?
कोई आरामतलब क्रांतिकारी?
कोई छोटा-मोटा सामंत?
कोई फरेबी?
  अथवा कोई देवता?
       अथवा एक मासूम?
चिली का कोई ग्रामीण?
उपरोक्‍त में से सही वाक्य को रेखांकित करें।

प्रति-कविता क्या है?
चाय की प्याली में समा सकने वाला कोई अंधड़?
चट्टान पर चिपका कोई बर्फ का चकत्ता?
मनुष्य के मैले से भरा कोई ट्रे
जैसा कि फादर सेल्वातिएर्रा का विश्‍वास है?
सच बोलने वाला कोई आईना?
लेखकों की मंडली के अध्यक्ष के मुंह पर
एक तमाचा?
(ईश्वर उसकी आत्मा को अपनी शरण में ले)
युवा कवियों को दी जाने वाली कोई चेतावनी?
बहिर्गामी कफन?
केंद्राभिसारी कफन?
पैराफिन की गैस का कफन?
बिना लाश के जल रहा कोई मुर्दाघर?

उपरोक्त में से सही परिभाषा को
एक क्रॉस से चिह्नित करें।



वे रहे  हू ब हू वैसे ही जैसे वे थे


उन्होंने चांद को पूजा - लेकिन थोड़ा कम
उन्होंने टोकरियां बनाईं लकड़ियों की
गीत और धुनों से खाली थे वे
खड़े खड़े किए बेलौस प्यार
अपने मृतकों को दफनाया भी खड़े ही
वे रहे, हू ब हू वैसे ही, जैसे वे थे।



[1] स्थानीय भाषा में पार्राका अर्थ लता अथवा बेल भी होता है, उन्‍होंने अपने उपनाम के इस अर्थ का प्रयोग किताब के शीर्षक के लिए किया।
[2] निकानोर पार्रा की असंपादित कविताओं के संकलन से उद्धृत

श्रीकांत दुबे



सम्पर्क 

श्रीकान्त दुबे

मोबाईल : 08744004463

(निकानोर पार्रा की तस्वीर गूगल के सौजन्य से ली गयी है जबकि शेष पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
(पोस्ट पल प्रतिपल के अंक से साभार)  

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-10-2018) को "माता के नवरात्र" (चर्चा अंक-3120) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'