मधुमिता की कविताएँ
हरेक पितृसत्तात्मक समाज की एक बड़ी दिक्कत यह होती है कि वह अपने समाज में स्त्रियों
को उतनी स्वतन्त्रता नहीं दे पाता जिसकी वे हकदार होती हैं। पुरुष समाज उन पर इतने
प्रतिबन्ध आरोपित कर देता है कि वे उससे उबर नहीं पातीं। ऐसे समाज में स्त्रियों
की स्थिति प्रायः दोयम दर्जे की होती है। इस स्थिति से उबरने के लिए स्त्रियों को खुद
संघर्ष करना होता है। यानी कि अपनी लडाई खुद लड़नी होती है। यह सुखद है कि आज के साहित्यिक
जगत में स्त्रियाँ अपनी बातों, परेशानियों और तकलीफों को खुल कर अपनी रचनाओं में
व्यक्त कर रही हैं। साहित्य में आज जितनी स्त्री उपस्थिति पहले कभी नहीं थी। कविता
की दुनिया में अभी बिल्कुल नयी मधुमिता की रचनाओं में स्त्री स्वर मुखर रूप में
दिखायी पड़ता है। मधुमिता लिखती हैं – “नियम अपने साथ/ एक नहीं/ दो नहीं/ तीन भी
नहीं/ कई नियमों को समेटे रहता है/ और बात अगर लड़की की हो/ तो फिर नियम भीतर नियम।”
आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं मधुमिता की कविताएँ।
मधुमिता की कविताएँ
मशीनी मानुष
कितना
सार्थक आज यह विकास
जिसमें
निरर्थक हो रहे लोगों के आस
कितना ख़ास
होता था वह दिन
जब कोई किसी
को नहीं समझता था हीन
कितना अजीब
आ गया है वक़्त
लोग मशीन की
तरह हो गये है सख्त
कैसे
रिश्तों का निर्माण कर रहे हैं हम
जहाँ अपने
मन की बात
दूसरे मन तक
पहुँचाने में तो झिझकते है
पर अपने प्रेम और क्रोध को
व्हाटसाप्प
पर अपडेट करने से तनिक भी नहीं हिचकते
वह दौर ही
कुछ और था
जब लोग
एक-दूसरे को समझते थे ख़ास
आज तो हर
कोई है एक-दूजे से निराश
व्यक्ति ‘वह’ खिलौना बन गया है
जिसने अपने
जीवन का रिमोर्ट कंट्रोल सौप दिया है किसी ‘एक हाथ’ में
अपने जीवन
की ‘एकमात्र’ उम्मीद में
‘उस’ उम्मीद के भंग होते ही
बिखर जाते
है उसके विश्वास के एक-एक यन्त्र
और तब सब कुछ हो जाता
है खाली-खाली
जैसे बिना बगिए
का माली
जिंदगी और सवाल
जिंदगी के
सवालों से जूझते हुए
मैं बड़ी हो
गयी
एक सुलझा
दूसरा उलझा
उलझे को
सुलझाते हुए
सुलझाने के
प्रक्रम में उलझते हुए
मैं बढ़ती
रही
बड़ी होती
रही
अब मैं बढ़ना नहीं चाहती
ठहरना चाहती
हूँ
सुलझे-उलझे
सवालों के पंक्तियों को सूक्ष्मता से
देखना और
समझना चाहती हूँ
शान्ति से
निश्चिंतता
से
दबोचना
कितना आसान
हो गया है न
यह दबोचना
बड़ा आदमी
छोटे आदमी को
अमीर गरीब
को
बड़ी गाड़ी
छोटी गाड़ी को
शिक्षक
विद्यार्थी को
ज्ञानी
अज्ञानी को
पुरुष
स्त्री को
बड़ा पशु
छोटे पशु को
बड़े
व्यापारी छोटे व्यापारी को
और राजा प्रजा को
पहले दबाता
है
फिर खुद ऊँचा
उठ जाता है
सुकून भरी
साँस लेता है
और गहरी
नींद में खो जाता है
इस
निश्चिंतता के साथ
कि आखिर
दबोच लिया उसने
किसी के
सपने को
ख्वाब को
आत्मा को
सम्मान को
आबरू को
भूख
छोड़ो
लिखना भूख-भूख
और
चिल्लाना तो बिल्कुल नहीं भूख-भूख-भूख
अगर
सर्वेश्वर होते
तो क्या कह पाते कि भूखा मनुष्य
सबसे
सुन्दर होता है?
नहीं, बिल्कुल
नहीं
खौफ़नाक हो गया है भूखा व्यक्ति
बेहद
खौफ़नाक
क्योंकि बदल दिये है तुमने अब
भूख के
मायने
हावी है
तुम पर पेट के भूख की अपेक्षा
स्त्री
जिस्म की भूख
इस
शारीरिक भूख की पेट निरन्तर बढ़ रही है
जिसके लिए
कोई सौ साल की वृद्धा हो
या तीन साल की बच्ची
कोई कैंसर पीड़िता हो,
कोई गरीब या लाचार लड़की
और अंधकार
होते ही बहन या माँ
को भी
लीलने को तत्पर ये भूख
तुम चुप
हो
और मुझे
मालूम है इसका कारण
तुम आदि
हो गये हो
बारम्बार इस भूख को
देखने के
सुनने के
तो कभी 'स्वयं' के भूख
मिटाने को
घोट लिया
है इसने तुम्हारी संवेदना को
और निरस्त
कर दिया है तुम्हें
तुम्हारी अपनी भूख ने।।।
सत्य
जिसका रूप
मुझे क्रूर लगता है
और रंग
कुछ हरी-काली सी
शायद काई
के रंग सा
जिस पर जब-जब
पैर रख कर चलने की कोशिश की
कहीं दूर
बहुत दूर
झिटक कर फेंक दी गई
प्रकृति वीभत्सम
रस से सराबोर
खून के छीटों
से निर्मित प्रवृत्ति
हाँ, मुझे
नहीं दिखता कोई सत्य
कहीं नहीं
और ना ही
सच्चा मनुष्य।
सोचा था
थाम कर चलूँगी
ऐ सत्य!
तेरा ही
दामन
पर जब-जब
तेरे करीब गई
खुद को
खुद से बहुत दूर पाती गई
विश्वास
टूटते गए
रिश्ते
छूटते गए
तथाकथित
परिभाषाएँ बदलती गई
और मैं
तुझसे दूर
बस दूर
होती चली गई।
नियम भीतर नियम
नियम अपने
साथ
एक नहीं
दो नहीं
तीन भी
नहीं
कई नियमों
को समेटे रहता है
और बात
अगर लड़की की हो
तो फिर
नियम भीतर नियम
अधिक न
पढ़ने के नियम
अगर पढ़
गयी
तो कम
बोलने के नियम
कम बोलो
तो धीमे
बोलने के नियम
धीमे बोलो
तो
विचारों को न रखने के नियम
अगर विचार
दे दिए
तो
अधिकारों की बात न करने के नियम
देर रात
से घर लौटने के नियम
लड़कों से
बात करने के नियम
पहनने के
नियम
खाने के
नियम
उठने और
बैठने के नियम
पढ़ने के
नियम
परिवार के
नियम
प्रेम के
नियम
सोचने-समझने
के नियम
विवाह के
नियम *
जीवन के
नियम
सच कहूँ
तो लड़की का होना ही नियम
और इस
नियम को पुरुषवादी मानसिकता द्वारा बनाने का नियम
तुम
तुम्हारा
वह सीधा-साधा स्वभाव
मुझे भाता
गया
तुम्हारी
वह सहजता
मुझे लुभाती
गयी
तुम्हारा
वह अपनापन
मुझे अपना
बनाता गया
तुम्हारी
वह गहरी आँखे
जिनमें
मैं डूबती गयी
तुम्हारे
लबों की आवाज
मैं बनती
गयी
तुम्हें
पा कर खोने के एहसास से भरती गयी
पता नहीं
कब, कहाँ और
कैसे
तुम्हारी
बनती गयी
और
तुम्हें अपना बनाती गयी
आज़ादी
जपो
अगस्त के
पंद्रहवें तारीख को
खूब जपो
आज़ादी-आज़ादी
और आजादी
के आलाप
स्वर-स्वर
आज़ादी
भर-भर
आज़ादी
धमनियों
को तरंगित करती आज़ादी
पर किसकी
कितनी
और कैसी
आज़ादी?
क्या उस
स्त्री की
आजादी के
दिन पूछती
बंधन से
मुक्ति की आज़ादी
या है
थकते पावों को
रूक कर
सुस्ताने की आज़ादी
बाहरी या
भीतरी आज़ादी
पत्थरनुमा
कवच के भीतर
घूंट
-घूंटकर
चीखों को
सिलती आज़ादी?
पर दी है 'आज़ादी '!
क्या खूब
की आज़ादी
तालें
हमें दे दी
और
चाभियां खुद रख ली
और बांट
दी आज़ादी
पर कैसी
आज़ादी??
हमारी या
तुम्हारी आज़ादी?
बोलने या
सिर्फ सुनने की आज़ादी?
क्या है
आज़ादी के चादर तले
कोई भी
आज़ादी???
पर हम
आज़ाद है
इसीलिए
चिल्लाते रहे
गुनगुनाते
रहे
ताउम्र
आज़ादी
-आज़ादी
|
(मधुमिता प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय, कोलकाता की शोध छात्रा हैं.)
मधुमिता |
सम्पर्क
SHREEMA COMPLEX, PLOT : B-11
B. B. T. ROAD, JALKAL,
MAHESHTALLA,
KOLKATA-700141
MAIL :honeyojha525@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-10-2018) को "सब बच्चों का प्यारा मामा" (चर्चा अंक-3138) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
करवाचौथ की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचनाएं
जवाब देंहटाएंआपकी कविता मे खुशी की लहर छलक रही है,
जवाब देंहटाएंआपकी खामोशी चेहरे से खूबसूरत कविता सकल ले रही है,
आपकी प्रयास सराहनीय है.
नाम मधु की तरह कविता भी मधुमय लगाने लगी है l.