नवनीत नीरव की कहानी 'राम झरोखे बैठ के!'




नवनीत नीरव

 युवा कथाकार नवनीत नीरव की कहानी 'राम झरोखे बैठ के' समाज के उस व्यक्ति का रेखांकन है जो जिन्दगी के हर मोर्चे पर अपने को थका-हारा और पराजित महसूस करता है. उसके बारे में कभी भी, कुछ भी कहा जा सकता है. कोई तोहमत लगाई जा सकती है. ऐसे लोग सोझबक कहे जाते हैं. दिल के साफ़ सुथरे. कहीं कोई मलीनता नहीं. लेकिन अपना समाज ऐसे लोगों को स्वीकार भी तो नहीं कर पाता. बदलते समय के साथ हर छल छद्म अपनाने वाले ही हर जगह सफल दिखायी पड़ते हैं. नवनीत ने ऐसे उपेक्षित पात्र को अपने कहानी का नायक बना कर साहित्य की उस धारा को सार्थक साबित किया है जो खुद को उपेक्षित लोगों के साथ खड़े करने में तनिक भी नहीं हिचकता. आज पहली बार पर प्रस्तुत है नवनीत नीरव की नया ज्ञानोदय के हालिया अंक में प्रकाशित कहानी 'राम झरोखे बैठ के!'  
     

राम झरोखे बैठ के!

        
  नवनीत नीरव


साँझ ढल रही थी. दिन भर रह-रह कर पानी बरसता. फिर रुक जाता. बारिश रुकते ही उमस परेशान करने लगी थी. मैं छत पर चला आया. नीले आवरण में लिपटा हरेक शय. झींगुरों की शहनाई अविराम. पूरा बधार पानी में डूबा हुआ. केवल आहर के किनारे खड़े पुराने पीपल को छोड़ कर. पहले उस जगह पीपल युग्म खड़े थे. एक पर ग्रामीण स्त्रियाँ अमावस्या को कच्चा सूत लपेटती थीं. दूसरे पर श्राद्ध का घट लटकता. गत बारिश में सूत वाला पेड़ गिर गया. दूसरा आज भी खड़ा है. न जाने किस लिए. गाँव में अब गिनती भर लोग बचे हैं. 


हमारे परिवार में बँटवारे को दशक भर हुए. घर में हिस्सा लगा. तीन कमरे और आधा आंगन. दो कमरों की हालत कुछ अच्छी नहीं. बरसात में वे बेतरह टपकते. नीभा की शादी में माँ गाँव आयी थीं. फ़ोन पर बताया कि बरसात से पहले छतों की मरम्मत जरूरी है. मुझे अकेले गाँव आना पसंद नहीं. परन्तु माँ की बात माननी पड़ी. चचेरी बहन की शादी में भी नहीं आ सका था. चाची के उलाहने अब तक जारी थे. 


मैं आसमान पर लटके बादल के टुकड़ों को देख रहा था. सामने फर्श पर पड़े “मेघदूतम” के पन्ने फड़फड़ा रहे थे. कुछ शब्द पन्नों से छिटक कर मेरे ख्यालों में रंग भर रहे थे...
“कोई यक्ष था. वह अपने काम में असावधान हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि वर्ष-भर पत्नी का भारी विरह सहो. इससे उसकी महिमा ढल गई...”
-   “रामझरोखे भईया आए हैं. अम्मा बुला रही हैं!” चचेरी बहन नीलू ने सीढ़ियों पर खड़े हो कर मुझे आवाज दी. फिर वह मोबाईल में व्यस्त हो गई.
-   “रामझरोखे... इस वक्त?” मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ. मैं नीचे चला आया. 


रामझरोखे... मंझली बुआ के सबसे छोटे बेटे. उम्र में मुझसे कोई चार-पाँच साल बड़े होंगे. राम झरोखे जब भी हँसते तो उनकी दोनों आँखें मिचमिचा कर छोटी जातीं. होठों के बीच से सामने की दन्तपंक्तियाँ गोचर हो जातीं. सिर झुकता चला जाता. कई बार अनुमान लगाना कठिन हो जाता कि वह बात इन्हें कैसी लगी? बुरी या भली! आजकल राम झरोखे साईकिल पर गाँव-गाँव घूम कर फेरी लगाते हैं. मौसम के हिसाब से साड़ी, सलवार सूट, बेडशीट, ऊन और गरम कपड़े बेचते हैं. कुछ आमदनी हो जाती. रिश्तेदारी भी निभ जाती है. 


चाची आंगन के ओसारे में बैठी रोटियाँ सेंक रही थीं. मुझे आंगन में उतरते देखा तो बोल पड़ीं. मानों उन्होंने मेरा सवाल पढ़ लिया हो.
-   “नीभा को तीज भेजना है न!”
बात मेरी समझ में नहीं आई. मैंने भरसक मुस्कुराने की कोशिश की.
मुझे अचरज हुआ कि सिर्फ़ तीज भेजने के लिए रामझरोखे आए हैं! बाभन टोले में कितने सारे गोतिया-पटीदार के लड़के हैं. जो पास के शिवालय में दिन भर ताश पीटते हैं. बबन उनके अगुआ हैं. कोई नहीं था, तो चाची उन्हें ही भेज देतीं. अब टाटा से लौटे हैं, तो रोपनी करा कर ही जायेंगे. वैसे भी बबन बो तो ऱोज ही हमारे आँगन की मिट्टी कोड़े रहती हैं. 


चाची को गोतिया-पटीदारों का कोई विश्वास नहीं? बबन के किस्से सारा जवार जानता है. बेटी नई-नई ब्याही है. ससुराल में कोई कुछ लगा-बझा दे तो... ऐसे में रामझरोखे उनके लिए उपयुक्त थे. 


दालान के अन्दर लालटेन धीमी-पीली लौ के साथ उबासियाँ ले रही थी. धूप-अगरबत्ती की गंध मेरे नथुनों में भर आयी थी. चाचा चौकी पर एक ओर बैठे रामायण के पाठ में रमें हुए थे. उनके दूसरी ओर रामझरोखे थे. मैं उनके पास चला आया. पता नहीं कहाँ से आ रहे थे? पूरी तरह भींगे हुए थे. शर्ट की आस्तीन कुहनी तक मोड़ी थी. पैंट घुटनों तक चढ़ी थी. प्लास्टिक की चप्पल कीचड़ में लिसड़ी.
-   “आप भीग कैसे गए..?”
-   “पैदल आवत रही...” कहते हुए वे सकुचाए.
-   “कहीं ठहर जाना था न! बारिश रुकने तक!” 
-   “अब बरसात में न भींजम, त कब भींजम...” कहते हुए वही परिचित मुस्कुराहट. 


रामझरोखे के पास दो थैले थे. दोनों भींग कर भारी हो गए थे. मैंने टटोल कर देखा. एक में दो-एक जोड़ी कपड़े. दूसरे में बड़े- बड़े सात-आठ भुट्टे और सेर भर के करीब परवल. पूछा तो बोले  
-   “अम्मा भेजी है.”
-   अरे! सोन के कछार पर बहुत होता है. छुटपने में जब नयी-नयी ब्याही थी इसकी माँ तो जाना होता था. आजकल वाली स्थिति नहीं थी उस समय. दुआर पर बड़े कौड़ में मकई पकायी जाती थी.” चाचा रामायण का पाठ ख़त्म कर चुके थे. 


रामझरोखे के पिता बिहार मलेटरी में सिपाही थे. कद-काठी से मजबूत. लेकिन सोझबक. थोड़े अकडू भी. एक दफ़े थानेदार की बात पर तैश खा कर नौकरी छोड़ दी
– “हम तो साठ बीघा के जोतदार हैं. तुम अपनी सोचो.”
नौकरी छोड़ने के बाद फिर वही आम परिवारों की कहानी. आपसी मन मुटाव, झगड़े और अंत में बँटवारा. बुआ गाँव आती तो खुश नहीं लगती थीं. काफ़ी ज़िम्मेदारियाँ आ गयी थीं उनपर. बेटों ने पिता के सिर पर हाथ रख दिया था. किसी तरह बेटियों की शादी हुई. 


रामझरोखे की शादी दो बरस पहले मंदिर में हुई थी. बबन की रिश्तेदारी में. माँ मुझे नेवता लेकर भेजना चाहती थीं. ऐन दिन बस की हड़ताल थी. मैं निकला तो था पर पहुँच नहीं पाया. या शायद पहुँचना नहीं चाहता था.
मैंने अपने कमरे से तौलिया और पायजामा ला कर उनको दिया.
-   “इसे बदल लीजिए.”
गीले कपड़े नीलू को थमा कर वे अहाते में बेल के पेड़ के पास चले आए. चापाकल से गिरता पानी पैर की मिट्टी के साथ नाली में बह रहा था. चाचा अब मुझसे मुखातिब थे.
-   “इ बौराहवा का यही हाल है. “जाड़ा-गर्मी-बरसात” इसको नहीं बुझाता. पिछली बार जेठ की लहलहाती दुपहरी में चला आया था.
-   “क्यों?”
-   “अरे! फेरी का काम करता है... वही सीजन होता है कमाई का. बियाह शादी का अंतिम मौसम. कुछ बिका-उका जाता होगा... बउराह जरूर है लेकिन बैल जईसा खटता है.” 
रात का खाना दालान में ही हुआ. बबन भी आए थे. बबन बो पूछ-पूछ कर रोटियाँ देती थीं.
खाने के बाद चाचा ने लंबी डकार लेते हुए रामसरेख से पूछा – “उस लड़किया का कुछ खबर मिलता है क्या राम झरोखे?”
राम झरोखे अपनी गर्दन नीची किए चुप रहे.
-   “कौन सी लड़किया?” मैंने सवाल को समझने की कोशिश में चाचा को देखा.
-   “अरे रामझरोखे की मेहरारू. भाग गई थी न पिछले सावन में... सुना है टाटा में ही है.”
बबन बो ने सहमति में सिर हिलाया था.
राम झरोखे चुपचाप सिर नवाए ख़ाली थाली देखते रहे. आधा निवाला उनकी हलक में ही अटका रहा.  
 


-   “नीलू दो रोटियाँ तो लाना!” मैंने बातों का रुख मोड़ने की कोशिश की.
नीलू रोटी की एक थाली में दो रोटियाँ रख कर चली गयी. सभी चुप थे. मैंने चाचा की ओर रोटियाँ बढ़ायीं.  उन्होंने रोटियाँ लेने से मना कर दिया. राम झरोखे ने भी. दोनों रोटियाँ मुझे खानी पड़ीं. 


छत की मरम्मत के लिए राजमिस्त्री से मेरी बात हुई थी. सीमेंट-छड़-बालू की एक लिस्ट उन्होंने मुझे दे रखी थी. सुबह-सुबह मैं बाजार जाने को निकला. आँगन में चाची और नीलू के बीच किसी ‘हरे रंग के सलवार सूट’ को लेकर बहस हो रही थी.
-   “महारानी हो? हर महीने नया सूट चाहिए तुमको!” चाची गुस्से में थीं.
-   “ऑनलाइन सस्ता मिल गया था.” नीलू ने सफाई देनी चाही.
-   “मुफ्त में तो नहीं मिलता न... मैं इस बार पैसे नहीं देने वाली.”
नीलू चौखट पर मुंह फुलाए बैठी थी. मुझे आया देख वो उठकर कमरे में भाग गई.  मैं घर से बाहर निकल आया. 


रामझरोखे मुझे आहर के किनारे रस्सी बटते मिले. कुछ पेटाढ़ियाँ आहर के पानी में उतरा रही थीं. बड़ी तन्मयता से वे हल्के गीले पुआल को ले कर दोनों हाथों से मसलते फिर पैरों से दबी रस्सी में जोड़ देते. पुआल की रस्सी धीरे से इनके पीछे सांप की तरह कुछ इंच सरक जाती. गुड़िया यानि बबन की बेटी रस्सी का दूसरा सिरा थामे थोड़ा पीछे सरक जाती. बबन पीपल के पेड़ के नीचे बैठे मोबाइल पर कुछ देख रहे थे. मैंने रामझरोखे से पूछा
-   “इसका क्या होगा?”
-   “खलिहान में झूला लगेगा...गुड़िया की खातिर.” उन्होंने गुड़िया की तरफ़ इशारा किया. मैंने उसकी ओर देखा. गुड़िया मुस्कुरा भर दी. राम झरोखे अपने काम में लगे रहे. मुझे राम झरोखे से बात करता देख बबन मेरे पास चले आए.
-   “हो गई सब तैयारी!”
-   “हाँ! बस सामान की खरीददारी बाकी है. कल ढलाई हो जाएगी.” मैं थोड़ा आश्वस्त होना चाह रहा था.
-   “हम भी कल घर पर ही रहेंगे...कोई जरूरत की दरकार हो तो बताइयेगा.”
-   “जरूर.”
-   “हम त कल नीभा के ससुरार जाइब” रस्सी बटते हुए राम झरोखे बोल उठे. मैं मुस्कुरा उठा. 


वैसे यह पहली बार नहीं था जब राम झरोखे झूला तैयार कर रहे थे. बचपन से ही वे इस काम में माहिर हैं. जब भी वे हमारे गाँव आते, टोले की लड़कियां रस्सियाँ बनवाती. फिर किसी के दालान में झूला लगता, किसी के खलिहान में. रस्सी बटना और पेड़ चढ़ना इन दोनों ही कामों में उनकी मास्टरी थी. झूलन के लिए ये दोनों काम अनिवार्य हैं. रामझरोखे मुश्किल से मैट्रिक तक पढ़े. घर की ज़िम्मेदारियाँ थीं. मैट्रिक के बाद काम-धाम में लग गए. मेरा इनसे मिलना तो कम ही होता, लेकिन दूर-दराज से खबरें पहुँचा करतीं. सुनने में मिलता कि ये कभी कोरबा- माइंस में काम कर रहे हैं, तो कभी जोधपुर के किसी हाईवे प्रोजेक्ट में... 


-   “आप आजकल कहाँ रहते हैं?” बबन ने बातों- बातों में मुझसे जानना चाहा.
-   “जोधपुर!”
-   “अरे! राम झरोखे भी तो जोधपुर में रहे थे... है न?
पैरों के नीचे से रस्सी को पीछे सरकाते हुए राम झरोखे बोले
-   “चार बरस पहले था!”
-   “... और काम क्या था?” सवाल करते हुए बबन मेरी और कनखियों से देखकर मुस्कुराया. 
-   “हाईवे प्रोजेक्ट में सुपरवाइजर रहीं” शरमाते हुए फिर उनकी समस्त दन्तपंक्तियाँ गोचर हो उठीं.
-   “हाफ़ पैंट पहन के पत्थर ढोते होगे... और सुपरवाइजर बताते हो.” बबन फ़ौरन व्यंग के लहज़े में बोला. राम झरोखे असहज हो उठे. उन्होंने रस्सी बटनी रोक दी. चेहरा फीका पड़ गया था. राम झरोखे के चेहरे के बदलते रंग बबन ने पढ़ लिए. वह जबरन ठठाकर हँस पड़ा.
-   “जाय द. जब जानत हउव त फिर काहे पूछेलs.” झेंपते हुए राम झरोखे ने भरसक मुस्कुराने की कोशिश की.


राम झरोखे स्वभावतः नरम हैं. इतने नरम कि बहुत धीमे बोलते हैं... और जरूरत भर ही. वे इस बात का भरसक ख्याल रखते कि वे किसी को उनकी बात चुभे नहीं. मसलन जितना पूछा जाए उतना ही. बीच में किसी की बात न काटना. वे कभी-कभी तो खुलते हैं. बचपन से ले कर आजतक रामझरोखे में बहुत कुछ नहीं बदला. मैंने देखा है जहाँ सभी लोग एक साथ बैठ कर बातें करते, राम झरोखे पीछे कहीं कोने में खड़े पाये जाते. न कोई राय न प्रतिक्रिया. जिस काम में लगते शुरू से लेकर उसकी समाप्ति तक. हम तो बीच-बीच में तनिक होशियारी भी दिखा देते. लेकिन वे नहीं. 


एक बार गोतिया में किसी लड़की की शादी थी. नए लड़कों को माड़ो के लिए बाँस ढोने की जिम्मेदारी मिली. वह भी चार किलोमीटर दूर बगीचे से. मैं और मेरा भाई एक बाँस गाँव तक लाते-लाते इतना थक गए कि वापसी में बागीचे में जा कर छुप रहे. वे थक कर पसीने-पसीने हुए जाते थे. लेकिन बाँस ढोना नहीं छोड़ा. बाद में हमसे मिले तो पूछा
-   “कहाँ चले गए थे?”
-   “थक गया था!” मैं झूठ नहीं बोल पाया था.
-   “हाँ, शहरी लोग को काम करने की आदत कहाँ?” कहकर वे ठठा कर कर हँस पड़े. शर्म से मेरा चेहरा लाल हो गया था. 


उस दिन राम झरोखे ने अकेले ही चार बाँस ढोये. उसके बाद भी कोई शिकवा-शिकायत नहीं.
दिन काफी व्यस्त और थका देने वाला था. पिकअप वाले से बहुत मनुहार की. तब तो वह सीमेंट-छड़ लादने के लिए राजी हुआ. दिन के ग्यारह बजे मैं गाँव लौट पाया. मजदूर-मिस्त्री ने बरसात के बावजूद दो कमरों की छत कल ही उजाड़ दी थी. राजमिस्त्री को अब अपने दल के साथ सेंट्रिंग फिटिंग का काम करना था. मैं छत पर खड़ा हो कर उन्हें काम करते देखने लगा. काफ़ी गहमा-गहमी थी. आसमान आज साफ था. सूरज आसमान पर तेजी से चढ़ रहा था. राजमिस्त्री का अनुमान था कि दो-एक दिन बारिश नहीं होगी. राजमिस्त्री अपने दल के साथ मेरे छत पर सेंट्रिंग के काम में लगे हुए थे. कल ढलाई का काम कल होगा. दो कमरों की एक साथ ढलाई. मैं इसी उधेड़बुन में था. तभी मुझे दुआर पर साईकिल की घंटी की आवाज सुनाई दी. मैंने नीचे झाँका. खाकी वर्दी में झोला लटकाए एक सज्जन थे. मैंने अनुमान लगाया कि इस गाँव के डाकिया बाबू होंगे. मैं कुछ पूछता तभी नीलू झटपट बाहर निकलती दिखाई दी. डाकिया बाबू ने उसे पैकेट दिया. सज़ग निगाहों से इधर-उधर देखती नीलू ने डाकिए को पैसे थमाए और सर्रर से घर में चली गयी. उसने देखा नहीं कि छत से खड़ा मैं उसे देख रहा था.  



मजदूर खाना खा कर आराम कर रहे थे. मैं घर के पास के शिवालय में चला आया. वहाँ दोपहर की ताश मंडली जमी थी. बबन और राम झरोखे भी उस मण्डली में शामिल थे. शिवाले के आहाते में घुसते ही मुझे लगा कि जोर-जोर से कहकहे गूँज रहे हैं.


-   “का मरदे! मेहरारू कैसे भाग गई?” कुछ इस तरह के सवाल कानों में पड़ते ही मैं हतप्रभ था. ताश मण्डली का कोई सदस्य था.  मैं शिवालय के बाहर द्वार पर खड़ा हो गया.
-   “अरे! पहले दिन वाला खेला इनसे नहीं हो पाया... !” मण्डली का कोई दूसरा सदस्य था. सभी ठठा कर हँस पड़े.
-   “सुना है कि वो सात-आठ महीने रही थी इनके साथ!” किसी ने सफाई दी.
-   “न जाने बबन भाई को कौन दुश्मनी थी ... वही बियाह करवाए थे!” मुस्कुराते हुए चेहरों की नजरें बबन पर थीं. राम झरोखे कोने में सिर झुकाए बैठे रहे. कनपटी से चूता पसीना उनकी ठोड़ी से टपकने लगा था.
-   “एक साल से ऊपर हो गया अब तो... फिर भी चर्चा बाकी ही है क्या?” बबन मानों सवाल से बचना चाहते थे.
-   “फिर भी...!” अंतहीन सवाल थे. जाने जवाब की तलाश में या फिर मनसायन को.
-   “देखो! शादी नहीं हो रही थी. सो करवा दिए... बाकि इनकी मेहरारू भी क्या हमहीं सँभालते?” कहते हुए बबन ने एक नज़र राम झरोखे पर डाली और अपनी एक आँख दबा दी. मण्डली में हंसी के फव्वारे छूट पड़े. 


-   “उनसे एक बंगाली से शादी कर ली है... उनके एक बेटी भी है अब.”
-   “अरे! वो उसका पुराना यार था!”
अनगिनत बातें थीं. असंख्य अनुमान, ढेरों अफवाहें, मशवरे! जैसे कोई सार्वजिनक मसला हो. जिसके बारे में वे सब कुछ जानते हैं. नहीं जानता था तो सिर्फ़ एक आदमी.
कल चाची बता रही थीं कि टाटा से बबन और बबन बो के गाँव आने की खबर सुन कर ही राम झरोखे तीज  पहुँचाने के लिए राज़ी हुए.  
मैं वापस चला आया. रसोई घर के झरोखे से बबन बो और चाची सारा कौतुक देख सुन रही थीं. मुझे आँगन में आया देख मेरे पास चली आयीं.
-   “बउराह लोगों के साथ ऐसा ही होता है!” चाची बोल पड़ीं.
-   “मेहरारू को बहुत मानते थे राम झरोखे!” बबन बो बोलीं.
-   “वो तो सारे गहने-कपड़े लेकर भागी थी.” चाची चिंतित थीं.
-   “राम झरोखे अपने भाई के साथ गए थे वापस मांगने. उसने कहा कि भागो! नहीं तो केस कर दूँगी!” बबन बो बोलीं.
-   “और ये है कि बबन से उसका हाल-चाल लेने यहाँ आया है!” चाची बेहद अफ़सोस में थीं.
-   “गलत शादी हो गई चाची.” बबन बो बोलीं.  


दोनों ने बात करते-करते गुझिया भरना शुरू कर दिया था. मैं चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा.
बबन ने राम झरोखे की शादी कराई थी. जमशेदपुर में. लड़की का शराबी बाप टेम्पो चलाता था. लड़की ठहरी शहर की होशियार. लड़का गाँव का सोझबक. लड़की मायके गई तो वापस ही नहीं आई. 


शाम को छत की सेंट्रिंग का काम निपटा कर मजदूर चले गए. राजमिस्त्री से बातें करते-करते मैं सड़क तक चला आया. आहर के किनारे बच्चे बंसी डाले बैठे हुए थे. रामझरोखे उनसे थोड़ा अलग बैठे हुए कौतुक निहार रहे थे. चेहरा बुझा-बुझा सा लगा. मैं उनके पास जा कर बैठ रहा. मुझे आया देख कर वे थोड़ा असहज हुए. फिर मुस्कुरा दिए.


-   “बबन भाई दिखाई नहीं दे रहे.” मैंने पूछा
-   “भीतर गाँव में गए हैं.”
-   “आप नहीं गए...”
वे चुप रहे. मछली मारते बच्चे अचानक ख़ुशी से चिल्ला उठे. शायद कोई मछली फंसी थी.
-   “एक बात पूछें?” मैंने उनकी ओर देखते हुए कहा.
-   “क्या पूछना है?” उन्होंने सिर झुका लिया था.
-   “सब मजाक करते हैं तो आपको बुरा नहीं लगता.”
वे जमीन की दूब नोचते रहे. बोले कुछ नहीं. मैं उत्तर की उम्मीद में था. उन्होंने गहरी सांस भरी.
-   “वो छोड़ गयी... बिना कुछ कहे. इससे बड़ा मजाक और क्या होगा...?” अटकते हुए वे बोले. फिर गंभीर हो गए. देर तक शून्य में न जाने वे क्या ताकते रहे. उनसे अब कुछ और जानने की मेरी इच्छा नहीं थी. 


 आहर के किनारे बच्चों का मछली मारना जारी रहा. कभी मछली कांटे में फंसती... बच्चों का झुण्ड बहुत खुश होता...चिल्ला उठता. कभी मछली के फँसने का भ्रम पैदा होता...पर वह हाथ न आती. वे मायूस हो जाते. 


मैं कुछ देर तक वहाँ बैठा बच्चों को देखता रहा. फिर घर वापस चला आया. 


हल्की-हल्की हवा चलने लगी थी. मैं यही दुआ कर रहा था कि कल तक बारिश टल जाए. अचानक मुझे लगा कि चाची किसी पर चीख रही हैं. मैंने आँगन में झाँका. आंगन के एक तरफ़ राम झरोखे हाथ में अपनी शर्ट लिए खड़े थे. कल यह शर्ट भींग गयी थी. दूसरी ओर चाची और नीलू खड़े थे. चाची रामझरोखे को डपट रही थीं...


-   “बहुत पैसा वाले बन रहे हो... नीलू पर चोरी का इल्जाम लगाते हो? बहन है ये तुम्हारी सोच लेना.”
राम झरोखे बोले
-   “हमारा दो पान सौ का नोट गायब है...!”
-   “ये सुन लो राम झरोखे... हम घर में, बक्से में ताला-वाला नहीं लगाते. हमसे ज्यादा चोर-पुलिस बतिया रहे हो तो अपनी मेहरारू से गहना काहे नहीं वापस नहीं ले आते...जो लेकर भाग गयी तुम्हारे घर से.” 


राम झरोखे चुप हो गए. चाची देर तक उन्हें भला-बुरा कहती रहीं.
-   “तीज नहीं ले जाना होता तो तुम्हारे जैसे बउराह को कौन मुंह लगाता... गलती हो गई तुमको बुला कर.” कह कर चाची ने मुंह फेर लिया.
मेरा कलेजा धक से रह गया. राम झरोखे सिर झुकाए चुपचाप थोड़ी देर तक आंगन में खड़े रहे. फिर उन्होंने अपनी शर्ट पहनी. आस्तीनें कुहनी तक मोड़ी. इतना सब सुनने के बाद भी उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान उतर आई थी.  


-   “चलत हैं मामी!” कह कर उन्होंने झुक कर चाची के पैर छू लिए. फिर मुड़े और चुपचाप आँगन से निकल आए. अचानक जैसे सब कुछ धीमा हो गया था... स्लो मोशन में. सभी जैसे जड़ थे. चाची, नीलू और बबन बो. मैं छत पर चुपचाप खड़ा रहा. 


आँगन का सन्नाटा टूटने में थोड़ा वक्त लगा था. अब चूल्हा जल गया था. चाची ने चूल्हे पर कड़ाही चढ़ा कर घी डाल दिया. नीलू थाली में रख कर कच्चे गुझिये बबन बो को देती. वो उसे तल कर एक परात में रख रही थीं. सब कुछ जैसे व्यवस्थित तरीक़े से चल रहा था.


रात घिर आई है. मैं छत पर अकेला हूँ. बिस्तर पर पड़ा हुआ. राम झरोखे अभी तक वापस नहीं लौटे. न जाने मुझे क्यों लगता है कि वे सुबह तक आ जायेंगे. फिर सोचता हूँ कि मैं ये सब क्यों सोच रहा हूँ? शायद नीभा की वजह से. लेकिन उनके साथ जो हुआ उसका क्या...? कहीं मैं राम झरोखे को इस तरह देखने का अभ्यस्त तो नहीं हो गया? 


बहुत सारी बातें मन के अन्दर उमड़ रही थीं. सहसा लगा कि गाँव के आहर पर एक पुल है. ढलान वाला पुल. मैं उस पर चलता हुआ उस पार उतर गया हूँ. कोई पुराना दृश्य आँखों के सामने है. शायद सात-आठ साल पुरानी कोई बात. निचाट गर्मी की दुपहरी... राम झरोखे आँगन में जमीन पर बैठे बड़ी बेचैनी से अपनी जेबों में कुछ खोज रहे हैं. बगल में कपड़ों का फेरी वाला गट्ठर खुला पड़ा है.


-   “मामी हमार पैसा... जेबी में त रखले रही ...!” राम झरोखे बताते जाते थे. बिलखते जाते थे.


आँगन में चाची खड़ी हैं. बगल में नीभा और नीलू हैं. राम झरोखे को कलपते देख सभी चुप हैं. दोनों बहनें कनखियों से एक दूसरे को देख कर मुस्काती हैं. ... एक कोने में मैं भी खड़ा हूँ. भावशून्य. सामने घटित हो रहे को देखता हुआ. क्या हुआ होगा? मैं समझ रहा हूँ. मैं चाची से कहना चाहता हूँ कि वे नीभा और नीलू से पूछें. मेरे होंठ हिलते हैं. लेकिन चाची मुझे सुन नहीं रहीं. सहसा मुझे लगता है कि मेरे अन्दर से कोई आवाज नहीं निकल रही. मैं गला पकड़ कर जोर से चिल्लाने की कोशिश करता हूँ. 


इसी जद्दोजहद में नींद टूट गई. हल्की हवा चल रही थी. पीपल के पत्तों की खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी. दूर टिटहरी की टूटती हुई आवाज थी. मैंने अंदाजा लगाया कि शायद आधी रात गुजर चुकी है.


आँगन में लालटेन की धीमी रौशनी थी. मैंने झाँक कर देखा चाची और बबन बो तीज का सामान सहेज रही हैं. बबन उनकी मदद कर रहे हैं. वे तीज ले कर जायेंगे. नीलू दरवाजे की चौखट पर बैठी ऊँघ रही है शायद. बीच आँगन में रखे लालटेन की रौशनी चाची के आधे चेहरे पर झिलमिला रही है. सामान बाँध कर चाची ने थकान की लम्बी उसांस भरी. रौशनी से छिपे उनके आधे चेहरे पर थकान, उदासी और आशंका का घना अँधेरा है.
सहसा मुझे मेघदूतम की पंक्तियाँ स्मरण हो आयी हैं 

-   “संतप्तानां  त्वमसि शरणं तत्पयोद.”
(जो संतप्त हैं, हे मेघ! तुम उनके रक्षक हो)

सम्पर्क :

ई-मेल : navnitnirav@gmail.com

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. यह अद्भुत कहानी है।
    भाषा के स्तर पर कहीं कोई दंद फन्द नहीं। इतनी साफ़ कि रोने का मन करे।

    बीच में थोड़े से समय के लिए रेणु याद आये लेकिन इसका कहानीकार तो कुछ अलग सा। मन के किसी एक कोने में तीर चुभ सा जाए- ऐसी कहानी बहुत दिन बाद , एक अरसे के बाद पढ़ी

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25.10.18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3135 में दिया जाएगा

    हार्दिक धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं