प्रज्ञा की कहानी 'चमत्कारी कुंड'

प्रज्ञा


 
हर समय का साहित्य अपने समय की विरूपताओं का एक सशक्त प्रतिवाद रचता है। कह सकते हैं कि इसी के हवाले से विचार इन विरूपताओं के सामने खड़ा हो कर यह कहने का साहस जुटाता है कि सत्ता की सोच गलत भी हो सकती है। हालाँकि यह कहना जोख़िम से भरा हुआ होता है। फिर भी साहित्य इस जोख़िम को उठाने से तनिक भी नहीं हिचकता।  प्रज्ञा ने अपनी कहानी ‘चमत्कारी कुण्ड’ के हवाले से बड़ी करीने से साहित्य का यह प्रतिवाद रचा है। इसमें हम अपने समय के आज को भी देख सकते हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है प्रज्ञा की यह नयी कहानी।

  
चमत्कारी कुंड


प्रज्ञा



जयनगर के राजा विजयप्रताप यशोवर्द्धन की महिमा देश-विदेश में समान रूप से फैली थी। उसके प्रताप, उसके बाहुबल और उसके साम्राज्य पर अनेक ग्रंथ रचे जा चुके थे और लगातार रचे जा रहे थे। अन्य राजाओं के लिए वह ईर्ष्या का विषय तो था पर यह ईर्ष्या यशोवर्द्धन की सेना के आतंक तले कभी टकराने का साहस नहीं कर पाई थी। इसीलिए सारी ईर्ष्याएं मौन रूप धारण करके उसके यश को बढ़ाती-फैलाती जा रही थीं। विजयप्रताप यशोवर्द्धन का यश उसके बल के साथ उसके सौंदर्य उपासक रूप के कारण भी चहुँ ओर फैल रहा था। जयनगर का महल सुन्दरता का विलक्षण उदाहरण बन कर जगमगाता था। भव्य स्तंभ, भव्य द्वार, भव्य झरोखे। रत्नजड़ित चंदन द्वार, नक्काशीदार स्तंभ, काष्ठ पर उकेरे विविध रंगों वाले प्राकृतिक दृश्य, बेलबूटों-स्त्री आकृतियों से सम्पन्न दीवारें, विशालकाय मूर्तियां, अद्भुत मिठास से भरे फलों के पेड़, नाद के संग गिरते ऊंचे झरने-सभी चमत्कृत करने वाले थे। उसका महल कला का अनुपम संग्रहालय था और सबसे बड़ी बात तो यह कि यशोवर्द्धन स्वयं एक कलाकार था। कभी उसके कंठ से कोई कविता फूट पड़ती तो कभी चित्रशाला उसके बनाए चित्रों से प्राणवान हो जाती। ऐसे सर्वगुण सम्पन्न राजा को पा कर जनता भी बेहद प्रसन्न दिखती थी।



राजा विजयप्रताप यशोवर्द्धन की शक्ति भिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों के नगरों की तुलना में अजेय थी। जब कभी इनसे कोई दूत, कोई यात्री, कोई योद्धा जयनगर आता तो लौट कर उसकी महिमा का बखान करता और तब दूर के नगरों से अनेक अद्वितीय उपहार जयनगर आने लगते। जयनगर के दूत भी घूम-घूम कर खूब प्रचार करते कि उनका राजा युद्धवीर-धर्मवीर है और जयनगर धरती का एकमात्र स्वर्ग है।  जयनगर इनके अतिरिक्त दो और बातों के लिए  भी प्रसिद्ध था। पहली अनूठी विशेषता यह थी कि विजयप्रताप के पूर्वजों के समय से ही नगर में जन्मे मजबूत काठी वाले बच्चों को योद्धा के रूप में तैयार किए जाने का नियम था। यों कहने को यहाँ चिकित्सा, विलक्षण प्रयोगों, कला और व्यापार के भी सुदृढ़ संघ थे पर सुरक्षा और बल से जुड़े सभी संघ अत्यधिक सक्रिय और प्रधान थे। नगर में अन्य सेवाओं और उपयोगी वस्तुओं के दायित्व साधारण प्रजा के थे। दूसरी बात जो इस नगरी को विलक्षण बनाती थी वह था- जयनगर के बीचोबीच एक सुन्दर कुंड। जिसका जल चमत्कारी माना जाता था। न जाने कितने नगर उजड़े-बसे पर यही माना जाता रहा कि कुंड तब से है जब से धरती बनी। भिन्न समयों में राज करने वाले सभी राजाओं की प्रसिद्धि और समृद्धि को इसी कुंड से जोड़ कर देखा जाता रहा था। प्रत्येक वर्ष प्रथा अनुसार नगर के इस कुंड में राजा के स्नान के साथ वार्षिक सांस्कृतिक महोत्सव मनाया जाता था।



एक दिन राजा विजयप्रताप प्रसन्नचित मुद्रा में अपनी विशिष्ट सभा में बैठा था। अनेक संघों के प्रतिनिधि बारी-बारी से सामने आ रहे थे। सबसे पहले व्यापारी संघ के प्रतिनिधि ने राजा के आगे धरती को छूते हुए प्रणाम किया और राजा की प्रशस्ति में एक गीत गाया। विजयप्रताप यशोवर्द्धन को उन नयी आर्थिक नीतियों के विषय में बतलाया जिनसे राजकोष की वृद्धि होने वाली थी। राजा ने खुश हो कर व्यापार के नियमों को लचीला करते हुए उसकी अनेक मांगों को मान लिया। इसी तरह भूमि संघ, सेना संघ के प्रतिनिधियों से भेंट करने के बाद राजा ने साहित्य संघ के प्रतिनिधि से भेंट की। हर बार की तरह प्रतिनिधि ने तार सप्तक में अपनी नयी कविता से महाराज का स्तुतिगान किया। सभा में राजा ने स्वच्छता संघ के प्रतिनिधि से विस्तारपूर्वक नगर की स्वच्छता संबंधी जानकारी ली और नवीन योजनाओं के विषय में पूछताछ की। उसे नगर की स्वच्छता-सुन्दरता-सुरक्षा की चिन्ता सोते-जागते लगी ही रहती थी। सभा के बाद राजा का दिन सुन्दर नृत्य को समर्पित रहा। एक विलक्षण सुखकारी नींद के बाद अगले दिन उठने पर राजा के मुख से कविता झरने लगी-


                 ‘‘भोर हुई, जागा सवेरा पंछी उड़ चले गगन की ओर
                सूरज की किरणों से फैला उजियारा चहुँ ओर’’


दिन का आरंभ राजा की प्रसन्नता से हुआ। राजा ने सुबह का भरपूर आनंद उठाया। उसके बाद उत्तम कारीगरी के अपने अतिसुन्दर वस्त्रों, पूरी पृथ्वी को सुनहरी तारों में उकेर देने वाली जूतियों को अभिमान से पैरों में धारण कर के, वह अपने अद्वितीय रथ पर सवार हो कर नए महल का निरीक्षण करने चल पड़ा। भवन निर्माता संघ के प्रतिनिधि से महल के जल्द तैयार होने का आश्वासन पा कर अचानक यशोवर्द्धन का मन वर्षों बाद केंद्रीय कारागार का निरीक्षण करने का बना। यह कारागार धरती के नीचे विशेष रूप से बनाया गया था। वहाँ प्रवेश करते ही यशोवर्द्धन की सुबह से प्रसन्न मनःस्थिति पर उल्का पिंडों ने उत्पात करके उसे भस्म कर दिया। साथ चल रहे केंद्रीय कारागार प्रमुख और दंड-विधान संघ के प्रतिनिधि ने राजा की आंखों में क्रोध का पारा चढ़ते देख लिया।



‘‘यह हमारे राज्य का कारागार है? इतना कुरूप? भद्दी दीवारें, भद्दे द्वार, न कोई बेल-बूटे न कोई कारीगरी। सादे और कुरूप स्तंभ? भव्य तो क्या यहाँ एक साधारण मूर्ति तक नहीं। क्या है ये सब? क्या यह हमारे नगर का कारागार कहलाने योग्य है?... कारागार प्रमुख! भवननिर्माता संघ प्रतिनिघि को इस उपेक्षा के लिए सौ कोड़े लगाए जाएं और कारागार की सुन्दरता के ठोस उपाय तुरंत किए जाएं।’’ 



कारागार प्रमुख ने अपनी रीढ़ को कुछ और अकड़ा कर तनी हुई मुद्रा में आदेश पालन की आश्वस्ति राजा को दी, वहीं भवन निर्माता संघ का प्रतिनिधि प्राण हथेली पर रख कर क्षमा मांगता भागा चला आया। खिन्न मन से राजा कुछ और आगे बढ़ा। उसे चारों ओर की सघन चुप्पी के बीच संगीत-लहरियों का अभाव तेजी से खलने लगा। तुरंत आदेश हुआ कि कारागार के द्वार से ही महान संगीतकारों के निर्देशन में विभिन्न गायक यहाँ विविध गीत गायें और कारागार के वातावरण को विभिन्न ताल-लयों-गीतों से सजाए रखें। आक्रोश में राजा ने संगीत-संघ के प्रतिनिघि को भी सौ कोड़ों से दंडित करने की सजा सुनाई। दंड की सूचना से भयभीत संगीत प्रतिनिधि कोड़े खाने के लिए सारी प्राथमिकताएं छोड़कर दौड़ा चला आया। कुछ आगे चलते ही राजा फिर से क्रोधित हुआ- ‘‘इस कारागार में चहुं ओर ये बदबू के भभके कैसे हैं? स्वच्छ नगरी, जयनगर की महिमा पर यह कलंक? इसके लिए स्वच्छता-संघ के प्रतिनिघि को सौ कोड़े लगाए जाएं और यहाँ दूर नगरों से उपहारस्वरूप आईं मोहक सुगंधियों और कीमती लोबानों की तुरंत व्यवस्था की जाए।’’ स्वच्छता संघ प्रतिनिधि कमजोर हृदय का व्यक्ति था। खबर पाते ही वह अधमरी अवस्था में हाँफता हुआ चला आया। इन निर्देशों के बाद आगे बढ़ रहे राजा का क्रोध अचानक अनियंत्रित हो चला जब उसने यन्त्रणा शिविर को देखा। यहाँ विशिष्ट बंदियों को लौह श्रृंखलाओं में बांध कर रखा जाता था और फांसी के तख्त और रस्सियों की, यन्त्रणा देने के विविध धारदार हथियारों की व्यवस्था थी। राजा की भौंहें चढ़ती देख कारागर प्रमुख की सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई। 



‘‘बंदियों को बांधने की इन श्रृंखलाओं की व्यवस्था किसने की है?’’ राजा का कड़कता स्वर सुनते ही कारागार प्रमुख स्पष्टीकरण की मुद्रा में जरा आगे आया।
‘‘दुहाई महाराज! मैंने रात-दिन एक करके सब से मजबूत श्रृंखलाओं की व्यवस्था की है।’’
‘‘सैनिक! इसे भी सौ कोड़े लगाए जाएं।’’ राजा का स्वर और निर्मम हो गया।
‘‘मेरा दोष महाराज?’’ भय से भरे संकोच में कारागार प्रमुख ने पूछा। अपने अधीनस्थ सैनिक से सौ कोड़े खाने की शर्म से अधिक राजा की टेड़ी भृकुटी उसका कलेजा निकाले जा रही थी।
‘‘यह लौह श्रृंखलाएं कितनी भद्दी हैं। तुमने अब तक इन्हें सुन्दर बनाने के क्या प्रयास किए?’’
भय से हकलाता कारागार प्रमुख कुछ कहने पाता राजा ने आदेश दिया- ‘‘अब इन सादी श्रृंखलाओं के स्थान पर सुन्दर रजत श्रृंखलाओं की व्यवस्था हो जिनपर मोहक चित्र उकेरे जाएं। इसी तरह यातना देने के पुराने, भद्दे यंत्रों-हथियारों की जगह मीनाकारी से सुसज्जित नवीन यन्त्र तुरंत बनवाए जाएं। मृत्युदंड के यन्त्र इतने सुन्दर हों कि बंदी मौत के लिए लालायित हो उठे। वधस्थल के ठीक सामने सुन्दर नर्तकियों की मोहक प्रस्तुतियों के लिए भव्य मंच बनाया जाए। जीवन के अन्त की अनुभूति स्वर्गिक होनी चाहिए। दंड पाने वाला बंदी नृत्य की भंगिमा में फांसी के तख्त पर चला आए और फंदे का मीठा चुम्बन ले। ऐसा कारागार दुनिया के लिए अद्वितीय उदाहरण होगा। जबकि इन यंत्रों को, इस जगह को देख कर मुझे घिन्न आ रही है।’’



केंद्रीय कारागार की बदहाली देख कर राजा विजयप्रताप यशोवर्द्धन खिन्न मन से अपने सुरक्षा दल के साथ महल की ओर लौटा। सौ कोड़ों की सजा पाए सभी प्रतिनिधि कारागार के कायांतरण का संकल्प लेकर फौरन काम में जुट गए। वित्तसंघ प्रतिनिधि ने राजा के आदेश पर धन के द्वार खोल दिए। चिन्तामग्न राजा आगे बढ़ रहा था कि अचानक उसने देखा मार्ग में प्रजा उसके सम्मान में नगर के झंडे लिए खड़ी है। स्त्रियां सुन्दर वस्त्रों-आभूषणों में झंडे फहरा रहीं हैं, पुरूष भी सुन्दर बाने में झंडे लिए स्वागत की मुद्रा में खड़े हैं, अनेक बच्चे नगर के ध्वज की प्रतीति कराती छोटी झंड़ियां लिए मार्ग को उमंग से भर रहे हैं। हर वय का व्यक्ति खुश है- बच्चा, जवान और वृद्ध। राजा विजयप्रताप यशोवर्द्धन का मुरझाया चेहरा कमल की तरह खिल गया। पूरे दिन की व्यस्तता के बाद रात को प्रसन्नता से जैसे ही वह अपने पलंग पर लेटा, कान तकिए से दबे होने पर भी उसे भूमिगत हलचल का आभास हुआ और अगले ही क्षण चिन्ता की कड़कती बिजली उनके प्रसन्नतारूपी कमल पर गिर पड़ी। धरती के सीने से लोगों के संवाद के तेज होते जा रहे स्वरों के साथ उसे डंडों-भालों की ठक-ठक-टन्न-टन्न की कर्णकटु ध्वनि भी सुनाई देने लगी। कुछ क्षण बाद किसी सामूहिक गीत का स्वर उसके कानों में उतरने लगा। शब्द अस्पष्ट थे पर अर्थ एक अदृश्य सामूहिक लय से सम्पन्न था। राजा को अचानक लगने लगा बहुत सारे लोगों का समूह धरती के नीचे सक्रिय है। क्रोध से भरी अनेक आवाज़ें उसके कानों के पर्दे फाड़े डाल रही थीं। राजा ने सोचा कि आज मार्ग में जो उल्लास उसे दिख रहा था वह सत्य था या सत्य का आभास? मन में यह बात आते ही उद्विग्न राजा ने इतिहास के अन्य चतुर राजाओं का स्मरण किया और आनन-फानन में निर्णय लिया कि वह वास्तविकता जानने के लिए नगर में वेश बदल कर घूमेगा। राजा को लगने लगा भवन निर्माता संघ, संगीत संघ, स्वच्छता संघ आदि-आदि की तरह कहीं उनका गुप्तचर संघ किसी अनिष्ट से आँख मूंद कर सो तो नहीं रहा।



अपने निर्णय को साकार करते हुए अगले ही दिन शाम को राजा प्रजा के बीच वेश बदल कर घूमने लगे। राजा ने महसूस किया कि सभी लोग अपने कामों में व्यस्त हैं। क्रय-विक्रय चल रहा है। धुनिए, बुनकर, लोहार, कुम्हार सब अपने-अपने कामों में मेहनत से लगे हैं। कृषक दिन भर खेतों में काम करके लौट रहे हैं। व्यापारी दिन भर की कमाई से परम संतुष्ट हैं। राजा को लगा कि उसका संशय निर्मूल था। वह हँसते हुए लौट ही रहा था कि अचानक उसे एक सुनसान स्थल पर कुछ चमकता-सा दिखाई दिया। वह आगे बढ़ा तो वहाँ एक गुफा दिखाई दी। अंधेरे में भी इस गुफा में बहुत उजाला था। राजा को घोर आश्चर्य हुआ कि नगर का रक्षा प्रतिनिधि इस गुफा से अनजान है। उसने इसके बाहर किसी पहरेदार को नियुक्त नहीं किया। विजयप्रताप ने गुफा में झांक कर देखा तो अंदर अकेला बैठा एक व्यक्ति कुछ सोच रहा था। प्रकाश का कोई स्त्रोत नहीं था पर प्रकाश कहाँ से आ रहा है?-यह सवाल राजा को चिंतित कर रहा था। राजा ने देखा उस व्यक्ति के चेहरे से तेज टपक रहा है। चौड़े ललाट पर चिंतन की तीन गहरी रेखाएं साफ दिखाई दे रही हैं। अंधेरे में भी गुफा उसके तेज से सूरज के प्रकाश-सी चमक रही थी। जिज्ञासु राजा ने पूछा आप कौन हैं जो इस गुफा में अकेले बैठे हैं?



‘‘मैं विचारक हूँ।’’ राजा की ओर न देख कर विचारक ने सामने देखते हुए ही जवाब दिया।
‘‘विचारक? वह क्या होता है?’’ राजा ने प्रश्न किया।
‘‘विचारक व्यक्तियों पर, समाज पर, देश-दुनिया की स्थितियों पर विचार करता है।’’
‘‘विचार? ये भला क्या होते हैं?’’ राजा की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी।
‘‘विचार, मनुष्य को मनुष्य बनाते हैं।’’ विचारक का धीर-गंभीर स्वर फूटा।
‘‘मनुष्य बनाते हैं?... बाहर निकल कर देखो, मनुष्य तो यहाँ सभी हैं जिन्हें मनुष्य ने ही जन्म दिया है। फिर कैसा विचार? कितनी मूर्खतापूर्ण बात कर रहे हो तुम। कौन हो? कहाँ से आए हो?’’
‘‘मैं एक सामान्य नागरिक हूँ, दूर नगर से आया हूँ। इस नगर की महिमा सुनी थी। इसकी सुन्दरता देख कर, संगीत की तानें सुन कर रूक गया और कुछ खोजता हुआ यहाँ चला आया।’’


‘‘गुफा की गहराई में पहुँचकर तुम विचार खोज रहे हो। ये विचार नामक वस्तु कब तक मिलेगी और इसका मूल्य क्या होगा? क्या यह बहुत मूल्यवान है?’’ राजा के इस प्रश्न पर विचारक ने उसे घूर कर देखा और फिर हँसते हुए बोला- ‘‘मूर्ख! विचार कोई वस्तु नहीं। वह हमारे मन-मस्तिष्क की सक्रिय तरंगें हैं जो समाज के अनेक पहलुओं पर, अच्छे-बुरे पक्षों पर सोचने को बाध्य करती हैं।’’


‘‘तुम नहीं जानते, जयनगर में सब ओर स्वच्छता, सुन्दरता और सुरक्षा का साम्राज्य है।’’ राजा ने खीझ कर कहा। विचारक ने साधारण बाने में छिपे राजा की बात का कोई जवाब नहीं दिया। उसने मुंह फेर लिया। राजा ने जब समझाने के लिए बार-बार आग्रह किया तब वह बोला- ‘‘ मुझे तुम्हारे भीतर से तीखी दुर्गंध आ रही है।’’


राजा विजयप्रताप यशोवर्द्धन ने अपने क्रोध को दबाया। वह प्रतिदिन दूध और गुलाब की पत्तियां डाल कर स्नान करता था, इत्र-फुलेल में डूबे वस्त्र धारण करता था। एक वस्त्र को दोबारा उसने कभी पहना ही नहीं था फिर भी उसने शंका से अपने आपको सूंघा। वहाँ मदहोश करने वाली सुगंध आ रही थी।
‘‘दुर्गंध नहीं, यहाँ तो सुगंध है। कैसे कह रहे हो कि दुर्गंध है?’’ राजा भड़का।
‘‘क्योंकि तुम्हारे पास विचार नहीं हैं। ऐसे व्यक्ति से दुर्गंध ही आती है।’’ राजा को उत्तर देता हुआ वह विचारक गुफा से बाहर निकल गया।


उस रात राजा बहुत दुखी मन से महल में लौटा। अगले दिन अपने संघ प्रतिनिधियों से उसने सवाल किया क्या वे विचार के विषय में जानते हैं? सवाल सुनकर सभी हैरान हुए। उन्होंने इसके बारे में कभी नहीं सुना था, कुछ न पढ़ा था। उनका मौन राजा की क्रोधाग्नि को बढ़ाता जा रहा था। इससे पहले की राजा कुछ कहता एक बूढ़े सभासद को युगों पुराने शासकों के बंद दस्तावेज़ों के एक तहखाने का स्मरण हो आया, संभवतः वहाँ से कोई जानकारी मिले। इस तहखाने का पता स्वयं राजा को भी नहीं था। बूढ़े सभासद ने प्रतिनिधियों को इशारा किया कि वे राजा से एक दिन का समय मांग लें। अगले दिन सब सभा में उपस्थित हुए। वे तहखाने के सभी ग्रंथ, इतिहास और पुस्तकों से जान चुके थे कि विचार बड़े शक्तिशाली होते हैं। उनसे दुनिया को बदला जा सकता है।


‘‘दुनिया को बदला जा सकता है? दुनिया तो जैसी है वैसी ही रहेगी और इतनी सुन्दर दुनिया को बदल कर क्या कुरूप करना है? फिर मेरे नगर में जिसे मैं बदलना चाहूँगा वही तो बदलेगा न कि जिसे ये विचार चाहेगा।’’ भावावेश में राजा ने दो टूक कहा।


लेकिन प्रतिनिधियों की बात राजा के मन में अटकी रही। वह समझ गया कि ये विचार भविष्य में उसके लिए खतरा हो सकते हैं। राजा ने अगले ही दिन मनवांछित फलप्राप्ति प्रयोगशाला संघ के प्रतिनिधि को बुलवाया और दो आदेश दिए। पहला विचार-पकड़ यन्त्र बनाया जाए और दूसरा विचार-शोधक यन्त्र का निर्माण किया जाए। इससे विचार को पकड़ा जा सकेगा, देखा जा सकेगा, समझा जा सकेगा और विचारों की शुद्धि की जा सकेगी। उसका पकड़ा जाना नगर में जरूरी कर दिया गया। विचार का स्वतंत्र घूमना राजा की दृष्टि में अनुचित था।
विचार-पकड़ यन्त्र तो जल्दी बना लिया गया पर सुरक्षा संघ के प्रतिनिधि के समक्ष समस्या यह आई कि नगर भर में कोई विचार न मिला। प्रयोगशाला प्रतिनिधि की चिन्ता कुछ और ही थी-‘‘ राजन! विचार-शोधक यन्त्र के बारे में तो हमने कभी कुछ सुना ही नहीं।’’ उसने भय की उपेक्षा करके अपनी बात कही।
‘‘ नहीं सुना तो जाइये पढ़िए। उसे जानिए और कल तक समझ कर आइये।’’ राजा का स्वर पत्थर की लकीर था।


अगले दिन विचारशोधक यन्त्र निर्माण की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए प्रयोगशाला प्रतिनिधि ने बताया कि हमसे पहले की अनेक सभ्यताओं में विचार का संकट पैदा होने पर विचार शोधन तकनीक का प्रयोग हुआ है। पर वे तकनीकें बेहद समय लेने वाली रही हैं। इसीलिए प्रतिनिधि ने नयी तकनीक बताते हुए कहा कि विचार मस्तिष्क में रहते हैं और मस्तिष्क में बहुत-सा रक्त रहता है। क्यों न हम मनुष्य के रक्त को ही शुद्ध कर दें। इस परिवर्तन से विचार की शुद्धि अपने आप हो जाएगी।


प्रतिनिधि को तुरंत सौ स्वर्ण मुद्राओं का पुरस्कार दे कर राजा ने नगर में विचार करने वाले एकमात्र विचारक को पकड़ लाने का आदेश दिया। विचारक को लाया गया। प्रयोगशाला की एक सुन्दर कुर्सी पर बिठाया गया। प्रयोगकक्ष के रक्त निकालने वाले यन्त्र से उसके शरीर के समूचे रक्त को निकाल कर उसमें नवीन रसायन डाले गए। वांछित रासायनिक परिवर्तन के बाद फिर से रक्त को विचारक के शरीर में छोड़ा गया। अचेत विचारक को जब चेतना आई तो उसने आस-पास देखा। वह ऐसे उठा जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। उठते ही उसने राजा को पहचाना और झुक कर अभिवादन किया। तुरंत ही उसने राजा की प्रशस्ति में एक सुन्दर गीत गाया जिसमें नगर के विकास के लिए राजा के कार्यों के प्रति आभार था। विचारक गीत गाता हुआ बाहर निकल गया। राजा प्रसन्न हो उठा कि अब विचारक जहाँ-जहाँ जाएगा यही गीत गाएगा जिससे राजा का यश और बढ़ेगा।


राजा इसी से संतुष्ट नहीं हुआ। उसे भय था कि विचारक ने विचार को नगर के किसी घर में न छिपा दिया हो। इसलिए उसने एक नया नियम नगरवासियों के लिए लागू किया। नियम यह था कि प्रतिदिन राजा और कुछ विशिष्ट लोगों को छोड़ कर सभी के लिए सुबह नगर कुंड के जल से मुंह धोना अनिवार्य है। इस नियम का पालन सख्ती से हो इसलिए प्रतिदिन बलिष्ठ सैनिक, पगडंडियों और आम रास्तों पर तैनात किए गए ताकि जनता की गिनती पूरी की जा सके। कुंड के चारों ओर भी सैनिकों का पहरा था जिससे कोई नागरिक बिना मुंह धोए न चला जाए। ऐसा आदेश हुआ कि जो भी इस नियम का उल्लंघन करेगा उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। राजा यशोवर्द्धन को अश्वेत, कुरूप, विक्लांग, दयनीय लोग, अभाव, निराशा, कष्टों का रोना रोते लोग राई-रत्ती पसंद न थे। पहले कुंड के आस-पास ऐसे व्यक्तियों के आने पर मनाही थी पर अब इस आदेश में ढील दी गई। वैसे लोगों को सुन्दर बनाने की प्रयोगशालाएं भी निरंतर प्रयोगों में व्यस्त थीं। चमत्कारी कुंड में भोर होते ही मुंह धोने वाले लोगों को पूरे चौबीस घंटों तक कोई अभाव, निराशा, दुख ही न सताते। ऐसे में कोई विचार जन्म न लेने पाता। कुंड के पानी का असर ज्यों ही धीमा होना शुरू होता नया दिन उग जाता। इस तरह सब ओर दिव्य शांति, अपूर्व यश और स्वच्छता का साम्राज्य दिखाई देता।


कुछ दिन राजा के जीवन के स्वर्णिम दिनों की तरह बीते कि अचानक एक दिन फिर शंका ने सिर उठाया। नींद में उसे फिर से भूमिगत गतिविधियों का शोर सुनाई दिया। ऐसा लगा कि हजारों लोग सिर जोड़े किसी गंभीर विषय पर मंथन कर रहे हैं। राजा की मीठी नींद चौपट हो गई। महल पर अंधकार के बादल छा गए। राजा ने फिर से गुप्त यात्रा पर जाने की ठानी। पर इस बार वह विचारक-पकड़ यन्त्र को लिए एक सैनिक के साथ अपनी यात्रा पर निकला। रात में वह वेश बदल कर नगर में घूमने लगा। सब ओर सुख का साम्राज्य था। सब तरफ शांति थी कि अचानक एक पेड़ के नीचे उसे भीड़ दिखाई दी। उसने ध्यानपूर्वक देखा भीड़ कोई कविता सुनने में मगन थी। राजा के कान खड़े हो गए। उसने देखा भीड़ के सामने एक कवि कुछ चित्रों को अपनी कविता के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा है। राजा ने सुना तो पाया कि कविता बहुत भद्दी थी। कविता के चित्रों में भूख से बिलख और मर रहे लोगों के बिम्ब थे, लोगों पर अत्याचार करते सैनिकों के चित्र थे, उन लोगों के भी चित्र थे जिनकी अन्तड़ियां अत्याचार का विरोध करने पर निकाली जा रही थीं। कविता सुन कर यशोवर्द्धन राजा को चक्कर आने लगे। कितने वीभत्स बिंबों की कविता उसकी सुन्दर नगरी में सुनाई जा रही है और जिसे लोग ध्यान से सुन रहे हैं। राजा मूर्छित हो गया। होश में आने पर उसने खुद को अपने भव्य कक्ष के पलंग पर पाया। खसखस-केवड़े का शरबत पी कर वह शीतलता अनुभव कर ही रहा था कि उसे उस वीभत्स कविता का स्मरण हो आया। गले की कड़वाहट से परेशान राजा ने तुरंत प्रयोगशाला के प्रतिनिधि को बुलवाया और आदेश दिया-
‘‘ कल ही दरबार में कविता-कला-शोधक यन्त्र निर्माण की विधि खोज कर लाओ।’’


प्रयोगशाला प्रतिनिधि जो अभी विचारशोधक यन्त्र की उपलब्धि के बाद परमानंद की अवस्था में लीन था वह परमदुख अनुभव करने लगा। पीड़ा से साक्षात्कार करते हुए भी उसने राजा से एक दिन का समय मांगा और भागा-भागा बूढ़े सभासद के पास पहुँचा। सभासद को उसने बाताया कि राजा ने हल न निकाल पाने की स्थिति में उसके लिए प्राणदंड सुनिश्चित कर दिया है। बूढ़े सभासद ने प्रतिनिधि सहित फिर से तहखाने के बंद ग्रंथों में खोजना आरंभ किया। अगले दिन की सभा में प्रयोगशाला प्रतिनिधि की मुखमुद्रा बता रही थी कि वह आज प्राणदंड से बच निकलेगा। उसने कहा-


‘‘राजन! कविता-कला-शोधक यन्त्र बनाने की विधि तैयार है। पहले कवि-कलाकार पकड़ यन्त्र से कवि को पकड़ा जाएगा। अब कवि हो या कोई कलाकार वह पंच-तत्वों से ही बना है। जल, क्षितिज, पावक, गगन और समीर। पर इनमें प्रमुख है समीर। तो राजा! हम कविता-कला शोधक यन्त्र के जरिए उसकी सारी वायु निकाल कर उसे शुद्ध करेंगे।’’


प्रसन्नचित्त राजा विजयप्रताप यशोवर्द्धन ने तुरंत कवि का आकार-प्रकार और सभी सूचनाएं कवि-कलाकारपकड़ यन्त्र में विस्तारपूर्वक डाल दीं। थोड़ी ही देर में कवि पकड़ा गया और प्रयोगशाला की कुर्सी पर बिठाया गया। कवि ने छूटने के लिए बहुत हाथ-पांव मारे पर थोड़ी ही देर में उसकी प्राणवायु खींच लेने की प्रक्रिया शुरू हो गई। कवि की सांस में वांछित रासायनिक परिवर्तन करके सारी वायु को धीमे-धीमे कवि के शरीर में प्रवाहित किया गया। मृतप्राय कवि फिर से जीवित दुनिया में लौट आया। राजा सहित सबकी आंखें उसकी गतिविधियों पर टिक गईं। वह उठा उसने राजा को ध्यानपूर्वक देखा और मुदित हो कर राजा की प्रशस्ति में एक सुन्दर-सी कविता सुनाई। राजा अवाक रह गया। कवि की कविता के सभी वीभत्स बिम्ब गायब थे और कविता की ललित बिंबों की कोमलकांत पदावली किसी नवयौवना-सी इठलाती अपने प्रेमी को मौन संकेत दे रही थी। राजा की महिमा गाता कवि बाहर निकल गया। राजा की प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। सब कुछ उसके नियन्त्रण में था। प्रयोगशाला संघ के प्रतिनिधि और उसके मंडल को अनेक पुरस्कार दिए गए। नगर में सुख के नगाड़े बजे और चारों ओर रास-रंग अपने चरम पर दिखाई देने लगा। चमत्कारी कुंड के नियम कुछ और कठिन कर दिए गए। अब वहाँ प्रजा का सुबह-शाम मुंह धोना अनिवार्य था।


जयनगर अपने स्वर्गिक आनंद से पुलक रहा था। राजा की यशगाथाएं पहले से चार गुणा बढ़ गयीं थीं। चारों दिशाएं उसकी विजय-पताका फहरा रही थी कि अचानक एक रात रस-भंग हो गया। राजा को आज फिर से भूमिगत हलचलें सुनाईं देने लगीं।  शंका के गहन अंधकार ने जगमगाती खुशियों पर ग्रहण लगा दिया। इससे पहले कि नगर पर कोई नया खतरा मंडराए राजा ने नगर की गुप्त-यात्रा का मन बनाया। अर्द्धरात्रि में राजा अपने महल से निकला। चारों ओर सन्नाटा छाया था। लोग अपने घरों में नींद का आनंद ले रहे थे। पहरेदार नगर की सुरक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगाने को तैयार दिखाई दिए तो राजा का मन प्रसन्न हुआ। आज पूरे नगर में उसे कोई व्यक्ति न विचार करता दिखा न कविता सुनाता। पर राजा का भाग्य जल्द ही दुर्भाग्य में बदल गया। उसने देखा नींद से कोसों दूर एक व्यक्ति अंधकार में बैठा कुछ लिख रहा है। राजा ने ध्यान से देखा तो पाया उसकी कलम से एक जादुई प्रकाश फूट रहा है। राजा हैरान रह गया। उसने स्वयं से ही प्रश्न किया ये व्यक्ति रात के अंधेरे में क्या लिख रहा है और क्या कोई कलम ऐसी भी होती है? हैरान-परेशान राजा ने उस व्यक्ति के पास जा कर पूछा- ‘‘ तुम कौन हो और इस अंधकार में क्या लिख रहे हो?’’


व्यक्ति ने दो घड़ी रूककर राजा को देखा और बोला- ‘‘मैं चारों दिशाओं में फैले ज्ञान को समेट रहा हूँ। लोग मुझे ज्ञानी कहते हैं।’’


हैरानी से राजा की आंखों की पुतलियां तेजी से घूमने लगीं। राजा ने पूछा- ‘‘ज्ञान? ये भला क्या होता है?’’ ज्ञानी के मुख पर हंसी तैर गई पर उसने शालीनता से कहा- ‘‘ज्ञान, अच्छे और बुरे का अन्तर बताने वाला विवेक है।’’


राजा को क्रोध आ गया। वह अब तक ज्ञान को समझ नहीं सका था कि विवेक भी अबूझ पहेली बनकर चला आया। राजा ने उस व्यक्ति से कहा- ‘‘बुरा? मेरे नगर में क्या बुरा है? सब तो अच्छा ही है। कितनी सुन्दरता, कितनी स्वच्छता, कितनी शांति यहाँ चहुँ ओर है।’’


व्यक्ति ने राजा को एकटक निहारा और कहा- ‘‘नहीं ज्ञान इस सबसे ऊपर है।’’


राजा ने ऊपर आसमान की ओर देखा। उसे सोलह कला सम्पन्न चांद अपने तारों संग आकाश की शोभा बढ़ाता दिखाई दिया पर वहाँ ज्ञान न दिखा। राजा ने उस व्यक्ति पर झूठ बोलने का आरोप लगाया जिसे सुन कर व्यक्ति ने राजा को उपेक्षा से भर कर देखा और कहा- ‘‘ तुम बीमार हो, तुमसे बीमारी की दुर्गंध आ रही है। तुम्हें मूर्खता रोग ने जकड़ रखा है।’’


राजा अपने क्रोध को दबाता हुआ अपने वस्त्र सूंघने लगा। उसके नथुनों में चमेली के इत्र की मादक गंध भर गयी। अचानक उसे विचारक की दुर्गंध वाली बात याद आई। राजा विजयप्रताप को लगने लगा कि विचारक, ज्ञानी के वेश में कहीं फिर से विचार-सम्पन्न हो कर तो नहीं लौट आया है? मन में उठी यह शंका उसका सारा सुख छीने ले रही थी। शंका के बादल गहरे होने पर राजा मूर्छित हो गया। राजा के सुरक्षा संघ के प्रतिनिधि को उसकी इस गुप्त यात्रा की जानकारी हो गयी थी। इसलिए उसने अपने एक गुप्तचर दस्ते को राजा के पीछे लगा दिया था। मूर्छित राजा को यही दस्ता महल लिवा लाया। राजा के गुप्त यात्रा से मूर्छित होकर लौटने की खबर से प्रयोगशाला संघ प्रतिनिधि पहले ही नए आदेश के लिए तैयार हो गया। अब तक उसे नए प्रयोगों में आनंद आने लगा था। पिछले दिनों उसकी प्रयोगशाला का नवीन नामकरण भी हो गया था। अब वह मनोवांछित फलप्राप्ति प्रयोगशाला की जगह वैज्ञानिक प्रयोगशाला कहलाती थी। वह वैज्ञानिक प्रयोगशाला प्रतिनिधि के रूप में जाना जाने लगा था। चेतना आने पर राजा ने खसखस के शरबत में ताजा शहद और केवड़ा डाल कर पिया। जैसे ही राजा का गला शीतलता पा कर तृप्त हुआ ज्ञानी की बात के स्मरण ने उसके गले में कड़वाहट भर दी। राजा ने फौरन ज्ञानशोधक यन्त्र बनाने का आदेश दिया। उत्साहित मुद्रा में प्रयोगशाला प्रतिनिधि ने एक दिन का समय मांगा। अगले दिन राजा के सभा में पहुँचने से पहले ही प्रतिनिधि अपने संघ के साथ नए आविष्कार की रूपरेखा लेकर उपस्थित था। राजा के कुछ कहने से पहले की वह बोल उठा-‘‘राजन ज्ञान का सीधा संबंध हमारी इंद्रियों से है। इंद्रियां जो देखती-सुनती-सूंघती-अनुभव करती हैं वही ज्ञान का स्त्रोत हैं और इनमें भी प्रमुख है जिह्वा जो न सिर्फ स्वाद लेती है वरन उस ज्ञान को मौखिक रूप में लोगों तक पहुंचाती भी है। हमारा यन्त्र ज्ञानी की इन्हीं इंद्रियों का उपचार करेगा।’’


ज्ञानी को खोज कर प्रयोगशाला में लाया गया। उसे कुर्सी पर बिठा कर उसके आँख, कान, नाक, हाथ और जिह्वा को निकाल कर देर तक रसायनों में डुबोया गया। फिर सावधानी से उन्हें ज्ञानी के शरीर में जोड़ दिया गया। लंबी प्रक्रिया के बाद अगले दिन जब ज्ञानी को होश आया तब वह राजा की  बुद्धि की प्रशंसा करते हुए उठा। राजा की प्रशस्ति में पूरे कक्ष में गीत गाता हुआ वह बाहर निकल गया। उसके गीत में समाज की रक्षा करने वाले प्रतापी राजा विजयप्रताप यशोवर्द्धन की महानता का गुणगान था। इस प्रकार राजा को अब अपने और जयनगरी के विरोध में जाने वाली सभी शंकाओं का हल मिल गया था। शंकाओं के निर्मूल होने पर राजा ने एक निश्चित तिथि पर नगर में होने वाले वार्षिक सांस्कृतिक उत्सव की घोषणा कर दी। इस दिन ही नए बने सुन्दरतम केंद्रीय कारागार का भव्य उद्घाटन होना भी तय हुआ।


पूरे नगर में धूम मची थी। हर ओर हर्ष और उल्लास छाया था। अन्य नगरों के राजाओं और विशिष्ट अतिथियों को आमंत्रित किया गया था। सभी संघ प्रतिनिधियों के लिए बहुमूल्य उपहारों की व्यवस्था की गई। पूरी नगरी और विशेष रूप से महल और कुंड को फूलों से सजाया गया। प्रथा थी कि इस दिन महल से अपने अतिथियों और प्रतिनिधियों के साथ राजा कुंड तक आकर कुंड में अकेला स्नान करेगा। प्रथा के अनुसार यह स्नान भी साधारण न था। राजा के स्नान के समय नगर भर को अपनी एक अमूल्य भेंट कुंड में समर्पित करने का नियम था। आज जैसे ही राजा विजयप्रताप ने स्नान के लिए कुंड के जल में प्रवेश किया सुरक्षाकर्मियों ने लोगों को बारी-बारी से कुंड में अपनी सर्वश्रेष्ठ वस्तु समर्पित करने के लिए एक-एक करके भेजना शुरू कर दिया। सबसे पहले व्यापार संघ के प्रतिनिधि ने समस्त व्यापारी संघ की ओर से स्वर्ण मूर्ति का विर्सजन किया, स्वर्णकार संघ ने अद्वितीय आभूषणों का विर्सजन किया। इसी तरह सभी संघ प्रतिनिधियों के उपहारों से कुंड भर गया। कुंड से उपहार निकाल कर राजकोष में ले जाने वाले लोग फुर्ती से अपना काम कर रहे थे। इसके बाद बुनकर, लोहार, कृषक, दस्तकार, श्रमिक, नर्तक, गायकों का तांता लग गया। साधारण जन भी असाधारण वस्तुएं जुटा कर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। धूप सर पर आ गई पर राजा का मुख तनिक भी मलिन न था। हर उपहार राजा की प्रसन्नता को बढ़ाता जा रहा था। राजा ने देखा उसकी यशगाथा गाते विचारक, कवि और ज्ञानी भी कुंड की ओर बढ़ रहे हैं। उन्हें देख कर राजा की प्रसन्नता और बढ़ गई। कुंड में आकर पहले विचारक ने अपने झोले से दुनिया भर के विचारों के संग्रह को जल में समर्पित किया। फिर कवि ने अपनी कविताएं और अन्त में ज्ञानी ने अपनी कलम और विविध ज्ञान धाराओं का संग्रह जल में प्रवाहित कर दिया। पर ये क्या अचानक कुंड का जल अपना रंग बदलने लगा। वह पहले लाल हुआ और फिर एकदम काला। रंग बदलते ही उसमें बुलबुले उबलने लगे। उसकी जलराशि ऊपर की ओर उठने लगी। कुंड ज्वालामुखी-सा फट रहा था। राजा कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा था। संघ प्रतिनिधियों के होश उड़ गए पर उस जल में प्राण गंवाने कौन उतरे? वैसे भी प्रथानुसार राजा के अतिरिक्त उस दिन सभी को जल में उतरने की मनाही थी। काफी समय बाद जल शांत हुआ। राजा का अचेत शरीर उसमें तैर रहा था। सुरक्षा संघ के प्रतिनिधियों ने प्रथा की उपेक्षा कर के उसे बाहर निकाला। राजा के पूरे शरीर पर काला रंग चिपक गया था। वह बेहद कुरूप दिख रहा था। चिकित्सा संघ के प्रतिनिधि उसे मरणासन्न अवस्था में चिकित्सालय लिए पहुंचे। बिना समय गंवाए अनेक प्राणरक्षक रसायनों का घोल तैयार किया गया। दुर्लभ प्राणरक्षक औषधियां तुरंत कूटी-छानी जाने लगीं। पर ये सभी प्रयास राजा के प्राण न बचा सके। अन्त में चिकित्सा संघ के प्रतिनिधियों ने राजा की मृत्यु का कारण खोजने का आदेश दिया। राजा के रक्त की जांच की गई। उस रक्त में विचार, कविता और ज्ञान की अधिक मात्रा मिली जिसे राजा का शरीर सहन नहीं कर पाया।


            जयनगर के प्रतापी राजा यशोवर्द्धन के शव को महल ले जाया गया।   
             

सम्पर्क

ई-112, आस्था कुञ्ज अपार्टमेंट्स
सैक्टर 18, रोहिणी-दिल्ली
                                                 

मोबाईल - 9811585399

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)



टिप्पणियाँ

  1. विचारों की उन्मुक्तता, ज्ञान का संचार, साहित्यकार की कल्पना, तार्किक दृष्टिकोण, शैली की परिपक्वता एवं समकालीन सामाजिक एवं राजनैतिक यथार्थ का मिश्रण ही साहित्य की सृजनशीलता का पर्याय बन जाते है।
    जहाँ यथार्थ का चित्रण ही साहित्यकार की कलात्मकता का उद्देश्य होता है, जो साहित्य के माध्यम से समाज के समक्ष आईनें के रूप में प्रस्तुत होता है।

    समकालीन साहित्य की शृंखला में आज प्रसिद्ध कहानीकार प्रज्ञा जी की कहानीं 'चमत्कारी कुंड' समकालीन सामाजिक, राजनैतिक यथार्थ से प्रेरित कहानीं समय के सापेक्ष हकीकत बयां करती हुई प्रतीत होती है, जो ना सिर्फ व्यवस्था के कुरूप चेहरे पर चोट करती है बल्कि समय के साथ समाज को शोषण से आगाह कराती हुई उससे मुक्ति एवं सकारात्मक परिवर्तन के लिए प्रेरित भी करती है।

    कहानीं की पटकथा रोचकता एवं उत्सुकता का संचार करती हुई अपने निहित प्रतीकों के माध्यम से हकीकत के निहितार्थ का अनुसंधान करती है, जहाँ ऐतिहासिक दृष्टिकोण एवं प्रतीकात्मक शैली का परिपक्व सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है।

    कहानीं विधा के अन्तर्गत #चमत्कारी_कुंड के लेखन हेतु कहानीकार प्रज्ञा जी को बहुत बहुत बधाई...☺️☺️

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