विजय गौड़ का आलेख 'विवरण, घटना, विन्यास के विक्षेपण और कहानी के अन्त के संयोग'
साठोत्तरी हिन्दी कहानी आन्दोलन के प्रमुख स्तम्भ दूधनाथ सिंह का
विगत 12 जनवरी 2018 को
इलाहाबाद में निधन हो गया। आज उनका जन्मदिन है। जन्मदिन पर उनको नमन करते हुए आज
पहली बार पर प्रस्तुत है युवा कवि कथाकार विजय गौड़ का आलेख “विवरण, घटना, विन्यास के विक्षेपण और कहानी के अन्त के संयोग” । विजय गौड़ इन दिनों आलोचना के क्षेत्र में भी
सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं। तो आइए पढ़ते हैं विजय गौड़ का यह आलेख।
विवरण, घटना, विन्यास
के विक्षेपण और कहानी के अन्त के संयोग
विजय गौड़
वे कहानियाँ जिनमें अवांतर कथाएँ गुच्छे की तरह होती हैं, पाठक को गहरे उतरने के लिए मजबूर तो करती हैं, कथा के विन्यास में बहाये भी ले जाती हैं। अनथक
चेष्टा और लगाव के साथ पाठक उनमें बहता चला जाता है, बशर्ते अन्तरधारा में मूल कथा गूंजती रहे। मूल कथा की पदचापों से भरी
ऐसी कहानियाँ ही सही रूप में आधुनिक कहानी हो सकती है, वरना ‘लम्बी
कहानी’, ‘गहरे पानी पैठ’ या अन्य किसी संज्ञा से पुकारे जाने के बाद भी अवांतर कथाओं से बन
जाने वाले गंवई गढडों में धंसती, फंसती
कहानी को गंवई आधुनिकता से मुक्त कहानी नहीं कहा जा सकता है। आधुनिकता के समर्थन
की सदइच्छाओं के साथ लिखे जाने के बावजूद वे कहानियाँ अपने असर में, एक सिरे से ले कर अन्त तक लकीर खींचते
घटनाक्रमों वाली कहानियों का सा भी कोई प्रभाव छोड़ने में समर्थ नहीं रह पाती है।
गंवई आधुनिक प्रवृत्ति से मुक्ति की राह कहानियों के घटनाक्रमों को अनावश्यक
विस्तार से देने से नहीं बन सकती है। आधुनिकता के भ्रम को रचती (अवांतर कथाओं के
जाल की बुनावट के बावजूद) भ्रष्ट आधुनिकता की कहानियों को भी इस दायरे में ही
पहचाना जाना चाहिए। अवांतर कथाओं की अवश्यम्भाविता दुनियावी जटिलताओं के घेरे को
काटने में निहित है। हालांकि सिर्फ तात्कालिकता पर यकीन करने वाले ‘वैज्ञानिक नजरिये’ की सीमाएं, सीधे-सपाट
किस्से में बंधी कहानी में ही कथा रस को महत्व देने वाली बनी रह सकती हैं और कहानी
में अवातंर कथाओं को ‘अतिकथन’ भी
करार दे दें तो कोई आश्चर्य नहीं। ‘अतिकथन’ और ‘मितकथन’ बेशक दो अलग अर्थ रखते हों, लेकिन मितकथन को ही अतिकथन मान लेने की गलती
अक्सर होती ही रहती है, कारण- पूर्वाग्रह। पूर्वाग्रह से मुक्त हो कर
ही देख पाना संभव होता है कि जमाना किस तरह के जंजाल और उनकी जटिलताओं में ‘अन्तरजालीय’ होता
जा रहा है। आदि से अन्त तक कोई एक सीधी रेखा खींचना तो संभव ही नहीं।
कहानी के सम्बन्ध में विद्धानों की राय का सहारा लिया जाये तो कहा जा
सकता है, ‘’कहानी अपनी सारी कलात्मकता, सारी सांकेतिकता और अनेकार्थी बिम्बाकता के
बावजूद जीवन की झांकी या झलक ही है, स्वयं
जीवन या जीवन-प्रवाह में उतर कर ‘विजन’ की खोज नहीं।“ यानी किसी भी तरह के विमर्श को जन्म दे पाने और
जारी रख पाने में कहानी कोई बेहतर विकल्प नहीं है। यह छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि एक
सिरे से ले कर अन्त तक लकीर खींचते घटनाक्रमों वाली कहानियाँ की सीमा तो कथानक या
घटनाक्रम के दायरे में ही बनी रहती है। कहानी में भाषा और शिल्प के लटके-झटकों के
साथ कुछ कलाबाजियां कर लेने से कहानी की गति को थोड़ा मंथर तो किया जा सकता है, जिससे वह थोड़ा पठनीय हो जाए, लेकिन कहानी के अन्त को किसी यूटोपिया पर ले जा
कर छोड़ देने से पैदा हो जाने वाली वाचालता तब भी छुपती नहीं। यद्यपि यह भी देखना दिलचस्प
है कि हिन्दी में ‘दलित विमर्श’ और ‘स्त्री विमर्श’ की सारी बहस ही कहानी के माध्यम से किये जाने की कोशिशें जारी हैं।
यहाँ उसकी सार्थकता को प्रश्नांकित करने की कोई बात नहीं, चूंकि विमर्शों के विकास में कहानियों के
अध्ययन की ओर इशारा करना यहाँ अवांतर पक्ष ही है, जबकि मूल पक्ष कथाकार दूधनाथ सिंह की कहानी ‘रीछ’ के
उस पाठ तक पहुँचना है जो विवरण, घटना
और उनके संयोजित विन्यास से बन रहा है।
विवरण, घटना और उनके संयोजित विन्यास का सन्तुलन एक
अच्छी कहानी की पहली शर्त है। फिर चाहे कहानी सिरे से लेकर अन्त तक खींचती हुई एक
ही कथा पर केन्द्रित हो और चाहे अवांतर कथाओं के साथ बुनी गयी हो। कहानी के
उपरोक्त तीनों घटक ही कहानी के अन्त को सहज संयोग प्रदान करने में सहायक होते हैं।
अवातंर कथाओं से भरी कहानी तो इन तीनों घटकों के असन्तुलन पर अन्तरधारा में मूल
कथा के भटकाव तो पैदा करते ही हैं, बहुधा
उसके ‘जुमला’ बन
जाने का खतरा भी पैदा हो जाता है। जुमलेबाजी को यदि एक अवधारणा मान लिया जाए तो
कहने में संकोच नहीं कि तात्कालिकता को ही सर्वोपरि और एक मात्र सत्य मानना उसमें
निहित होता है। तात्कालिकता को सर्वोपरि मानने की यह जिद्द आमतौर पर अतीत को
झुठलाने के साथ ही बनी रहती है। यदि किसी अतीत के होने की स्थितियां बनती भी हो तो
भी उसे हमरूप की तरह नहीं स्वीकारा जाता है। सारा जोर इस बात में रहता है कि यदि
कहीं किसी क्षीण से अतीत का वरण कर भी लिया गया है, तो भी वह अतीत इस मर्यादा को पूरी करने के योग्य नहीं हो जाता है कि
तात्कालिकता का आदि रूप नजर आने लगे। अतीत को झुठलाने का व्यूह रचती तात्कालिकता
स्वयं इस भ्रम का शिकार होती है कि भविष्य की राह उसकी भूमिका से ही तय होगी, उस वक्त खुद के अतीत हो जाने का भान भी उसमें
जाग्रत नहीं हो पा रहा होता है। तात्कालिकता की इस सैद्धान्तिकी ने ही हिन्दी
कहानी में ‘नयी कहानी’ की
संज्ञा को स्थापित किया। उसके बाद ‘साठोतरी
कहानी’ और उसी रास्ते बढ़ते हुए हाल-हाल तक सुनायी देती
रही संज्ञा थी ‘युवा कहानी’।
जुमलेबाजी का सीधा सम्बन्ध चर्चा के केन्द्र से होता है और चर्चा का केन्द्र बने
रहने की हरचंद कोशिश तो ‘विवादों’ में
फंस कर भी हथियायी जानी चाहिए, वह
इस पर यकीन करती है।
साहित्य में जुमलेबाजी की यह तस्वीर यूं तो समकालीन राजनीति में जारी
जुमलेबाजी से भिन्न है, और वैसी खतरनाक भी नहीं। वरना खतरनाक तरह से
समाज को विभाजित करती राजनीति के एजेण्डे तो ‘जुमलेबाजों’ की ही गिरफ्त में होते जा रहे हैं। उसके
उद्देश्य साहित्य की दुनिया को भी अपने तरह से नियंत्रित करने वाले हैं। रणनीतियों
के तौर पर उसने साहित्य की बहसों को भी अपने अंदाज में संचालित करना शुरू भी किया
हुआ है। एक गम्भीर कर्म को ‘उत्सवी’ माहौल में बदलते हुए जुमलेबाज तरह संवादरत होने
के दृश्य बहुत आम है। कौन ‘जुमला’ कब
बहस का एजेण्डा हो सकता है,
जुमलेबाज सिर्फ यह जानने में ही माहिर नहीं हैं, अपितु इस कदर हुनरमंद हैं कि वक्त अनुकूल पा कर
जुमले उछालते ही रहते हैं। हाल-हाल के उस जुमले को याद करें जो कई दिनों तक सोशल
मीडिया पर कोहराम मचाए रहा - “हमारा
ईश्वर उनके खुदा से कमजोर है क्या’’ और
हो न हो भविष्य की बहसों का हिस्सा भी होने लगे।
तात्कालिकता की सैद्धान्तिकी से स्थापित हुए कहानी आंदोलनों ने
हिन्दी कथा साहित्य में किस तरह से हस्तक्षेप किया और समाज में आधुनिकता के प्रसार
की जिम्मेदारी का वहन किस तरह से किया, भविष्य
की आलोचना का यह विचारणीय प्रश्न हो सकता है। जबकि, भविष्य की संभावना के लिए स्वयं को ही उदगम मानने वाले अहंकार से भरी
हिन्दी कहानी आंदोलन की उपरोक्त तीनों ही संज्ञाओं पर गौर करें तो पीछे से सुनायी
दे रही यह आवाज छुपी नहीं रह पाती कि यदि कुछ पुरातन है भी, रखो उसको एक तरफ, नयी कहानी ही एक मात्र सत्य है। बिल्कुल इसी तर्ज पर- साठोतरी दौर
के रचनाकार से पूछें कि हिन्दी कथा साहित्य में आधुनिकता को परिभाषित करती
कहानियाँ कौन सी हैं, संभव है सामने को भेद देने वाली मुस्कराहट
उत्तर बने और व्यंजित करे कि बस उस तक आ कर ही ठहर गई वह तो। युवा कहानी तो यह
बताने की भी जुर्रत नहीं समझती कि उसका शैशव कहाँ से शुरू होता है, परिणाम सामने है- एक लम्बे अतीत वाले शैशव की
तुलना में युवा कहानी की तो अकाल मृत्यु ही हो चुकी है। ये तीनों ही संज्ञायें उस
समावेशीपन को भी धारण नहीं करना चाहती जो हिन्दी कहानी आंदोलनों की ऐसी ही झूठी
उपस्थिति वाले विन्यास को समांतर, संचेतन, जनवादी, प्रगतिशील, दलित आदि शब्दों के प्रयोग से नामांकित करने
वाला रहा। भविष्य की संभावना के उद्गम होने के अहंकार ने ही साठोत्तरी दौर के
कहानीकारों और उनके पैरोकार आलोचकों को अपने-अपने तेवर और तरीके से इस बात का
उद्घोषक बनाया कि ऐसा न पहले रचा गया और न आगे रचा जा सकना संभव होगा। ऐसी
अभिव्यक्तियों के समूह-गान ने दौर विशेष के रचनाकारों के भीतर अहंकारी प्रवृत्ति
को पैदा किया और साथ ही अतिमहत्वाकांक्षाओं के वे बीज भी बोये हैं कि जिनसे फूट कर
लहराने वाली फसल होड़ करती प्रतिद्वंदिता की हवाओं से हिन्दी की रचनात्मक दुनिया
में हलचल मचाए रही है। यह एक तथ्य है कि युगबोध की संज्ञा वाले साठोतरी युवाओं ने
ही जीवनानुबोध के साठोतरी समय में ‘युवा
कहानी’ को पुनर्जीवित करना चाहा। यौनिक प्रसंगों की
अभिव्यक्ति में बोल्डनेस तलाशना तो साठोतरी दौर में ही शुरु हो चुका था। ‘देहवाद को व्यापक समर्थन दे कर उसे तत्कालीन
युवक के सामान्य आक्रोश की तरह मान लेने की आलोचकीय टिप्पणियां भी खूब लिखी गई।
हिन्दी कहानियों को ‘कथा
आंदोलनों वाली संगति’ में नहीं अपितु समाज रूप से आधुनिकता के प्रसार
उनकी भूमिका को ध्यान रख कर पढ़ा जाए तो दिखायी देगा कि अपनी विकास यात्रा में
आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद से खुद को मुक्त करती हिन्दी कहानी ने जिस तरह के बदलावों
का वरण करना चाहा उसमें निष्कर्षों भरे पाठ वाली कहानियाँ गायब होती चली गईं।
यथार्थ का प्रस्तुतिकरण भी शुद्ध प्राकृतवाद की तरह नहीं, बल्कि बहुत सी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक
गतिविधियों के मानव मन पर पड़ने वाले प्रभाव जगह पाने लगे। मनोविकार और मनोविनोद के
भाव भी। इस दृष्टि से आधुनिक कहानी के विकास में यह बेहतर स्थिति कही जा सकती है।
कथाकार दूधनाथ सिंह की कहानी ‘रीछ’ ऐसे ही मनोविकार की कहानी है जो यथार्थ के उस
जंजाल से बुनी है जिसमें उभार लेता नया मध्यवर्ग साफ नजर आता है। अपना घर है, सोने का कमरा अलग, बैठकखाना अलग और अध्ययनकक्षनुमा व्यक्तिगत
स्पेस भी। लेकिन पुरातन मानसिकता से भरा एक तहखाना भी। कथानायक सोने के कमरे से उठ
कर अपने व्यक्तिगत कक्ष में जब भी चला आता है, उसी
वक्त तहखाने को खोलने की चाह उसके भीतर कुलबुलाने लगती है। तहखाने में छुपा बैठा
हिंसक जीव हर वक्त छलांगे मारने को तैयार, कभी
कंधे पर, पीठ पर और कभी सिर पर बैठ जाना चाहता है। लेकिन
यह भी सच है कि वह उस रीछ की हिंसकता की चपेट से बचने की कोशिश करना चाहता है।
इसीलिए चाह कर भी तहखाने के दरवाजे को पूरी तरह से बन्द भी नहीं कर पाता। न जाने
उसी क्षण वह ऐसी छलांग लगा दे कि तहखाने में उसे वापिस ढकलेना ही मुश्किल हो जाए।
बहुत सचेत हो कर वह दूर से ही उसकी एक-एक हरकत पर निगाह रखे है।
साठ के दशक तक आते-आते बनने वाला सामाजिक, राजनैतिक परिदृश्य बताता है कि एक ओर आजादी से
मोहभंग की स्थितियां थी और दूसरी तरफ सत्ता का मजबूत होता जाना जारी था, उसके विरूद्ध संघर्ष की वह मुहिम भी जारी नहीं
रखी जा सकती जो आजादी से पहले की गोरी सरकार के विरूद्ध स्वीकार्य और विश्वसनीय
बनी हुई थी। फलस्वरूप समाज निराशा के गहरे गर्त में डूबने लगा। स्थितियों की
विद्रूपता ने सामंती पिछड़ेपन की अहमन्यता से मुक्त न हो पाए मर्द, परिवार के भीतर आक्रामक हो कर ही अपनी सत्ता को
कायम रखने में यकीन करते रहे। आक्रामक यौनिक क्रिया में ही अहम की तुष्टि ने
कुंठाओं के अतिसार पैदा कर दिये जिसने यौनिक सुख की कामना के लिए बलात्कारी
मानसिकता को प्रश्रय दिया। ‘रीछ’ उस यौनिक सुख का ही भाष्य है। कहानी के नायक की
चिन्ताएं है कि अन्तरंग संबंधों की उसकी साथी, जो
पत्नी ही है, कहीं अपने मर्द के भीतर जाग जाने वाले रीछ को
पहचान न ले। उस पहचान के ही उदघाटित हो जाने की आशंकाएं उसे बेचैन किए रहती है, "उसे दुर्गन्ध लग गयी है और अब उसके सहारे टटोल
कर वह वहाँ तक आसानी से पहुँच जायेगी। ...तभी वह उठ कर खड़ी हो गई। वह सहसा जैसे
होश में आया। अपनी आवाज को भरसक संयत करते हुए उसने कह दिया कि वह ठीकठाक है।
अचानक उसे एक काम याद आ गया। एक जरूरी फाइल रह गई है। निपटा कर अभी आया। इस तरह
बोलते हुए उसने मुस्करा कर सारी बात को स्वाभाविक बनाने की कोशिश की।"
अपने भीतर की आशंकाओं से निजात पाने के लिए वह तहखाने में उसी तरह
झांकता रहता है जैसे कोई नागरिक जेब कतरों से अपनी जेब बचाने के लिए मिली हुई
हिदायत का बार-बार उल्लंघन करता है। ‘उस
जगह की ओर ऊपर से लापरवाह दिखना, जहाँ
पैसे रखोगे’, यह आवाज नागरिक के कानों में गूंजती तो रहती है, लेकिन अतिशय सजगता के कारण वह उसके अर्थों को
पकड़ने की एकाग्रता तक पहुँचने में असमर्थ ही रहता है और हर थोड़ी-थोड़ी देर बाद
छू-छू कर देखता रहता है। जरा सा खटका हुआ नहीं कि उंगलियों के दबाव से टटोलता है
कि भीतर की जेब में रखे नोटों का स्पर्श महसूस हो रहा है, या नहीं। ‘रीछ
का एक पाठ द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पैदा हुई सामाजिक स्थितियों से भी गुजरता
है। द्वितीय विश्व युद्ध की त्राहि-त्राहि ने दुनिया को ऐसे ही गहरे विक्षोभ, निराशा और अवसाद में डूबने को मजबूर कर दिया
था। मानवता को शर्मसार करती उस हिंसा ने व्यक्ति से व्यक्ति के घटनाक्रमों छीन
लिया था। दुनिया भर के साहित्य में उन हालातों की अनुगूंज साफ सुनाई देने लगी। कथा
पात्रों का नितांत अकेलापन रचनाओं के पाठ को दूभर करने लगा। जिनको खोलने के लिए
मनोवैज्ञानिक अवधारणा के सूत्र सहारा बनने लगे। मानव मस्तिष्क में वास कर रही
स्मृतियां, उनके चेतन एवं अचेतन प्रभाव और उद्दीपन के तत्व।
‘रीछ’ कहानी
के नायक के अकेलेपन में भी अवसाद की स्थितयां उसके मनोवैज्ञानिक विकास की बानगी बन
रही हैं। वांछित यौन इच्छाओं की अतृप्ति में डूबा कथा नायक बार-बार अपने उस तहखाने
को खोल-खोल कर देखता है जहाँ प्रवंचनाओं के लिए उद्धत ‘रीछ’ बेहद
डरावने ढंग से उसका पीछा करता हुआ है। बिस्तर में पत्नी के साथ होते हुए वह खुद पर
हावी हो जाने वाले रीछ को प्रकट न होने देने के अपराध-बोध से घिरा है। यौन वृत्ति
के लिए अस्वीकृति की आशंका उसे हर वक्त भयभीत किए रहती है। पतिपन की पारम्परिकता
में घिरा उसका मानस बेचैनी की तड़प के साथ हर वक्त उसे अपने एकांत कमरे में जाने को
मजबूर किए रहता है।
साठोत्तरी दौर की आधुनिकता इस विचार से सृजित होती रही कि निजी
अनुभवों को महत्व दिया जाए,
‘’स्वयं भोक्ता को
दृष्टा की तटस्थता से आंकने की प्रक्रिया ने लेखक को परिवेश के साथ जोड़ा, और व्यक्ति तथा परिवेश के सम्बंध-क्षण की यह
कहानी अधिक ईमानदार, अधिक प्रमाणिक और अधिक सच्ची हो उठी।"
यद्यपि
निजी अनुभवों से सृजित होती कहानी के पक्ष को चिह्नित करते हुए तत्कालीन युवा
कथाकार और आलोचक राजेन्द्र यादव जमाने की आगे बढ़ती धारा के कारण उपजने वाली विसंगतियों
पर भी उंगली रखते हुए लिख ही गए कि न तो वह परिवेश स्थिर था और न ही वह व्यक्ति।
दोनों में निरन्तर कुछ-न-कुछ बदल रहा था। इस तरह से वे जमाने के बदलाव के साथ
कथानकों की जिस सीमा को चिह्नित करते हैं, उसको
सीमा मानने की बजाय उन गंवई ढलानों के रास्ते पर उतरने वाला कहा जाना चाहिए जो
अभिव्यक्तियों के शालीन रूप में जुमले होते हुए ‘भाषायी मुहावरे’ तक
पहुँचते हैं। क्योंकि, रचनाओं की वस्तुपरक आलोचनाओं के बजाय झूठी
जनतांत्रिकता के ढोंग के प्रदर्शन में आत्मकथा, स्मृति
आलेख एवं संस्मरणों के जरिए रचनाकार के व्यवहार में ‘कमीनेपन’ को
याद करना अहम माना जाने लगा। इस सैद्धांतिकी का सीधा सम्बन्ध रचना की प्रमाणिकता
के साथ जोड़ कर देखने से रहा। यहाँ तक कि अपने ‘कमीनेपन’ को खुद रखने के चलन को ‘आधुनिक’ मूल्य
की तरह स्थापित किया गया और अहंकारी मुद्रा में उन्हें इस तरह बखान किया गया कि ‘कमीनेपन’ को
स्वीकार्य भी बनाया जा सके। चेलावाद के सहारे गुरूओं के गुरुडम का उल्लेख करता
समकालीन दौर गवाह है कि चेलों ने भी कम छद्म नहीं रचा। मुहावरे में बात की जाए
तो गुरूओं के गुरुडम और चेलों के छद्म। जो
चेला जितना अपने गुरू के ‘कमीनेपन’ को
मूल्य मान कर रख सकते हैं,
वह उतना बेहतर व्यक्ति और रचनाकार है। गुरू भी
ऐसे, जो चेलों के लिए भरपूर मसाला छोड़ने पर यकीन
करते हो। कभी हमलावर हो कर और कभी चुपके से गोड़ छू कर करीबी बने रहने के अभ्यासीपन
ने हमले और समर्थन की दोनों ही स्थितियों को ‘नूरा
कुश्ती’ की बजाय ‘रियलिटी
शो’ में बदला है।
इस लहर ने उस ‘आधुनिकता’ में अपना अक्स गढा़ था जिसने घोषणाओं-उदघोषणाओं
के जरिये ‘कमीनेपन’ के ‘उदारतावाद’ का
पाठ तैयार किया और आज की ‘खुली-खुली’ दुनिया
का निर्माण किया। अपने ‘कमीनेपन’ के
साथ प्रतिपक्ष को भी कमीनेपन के दायरे में घसीट लाने का यह उपक्रम ही होंठों को
तिरछा खींच, प्रतिपक्ष को चिढ़ाऊ अंदाज में, प्रत्युतर के लिए उकसाने वाला हुआ। हँसी ठट्टा
के माहौल का सृजन करती यह प्रवृत्ति किसी एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का मसला नहीं, साठोतरी युवा दौर के दौरान रोपे गए गंवई आधुनिक
पौधों की ही लहलहाहट है। लेकिन इसे ‘प्रगतिशील
कमीनापन’ ही मानिये जो ‘आधुनिकता’ की उपज (बायप्रोडक्ट) है। शराबखोरी, ऐय्याशी, यौनिक
संबंधों की स्वच्छन्दता आदि इसके अन्य रूप हैं।
‘रीछ’ के सवाल पर आलोचक अक्सर अतीत और वर्तमान के
द्वंद का जिक्र करते हैं। एक ओर वर्तमान पत्नी और दूसरी ओर अतीत का असफल प्रेम।
मेरी इस पाठ से आंशिक सहमति है। क्योंकि यहाँ पत्नी के साथ होते हुए अतीत के प्रेम
का नहीं कुंठित यौन वृत्ति का जागना नायक को आशंकित किए रहता है। कहानी का यह पाठ
स्वयं लेखक के द्वारा अपनी कहानी के उलझाव भरे कथ्य के सम्बन्ध में दिया गये जवाब
से बनता है। हेमन्त कुमार को दिये गये एक साक्षात्कार में कथाकार दूधनाथ खुद कहानी
को व्याख्यायित न कर पाने पर कहते हैं, ‘’पत्नी
को प्यार करते हुए पूर्ववर्ती प्रेम का याद आ जाना दाम्पत्य जीवन का सबसे कठिन
दुःख है। इसी दुःख को कहानी के माध्यम से व्यक्त किया गया है। इसी यातना को, किसी यौन कुंठा को नहीं। लेकिन कला संरचनाएं
मूर्खों के लिए नहीं होती। वे अक्सर स्थूल प्रमाणिकताएं ढूंढते हैं।‘’
सवाल
यह नहीं है कि कहानी किसके अन्त के साथ से है- अतीत के अन्त के साथ या अतीतजीवी के
अन्त के साथ। ‘’जाहिर है कि कहानी इस प्रतीक में उलझी हुई है।‘’ कहानी का ‘मैं’ कोई कथानायक नहीं मानो लेखक ही हो जिसके बचाव
में दूधनाथ जी को कहना पड़ता है कि यह फ्रस्टेशन की कहानी नहीं है। वे अपने पाठकों
की आलोचनाओं पर ही प्रश्नचिह्न लगाने की तत्परता में नजर आते हैं। विमर्श के जन्म
देने और जारी रखने में कहानी कितनी सार्थक हो सकती है, जबकि कहानी जीवन के विस्तार के बजाय एक झलक
चित्र ही होती है। अतीत के बजाय अतीतजीवी को खत्म करना विमर्शजन्य अवधारणा है, सवाल यह भी है कि यदि कहानी के मार्फत विमर्श
को पैदा किया जा गया है तो कथ्य के चुनाव में यौनिक अवधारणा क्या सीमा नहीं बन
रही।
गंवईपने को परिभाषित करते हुए आधुनिक होने की चाह ‘रीछ’ में
दिखती तो है, लेकिन कहानी का कथ्य उसको संकुचित कर देता है।
पति और पत्नी के आपसी रिश्तों में यौनिक आचरण और शुचिता के दायरे से बाहर निकलने
की कोई कोशिश दिखती नहीं। ऊपर से स्त्री के मन में कब और क्या चल और घट रहा है, उसको रखने में विवरणों के जरिये ही नहीं उसके
मुंह से बुलावाये जा रहे संवादों में भी स्त्री का प्राटोटाइप खड़ा करने में ही
सारी ऊर्जा खर्च हुई है। ‘’कितनी गलीज बातें मुँह से निकालती हूँ। मैं
तुमसे बताती हूँ, हर औरत ऐसे ही सोचती है। ...अगर उसे मालूम हो
जाय कि वह जूठन उठा रही है तो वह तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगी। सचमुच कभी नहीं
क्षमा करेगी। विवशता में क्या नहीं होता लेकिन मन से इसका अहसास नहीं जाता।
...नहीं हो जाता। कोई भी छिछड़ा क्यों पसंद करेगी।‘’ जीवन की अन्य व्यावहारिकताओं की तरह स्त्री
पुरूष संबंधों में कामुकता और आमोद-प्रमोद को भी स्वाभाविक एवं निर्दोष समझा जाता
तो शायद कहानी निराशा की बजाय उत्साह भरे जीवन का राग हो सकने की संभावना से भरी
होती।
साठोत्तरी कहानियों की आलोचना में कथाकार राजेन्द्र यादव का मानना
रहा कि ‘’अपने किसी भी अनुभव को ‘संत्रास’, ‘मृत्युबोध’, ‘अजनबियत’, ‘बोरियत’ से जोडि़ए और आधुनिक बनिये।“
इस
सूत्र के साथ साठोत्तर समय में रची गयी कहानियों की यह आधुनिकता भी उस गंवईपन का
शिकार हुई जिसने आजादी के मोहभंग की स्थिति में पहुँचती हुई जनता को राहत देने की
बजाय उस ‘इंकलाबी’ रास्ते
पर धकेला जो ताकतवर होती जा रही सत्ता के खिलाफ कोई मुक्कमिल संघर्ष छेड़ने से बचती
रही। कथापात्रों की आलोचना में उस दौर के युवा कथाकार राजेन्द्र यादव लिखते हैं, “जिन्दगी को झेलने और भोगने वाले नायक, किन मोर्चे पर झेलते-भोगते हैं, यह सब कहानी से अनुपस्थित है, सामने आता है
केवल औरत पर थूकता, गाली देता, उसे
भोगता और फिर ऊलजलूल जिन्दगी से ऊब कर संत्रस्त या तल्ख हो जाता नायक...’’
आधुनिकता की बयार से खुद को भिगोती हिन्दी कहानी गांधी और मार्क्स से
होते हुए जब फ्रायड के आँगन में पहुँचती है तो मनोविकृतियों के संजाल में उलझे
व्यक्तित्व से भरे पात्रों को भी नायकत्व प्रदान करने लगती है। विकृतियों के
कारणों को फ्रायड ने जिस मनो-ग्रन्थि के साथ परिभाषित किया, हिन्दी कहानी के लेखकों ने उसे कहानी में ढालने
का यत्न किया और आज तक जारी है। अतृप्त काम वासना अवसाद को जन्म देती है, फ्रायड के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के इस सार पर
यदि दूधनाथ सिंह की कहानी ‘रीछ’ का
पाठ करें तो शायद कुछ सूत्र हाथ लग सकते हैं कि कहानी को खोला जा सके वरना विकृतियों
के विकार में तड़पते कथानायक की चिन्ताओं में कौन सा रीछ पंजे गड़ाए है, उसे पहचानना मुश्किल है। मार्क्सवाद के प्रभाव
से सोच-विचार में आधुनिकता ने वस्तुनिष्ठता की अहमियत को स्थापित किया, मनोगतवाद से मुक्ति की इस वैज्ञानिक प्रक्रिया
ने समाज को भ्रमों, अंधविश्वासों से बाहर निकलने में मदद की। लेकिन
प्रकृति के अनसुलझे रहस्यों को समझने में मनोगत कारण फिर भी असरकारी रहे जिसे
फ्रायड ने मनोवैज्ञानिक नजरिया दे कर वस्तुनिष्ठता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
फ्रायड ने इस बात को समाने रखा कि दमित कामवासना व्यक्तित्व के निर्माण में
असरकारी भूमिका निभाती है। चूंकि दमित इच्छाएं हर वक्त अपने प्रवाह का रास्ता
ढूंढती रहती हैं। लेकिन व्यक्तित्व के निर्माण की इस प्रक्रिया में फ्रायड सामाजिक
पक्ष को अनदेखा किये रहते हैं। फ्रायड से एडलर एवं युंग तक आते-आते मनोविज्ञान ने
वैयक्तिक पक्ष को सामाजिक पक्ष में परिवर्तित करने में अहम भूमिका निभाई। यानी हीन
भावना से ग्रसित व्यक्ति दूसरे पर अपना अधिकार जमाना चाहता है, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहता है। प्रेम और
वासना इस छोटे सी रेखा से ही विभक्त हो जाती हैं। वरना सहवास की क्रिया में स्त्री
पुरूष शरीर तो उन दोनों स्थितियों में एक समान है जो प्रेमवश संपन्न हो रही हो या
जिसे बलात संपन्न किया जा रहा हो।
मनुष्य की इच्छाओं, आकांक्षओं
की बात भी प्रकृतिजन्य सहजता के विश्लेषण पर ही संभव हैं। किसी भी जीव की में
बहुत सी प्रवृत्तियां अनिवार्य एवं अपरिहार्य होती हैं। उनकी वजह से ही जीवन में
रस घुला रहता है। लेकिन यह ज्यादा सन्तुलित बात है कि प्रवृत्तियों की स्वाभाविक
अनिवार्यता उसकी अपरिहार्यता को संयमित करती है। अस्वाभाविकता का चरण? वासना है जिसमें असंयमित अपरिहार्यता के वशीभूत
मनुष्य पशुवत व्यवहार करने लगता है। काम वासना ऐसी ही एक अस्वाभाविक विकृति है।
उसके उभरने के साथ ही मनुष्यता कलंकित होती है। वासना के उभार किन कारणों से होते
हैं, यदि इसकी पड़ताल करें तो दिखायी देगा कि जब
प्राणी किसी एक भाव की निरन्तरता में ही बने रहता है और आपसी संबंधों को निभाने के
लिए तत्पर होते हुए भी उससे विलग हो कर व्यवहार नहीं करता है तो वासना के वशीभूत
हो जाता है। यानी काम वासना जैसी प्रवृत्ति को भी अन्य मानवीय प्रवृत्तियों की तरह
उठती मनोगत एवं मानसिक तरंगों के साथ उभारा और संयमित किया जा सकता है। संयम कोई ऐसा
खराब ख्याल नहीं कि उसके प्रयोग से
आधुनिकता के चेहरे पर बट्टा लग जाता हो।
यौन तृप्ति के लिए स्वच्छंदता जैसे विचार से प्रभावित ‘रीछ’ का
नायक उस गंवई आधुनिक प्रवृत्ति की उपज है जिसने यौन संबंधों की स्वच्छन्दता को ही
आधुनिक माना है और अपने पक्ष को इस तरह से रखा है कि यौन स्वच्छन्दता को मान्यता
मिलनी चाहिए, किसी भी तरह के प्रतिबन्ध समाप्त या शिथिल किये
जाने चाहिए। यह वही पुरूष मानसिकता है जो स्त्री को परिभाषित करते हुए उसे हमेशा
बन्द कोठरी में वास करने वाली बनाये रखना चाहती है। अतीत के अपने संबंधों से पत्नी
को अवगत कराते हुए अहम से भरी रहती है और अपने भीतर की कुंठाओं को ढांपने के लिए
बता दी गई किसी ‘गुप्त’ बात
के हवालों तक ही पहुंची हुई रहती है। “नहीं, इस तरह आकस्मिक रूप से वह यह सब कुछ उद्घाटित
होने देना नहीं चाहता था। न ही उसकी पत्नी यह सब कुछ अचानक सह सकती थी। वह निर्णय
तो बाद में लेगी। उसके पहले उसका क्या होगा, इसकी
कल्पना से ही इसके रोंगटे खड़े हो जाते।" पत्नी अपनी जिम्मेदारी निभाती रहे, पति अपने हर किये-धरे के साथ पतिपन की ठसक में
रहे। पति रूठा हुआ-सा दिखे और ‘दूसरी’ स्त्री के पास जा चुका हो, तो पत्नी उसके रूठने के कारणों को खोजने की
कोशिश करे। अपने को कमनीय दिखाने की हर संभव कोशिश करे। आरोप लगाये बेशक, पर आक्रामकता को नियंत्रित रखे। ताकि पति
परमेश्वर ‘भटकी’ हुई
राह से वापिस लौट आए। ऐसा न होने पर एक अनजाने भय में जीती पत्नी ही दयनीयता की
भीख मांगती नजर आती है। ‘रीछ’ कहानी
में पत्नी की स्थिति इससे भिन्न नहीं दिखती।
पत्नी जो ‘स्त्रियोचित भ्रम’ में रहते हुए पहले पहल पति के किसी अन्य स्त्री
से सम्बन्ध होने वाली अवधारणा पर यकीन करती थी, बाद
में ‘वैसा’ कभी
कुछ नजर न आने पर पति के भीतर चौंक, कौंध, और वह भी खास क्षणों में, उनके अनुमान न लगा पाने की वजह से गहरे अवसाद
में डूबने लगी है, उधर पति को दिखायी देने वाला रीछ कुछ ज्यादा खूंखार शक्ल में अब उसे भी दिखने लगता
है। ‘तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? यह कौन हमारे पीछे पड़ा है? तुम्हें मालूम है तो बताते क्यों नहीं? मैं इस तरह नहीं रह सकती। अभी उस दिन दीवारों
पर नाखूनों की खरोंच दिखी थी...। यहाँ उसके लिए क्या है?’
स्त्री के भीतर के इस भय की ज्यादा जिम्मेदारी उस कथा विवरण में
स्थितियां नहीं जो पति के निजी कमरे के वातावरण में बदबू बन कर घूम रही है? वह बदबू किसकी है? क्या कुंठा के स्खलन और उस स्खलन को तहखाने में
छुपा देने की असफल चेष्टा की उपज नहीं? “तुम्हारे
कमरे की सफाई करने जाती हूँ तो अजीब-सा सन्नाटा लगता है। लगता है तहखाने वाली
कुठरिया में कोई बन्द है। उधर देखने का साहस नहीं होता। क्या तुम कभी उसे खोलते हो? ...तुम आरामकुर्सी बिलकुल कोने में क्यों रखते हो? जब भी जाओ खिड़कियाँ बन्द मिलती हैं। खोल कर
क्यों नहीं जाते? कितना गुम-सुम लगता है कमरा। बदबू आती रहती
है...।" यह वही जीव है-रीछ, जिसे
चाहे और अनचाहे तरह से कथानायक अपने भीतर पालता रहा है। "उसने उसे पकड़ कर दोनों टाँगों के नीचे दबा
लिया और घूँसों से पीटने लगा। इस तरह एकाएक ताबड़तोड़ पीटे जाने पर पहले तो वह
हतप्रभ रह गया। शायद उसे विश्वास नहीं हो रहा था। शायद वह समझता था कि वह उसे आया हुआ देख कर खुश हो जाएगा और चुमकारेगा। वह इस प्रहार को सहने के लिए
बिलकुल ही तैयार नहीं था। ...फिर उसने जोर की एक घुरघुराहट की आवाज निकाली और उछल
कर उसकी पीठ पर चढ़ गया। उसने अपना जबड़ा खोला और उसकी गर्दन उसमें भर ली। लेकिन कुछ
ही सेकेंडों में लिपट गया और जीभ से उसके पैर चाटने लगा।"
‘रीछ’ कहानी पर बात करने के लिए जरूरी है कि
साठोत्तरी कहानियों में व्यक्त हुआ भारतीय मध्य वर्ग एवं उसके भीतर व्यापते
अकेलेपन, क्षोभ, निराशा
का वस्तुपरक अध्ययन हो। अवसाद में डूबे कथापात्रों को समझने के लिए तत्कालीन
राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को समझने की भी
जरूरत है। स्पष्ट है कि कथ्य को विश्व साहित्य की तर्ज पर उठाये जाने की बजाय उन
स्थितियों के दायरे में उठाये जाने की कोशिशें होती तो हिन्दी कहानी में आधुनिकता
का स्वर अपने सन्तुलन के साथ रहता। साठ के दशक तक आते-आते भारतीय आजादी का ताप रात
को जलाई गई होली के सुबह तक बुझ कर ठंडी होती जा रही राख की तरह होता चला जा रहा
था। जनमानस, खासतौर पर मध्य वर्ग आजादी के मोहभंग से बाहर
निकलने की स्थितियों में पहुँच चुका था। मध्य वर्गीय युवा पीढ़ी के भीतर गुस्सा
पनपता जा रहा था। यह ऐसी युवा चेतना थी, पारम्परिक
नैतिकता और मूल्यों को जो आंख बन्द कर मानने और स्वीकार करने में यकीन नहीं कर पा
रही थी। उसका आदर्श समाज की बेहतरी का आदर्श हो सकता था और जिसे पाने के लिए
पुरातनपंथी ताकतों के खिलाफ संघर्ष एक मात्र रास्ता था, यह बात उसे समझ भी आ रही थी। लेकिन गुस्से के
प्रस्फुटन के लिए सामूहिकता का कोई ढांचा मौजूद नहीं होने के कारण विरोध की लहरें
परिवार के बुजुर्गो के निषेध से आगे नहीं बढ़ सकीं। प्रतिरोध के सबसे ‘क्रांतिकारी’ रूप के तौर पर परिवार नामक संस्था का संकुचन होता गया। सामाजिक रूप
से यह ऐसा संकुचन था जिसमें अबोलापन, विस्थापन, बेरोजगारी आदि बहुत सी ऐसी स्थितियां स्वतरू
सन्निहित थी। सामाजिक और पारिवारिक जीवन के निर्वहन में लगने वाली ऊर्जा एवं समय
का जाया होना और फलस्वरूप चिड़चिड़ापन, नफरत
और तुनकमिजाजी के व्यवहार के कारण हर वक्त का उनींदापन, अनिंद्रा एवं अन्य तरह से रोग ग्रस्तता, व्यक्तिगत रूप से प्रभावी लक्षण थे। कुल मिला
कर जो हालात बने, उसमें दिखाई देने लगा कि मुक्ति की राह आसान
नहीं है, प्राप्ति के लिए जिस तरह की मांग हो सकती थी,
उसमें
अपने वर्गीय दायरे को तोड़ कर बाहर निकलना जरूरी था। घर-परिवार छोड़ देना, वर्ग छोड़ देना नहीं है, इस सहज सामान्य बात को समझना भी जरूरी नहीं रहा
और ‘बोहेमियन’ किस्म
की जीवन शैली को भी एक मूल्य मान लिया गया। परिणामस्वरुप अजनबियत और अकेलेपन के संत्रास समाज को घेरने लगे। अवसाद में घिरे ऐसे
पात्रों की मनोदशा को ही उस दौर की हिन्दी कहानी ने मनोवैज्ञानिक तरह से समझने की
कोशिश की, लेकिन कथ्य के तौर वह ‘वैश्विक’ होना
चाहती रही। कथाकार दूधनाथ सिंह की कहानी ‘रीछ’, ‘दुह्स्वप्न', ‘आइसबर्ग’ आदि ऐसी ही कहानियाँ हैं।
यह कैसा प्रेम (पूर्व प्रेम) है, जो
लम्बे-लम्बे नाखून और हिंसक से दिखते चेहरे के साथ ही नायक की स्मृतियों में दर्ज
है? कहीं ऐसा तो नहीं कि एक लम्बी अवधि के दौरान
कथाकार अपनी ही कहानी के विवरणों को याद नहीं कर पा रहा हो और युवा दौर में लिखी
जा चुकी कुंठा को इसलिए कुंठा मानने को तैयार नहीं कि इस बीच अनुभव और दूसरे
स्रोतों से हासिल हो चुके ज्ञान से जान चुका हो कि कुंठा की अभिव्यक्ति का होना तो
‘गैर प्रगतिशील’ हो जाना है। नैतिक और राजनैतिक (morally & politically) रूप से ‘करेक्ट’ दिखने
से अच्छा है, समय विशेष को व्याख्यायित करना। यदि यह रीछ
पूर्व प्रेम का प्रतीक है,
जो पूरी तरह से गायब हो चुका अतीत है, तो ऑफिस से घर लौटते हुए इसका बार-बार एक ही
जगह पर दिख जाना कैसा। इस तरह के संकेतों में वह पूर्व जैसा पूर्व होने की शर्त को
तोड़ रहा है। जबकि जीवनानुभवों के हवाले से देखें तो किन्हीं कारणों अपने उस अतीत
से आंख न मिला पाने वाला नायक ही नजर आता है, जो
हर क्षण बच निकलने की कार्रवाई में असफल होता हुआ है। ऐसे समझें कि दो दोस्तों के
बीच किन्हीं कारणों ने से मनमुटाव के चलते, या
अन्य भी किसी कारण की वजह से, पहला
दूसरे को इग्नोर कर देना चाहता है। बातचीत तो दूर, आने जाने वाले रोज के रास्ते पर दिख जाने पर भी परिचय का भाव समेटी
निगाहों तक से देखना नहीं चाहता है। लेकिन अनदेखा करने के कारणों को कह न पाने की
स्थिति में बार-बार प्रकट हो जाने वाली स्थितियों के कारण घबराया हुआ है।
"उसके
इस तरह अप्रत्याशित रूप से प्रकट हो जाने पर... इतना अधिक डर गया था कि उसने और
कुछ भी नहीं देखा। तभी उसे अहसास हुआ कि वह भीड़ में है और सड़क के नियम के खिलाफ
पीछे मुड़ कर दूसरी ओर देख रहा है।"
“दूसरे-तीसरे
दिन भी उस खास जगह पर एक बार नजर दौड़ाना वह नहीं भूला।”
पहला व्यक्ति,
दूसरे से बचने के लिए, क्योंकि दोस्ताने की आड़ में विश्वासघात करके, मानो वह छुपता फिर रहा है, ऐसे में दूसरे को अचानक से कहीं उस दूसरे शहर
में दिख जाना पर पहले के भीतर दहशत पैदा कर दे, कुछ-कुछ
ऐसा ही सम्बन्ध कथानायक और रीछ के बीच मध्य स्थापित होता हुआ है। निश्चित ही, यदि ये प्रेम की स्थितियां थीं तो प्रेमी अपनी
प्रेमिका के साथ किस तरह का छल करने के बाद उससे बचते फिरने की चेष्टा करता है। उस
छल की शिनाख्त तो कहानी से होती नहीं, लेकिन
यौन विकृतियों की कथाएँ जिनकी जद में समाज लगातार बढ़ते यौन अपराध एवं बलात्कारों
की कथा हुआ जा रहा है, तलाशी ही जा सकती हैं। उस मानसिकता की पड़ताल
करते हुए ‘रीछ’ का
मूल्यांकन अभीष्ट है। यूं भी यह कहानी उन पुरूष कुंठाओं के परिप्रेक्ष्य में लिखी
गई है, जिसने आज भारतीय समाज को बुरी तरह भयभीत किया
है। बलात्कारी राष्ट्रवाद का नंगा नाच जारी है। एक वयस्क स्त्री ही नहीं बल्कि
छोटी-छोटी छोटी बच्चियां तक शिकार बनाई जा रही हैं। राष्ट्रवाद के झंडाबरदार
धार्मिक पहचान के साथ पक्ष और विपक्ष चुनते हुए हैं। माताएं अपनी बच्चियों के
असुरक्षित जीवन के कारण कंपकंपाते भय के साथ जीने को मजबूर हैं। यौन कुंठा ने कथा
पात्र को भीतर से इतना खोखला कर दिया है कि वह उन स्थितियों से बच निकलना चाहता है
जहाँ वह अपने पुरूषत्व की खो चुकी पहचान से आशंकित है। यद्यपि पत्नी का व्यवहार
पति के साथ भर में अपेक्षित है। "पत्नी
ने उसे फिर से जीवित कर दिया था। या वह उसके वीरानेपन से सहसा ही उसे वापस
खींच लाई थी। सिर्फ उसके संसर्ग में जाने भर की देर होती कि वह उसमें लीन हो
जाता।" लेकिन इस लीन होने में ही कुंठा का जागरण है। इस लीन होने में ही रीछ
का झपट्टा है। जो पत्नी की लताड़ में भी सुना जा सकता है, "मैं समझ गई, तुम्हें
क्या पसंद है...। भारी-भारी नितंब ...हुँह। कितने गंदे होते हो तुम लोग। हमेशा
पीछे से ही पसंद करते हो। हाँ, चेहरा
तो ठीक-ठाक है लेकिन पीछे से एकदम बेकार है। क्या पीछे से खाओगे। हाँ तुम लोग खाते
ही हो। तो क्यों नहीं ढूँढ़ ली कोई विकट नितंबा? क्यों
नहीं ढूँढ़ ली कोई लंबे चेहरे वाली। क्यों गोल चेहरे पर मरने आए। कौन थी, जरा मैं भी तो जानूँ।" पत्नी के मार्फत प्रकट होने वाली ये बातें नायक
के भीतर मौजूद कुंठाओं के ही चित्र हैं, जिन्हें
किसी पूर्व प्रेम के रूप में देखने के सबूत तो नहीं ही मिलते हैं। सवाल यह नहीं है
कि कुछ-कुछ कच्ची-कच्ची सी उम्र में लिखी गई इस कहानी में उलझाव बहुत हैं, ऐसा स्वाभाविक है कि व्यक्तित्व और मानस में
दुनियावी मसलों की स्पष्टता के लिए जितने अनुभव की दरकार होनी चाहिए, एक युवा लेखक उनको हासिल करता हुआ हो। लेकिन
कहानी लिखे जाने के बाद लगभग 40-50
वर्ष बीत जाने पर भी यदि कहानी के कथानायक में साफ झलक रही यौनिक कुंठा के
प्रतिपक्ष में लेखक जब स्वयं उपस्थित हो कर उसे प्रेम की बानगी साबित करता हुआ
कमजोर और लचर तर्क रखे तो बहुत से सवाल उठ खड़े होते हैं। क्या यौनिक क्रियाओं ही
कथानायक के लिए प्रेम का एक मात्र सत्य है ? इस
तरह से देखें तो ‘रीछ’ का
कथ्य घटनाओं से इस कदर निरपेक्ष है कि कहानी का अन्त किसी संयोग तक पहुँचने से
वंचित रह जाता है, जिसके बारे में लेखक का अपने उपरोक्त संदर्भित
साक्षात्कार में कहना है कि मैंने ‘रीछ’ को उस तरह से नहीं मार देना चाहा जैसा कोई
प्रगतिशील कथाकार करता। बल्कि मैंने अतीत की बजाय अतीतजीवी को खत्म कर देना ज्यादा
उचित माना है। कोई भी अवधारणा किसी तरह की आकस्मिकता में वास नहीं करती कि किसी
रची गयी एक कहानी में आए और अन्त हो कर चिपक जाए। उसे तो सतत रचनात्मक दृष्टि होना
होता है। किसी एक कहानी के मजबूरीवश कर दिये गये अन्त की व्याख्या में उसे गढ़ा
नहीं जा सकता। जबकि अतीतजीवी नायकों की उपस्थिति तो उस दौर की कहानियों की एक
पहचान और प्रवृत्ति के तौर पर रही है। कथाकार राजेन्द्र यादव ने उनका हवाला कुछ इस
तरह दिया है, “नयी कहानी की एक दर्जन कहानियों को लेता हूं जो
अतीत में जीने के कारण प्रायरू फ्लैशबैक में लिखी गईं हैं।”
चूंकि
संयोग के उस अन्त तक पहुँचने से कहानी चूक जा रही है और एक कल्पित नाटकीय मोड़ लेती
है, इसलिए माना जा सकता है कि लेखक जो कह रहे हैं, कहानी उस अवधारणा को लेकर ही लिखी गई हो, लेकिन अपने विवरणों, घटनाओं और विन्यासों से एक विक्षेपण ही नजर आता
है।
विजय गौड़ |
सम्पर्क
मोबाईल : 09474095290
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18.10.18 को चर्चा मंच पर प्रस्तुत चर्चा - 3128 में दिया जाएगा
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