सुरेश सेन निशान्त पर भरत प्रसाद का संस्मरण

सुरेश सेन निशान्त



बीते 22 अक्टूबर 2018 को कवि सुरेश सेन निशान्त के न रहने की खबर पर सहसा यकीन ही नहीं हुआ निशान्त हमारे समय के एक प्यारे कवि थे विनम्रता उनकी पूँजी थी वे कविता के लिए जैसे प्रतिबद्ध थे और कविता को ले कर उनसे घण्टों बात हो सकती थी. निशान्त सब से बढ़ कर एक उम्दा इंसान थे उनका न रहना हम जैसे तमाम मित्रों के लिए एक अपूरणीय  व्यक्तिगत क्षति है मित्र भरत प्रसाद ने हमारे आग्रह पर पहली बार के लिए एक संस्मरण लिख भेजा है निशान्त को श्रद्धांजलि देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं भरत प्रसाद का संस्मरण और निशान्त की कुछ कविताएँ   


  
लोक सत्ता के प्रहरी की आहट जैसे

                                                                                                                                                          भरत प्रसाद


जिसकी बेदाग और दुर्लभ इंसानियत को हम हर पल अपने विचारों के एकांत में जीते थे, जिसकी नितांत अहंशून्य किन्तु गर्वीली, खुद्दार आवाज सुन कर हमारे कान तृप्त हो उठते, अघाते नहीं थे, जिसके ठेठ देशज जमीनी व्यक्तित्व ने एक जादू जैसा हमारे तन-मन को वर्षों तक बांधे रखा, जिसका मौजूद होना साहित्य में हमारी गति, उपस्थिति और सक्रियता की बेमिसाल प्रेरणा था, जिसकी देशज कविताई लोक के बड़े कवि की पुख्ता और अनिवार आहट थी......


वह हस्ताक्षर आज हमारे बीच नहीं है। अभी कल की ही तो बात थी, पूरे अधिकार और लबालब आत्मीयता से परिपूर्ण उसने कहा था- ‘‘भाई, सब कुछ छोड़ दो और अपने दो साल सिर्फ कविता को समर्पित कर दो।’’ हमने बात रखने के लिए तत्काल वादा भी कर दिया - हाँ! पर क्या मुझे पता नहीं कि जो आश्चर्यजनक और सनक की हद तक समर्पण आप में था कविताई के प्रति वह मुझमें कहाँ? एक बार संवाद के सिलसिले में आपने ही कहा था- रात-3 बजे नियमित रूप से जग जाता हूँ और सुबह होने तक अपनी एक-एक कविता पर रियाज करता हूँ- फिर भी दिल पक्का यकीन नहीं करता कि कविता पक गयी, सध गयी, जैसा मैंने चाहा- वैसी बन गयी। दस वर्षों से अधिक समय तक आपको गुनने, मनन करने और विश्लेषण करने के बाद पाया कि आप सिर्फ कविता के लिए बने थे, कविता ने अपने तरीके से आपको खांटी किस्म का बना छोड़़ा था। सीधे-सादे और खरे इस हद तक कि वर्षों के लिए आपसे कोई संवाद बंद कर दे। आपके निपट खुद्दार और खरे, सुच्चे व्यक्तित्व ने मित्र बनाने में बहुत कम सफलता हासिल की, पर जितने भी बन सके, वे आपकी सिधाई और जिंदगी से लबालब भरी कविता पर जान छिड़कते थे- दोस्त! याद है शिमला की वह चटक सांवली सन्ध्या, जब हम आपको अंकवार में लेकर लगभग उठाते हुए धधाक से बोले थे- ‘‘पहली बार अपने अनन्य प्रिय कवि से मिलने का अभिवादन!’’ फिर हम पैदल, घूमे, टहले, बतियाए, बैठकबाजी की, आपका एकल काव्य पाठ हुआ, फिर देर रात तक विदा ली। प्रसंग अवान्तर हो जाएगा मेरे बेचैन आत्मा के हिस्से! पर शिमला के अपने शिखर सम्मान, 2011 में आपकी असाधारण और निर्णायक भूमिका को कैसे भूल सकता हूँ। आपके सिर्फ एक ही योगदान ने ताउम्र के लिए मुझ पर ऐसा साहित्यिक ऋण चढ़ाया है कि आपके विश्वास, आपकी दी हुई प्रेरणा और अनगिनत संवादों के दौरान मिली हुई आपकी नसीहतों को जीवनपर्यन्त अपनी कलम, व्यक्तित्व और भावनाओं में गहनतम जीते रहना है।

तुम क्या थे – सुरेश सेन निशान्त, जो अपनी पीढ़ी में सबसे अलग थे। क्या मिट्टी और लोक की सुवास से भरी हुई अपनी कविता के कारण? क्या साहित्य के अंधाधुंध बाजार से रत्ती भर समझौता न करने के कारण ? जैसा कविता में वैसा ही असल जीवन में होने के कारण या फिर रोम-रोम से कविताई के मर्म के प्रखर प्रवक्ता होने के कारण ? ये सभी विशेषताएं तो आपके स्थाई स्वभाव का हिस्सा थीं, पर इन सबसे जो अलग और विशिष्ट उपलब्धि थी, वह थी- बच्चों जैसी आपकी निश्छलता, किसान जैसे चेहरे से चूती हुई सिधाई और भोलापन, पहनावे से झांकती आपके चित्त की खुद्दार सादगी और साहित्य जगत की तथाकथित बड़ी उपलब्धियों- मसलन पुरस्कार, मंच, प्रतिष्ठा, सोहरत को ठेंगा दिखाने, धकियाने ओर ललकारने की आपकी एकला ठसक। व्यक्तित्व के इन दुर्लभ से दुर्लभ गुणों ने मुझे आपका ताउम्र मुरीद बना दिया। मेरे यार, मेरे प्यारे अग्रज! तुम जाओगे कैसे? तुम जाओगे कहाँ, तुम हमारी पकड़ से बच कर कहाँ जाओगे? तुम्हें यहीं रहना होगा, हमारे पास। हमारे शब्दों में, हमारी कविताई में चुपचाप, निशब्द नसीहतें देते हुए, जिसे तुम खूब-खूब कहना, बताना और मैं सुनूंगा, यथाशक्ति गुनूंगा भी।



 
12 अगस्त, 1959 को हिमाचल प्रदेश में जन्मे सुरेश सेन निशान्त अपनी दुर्लभ सहजता के कारण विशिष्ट स्थान बना पाने में सफल हुए। सुरेश सेन का पहला संकलन अन्तिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ, शीर्षक है- वे जो लकड़हारे नहीं हैं। अपनी जीवन-दृष्टि सम्पन्न मनोहर कलात्मकता के कारण यह संग्रह अलग पहचार रखता है। छोटे मुहम्मदजो कि पहली कविता है- एक बच्चे के चरित्र पर बुनी गयी है। लगभग हर आम भारतीय का बचपन प्रकृति की नजदीकियों में, उसकी मिठास, तितास, खट्टेपन में रमा हुआ बीतता है। आम, जामुन, कटहल, भुट्टा, कांकर, गन्ना, तरबूज चुराकर जिसने बचपन में न खाया, फिर तो निरर्थक ही बूझिए उसका बचपन। कवि यहाँ और चटक होती, जीवित होती बाल स्मृतियों को पुनः पाने के लिए लालायित है। 




मुड़ा-तुड़ा नोटशीर्षक कविता पढ़ते ही याद आता है अमेरिका के 16 वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का यह वाक्य कि मेहनत से कमाया गया पाँच डालर बिना मेहनत से कमाए गये पाँच सौ डालरों से ज्यादा कीमती है।अभाव, संघर्ष और तंगहाली के दिनों में एक-एक रुपया, तन-मन-आँखों को कितना कीमती लगता है- क्या यह अलग से बताने की जरूरत है ? इस एक रुपये में क्या-क्या नहीं समाया है- एक सहारा, एक उम्मीद, भविष्य के दिनों का सपना और आत्मबल। माँ की कोख मेंकविता गर्भवती स्त्री की अगाध ममता के मनोविज्ञान को उजागर करता है। इसमें कवि ने माँ की कोख में पलते बच्चे के प्रति अलौकिक अनुभूति को पूरी संजीदगी से उभारा हैं कवि के हृदय में उमड़ती ममता का ही परिणाम है कि वह माँ की अव्यक्त अनुभूतियों को पकड़ने में तनिक भी चूक नहीं करता। काम पर लड़कीकविता एक संघर्षरत युवती के दुखते-टीसते हृदय पर मानो मलहम का काम देती है। उसके प्रति कवि की आत्मीयता कुछ इस कदर है, मानो वह अपनी ही बेटी या बहन हो।


अनबोले चरित्रों के रहस्यमय मन में बहुत संजीदगी, सरलता और सावधानी से उतरते हैं सुरेश सेन निशान्त। वे अपने आसपास के जीवन से ही, मानवीयता की तरलता से लबालब गुमनाम चरित्रों का चुनाव करते हैं। कागजशीर्षक कविता कल्पना में उतर कर एक नया ही आकार ग्रहण करती है। एक सादे, रंगहीन, आकर्षणहीन कागज में इतनी कीमती संभावनाओं की खोज? कागज में दिखते उसके वर्तमान और भविष्य को कवि बहुत दूर तक देखता है। कुछ पंक्तियाँ-सदियों बाद भी/ किसी कबीर का/ तपा निखरा चेहरा झाँकता मिलेगा/ इसी तरह के किसी कागज पे (पृष्ठ संख्या- 34)


गोपी ढाबे वालाचरित्र प्रधान कविता है। यहाँ एक नया तथ्य उजागर है कि केवल माँ में ही माईपन नहीं होता, बल्कि पिता, भाई, बहन, मित्र, चपरासी, नौकर इत्यादि में भी यह महाभाव कूट-कूटकर भरा होता है। समाज के अंधेरे कोनों में जी रहे लोगों का अन्तस कोमल भावनाओं से कितना प्रकाशित रहता है। इसका एक दुर्लभ उदाहरण है - गोपी ढाबेवालालड़कियाँशीर्षक कविता। किशोर उम्र में खिलती नौजवानी के दिनों में लड़कियों के प्रति जो एक रोमानी, आह्लादकारी, हृदय के तारों को कंपानेवाला जादुई, रोमानी आकर्षण होता है- कवि ने उसे उदात्त भावावेग में व्यक्त किया है। कुछ पंक्तियाँ शब्द और अर्थ की पहुँच से बाहर जाकर केवल अनुभूति की अन्तर्ध्वनियाँ बन गयी हैं - जरा से स्नेह से/ भीग जाते थे जिनके मन/ महकने लगती थीं रातरानी सी/ जरा से स्पर्श से/ छूने लगती थीं आसमान/ जरा सी बारिश में भीगकर/ लहलहाने लगती थीं फसलों सी/ बिखेरने लगती थीं हरापन (पृष्ठ संख्या- 44)


बीज की आत्मा में, उसके अन्तर में उतर कर लिखी गयी शक्तिशाली कविता है - बीज। कवि गूंगे की जुबान है, बेजान का प्राण है, मृतक की आत्मा है, जड़ सत्ता का वकील है और प्रत्येक गुमनाम की अमिट आवाज है। इस कविता में असाधारण कविता के बूते बीज की असाधारण महत्ता का उद्घाटन देखते ही बनता है। मैं हूँ तो/ सीधी रहेगी तुम्हारी पीठ/ मैं हूँ तो/ हरी रहेगी तुम्हारी पीठ/ बीज हूँ मैं/ मुझे मत बिसराना/ किसी लालच में पड़कर/गिरवी मत रखना/ मैं ईमान हूँ (पृष्ठ संख्या- 62)


वर्ष 2015 में कवि का दूसरा संकलन प्रकाशित हुआ- कुछ थे जो कवि थेशीर्षक से। आज अल्ट्र विकास की आँधी दिन दूनी, रात आठ गुनी निगल रही है प्रकृति की आदिम स्वतंत्रता को, उसके स्वयंभू अनगढ़ सौन्दर्य को, उसकी जादुई निर्मिति को। जगंल मिट रहे हैं, नदियाँ गायब हो रही हैं। पहाड़, बंजर, पठार सबके सब कंकरीट के जगलों में तब्दील हो रहे हैं। सदियों-शताब्दियों से इनकी गोद में पला-बढ़ा आम आदमी विस्थापित हो रहा है। यह प्रकृति जो कि मनुष्य के लिए माँ से बढ़कर है, छीनी जा रही है। प्रकृति बेदखल हो रही है जीवन से। गेहूँशीर्षक कविता में गेहूँ की असीम महत्ता और क्षमता को उभारा गया है। इस कविता के बहाने कवि प्रकृति के भीतर धड़कती, बहती, मचलती जीवन्तता को किसी और ही परा-भौतिक आँखों से निरखता है। यह वही नजर है जब हवा हमारी धड़कन की धड़कन नजर आती है, पानी हमारे जीवन की ढाल और अन्न हमारे रोम-रोम में बसा हुआ विधाता दिखाई देता है। परा-भौतिक आँखें जब कवि या दार्शनिक को उपलब्ध होती हैं तो वह क्या दृश्य, क्या अदृश्य दोनों को शब्दातीत अर्थवत्ता से भर देता है। वह प्रत्येक पदार्थ को सामने फैले खजाने की तरह देखता है। मौलिक अनुभूतियों की बाढ़ का मालिक होता है- परा-भौतिक अनुभूतियों का सृजन-पुरुष। कुछ पंक्तियाँ कैसे यह प्रमाणित करती हैं- देखिए- गेहूँ उगेगी/ तो लौटेगी/ पिता के गीतों में लय/ माँ की आवाज में रस/ भाई के चेहरे पर खुशी/ गेहूँ उगेगी तो (पृष्ठ संख्या- 19)


कोक पीती हुई वह भिखारिन लड़कीकवि की पहचान बन चुकी मार्मिक कविता है। एक लड़की है, भिखारिन है, कोक पीने की तमन्ना है उसकी। भीख मांगकर, डाँट, झिड़की, गाली खा-खाकर इसने कोक खरीदने भर के पैसे इकट्ठा किए हैं। यहाँ कवि निशान्त तीव्र करुणा को दबाए सीधे उतर पड़े हैं लड़की के दिल में। वह पाँच पढ़ी औरतकवि के अन्तर्यामी गुण का अनोखा प्रमाण है। औरत अल्पशिक्षित है, साहित्य-वाहित्य नहीं जानती, कविता का व्याकरण नहीं समझती- मगर अन्तसजग इतनी कि कवि उसके हाथ में अपनी किताब सौंपते हुए कांप जाता है। यह भय ही कवि को सचेत रखता है- अपने कर्तव्यों के प्रति। जो आम पाठकों के दिलोदिमाग में अपने शब्दों के बीज न बो सका, वह कहाँ बच पाएगा। सुरेश सेन निशान्त अपने अनुभवों की दुनिया से निरन्तर संवाद करने वाले कवि हैं। यह संवाद पहले साधारण मनुष्य के स्तर पर होता है, फिर रचनाकार के स्तर पर। सहज, स्वाभाविक, प्रकृतस्थ मनुष्य के रूप में खुद को न सिर्फ बचाए रखना, बल्कि इसे विकसित रखने के लिए संघर्षरत रहना कवि की रचनात्मक सफलता का मूल रहस्य है। निशान्त की कविता अपनी बनावट और बुनावट दोनों में सहजता का पैमाना है, किन्तु भावों की सघनता में सहज ज्ञेय नहीं। सर्वप्रथम तो यह कि उनकी प्रत्येक कविता एक सुनिश्चित अर्थ देती है, किन्तु ये भाव संघनित अर्थ कई स्तर लिए हुए हैं। कवि की सोच में लक्ष्य में अन्ततः आम पाठक वर्ग ही है। जाहिर है कि कवि की महत्वाकांक्षा बहुत दूर तक अपनी काव्यात्मक सुगन्ध का विस्तार करना है। इसीलिए वे बनावटी कलाकारी नहीं दिखाते, न ही बहुत ऊँची आवाज में अपने अर्थों की मौलिकता का दावा करते हैं। उनमें एक शालीनता, स्थिरता, आक्रोश, करुणा और आत्मचिन्तन तरंगित होता रहता है। जिन्हें अपनी सोच का, विवेक और अन्तःकरण के आयतन का विस्तार करना है- कवि निशान्त ऐसे सहृदयों के कीमती कवि कहे जा सकते हैं। इनकी कविताएँ एक ही पैटर्न को धारण किए हुए हैं। धाराप्रवाही गद्यात्मकता इनकी कविताओं की स्थायी प्रकृति है। किन्तु वे ऐसे गद्य को भी अपने तरंगमय अर्थ गाम्भीर्य से मूल्यवान कर देते हैं। प्रतिरोध तो इनमें है- मगर शालीनता की मर्यादा में, आक्रोश भी है, मगर संस्कारबद्ध। ओज, विध्वंस, और विद्रोह इनकी कविता के मूल स्वभाव में शामिल नहीं। अपनी प्रकृति में अन्तर्मुखी ये कविताएँ लड़ने, अड़ने, भिड़ने के बजाय हमें भावनात्मक रूप से बेहद समृद्ध करती हैं। अपने दो संग्रहों की कई यादगार कविताओं के बावजूद निशान्त निर्माण की, श्रेष्ठत्व की प्रक्रिया में थे। गुण-ग्राहिता की शक्ति कवि में भरपूर थी। वे अपने विरोधियों, निन्दकों से भी कुछ मूल्यवान ग्रहण कर लेते थे। उनमें प्रतिदिन अपने कवि को समृद्ध करने, परिवर्तित करने की अथक ललक थी। नित नये सत्यों का उद्घाटन करना कवि की अन्तःप्रकृति का हिस्सा था। यह खेाजपरक स्वभाव, यह शरीर में भरी हुई करुणामयता और पाँव को जमीन से ऊपर न उठने देने की जिद ही उन्हें अपनी पीढ़ी के कवियों में बहुत आगे लाकर खड़ी कर देती है।


सम्पर्क
भरत प्रसाद
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग

मोबाईल : 9774125265





सुरेश सेन निशांत की कविताएँ



मृत्यु


अच्छे बुरे की उसे 
ज़रा भी समझ नहीं  रही कभी
कभी वह नन्हे बच्चे को
उठा कर चल देती है
कभी उमंग में नाचते युवा को
बाजू से पकड़ कर चलती बनती है
कभी मरने की प्रार्थना कर रहे
बुजुर्ग की ओर देखती भी नहीं


अंधेरे में भागते
साये की तरह दिखी थी
कुछ विद्वानों को उसकी शक्ल
कुछ को दिखा था अंधेरा
कुछ ने गहरी नींद का नाम दिया उसे


वह हमेशा अचानक दबे पाँव
पहुँचती है किसी घर में और ले जाती है
अपना शिकार 
यह तरीक़ा उसने क़स्बे की
बिल्लियों से सीखा है शायद


छोटे मोहम्मद


छोटे मोहमद....!
पक गए दिखते हैं
देवकी के बगीचे के आम
चलो चुपक से
सुग्गों से पहले वहां पहुँच जाएँ
दो-चार आम चुरा ले आएँ
अपने एकान्त में
उनकी मिठास का
जी भर आन्द उठाएँ



इस जेठ की दुपहरी में
सोए हुए हैं घर वाले
हवा बैठी है गुमसुम
भीगी बिल्ली सी
न्दी भी होगी अकेली
चलो! नदी तक हो आएँ
अपनी शरारतों में
उसे भी शामिल करें
संग उसके
खूब धमा-चौकड़ी मचाएँ
और नदी को बताए बिना
उसके तलछट से
मोतियों और सीप जैसे
कुछ सुन्दर पत्थर समेटे लाएँ


छोटे मुहम्मद!
खेतों में भुट्टे
कतने लगे हैं सूत
पहरेदारी में खड़े हो गए हैं बिजूके
लगता है भर गया है दानों में रस।

चलो! रस भरे भुट्टों को
चोरी से तोड़ें
खडड् के किनारे भूनें
और मजे से खाएँ
पर मुंह और हाथ से उठती
भुट्टों की भीनी गंध से
मं के हाथों पकड़े जाएँ
छोटे मोहम्मद


अब नहीं रहा
वैसी शरारतों का मौसम
न रहे वो रस भरे आम के पेड़
न नदी ही रही उतनी चंचल
भुट्टों के खेतों में
बिजूके की जगह
खड़े हैं लठेत।


और झुलसे हुए हैं रिश्तों के भी चेहरे
किसकी लगाई आग है यह
जो दिखती नहीं
फिर भी झुलसा रही है
हमारे तन और मन को


छोटे मुहम्मद!
आओ सोचें कुछ
बीता जा रहा है मौसम
बच्चे हो रहे हैं बड़े
वहीं वे भी न झुलसे
हमारी तुम्हारी तरह
इस नफरत की भयावह आग में।


सीखना

बच्चा सीख रहा है चलना
इस कोशिश में
गिर भी रहा है बार-बार
बच्चों की इस कोशिश में
माँएँ भी शामिल रहती हैं


वे भी गिरती हैं बच्चों के संग
पर वे रोतीं नहीं
सीखने की इस क्रिया में
गिरना कितना ज़रूरी है
माँओं को ही रहता है इसका पता
या फिर उन्हें
जो पारंगत हुए हैं अपने कार्य में


रात-दिन की अथक मेहनत के बाद पूछो
उस बड़े चित्रकार से
जब पहली-पहली बार
खड़ा हुआ था वह
रंगों और काग़ज़ के सामने
अपने अनाड़ी हाथों में ब्रश ले कर
कितनी ही बार
रंगों के बिखर जाने पर
कोसा उसने अपने आप को
कितनी ही बार बना वह
हँसी का पात्र दूजों के सामने
शुरुआती उन चित्रों के कारण


कितनी ही बार
बहुत मुश्किल से रोकी है रुलाई
उस प्रसिद्ध गायक ने
जब सधते ही नहीं थे सुर,
छँटता ही नहीं था अँधेरा
खिलती ही नहीं थी ख़ुशी
खुलते ही नहीं थे
रहस्य स्वरों के 

कितनी ही बार
अपने पर झुँझलाया है वह
क्रिकेट का वह बेहतरीन गेंदबाज़
जब सुधरती ही नहीं थी उससे
गेंद की दिशा
कितनी ही बार लताड़ा था
उस प्रशिक्षक ने भी उसे
कि अंधकारमय है उसका भविष्य।


पर चलना सीखने की प्रक्रिया में
बच्चे भूल जाते हैं
गिरने की पिछली चोट
और फिर से करते हैं
प्रयत्न चलने का
एक डग चलने पर
भर जाते हैं ख़ुशी से
माँ बजाती है ताली
पर हर बार पहला क़दम उठने पर
तालियाँ ही नहीं मिलतीं


पढ़ो उस विश्वविख्यात
कवि का संस्मरण
जब उसकी पहली-पहली
काव्य-पंक्तियों को
निहारा तक नहीं था किसी ने


असफलता की कितनी ही चोटें
कितनी ही पीड़ाएँ सहने के बाद
छँटी है उदासी की धुँध
पहुँचे हैं शिखर पर
वे सब पर्वतारोही
खिली है उनके चेहरे पर
तब जा कर वह विजयी मुस्कान


कुशल शिल्पियों की
मुस्कान के पीछे
अब भी दिख जाती है वह पीड़ा
जो शिल्प सीखने के
शुरुआती दिनों में दी थी
छैनी और हथौड़ी ने
उनकी कोमल उंगलियों को


बच्चा सीख रहा है चलना
इस कोशिश में
बार-बार गिर भी रहा है।


आत्मा रंजन और नरेश सक्सेना के साथ


कविता


कविता वहीं से करती है
हमारे संग सफ़र शुरू
जहाँ से लौट जाते हैं
बचपन के अभिन्न दोस्त
अपनी-अपनी दुनिया में


जहाँ से माँ करती है हमें
दूर देश के लिए विदा


जिस मोड़ पर
अपनी उँगली छुड़ा कर
अकेले चलने के लिए
कहते हैं पिता


ठीक वहीं से करती है
हमारे संग कविता
अपना सफ़र शुरू


कुछ थे जो कवि थे


कुछ थे जो कवि थे
उनके निजी जीवन में
कोई उथल-पुथल भी नहीं थी
सिवाय इसके कि वे कवि थे।
वे कवि थे और चाहते थे
कि कुछ ऐसा कहें और लिखें
कि समाज बदल जाये
बदल जाये देश की सभी
प्रदूषित नदियों का रंग
धसकते पहाड़ बच जायें
और बच जायें ग्लेशियर भी।


कटे हुए पेड़
फिर से अंकुरित होने लग जायें
पृथ्वी के देह का हरापन
आँखों की नमी बच जाये।


कुछ थे जो कवि थे
वे कला की दुनिया में भी
छोड़ जाना चाहते थे अमिट छाप
इसके लिए वे काफी हाउसों में
खूब बहसें किया करते थे
वे लिखा करते थे
बड़े-बड़े विचारों से भरे आलेख
कविता पर उनकी टिप्पणियाँ
उनकी नज़रों में
बहुत महत्व रखती थी।


पर वे उन रास्तों पर भी
संभल-संभल कर चलते थे
जहाँ दौड़ा जा सकता था।

वे उस सभा में भी
गुप-चुप रहा करते थे
जहाँ आतताइयों के खिलापफ
बोला जाना चाहिए
एक आध शब्द ज़रूर।


पर वे आश्वस्त थे
अपने किए पर कि
कविता में पकड़ लिया है
उन्होंने अंतिम सत्य।


उन्हें अपने किए पर गर्व था
इसके लिए वे पा लेते थे
बड़े-बड़े पुरस्कार भी
वे तालियाँ भी ढूंढ लिया करते
और प्रशंसा भी यहाँ तक कि
सुखों के बीच सोते जागते हुए
ढूंढ लेते थे दिखावटी दुख भी।


वे जब कीमती शराब पी रहे होते
या भुने काजू खा रहे होते
उस वक्त भी वे इस तरह जतलाते
जैसे वे दुख ही खा-पी रहे हों।


वे जब जहाज पर सौभाग्य से कहीं जाते
तो दूर-दूर तक सभी को बतला देते
पर जब लोगों से मिलते
तो ऐसा जतलाते जैसे ये इतनी सारी थकान
उन्हें पैदल चलने से ही हुई है।


वे जब तिकड़में करते
या किसी अच्छी रचना की
हत्या की सुपारी लेते या देते
तो ज़रा भी अपराध बोध से
ग्रस्त नहीं होते
यह उनके व्यक्तित्व का
असाधारण पॉजिटिव गुण था।


वे अमर होना चाहते थे
इसके लिए वे प्रयत्न भी
खूब किया करते थे।
वे अपनी प्रशंसा में खुद ही
बड़े-बड़े वक्तव्य देते
अपनी रचना को सदी की
सर्वश्रेष्ठ रचना घोषित कर देते
इस तरह की हरकतों को वे
साहित्य में स्थापित होने के लिए
ज़रूरी मानते थे।


वे सामाजिक प्राणी थे
उनके कुछ मित्र थे
कुछ शत्रु भी
वे मित्रों से मित्रता
न भी निभा पाये हों कभी
पर शत्रुओं से शत्रुता
दूर तक निभाते थे।
वैसे उनका न कोई
स्थाई शत्रु था और न कोई
स्थाई मित्र ही।


कुछ थे जो कवि थे
उनके निजी जीवन में
कोई उथल-पुथल नहीं थी
सिवाय इसके कि वे कवि थे।

 
कवि लीलाधर जगूड़ी के साथ

कोक पीती हुई वह भिखारिन लड़की


भीड़ भरी सड़क पर
वह भिखारिन लड़की
जा रही है पीती हुई कोक।


बहुत इच्छा थी उसकी कोक पीने की
एक सपना था उसका
कि वह भी पीयेगी कोक
एक दिन।


पता नहीं कितनी मुश्किल से
किये थे इकट्ठा
उसने ये पन्द्रह रुपये
पता नहीं कितनों के आगे
पसारे थे हाथ
पता नहीं कितनी ही सुनी थी
झिड़कियां
कितनी तपी थी धूप में।
पता नहीं किस तरह कितने दिनों से
छुपा कर रखे रही थी
शराबी बाप से ये रुपये।


इस वक्त
जा रही है
पीती हुई कोक
भीड़ भरी सड़क पर।


मुस्करा रही है
ढेर सारे गर्व से
विज्ञापनों पर गिरती धूप
उसे कोक पीता देख।
मुस्करा रहे हैं
नायक नायिकाओं के
मासूमियत ओढ़े क्रूर चेहरे।
इस तपती धूप में भी
हरी हुई जा रही है
बाजार की तबीयत।


उदास है तो बस
जल जीरा बेचने वाला
अपनी रेहड़ी के पास खड़ा वह।



हम


हम शहद बाटते हैं
अपनी मेहनत का


मधुमक्खियों की तरह
हजारो मील लंबी और कठिन है
हमारे जीवन की भी यात्रायें

उन्ही की तरह
रहते है हम अपने काम मे मगन
उन्ही की तरह धरती के 
एक एक फूल की
गंध और रस का
है पता हमे
वाकिफ है हम धरती की नस नस से
आपके मन और देह को रिझाता हुआ
आपकी जिह्वा पे
हमारी मेहनत का 
है यह स्वाद
ध्यान रहे हम 
डंक भी मारते है
जहर बुझा डंक
कोई यूं ही हमारे छत्ते से
मारे पत्थर अगर कोई
वैसे हम मधुमक्खियाँ भर नहीं 


कवि आत्मा रंजन के साथ

 बूढी स्त्री 


वह बूढी स्त्री उदास है
उस कमरे मे 
जहाँ उसकी ही तरह के
कई और बूढे भी है उदास


बूढी स्त्री सोचती है
वह एक चिडिया थी


कहाँ हैं वे दरख्त
और उन पर बसेरा करने वाले परिन्दे
क्या मेरी ही तरह हो चुके है वे बूढे


शायद इस लिए उदास हू इस कमरे मे 
कि पंख नही है अब उडान के लिए .


गेहूँ


गेहूँ उगेगी 
तो लौटेगी 
पिता के गुतो में लय
माँ की आवाज़ में रस
भाई के चेहरे पर खुशी
गेहूँ उगेगी तो


गेहूँ जब अंगुल भर चढ़ेगी
तो पिता को याद आयेंगे
पुरखो से सुने हूए गीत
वह उन्हें गुनगुनायेंगे 
माँ को बादलों और सूरज में
दिखेगा ईश्वर
वह उन्हें पूजेगी
भाई का अपने श्रम पर
बढ़ेगा विश्वास
वह देर तक खड़ा रहेगा
मुंडेरो पर उनकी चौकीदारी करता हुआ
गेहूँ जब अंगुल भर बढ़ेगी


गेहूँ की बालियो में 
भरने लगेगा जब रस
बहिन का बढ़ता कद
बुरा नही लगेगा माँ को
तन कर खडे हो जायेंगे 
पिता लेनदारो के सामने
भाई की लाठी में
लौट आएगी ताकत
गेहूँ की बालियो में
भरने लगेगा रस


गेहूँ के बीजो तुम सभी उगना 
एक दूसरे को हौसला देते हुऐ
गेहूँ के पौधों 
बेधड़क बढना हर दिन अंगुल भर तुम
हँसना खूब
पहरेदारी मे खड़ा मिलेगा तुम्हे भाई
पुरखो के गीतों को
लोरी की तरह गुनगुनाते हुए
गुजरेगे तुम्हारे सामने से पिता
माँ तुम्हारी ही कुशलता के लिए 
माँगेगी दुआ
गेहूँ की बालियां
खूब लहराना तुम
अपने ही भार से इस तरह झुकना
कि लेनदार खिसियाते गुजरे
हमारे ऑगन के पास से




इस वृक्ष के पास

चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
प्रार्थना में रत है यहाँ एक औरत
उसे विश्वास है
इस वृक्ष में बसते हैं देवता
और वे सुन रहे हैं उसकी आवाज़ ।


एक औरत और ईश्वर
रत है बातचीत में
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
ऎसा कौतुक
एक औरत ही रच सकती है
जो ईश्वर को स्वर्ग से उतार कर
एक वृक्ष की आत्मा में बसा दे ।


चिड़ियों की चहचहाहट
हवाओं की सरसराहट
कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा है उसे
सिवाय अपने ह्रदय की धड़कनों के
सिवाय अपनी प्रार्थना के।


वृक्ष के हरे पत्ते
तालियों की तरह बजते हुए
दे रहे हैं उसे आश्वासन
कि उठो माँ
सुन ली है ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना।


मंदिर और मस्ज़िद से दूर
उनकी घंटियों और अजानों
से बहुत दूर
प्रार्थना में रत है एक औरत
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से।


राम


बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस राम में
बहुत गहरे तक
मेरे अंतस में बैठी है
मानस की चौपाइयाँ गाती
रामलीला की वह नाटक-मंडली


कस कर पकड़े हुए हूँ
दादी माँ की अँगुली
लबालब उत्साह से भरा
दिन ढले जा रहा हूँ
रामलीला देखने


बहुत गहरे तक
दादी माँ की गोद में मैं धँसा हुआ हूँ
नहा रहा हूँ
दादी की आँखों से
झरते आँसुओं में
राम वनवास पर हैं


राम लड़ रहे हैं
राक्षसों से
राम लड़ रहे हैं
दरबार की लालची इच्छाओं से
राम लड़ रहे हैं अपने आप से
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस राम में
बचपन में पता नहीं
कितने ही अँधेरे भूतिया रास्ते
इसी राम को करते हुए याद
किए हैं पार
बचाई है इस जीवन की
यह कोमल-सी साँस वह
राम
जिसे छोटे मुहम्मदनिभाते रहे
लगातार ग्यारह साल
कस्बे की रामलीला में
छूती थीं औरतें श्रद्धा से जिसके पाँव
अभिभूत थे हम बच्चे
उस राम के सौंदर्य पर


पता नहीं कब बंद हो गईं
वे रामलीलाएँ
पता नहीं कब वह राम
मुसलमान में हो गया परिवर्तित
डरा-डरा गुज़रता है आजकल
रामसेवकों के सामने
उस रामलीला के पुराने
मंच के पास से वह राम


वैसे मेरा वह राम
मानस की चौपाइयाँ
आज भी उतनी तन्मयता से गाता है
उतनी ही सौम्य है
अभी भी उसकी मुस्कान
उतना ही मधुर है
अभी भी उसका गला
पर दिख ही जाती है उदासी
उसकी आँखों में तिरते
उस प्यार-भरे जल में छुपी
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस शाम में




सेब


सेब नहीं चिट्ठी है
पहाड़ों से भेजी है हमने
अपनी कुशलता की


सुदूर बैठे आप
जब भी चखते हैं यह फल
चिड़िया की चहचहाहट
पहाड़ों का संगीत
धरती की ख़ुशी और हमारा प्यार
अनायास ही पहुँच जाता है आप तक


भिगो देता है
ज़िस्म के पोर-पोर।


कहती है इसकी मिठास
बहुत पुरानी और एक-सी है
इस जीवन को ख़ुशनुमा बनाने की
हमारी ललक ।
बहुत पुरानी और एक-सी है
हमारी आँखों में बैठे इस जल में
झिलमिलाती प्यार भरी इच्छाएँ।


पहाड़ों से हमने
अपने पसीने की स्याही से
ख़ुरदरे हाथों से
लिखी है यह चिट्ठी
कि बहुत पुराने और एक-से हैं
हमारे और आपके दुख
तथा दुश्मनों के चेहरे


बहुत पुरानी और एक-सी है
हमारी खुद्दारी और हठ


धरती के हल की फाल से नहीं
अपने मज़बूत इरादों की नोक से
बनाते हैं हम उर्वरा।


उकेरे हैं इस चिट्ठी में हमने
धरती के सबसे प्यारे रंग
भरी है सूरज की किरणों की मुस्कान
दुर्गम पहाड़ों से
हर बरस भेजते हैं हम चिट्ठी
संदेशा अपनी कुशलता का
सेब नहीं


तुम एक सुन्दर स्वप्न हो


तुम एक पहाड़ हो हरा-भरा
और मैं एक छोटा सा
घर हूँ उस पर बना हुआ
अपने होने की ख़ुशी में डोलता हुआ

कभी-कभी लगता है तुम धूप हो
सर्द दिनों की हमें जीने की तपिश
भेंटती हुई

कभी कभी लगता है
मैं गहरी नींद में हूँ
तुम एक सुन्दर स्वप्न हो
मेरी नींद में विचरता हुआ

मैं चाहता हूँ
सोया रहूँ सदियों तक
गहरी नींद में
ये स्वप्न चलता रहे


हम मिले थे



हम मिले थे
जैसे फल पकने के मौसम में
दो विपरीत दिशाओं से आए
परिन्दे मिलते हैं एक फलों भरी
डाली पर दो घड़ी बतियाते हैं
अपने सुख दुःख
फिर अपनी राह चले जाते हैं

फिर कई दिनों तक गाते रहते हैं
सुनाते रहते हैं पेड़ों और नदियों को
अपने मन की बात
फिर नदियाँ और पेड़ भी
गाने लगते हैं हमारे मन की बात


हम मिले थे जैसे दो अलग-अलग
दिशाओं को निकले जहाज के यात्री मिलते हैं
किसी बन्दरगाह पर घड़ी भर के लिए
फिर हिलाते हुए हाथ
सदा के लिए बिछुड़ जाते हैं    

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