योगिता यादव की कहानी

योगिता यादव 

धर्म-कर्म और धर्म-कर्म के रीति-रिवाज सब कुछ एक अलग वातावरण तैयार करते हैं। मसला चूंकि धर्म का होता है इसलिए आस्था से खिलवाड़ धर्म बर्दाश्त नहीं कर पाता। वैसे धर्म तर्क को भी कहाँ बर्दाश्त कर पाता है? यह दुनिया आज अगर इतनी उन्नत, आधुनिक और विकसित दिख रही है तो उसमें इस तर्क की एक बड़ी भूमिका है लेकिन एक अजीब सी विडम्बना है कि इस धर्म कर्म को उसकी तमाम रुढियों के साथ आगे बढाने का दायित्व स्त्रियाँ निभातीं हैं। उनसे इस बात की उम्मीद भी की जाती है। यह अलग बात है कि प्रायः हर धर्म का नजरिया स्त्रियों के प्रति संकीर्ण दिखाई पड़ता है।वह लड़की जो एक प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान से पत्रकारिता की हुई है और इसे अपना कैरियर बनाना चाहती है, अन्ततः एक गृहिणी में तब्दील हो धर्म-कर्म निभाने के लिए गाँव चली जाती है। योगिता यादव अपनी कहानी 'शहर सो गया था' में इन विडम्बनाओं को करीने से पिरोने का हुनर जानती हैं।वे खुद भी एक पत्रकार हैं और तमाम मोर्चों पर अपने काम कर रही हैं। इन मोर्चों से मिले जमीनी अनुभव उनकी कहानियों के विषय बन जाते हैं। किसी भी कहानीकार के लिए इस तरह की सूक्ष्म दृष्टि का होना अत्यन्त आवश्यक होता है। योगिता में निःसंदेह वह दृष्टि है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है योगिता की नयी कहानी 'शहर सो गया था'
             

शहर सो गया था

योगिता यादव


एक सनकी से प्रोफेसर हैं, जिन्हें हर काम परफेक्शन से करने की बीमारी है। छापाखाना जैसे अखबारों और थकाऊ पत्रकारों से आजिज वे असल में पत्रकार ही हैं। पर माहौल बदलना चाहते हैं और यहाँ सब उन्हें सम्मान से प्रोफेसर या सर कहते हैं। उन्हें लगता है कि पत्रकारिता पर लिखी जा रही किताबों में आलस की स्याही घुलने लगी है। जमीन की सच्चाई कलम में भरने के उद्देश्य से उन्होंने पार्ट टाइम इस संस्थान का रुख किया है। रूटीन से अलग हट कर मेहनत करने की सीख देने वाले (प्रोफे)सर आज कुछ अलग ही लग रहे हैं। फटी हुई कमीज, उस पर खून के धब्बे और माथे पर चोट के साथ वही कांतियुक्त गहरा सांवला चेहरा। उनके इंतजार में बैठे लड़के-लड़कियों ने जब व्यवस्था से नाराज सर की यह हालत देखी तो कई सवाल उनकी आंखों में चमकने लगे। पर प्रोफेसर साहब ने किसी भी सवाल को मौका दिए बगैर सीधे मार्कर उठाया और बोर्ड की ओर पीठ किए बोलना शुरू कर दिया। यही उनका अंदाज था। मार्कर उनके हाथ में रहता और वह बोर्ड की ओर पीठ किए लगातार बोलते जाते। पहली ही क्लास में उन्होंने यह हिदायत दी थी कि जिसे नोट करना है, इसी रफ्तार से नोट करें, - कि सूचनाओं का शॉर्टहैंड नहीं होता, जिन्हें ज्ञान की तलब है, उन्हें अपनी स्पीड बढ़ा लेनी चाहिए।


क्लास में अलग-अलग उम्र के विद्यार्थी हैं। कुछ प्रोफेशनल हैं, कुछ फ्रेशर। जो फ्रेशर हैं वे पढ़ कर पत्रकार बनना चाहते हैं और जो प्रोफेशनल हैं, वे बदले दौर में अपनी नौकरियां बचाने के लिए डिग्री का ठप्पा लगवाने आए हैं। कुछ तीसरी तरह के भी हैं, जो बस देख रहे हैं कि पत्रकारिता करके क्या-क्या किया जा सकता है। अलग-अलग उम्र के इन विद्यार्थियों ने शुरू में प्रोफेसर साहब की हिदायतों को बहुत हल्के में लिया। पर दो-तीन क्लास में ही इन्हें यह अहसास हो गया कि 'सरजो बोल रहे हैं वह पत्रकारिता की सड़क पर घिसी चप्पलों का पसीना है।


-कि पुस्तकालय की किताबों में पसीने से बदबू उठने लगती है। सारे विद्यार्थी सर की स्पीड में लुढ़कते शब्दों, अंगूठे और तर्जनी के थकते दबाव के बीच लगातार लिखते जा रहे हैं-
''...कि हर पंक्ति में सूचना होनी चाहिए।"

...शब्द चिल्लर नहीं हैं, जिन्हें कहीं भी उछाल दिया। इसे बहुत मिन्नतों से मिली अपनी पॉकेट मनी की तरह खर्च करना चाहिए।

...तथ्य के बिना सूचना कीड़ा लगा गेंहू है।

...पाठक ईश्वर है। उसे कभी झूठी सूचनाएं मत परोसना।

...झूठी सूचनाओं से ज्यादा खतरनाक हैं कच्ची सूचनाएं। इसलिए स्पेशल राइटिंग में सूचना के साथ-साथ शोध और संदर्भ की गहरी अनिवार्यता है...।

विद्यार्थी लिख रहे हैं - 'शोध एंड संदर्भ इज वेरी इम्पोर्टेंट।


''...पर्सपेक्टिव के बिना लेखन बेकार है। अपनी खबरों के संपादक तुम स्वयं हो। तुम्हें लगता है खबर है, तो खबर है। हर बार अपने ईमान से पूछना कि तुम जो बटोर रहे हो, क्या वाकई वह खबर है?”

दूसरी पंक्ति की पहली सीट पर बैठी लड़की अपनी कापी में नोट कर रही है, 'ईमान बहुत जरूरी है खबरों के लिए।


वह 'ईमानशब्द पर अटक जाती है, उसे लगता है कि कोई गुरु मंत्र सा उसके हृदय तक पहुंच रहा है। इस मंत्र के साथ वह स्वयं भी धीरे-धीरे अपने भीतर दाखिल होने लगती है। क्लास की भीड़ से अलग वह अकेली अपने हृदय के एकांत में विलीन हो रही है.....


ओह्! उसे ख्याल आया सर अब भी बोल रहे हैं.... कुछ पंक्तियां उससे छूट गईं। वह उन्हें पकडऩा चाहती है पर सर आगे बढ़ गए हैं, सब आगे बढ़ गए हैं। कापियों पर चलती कलम आगे बढ़ गई है। छूटे हुए शब्दों को फिर से पकडऩे की इसी अफरा-तफरी में वह दाएं-बाएं की कुर्सियों पर नज़र दौड़ाती है। और इसी बीच सर उसे कनखियों से देख रहे हैं - ''लेखन अखबार के लिए हो या पत्रिका के लिए, समय का आकलन बहुत जरूरी है। कलम उठाने से पहले यह तय कर लेना कि एडिटिंग टेबल, प्रिंटिंग मशीन और काउंटर सेल से गुजरने के बाद तुम्हारा लिखा हुआ जब पाठक के हाथ में होगा, तो क्या तब भी यह उतना ही प्रासंगिक होगा, जितना वह आज है?


''सर, एक सप्ताह या एक माह बाद क्या जरूरी होगा, इसकी भविष्यवाणी आज कैसे की जा सकती है?पहली पंक्ति में बैठा एक जिज्ञासु लड़का सवाल पूछता है।


''जैसे मेरी माँ सलाइयों में फंदे डालने से पहले यह अनुमान लगा लेती है कि स्वेटर तैयार होने तक मेरा कद कितना हो चुका होगा।


सर के जवाब में शब्द पंक्ति नहीं, एक अनुभव है, जिससे हो कर गुजरना पड़ेगा। दरमियाने कद के  इस लड़के ने आधी बांह का स्वेटर पहना है। उसे बात ज्यादा समझ नहीं आती पर माँ और स्वेटर दोनों उसके पास हैं। वह तय करता है कि माँ जब दोबारा सलाइयों में फंदे डालेगी, तो वह उन्हें और ध्यान से देखेगा।


जो विद्यार्थी थक गए हैं, उन्होंने बस कलम हाथ में पकड़ी है, पर लिखना धीरे-धीरे बंद कर दिया है। कुछ हैं जो शब्दों को सीधे निगल रहे हैं, कि बाद में जब भी समय होगा, धीरे-धीरे इनकी जुगाली करेंगे। - कि कापियां फट जाती हैं, स्मृतियां जिंदा रहती हैं। इस बार लड़की बिल्कुल नहीं रुक रही है। वह बस नोट कर रही है... करती जा रही है...।



घंटी बज गई है, क्लास के बाहर रिपोर्टिंग वाले सर इंतजार कर रहे हैं। उन्हें देखकर प्रोफेसर साहब यानी ज्ञानेश्वर सर एकदम से रुक जाते हैं - ''आज यहीं तक, कल कहीं और से शुरू करेंगे।वह अपना काला बैग उठाए बाहर निकल जाते हैं। उनके साथ ही कुछ विद्यार्थियों का ध्यान और चेतना भी जैसे बाहर चली जा रही है। वे उठ कर पूछना चाहते हैं विषय के बारे में और बहुत कुछ। पर उससे पहले वह उनकी फटी हुई शर्ट, उस पर लगे खून के धब्बों पर बात करना चाहते हैं। जिस पर सर ने बिल्कुल बात नहीं की, जैसे कि वह कोई खबर ही न हो। एक संकोच भी है कि पहली ही क्लास में सर ने कहा था, ''हर बात खबर नहीं होती और हर खबर सबके लिए जरूरी नहीं होती।

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''नोज फोर न्यूज इज वैरी इम्पोर्टेंट - खबरों को सूंघने वाली नाक होनी चाहिए" - तीखी नाक वाले रिपोर्टिंग के सर समझा रहे हैं। क्लास का गंभीर माहौल अब धीरे-धीरे खिलंदड़ सा हो रहा है।

''देखिए हमें कुत्ता काट ले तो कोई खास बात नहीं है, लेकिन आडवाणी जी को कुत्ता काट ले, तो खबर है”- विद्यार्थी ठहाके लगा रहे हैं। एक राष्ट्रीय अखबार के ब्यूरो चीफ जो बता रहे हैं, वह विद्यार्थियों ने बहुत बार पढ़ा और सुना है। उसमें कुछ भी नया नहीं है- ''कि आदमी बदलने से खबर बदल जाती है।धीरे-धीरे पिछले बैंच खाली हो रहे हैं। क्लास देख रही है कि आदमी बदलने से क्लास भी बदल जाती है।


आधी बांह का स्वेटर पहने लड़का दौड़ कर पार्किंग एरिया में आ गया है। वह सर से पूछना चाहता है कि उनकी शर्ट कैसे फट गई? पर इससे भी ज्यादा उत्सुकता उसे यह जानने की है कि इतना आत्मविश्वास कैसे अर्जित किया जाए कि फटी शर्ट और खून के धब्बों में भी वी. आइ. पी. एरिया के इस पत्रकारिता संस्थान में आप क्लास लेने आ गए हैं।


शाम के धुंधलके में सर अकेले खड़े सिगरेट पी रहे हैं। लड़का दौड़ कर उनके पास जाता है और संकुचाई सी मुस्कान से सर की तरफ देखता है। सर पूछते हैं, ''क्लास हो गई?”

''नहीं सर चल रही है


''तो फिर तुम?”
''बस यूं ही
''देख भाई, मेरी नाक से ये धुआं इसलिए निकल रहा है क्योंकि मैं सिगरेट फूंक रहा हूं। इस दुनिया में कुछ भी 'यूं हीनहीं होता। पूछ, क्या पूछना है?”


तब तक कुछ और विद्यार्थी भी क्लास छोड़ आए हैं। कुछ विद्यार्थी कैंटीन की तरफ जा रहे हैं। लड़की भी अपने ढीले-ढाले सूट में पार्किंग एरिया की तरफ आ रही है।

हवा में अब भी सिगरेट का धुआं हैं। वह अपने नर्म दुपट्टे से नाक-मुंह ढक लेती है।


'प्रोफेसर साहब जैसे काबिल आदमी की सिगरेट के धुएं पर वह अपनी तुच्छ नाक ढक रही है। साधारण लड़की की नाक का क्या मोल? मोल तो सर का है इस वक्त।’, नाक पर दुपट्टा रखना उसे अशिष्टता लगती है और वह धुआं बर्दाश्त करने का मन बनाती है।


एक मौन संप्रेषण हुआ है शायद, सर सिगरेट बुझा कर नीचे फेंक देते हैं और कहते हैं, ''अरे कुछ नहीं। बस एक छोटा सा एक्सीडेंट हो गया।


''तब तो आपको डॉक्टर के पास जाना चाहिए था।लड़का कहता है।


''देख मुझे जो ठीक लगा मैंने किया। जब डॉक्टर का वक्त आएगा मैं वहाँ चला जाऊंगा। मेरे चौबीस घंटों में से सिर्फ ये एक घंटा तुम लोगों के लिए होता है। ये बर्बाद नहीं होना चाहिए। आदमी वही काम करता है, जो उसकी प्राथमिकता में होता है।


''अरे सर, ये भी तो इम्पोर्टेंट हैं”- कुछ उदारता के साथ दूसरा लड़का कहता है। फिर कहकर सकुचा जाता है, सर स्कूटर स्टार्ट करते हैं- एक तीसरा लड़का कार की चाबी आगे बढ़ाता हुआ पूछता है - ''सर क्या मैं आपको छोड़ दूं,  मुझे भी उसी तरफ जाना है।


''नहीं भई अपना चेतक है न।

ज्ञानेश्वर सर चेतक स्कूटर पर सवार होकर गेट से बाहर निकल जाते हैं। विद्यार्थी सकुचाए से पहले उन्हें, अब उनका जाना देख रहे हैं।

इस पूरे दृश्य में लड़की के हिस्से सिर्फ धुआं आया है। उसे लगा, उसने ख्वामखाह के शिष्टाचार में धुएं से समझौता किया और बेवजह क्लास छोड़ी, उसे यहाँ नहीं आना चाहिए था। बेहतर होता है कि वह खबरों को सूंघने का हुनर सीखती।


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वक्त बहुत कुछ बदल देता है। पंजाबी बाग से ब्रिटानिया चौक तक के रास्ते में लगे पलाश के सब पेड़ कट गए हैं। सड़कें चौड़ी हो गईं हैं। अब वह नंगे पांव पलाश के टूटे फूलों पर नहीं दौड़ती, प्लेटफार्म हील पहन कर पत्रकारिता की क्लास में आती है। वक्त बीतते क्लास का माहौल भी बदल गया है। अब क्लास कुछ सहज हो गई है। आज सर टिपटॉप लग रहे हैं। उन्होंने खूबसूरत नीले रंग की शर्ट पहनी है और उस पर एक जैकेट भी है। ज्ञानेश्वर सर विद्यार्थियों के प्रश्न और विद्यार्थी उनके जवाब ज्यादा बेहतर तरीके से समझने लगे हैं-


''हुआ यूं कि आज एक टी.वी. चैनल पर लाइव डिस्कशन थी। जाना था तीन बजे। पर उससे एक घंटा पहले ही उनके यहां से किसी लड़की का फोन आ गया कि 'सर आप क्या-क्या बोलने वाले हैं।मेरी खोपड़ी थोड़ी सी घूमी। ये तो पता था कि चैनलों में एफ.डी.आई. आ गया है पर खोपडिय़ों में भी चाइनीज पार्ट खोंस दिए हैं, यह मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी। मैंने कहा बेटा, मेरे पिता जी को भी नहीं पता था कि मैं क्या बोलने वाला हूँ। श्रीमती गाँधी इसलिए आउट हो गईं कि वे देखना चाहती थीं क्या लिखा जा रहा है। इसी मामले पर मैं अब तक तीन नौकरियां छोड़ चुका हूं। चंपू टाइप के जो लोग विदेशों से डिग्रियां ले कर अखबार के मालिक बन जाते हैं, वे अकसर ऐसे सवाल पूछते हैं। इसके बाद मैं क्लास में हूं। अब तुम सब उस लड़की के कानों की तरह भौंचक्के होकर मुझे मत घूरो।


क्लास में खिलखिलाहट बिखर गई है। इस एक घटना में कितनी सारी सूचनाएं हैं। लड़की इन सब को इकट्ठा कर अपने भीतर जब्त कर लेती है। वह सोच रही है क्या बोला जाना खरीदा जा रहा है? तब तो सोचा जाना भी खरीदा जा चुका होगा। विदेशी विनिवेश की चकाचौंध में कुछ प्रश्न उसके मन में घर बना रहे हैं। और एक उम्मीद भी कि विनिवेश से दरिद्रता कुछ दूर होगी।



सब अपने-अपने आइडिया दिखा कर थक चुके हैं। सर एक के बाद एक हर आइडिया को खारिज कर रहे हैं-

'ये पिछले हफ्ते के इंडिया टुडे की स्टोरी थी।

'कर लो, लेकिन देखो नया एंगल क्या निकल सकता है। फलां अखबार ने पिछले साल इस पर पूरा पेज दिया था।

'यह जो सब्जेक्ट है, यह तो हमारे रघु जी का फेवरिट है। वे हर महीने इस पर ऐसे स्टोरी ब्रेक करते हैं, जैसे यह उनका मासिक धर्म हो - 'यार तुम लोग फीचर का फटीचर बना दोगे।


विद्यार्थी हैरान हैं, कि आखिर सब तो छप चुका है, छप रहा है। तो वे क्या ऐसा करें जो नया हो।

लड़की के विचार शब्दों पर अटक जाते हैं। वे देख रही है शब्द, उत्पत्ति से इतर व्यवहार में कैसे ढल रहे हैं। कैसे विदेशी विनिवेश नैसर्गिक साबित किया जा रहा है और कैसे नैसर्गिक क्रियाएं शब्दों के चुटकुले बन रहीं हैं।


विचार और व्यवहार में पनप रहा एक प्रदूषण उसके दिमाग को कोंचने लगा है।

वह संकोच में पूछती है - 'सर क्या प्रदूषण पर स्टोरी की जा सकती है?’ 
'कौन सा प्रदूषण?’ उसे लगता है सर उसकी मानसिक स्थिति समझ रहे हैं।


पर अगले ही पल उसका भ्रम भी खारिज कर दिया जाता है- 'प्रदूषण कई तरह का होता है। जल, थल, वायु। और इन तीन में भी प्रदूषण की कई अलग-अलग किस्में हैं। असल में प्रदूषण क्या है, यह भी एक विस्तृत विषय है।


''सर मैं किसानों की बढ़ती समस्याओं पर स्टोरी बनाना चाहती हूं।लड़की अपने पुश्तैनी खेतों को याद करते हुए आइडिया बदल लेती है।


''इस कृषि प्रधान देश में किसान भी समस्या होते जा रहे हैं। कभी एनएच-वन की तरफ निकलो तो देखना, वे कैसे धरती के सीने में आग लगाते हैं।लड़की जानती है, आजकल मजदूर नहीं मिलते। बड़ी बहन की शादी से पहले मां ने शर्त रखी थी, ''हमारी बेटी लावणी (खेतों की कटाई) नहीं करेगी।


वे जो चौपालों में ताश पीटा करते थे वे अब बीयर बार में विमर्श करते हैं। खेती करना कोई नहीं चाहता।


खेत रखना दूभर होता जा रहा है। रह जाता है मशीनों का सहारा। जो फसल तो काट देती हैं पर धरती के फोड़े नहीं हटा पातीं। मजबूरन उन्हें खेतों में आग लगानी पड़ती है।


उसे यह भी पता है कि खेतों की छाती पर धधकी यह राख पोटाश का काम करती है, जिससे खेत के कीड़े मरते हैं। पर नहीं पता वे कीड़े जो धरती को उपजाऊ बनाते हैं, वे इस आग में कहाँ पनाह पाते हैं। पर ये सब तो निजी बातें हैं। उसके अपने गांव-घर की बातें। बड़े देश के बड़े अखबारों को उनसे क्या सरोकार?




पिछली बैंच पर बैठा एक अनुभवी पत्रकार, जो डिग्री की गरज से इन दिनों विद्यार्थी है, कहता है - ''नदियों, झीलों का प्रदूषण हमेशा पढ़ा जाता है, है कि नहीं

''हाँ इसकी तस्वीरें भी अच्छी होती है, डिस्प्ले भी बढिय़ा बन जाता है”, सर जैसे अनुभवी पत्रकार के चलताऊ कमेंट पर कटाक्ष करते हैं।

दरमियाने कद का लड़का कहता है- ''सर प्लास्टिक का पॉल्यूशन भी तो प्रदूषण ही है?”
''हां, इसकी भी कई और धाराएं हैं, तुम कौन सी चुनोगे?”
''सर ये जो बोतल बंद पानी है, पानी पीने के बाद लोग बोतलें फेंक देते हैं। ये रिसाइकिल नहीं हो पातीं, इनसे पानी ब्लॉक हो जाता है। इन पर स्टोरी बनानी चाहिए कि कैसे पानी ही पानी का दुश्मन हो गया।

''यह कैसे पता करोगे कि हर रोज कितनी प्लास्टिक की बोतलें फेंकी जाती हैं, जिनसे पानी रुकता है?”

''सर मैं बोतल बनाने वाली कंपनियों से पूछ सकता हूं कि वे हर रोज मार्केट में कितनी बोतलें सप्लाई करते हैं-

''इसी पर बात करते हैं- क्या तुम मानते हो कि वह सही आंकड़ा होगा?”

''हां सर हम स्रोत के मुहाने पर हैं।

''गंगा के मुहाने पर खड़े होकर संगम के प्रदूषण का हाल कैसे बूझोगे?

कुछ लोग प्लास्टिक की बोतलों को फ्रिज में ठंडे पानी के लिए रख लेते हैं। कुछ इन्हें धो कर इनमें कैरोसिन और सरसों का तेल रखते हैं। 

और शौच के लिए लोटा अब कौन लेता है, बस्तियों में यही बोतलें इस्तेमाल होती हैं।

एक खिलखिलाहट के बीच सब हैरान हैं। फिर सही आंकड़ा कहां से मिलेगा?

''मेहनत से। छह लोगों से छह-छह विषयों पर बात करो। पर किसी की बात को अंतिम सत्य मत मानो। अपने दिमाग की छलनी से सूचनाओं को छानो। तब जा कर एक संभावित आंकड़ा तैयार होगा।

इसके बाद भी आंकड़ों से ज्यादा जरूरी है समस्या की भयावहता। उसका परिणाम या दुष्प्रभाव।


लड़की ने एक नई बात जान ली है कि सिर्फ उसके घर से संस्थान तक का रास्ता ही लंबा नहीं है, हर समस्या और हर समाधान का रास्ता लंबा होता है। अब उसके लिए आंकड़ों से ज्यादा परिणाम महत्व रखता है। प्रभाव या कि दुष्प्रभाव। 


इस क्लास के ठीक बाद कम्यूनिकेशन की क्लास है। कम्यूनिकेशन की मैडम की आवाज बहुत मीठी है। प्रोजेक्टर पर उनकी बनाई स्लाइड देखने से ज्यादा अच्छा लगता है उन्हें सुनना। आज यह मीठी आवाज वह नहीं सुन पाएगी, उसे रेडियो स्टेशन जाना है। यहां पहली बार उसे प्रोग्राम मिला है। जिसके लिए उसने एक सप्ताह से खूब मेहनत की है। वह जल्दी-जल्दी सामान समेटती है। आज वह कुछ-कुछ पत्रकार जैसी दिख रही है। उसने लकड़ी के मोतियों के लंबे झुमके कानों में पहने हैं और बाटिक के डिजाइन का लंबा कुर्ता। इस तरह का कुर्ता क्लास के लगभग सभी लड़के-लड़कियों के पास है। पत्रकार जैसा दिखने की चाह में सभी ने जनपद की मार्केट से इन्हें खरीदा है। 


लड़की सीधी सड़क जाने की बजाए शॉर्टकट से आकाशवाणी के पीछे की ओर का रास्ता लेती है। यहाँ खीरे वाला पटरी पर बैठा होता है। यह अच्छा स्नैक्स है। वह अकसर यहाँ से खीरे, ककड़ी खाती है। पर आज यहाँ कूड़े का ढेर जल रहा है। लंबे कुर्ते के साथ उसने दुपट्टा नहीं लिया है। इस धुएं भरी हवा में वह कुछ देर सांस लेना स्थगित करती है। किसको दोष दे, यह उसका रास्ता नहीं है। पर यह कूड़े और धुएं का भी रास्ता नहीं है। यह तो खीरे-ककड़ी की ठंडक वाला रास्ता है। रेडियो स्टेशन और दूरदर्शन के ज्यादातर छोटे कर्मी यहीं से सलाद और फ्रूट चाट खाते हैं। वह तेज कदमों से आकाशवाणी की ओर बढ़ रही है। आसान नहीं है और ज्यादा देर तक सांसों को स्थगित करना। सांसें, सड़क, आकाशवाणी के पहले प्रोग्राम, बढिय़ा स्टोरी, खीरे-ककड़ी की ठंडक इन सबसे ज्यादा जरूरी हैं...।


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पत्रकारिता की यह क्लास अब पहले जैसी बिल्कुल नहीं है। बहुत कुछ बदल गया है। लड़के-लड़कियों की ढब बदल गई है। उनके बैंच बदल गए हैं। उनके प्रश्न बदल गए हैं। कुछ जोड़े बन गए हैं, कुछ बनते-बनते रह गए हैं। विद्यार्थी अब स्टोरी, ट्रीटमेंट और विषय पर बात नहीं करते। वे जानना चाहते हैं कि इस कोर्स के बाद उन्हें नौकरी मिलेगी या नहीं। चौड़ा चश्मा लगाने वाले एडिटिंग के सर ने एक सर्व सुरक्षित जुमला हर विद्यार्थी में बांट दिया है - ''दिल में अगर आग हो, तो आगे बढऩे से कोई नहीं रोक सकता।



उन्होंने लड़कियों से कहा - ''अच्छी हो तो, अच्छी दिखा भी करो। मम्मी की लिपस्टिक उठाओ और इस्तेमाल करो।


लड़कों से कहा - पापा की टाई, स्वेटर, जैकेट सब इस्तेमाल करो। बस कॉन्फीडेंट दिखो।


और ज्ञानेश्वर सर सबसे कह रहे हैं, लाइब्रेरी की मनहूसियत में ही मत खोए रहना। कुछ किताबें शिवासी स्टेडियम के बस स्टॉप और दरियागंज के फुटपाथ पर भी मिलती हैं। जिनमें कुछ बहुत अजीब भी हैं। किताबें छांटने का, पत्रिकाएं आंकने का हुनर सीखो और फुर्सत निकाल कर कॉफी होम जाओ। वहाँ दुनिया के सबक तुम्हारी राह तक रहे हैं। और हां, मुफ्त में कभी किसी के लिए काम मत करना।


तीखे नैनों वाली एक बड़ी पत्रकार बहुत गालियां देती है। तुम गालियों के लिए नहीं हो। आत्मा पीली, गुलाबी, आसमानी कैसी भी हो सकती है पर उस पर एक भी धब्बा ले कर ज्यादा दिन नहीं चल पाओगे।


आज फिर सर ने आसमानी शर्ट पहनी है। बाजार की खुली चुनौती के बीच लड़की को लगता है कि सर की आत्मा आसमानी रंग की होगी। एकदम आजाद। जो किसी से नहीं डरती। न धन से, न सत्ता से, न अपनों से। पर वह चाहती है कि उसकी आत्मा हल्के हरे रंग की हो जाए। जिसमें खीरे जैसी ठंडक हो। उसमें धीरे-धीरे गेहूं की कच्ची बालियों की रंगत उतरे।


उसके कानों में ब्लैक मैटल की वह बालियां हैं जो आधी बांह के स्वेटर वाले लड़के ने जन्म दिन पर उसे तोहफे में दी थीं। अब दोनों को समझ आने लगा है कि दो पत्रकार एक साथ नहीं चल सकते। कोई तो हो जिसके पास अखबारी कागज की रद्दी की बजाए हरे-हरे नोटों की आस हो, गृहस्थी तभी चल पाएगी। किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा से बचने के लिए दोनों अलग-अलग रास्तों पर जाना तय करते हैं। ऐसे रास्तों पर जहां तंगहाली का धुआं न हो। जहां ख्वाहिशों का रेट 'ठीक-ठीकन लगाना पड़े।

प्रदूषण वाली स्टोरी अब भी अधूरी है।

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लड़की नौकरी ढूंढते हुए सी.एस.डी.एस. के दफ्तर, संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट, स्थानीय चैनलों के दफ्तर सब जगह जाती है। सबको काम चाहिए पर पैसा कहीं से नहीं मिलता। प्रदूषण वाली स्टोरी हर जगह कई बार छप चुकी है। कई संस्थानों से इस पर छोटे-बड़े धुरंधरों ने शोध के लिए रकम भी ऐंठी है। पर हुआ कुछ नहीं। प्रदूषण का मसला अब सबके लिए बेकार है। छोटी पत्रिकाओं के लिए काम करते हुए लड़की ने जान लिया है कम समय में ज्यादा आकर्षक स्टोरीज तैयार करने का हुनर। नौकरी ढूंढते हुए उसकी मुलाकात एक लड़के से हो गई है। वह एक टी.वी. चैनल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर है। जिस तरह दोनों की मित्रता बढ़ रही है लड़की को लगता है कि यहाँ उसे नौकरी जरूर मिल जाएगी। वह कुछ अच्छी तस्वीरें खिंचवाती है, बिल्कुल वैसे ही कपड़ों में जैसे टीवी चैनलों की एंकर पहनती हैं। वीडियोकॉन टॉवर के नीचे चाय की एक छोटी सी दुकान है। वह अपनी तस्वीरें असिस्टेंट प्रोड्यूसर साहब को दिखा रही है। पर नहीं उसकी एक भी तस्वीर असिस्टेंट प्रोड्यूसर साहब को पसंद नहीं आई है, लेकिन लड़की उन्हें बहुत पसंद है। वे चाहते हैं कि लड़की जल्दी से चाय खत्म करे और जाए। उसे ऑफिस से मैसेज आ रहे हैं।


''गालियां देनी आती हैं?” उन्होंने बेहद अजीब सवाल पूछा है।

''हैं?” लड़की चौंक गई है।
''और सुननी?”
''-” वह अब भी चुप है।

''यहां 'अबे’ 'तबेका चलन है और तुम हो कि 'जी’, 'जनाबसे आगे ही नहीं बढ़ती। तुम कैसे चल पाओगी यहाँ?”


जल्दबाजी में वे बता रहे हैं कि वह लड़की कितनी सीधी-सादी और चैनलों की दुनिया कितनी तेज तर्रार है। यहाँ नौकरी करने से बेहतर है कि वह उनसे शादी कर ले। लड़की चुपचाप 'हाँकर देती है। असिस्टेंट प्रोड्यूसर साहब बायोडाटा से हटा कर उसकी तस्वीर अपने गांव भेजना चाहते हैं - कि अगर उनकी माँ को वह पसंद आई तो जल्दी ही वे दोनों शादी कर लेंगे।

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यह उसके जीवन का टर्निंग प्वाइंट है। वह इस मोड़ पर मुडऩे से पहले कोई भी छोटी-मोटी नौकरी ढूंढ लेना चाहती है। और एक बार वे ज्ञानेश्वर सर से मिलना चाहती है। अब तक सर ने चौथी नौकरी भी छोड़ दी है और एक क्षेत्रीय अखबार के राष्ट्रीय ब्यूरो में आ गए हैं। वह उनसे मिलने आइ.एन.एस. बिल्डिंग जाती है।


बहुत मुख्तसर सी बात हो रही है। आकाशवाणी के युववाणी सेक्शन के लिए प्रोग्राम करते हुए भी उसमें अभी इतना आत्मविश्वास नहीं आया है कि सर से बात कर सके। बोल अभी तक सर ही रहे हैं।


''देख बेटा, जिंदगी बदल रही है, तो उसका पाठ्यक्रम भी बदल लो। वो किताबें मत पढ़ो, जिनके पाठ पुराने पढ़ चुके हैं। अपने लिए कुछ नई किताबें चुनो। विश्व पुस्तक मेला लगने वाला है। टाइम निकाल कर एक बार हो आओ।


लड़की मुस्कुरा उठी है। छोटी सी मुलाकात में ही सर न कितना कुछ कह दिया है। उसे खुशी है यह देखकर कि आधी बांह के लड़के ने सर का साथ नहीं छोड़ा है। वह यहां भी उनके साथ है। लड़की को उसके भाग्य से ईर्ष्या होती है।


''चाय वाय कुछ पिओगे?” सर पूछते हैं।
''सर मैं ले आता हूँ।
''नहीं मैं नहीं पिऊंगा। तुम दोनों पियो।



-अब दोनों नीचे आ गए हैं। आइ.एन.एस. की कैंटीन में सूजी का कच्चे पीले रंग का हलवा बना है। दोनों हलवे से मुंह मीठा करते हुए अपने-अपने वर्तमान और संभावित भविष्य शेयर करते हैं।

''यार तुम्हारी स्टोरी तो गज़ब थी। मैंने पढ़ी और बाकी अखबार भी उसे फॉलो कर रहे हैं। इनवेस्टीगेटिव जर्नलिज़्म करने लगे हो।

''हा हा हालड़का जोर से हँसा है।
''तुम हँस क्यों रहे हो?”


''तुम जो मुझे जेम्स बॉन्ड समझ रही हो। सब गाइडेड लीक्स होते हैं। कुछ खबरों को रोकने के लिए कुछ खबरें छोड़ी जाती हैं। और सूंघने वाले सब अपनी-अपनी नाक लिए वहां सूंघते रहते हैं।


''तुम कितने खुशकिस्मत हो न, आज भी सर से कितना कुछ सीखने को मिलता होगा?”
''छोड़ यार, मैं ही जानता हूं। मुबारक हो तुझे, शादी पर जरूर बुलाना।
''हां, हां क्यूं नहीं। एक मैगजीन से ऑफर मिला है। सोच रही हूं ज्वाइन कर लूं।
''पैसा अच्छा दें तो कर लें ज्वाइन।
''तुझे अच्छा मिल रहा है?”
दोनों अद्भुत मुस्कुराहट के साथ एक-दूसरे को देख रहे हैं।


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जिंदगी कुछ और आगे बढ़ रही है। तस्वीर तो गाँव में ज्यादा किसी को पसंद नहीं आई पर दोनों की शादी हो गई है। असिस्टेंट प्रोड्यूसर साहब अब प्रोड्यूसर हो गए हैं और लड़की साप्ताहिक पत्रिका में नौकरी कर रही है। हालांकि यह नौकरी उसे शादी से पहले ही मिल गई थी पर असिस्टेंट प्रोड्यूसर साहब ने लड़की के दिमाग में यह अच्छे से बैठा दिया है कि उनके कारण उसे यह अच्छा ऑफर मिला है। अब उसे ज्यादा शालीनता से रहना चाहिए क्योंकि वह उनकी पत्नी भी है। उसकी चाल-ढाल, उसके बात व्यवहार का असर प्रोड्यूसर साहब की छवि पर भी पड़ेगा। प्रोड्यूसर साहब उसे गाड़ी से ऑफिसर छोड़ते हैं और वह सारी हिदायत गाड़ी से उतरते हुए या दफ्तर की सीढिय़ां चढ़ते हुए कहीं रास्ते में ही छोड़ देती है। यहां वह जी भर सांस लेती है। अपनी मर्जी से काम करती है और शाम को जब गाड़ी आकर नीचे रुकती है, वह फिर से सारी हिदायतें अपने साथ लिए चलती है। उसे मनाही है ऑफिस टाइम में प्रोड्यूसर साहब को फोन करने की और उसकी जिम्मेदारी है घर में उनकी हर छोटी बड़ी चीज का ख्याल रखने की।


प्रोड्यूसर साहब पर प्राइम टाइम की जिम्मेदारी आ गई है। अब वे और ज्यादा बिजी हो गए हैं। वे देर रात लौटते हैं। लड़की सुबह जल्दी उठती है, अपनी नौकरी के लिए और रात देर तक जागती है साहब की नौकरी के लिए। उसे दो अल्मारियां सहेजनी हैं - एक अपने कागजों की और एक साहब के कागजों की। व्यस्तता में वह अपनी अलमारी सहेजना स्थगित करती है क्योंकि प्रोड्यूसर साहब की अलमारी सहेजना ज्यादा जरूरी है।


साहब रात को लौटते हुए रिसर्च की एक फाइल घर ले आए हैं - ''देखना इसमें और क्या बेहतर हो सकता है।

प्रोड्यूसर साहब ने हिदायत दी है। आधी रात को नींद स्थगित कर वह रिसर्च फाइल में पेंसिल से और पर्सपेक्टिव जोड़ रही है। उसे अच्छा लग रहा है यह काम पर कितना अच्छा होता अगर अपनी मैगजीन के लिए करती।

उनींदी सुबह में आज पानी बहुत कम आ रहा है। उसे जल्दी-जल्दी सब काम निपटा कर दफ्तर जाना है। आज एक बड़ी मंत्री का साक्षात्कार करना है। बरतन साफ करते हुए वह एकटक नल की ओर देख रही है।  उसे ध्यान नहीं रहा कि प्रोड्यूसर साहब उसे देख रहे हैं - ''क्या सोच रही हो?”


''मैं सोच रही हूं यहां तो पानी की कितनी किल्लत है और सड़कों के किनारों पर यूके लिपट्स किस योजना के तहत लगा दिए गए। जबकि यह तो दलदली क्षेत्र में लगते हैं जहां पानी सोखना हो। मैं सोच रही हूं इस बार की कवर स्टोरी में इन सबकी पड़ताल करूं।


''स्टोरी तो अच्छी है पर तुम्हारी मैगजीन पढ़ते ही कितने लोग हैं? तुम ऐसा करो इस पर और थोड़ा रिसर्च करो, मैं इस पर स्पेशल प्रोग्राम बनाता हूं।


लड़की अब कुछ भी नहीं सोच पा रही है। इस किराए के घर में उसे कुछ नहीं सोचना चाहिए। उसे लगता है कि यह घर ही नहीं इस घर में उसका जीवन भी किराए का है। हर दिन उसे किराया देना होता है, न दे तो प्रोड्यूसर साहब को शक होने लगता है कि उसका ध्यान यहां-वहां भटकने लगा है। उन्होंने पहले ही चेताया था, यह दुनिया बहुत भ्रष्ट है। यहां पुरुषों की दुर्घटना का हर्जाना भी स्त्रियों को ही देना पड़ता है।

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जिंदगी की रफ्तार बदल रही है। पुरानी सड़कें टूट रहीं हैं, नए मार्ग बन रहे हैं, चौड़े हो रहे हैं। सफर फ्लाई ओवरों पर से होकर दौड़ता है। यूं ही दौड़ते हुए उसे मेट्रो स्टेशन पर आधी बांह के स्वेटर वाला अपना दोस्त मिल गया है। अचानक हुई मुलाकात पर दोनों खुश हैं, दोनों को एक ही प्रेस कॉन्फ्रेंस में जाना है-

''तू बिल्कुल नहीं बदला। बिल्कुल वैसा ही है।
''पर तू तो एकदम बदल गई है। पहले तो मैंने पहचाना ही नहीं।
''सच। हां, बहुत कुछ बदल गया है।
''तू गायब कहां हो गई थी। और तेरी वो प्रदूषण वाली स्टोरी हुई या नहीं? देख आज कितनी धुंध है माहौल में।
''कहां यार, बस घर-परिवार की जिम्मेदारियों में होश ही नहीं रहता। एक बेटा है, चार साल का।
''गुड यार। पर अच्छा है, अभी भी काम कर रही है। नाम पढ़ता रहता हूं तेरा। अच्छा लगता है।
''तू सुना-
''क्या सुनाऊं यार? कुछ अच्छा है ही नहीं सुनाने लायक।
''नौकरी तो तेरी अच्छी चल रही है। हम सब में सबसे आगे तू ही है।
और बाकी सब लोग कैसे हैं? कोई कॉन्टेक्ट में है तेरे?
''सब अपनी-अपनी दौड़ में बिजी हैं। कभी-कभार मुलाकात हो जाती है पर ज्यादा नहीं।

''मैं अगले हफ्ते पश्चिम बंगाल जा रहा हूं, एक स्पेशल स्टोरी है। साथ में दो, तीन और पत्रकार भी होंगे। तुझे चलना है तो बता।
लड़की उतावली हो गई है। वह भी जाना चाहती है पश्चिम बंगाल। पर भीतर हिचक है और फिक्र भी कि बेटे को कहां छोड़ेगी, किसके भरोसे।
वह दिन भर झूलती रही है अपने घर और पश्चिम बंगाल के प्रस्ताव के बीच।

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उसकी आंखों में इस प्रस्ताव की खुशी है और प्रोड्यूसर साहब उसकी नजरें पढ़ लेते हैं। इसलिए जब भी वे बहुत करीब होते हैं लड़की अपनी आंखें बंद कर लेती हैं। वह अपनी कोई ख्वाहिश उनसे साझा करना नहीं चाहती। कि वे उसे प्राइम टाइम की स्टोरी बना देंगे। वह अपनी पत्रिका के साथ हंसना, खेलना और समय बिताना चाहती है। 

उसकी पलकें अब भी हल्की मुंदी हुई हैं। प्रोड्यूसर साहब उसके बालों को सहलाते हुए अपने घर और गांव की बातें सुना रहे हैं। बड़ी भाभी के परिवार के प्रति निष्ठा के किस्से सुना रहे हैं। वे आतंकित हो रही है बड़ी भाभी के तप और आस्था से।


''क्या सोच रही हो?”
''कुछ भी तो नहीं।
''कुछ तो है, मैं तुम्हारे हाव-भाव से ही बता सकता हूं कि तुम क्या सोच रही हो।
लड़की डर गई है, वह कृत्रिम जवाब देती है - ''मेरा प्रमोशन होने वाला है।
''वाह, कमाल है। कॉन्ग्रेचुलेशन्स। वैसे तुम नौकरी ही अच्छी कर सकती हो। मुझे लगता है तुम सिर्फ  नौकरी के लिए ही बनी हो। बाकी जीवन तो बस 'जैसे तैसेचल रहा है।
ये 'जैसे तैसेलड़की को बहुत चुभता है। वह बीते पांच छह वर्ष याद करती है और देखती है मुन्ना को सोया हुआ। यह भी जैसे तैसे हो गया था क्या। 


अगले ही पल प्रोड्यूसर साहब ने मां का खत खोल दिया है, जिसे उन्होंने फोन पर सुना है। मां ने इस बार भी पूछा कि तुम छठ पर घर आ रहे हो या नहीं। उन्हें इस बार भी छुट्टी नहीं मिल रही। उन्हें चिंता है नौकरी ने उनके गांव घर के सब त्योहार छुड़ा दिए हैं, कहीं उनकी संस्कृति भी न छूट जाए। प्रोड्यूसर साहब लड़की की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं। और लड़की ने सूची बनानी शुरू कर दी है दीवाली के बाद, छठ के लिए खरीदारी की। उसे कुछ नहीं पता है। फिर सहेलियों से भूली बिसरी यादें ताजा करती है। कुछ इंटरनेट पर धर्म-कर्म की साइटें खंगालती है। कुछ शुभकामना संदेश की तस्वीरों को ध्यान से देखती है। बस जुट जाएगा जिंदगी में जिंदा बने रहने का सामान धीरे-धीरे। सांस लेने को थोड़ी हवा आती रहे।


पर इस बार पहरा सांसों पर ही सबसे ज्यादा है। सड़कों के ऊपर और सड़कें उग आईं हैं। पलाश के पेड़ों की जगह भी सड़कें हैं और नीम के बड़े दरख्तों की जगह भी। कीकर वीकर की तो बात ही क्या। सब तरफ सड़कें ही सड़कें हैं। धुआं ही धुआं है। 

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वह अपनी ख्वाहिशों से ध्यान हटा कर परिवार की तरक्की पर लगाना चाहती है। सब तरक्की करना चाहते हैं। इधर शहर भी तरक्की कर रहा है। प्रगति के इस खुशनुमा माहौल में फिजूल की स्टोरीज पर अब लड़की भी नहीं सोचना चाहती। पर उसे रह रहकर अपना घर आ जाता है। इन दिनों खेत कट कर खाली हो चुके होंगे। और फिर से उनके सीने पर आग धधक रही होगी। तो क्या यह धुआं उसके खेतों से आ रहा है? यह धुआं स्थायी हो चला है, अब उसकी सांसों के वश में नहीं है धुएं से लड़ पाना। वह आसमान में उमड़ते बादल देखना चाहती है पर धुआं आंखों में चुभ रहा है। वह सब कुछ भूल भाल कर उपासना की तैयारी में लग गई है।


छटा बिल्कुल बदल गई है-

नहाय खाय के साथ पवित्र हो रही है लड़की और उसका चौका भी, जो उसने खासतौर से छठ के लिए तैयार किया है। उसने गुड़ मिला इतना सख्त आटा गूथा कि अंगुलियों के जोड़ खुल गए पर देख रही है कि चौके में मिठास भर गई है। प्रोड्यूसर साहब की आंखें चमक रहीं हैं। वह मुन्ना को गांव घर के किस्से सुना रहे है। छठी मैया के महातम के, लोगों की भूल के, फिर कठिन तप के, उन्हें अपने गांव के सारे घाट याद हो आए हैं। उन्हें याद हो आई है वह बुढिय़ा जिसने बीमार होने के कारण अपवित्र पोखर में खड़े होकर अर्घ्य दिया और दूसरे ही महीने वह मर गई। 


लड़की पूछना चाहती है क्यों रखवाया उसके परिवार वालों ने बीमार बुढिय़ा से इतना कठिन व्रत। पर चुप रहती है। उसे अब भी बहुत से नोट्स लेने हैं अपने मन की खाली नोट बुक पर।


और प्रोड्यूसर साहब उत्साह में उसकी हर गतिविधि को कैमरे में कैद कर रहे हैं। उसकी आस्था पर, कठिन तप पर सब खुश हैं। पर हवा में घुला धुआं बढ़ता ही जा रहा है। वह इस धुएं से उबरना चाहती है। शायद दीवाली की आतिशबाजी ने यह धुआं हवाओं में झोंक दिया है। वरना खेतों में इतना हौसला कहां कि वह शहर की सांसों पर पहरा लगा दें। उसने नाक से मांग तक गहरा सिंदूर भरा है। यहां और वहां, इस घर और उस घर, खेत और खलिहान, जिंदगी और प्रगति सब की सलामती के लिए। 


वह भीतर से चाहती है कि सब आडम्बर छोड़ कर वापस अपने घर लौट जाए, अपने खेतों में खो जाए लेकिन बाहर से उसने सीधे पल्लू की चमचमाती साड़ी पहनी है। आंचल को माथे तक सरका कर उसने अपने पास बची हुई सांसें लीं और भास्कर देव को प्रणाम किया। घाट पर उस जैसों का मेला लगा है और शहर में अफरा तफरी मची है। 


अब किसी को शुबह नहीं था कि दूध में मिलावट है कि नहीं। सब्जियों में खतरनाक रसायन है कि नहीं। कैप्सूलों में मिट्टी और रेत है कि नहीं। बल्कि उन्हें पूरा यकीन हो चला था कि सांस लेना अब दुश्वार है। लड़की की तरह वे सब भी चाहते हैं कि घने वृक्ष अपनी बत्तीसों भुजाएं उठा कर बादलों से नेह की बूंदें मांगे। बादल लताओं की पुकार जरूर सुनेंगे। पर कहां, प्रगति के फोर लेन हाईवे पर गमलों में, पोस्टरों में जो हरियाली उगाई गई है, उनकी नाजुक टहनियां बादलों से बतियाने का हुनर सीख ही नहीं पाईं। 


धुएं और सांसों की लड़ाई से तंग लोग, जिनकी एडिय़ों में अभी पत्थर तोडऩे का हुनर बाकी था, वे माणेसर की पहाडिय़ों की ओर चल दिए। लंबी गाडिय़ों में मथुरा रोड से भागते हुए एक भारी भीड़ ने नरवर घाट पर जा कर सांस ली। 


रेलगाडिय़ां जो हमेशा फुल रहती थीं, आज उन्हीं भरी हुई रेलगाडिय़ों में सैकड़ों लोग एडजस्ट हो गए। यह शहर कभी खाली नहीं हो सकता। यहां अब भी भरपूर भीड़ थी। भीड़ में कुछ लोग अपने सपनों के सिरहाने बैठे रहे। कुछ किताबों के पन्ने पलटते रहे। कुछ दफ्तरों में बची हुई फाइलें निबटाते रहे। विज्ञान भवन में बैठे लोगों को अब भी भरोसा था कि सरकार के पास हर समस्या का समाधान होता है। होस्टलों में रह गए बच्चे अब भी आधा-आधा कप चाय के साथ तमाम तरह की परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे कि उन्हें आगे बढऩा है। बड़ी और ऊंची कुर्सियों पर बैठना है। देश बदलना है।


आस्थावान लोग अपने रुमालों में छुपी सांसों के सहारे डूबते सूरज को अर्घ्य दे रहे हैं। लड़की भी आस्था में डूबी जा रही है। वह चाहती है कि उसका परिवार सुंदर हो, संपन्न हो, संपूर्ण हो। इस उम्मीद के साथ कि छठी मैया उसकी और उस जैसों की यह विपदा भी हर लेंगी, उसने डूबते भास्कर को अपनी संपूर्ण आस्था के साथ अर्घ्य दिया...।  उसे खड़े रहना है भास्कर देव के स्वागत में ऊषा का अर्घ्य ले कर....


...अगली सुबह जब सूर्य देव अपने साथ ऊषा की नारंगी किरणें लेकर आए तो उनके अभिनंदन में कोई नहीं उठ सका। न लड़की, न उसका परिवार, और न ही इस शहर के लोग। जागती आंखों में सपने जगाने वाला शहर आज चिर निद्रा में सो गया था।


सम्पर्क-


ई-मेल : yyvidyarthi@yahoo.co.in

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. योगिता जी की यह कहानी बहुत निर्मम है! पढ़ते हुए कितनी तरह के विचारों से गुजरता रहा।यह विलक्षण ढंग से हमारे समय का दस्तावेज बन गया है।बेहद गहरे यथार्थबोध के बाद ही ऐसी विकट अभिव्यक्ति संभव हो पाती है।इसी के साथ,मुझे लगा,यह हमारे बदलते समय के कहानी के शिल्प के लिये भी याद रखी जाएगी।योगिता के पास जैसी बेधक,सुलझी हुई दृष्टि है,वह उसे बिलकुल अलग पहचाने देती है।पत्रकारिता जीवन,मूल्यों,समाज की वास्तविक चिंता और सरोकारों से लैस यह कहानी कितने ठंडेपन से समय की भयावहता को पकड़ रही है',यह एक बड़े कहानीकार का हुनर है।मैं अपनी कहूँगा तो मैं ऐसी ही कहानी की तलाश में रहता हूँ।इस दर्जे का निर्मम लेखन मुझे अनिल यादव की याद दिला गया।वह भी पत्रकार कथाकार है।
    यह हमारे समय के कितने आयामों को छूती हुई बेहतरीन कहानी है।
    संतोष भाई को धन्यवाद इस कहानी को यहाँ पढ़वाने के लिये।
    योगिता जी ढेर सारी बधाई,शुभकामनायें...

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    1. बहुत आभार कैलाश जी, आपकी सुचिंतित टिप्पणी के लिए

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