स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ



स्वप्निल श्रीवास्तव

आज का हमारा समय ‘अमूर्त समय’ है. अब सब कुछ लगभग अमूर्त सा है. दुश्मन-दोस्त, रिश्ते-नाते आज सब लगभग अमूर्त हो गए हैं. यह अमूर्तन इतना अधिक अस्पष्ट है कि कब और कहाँ हम धोखा खा जाएँ, कहा नहीं जा सकता. मदारी हमें अच्छे दिन का स्वप्न दिखा कर हमारी बची-खुची खुशियाँ गायब कर सकता है. कहने के लिए हम लोकतान्त्रिक देश के नागरिक हैं लेकिन वास्तविकता से जब पाला पड़ता है तो इसके खौफनाक चेहरे सामने आ जाते हैं. वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने इन अमूर्त-विसंगतियों को अपनी कविता का विषय बनाया है. यह स्वप्निल जैसे कवि के बस की ही बात है कि हमारे समय की जटिलता को साफगोई से अपनी कविता में उद्घाटित कर देते हैं. तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव की कुछ नयी कविताएँ. 


स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ



बूढ़ा चित्रकार और लड़की


एक बूढ़े चित्रकार की जिंदगी  में
शरीक  होने के  बाद,  मशहूर  हो गयी थी
वह लड़की
वरना  उसे कौन जानता था
वह ठीक से कूंची नहीं पकड पाती थी
आज वह रंगों से खेल रही है

चित्रकार के आंखों में जो चमक
दिखाई  दे रही  है, उसके पीछे
लड़की  का  मुस्कराता  हुआ चेहरा है

रंगों ने उनके उम्र के अंतर को
कम कर दिया  था और वे समवयस्क
हो गये थे

बूढ़ा चित्रकार उस लड़की  को उन पहाड़ी जगहों
पर ल्रे जाता था - जहाँ से उसके बचपन की
शुरूआत  हुई थी
वह पहाड़ पर बसे स्कूल की ओर
इशारा  करता था जहाँ वह अपने बस्ते
के साथ चढ़ता उतरता  था

उस  नदी को देख कर  वह  उदास हो जाता था
-जहाँ  तैरते  हुए डूब गये थे, उसके पिता
कभी-कभी उसकी  माँ अपने पति की
याद  में  दीपक विसर्जित करने जाती थी

लड़की उसकी  तरह की पेंटर नहीं
बन पायी थी लेकिन वह जिंदगी के
हर रंग से वाकिफ थी

वह चित्रकार के भीतर छिपे बच्चे को
पहचानती थी

चित्रकार बच्चों  की तरह हंसता था
और हँसतेहँसते लड़की की  गोद में
खरगोश की  तरह छिप जाता था   
  

तितलियां

मैंने जिंदगी  में बहुत सी तितलियां
देखी  है

पीले रंग की तितली बसंत के दिनों
में दिखाई  देती  थी
वे स्वभाव से खिलद्दड़ थी
वह गुलाब के फूलों के आसपास
मंडराती  थी
कई रंगों वाली तितली जाड़े के मौसम में
आती  थी
गेंदें के फूलों के पास उसका ठिकाना था

हरे रंग की तितली  के  लिए बारिश
का  मौसम नियत था
भीगना  और भिगोना उसका शौक था
सफेद रंग की तितली शांत रहती थी
वह गुमसुम दिखती  थी
लोग उसे साध्वी कहते थे
इन तितिलियों  के बीच सांवले रंग की एक
ढ़ीठ तितली  थी
जो उसके पीछे भागता  था
वह जिंदगी  भर भागता रहता था

तितलियां  चैन से नहीं रहने
देती  थी
हमेशा  हम से दूर उड़ती
रहती थी

   
सबसे अच्छे


सबसे अच्छे पिता सबसे कम जरूरतों में
रहने की सलाह देते है
और माँ  बताती  है कि अनाज का एक दाना
अशर्फी के बराबर है
एक दाना अगर खेत में गिर जाय
तो एक पौधा तैयार हो जाता है
एक पौधा सैकड़ो पौधो को जन्म
दे सकता  है

अच्छी  बहनें घर से विदा होने के बाद
माँ बाप और भाई की  चिन्ता करती है
वे अपने असली घर से बिलग नहीं होती

जीवन में अच्छे  भाई मिल जाय तो
मजबूत  हो  जाते  हैं कंधे
पथ हो जाता  है सरल

इन सबसे ऊपर होते है दोस्त
जिन्हे हम चुनते है और वे हमारे
दुख चुगते हैं


विस्थापन

जो गाँव में रहते है वे शहर में
जाने के लिए बेचैन है
शहर के नागरिक महानगर में
बसने के लिए हैं लालायित

छोटी  जगह कोई  नहीं रहना चाहता
सबको चाहिए बड़ी  जगह

जमीन  पर रहने के लिए कोई
राजी  नहीं  है
सबको चाहिए आसमान और उड़ने
के लिए पंख

उनके जाने से जो जगह रह जाती है
उस जगह को ढ़बढ़बाई आंखो से
देखते  है मातापिता
अवरूद्ध हो जाते है उनके कंठ

राजधानियां कुछ खास राजनेताओं, कवियों, लेखकों
दलालों,  उठाईगीरों  के लिए आरक्षित  है
उनकी प्रतीक्षा सूची लम्बी  है

बड़े कवि छोटे शहरों में नहीं रहते
उनका वहाँ दम घुटता  है
छोटे शहरों में प्रसिद्धि के अवसर
नहीं  हैं

जो महत्वाकांक्षाओं के लिए चुनते हैं विस्थापन
वे महानता के पथ पर आगे बढ़ते हैं
वे सहज जीवन नहीं वर्जित इच्छाओं का
चुनाव करते हैं 

 

उन जगहों की याद


हमें उन जगहों की याद आती है
जहाँ से हो कर हम यहाँ तक पहुँचे हैं
उन लोगों से मिलने की इच्छा उमगती है
जिन्होंने हमारे जीवन को गढ़ा  है

ऐसे कई कृतघ्नतायें  है जिनके लिए
क्षमा जैसे शब्द पर्याप्त नहीं है

जीवन के हाहाकार और आगे बढ़ने
हड़बोंग में छूट जाते  है अनेक दृश्य

यहाँ तक हम पुल से गुजरते  हुए
उस नदी को भूल जाते हैं
जिसे देखते  हुए  हम बड़े  हुए  हैं

हमें पता नहीं चलता कि जिस वृक्ष ने
हमें ताप और बारिश से बचाया  है
उसे नक्शे से गायब हुए जमाना
बीत चुका  है

हम अपने होने और किसी के न होने
के बीच सही ढ़ग से सोचना भूल
चुके हैं


वंश-वृक्ष

सबसे पहले वंश-वृक्ष से उड़े थे बाबा
उसके बाद दादी  की बारी थी
पिता के पहले उनके बड़े भाई को
उड़ना था लेकिन पिता उड़ गये
माँ पिता के बिना अकेले नहीं
रह सकती थी- इसलिए वे भी
उड़ गई

सबसे बड़ा दुख छोटे भाई का उड़ना था
वह मुश्किल से देख पाया था,  बीस बसंत

उड़ने का कोई क्रम नहीं था
न कोई तर्क कि पहले या  बाद में
कौन उड़ेगा

वंश-वृक्ष की डालियां कई लोगों के
उड़ने से खाली हो चुकी थी

वंश-वृक्ष कोई स्थायी जगह नहीं
जो इस पर बैठता है- वह अपने
उड़ने की  नियति के साथ आता है

मुझे अपने उड़ने की तारीख नहीं मालूम
लेकिन इतना तय है कि एक दिन
मुझे भी उड़ना है


याद आते हैं


याद  आते हैं धान और जड़हन के खेत
उनकी बालियों पर मड़राते सुग्गे
पोखर की मछलियों  पर बुरी नजर
रखने वाले बगुला भगत याद आते हैं

फसलों के भविष्य पर बात करते हुए
पिता को भूलना कठिन होगा
माँ  याद आती  हैं जो अक्सर धानी साड़ी
पहनती थी और धान के खेतों की
याद दिलाती थी

याद आते  है भाई बहन- जो बारिश होते ही
छाता छोड़ कर भीगने के लिए निकल जाते थे

याद  आता  है बचपन का वह दोस्त
जिसे कागज की नांव  बनाने में महारत
हासिल थी
आगे चल कर वह मल्लाह बना
वह हमें नदी  पार कराता  था

तमाम कोशिशों के बावजूद मैं शहर में जा कर
मनुष्य नहीं बन सका

जो कुछ छूट चुका  है,  वह कितना
मूल्यवान  है
यह गंवाने  वाला  ही जानता है




जाते हुए देखना


उसे जाते  हुए देखना
एक तकलीफदेह अनुभव था
धीरे-धीरे वह ओझल होती
जा रही  थी
जैसे गली का मोड़ आया
वह मुड़ गयी
अब उसे देख पाना कठिन था

मोड़ खतरनाक  होते हैं
वह हमारा पूरा जीवन
बदल देते हैं

वह आयेगी- यह कह कर गई थी
मैं यह सोच कर खुश था
कि वह आयेगी

इस तरह दिन,  महीने, साल
गुजर गये वह नहीं आयी

मैं वहीं रूका  हुआ हूँ
जहाँ  से वह गई थी
और मुझे उसके रूकने की जगह
नहीं मालूम  है


दुश्मन


हमारे दुश्मन अमूर्त  हैं
उनके हमला  करने की तकनीक
आधुनिक है

हमला होने के बाद हमें पता चलता है कि
हम उनकी हिंसा का शिकार हो गये हैं

वे हवाओं में मिल जाते हैं
पानी में घुल जाते हैं
अंत तक हमें उनके होने का
पता नहीं चलता

वे छीन रहे है हमारी प्राणवायु
हमें निहत्था और शक्तिहीन
बना रहे हैं

कविता  में कही इस बात को
सोच कर देखिए हम कितने
खतरे में पड़ गये हैं  


दलिद्दर

वर्षो से सूप बजा कर दलिद्दर
भगा रही  है माँ
यह कहते  हुए कि जाओ महराज
कोई दूसरी जगह देखो
लेकिन घाघ दलिद्दर धमक के साथ
अगले साल आ धमकते थे
हमारे साथ कोई रियायत नहीं
करते थे

अमीरों की कोठी में नहीं आते दलिद्दर
जैसे वह उनका दरवाजा खटखटाते हैं
वह हमारे घर का  रास्ता दिखा देते हैं

माँ पछोरती  है अपने दिन कि
कोई अच्छा दिन निकल आये

माँ को पता नहीं कि उसके अच्छे दिन
आदमखोरो ने खा लिए हैं


............................................................

सम्पर्क 

स्वप्निल श्रीवास्तव
510- अवधपुरी कालोनी अमानीगंज
फैज़ाबाद – 224001
मोबाइल- 09415332326


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं