सिनीवाली की कहानी ‘करतब बायस’।
सिनीवाली |
हम
अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र कहते नहीं अघाते। लेकिन इस लोक-तन्त्र का सच
बड़ा भयावह है। चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति अपनाने
में ये दल कोई गुरेज नहीं करते। इस लोकतन्त्र की असफलता यही है कि यह समाज में
समानता लाने की जगह लोगों के बीच की दूरियाँ और बढ़ाता गया। एक-दूसरे की आलोचना
करने वाले दल अपने गिरेबान में झांकने से प्रायः बचते हैं और अपने कमीज को अधिक
सफ़ेद ठहराते हैं। युवा कहानीकार सिनीवाली ने अपनी कहानी ‘करतब बायस’ में इन चुनावी
हथकंडों का ही बेबाकी से खुलासा किया है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सिनीवाली
की कहानी ‘करतब बायस’।
करतब
बायस
सिनीवाली
चुनाव
प्रचार खत्म होते ही आज गाँव में सन्नाटे के साथ रहस्य पसर गया।
लगातार
महीनों से चल रहे चुनाव प्रचार ने लोगों को एक आदत सी बना दी थी। जहाँ कहीं भी दो
चार लोग खड़े नजर आते, चुनाव की ही चर्चा होती। चर्चा होते होते भाई-गोतिया में ही
गर्मागर्मी हाने लगती, वहीं समान दल वालों के बीच प्रेम और भाईचारा। तो कभी नेता
जी खादी का कुर्ता पाजामा पहने, हाथ जोड़े, मुख मंडल पर स्थायी मुस्कुराहट चिपकाए
अपने झुंड के साथ आ रहे होते।
“क्यों
भाई, ठीक हो ना... याद रहेगा ना... तुम बस हमारा ध्यान रखना, बाकी सब हम...।”
भोर
से रात तक जुलूस, लाउडस्पीकर, गर्मागम चर्चा से गाँव गुलजार रहा। प्रचार बंद हो
जाने के साथ ही रहस्य पसर गया। रहस्य इसलिए कि कहीं अपना आदमी, घर का आदमी ही
दूसरी पार्टी को वोट न दे दे। हम जिस पार्टी के लिए ताल ठोक रहे हैं, क्या पता
सामने वाला उसे पाताल में धकेलने की सोच रहा हो। कौन जीतेगा या कौन हारेगा? अभी सब
कुछ भविष्य के गर्भ में था।
देवना
कुएं के पास खड़ा हो कर दतवन कर रहा था। चुनाव प्रचार करते लोगों का एक झुंड सामने
से धीरे-धीरे गुजरने लगा। देवना भी कुल्ला करके उस झुंड के पास पहुँच गया।
“अबकी
बार जिताना है, लल्लन बाबू को जिताना है” एक आगे बोलता, पीछे से जोर से नारा लगता।
इन आवाजों के बीच प्रत्याशी हाथ जोड़े मंथर गति से हाथी की तरह झूमता हुआ आगे बढ़
रहा था और उसके पीछे सौ-पचास लोग। थोड़ी दूर तक देवना भी साथ साथ चलता रहा।
फिर
भीड़ धीरे-धीरे आगे सरकने लगी। देवना वहीं सड़क किनारे खड़ा हो गया।
बगल
में खड़े एक आदमी से पूछा- “आज लल्लन बाबू लगता है कि अपने परचार करने नहीं निकले।
इ हाथ जोड़े कोई और बुझाता है।”
“बुड़बक
कहीं का... नहीं चीन्ह पाया, वही तो हैं।” उस आदमी ने झट अपनी बातों से उनके लल्लन
बाबू होने का प्रमाण पत्र हाजिर कर दिया।
“अंय... पर पोस्टर वाले फोटो में तो भक-भक गोरे
दिखते हैं। लगता है पाउडर लगा कर खिंचाए होंगे।”
“अभी
महीनों से रौदा, गरदा माटी में दिन रात परचार करने में लगे रहते हैं। खाने पीने का
भी सुध नहीं रहता है। मुँह रौउदा (धूप) में रह कर करिया (काला) गया है। इसीलिए तुम नहीं चीन्ह पाए।”
फिर
उस आदमी ने शक की नजर से घूरते हुए पूछा, “पर तुम क्यों पूछ रहे हो, तुम तो इनको
भोट दोगे नहीं, तुम तो अभय सिंह की तरफ हो।”
फिर
दो कदम आगे बढ़ कर अपने में बुदबुदाता हुआ वो आदमी बोलाए “क्या जमाना है, आज तुम
इन्हें नहीं चीन्ह रहे हो, कल ये जीत जाएंगे तब ये तुम्हें नहीं चीन्हेंगे (पहचानेंगे)।”
गाँव
रहस्य के वातावरण में लिपट गया था। सबके भीतर यही कौतुहल था कि इस बार कौन जीतेगा -
ललन बाबू या अभय बाबू।
रहस्य
केवल गाँव तक पसरा था, ऐसा नहीं था। गाँव की कच्ची पक्की सड़क, पगडंडी से होते हुए रहस्य
गाँव से सट कर बहती हुई गंगा में भी पसर गई थी। रात आधी थी, ऊपर से अंधेरी भी।
गंगा मैया भी अपने मुख पर उंगली रखे थी। एकदम चुप! बीच बीच में हवा लहरों को जा कर
हिला देती। सन्नाटा और डरावना हो जाता।
चारों
ओर रहस्यमयी चुप्पी थी। इसी बीच गंगा जहाँ से मुड़ती है, वहाँ ठीक बीच गंगा में
लाइट जली भुक्! फिर कुछ ही देर में लाइट बंद हो गयी। इतनी रात को आमतौर पर गंगा
पार जाने वाले लोग नहीं होते। तो फिर...? गंगा के जल में पसरे सन्नाटे को तोड़ती,
उसकी लहरों को चीरती नाव तेजी से बढ़ी जा रही थी। नाव तेजी से... हाँ तेजी से
क्योंकि ये पंपिंग सेट वाली नाव थी जिस पर तीन चार आदमी सवार थे। रात के अंधेरे
में उनके चेहरे का हाव-भाव ठीक से पता तो नहीं चल रहा है, पर बीच बीच में जलते
लाइट से लगता है कि ये एकदम चौकन्ने हैं। ऐसे कि कभी, कुछ भी हो सकता है।
इस
अंधेरी रात में बीच गंगा में नाव पर सवार लोग, वो भी एकदम चौकन्ने, आखिर बात क्या
है? तब तक दूर जलती दो लाइट तेजी से सड़क पर दौडने लगी है। कोई गाड़ी है, पर ठीक
ठीक पता नहीं लग रहा कि सामान्य गाड़ी है या फिर...? नाव के साथ साथ यह गाड़ी भी चल रही है कि हार्न
की आवाज आयी... “अरे ये तो पुलिस की गाड़ी है!”
गंगा
नदी से थोड़ी दूर हट कर ही सड़क है। तब तो लगता है कि नाव के पीछे ही पुलिस है।
पुलिस को जानकारी थी कि नाव में शराब है, जो कल आस-पास के गांवों में बंटेगी। यही
नाव कई जगहों पर शराब सप्लाई करेगी। अंधेरा होने के कारण नाव ठीक से दिखायी नहीं
दे रही थी। नाव भी अंधेरे के सहारे ही आगे बढ रही थी।
नाव
में सवार लोगों को स्थानीय होने के कारण बहुत कुछ अंदाजा था। बीच-बीच में लाइट
जलती थी। नाव में लाइट जलते ही पुलिस गाड़ी में हलचल होने लगती।
इधर
पुलिस को ट्रेनिंग तो सब तरह की थी पर स्थानीय नहीं होने के कारण दिक्कत तो ही हो
रही थी। गंगा नदी के साथ-साथ सड़क भी चल रही थी। गंगा के किनारे किनारे लगे कास के
पौधों के उजले फूल एक और नदी होने का भ्रम पैदा करते। कास और झौआ (गंगा के किनारे उगने वाली एक झाड़ी) सड़क को नदी से दूर कर देते पर ये
सड़क कभी नजदीक हो जाती तो पुलिस को लगता कि अब नाव को पकड़ लेंगे। जब तक ये आशा
जगती तब तक नाव किनारा छोड़ बीच धार में चली जाती। जब सड़क दूर होती तो नाव किनारे
होती। हालांकि पुलिस गाड़ी खेत, छोटा मोटा गढ्ढा, फसल सब को पार करती नाव का पीछा
कर रही थी।
इस
बीच नाव में बैठा मकेसर बोला, “हमको तो लगता है कि आज नहीं बचेंगे। एक तो एतना रात
है। 12 बजे के बाद भूत प्रेत का भी टैम हो जाता है। क्या पता, कौन सा रूप धर कर आ
जाए और बीच गंगा में ही नाव डुबा दे... और इ पुलिस है कि बैताल! पीछा ही नहीं
छोड़ती। आज तो एकदम सांप छुछुंदर वाला हाल हो गया।”
दूसरा
गरमाते हुए बोला, “स्साला... डरपोक ! हम पहले ही कह रहे थे... आधा करेजा ले के
हमरे साथ मत चलो लेकिन नहीं... तुमको तो आना ही था। अब आए हो तो हिम्मत बांध के
बैठो।”
“लेकिन...?”
“अब
जादे बकर-बकर किया तो यहीं पानी में उठा कर फेंक देंगे?, दूसरा उस पर गरमाता हुआ बोला।
जो
नाव चला रहा था,
उसने शेखी बघारते हुए कहाए “क्यों... हम लोग तो दो बार चुनाव में इसी तरह दारू
पहुँचा चुके हैं। ससुरी पुलिस क्या कर पायी? जो आज कर लेगी।”
जहाँ
जान का डर हो, वहाँ आखिर कोई कितनी देर तक चुप रह पाएगा। थोड़ी देर बाद डरते-डरते
मकेसर फिर बोला, “कहीं इस बार पकड़ा गए तो अंदाजा है, क्या होगा?” फिर चुप हो गया।
अगले ही पल अपने सवाल का खुद ही जवाब देते हुए बोला, ‘सुनते हैं पुलिस बहुत मारती
है। हुंह... जीतेगा कौन हारेगा कौन... इ दारू का मजा लेगा कौन, हम फोकट में मार
खाएंगे...।”
“फोकट
में नहीं आ...,” दूसरा बोल ही रहा था कि जो नाव चला रहा था, उसने डपटते हुए कहा, ‘बकर-बकर
कर के हमरा मगज खराब मत करो... नाव चलाने दो... रत्ती भर भी मन इधर-उधर हुआ तो
पुलिस और भूत तो बाद में कुछ करेगा... उसके पहले ही गंगा में गोता खा जाओगे...।”
प्राण
पर संकट मंडराता देख कंठ में सांस रोके मकेसर डरते-डरते इतना ही बोल पाया? अब जाने महरानी माय!
नदी
से आती फट्-फट् की आवाज निःशब्द रात को मुखर करने की कोशिश कर रही थी पर सड़क तक
आते-आते आवाज कमजोर होती जाती। पुलिस की चलती गाड़ी के भीतर यह आवाज बहुत साफ नहीं
आ रही थी। फिर भी पुलिस मुस्तैदी से पीछे लगी हुई थी।
गाड़ी
में पीछे बैठे एक सिपाही ने दूसरे सिपाही से बोलाए “कब तक ऐसे पीछे दौड़ते रहेंगे?”
दूसरा
बोलाए ‘जब तक उसे पकड़ नहीं लेते।’
‘दो
घंटे से तो पीछे लगे हैं, पकड़ाया... नहीं ना... कभी हमारी गाड़ी सड़क पर तो कभी
खेत में... कभी नाव किनारे तो कभी बीच नदी में... तब से यही हो रहा है... हमको तो
लगता है कि हमारे पकड़ने से पहले ही वो नाव पानी में पलट कर भाग जाएंगे? वह धीरे-धीरे बुदबुदा रहा था।
‘चुपप
रहो, साहब कहीं सुन लिए तो पहले तुम्हें यहीं पलट देंगे।?
कि
गाड़ी अचानक रूक गयी।
‘क्या
हुआ’ दरोगा गाड़ी रूकते ही बोला।
‘अभी
देखता हूँ?’
ड्राइवर गाड़ी से उतरते हुए बोला।
‘क्या
हुआ... जल्दी करो... जल्दी...?
‘सर
टायर पंचर हो गया?
....
.................................................................
ये
गाँव सोया ही था। भोर की ठण्डी-ठण्डी हवा किसी नवजात शिशु की तरह किलकारियां ले
रही थी। पर यह हवा दोपहर तक कौन सा रुख लेगी, कहना मुश्किल है।
भोला,
ललन सिंह के कोठरीनुमा तात्कालिक चुनाव कार्यालय में खटिया पर चारो खाने चित्त,
पैर पसारे गहरी नींद में था। सांस की लय पर ताल मिलाता हुआ उसका बड़ा सा पेट उपर
से नीचे, नीचे से उपर हो रहा था। शरीर के आकार के हिसाब से पेट देह की इज्जत रख
रहा था। खटिया से एकाध कदम हट कर पोटहा, धरबा, बिजली, सुब्बा भी एकदम बेसुध सोए
थे।
गंजी
छाती तक मोड़ कर सोना भोला की आदत थी। चुनरिया गमछा इसका प्रिय वस्त्र था। बड़ा सा
लाल टीका नींद में कपाड़ पर फैल गया था। गले में रूद्राक्ष की माला एक तरफ लटक रही
थी। भोला का रूप बमभोले के गण-भूत से कम नहीं था।
सूरज
की लालिमा को अभी धरती पर उतरने में देर थी। उसके पहले ही एक बोलेरो आदमी से भरी
हुई, सो रहे आफिस के सामने दन से खड़ी हो गयी। दो आदमी नीचे उतरे, बाकी सब भीतर ही
रहे। देख कर लग रहा था कि ये जल्दी में हैं।
डीलडौल
से रौबदार आदमी आगे आगे चल रहा है। उसकी चाल और चेहरे का भाव देख कर लग रहा है कि
ललन बाबू का करीबी आदमी है जो चुनाव से पहले अपने आदमियों की तैयारी देखने आया है।
साथ ही जरूरी निर्देश भी देने, क्योंकि कल ही चुनाव है यहाँ।
‘भोला...
रे भोला...’
कोई
हलचल नहीं।
‘अरे
भोलवा!’
ये
सुनते ही भोला का हिलता हुआ पेट स्थिर हो गया। सांस थोड़ी धीमी हुई और अगले ही
क्षण भोला बम भोले की तरह हड़बड़ा कर खड़ा हो गया। लाल चुनरिया गमछी पहने अस्त
व्यस्त, अचानक पकड़े गए अपराधी की तरह वो खड़ा था। उसके पीछे उसके चारों चेले,
भकुआए और मुँह लटकाए खड़े थे।
एक
तो आए व्यक्ति का डीलडौल,... और पहनावा...
सब रौबदार था पर गुर्राने के कारण वह और भी अधिक खतरनाक लग रहा था।
वह
गुर्राते हुए बोला, जैसे कि अभी झपट्टा मार देगा, “अभी तक घोड़ा बेच कर सो रहा है...
पता नहीं है... आज कौन सा दिन है”
भोला
चुप! फिर उसके चारों चेलों को आंखें तरेरते हुए देख कर बोला, ‘खाली आज के लापरवाही
से इतने दिन के किए-कराए पर पानी फिर जाएगा।’
भोला
हिम्मत करते हुए बोला- “दादा, दारू आते-आते ही बहुत रात हो गयी। इसीलिए आँख लगी रह
गयी।” कुर्सी सामने की ओर बैठने के लिए बढ़ाते हुए बोला, “हम सब तुरंत कर देंगे।”
“खाली
बोलने से काम नहीं चलेगा, कहीं लल्लन दा को पता चल गया तो...!” भोला की ओर आंखें
गड़ाते हुए, “समझते हो क्या होगा!”
‘दा
आप चिंता मत करिए, हमारे रहते कोई कमी नहीं रहेगी, उनको बोलने का मौका नहीं
मिलेगा।’
रौबदार
व्यक्ति ने उसकी बात पर खास ध्यान नहीं दिया और इस बार आदेशात्मक अंदाज में बोला, ‘सुनो,
चुनाव आयोग तो मतदाता के पास परची भेज दिया होगा... फिर भी तुम लोग अपनी ओर से
पूरा नजर रखना कि कहीं कोई छूटा तो नहीं है। जिसका घर बूथ से दूर हो, वहाँ की
जनानी वोट देने आयी कि नहीं, नजर रखना, आने जाने में दिक्कत नहीं हो, अभय के आदमी
से पहले तुम उन लोगों के पास रिक्शा, गाड़ी कुछ भी ले के पहुँच जाना, गाड़ी का कोय
कम्मी नहीं होना चाहिए। जनानी से जरा दादी, चाची करके बात करना। आधा तो बोली सुन
कर ही पिघल जाएंगी। हमारा काम बन जाएगा। और हाँ, चुनाव कर्मचारी शाम होते होते
पहुँच जाएगा, उनकी खातिरदारी में कसर नहीं छोड़ना। अभय के आदमी से पहले हमारे आदमी
वहाँ हाजिर रहने चाहिए। एक बात और सुबह नौ बजते बजते पूड़ी, तरकारी, बुनिया
भरपेट्टा (भर पेट) बंट जाना चाहिए।’
बोलते-बोलते
रौबदार व्यक्ति उठ कर खड़ा हो गया, ‘पेटी पहुँचा कि नहीं...?’
“हाँ
दादा”
“ठीक
है।” जाते-जाते हौसला बढ़ाते हुए बोला, ‘हम सब जगह जीत रहे हैं--- सब अपना ही आदमी
है। ठीक से काम करते रहो। एक लाख वोट से जीतेंगे।”
जिस
गति से रौबदार व्यक्ति आया था, उसी गति से वह चला गया।
उसके
जाते ही भोला खटिया पर पसर कर बैठ गया। अभी तक वह हड़बड़ाया था, अब अपने को
निश्चिंत करने के लिए गमछी में खोंस कर रखी चुनौटी को निकाला और बड़े प्रेम से
खैनी लगाने लगा।
‘पैसा
वाला पेटी कहाँ है?” पोटहा ने पूछा।
“सुबोध
दा के पास, लल्लन दा से उनका सीधा संपर्क है। उन्हीं के काम से कल रात कहीं बाहर
गए हैं... आज लौट आएंगे।” खैनी को फूंक
मारते हुए भोला बोला।
“अच्छा
तो आज क्या क्या, कैसे कैसे करना है। जल्दी बताओ...” - धरबा बोला।
सुब्बा
दिमाग चलाते हुए बोला- “मुझे तो लगता है कि बुल्लू दा का काम शुरू हो गया होगा। हम
सुतले रह गए। क्या करना है, जल्दी बताओ।”
भोला
खैनी होंठ के नीचे दबाते हुए बोला, “एतना हड़बड़ाओ मत, पहली बेर ये सब नहीं कर रहे
हैं। सब तुरंत कर देते हैं।” बोलते हुए भोला काम के मूड में आ गया।
“धरबा,
तुम जा कर पता करो कि सब घर में परची पहुँचा है कि नहीं। हो सके तो जनानी सब से
चाची, दादी, दीदी करके बात करना, कोई अपना दुख तकलीफ कहे तो ध्यान से सुनना, चाहे
भीतर से तुम्हारा सुनने का मन नहीं भी हो। एकदम मिठ्ठा बोलना, कह देना बूथ तक ले
जाने की जिम्मेदारी हमारी, गाड़ी तैयार है।”
पोटहा
की ओर देखते हुए- “और पोटहा तुम चुनाव कर्मचारी के आते ही उसकी खातिरदारी में जुट
जाना। बुल्लुआ, अभय सिंह का आदमी है। उसके आदमी के पहुँचने से पहले ही, तुम वहाँ
अपना आदमी तैयार रखना।”
बिजली
के कंधे पर हाथ रखते हुए- “तुम दो हाथ के तो हो पर बिजली की छट छट ( फुरती से काम करना) करते हो। तुम गाँव
भर के हवा पानी पर नजर रखना। हो सकता है बुल्लुआ जान बूझ कर कोई खुराफात कर दे या
हमारे आदमी को अपने में मिलाने की कोशिश करे।”
“सुब्बा
तुम पहले कल के भोजन पानी का इंतजाम देख लो, सामान सब आया कि नहीं और सांझ में एक
बार हलवाई के यहाँ चले जाना। उसका फोन खाली टुक-टुक करता है। कल से नहीं लग रहा
है। जाके कह देना कि आज रात से ही बुनिया छानना शुरु कर दे और कल भोरे-भोरे पुड़ी
तरकारी बनाना चालू कर दे। जो जितना मांगे, उसे उतना देना... कोई कसर नहीं रहनी
चाहिए।”
“पोटहा
तुम मुँह कान धो के आओ... जिसको-जिसको तुम्हारे पास भेजते जाएंगे, तुम उसको दारू
देते जाना।”
.........................................................
शाम
के करीब चार बज गए। भोला चुनाव कार्यालय में बहुत देर से बैठे-बैठे थक गया था। अब
भी दारू बांटने का काम बाकी था। बच्चे भी बड़ों का हलचल भांप कर कहीं भी अस्थायी
मैदान बना लेते हैं। कुछ बच्चे एक किनारे क्रिकेट खेलने लगे तो कुछ बच्चे बैट-बॅाल
के लिए पैसे मांगने के लिए आफिस के पास मंडराने लगे। कुछ ने अपना काम हल्ला मचाना
चुन लिया तो कुछ इस रोमांचक माहौल में एक किनारे बैठ कर किसी को आफिस के भीतर
घुसते देखता तो किसी को बाहर निकलते।
गाँव
में एक साथ कई तरह का वातावरण था। जिन्हें चुनाव से खास मतलब नहीं था, बस तटस्थ
भाव से ये सब देख रहे थे। उन्हें पता था कि जीत किसी की भी हो, अंतर कुछ नहीं आने
वाला। कोई अपने ही गोतिया भाई को शक के तराजू में तौल रहा था कि कहीं ये दूसरी
पार्टी को तो वोट नहीं दे देगा। तो कहीं अपनी अपनी पार्टी को लेकर आपस में
गरमागरमी हो रही थी। पर कुछ ऐसे भी थे जिन्हें चुनाव में किसी पार्टी की जीत हार
से कोई मतलब नहीं था, उन्हें तो बस तात्कालिक लाभ से मतलब था। उस गाँव के जोश का एक बड़ा
पड़ाव भोला की दुकान थी जहाँ आज दारू बंट रहा था। कल रात नाव वाला दारू भोला के
आफिस तक पहुँच चुका था। पर रखा कहीं और गया था ताकि पुलिस अगर छापा भी मारे तो कुछ
नहीं मिले।
सुबोध
दा सुबह ही ललन बाबू के काम से लौट आए थे। ऐसे तो वह राजनीति से दूर ही रहते हैं
पर गाँव में रहना है तो ऐसे मौकों पर उन लोगों का ध्यान रखना ही होता है। तीन लाख
रूपया ललन बाबू के आदमी सुबोध दा के यहाँ पहुँचा गए थे। दारू भी पहुँच गयी थी।
प्रबंधन तो वह देख रहे थे लेकिन गाँव के भीतर का काम उन्होंने भोला को ही सौंप रखा
था। वह कल होने वाले चुनाव के दूसरे काम में लगे थे।
भर
मुँह गुटखा दबाए भोला बिजली से बात कर रहा था। “इस बार भी ललन दा ही बाजी मारेंगे।
लगातार दो बार जीते हैं... इस बार भी वही जीतेंगे।”
फिर
किसी घाघ की तरह बोला- “पैसा और दारू पानी की तरह बहा दो, वोट अपने आप किनारे लग जाता है। तुमको
गाँव का हवा पानी कैसा लग रहा है?” “दादा, बुल्लू दा भी कम मेहनत नहीं कर रहे हैं।
दारू तो उधर भी बंट रहा है, साथ में चखना और मुर्गा के लिए पैसा भी... फिर हमरे ही तरफ आदमी वोट
क्यों देगा...।” वो बुल्लू को बराबरी का टक्कर देते देख हड़बड़ा गया था।
बिजली
की पीठ पर हाथ रखते हुए भोला बोला- “अभी कच्ची उमर है... हदस जाते हो बड़ी जल्दी...
पिछली बार भी तो बुल्लू ने मेहनत किया था... क्या हुआ..., कुछ नहीं ना... असली काम
तो अंधेरा होते ही होगा। अंधेरा होते ही दखिनाही टोला, उत्तरवारी टोला और डीह टोला
में पैसा बांट देना है। सबसे अंत में कंटाहा टोला में पैसा बांटेंगे। पर ध्यान
रखना, कंटाहा टोली में बुल्लू का एक भी आदमी किसी भी हाल में पैसा नहीं बांट पाए
और इस तरह पूरे कंटाहा टोली का वोट हम मार लेंगे।”
बिजली
इस भेद को सुन कर अच्छी तरह से प्रफुल्लित होता ही कि देखा पुन्नी लोहार मुँह पर
चवन्नी मुस्कान लिए आफिस में घुस रहा है। उन दोनों की खुसुर-फुसुर आवाज चुप हो
गयी। भोला तुरंत ही अपना रूप बदलते हुए स्वागत की मुद्रा में उतर आया- “वही तो हम कहें कि पुन्नी अभी तक दिखा
क्यों नहीं।”
“मालिक
जरा गाँव से बाहर चले गए थे। अभी तो बस घर आए ही कि टुलनमा बोला कि दारु कब से बंट
रहा है, जब
खत्म हो जाएगा तब जाओगे...।” जरा छाती तानते हुए- “हम बोले कि कुछ भी हो, मालिक हमारा ध्यान जरूर रखेंगे” जैसे
कि पूछ रहा हो कि हमारे लिए बचा है कि नहीं।
बहुत
अधिक अपनापन दिखाते हुए भोला बोला- “ये भी कहने वाली बात है। सब इंतजाम
लल्लन दा कर दिए हैं। तुम बस जरा उनका ध्यान रखना। बाकी का ध्यान तो हम रखेंगे ही।
जीतने पर दारू, मुर्गा पार्टी हम अपनी तरफ से फिर देंगे।”
“मालिक
काहे लजा रहे हैं, आपका कहा तो हमारे लिए पत्थर की लकीर है। पिछली बार भी आप जो कहे
वही किए” अपने चेहरे पर जरा गर्व की चमक लाते हुए -”हम नमक हरामी नहीं कर सकते मालिक।”
भोला
तो सब समझ रहा था फिर भी बोला- “हें हें हें वो तो है ही... अच्छा बताओ, कितना आदमी का दें”
“पाँच
आदमी”
“जाओ, पोटहा से मिल लो, दे देगा...”
“पर
मालिक, चखना मुर्गा ... कुच्छो तो साथ में होना चाहिए... ऐसे मजा कैसे आएगा?” पुन्नी ने दबी जुवान में कहा।
भोला
की अभी लाचारी थी। उसे सब करना था। भोला को वोट लेना था... सो देना ही था। 100
रूपए का पाँच कडकडिया नोट निकाल कर दे दिया। पुन्नी भी मुट्ठी गरम करते हुए
मुस्कुराते चला गया।
एकाध
घंटे बाद पुन्नी बुल्लू के पास भी वही सब कह रहा था जो अभी भोला से कह रहा था।
वहाँ से वो चार बोतल शराब और रूपया ले कर चुनाव का मजा लूट रहा था।
शाम
ढलते-ढलते पोलिंग बूथ पर चुनावकर्मी पहुँच गए। उनके पहुँचते ही गाँव का वातावरण एक
बार फिर बदला। भोला और बुल्लू ने जानकारी मिलते ही उनकी खातिरदारी में अपने अपने
आदमी दौड़ा दिए।
उधर
चुनावकर्मी ललन सिंह के नाम से पहले से ही डरे हुए थे। संचार माध्यम के कारण कोई
बात अब दबी नहीं रह सकती। खासतौर पर चुनाव के समय तो कुछ अधिक ही खबरों को हवा दे
दे कर लहकाया जाता है। ललन सिंह के बारे मे पढ़ कर, सुन कर, देख कर इनके होश तो
पहले से ही उड़े हुए थे। पर लाचारी थी- चुनाव में छुट्टी भी नहीं ले सकते थे। कब
क्या हो जाएगाए कहा नहीं जा सकता! ऐसे में तो ये अपनी अपनी जान की खैर ही मना सकते
थे... सो मना रहे थे। पर दोनों पार्टी के आदमी की तरफ से इनकी पूरी खातिरदारी हो
रही थी। वो भी पूरी विनम्रता के साथ। विनम्रता इसलिए अधिक थी कि दोनों पार्टी के
लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा भी थी। कभी कभी विनम्रता की भी प्रतिस्पर्धा हो जाती
है।
शाम
करीब सात बजे भोला सुबोध दा को फोन पर बता रहा था कि अभी तक सब काम ठीक से चल रहा
है। दखिनवारी और उत्तरवारी टोला में पैसा बंट गया है। अब डीह टोली और कणटाहा टोली
बचा है। बात खत्म करके भोला ने जैसे ही फ़ोन काटा, बिजली करंट की तरह रनरनाता (दौड़ता) हुआ आया। फूलती सांसों के साथ
उसके शब्द भी हाँफते हुए बाहर आए।
“दा...
दादा”
“क्या
हुआ... बुल्लुआ का आदमी कुछ....”
बिजली
दो क्षण रुका, सांस ली फिर बोला
“नहीं
दादा... वो बात नहीं है। हलवाई बोला कि नहीं आ पाएगा।”
“नहीं
आएगा, क्यों नहीं आएगा... लगता है उसका दिन खराब हो गया है... ”
“नहीं
दादा, तबियत खराब है, दोपहर से ही उल्टी कर रहा है।”
“जिन्दा
तो बचा है न अभी... साले का खटिया ही उठा कर ले आओ... एक गिलास गला में दारू ढार
दो... रात भर बुनिया छानता रहेगा। अंतिम टैम में कोई कोताही नहीं बर्दाश्त करेंगे।”
बिजली
जैसे आया था,
वैसे ही बिजली की तरह हलवाई के यहाँ चला गया।
भोला
कुएं के पास बैठा दिमाग चला रहा था कि बुल्लू के आदमी ने गाँव के दूसरे टोले में
पैसा बांट ही दिया। पर इ नाक के नीचे कण्टाहा टोली में तो किसी भी हाल में एक्को
रूपैया नहीं बंटना चाहिए।
बात
यह है कि कण्टाहा टोली इसके तात्कालिक आफिस और स्थायी दुकान के सामने पड़ता है।
कहीं न कहीं कुछ देर के लिए ही सही वह इस टोले को अपनी रैयत मान बैठा था। यह बात
उसके चारों चेलों को भी पता थी।
बिजली
खटिया समेत ही हलवाई को पीपल गाछ के नीचे बुनिया छानने के लिए बैठा आया था। एक
गिलास उसको चढ़ा भी दिया था। अपने दो तीन आदमी के साथ हलवाई उल्टी करता हुआ भी
कोयले में ताव देने की तैयारी में था।
कण्टाहा
टोली में बिजली, धरबा, पोटहा, सुब्बा सब मिल कर पैसा बांटने गए थे। क्योंकि यहाँ
लड़ाई की पूरी आशंका थी। हालांकि शांतिपूर्वक इनका काम हो रहा था। अब तो बस दो चार
घर ही बाकी था कि बुल्लू के आदमी अचानक कण्टाहा टोली में उनकी आँखों के सामने
प्रगट हो गए।
एक
तो दिन भर की थकान थी, उपर से और भी काम बाकी था। बुल्लू के आदमी को, वो भी यहाँ
अपनी रैयत में देखते ही इन लोगों का खून माथे पर चढ़ गया। इधर बुल्लू के आदमी भी
कुछ सोच कर ही आए थे। सो सामने से तो इन्हें हटना नहीं था। अपना दम दिखलाने का
मौका ये भी नहीं छोड़ना चाहते थे।
बुल्लू
के आदमी में देवना सबसे हृष्ट पुष्ट था। वो आगे आगे बढ़ने लगा। बाकी सब उसके पीछे
पीछे। एक दम सधे कदम से वे आगे बढ़ रहे थे। जैसे एक शेर हाथी का शिकार करेगा।
दोनों तरफ से बंद जुबान में धारदार बातें तैयार होने लगीं। गुजरते हुए कम बोलना है
पर बम से कम विस्फोटक नहीं होना चाहिए। जैसे जैसे दूरी कमती जाती, वैसे वैसे
शब्दरूपी बम फटने के लिए तैयार होता जाता। दोनों पक्ष थोड़ा नजदीक आते ही बम
फोड़ना चाहते थे ताकि कोई सुन न ले और यह नहीं कहे कि लड़ाई हमने ठानी थी।
भोला
के चारों चेले आक्रमण के लिए तैयार थे। वहाँ से 20-25 कदम की दूरी पर भोला ये सब
देख रहा था। इधर बुल्लू के आदमी भी तैयार थे। ये कोई भोला का रैयत तो नहीं जो हम
नहीं घुसें। हमारा भी गाँव है। हमारा जहाँ मन करेगा वहाँ जाएंगे। हमारे देह में
क्या खून नहीं पानी बहता है। अभी पता लगा देते हैं... यही सोचते हुए देवना आगे बढ़
रहा था। बाकी सब पीछे पीछे।
लेकिन
बिजली ने पहले ही सोच रखा था कि देवना के
पीछे आ रहे नथुनी से मार शुरु करेंगे क्योंकि एक थप्पड़ लगते ही नथुनी
तुरंत बेकाबू हो जाता है। सबसे अधिक हाथ पैर वही फेंकता है। मार तुरंत जम जाएगा।
दोनों
दल जैसे ही आमने सामने हुए, बिजली ने मुँह से बोली का बम पटक दिया।
“कनखी
तोड़ कि बिच्चा फोड़ए हार गया सब लुच्चा चोर।”
“चुनाव
तो हो जाने दो,
फिर गाँव में मुँह दिखाने लायक नहीं बचोगे। हम भी दारू और पैसा में कम्मी नहीं किए
हैं। सब उपरे उपरी तुम्हारे साथ हैं? इधर से देवना ने जवाबी बम फोड़ा। तो
नथुनी ने भी उससे बड़ा बम फोड़ा- “एतना भोट से हारोगे कि गिन भी नहीं पाओगे---।”
“क्या
बोला... क्या बोला रे... बूटनाही भाय”- बोलते-बोलते बिजली बिजली की भांति नथुनी पर
टूट पड़ा।
शुरूआत
होने भर की देर होती है, फिर तो कौन भारी पड़ा, कहना मुश्किल हो जाता है।
कुआं
पर बैठा भोला अपना माथा नोचते हुए मुस्की मार रहा था।
फिर
अंधेरी रात और फिर एक बार पुलिस की गाड़ी। पर यह गंगा का किनारा नहीं भोला का गाँव
है। भोला कुएं के पास तीन चार लोगों के साथ बैठा है। उसको अंदाजा था कि पुलिस
आएगी। आखिर मार हुआ है वो भी चुनाव की पूर्व संध्या पर। पुलिस को तो आना ही था, इसलिए वो पहले से ही तैयार बैठा था।
दो
चार आदमी को देख कर पुलिस की गाड़ी दन से रूक गयी। एक सिपाही उतर कर पूछा- “कण्टाहा
टोली किधर है?”
अंधेरी
रात में भी भोला चेहरे पर कुछ ज्यादा ही विनम्रता लाते हुए बोला- “उधर है...।” और
हाथ सामने जा रही सड़क की ओर बढ़ा दिया।
पुलिस
ने फिर पूछा- “यह कौन सा टोला है?”
“पांडव
टोला”
पुलिस
कंटाहा टोली खोजते हुए आगे बढ़ गयी। तो एक ने भोला से पूछा- “तुमने गलत क्यों
बताया, दादा?”
“गलत
कहाँ बतायाए बस पांडव टोला ही तो कहा। इस टोला से बाहर के लोग इसे कण्टाहा टोली
कहते हैं। इसमें रहने वाले नए नए पढ़े लोगों ने इसका नाम पांडव टोला रख दिया है।
हम तो बस इसका नयका नाम बताए।”
“कण्टाहा
टोली तो ये सामने ही है नाक की सीध में और तुमने जो रास्ता बताया वो तो बहुत घूम
कर कण्टाहा टोली जाता है।” खैर, पुलिस गाड़ी बहुत देर तक पांडव टोला और कण्टाहा
टोली के बीच घूमती रही।
उधर
मार खा कर बुल्लू के आदमी भी बैठने वाले नहीं थे। उन्हें किसी भी हाल में कण्टाहा
टोली में पैसा बांटना था और रास्ता कुएं के सामने से ही हो कर जाता था। जहाँ भोला
चुनरिया गमछा, गंजी और रूद्राक्ष पहने पाँच सात लोगों के साथ चार्जेबल टार्च की
रोशनी में ताश खेल रहा है। बाकी लोगों से कुछ अधिक ही रसा... रसा कर गप कर रहा है।
उसके चारों चेले नहीं है। देवना को पता है कि वो चारों रात भर कण्टाहा टोली में
पहरेदारी करते रहेंगे। और भोला इन लोगों के साथ यहाँ।
शेर
का दांत गिनना आसान नहीं था। अब तो एक ही चारा बचा था। रात के उस पहर का इंतजार
करना जब शायद भोला और उन सबकी आँख लग जाए या ये जगह खाली हो जाए।
भोला
बहुत रात तक ताश खेलता रहा। उधर दोनों पार्टी के हलवाई बुनिया छानते रहे। जिन्हें
दारू और पैसे मिले थे, वे उनका सदुपयोग करने में लगे थे। गाँव के बाकी लोग अपने
अपने घरों में सो गए।
रात
के करीब दो बज गए। बहुत देर से कुएं के पास से बातचीत की आवाज नहीं आयी, न ही कोई
आहट हो रही थी। लगता था कि कुआं खाली हो गया है... और कण्टाहा टोली जाने का रास्ता
एकदम साफ। बुल्लू के आदमियों के कान खड़े हो गए। इसी समय के इंतजार में वे कब से
यहाँ छिपे थे। उनमें से दो टुल्लू और शंटू रूपैया गमछी में बांधे... दम साधे...
धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे। अभी सड़क के इस पार ही थे कि कुएं पर से लाइट जल उठी -
भुक। सीधा कण्टाहा टोली की ओर। संयोग था कि ये लोग अभी उधर नहीं पहुंचे थे, नहीं
तो...।
टुल्लू
और शंटू ने आव देखा ने ताव, सांस रोकी और अपने आदमियों के बीच पहुँच कर ही सांस
ली।
टुल्लू
घबराता हुआ बोला- “मैं कह रहा था न कि भोला अपने लोगों के साथ यहीं मौके की ताक में होगा।” फिर सांस लेते हुए बोला-
“कहीं पकड़ा गए तो... इ अंधरिया रात में मार के गंगा जी में फेंक देगा... किसी को
पता भी नहीं चलेगा... आदमी नहीं दैत ( दैत्य)
है दैत।”
बहुत
देर से यहाँ बैठे बैठे उब कर शंटू बोला- “बेकार यहाँ बैठे हैं। दूसरे रास्ते से
चलते हैं। भोला और उसका आदमी यहाँ से टस से मस नहीं होगा।”
देवना
झल्ला कर बोलाए “बुरबक कहीं का... सड़क वाला रास्ता बहुत घुमा कर कण्टाहा टोली
जाता है। मेन रोड पर पुलिस होगी... कहीं पकड़ा गए तो... फिर बाँटते रहना जेल में
बैठ कर पैसा। यही रास्ता सबसे छोटा है। अभी रात बाकी है... घुसने का मौका मिल ही
जाएगा।”
शंटू
बोलाए “मौका हाथ नहीं आएगा। भोला है भोला... हिलेगा नहीं यहाँ से... न ही हमें
हिलने देगा। अपने आदमियों के साथ जमा है कूँएं पर! ऐसे ही लल्लन सिंह नहीं जीतता
है।”
दुश्मन
की तारीफ वैसे भी अच्छी नहीं लगती। ऐसे समय तो और भी नहीं।
देवना
गुस्साते हुए बोला – “... पागल... साला... उसका ही गुण गाना है तो उसी का चेला बन
जाओ। यहाँ क्या कर रहे हो ! उसी के नाम का चरणामृत पीओ।”
वो
बेचारा झिड़की खा कर चुप हो गया।
जब
इन्हें लगता कि अब मौका हाथ आने ही वाला है। तब तब कुएं पर से लाइट जल उठती- भुक...
भुक। इंतजार और इस भुकभाक में रात बीत गयी।
भोर
की थोड़ी थोड़ी रोशनी हो ही रही थी कि देवना ने अधनिंदी आँख से देखा कि उसके चेले
वहीं जमीन पर सोए पड़े थे... और भोला अकेले... कुएं पर लाइट के साथ। उसे अकेले देख
देवना का दिमाग चकरा गया- “सालाए मूर्ख बनाया... अकेले था... सेटिंग ऐसा कर रखा था
कि कितने आदमी साथ हों... साला, खाली टार्च से ही मोर्चा संभाल लिया।”
आज
चुनाव के दिन भोरे भोर पोलिंग एजेंट और अपने आदमियों को खिलाने के बहाने दोनों
पार्टी लोगों को खुश कर रहे हैं। जो जितना चाहे, उसे उतना खिला रहे हैं। कुछ लोग
तो अपने अपने घर में एक दो दिन के लिए जमा भी कर रहे हैं।
दोनों
पार्टी के हलवाई ने पूड़ी, तरकारी, बुनिया इतना बना दिया है कि बांटने में कमी
नहीं हो।
भोला
आज पूरे जोश में अपने चेलों के साथ खाना बांटने में लग गया।
“तुमको कितना आदमी का दें”
“मालिक,
10 आदमी”
“सुब्बा,
इसको पन्नी में 10 आदमी के हिसाब से दो”
“हाँ,
तुम कितना आदमी हो”
“मालिक
25”
“पोटहा,
इसको 25 आदमी का दो।”
पूड़ी,
तरकारी और बुनिया बंट रहा था। न लेने वालों की कमी... न जय जयकार करने वालों की
कमी और न बांटने वालों की कमी।
कोयला
के चूल्हा के पास हलवाई पूड़ी छान रहा था। भोला बीच-बीच में कनखी से देखताए फिर
पूछता- “क्यों... सब ठीक है ना?”
हलवाई
भी कनखी की भाषा समझता था। पूड़ी पर नजर गड़ाए ही जवाब देता- “हाँ मालिक... सब ठीक
है।”
उसकी
तबियत डर के मारे ठीक थी या सच में ठीक थी या फिर शराब का असर था उसको भी ठीक-ठीक
नहीं पता था, पर
पूड़ी छन रही थी... बंट रही थी।
खाना
लेने वालों को भोला और उसके चेले बड़े प्रेम से बीच बीच में याद दिलाते रहते कि
समय पर बूथ पहुँच जाना... कौन सा बटन दबाना है... ये मत भूलना।
खाना
लेने वाले भी ऐसा हाव-भाव दर्शा रहे थे कि प्राण जाए पर वचन न जाए... यानी सच
बोलने में हरिश्चंद्र के बाद हमारा ही नंबर है।
वोटिंग
शुरू हुए दो तीन घंटे बीत गए थे। सरकारी स्कूल जो गाँव के बीचो-बीच है, वहीं बूथ बना था। स्कूल की चारदीवारी
से 10 कदम हट कर भोला और उसके चेले पीपल गाछ के नीचे बैठ कर मुआयना कर रहे थे।
भोला वोट देकर निकलने वाले आदमी का चेहरा गौर से पढ़ता। वहीं बुल्लू भी थोड़ी दूर
हट कर अपने आदमियों के साथ चाय पान की दुकान के पास बैठा था। वोट दे कर निकलने
वालों का चेहरा वह भी गौर से पढ़ रहा था।
इसी
बीच बिजली ने भोला से पूछा- “दादा, कैसे पहचानोगे कि कौन किसको वोट दिया?”
भोला
खैनी में चूना मसलते हुए बोला- “बहुत आसान है। जो आँख तुमसे नजर मिलाए, समझो तुमको
वोट दिया, जो नजर चुराएए समझो वोट नहीं दिया।”
“नहीं
मालिक हमको नय लगता है ऐसा होगा!” मकेसर
ने कहा।
बिजली
उसको झिड़कते हुए बोला, “साला, अपने भी हदसता है और दूसरों को भी हदसा देता है।”
“हदसा
नहीं रहे, सही कह रहे हैं... जनता का कौनो ठिकाना नहीं है... उसके साथ भी और आपके
साथ भी आँख मिला कर बात करेगा फिर कैसे बुझियेगा... मालिक ही जीतेंगे!?
सशंकित
तो भोला भी था पर हिम्मत बंधाना उसकी जिम्मेदारी थी, उसकी आँखों में आंखें डाल
तिरछी मुस्कान फेंकते हुए बोला, “घबराओ मत इतना दिन से धंधा कर रहे हैं...
इसपीरियंस भी तो कुछ होता है!”
संपर्क -
ई-मेल : siniwalis@gmail.com
मोबाइल 08083790738
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
बहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसच चुनावी हथकंडों की फेहरिस्त बहुत लम्बी होती है
जनता हमेशा ही ठगी जाती रही है
चुनावी हथकंडे बहुत शातिर दिमाग से खेले जाते हैं | इनका कोई अंत नहीं होता | जनता के हाथ हमेशा खाली ही रहते हैं
जवाब देंहटाएं| सिनीवाली जी की कहानी अंत तक अपनी रोचकता बनाए रखने में सफल हुई | सिनीवाली जी को बधाई व् उनकी कहानी पढवाने के लिए पहली बार को शुक्रिया
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