शेखर जोशी जन्मदिन विशेष -7





शेखर जोशी जन्मदिन विशेष के क्रम में सातवीं कड़ी में आज प्रस्तुत है युवा कवि अच्युतानंद मिश्र का आलेख क्या सचमुच नौरंगी बीमार है.

अच्युतानंद मिश्र


क्या सचमुच नौरंगी बीमार है?
                                                                

शेखर जोशी नयी कहानी दौर के संभवतः अकेले ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने उपन्यास नहीं लिखा. शेखर जोशी की कहानियों में मनुष्य के नैतिक बोध की सीमाओं एवं शक्तियों की पहचान की गई है. साथ ही यह प्रश्न भी कि वर्तमान समय में मनुष्य के लिए नैतिक बने रहना संभव है क्या?. वे कौन सी ताकतें है जो किसी देश-काल में मनुष्य के नैतिक बोध को नियंत्रित करती हैं. क्या वह महज़ उसके आत्म से ही निर्मित होता है? क्या महज़ आत्म संघर्ष ही मनुष्य को किसी देश कल में नैतिक बनाये रख सकता है जैसा कि निर्मल वर्मा की कई कहानियों में होता है लेकिन शेखर  जोशी की कहानियों में यह बहुत आसानी से देखा जा सकता है कि मनुष्य का यह जो नैतिक विचलन है वह समाज प्रदत्त है. ‘नौरंगी बीमार है’ में अंततः नौरंगी समाज में पहले से मौजूद नैतिक विचलन का शिकार होता है. वह व्यक्तिगत संघर्ष की लड़ाई हार जाता है और इस तरह वह समाज के भविष्य में शामिल होता है. नौरंगी बीमार है जैसी कहानियां अखबार में छपने वाली तमाम ख़बरें भी हो सकती है जिसमें समाज में मूल्यों के विघटन को महज़ सूचना में बदल दिया जाता है .परन्तु जो बात इस कहानी को सूचना के दायरे से बाहर लती है एवं गंभीर विश्लेषण की मांग करती है वह है कहानी के अंत में नौरंगी की उपस्थिति

लेकिन सुबह नौरंगी काम पर हाज़िर था .चुस्त दुरुस्त! जैसे इस बीच कुछ हुआ ही न हो. वह सीना तान कर शॉप में घुसा और अपने ठिये पर पहुँच गया.

कहानी के अंत में नौरंगी का चुस्त दुरुस्त होना क्या इंगित करता है? नौरंगी उस बीमारी में शामिल हो जाता है समाज को अपनी गिरफ्त में ले चुका है. क्या नौरंगी की परिणति चेखव की कहानी वार्ड न. 6 के डॉक्टर की ही परिणति नहीं है. याद करिये वार्ड न. 6 में डॉक्टर अंततः उसी वार्ड में बीमार होने को बाध्य होता है जिसमे वह इलाज करता रहा है .क्या नौरंगी के साथ भी ऐसा ही नहीं होता. वार्ड न. 6 बन चुके समाज में नौरंगी अंततः शामिल हो जाता है और यही बात इस सामान्य सी लगने वाली खबर को खबर के दायरे से बाहर लाती है और गंभीर विश्लेषण की मांग करती है.

नेहरु युग के फलस्वरूप इस देश में नव निर्माण की प्रक्रिया चल पड़ी. देश के विकास का बहुआयामी लक्ष्य रखा गया. लेकिन इस लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया में वर्गों में बंटें समाज की अनदेखी की गयी. योजनाओं के निर्धारण से लेकर कार्यान्वन तक की समस्त प्रक्रियाओं में समाज के उच्च वर्ग एवं उच्च मध्य वर्ग के हितों का विशेष ध्यान रखा गया. यह दिलचस्प है कि नेहरु के शासन में यह बात तो लगातार कही गयी कि हमारी अर्थव्यवस्था मिश्रित अर्थव्यवस्था है उसका लक्ष्य समाज के सभी तबकों को लाभ पहुँचाना है. परन्तु आज तकरीबन पचास वर्षों बाद यह देखना कठिन न होगा कि मिश्रित अर्थव्यवस्था की ओट ले कर इस देश में पूंजीवाद के कंधों को मज़बूत किया गया. हाँ यह जरुर है कि उसे मज़बूत करने में किसानों और मजदूरों के श्रम का इस्तेमाल किया गया. इसके लिए उनके नैतिक बोध की लगातार दुहाई दी गयी.
आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा यह दुनिया के किसी हिस्से में रह रहे मनुष्य का मौलिक अधिकार होता है. फिर ऐसा क्यों हुआ कि ये सुविधाएँ सरकारी नौकरी पेशा लोगों को आसानी से दे दी गयी और बांकी लोगों को इससे महरूम रखा गया! इस प्रक्रिया ने समाज में  पहले से मौजूद वर्गों की खाई को और चौड़ा नहीं कर दिया. सरकारी नौकरियों में भी निम्न वर्ग और निम्न मध्य वर्ग की लगातार उपेक्षा की गयी. स्वतंत्रता, समानता और साक्षरता के लक्ष्यों की प्राप्ति नेहरु युग का केंद्रीय लक्ष्य था. लेकिन क्या सचमुच यही लक्ष्य था ?

शेखर जोशी की कहानियों में यह प्रश्न बहुत शिद्दत से उठाया गया है. उनकी एक कहानी है ‘पुराना घर.’ मनुष्य की तमाम स्थितियां किस तरह उसके बंद वर्गीय दायरे में सिमट कर रह जाती है उसे इस कहानी में देखा जा सकता है मनुष्य की स्मृतियाँ भी अंततः उसके वर्गीय दायरों को ही मज़बूत करती हैं. रोटी कपडा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति का संघर्ष जब मनुष्य के अकेले का संघर्ष बन जाता है तो सब से पहले जो चीज़ नष्ट होती है वह है मनुष्य का नैतिक बोध. डॉक्टर अपने बचपन के पुराने मकान को देख कर जब अपने घर लौटता है तो पाता है कि  ‘फटे पुराने कपडे पहने ,रूखे बालों वाले सहमे हुए’ चार बच्चे नीम के नीचे बैठें हैं. वह उन्हें चोर समझता है और अंत में उनमे से एक छोटा लड़का अपने पिता को बुला कर ले आता है .उन बच्चों का मजदूर पिता बताता है कि दरअसल उनका कोई घर नहीं है वे तो जहाँ काम करते हैं वहीँ रहने लगते है और काम पूरा होते ही वहां से चले जाते हैं पिछले दिनों इस कोठी को उन लोगों ने ही बनाया था और उसकी बड़ी लड़की अपने भाइयों को अपना पुराना मकान दिखाने लायी थी और अंत में-

“अच्छा बाबा ,अब जाओ ,छुट्टी करो” डॉक्टर ने घर की ओर कदम बढा लिए. फाटक से बाहर निकल कर अपने माता-पिता के पीछे जाते हुए भाई ने बहिन से कहा , “ऐ दिदिया ! ऊ हमार झूला भी तोड़ दिए हैं.”
“न रे !रस्सी ऊपर समेट कर रखें है .हम देखे थें” अधिक जानकार बनने के गौरव के साथ लड़की ने भाई को यह सूचना दी.

कहानी का यह सर्वाधिक ठंडा और गतिहीन अंश प्रतीत होता है. इस राख के भीतर छिपी चिंगारी के सन्दर्भ में लेखक अपनी ओर से कोई टिपण्णी नहीं करता है. बावजूद इसके एक पूरा परिदृश्य मूर्त हो जाता है. शेखर जोशी की कई कहानियों का अंत ऐसा ही है, चाहे ‘आशीर्वचन’ हो ‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ हों या ‘गोपुली बुबु’. परन्तु कुछ कहानियां ऐसी भी हैं जैसे बदबू, दाज्यू, विडुवा, मेंटल आदि इनका अंत अचानक से यथार्थ को झटके से बदल देता है .एक तीखा आक्रोश समूची कथावस्तु को अपनी जद में ले लेता है. कहानी के अंत में बदलते हुए यथार्थ को महसूस किया जा सकता है. लेकिन इन दोनों तरह की कहानियों के अंत जो बात कॉमन रह जाती है वह है यथार्थ को बदलने की अनिवार्यता का बोध. यह बोध महज़ इन्ही कहानियों में नहीं बल्कि उनकी सभी कहानियों में मौजूद रहता है. यही वजह है की उपरोक्त दोनों तरह की कहानियों मूल उदेश्य यथार्थ का निरूपण उतना नहीं है जितना की उसे बदल देने का बोध.

आज़ादी के बाद की सामाजिक मूल्यहीनता एवं वर्ग विषमता का बढ़ना शेखर जोशी की कहानियों के केन्द्र में है. निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है की शेखर जी की तमाम कहानियों को पढ़ें तो उनके पात्रों के अन्तःसुत्र इस समाज के अन्तःसूत्रों से मिलते हैं. क्या यह संभव नहीं की इन तमाम कहानियों को एक वृहद उपन्यास की तरह पढ़ा जाये जिसमे भारतीय मनुष्य की नियति एवं स्थिति की पहचान की गयी है और उसे बदलने के अन्तः सूत्रों के शिनाख्त.





(अच्युतानंद मिश्र युवा कवि एवं आलोचक है.)
संपर्क-
मोबाईल- 09213166256

टिप्पणियाँ

  1. शेखर जी पर प्रस्तुत इस कड़ी में सारी सामग्री बेहतरीन है | यह लेख भी उसी बेहतरीन कड़ी को आगे बढाता है ..बधाई आपको

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  2. बहुत सुंदर ....सादर
    -नित्यानंद गायेन

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