ललन चतुर्वेदी का आलेख 'कमीज के बाहर आदमी और तमीज के बाहर भाषा नग्न हो जाती है'
संगत में ज्ञानरंजन के एक साक्षात्कार को ले कर हिन्दी साहित्य जगत में वाद विवाद की स्थिति बनी हुई है। कोई भी व्यक्ति आलोचना की परिधि से बाहर नहीं है। लेकिन इसका भी एक दायरा है। ज्ञानरंजन का पक्ष ले कर किसी ने अंजुम शर्मा से आपत्तिजनक चैटिंग की है। इन सब का समर्थन नहीं किया जा सकता। और कुछ नहीं तो भाषा में तो थोड़ी शालीनता की अपेक्षा की ही जा सकती है। इस मुद्दे को ले कर कल हमने प्रचण्ड प्रवीर का आलेख प्रस्तुत किया था। इसी कड़ी में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि ललन चतुर्वेदी का आलेख 'कमीज के बाहर आदमी और तमीज के बाहर भाषा नग्न हो जाती है'।
'कमीज के बाहर आदमी और तमीज के बाहर भाषा नग्न हो जाती है'
(संदर्भ : संगत का 100 वां एपिसोड और हिन्दी जगत की प्रतिक्रियाएं)
ललन चतुर्वेदी
संगत का 100 वां एपिसोड पूरा करते हुए हिन्दवी की टीम और अंजुम शर्मा की खुशियाँ बेशुमार थीं। संगत को नियमित रूप से सुनने वाले लोग भी खुश थे। तस्वीरों में अंजुम शर्मा,अविनाश मिश्र और हिन्दवी की पूरी टीम को केक काटते हर्षोल्लास में देख हम सब भी प्रसन्न हुए। हिंदी प्रेमियों के मन में संगत के हर एपिसोड की प्रतीक्षा रहती थी। कोई आश्चर्य नहीं कि प्रसारित होते सैकड़ों प्रेमी टीवी और मोबाइल खोल कर साँसे रोके सुनने बैठ जाते थे। यदि एपिसोड लम्बा हुआ तो थोड़े अन्तराल पर या दूसरे दिन पूरा सुनकर ही दम लेते थे। हिन्दी का यह इकलौता कार्यक्रम था जो लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच गया। यदि मैं सही हूँ तो लगभग पचास हजार से अधिक श्रोता /दर्शक इस चैनल के विधिवत सब्सक्राइबर हैं। इसके अतिरिक्त कुछ अप्रत्यक्ष दर्शक/ श्रोता होंगे ही जिनकी संख्या हजारों में आंकी जा सकती है।
इस पूरे कार्यक्रम में व्यक्तिगत रूप से मैं अंजुम शर्मा के अध्ययन, श्रम, वाक्पटुता और निर्भयता से बहुत अधिक प्रभावित हुआ। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसे साक्षात्कार के लिए गहन तैयारी अपेक्षित होती है। वह काम अंजुम ने किया। यात्राएँ कीं। किताबें जुटायीं। इनके अतिरिक्त भी अनेक तकनीकी तैयारियां होगी ही, जिन्हें हम सब समझ सकते हैं। यहाँ यह भी जोड़ना कई लोगों के लिए तकलीफदेह हो सकता है कि इतनी कम उम्र में इतनी किताबों से गुजरना और उनके आधार पर सवाल बनाना क्या इतना आसान था? जिनका साक्षात्कार लिया जाता था, वे हिन्दी की दुनिया के दिग्गज थे। अंजुम तो उनके सामने बिलकुल नवांकुर ही थे। परन्तु अंजुम ने अपनी क्षमता से यह सिद्ध कर दिया कि साहित्य की दुनिया में केवल उम्र के आधार पर वरिष्ठता निर्धारित करने के मानदंड पर फिर से सोचने की आवश्यकता है। दूसरा यह कि हम साहित्य वाले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होने वाले किसी भी कुठाराघात के लिए किसी भी सत्ता को चुनौती देते हैं। ऐसा क्या आकाश टूट पड़ा कि सौवें एपिसोड को हम सब ने इतना विवादास्पद बना दिया। इतनी कटुताएं फैलायीं और यहाँ तक कि लोग अशोभन और निहायत आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करने पर उतर आए। हिंदी जगत पूरी तरह दो खेमों में बाँट गया। हमें यह याद रखना चाहिए कि भाषा ही एकमात्र संवाद का साधन है। हमारे पास शब्दों की पूंजी है। हम इतने दरिद्र तो नहीं हुए हैं कि अपनी प्रतिक्रिया में अश्लील शब्दावली का प्रयोग करने लगे। असहमतियाँ अपनी जगह सही और गलत हो सकतीं हैं। विचारों की परिधि में इन पर विमर्श किया जा सकता है। इस पर लगातार बहसें की जा सकतीं हैं। लेख लिख कर अख़बारों और पत्रिकाओं में आपत्ति दर्ज की जा सकती हैं। दुर्भाग्य से कुछ लोगों ने आवेश में जो रास्ता चुना वह किसी भी साहित्य-प्रेमी के लिए पीड़क है। सोशल मीडिया पर जब लोग ऐसे विचारों को पढ़ रहे हैं तो वे क्या सोचते होंगे. इससे किसी की व्यक्तिगत छवि को नुकसान तो होता ही है लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान हिंदी जगत को होता है। यह बात हमें याद रखनी ही चाहिए। समय के हिसाब से हिन्दवी और अनेक वेब पोर्टल हिंदी की सेवा कर रहे हैं, समृद्ध कर रहे हैं। हमें अपनी भूमिका पर भी विचार करनी चाहिए। हिंदी तो यूँ ही राजनीतिक कारणों से समय-समय पर लांछित-अपमानित होती रहती है और कुछ हम हिंदी वाले अपने चरित्र दिखा कर अपनी कलई स्वयं खोल रहे हैं. इस समय बहुत जरूरी है कि भाषा में बरती जाने वाली आक्रामक प्रवृत्तियों पर रचनात्मक बहस हो। दुखद पहलू यह है कि जिन वरिष्ठों को सचेतक की भूमिका में होना चाहिए, वे भी आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि सब के सब ऐसे हैं। मुठ्ठी भर लोग हैं जो निजी कारणों और कुंठाओं के कारण विष-वमन कर रहे हैं। हिन्दी जगत के दिग्गजों ने पूर्व में क्या किया है, उससे कमोबेश सब सुपरिचित हैं। अब उन पर छींटाकशी कर हम अपनी ही कमीज दागदार कर रहे हैं।
यह सही कि साहित्यिक मठाधीशों से अनेक प्रतिभाओं को पहले नुकसान हुआ है। यह सिलसिला थमा नहीं है। लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि प्रतिभा की बेल को फैलने के लिए किसी वैसाखी की जरूरत नहीं है। एक-न-एक दिन प्रतिभा का विस्फोट होता है और वह छा जाती है।
यदि संगत के सौवें एपिसोड पर निरपेक्ष ढंग से अर्थात राग-द्वेष मुक्त हो कर सुनें तो दो बातें लोगों को विशेष रूप से नागवार गुजरीं- एक कि ज्ञान जी द्वारा अपनी कहानी 'घंटा' को श्रेष्ठ बतलाना और दूसरी नामवर जी और राजेंद्र यादव को स्पष्ट रूप से दुश्मन घोषित करना। यदि ये दोनों बातें वे चतुराई से छुपा ले जाते तो विवाद ही नहीं होता। इससे इतना तो संकेत मिलता ही है कि ज्ञानरंजन जी स्पष्टवादी हैं और यह उनकी पीड़ा भी हो सकती है। यह सही है कि नामवर जी और राजेंद्र यादव जी स्पष्टीकरण देने के लिए हमारे बीच नहीं हैं। इस पर संयम के साथ बहस की जा सकती है। हालांकि हिंदी को इसका कोई लाभ नहीं मिलेगा। रही बात श्रेष्ठ कहानी का तो कहानीकार बेहतर ढंग से जानते हैं कि किसी भी शीर्षस्थ कथाकार के पास आठ-दस से अधिक श्रेष्ठ कहानियां नहीं हैं। स्वयं राजेंद्र यादव जी ने कहीं लिखा था कि मेरे पास दो या तीन विश्वस्तरीय कहानियां होंगी लेकिन शैलेश मटियानी के पास कम से कम दर्जन भर विश्वस्तरीय कहानियां हैं। मैंने इस तथ्य का उल्लेख सुधीजन के विचारार्थ किया है। मैं एक हिन्दी का अदना सा पाठक और भावुक प्रेमी हूँ। इसके अलावा कुछ नहीं।
एक बात और, अपनी श्रेष्ठता या गुणों का प्रदर्शन शोभनीय नहीं माना जाता। इससे असहमत नहीं हुआ जा सकता। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा की श्रेष्ठता की क़द्र करने वाले कितने लोग बचे हैं? ऐसे में अपनी रचना को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना कोई आपराधिक कृत्य तो नहीं है। आज के समय में कौन ऐसा विरागी लेखक है जो काफ्का की तरह यह कहने का साहस जुटा सके कि मेरी पांडुलिपियों को जला देना। यहाँ तो छोटी सी रचना को हम कलेजे से ऐसे चिपकाएँ घूमते रहते हैं जैसे बंदरियां अपने बच्चे को कलेजे से चिपकाये घूमती रहती है। इस प्रसंग में अंतिम बात यह कि साहित्य के मूल्यांकन के सन्दर्भ में मात्रा पर नहीं, गुणवत्ता पर विचार होना चाहिए। और सबसे जरूरी बात यह कि इस समय हम सब भाषा की शालीनता को बनाये रखें क्योंकि कमीज के बाहर आदमी और तमीज के बाहर भाषा नग्न हो जाती है।
(फोटो सौजन्य : हिंदवी और यू ट्यूब चैनल)
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ललन चतुर्वेदी |
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सुचिंतित विचार। विचारों का वस्त्र है भाषा।वस्त्र फटेगा तो नग्नता झलकेगी।भाषा में भाषा की तमीज के साथ रहता भाषाभाषी का परम दायित्व है।
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी पढ़ी जानी चाहिए। छींटाकशी से न कुछ बदला है न बदलेगा। इस तरह की हरकतों से हम अपनी छवि और धूमिल कर रहे हैं।
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