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अनुपम परिहार की कहानी 'बागड़बिल्ला'

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  अनुपम परिहार  मानव जीवन में रिश्तों की प्रमुख भूमिका रहती आई है। लेकिन जैसे जैसे भौतिकवाद का विकास हुआ सम्पत्ति की अहमियत बढ़ने लगी और रिश्ते नाते इस सम्पत्ति के इर्द गिर्द निर्धारित होने लगे। इसने मानवीय मूल्यों को भी दुष्प्रभावित किया है। अनुपम परिहार प्रतिष्ठित पत्रिका सरस्वती के संपादन से जुड़े हैं और बेहतर कवि हैं। आजकल कहानी लेखन की तरफ मुड़े हुए हैं। अपनी इस पहली कहानी में अनुपम ने जटिल मानवीय सम्बन्धों की पड़ताल करने की सफल कोशिश की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  अनुपम परिहार की कहानी 'बागड़बिल्ला'। 'बागड़बिल्ला' अनुपम परिहार     उसका असली नाम प्रचंड प्रताप सिंह था, लेकिन गाँव में उसकी उद्दंडता और अलग व्यवहार के कारण लोग उसे बागड़बिल्ला कब कहने लगे, यह उसे भी पता नहीं चला। जल्दी ही लोग उसका असली नाम भूल गए और वह बागड़बिल्ला नाम से ही जाना जाने लगा था। वह अनाथ था। उसके माता-पिता दोनों कब और कैसे मरे, यह बात किसी को भी पता नहीं थी। उसके पास 10-12 बीघा जमीन थी; जिसकी बदौलत उसे खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। उसकी मानसिक स्थिति कुछ ठीक नहीं थी, जिस...

विनोद दास का आलेख 'कला की आवाज़'

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  विनोद दास  हर कला का स्वयं में अपना सामाजिक-राजनीतिक मूल्य और सरोकार होता है। कलाएं सूक्ष्म ढंग से अपने समय और समाज को प्रतिबिम्बित करती हैं। उसमें भी दृश्य कला मसलन चित्र कला का अलग ही महत्त्व है। कहा भी जाता है कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है। चित्र देख कर ही हम सोचने विचारने के लिए विवश हो जाते हैं। कवि विनोद दास कला के पारखी भी रहे हैं। बकौल विनोद दास ' मैं कभी-कभार चित्रकला पर भी लिखता था। यह लेख बहुत पहले शायद 1985 के आस पास लिखा था। शायद वर्तमान साहित्य पत्रिका में छपा था।' आज विनोद दास के इसी आलेख को हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। यह आलेख उनकी किताब 'सृजन का आलोक' ‌में संकलित है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  विनोद दास का आलेख 'कला की आवाज़'। 'कला की आवाज़' विनोद दास  कुछ दिन पहले प्रख्यात चित्रकार तैयब मेहता से जब  करोड़ों में बिके उनके एक चित्र के बारे में एक पत्रकार ने उत्साह से पूछा तो उन्होंने काफ़ी झुंझला कर कहा कि मैं रुपयों के लिए चित्र नहीं बनाता। चित्रों की खरीद-फरोख्त और मुनाफ़ा आदि की चिंता मेरी नहीं, विक्रेताओं की है...

तादेउस्ज़ बोरोवस्की की कहानी 'गैस के लिए इधर जाएँ, देवियों और सज्जनों'

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  Tadeusz Borowski तादेउस्ज़ बोरोवस्की लेखक परिचय  तादेउस्ज़ बोरोवस्की का जन्म 12 नवम्बर, 1922 को झिटोमीर, यूक्रेन में एक पोलिश परिवार में हुआ था और उनकी मृत्यु 3 जुलाई, 1951 को वारसा, पोलैंड में हुई। वे पोलिश भाषा के कवि और कहानीकार थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्हें 1943 में हिटलर की नाज़ी सरकार द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया और वे कुख्यात ऑशविच कंसनट्रेशन कैंप में भेज दिये गए। युद्ध की समाप्ति के पश्चात मुक्त होने पर उन्होंने इन कैंपों में जीवन और उसकी विद्रूपताओं और उन अमानवीय परिस्थितियों में जीवन और नैतिकता के प्रश्नों को ले कर अनेक कहानियाँ लिखी। इन कहानियों के अतियथार्थ को ले कर कई बार उनकी आलोचना भी होती है किंतु जीवित रहने की लालसा और अतिशय क्रूरता के बीच नैतिकता के प्रश्न किस प्रकार हमारी सामान्य समझ से परे चले जाते हैं, यह उनकी कहानियों में देखा जा सकता है। पोलैंड वापस लौटने पर उनके दो कहानी संग्रह “Farewell to Maria”  और “The World of Stone” प्रकाशित हुए। इन दोनों का अंग्रेज़ी अनुवाद 1967 में “This Way for the Gas, Ladies and Gentlemen, and other stories” क...