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व्योमेश शुक्ल के कविता संग्रह पर नीतेश व्यास की समीक्षा 'अग्निसोमात्मकं जगत्'

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  बनारस का नाम लेते ही एक ऐसे शहर का अक्स हमारे जेहन में उभर कर सामने आता है जो आधुनिकता में भी पूरी तरह पारम्परिक है। धर्म, साहित्य, कला, संस्कृति की एक समृद्ध विरासत इस शहर के पास है। शहर के ही रहवासी कवि व्योमेश शुक्ल की हाल ही में एक पुस्तक प्रकाशित हुई है 'आग और पानी'। इस पुस्तक पर हमें एक समीक्षा लिख भेजी है नीतेश व्यास ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  व्योमेश शुक्ल की पुस्तक 'आग और पानी' पर नीतेश व्यास द्वारा लिखी गई समीक्षा  'अग्निसोमात्मकं जगत्'। 'अग्निसोमात्मकं जगत्' नीतेश व्यास यह सारा जगत् अग्नि और सोममय है। जो भी सूखा है वह अग्नि है जो भी तरल है वह सोम है। इस अर्थ मे व्योमेश शुक्ल द्वारा रचित यह बनारस पर एकाग्र गद्य आग और पानी के निरन्तर साहचर्य को रेखांकित करता है, साथ ही सृष्टि चक्र की ओर भी इंगित करता है। जीवन की तरह सृष्टि भी संतुलन रखती है।हर नया पुराना होने को आतुर और हर पुराना नया होना चाहता।आसीत् और भविष्यति को दोनों हाथों से पकड़े आस्ति पर स्थित है बनारस। आग में भी एक शीतलता है। शीतलता में है आग, समुद्रव्यापी वडवानल इस बात का...

सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'धनंजय वर्मा की मनो-भूमि और रचना-भूमि'

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  धनंजय वर्मा अपने अलग अंदाज़ के लिए ख्यात आलोचक प्रोफेसर धनंजय वर्मा का बीते 28 जनवरी 2024 को निधन हो गया। आज के समय में जबकि धुंध लगातार बढ़ती जा रही है, विचारों को हास्यास्पद बनाने की कोशिशें हो रही हैं, धनंजय जी अपने बातों और विचारों पर अडिग रहे। निर्भीकता और कर्मठता जैसे उनके स्वभाव में थी। सेवाराम त्रिपाठी के शब्दों में कहें तो 'धनंजय वर्मा का सम्बन्ध  मार्क्सवाद की उस धारा से है जो सीधे संकीर्णताओं अंधविश्वासो, रूढ़ियों, विकृतियों, विरूपताओं से लगातार टकराती है। उनका विरोध रूढ़ और जड़ मार्क्सवाद से भी अक्सर हुआ करता था। दक्षिणपंथी सोच की उन्होंने हमेशा बखिया उधेड़ी है। उनका लेखकीय तेज़ अपने आप में आलोकित होता है।उनकी लिखावट साफ़ सुथरी होती थी। एकदम तराशी हुई सी। विचार और शैली का ऐसा मेल कम ही दिखाई देता है। उनका अक्खड़ स्वभाव जाहिर है।' पहली बार की तरफ से धनंजय वर्मा को हार्दिक श्रद्धांजलि और सादर नमन। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'धनंजय वर्मा की मनो-भूमि और रचना-भूमि'। 'धनंजय वर्मा की मनो-भूमि और रचना-भूमि' सेवाराम त्रिपाठी  ...

धूमिल की कविताएं

धूमिल की कविताएं अकाल-दर्शन भूख कौन उपजाता है :  वह इरादा जो तरह देता है  या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँध कर  हमें घास की सट्टी में छोड़ आती है?  उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर  नहीं दिया।  उसने गलियों और सड़कों और घरों में  बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया  और हँसने लगा।  मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा—  'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'  इससे वे भी सहमत हैं  जो हमारी हालत पर तरस खा कर, खाने के लिए  रसद देते हैं।  उनका कहना है कि बच्चे  हमें बसंत बुनने में मदद देते हैं।  लेकिन यही वे भूलते हैं  दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं  हमारे अपराध फूलते हैं  मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर  नहीं दिया और हँसता रहा—हँसता रहा—हँसता रहा  फिर जल्दी से हाथ छुड़ा कर  'जनता के हित में' स्थानांतरित  हो गया।  मैंने ख़ुद को समझाया—यार!  उस जगह ख़ाली हाथ जाने से इस तरह  क्यों झिझकते हो?  क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?  तुम वहाँ कुआँ झा...

उदय प्रकाश के कहानी संग्रह अंतिम नीबू की यतीश कुमार द्वारा की गई समीक्षा

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  उदय प्रकाश हमारे समय के विलक्षण कथाकार हैं। वाणी प्रकाशन से उदय जी का नया कहानी संग्रह आया है ' अंतिम नीबू'। इस कहानी संग्रह की समीक्षा की है यतीश कुमार ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं उदय प्रकाश के कहानी संग्रह पर यतीश कुमार की समीक्षा " अंतिम नीबू :  कहानी है कि ख़त्म ही नहीं होती"। उदय प्रकाश  उदय प्रकाश की कहानियाँ उतार चढ़ाव का संतुलन जानती हैं। इस संतुलन के साथ ही इन कहानियों में दर्द की बेइंतहायी ऐसी है कि ख़त्म होने का नाम नहीं लेती। 'तिरिछ' हो या 'मोहनदास' या फिर 'और अंत में प्रार्थना' इन सभी कहानियों में अगर कुछ समानता है, तो दर्द की असीमित बढ़ती गहराई का। इस संग्रह की पहली कहानी पढ़ते ही लगा, उदय जी ने अपनी लेखनी के तेवर में कुछ तो बदलाव किया है। यहाँ मसला रंग का है, कटाक्ष का है, धर्म और आडंबर में निहित विरोधाभास का है पर जैसे ही आगे बढ़ते हैं उदय प्रकाश अपने पुराने रंग में पूरी तरह वापस मिलते हैं। 'रुक्कू’ इसकी मिसाल है। किरदार समाज के भीतर रह रहे लोगों के मुखौटे पहन कर कहानी में प्रवेश करता है। 'अनावरण’ कहानी का क...

सुरेन्द्र प्रजापति की कहानी 'बर्खास्तगी'

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सुरेन्द्र प्रजापति भारत की एक बड़ी समस्या भूमि बंटवारे की रही है। खेती की अधिकांश जमीनों पर वे काबिज हैं जो खेती नहीं करते। और जो खेती का काम करते हैं उनके पास वह जमीन ही नहीं, जिस पर परिश्रम कर वे अपनी रोजी अर्जित कर सकें। उदारवादी अर्थव्यवस्था की राह पर चल पड़ने के पश्चात दिक्कतें और बढ़ी हैं। पूंजीपतियों की नजर उन बचे खुचे खेतों पर है, जो उनके कमाई का साधन बन सकती है। खेत अब प्लॉट बन चुके हैं। पूंजीपति वर्ग जिसमें जमींदार भी शामिल हैं, अधिकाधिक कमाने के चक्कर में जुर्म ढाने में भी नहीं हिचकता। कारिन्दे नौकरी के चक्कर में उसकी हर बात मानने के लिए तत्पर रहते हैं। लेकिन जब एक बार जमीर जग जाता है तब फिर किसी को भी रोकना कठिन होता है। सुरेन्द्र प्रजापति ने इसी भावभूमि पर एक कहानी लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  सुरेन्द्र प्रजापति की कहानी 'बर्खास्तगी'   'बर्खास्तगी' सुरेन्द्र प्रजापति      मुख्तार साहब बहुत ही अजीबोगरीब इंसान हैं। गाली दो तो खुश, इज्जत दो तो महाखुश। वे कभी भी स्वयं को उपेक्षा का पात्र न बनने दिया। जीते जागते इंसान की सूरत में वे विचित्र ...