विनोद तिवारी का आलेख पैंसठ साल की रसप्रिया और सौ साल के रेणु

रेणु


 


फणीश्वर नाथ रेणु हिन्दी के अप्रतिम रचनाकार हैं। उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों के केन्द्र में अपने अंचल को रखा है। इसी क्रम उन्होंने आंचलिक जीवन के सकारात्मक पक्ष को तो अपनी रचना में उकेरा ही, इसकी वास्तविकताओं और कुरूपताओं को शब्दों में बांधने की सफल कोशिश की है। रेणु को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि हम किसी किस्सागो से उसकी कोई आपबीती कहानी सुन रहे हों। ग्राम्य जीवन के लोकगीतों का उन्होंने अपने कथा साहित्य में सर्जनात्मक प्रयोग किया है। रेणु का लेखन प्रेमचंद की सामाजिक यथार्थवादी परंपरा को आगे बढाता है। इसीलिए रेणु को आजादी के बाद के प्रेमचंद की संज्ञा भी दी जाती है। 

 

रेणु जी ने भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लिया था। पिता के कांग्रेसी होने के कारण रेणु का बचपन आज़ादी की लड़ाई को देखते समझते ही बीता। रेणु ने स्वंय लिखा है - पिताजी किसान थे और इलाके के स्वराज-आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता। खादी पहनते थे, घर में चरखा चलता था।' स्वाधीनता संघर्ष की चेतना रेणु में उनके पारिवारिक वातावरण से आयी थी। रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। 

रेणु की 'रसप्रिया' और पंकज मित्र की 'रसप्रिया पर बज्जर गिरे' को केन्द्रित कर युवा आलोचक विनोद तिवारी ने एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है विनोद तिवारी का आलेख 'पैंसठ साल की रसप्रिया और सौ साल के रेणु'

 

    

पैंसठ साल की रसप्रिया और सौ साल के रेणु

         

(एक बलंद ख़ुदी अर्थात् पञ्चकौड़ी मिरदंगिए का मर्म)

                       

विनोद तिवारी

 

 

 

·        अरे! पञ्चकौड़ी मिरदंगिया का भी एक जमाना था।

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·    दुनिया बहुत तेज़ी से बदल रही है।... आज सुबह शोभा मिसिर के छोटे लड़के ने साफ-साफ कह दिया - तुम जी रहे हो या थेथरई कर रहे हो मिरदंगिया?’ – रसप्रिया


·    टेक्नालाजी के युग में हम लोग जीवन-उपभोग की मूल तकनीकी ही खो बैठे हैं। हज़ारों-हज़ार जनता के बीच भी हरेक आदमी विच्छिन्न है, अकेला है। हँसी-ख़ुशी, उत्तेजना, अवसाद, आनंद-उल्लास सभी यांत्रिक हैं। धरती की पपड़ी टूट गयी है, मन की पपड़ी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। वीरान होती जा रही है। लगता है मन को छूने वाला मंत्र ही हम भूल गए हैं। - एक साक्षात्कार में रेणु, रेणु रचनावली, भाग-4

 

 

फणीश्वर नाथ रेणु, उत्तर भारत के लोक-मन और समाज, उसकी खाँटी रहन, स्वभाव और व्यक्त-अभिव्यक्त रूपों के बहुत ही संवेदनशील सजग चितेरे हैं। लोक की एक-एक धड़कन को जैसे वह पहचानते हों। उसकी नस-नस में भीनी मटियल गंवई गंध से, उसके प्राकृतिक सौंदर्य से, चिरई-चुरुंग से जैसे उनका बहुत गहरा नाता हो। वे मिथिलांचल के लोगों के सरस जीवन के पोर-पोर से चटखते कथारस की एक-एक बूंद को भर लेते हैं। इस संचित रस से वह जो पाग तैयार करते हैं, उसमें पगी कहानियाँ अपनी मधुरता, लावण्य, कसैलेपन और तिक्तता में एक साथ उस जनपद का, वहाँ की गीत-गवनई का, वहाँ के प्यार-बहार का, वहाँ के हास-परिहास का, वहाँ के सुख-दुःख का, वहाँ के रोग-व्याधि का, अकाल-महामारी का, भूख-प्यास का, जीवन के बहुरंगी दांव-पेच आदि का पाठक के मन पर जो प्रभाव छोड़ती हैं वह अन्यतम है। उनके बाद दूसरा कोई उनकी तरह से इसे रच-पग नहीं पाया। रेणु की तरह की भाषिक भंगिमाओं में उन्हें उतारने और बरतने के प्रयास बहुत हुए हैं, पर वे नकल ही अधिक प्रतीत होते हैं, उनमें स्वाभाविकता नहीं है, बनावटीपन का प्रयत्न दिखाई देने लगता है। ऐसे में, आज साठ-सत्तर साल बाद उनकी कहानियों की तर्ज़ पर कहानी लिखने/लिखवाने का विचार, उनकी शताब्दी-वर्ष में उन्हें याद करने का एक नया ढंग, नए आइडिया की दृष्टि से निश्चित तौर पर अत्यंत ही प्रशंसनीय है। पर, यह इतना आसान नहीं है, इसे कार्यरूप में संभव कर दिखाना असल चुनौती होती है। एक कलाकार के लिए, उसके सामने कोई चित्र, कोई बुत या कोई कहानी रख दी जाय और कहा जाय कि इसके आधार पर, इसका उपयोग करते हुए आप एक नयी रचना तैयार कीजिए तो उस कलाकार की मुश्किल और उसके साहस दोनों को समझा जा सकता है। इस साहस के लिए और साहस भरे प्रयत्न के लिए पंकज मित्र को बधाई!

    

रेणु लोक रूपों, उनकी छोटी-बड़ी संस्थाओं, उनके व्यक्त होने के नानारूप-विधानों आदि के प्रति आकर्षित इसलिए होते हैं कि इनमें कला की सामाजिक-सृजनशीलता का पक्ष और महत्व अधिक होता है। इस सामाजिक सृजनशीलता में एक इतिहास बोध शामिल है, एक दूसरी परंपरा का सौंदर्य-बोध शामिल है – जिसमें लोग हर काम को सृजनशील ढंग से करने के लिए प्रेरित होते हैं, साथ मिलकर सोचते-करते हैं। कला के संसार में सामाजिक शब्द का अगर कोई अर्थ हो सकता है तो मेरे विचार से यही अर्थ होना चाहिए। क्लासिकल और लोक-रूपों की तुलना करते हुए प्रायः इन्हें रुचियों और आस्वाद के धरातल पर परस्पर विरोधी बना कर प्रस्तुत किया जाता है। एक को सुरुचि-सम्पन्न संभ्रांत, अभिजात वर्ग से जोड़ दिया जाता है तो दूसरे को भदेस, भोंडा और निम्न वर्ग के लोगों से जोड़ा जाता है। कला और संस्कृति में यह वर्ग-विभाजन, यह भेद समाज के विभिन्न संस्तरों में जीवन यापन करने वाले लोगों के आधार पर तैयार किया गया है। कलाएँ परस्पर एक दूसरे की विरोधी कैसे हो सकती हैं – वह चाहे क्लासिक हो चाहे लोक-कला। वह अपने रूपों में, अपने व्यक्त होने के तरीकों में भिन्न हो सकती हैं, पर विरोधी नहीं। यह वैसे ही है जैसे पूँजीवादी संरचना के तहत आधुनिकता ने सामुदायिकता और नागरिकता को विरोधी बना कर पेश किया। औपनिवेशिक मानसिकता के तहत सामुदायिकता को भेंड़-चाल कह कर उसे जनजातीय, असभ्य और गंदा कहा गया अथवा इस छवि के साथ पेश किया गया। पूंजीवाद में नागरिकता की प्रधानता होती है। समाजवाद में सामुदायिकता की। समाजवादी रेणु ने कलाओं की इस भेदवादी, ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्ग-दृष्टि से अलग लोक की सामुदायिक, सामाजिक सृजनशीलता वाले पक्ष को अपनी कहानियों और उपन्यासों में बिना किसी कुंठा के, बिना किसी ग्रंथि के रचनात्मक रूप से उपयोग में लाते हुए प्रस्तुत करने की कोशिश की है। सामाजिक सृजनशीलता के ये विविध रूप जहाँ एक तरफ भेदवादी, ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्ग-दृष्टि को आईना दिखाते हैं वहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का भी प्रतिरोध रचते हैं। उनकी कहानी रसप्रिया में भी इस तरह के पाठ मौजूद हैं।

    

रसप्रियारेणु की सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से एक है। उसके प्रकाशित होने के पैंसठ साल बाद समकालीन हिन्दी कहानी के एक महत्वपूर्ण कहानीकार पंकज मित्र ने उसे फिर से लिखने की चुनौती स्वीकार की है। यहीं, शुरू में ही, यह कह देना कि उन्होंने रसप्रिया की तर्ज़ पर एक नयी रसप्रिया की रचना की है या उसी रसप्रिया को फिर से अपनी दृष्टि से लिखने का प्रयत्न किया है अथवा उसे अपनी दस्तख़त के साथ पुनः प्रस्तुत किया है, थोड़ी जल्दबाज़ी होगी। अच्छा हो कि दोनों कहानियों के विश्लेषण के बाद पाठक स्वयं ही निष्कर्ष और निर्णय तक पहुँच सकें। उचित तो यह होता कि रसप्रिया पर बज्जर गिरे और मूल रसप्रिया दोनों को एक साथ प्रकाशित किया जाता, जिससे कि एक साथ, आमने-सामने रख कर, पाठक दोनों कहानियों को पढ़ सकते। पर, हम यह मान कर चल रहे हैं कि अधिकांश लोगों ने रेणु की रसप्रिया को जरूर ही पढ़ा होगा।

    

रसप्रियाफणीश्वर नाथ रेणु के पहले कहानी संग्रह ठुमरी(1959) की नौ कहानियों में से पहली कहानी है। शेष आठ कहानियाँ – पंचलाइट, सीरपंचमी का सगुन, तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम, लाल पान की बेगम, तीर्थोदक, तीन बिंदियाँ, ठेस और नित्यलीला हैं। संग्रह में शामिल होने से पहले 'रसप्रिया' कहानी 1955 में, धर्मवीर भारती के सम्पादन में इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका निकष में छप चुकी थी। इस तरह से इस कहानी की उम्र 65 साल हो गयी । मिरदंगिया अब 100 साल का हो गया। उस समय उसकी उम्र यही 35-40 साल रही होगी। रेणु भी सौ साल के हो गए । पॅँचकौड़ी रेणु की पीर है, उनकी पीर का हमनवा। दर्दी लेखक के मोहक प्यार का जीता-जागता मानुष-चरित। रसप्रिया एक कारुणिक प्रेम कथा है। रमपतिया और पॅँचकौड़ी, उस कारुणिक प्रेम और उससे रचे-पगे जीवन के, उसके राग-विराग के साथी हैं। जिस बिदापत-नाच की रसप्रिया को रेणु ने कहानी के लिए उठाया है उस विदापत नाच से उनका नाता बहुत पुराना है। मात्र 24 साल की उम्र में ही 1945 में उन्होंने बिदापत-नाच पर जो रिपोर्ताज लिखा, उसके चलते विद्यापति के गान और बिदापत नाच अमर हो गए। जिस वर्ग के लोग इस नाच से अपना दुःख और गम भुलाते हैं, अपनी जिंदगी की परेशानियों को कुछ देर के लिए विस्मृत हो जाने देते हैं, उस वर्ग के लोगों का जो स्केच बनाते हैं रेणु, वह देखने लायक है – “दुःखी-दीन, अभावग्रस्तों ने हँस-गा कर जी बहला लिया, अपनी ज़िंदगी पर भी दो चार व्यंग्य-बाण चला दिए, जी हल्का हो गया। अर्धमृत वासनाएँ थोड़ी देर के लिए जगीं, अतृप्त ज़िंदगी के कुछ क्षण सुख से बीते। मिहनत की कमाई मुट्ठी भर अन्न के साथ-साथ आज इन्हें थोड़ा सा मोहक प्यार भी मिलेगा, इसमें संदेह नहीं।... आप खोज रहे हैं – आर्ट, टेक्नीक और न जाने क्या-क्या, और मैं आपसे चलते-चलाते फिर भी अर्ज़ करता हूँ कि यह महज़ बिदापत-नाच था।” (रेणु रचनावली -4, संपादक : भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली). इसलिए कला, तकनीकी, गौरव, गरिमा, सुरुचि, उदात्तता आदि की तलाश करने वालों को निश्चित ही यहाँ निराशा ही हाथ लगेगी। रेणु लोक को, उसमें रचे-बसे जीवन, उस जीवन की अनगिन अझेल परेशानियों, उसमें मरते-खपते, रोते-कलपते फिर भी हँसने-गाने-नाचने के लिए अवसर निकाल लेने के जीवन-राग की तरह देखते और रचते हैं। कथाकार मधुकर सिंह से एक बातचीत में रेणु कहते हैं - “मैं नाच देखने से ज़्यादा नाच देखने वालों को देख कर अचरज से मुग्ध हो जाता। तब समझा कि हमारे लच्छेदार भाषणों से ज़्यादा प्रभाव उस सांस्कृतिक चेतना का होता है जो उन्हें मुसीबत में भी गाते रहने के लिए मजबूर किए रहती है। जहाँ तक बोली और भाषा का प्रश्न है, इन्हीं गाँवों में घूम कर भाषा की शक्ति को समझने का मौका मिला है। मैं यह मानता हूँ कि वे लोग ही – गाँवों के किसान-मजदूर ही – मुझसे लिखवाते थे, ठीक उसी प्रकार जैसे भूख लगने पर आदमी एक्शन और तनाव दोनों महसूस करता है।” (रेणु रचनावली –4, संपादक : भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली).

    

रसप्रिया कहानी अपने पाठ में विषय-वस्तु के धरातल पर तीन प्रमुख सामाजिक समस्याओं के साथ पाठक के सामने प्रस्तुत होती है – 

(1) लोक-रूपों और उन्हें जीवंत बनाए रखने वाली लोक-संस्थाओं का क्षरण

(2) प्रेम और उसको जीने का सामाजिक भय 

और 

(3) जाति-व्यवस्था, गरीबी और तद्जनित मानवीय गरिमा, गौरव और निर्णय लेने की क्षमता का द्वंद्व। 


इनमें केंद्र में है प्रेम। इन तीनों समस्याओं के आलोक में जब हम रसप्रिया कहानी का पाठ-विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि रेणु ने कितनी सहजता से और किस संजीदगी से इन्हें कहानी के शिल्प में रचने में सफलता हासिल की है। फणीश्वर नाथ रेणु हिन्दी के अप्रतिम रचनाकार हैं। उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों के केन्द्र में अपने अंचल को रखा है। इसी क्रम उन्होंने आंचलिक जीवन के सकारात्मक पक्ष को तो अपनी रचना में उकेरा ही, इसकी वास्तविकताओं और कुरूपताओं को शब्दों में बांधने की सफल कोशिश की है। रेणु को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि हम किसी किस्सागो से उसकी कोई कहानी सुन रहे हों। ग्राम्य जीवन के लोकगीतों का उन्होंने अपने कथा साहित्य में सर्जनात्मक प्रयोग किया है। रेणु का लेखन प्रेमचंद की सामाजिक यथार्थवादी परंपरा को आगे बढाता है। इसीलिए रेणु को आजादी के बाद के प्रेमचंद की संज्ञा भी दी जाती है। 


भारत के स्वाधीनता संघर्ष में रेणु जी ने भाग लिया था। रेणु के पिता कांग्रेसी थे। रेणु का बचपन आज़ादी की लड़ाई को देखते समझते बीता। रेणु ने स्वंय लिखा है - पिताजी किसान थे और इलाके के स्वराज-आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता। खादी पहनते थे, घर में चरखा चलता था।' स्वाधीनता संघर्ष की चेतना रेणु में उनके पारिवारिक वातावरण से आयी थी। रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। रेणु की 'रसप्रिया' और पंकज मित्र की 'रसप्रिया पर बज्जर गिरे' को केन्द्रित कर युवा आलोचक विनोद तिवारी ने एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है विनोद तिवारी का आलेख 'पैंसठ साल की रसप्रिया और सौ साल के रेणु'।इस विषय की एक अन्य मार्मिक कहानी समकालीन पीढ़ी के कहानीकार मनोज रूपड़ा की साज-नासाज़है। सिनेमा-उद्योग में बदलते यथार्थ को यह कहानी जिस संजीदगी से चित्रित करती है, वह अन्यतम है। सेक्सोफ़ोन बजाने वाले एक बूढ़े कलाकार को, एक दानवी वाद्य-यंत्र सिंथेसाइजर के आ जाने से, बेकारी और ज़िल्लत की जो ज़िंदगी जीनी पड़ती है, यह कहानी उस अमानवीयता को बहुत ही सचाई के साथ प्रस्तुत करती है। पॅँचकौड़ी का ही एक विकसित अन्यतम रूप है यह बूढ़ा कलाकार। पॅँचकौड़ी का भी एक ज़माना था। पर वह ज़माना बदल गया।

 


 
  

पॅँचकौड़ी ने भी जीवन से क्या चाहा था – बस इतना ही न कि अपने हुनर के बल पर मृदंग बजाना सीख ले, बिदापत नाच मंडली में मूलगैन बन जाए, रमपतिया से चुमौना हो जाए और एक सामान्य सहज ज़िंदगी चलने लगे। रसप्रिया की पदवाली नव अनुरागिनी राधा, किछु नहिं मानय बाधा गाती-गुनगुनाती 12 साल की बाल-विधवा रमपतिया ने भी क्या चाहा था जीवन से, यही न कि पॉँचू से प्यार कर सके, प्यार पा सके, पर सामाजिक रूप से जड़ मान्यताओं और जाति-व्यवस्था के भय ने मिरदंगिए को इस कदर भयभीत कर दिया कि वह सब कुछ छोड़ छाड़ कर रातो-रात भाग खड़ा हुआ। उसके इस तरह से रातों-रात भाग खड़े होने को आज के पाठक किस तरह से लेंगे? क्या सचमुच, रमपतिया से उसने झूठा परेम किया था? उसी रमपतिया से, जिसे रसप्रिया गाते हुए सुन कर और गुरु जी द्वारा उससे चुमौना के प्रस्ताव पर वह ताल-मात्रा भूल गयाथा। जाति-व्यवस्था का वह कौन सा भयावह सच है जिससे पञ्चकौड़ी इतना भयभीत है? रेणु ने कहानी में इस जाति-व्यवस्था के अमानवीय ढाँचे को शुरू में ही स्पष्ट कर दिया है। मोहना को बेटा कहते-कहते पञ्चकौड़ी की जुबान का बे... अक्षर पर ही अटक जाना और अचानक उस घटना की याद ताज़ा हो जाना न केवल पंचकौड़ी की मानसिक दशा बल्कि सामाजिक स्थिति को भी सामने रख देता है – “मोहना को देख कर मिरदंगिया के मुँह से बेटा सम्बोधन निकलना चाहता है, लेकिन वह बे कह कर ही रुक जाता है, उसके आगे टा जोड़ने का साहस वह नहीं कर पाता है। इस बेबसी की वजह यह है कि एक बार पर परमानपुर में उसने एक ब्राह्मण के लड़के को प्यार से बेटा कह दिया था, सारे गाँव के लड़कों ने उसे घेर कर मारने की तैयारी की थी – बहरदार हो कर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा। मारो साले बुड्ढे को घेर कर!... मृदंग फोड़ दो। मिरदंगिया ने हँस कर कहा था, इस बार माफ कर दो सरकार! अब से आप लोगों को बाप ही कहूँगा।” (रेणु रचनावली -1, संपादक : भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली)। प्रेम और आदर के संबंध में समाज और उसके विधि-विधानों को, उसके नियमन को, नियंत्रण की ताल-मात्राओं को जब आज भी हम जाँचते-परखते हैं तो परिस्थितियों में बहुत धनात्मक और व्यापक स्तर पर बदलाव नहीं दिखाई देता है। कमोबेश समाज का ढाँचा इस मामले में आज भी सामंतवादी और ब्राह्मणवादी रुख़ अख़्तियार करता हुआ दिखता है। जबकि, इस ढाँचे की तथाकथित समाज कल्याण और सामाजिक नैतिकता की ऊपरी परतों को, तथाकथित सभ्यता के मुखौटों को हटाने पर एक बहुत ही घिनौना चेहरा सामने आता है। यहाँ प्रेम कर के, वह भी एक बल-विधवा द्वारा न तो जिया जा सकता है न ही मरा जा सकता है। ऐसे में एक गरीब, मज़लूम, जीवन-राग से टूटा हुआ, थका हुआ मनुष्य रोते-कलपते कहीं न कहीं तो आश्रय ढूँढेगा। मजबूर रमपतिया आश्रय पाती है कमलपुर के नंदू बाबू की शरण में, और उसकी इस मजबूरी का प्रतिफल है जीता-जागता दस-बारह साल का मोहना (लोकलाज के भय से रमपतिया तो यह भी नहीं कह सकती यह तुम्हारे अभाव की संतान है कालिदास उर्फ़ पॉचू)। किसी ब्राह्मणी की तरह नहीं-नहीं मधुकान्त ठाकुर की बेटी की तरह लगने वाला मोहना, जिसको देखते ही पञ्चकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा – अपरूप रूप – “मोहना जैसे सुंदर, सुशील लड़कों की खोज में ही उसकी ज़िंदगी के अधिकांश दिन बीते हैं।... बिदापत नाच में नाचने वाले नटुआ का अनुसंधान खेल नहीं।... सवर्णों के घर में नहीं छोटी जाति के लोगों के यहाँ मोहना जैसे लड़कीमुँहा लड़के हमेशा पैदा नहीं होते। ये अवतार लेते हैं समय-समय पर जदा-जदा हि...।” (रेणु रचनावली -1, संपादक : भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली). रेणु ने यहाँ अवतार की ब्राह्मणवादी परिभाषा ही बदल कर रख दी है। अवतार के यथार्थ संदर्भों का संकेत कर दिया है। आप चाहें तो इसके आलोक में अवतारों पर फिर से एक नज़र दौड़ा लें।  

    

रेणु का प्रबल विश्वास था कि “सबसे पहले सामाजिक असमानता को तोड़ना होगा, आर्थिक असमानता को यही तो बलवान बनाती है।” (रेणु रचनावली – 4, संपादक : भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली). यह सच है कि रेणु गरीबी को सामाजिक रोग का मूल किटाणु मानते हैं, परंतु, रेणु यह मानते हैं कि समाज की यह ऊबड़-खाबड़ ज़मीन, समाज में मनुष्यों के बीच गैर-बराबरी और परस्पर सम्मान और गरिमा के भेद और अभाव के लिए केवल आर्थिक संरचना ही ज़िम्मेदार नहीं बल्कि इस तरह की सामाजिक-संरचना को बनाए रखने वाली उन सभी सांस्कृतिक-संरचनाओं को भी वे जिम्मेदार मानते हैं जो ऊपरी सतह पर, दिखाई देने वाले वाले स्तर पर आर्थिक कारण मात्र लग सकता है, पर आधार में बहुत गहरे तक वह सांस्कृतिक-व्यवस्था जड़ जमा कर बैठी है जिसे तोड़ना बहुत मुश्किल है। इस प्रसंग में रेमंड विलियम्स के एक कथन याद आ रहा है – “हमें (समाज के) ऊपरी ढाँचे को प्रतिबिम्बित, पुनरुत्पादित और पराश्रित घटकों से अलग उसके सांस्कृतिक व्यवहारों की सुसंगठित श्रेणियों के रूप में देखना-समझना होगा। इसके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि आधार को एक निश्चित आर्थिक या तकनीकी अमूर्तन से अलग वास्तविक सामाजिक तथा आर्थिक सम्बन्धों में सक्रिय मनुष्यों की एक ऐसी क्रियाशीलता के रूप में समझना होगा, जहाँ मूलभूत अंतर्विरोधों और परिवर्तनों के साथ-साथ एक गतिशील प्रक्रिया चलती रहती है।” (कल्चर एंड सोसायटी, पेपर बैक, विंटेज क्लैसिक)। रमपतिया को तो अपने गुजारे के लिए एक ठीहा मिल भी जाता है पर पञ्चकौड़ी का स्वाभिमान, उसकी बलंद ख़ुदी, अपने मृदंग पर खुद से भी अधिक भरोसा उसे मलंग बना देते हैं। इसे पितृसत्तात्मक समाज मेन स्त्री और पुरुष की सामाजिक स्तर-भेद की तरह भी पढ़ा जा सकता है। जब मोहना उसके द्वारा दिए जा रहे आम को भीख का आम कह कर लेने से मना कर देता है तो पंचकौड़ी के दिल पर जो चोट लगती है, जिस तरह से वह तिलमिला कर झल्लाते हुए मोहना के साथ पेश आता है, उस समय उसकी दैन्यता और खुद्दारी के बीच का द्वंद्व देखने लायक है। इस दैन्यता और खुद्दारी का तनाव अपने चरम पर जा कर एकाएक तब टूटता है जब वह देखता है की मोहना के पेट में तिल्ली का रोग घर बना कर बैठा है, जिसके चलते छोटी सी उम्र में ही उसका जीवन धीरे-धीरे गल कर समाप्त हो जाएगा। मोहना जैसे बच्चों की माली हालत और गरीबी को वह जानता है, उस जानलेवा बीमारी को भी पहचानता है, तभी तो मोहना के पेट में बढ़ रहे तिल्ली के रोग के इलाज़ कराने और दूध पीने के लिए वह अपनी गाढ़ी कमाई से जमा की हुई जीवन भर की सकल पूँजी चालीस रुपए यह कहते हुए देता है कि ये रुपये भीख के नहीं हैं “हाँ, सब मिला कर चालीस रुपये हैं। मिरदंगिया ने एक बार इधर-उधर निगाहें दौड़ायीं; फिर फुसफुसा कर बोला, ‘मोहना बेटा! फारबिसगंज के दागदार बाबू को दे कर बढ़िया दावा लिखा लेना। ...खट्टा-मीठा परहेज करना। ...गरम पानी जरूर पीना। ...अच्छी तरह से गाँठ में बाँध ले। माँ से कुछ मत कहना। और हाँ, यह भीख का पैसा नहीं। बेटा यह मेरी कमाई के पैसे हैं। अपनी कमाई के...। मिरदंगिया ने जाने के लिए पाँव बढ़ाया। मेरी माँ खेत में घास काट रही है। चलो न! मोहना ने आग्रह किया। मिरदंगिया रुक गया। कुछ सोच कर बोला, नहीं मोहना ! तुम्हारे जैसा गुणवान बेटा पा कर तुम्हारी माँ महारानी है, मैं महाभिखारी, दसदुआरी हूँ। जाचक, फकीर...। दावा से जो पैसे बचें, उसका दूध पीना।” (रेणु रचनावली -1, संपादक : भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली). यहाँ पर भिखमंगे, दसदुआरी मिरदंगिए पॅँचकौड़ी की लाचारी और खुद्दारी दोनों एक साथ चरम पर पहुँच जाते हैं। उसकी इन बातों में जो कसक है, जो टीस है, एक ख़लिश है – जाचक... फ़कीर – उससे सब कुछ उजागर हो जाता है। रेणु की कथा भाषा की यही ताकत है। कहे को अनकहे में उतार लेना। एक भेद, एक भरम बनाए रखना। कभी न खत्म होने वाली इक उम्मीद, एक इंतज़ार को जिलाए रखना। “आसमान में चक्कर काटते चील ने टिंहकारी भरी - टिं... ई... टिं-हि-क! मिरदँगिया ने गाली दी – शैतान।” बार-बार चील के टिंहकने की पीड़ा और मर्म को क्या पाठक नहीं पढ़ पाते हैं? जरूर पढ़ लेते होंगे।  

    

वस्तुतः देखा जाय तो रेणु तरह-तरह के खित्तों में बंटे समाज और उसके तनावों और संघर्षों को भले ही मुखर स्वर न देते हों लेकिन उनकी रचनाओं में सामाजिक-अंतर्विरोध के सूत्रीकरण के उदाहरण आपको जगह-जगह मिल जाएँगे। सामाजिक-आर्थिक विभेदों के संवेग भरे मार्मिक वर्णनों के साथ समाज के जीते-जागते चरित्र रेणु की कहानियों में अपनी पूरी मार्मिक-व्यथा और पीड़ा के साथ मिल जाएँगे। इसी मार्मिक-व्यथा की एक कहानी है रसप्रिया’, जिसका मूल मर्म है – प्रेम। इस मर्म के एक छोर पर रमपतिया है तो एक छोर पर पञ्चकौड़ी, बीच में पेट में बढ़ती तिल्ली की बीमारी लिए आठ-दस साल का लड़कीमुँहा मोहना। अतः रेणु की कथाओं का समाज और उसके सामाजिक इसी अंतर्विरोध और उसके तनावों के साथ-साथ जीने-मरने वाले सक्रिय जन हैं। पर आज तो लोक के गवैयों, नचनियों, बजनियों को कोई पूछता ही नहीं। सब कुछ बिजनेस हो गया है। कला भी बिजनेस हो गयी है। जो इस बिजनेस के बाज़ार में फिट है, फ़ायदा देने वाला है उसी के पैर टिके रह सकते हैं। स्थिति और बदतर हो गयी है। इस स्थिति को रेणु ने भाँप लिया था। इस स्थिति से समाज को बचाने का रचनात्मक प्रयास वह जीवन भर करते रहे। उनके एक उपन्यास परती-परिकथा का नायक जितेंद्र लोकसंस्कृतिमूलक समाज की स्थापना का स्वप्न देखता है। पैंसठ साल बाद आज रसप्रिया के आगे की कहानी मोहना को ले कर एक ऐसे ही लोकसंस्कृतिमूलक समाज की स्थापना के सपने की कहानी हो सकती है। पर एक रचनाकार का स्वप्न वास्तविकता में परिवर्तित हो जाय तो समाज की दिशा ही बदल जाय। यही आदर्श का यथार्थ है। एक तरह का इल्यूजन, यूटोपिया। इसे भी रेणु खूब अच्छी तरह से जानते थे। तभी तो इस यथार्थ को 1955 में ही होता देख गए - “पञ्चकौड़ी की बेकार जिन्दगी में मृदंग ने बड़ा काम किया था। उसकी बेकारी का एकमात्र सहारा था मृदंग। उन दिनों गाँव एक तरह से आत्मनिर्भर था। आधुनिकता की अन्धी आँधी ने कमेरों का काम छीन लिया। एक युग से मिरदंगिया गले में मृदंग लटका कर भीख माँग रहा है धा-तिंगधा-तिंग... धा!

 

मेरी जानकारी में हंस में प्रकाशित कहानी अपेंडाइटिस (1996) से अपनी कहानी यात्रा की शुरुआत करने वाले समकालीन हिन्दी कहानी के चर्चित और पसंद किए जाने वाले कहानीकार पंकज मित्र के अब तक कुल चार कहानी संग्रह – क्विज मास्टर, हुड़ुकलुल्लू, जिद्दी रेडियो, बाशिंदा @तीसरी दुनिया का – प्रकाशित हो चुके हैं। पंकज मित्र ने अपनी कहानियों के माध्यम से महानगरीय जीवन और समाज से भिन्न तथाकथित सामाजिक-आर्थिक विकास की आँधी में छूट गए, पीछे रह गए लोगों से एक नए लोक-संसार और उनके चरित्रों का समाज बनाने और उनकी परेशानियों, उनकी चिंताओं और उनके संघर्षों को रचने-गढ़ने की कोशिश की है। इस लोक-समाज को आप सहजन का पेड़, बिलौती महतो की उधार-फिकीर, बैल का स्वप्न, कफ़न रीमिक्स, बाशिंदा@तीसरी दुनिया का, मँगरा माल, सोहर भुइंया की बकरियाँ, जलेबी बाई डॉट कॉम, दास्तान-ए-चिंटू-पिंटू आदि कहानियों में देख-पढ़ सकते हैं। उनकी कहानियों में विगलित वायवीय संवेदना की जगह ठोस मानवीय जीवन के विविध चित्र अपनी पूरी संजीदगी के साथ मिलेंगे। पंकज मित्र की कहानियों में, सहज किन्तु चुटीली भाषा में किस्सागोई का जो ढंग होता है उसमें उन समकालीन स्थितियों-परिस्थियों को रचने वाले सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संस्थाओं, व्यवहारों पर एक आलोचनात्मक चुटीला-व्यंग्य आद्यंत चलता रहता है। उनके समकालीन कहानीकारों में बहुत कम लोगों के यहाँ इस तरह की कथा भाषा पायी जाती है। समकालीन सामाजिक विद्रूपताओं और विडंबनाओं को पंकज मित्र की कहानियाँ जिस तरह की भाषा में खंड-खंड रचती हैं, फिर वास्तविक परिस्थितियों से उनके तनाव और टकराहट को, उनकी सामाजिक ट्रेजेडी को सामने लाती हैं, वह और लोगों के कथा कहने के ढंग से भिन्न है। बदलते समकालीन आम जन-जीवन को उसकी जनपदीय क्षेत्रीय गढ़न और प्रकृति के साथ, देश अथवा राष्ट्र की नव-निर्मित और बहुत तेज़ी से बदलती छवियों और चरित्र के धरातल पर, पंकज मित्र ने जिस ढंग से अपनी कहानियों में कहन और सरोकार दोनों को एक नयी भाषिक-संवेदना और यथार्थ के साथ कहानीपन, किस्सागोई को बचाए रखा है, वह अलग से चिन्हित और रेखांकित किए जाने योग्य है। पंकज मित्र की यही विशेषता उन्हें विशिष्ट बनाती है। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय विचारों, बहसों, विमर्शों, सिद्धांतों, नीतियों, संघर्षों, आंदोलनों आदि का सीधा हस्तक्षेप उनकी कहानियों में आपको नहीं दिखेगा, पर वह किसी पात्र या चरित्र की जीवन परिस्थितियों, उन परिस्थितियों को निर्मित करने वाले कारणों की संरचना में आपको मिल जाएंगे, वह भी ज्ञान के बघार की तरह नहीं बल्कि जीवन के स्वाभाविक सुख-दुःख के विन्यास में पिरोया हुआ ही।

 

दरअसल, हर लेखक की अपनी एक ऑथरशिप होती है। यह ऑथरशिप ही एक लेखक की पहचान है और उसे दूसरे लेखक से भिन्नता प्रदान करती है। इसीलिए कहा गया है शैली ही व्यक्ति है। इस शैली या स्टाइल में एक लेखक की भाषा, संवेदना, विचार, दृष्टिकोण सभी अनुस्यूत होते हैं। इसिलिए यह कहा जाता है कि कोई भी दो लेखक एक ही जैसी शैली में नहीं लिख सकते। यदि विषयवस्तु और तत्व समान हों तो भी प्रत्येक लेखक अपनी भाषा, अपनी संवेदना, अपनी दृष्टि और अपने शब्द चयन के आधार पर किसी रचना को आकार देगा, उसमें कला और विचार भरेगा। उसे अर्थगर्भित करेगा। जहाँ दो लेखकों की एक ही जैसी दृष्टि हो, वहाँ भी एक लेखक दूसरे से स्वभावतः भिन्न होगा। अतः यह एक तरह से स्थापित सत्य के तरह मान लिया गया है कि एक लेखक द्वारा किसी दूसरे लेखक की शैली में लिखने की कोशिश सफल नहीं हो सकती। लेकिन पंकज मित्र ने रसप्रिया पर बज्जर गिरे में उक्त सत्य-तथ्य को एक हद तक झुठलाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने रेणु की रसप्रिया को रेणु की ही कहानी रहने दिया है फिर भी उसमें अपनी दस्तख़त की रोशनाई लगा दी है। इसलिए रसप्रिया अब थोड़ी सी ही सही पंकज मित्र की भी कहानी हो गयी है। पर एक बात जरूर ध्यान देने की है। पंकज मित्र की रसप्रिया पर बज्जर गिरे को आप थोड़ा इत्मीनान से, ठहर कर, दोनों कहानियों को आमने सामने रख कर पढ़ेंगे तो पाएंगे कि यह कहानी रमपतिया के पक्ष को, उस के दृष्टिकोण को और जगह देती है। इस मायने में यह पंचकौड़ी के साथ-साथ रमपतिया की कहानी भी बन जाती है। पंकज मित्र ने जिस बारीकी से रसप्रिया के उन अनकहे, अव्यक्त, सांकेतिक बातों, संदर्भों, भेदों और प्रसंगों वाली खाली जगहों को रेणु की ही सांस्कृतिक विरासत और भाषा संवेदना में भरा है, वह पंकज मित्र ही कर सकते थे। हालाँकि, रेणु जिन बातों, संदर्भों, भेदों और प्रसंगों को अपनी रचनाओं में प्रतीकात्मक अथवा सांकेतिक रूप से इशारा कर अनकही छोड़ देते हैं, कह कर भी पूरा नहीं करते, वह उनकी रचनाओं का अधूरापन नहीं है बल्कि यही उनकी रचनाओं का कवच है, यही रेणु की अपनी ऑथरशिपहै। वाल्टर बेंजामिन ने कहा है – “सत्य पर्दे को उघाड़ना नहीं है जिससे भेद नष्ट हो जाय बल्कि इस भेद की रक्षा करना है।” (दि वर्क ऑफ आर्ट इन दि एज ऑफ मेकैनिकल री-प्रोडक्शन, शॉकेन/रैंडम हाउस). ये वही वाली बात है : 


कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को

ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता। 


रेणु अपनी काव्यात्मक भाषा में संकेतों के सहारे इंगित को महत्व देते हैं। जैसे, मोहना के संबंध में उनके ये वाक्य – “मोहना की बड़ी-बड़ी आँखें कमलपुर के नंदू बाबू की आँखों जैसी हैं...।” अथवा “मिरदंगिया ने मुस्करा कर कहा, बड़ी सयानी है तुम्हारी माँ।” रेणु अपनी कहन में श्लेष नहीं बल्कि संधि के साथ एक भेद, एक तरह का भरम बरकरार रखना ज़रूरी समझते हैं। इस संबंध में रेणु का यह कथन देखना चाहिए – “साधारण तो जो समस्याएँ होती हैं उनमें खुद अपने को खोजना होता है – वे समस्याएँ जो हमको किसी न किसी ढंग से प्रभावित करती हैं। तो यों कहानी में मेरा ही तो बहुत सा रूप हो जाता है। और इसलिए कभी-कभी तो ऐसा होता है कि बात किसी पात्र पर चली जाती है, और कभी-कभी घटनाओं पर चली आती है। कभी यह भी पूरा नहीं होता है और दोनों के बीच झगड़ा ही चलता रहता है। जैसे, तीसरी कसम की बात को लें – तीसरी कसम के बारे में जब मैं सोचता हूँ कि यह कैसे – क्योंकि तीसरी कसम लिख के भी, मैं पूरा संतुष्ट नहीं हुआ। और फिर दूसरी बातें तो खैर जाने दीजिए, लेकिन जब उस कहानी को लिख कर के भी मेरे मन में यह बात बनी रही कि नहीं, हीरा को और भी कुछ कहना चाहिए तो हीरा का रूप और भी सामने आना चाहिए था, हीरामन को और भी कुछ होना चाहिए था।” (जर्मनी के हिन्दी विद्वान ल्योतार ल्युत्से के समक्ष प्रस्तुत रेणु का आत्मसाक्ष्य, रेणु रचनावली –4, संपादक : भारत यायावर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली).

    

रसप्रिया कहानी में बाल-विधवा रमपतिया और पंचकौड़ी का प्यार और फिर विजातीय और निम्न वर्ग का होने के कारण जोधन गुरु जी द्वारा चुमौना का प्रस्ताव पाने पर पंचकौड़ी का वहाँ से भाग खड़े होना, रमपतिया द्वारा अब कभी भी रसप्रिया नहीं गाने की सौगंध, मोहना के गौर वर्ण और लड़की-मुंहा होने, मोहना द्वारा अपने पिता का नाम अजोधा प्रसाद बताना, उसकी आँखें का नंदू बाबू की आँखों से मेल खाना, ये सारे प्रसंग ऐसे हैं कि इनका विस्तार किया जा सकता था, पर रेणु ने नहीं किया। अच्छा ही किया। वरना पंकज मित्र को एक नयी ही रसप्रिया लिखनी पड़ती। हालाँकि, उन्होंने कहानी का जो अंत किया है वह रसप्रिया कहानी की दृष्टि से नया है। पॅँचकौड़ी द्वारा अपनी प्रिया रमपतिया का दिल चाक कर भाग खड़े होने के बाद रमपतिया की उस कसम को कि अब कभी वह रसपिरिया नहीं गाएगी को पंकज मित्र ने कहानी के आखिर में तोड़ दिया है। पञ्चकौड़ी के रमपतिया से मिलन और इंतज़ार को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करा दिया है। इस कहानी में पञ्चकौड़ी का आखिरी समय नजदीक आया जान कर रमपतिया अपनी कसम तोड़ कर, बदहवासी की हालत में दौड़ते हुए वहाँ पहुँचती है जहाँ ज़मीन पर पंचकौड़ी बेसुध पड़ा हुआ अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है – “धौंकनी की तरह चल रही थी पञ्चकौड़ी की साँसें... धरती पर बेसुध पड़ा था – चरवाहे लड़के पत्तों के दोने से पानी छिड़क रहे थे मुँह पर, कोई गमछे से हवा कर रहा था... धीरे से आँख खोली मिरदंगिए ने... तभी... आ गयी रमपतिया। हमको मालूम था तुम आओगी... एक बार बस रसप्रिया सुना दो... आखिरी बार... हाँफ रहा था। पॉँचू! काँप गयी आवाज उसकी। साँस तेज़ चल रही थी। थरथराती आवाज़ में रसप्रिया की कड़ी गाने लगी... न व अ नु रा गि नी रा धा, कि छु न य मा न य बा धा। कसम तोड़ दी थी रमपतिया ने। मोहना छोटा था भला क्या समझता। मिरदंगिया की साँस का ताल कट गया था...हमेशा के लिए...।” एक कहानीकार के लेखे पंकज मित्र ने कहानी के इस अंत से, पैंसठ साल बाद रसप्रिया कहानी को उसके निष्कर्ष तक और सौ साल के पञ्चकौड़ी मिरदंगिए को उसकी नियति तक पहुँचा दिया है। इस अंत को ले कर कुछ लोग रसप्रिया पर बज्जर गिरे कहानी को रमपतिया की कहानी कह सकते हैं। पर जिन लोगों को विद्यापति और रेणु जैसे कलाकारों की संवेदना और शैली में, शृंगार और प्रेम की कभी न बुझने वाली प्यास, कभी न खत्म होने वाला इंतज़ार, कभी न मिटने वाली खलिस पसंद है, उन्हें शायद यह अंत पसंद न आए। ग़ालिब का भी एतमाद देखिए :

 

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता।

 

पॅँचकौड़ी का इंतज़ार ख़त्म हो गया। आखिरी समय में उसकी रसप्रिया के दर्शन भी हो गए और रसप्रिया कानों में भी घुल गयी। पर, इस सुखद ट्रैजिक अंत से पंकज मित्र ने, रमपतिया और पञ्चकौड़ी के बीच प्रेम और पीर की उस ख़लिश को, उसके इल्यूजन को ख़त्म कर दिया जो रेणु की कहानियों की आत्मा है। विश्वास न हो तो रसप्रियाके इस अंतिम वाक्य – “झूठा बेईमान! मोहना की माँ आँसू पोंछ कर बोली – ऐसे लोगों की संगत कभी मत करना और तीसरी कसम के इस आखिरी वाक्य – हिरामन ने हठात् अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारते हुए बोला, रेलवे लाइन की ओर उलट-उलट कर क्या देखते हो ?” की अर्थध्वनि को समझा जा सकता है। रसप्रिया और रसप्रिया पर बज्जर गिरे के साम्य और अंतर को भी समझा जा सकता। बाकी थोड़ा लिखना बहुत समझना को लोक अभी भी कहाँ छोड़ पाया है।


(कथादेश फरवरी 2021 से साभार।)


सुपरिचित आलोचक। 25 वर्षों से आलोचनात्मक लेखन देश भर की सभी पत्र-पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख और समीक्षाएं प्रकाशितबहुचर्चित और हिन्दी जनक्षेत्र की महत्वपूर्ण पत्रिका पक्षधर का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे हैं अब तकपरम्परासर्जन और उपन्यास,’ नयी सदी की दहलीज पर’, विजयदेव नारायण साही (साहित्य एकेडेमी के लिए मोनोग्राफ)’, निबंध : विचार-रचना’ और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के श्रेष्ठ निबंध’, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के श्रेष्ठ निबंध’, ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के श्रेष्ठ निबंध’, कथालोचना : दृश्य-परिदृश्य’, ‘उपन्यास : कला और सिद्धान्त ( दो खंडों में)नाज़िम हिकमत के देश में’ (तुर्की पर यात्रा-संस्मरण) आलोचना की पक्षधरता’ और राष्ट्रवाद और गोरा’ जैसी पुस्तकों का लेखन और सम्पादन कर चुके हैं महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की पत्रिका बहुवचन के दो अंकों का सम्पादन युवा आलोचना के लिए देश भर में प्रतिष्ठित ‘देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान – 2013 और वनमाली कथालोचना सम्मान – 2016 से सम्मानित 


 


 संपर्क :


सी-4/604, ऑलिव काउंटी,

सेक्टर-5, वसुंधरा,

गाज़ियाबाद – 201012 (उ. प्र.)

ई-मेल : tiwarivinod4@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

टिप्पणियाँ

  1. कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
    ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता’।

    ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
    अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता।

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