वंशीधर उपाध्याय का आलेख “जन-मन-वेदना के कवि - ज्ञानेन्द्रपति”

ज्ञानेन्द्रपति

                    

ज्ञानेन्द्रपति  हिंदी के विलक्षण कवि हैं। वे ऐसे चुनिंदा कवियों में से एक हैं जिन्होंने  अपने लेखन को तवज्जो देते हुए काव्य लेखन को पूर्णकालिक तौर पर चुना। ज्ञानेन्द्रपति की कविता पढ़ते हुए लगता है जैसे कि यह तत्सम और तद्भव के बीच का एक अनूठा सामंजस्य है। उनके कविताओं में आधुनिकता है लेकिन उसकी  नींव परम्परा पर मजबूती के साथ खड़ी है। 

ज्ञानेन्द्रपति की कविता का स्वरूप औपन्यासिक है। 'गंगा' उनकी कविता के केन्द्र में है। वह गंगा जो सिर्फ एक नदी भर नहीं, बल्कि भारतीय जन जीवन की धड़कन और जिजीविषा है। बावजूद इसके वह हमारे समय की उपेक्षाओं और स्वार्थ साधक प्रवृत्ति के केन्द्र में भी है। उनकी कविता हमारे समय के रचनात्मक प्रतिरोध की सशक्त कविता है। उनकी कविता मिट्टी से जुड़ी कविता है, जो सबके मूल में है। यही विशेषता उन्हें उनके समकालीनों से अलग खड़ी करती है। युवा आलोचक वंशीधर उपाध्याय ने उनके कवि कर्म की एक आलोचनात्मक पड़ताल करने की कोशिश की है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है वंशीधर उपाध्याय का आलेख 'जन मन वेदना के कवि ज्ञानेन्द्रपति'

 

   

जन-मन-वेदना के कवि - ज्ञानेन्द्रपति

 

वंशीधर उपाध्याय

 

 

ज्ञानेन्द्रपति का परिचय उनकी काव्य-यात्रा है, क्योंकि वह जहाँ भी रहे वहां के लोकोन्मुख सांस्कृतिक बोध से हिंदी काव्य-धारा को समृद्ध करते रहे हैं। वस्तुतः ज्ञानेन्द्रपति लोकोन्मुख सांस्कृतिक बोध के कवि हैं। उनकी कविताएँ मानवीय राग से आबद्ध संघर्षरत आम आदमी के पक्ष में खड़ी होती हैं और ‘जन-शत्रु तथा जीवन-शत्रु’ के मिथ्याओं को अनावृत कर देती है। इसीलिए ज्ञानेन्द्रपति की कविताएँ कई स्तरों पर आकर्षित करती हैं। आकर्षण इस रूप में और ज्यादा  बढ़ जाता है कि इनके काव्य संसार से गुजरने के बाद पाठक के सामने एक नई दुनिया निर्मित होती है। वह दुनिया जहाँ ख़ुशी और संभावनाओं के बीज बोए जाते हैं। पांच दशकों से अधिक अपनी काव्य-यात्रा के सफ़र को तय करने के बाद भी ज्ञानेन्द्रपति के यहाँ प्रेम, जीवन संघर्ष, वैचारिक और सांस्कृतिक पक्षधरता इतना अधिक उर्ध्वगामी है कि पाठक चकित हो जाता है। कवि का खुद मानना है कि “कविता बेशक अपने समय से जूझ कर हासिल की जाती है, लेकिन वह उस काल-खण्ड से कलित नहीं होती, उसकी भविष्योन्मुखता ही उसकी न मुरझाने वाली नवीनता का बाइस होती है।”[1] ज्ञानेन्द्रपति की काव्यानुभूति मानवीय अनुभव का ही हिस्सा है। वास्तविक अर्थों में मानवीय अनुभूति काव्यानुभूति की संज्ञा तभी पाती है, जब वह अर्थवान को कहीं अधिक सोद्देश्यता के साथ संगठित कर पाती है। काव्यानुभूति का वास्तविक काम है सामान्य अनुभूति को कहीं अधिक अर्थवान ढाँचे में संगठित करना और ज्ञानेन्द्रपति की ‘काव्यानुभूति की बुनावट’ में यह सोद्देश्यता स्पष्ट रूप में दिखती है।

 

 

ज्ञानेन्द्रपति का पहला संग्रह (आँख हाथ बनते हुए) 1970 में आता है। इस संग्रह की कविताओं में कवि का युवा मन मुख्यतः तीन स्तरों पर जूझता है। पहला - जीवन और प्रकृति के द्वंद्व को समझने के स्तर पर, जहाँ निर्माण की प्रक्रिया शामिल है। दूसरा - वैचारिक द्वंद्व के स्तर पर, जहाँ इतिहासबोध की निर्मिती है। तीसरा - कला के स्तर पर, जहाँ अनुभूति की आत्माभिव्यक्ति की प्रक्रिया है। काव्य के रूप में उसका कोई मूल्य नहीं, जहाँ सिर्फ प्रकृति का अंधानुकरण हो। प्रकृति के अंधानुकरण का मतलब होता है, प्रकृति प्रदत्त पदार्थ उसे वापस करना। जब तक कोई कवि प्रकृति प्रदत्त पदार्थ को अपनी आत्मानुभूति से नहीं तराशता, सच्ची कविता नहीं बनती है। ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं में जीवन और प्रकृति को समझने की जो वैचारिक ललक है वही उनकी काव्यानुभूति को प्रकृति के अंधानुकरण से बचाती है और सच्ची कविता के पथ पर अग्रसर करती है। उनके पहले संग्रह की कविता ‘एक गर्भवती औरत के प्रति दो कविताएँ’ को उदारण के तौर पर देख सकते हैं।

 

‘यह तुम्हारा उदर ब्रह्माण्ड हो गया है

इसमें क्या है? एक बन रहा शिशु भर?

झिल्ली में लिपटी मांस पहनती चेतना बस?

कितनी फैलती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की तुम क्या जानो

कि अन्तरिक्ष तक चली गयी है यह विरूप गोलाई और ये

पेड़-पौधे, मकान, सड़कें, मैं, यह पोल, वह कुत्ता, उछलता वह मेढक

रँभाती गाय, बाड़ करता माली, क्षितिज पर का सूरज

सब उसके अन्दर चले गये हैं

और तुम भी/’[2]

 

यहाँ कवि प्रश्न मूलक जिज्ञाषा के साथ केवल स्त्री के उदर को नहीं देख रहा है, वह भविष्य की उस आहट को महसूस कर रहा है जिसके निर्माण में पूरी प्रकृति है। हाँ, ध्यान रहे यहाँ उदर का ब्रह्माण्ड में बदलना सिर्फ प्रकृति का अनुकरण नहीं है और न ही इस बदलने की क्रिया में कोई एक शक्ति या नियामक है, बल्कि इस निर्माण में एक सामूहिकता है जो प्रकृति और मानव के सहभाव से निर्मित हो रही है। इसलिए यहाँ पेड़-पौधे, मकान, सड़कें, पोल, कुत्ता, उछलता हुआ मेढक, रँभाती हुई गाय, बाड़ करता माली, क्षितिज पर का सूरज सभी निर्माण की प्रक्रिया में शामिल है। कविता की अगली कड़ी में सामूहिक सहभाव के इस आग्रह में कवि परिवेश का चित्रण नहीं भूलता है। इस चित्रण में कवि की काव्यानुभूति संघनित हो कर जिस विद्रूप यथार्थ को रचती है वह कवि का युग सत्य है। सत्ता और पूंजी के गठजोड से जो व्यवस्था निर्मित हुई है उसने आमजन (खासकर आदिवासी समुदाय) के जीवन को तवाह कर दिया है। उसकी दमनकारी प्रवृत्ति ने विकास के नाम जो व्यूहरचना की है उसमे क्रूरता चरम पर है। विकास के नाम पर जो रचा जा रहा है, क्या उसके तरफ कभी हमने ध्यान दिया है। उन आदिवासियों के जीवन का हिसाब कौन देगा जिनके जीवन, जंगल और जमीन के दोहन से चमचमाती सड़कें, बड़ी-बड़ी कम्पनियां निर्मित हो रही हैं। यहाँ कनखजूरा का बिम्ब एक अति साधारण मानव भ्रूण है जिसे यह व्यवस्था कभी भी दरकिनार कर सकती है। इस क्रूरता को चित्रित करते हुए कवि उस वर्ग-शत्रु की पहचान करता है जिसके लिए श्रमशील जनता का अस्तित्व मात्र एक कनखजूरे जैसा है। यहाँ कवि अपने युग सत्य से लड़ते हुए अपने वर्ग सत्य की और अग्रसर होता है जहाँ उसकी पक्षधरता भी स्पष्ट होती है।

 

‘निरन्तर निर्माण में रत है तुम्हारा उदर

तुम्हारा रक्त, तुम्हारी मज्जा, तुम्हारा जीवन-रस

सब मिल कर जो रच रहे हैं

वह क्या है? एक

कनखजूरा

जो अकस्मात् किसी बूट के नीचे आ जाएगा

या किसी आदमजाद को डँसने के प्रयास के अपराध में  थुरकुच कर

सफ़ाई के ख़याल से सड़क पर से किनारे हटा दिया जाएगा वही एक

कनखजूरा? घेर कर जिसके लिथड़े शव को

खड़े होंगे सारे सम्भ्रान्त लोग ईश्वर को धन्यवाद देते /’[3]

 

इस कविता को पढ़ने हुए नक्सलबाड़ी आन्दोलन की धमक साफ तौर पर सुनाई देती है। यह आन्दोलन बंगाल के एक छोटे से गाँव से शुरू हुआ और अधिकांश प्रबुद्ध भरतीय जनमानस के दिलो-दिमाग में अपनी पैठ बना लिया। जीवन, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ने वाले मजदूरों पर पुलिसिया दमन और सत्ता के क्रूरतापूर्ण व्यवहार की तीखी आलोचना करते हुए इस दौर के लेखकों ने प्रतिरोध के संघर्ष को और धारदार बनाया। नक्सलबाड़ी आन्दोलन से जुड़े लेखकों ने एक तरफ जहाँ सत्ता के दमनात्मक प्रवृत्ति को विश्लेषित किया वहीं दूसरी तरफ मजदूरों के हक़ के लिए लड़ने वाली वैचारिक दृष्टि को भी व्यापक बनाया। हिंदी कविता में धूमिल, आलोक धन्वा, गोरख पाण्डेय, ज्ञानेन्द्रपति, आदि इसके प्रमुख नाम हैं। धूमिल ने इस आन्दोलन को व्याख्यायित करते हुए कहा कि –

 

‘भूख से तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है’।

 

गाँधी के इस देश (भारत) में हिंदी कविता का यह आन्दोलन अधिक समय तक नहीं चला, लेकिन कविता में प्रतिरोध की संस्कृति को कैसे जिन्दा रखना है इसको सिखला गया। इस आन्दोलन को सत्ता द्वारा दबाने की हर सम्भव कोशिश की गई जो आज भी बदस्तूर जारी है। खैर..! धीरे-धीरे यह आन्दोलन हिंसात्मक रूप से उग्र होता गया और अपने वास्तविक लक्ष्य से भटकने लगा। कविताएँ नारे में तब्दील होने लगीं और सत्ता के वास्तविक चरित्र को देखने का नजरिया एकरेखीय हो गया। सत्ता के शातिर चरित्र को समझने के लिए जिस बड़े फलक की जरूरत थी उसे केवल इस तेवर की कविताओं से नहीं समझा जा सकता था। सत्ता के नए समीकरण और रूप बदल रहे थे। उसकी चालाकियां बढ़ गई थीं। लोकतंत्र का स्वरूप बदल रहा था। मनुष्य के जीवन में नए तरह के बदलाव आ रहे थे और इस बदलाव की प्रक्रिया में सबसे बड़ा बदलाव चरित्र में आया चाहें वह सत्ता का हो या व्यक्ति का। इन बदलावों को समझने के क्रम में मुक्तिबोध की कविताओं ने जो रूप-विधान तैयार किया था उसको ज्ञानेन्द्रपति ने और व्यापक बनाया। उनका प्रसिद्ध काव्य-संग्रह ‘संशयात्मा’ इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।

 


 

इस संग्रह की कुछ कविताएँ ऐसी हैं जहाँ पाठक मन कविता के साथ बह जाता है तो अधिकांश कविताएँ ऐसी हैं जिसके मानी तक पहुँचने के लिए पाठक को संघर्ष करना पड़ता है। इस बहाव और संघर्ष का प्रतिफल यह होता है कि पाठक बाहरी उपकरणों से निर्मित किए गए यथार्थ के भ्रम से दूर होने लगता है। ज्ञानेन्द्रपति के यहाँ यथार्थ कोई कृत्रिम रूप से निर्मित वातावरण नहीं है, बल्कि खुद और दुनिया को समझने का एक दृष्टिकोण है, जिसके निर्माण में हमेशा एक द्वन्द्वात्मक संघर्ष चलता रहता है। यह द्वंद्व इतना संघनित है (रूप और अंतर्वस्तु दोनों स्तरों पर) कि वह पाठक को अभिनन्दित नहीं करता, बल्कि कविताओं को समझे जाने की मांग करता है, और मुझे लगता है एक कवि की सार्थकता भी इसी में है कि वह अभिनन्दित होने से अधिक ‘समझा जाना’ पसन्द किया जाए। इस संग्रह की कविताओं पर जो टिप्पड़ी (फ्लैप पर) दी गई है वह ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं को समझने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है - ‘संशयात्मा’ की कविताओं में हमारे समय की साँवली सच्चाइयां दर्ज हैं, दुधिया मिथ्याओं को सहज ही अनावृत करती हुई। यहाँ झारखंड के पहाड़ों का अरण्यरोदन सुना जा सकता है और महानगर के कोलाहल में अनसुनी रह जाने वाली वह टेर भी जो अधरात लौट कर नींद के मुंदे कपाट खड़काती है। …. मिट रही प्रजातियों और नष्ट हो रही जैव विविधताओं का शोक-लेख इतना मार्मिक है कि मानवता की जयगाथा को रह-रह हिंस्रता के हवाले होता मानव-मन हो, या सीवानों पर उधड़ता समाज - कवि की देखती-लेखती आँख अपलक खुली रहती है। सत्य का निष्कवच साक्षात्कार कवि-कर्म को अनायास उस उपक्रम में बदल देता है जिसे मुक्तिबोध ‘सभ्यता- समीक्षा’ कहते हैं।’[4]  इस संग्रह की कविताओं में  कवि की काव्यानुभूति सबसे अधिक सतर्क परिवर्तनशील यथार्थ को ले कर है। नए परिवर्तनशील यथार्थ को समझने के इस संग्रह की एक कविता ‘एक आदिवासी गाँव से गुजरती सड़क’ को देखिए। यहां बाजार और सत्ता के गठजोर से बनी व्यवस्था को रेखांकित करते हुए कवि लिखता है-

 

इस आदिवासी गाँव के आंगन से गुजरती हुई यह सड़क

अत्याचारियों के गुजरने का रास्ता है

यह इनके पैरों से नहीं बना

यह इनके पैरों के लिए नहीं बना

बड़े-बड़े रोड रोलर आए थे लुटेरे वाहनों के आने से पहले  

…. …. …. ….

फिर आए पीछे-पीछे

अगली सुबहों में

भारवाही वाहन

रिगें क्रेनें

चौड़े पंजर की ट्रकें टेलर लगे ट्रैक्टर

बसें कारें हाकिम हुक्काम

आए तमाम

इस मिट्टी की छाती से

खनिज खंखोरने वाले तातारी लुटेरे

 

यह खत्म हो रहे आदिवासी जीवन और संस्कृति की दास्तान है। परियोजनाओं के आंकड़ों में झूलता आदिवासी समाज नगरी सभ्यता और सत्ता के लिए के लिए सिर्फ उपभोग का पर्याय बन गया है। विकास के नाम पर इस समाज का आर्थिक शोषण तो किया ही जा रहा है साथ-ही-साथ उनका दैहिक शोषण भी बदस्तूर जारी है। हम जिसे सभ्य समाज की संज्ञा से नवाज़ते हैं उसकी वास्तविकता क्या है? ज्ञानेन्द्रपति की यह कविता उसे बेनक़ाब करती हैं। कवि विकास ने नाम पर हो रहे शोषण के चक्र को इंगित करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखता है कि –

 

चमक पड़ा मर्म

आदिवासी गाँव से गुजरती सड़क का

कि हमारी शोषण की सभ्यता का

कि जिसकी बाँह राजधानी से

यहाँ तक आई है

 

यही नहीं इस आने के क्रम में जो आदिवासी समुदाय के जीवन में जो बदलाव आया है, उसका सच यह है-

 

पिपासु पहियों के नीचे आ जाते हैं जब-तब

इनके चूजे और बच्चे

और अड़हुल-सा खिला किसी युवती का यौवन रौंदा जाता है।

 

यही ज्ञानेन्द्रपति अपने पहले संग्रह (आँख हाथ बनते हुए, 1970) में जिस कनखजूरे को इंगित कर रहे हैं ‘संशयात्मा’ 2004 में भी आदिवासी जीवन वही स्थिति है। या सच कहें तो और भयावह ही हुई है। सब कुछ बदला। गाँव बदले, परम्पराएँ बदलीं, लोग बदले। सरकार बदली। अब तो नाम भी बदलने लगे, लेकिन कुछ नहीं बदला तो वह है आम आदमी का संघर्ष-रत जीवन। उनके शोषण का चक्र। यानी कवि जिस अनुभूति को 1970 में महसूस किया है वह 2004 में आ कर और विकराल हो गई है। इन दोनों कविताओं को पढ़ते हुए यह साफ दिखता है कि ज्ञानेन्द्रपति की कविताएँ वर्तमान से सम्वाद करती हुई भविष्योन्मुखी हैं।  

 


 

अक्सर ऐसा होता है कि प्रतिरोधी तेवर की कविताएँ नारे में बदलने लगाती हैं, लेकिन ज्ञानेन्द्रपति के यहाँ ऐसा नहीं होता है। ज्ञानेन्द्रपति की कविताएँ प्रतिरोध के स्वर को तीक्ष्ण बनती हुई अपनी काव्यात्मकता को नहीं छोड़ती हैं। इन कविताओं में देशज शब्दों की बहुलता है, लेकिन तत्सम से दुराव का कोई आग्रह नहीं है। जो शब्द अनुभूति को व्यक्त करने में सार्थक हुए हैं वह उतना ही सहजता के साथ कवि के यहाँ ग्राह्य हैं। ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं में प्रतिरोध और लोक-अनुभूति की बोध का अर्थवान विस्तार है। उनका काव्यात्मक-बोध इतना संघनित है कि वह एक नई काव्य-भाषा इजाद कर लेता है। यह सही है कि ‘कविता केवल भाषा से रची ही नहीं जाती, वह भाषा को भी रचती है और यह काम जिन्दगी की निहाई पर होता है’। ज्ञानेन्द्रपति के काव्य संसार से गुजरते हुए काव्य-भाषा की नई बानगी को महसूसा जा सकता है। क्योंकि ज्ञानेन्द्रपति की कविताएँ राजधानी की डाइंनिग हॉल ने नहीं, बल्कि जंगल-दर-जंगल, गाँव-दर-गाँव और शहर-दर-शहर भटकते हुए जीवनानुभव के ताप से उपजी हैं। यही कारण है कि इनकी कविताओं में वस्तुपक्ष और आत्मपक्ष का एक समन्वय दिखता है। नयी कविता के इस बुनावट को इंगित करते हुए मुक्तिबोध ने ठीक ही लिखा है- ‘यदि हिंदी की नयी कविता को साहित्य के इतिहास में, या यूँ कहिए कि संस्कृति के इतिहास में, कोई महत्त्वपूर्ण पार्ट अदा करना है, तो उसे काव्य की प्रकृति तथा शिल्प में आत्मपक्ष और वस्तुपक्ष का समन्वय उपस्थित करना होगा।’[5]  ज्ञानेन्द्रपति की कविताएँ मुक्तिबोध के इस सिद्धांत का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करती हैं। इनकी एक कविता है ‘कर्म का संगीत’। इस कविता में कर्म का संगीत जीवन के संगीत में बदल जाता है जहाँ निर्जीविता भी सजीव रूप में आ जाती है।

 

‘कपड़े पछींटता हुआ आदमी

अपने अनजाने संगीतकार बन जाता है

संगीत में मस्त हो जाता है

कर्म का संगीत धीरे-धीरे बन जाता है संगीत का क्रम

धुल जाता है कपड़े का देहाकार दुख

मन तक निखर जाता है

तब कभी मद्धिम आवाज़ में कहता है कपड़ा

बहुत हुआ

छोड़ो भी मुझे

तुम्हें काम करना है या पता नहीं

मेरे आगे उज्ज्वल भविष्य है

पसीने की महक वाला’

 

इस कविता को पढ़ते हुए ‘कार्ल बुशर’ का वह कथन आद आता है जो उन्होंने संगीत को परिभाषित करते हुए लिखा है- ‘लय, संगीत और कविता आदि मानव के श्रम से पैदा हुई है। शारीरिक परिश्रम उस दशा में अत्यंत आसान हो उठता था जब कार्य एक लय के साथ किया जाता था। हाथ से सामूहिक रूप में काम करते समय शक्ति का एक संग्रहित रूप उपस्थित हो जाता था और इस प्रकार मांसपेशियों के कार्य में जब अधिकतम शक्ति लगाने लगी थी तो अपने आप एक स्वर फूट पड़ता था। इन स्वरों पर आदि मानव ने शब्दों का पर्दा चढ़ा दिया और वह संगीत बन गया।’[6]  कर्मरत लय को शब्दगत लय में ढालना ही वस्तुपक्ष के साथ आत्मपक्ष का  समन्वय है। इस कविता में कर्मरत मनुष्य अपनी क्रिया में एक लय पैदा कर रहा है। उसी क्रियात्मक लय को कवि अपनी आत्मानुभूति से तराश कर काव्यानुभूति में बदल देता है जहाँ कवि का वस्तुपक्ष और आत्मपक्ष एकाकार हो जाता है और निर्जीव वस्तु भी अपने पूरी सजीविता के साथ उपस्थित हो उठता है। यहाँ कपड़ा अपना उज्ज्वल भविष्य वहां देख रहा है जहाँ पसीने की महक है। दरअसल यह कपड़े के भविष्य की उज्ज्वलता नहीं, बल्कि कवि के काव्यानुभूति की उज्ज्वलता है जिसे वह पसीने की महक के साथ बचाए रखना चाहता है।   

 


 

ज्ञानेन्द्रपति के काव्य-संग्रहों से गुजरते हुए यह अनुभूति बार-बार होती है कि उन्होंने कोई महाकाव्य तो नहीं लिखा, लेकिन उनका अधिकांश संग्रह अपने पूरे कलेवर में एक महाकाव्य है।  उनके संग्रह की अधिकांश कविताएँ एक खास विषय से सम्बन्धित होती हैं। वह जिस विषय पर आधारित होती हैं उसके सभी पक्षों की मुकम्मल तस्वीर से पाठक को परिचित करा देती हैं। इसलिए ‘संशयात्मा’ की अधिकाशं कविताएँ जहाँ हाशिए पर खड़े लोगों की कारुणिक दस्तावेज हैं तो वही ‘गंगा-बीती’ बनारस की सांस्कृतिक विविधता का आत्मालाप। ‘मनु को बनाती मनई’ में प्रेम और जीवन की अथाह गहराइयों का प्रवाह है तो ‘कविता भविता’ में समय के संघर्ष और बिडंबना को दर्ज करता हुआ कविता का नवीन काव्य-शास्त्र।

 

एक सच्चे कलाकार के लिए कला की यात्रा जीवन की यात्रा से अलग नहीं होती। इस यात्रा में कुछ पड़ाव और संघर्ष होते हैं। इन्हीं जीवन-संघर्षों से गुजरते हुए वह ऐसी निर्मिति करता है जिसका अनुकरण सम्भव नहीं है। जब कलाकार अपनी अनुभूति को परम्परा और जीवनानुभव के आँच पर तपाता है तभी ऐसी कलाकृति सामने आती है। जैसे ‘लिओनार्दो दा विंची’ की  ‘मोनालिसा’, ‘विन्सेंट वैन गो’ की तारों भरी रात, ‘एम० एफ० हुसैन ’ के ‘घोड़े’, ‘जीवनानंद दास’ की ‘बनलता सेन’ और ज्ञानेन्द्रपति की ‘चेतना पारीक। यह कविता मनुष्य के भीतर प्रेम की सात्विक अनुभूति का संचार करती है। ट्राम में एक याद को सहेजते हुए कवि अपनी स्मृतियों को क्रियात्मक रूप में ढालता है, यह कविता हमारी ऐन्द्रिय सम्वेदनाओं में डूब जाती है और समय के थपेड़ों के बीच उसका टेक (चेतना पारीक कैसी हो?) मन के गहराइयों में पैठ जाता है। ‘चेतना पारीक’ की स्मृति कवि के यहाँ शमशेर की दूब जैसी अटकी हुई है जो बनलता सेन की तरह सुकून देती हुई पाठक मन को झंकृत करती है। महानगरीय जीवन के बीच प्रेम की ऐसी  अनुभूति विश्व कविता में शायद ही मिले।

 

‘इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह ख़ाली है

एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सुनी डाली है

महानगर के महाट्टहास में एक हंसी कम है

विराट् धक्-धक् में एक धड़कन कम है

कोरस में एक कंण्ठ कम है

तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ाली है

वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है /’[7]  

 


 

कविता क्या है? और कवि क्यों कविता लिखता है?, यह प्रश्न सदैव काव्य-चिंतन के केन्द्र में रहा है। समय-समय पर बहुतेरे विद्वानों ने इसको अलग-अलग रूप में व्याख्यायित किया, लेकिन अपनी कविताओं से काव्य-चिंतन के स्वरूप को बदल देने वाले कवि कम हुए हैं। जैसे कविता में ‘सत्-चित्-आनंद’ को मुक्तिबोध ने अपनी वैचारिक समझदारी से ‘सत्-चित्-वेदना’ में परिवर्तित कर आधुनिक यथार्थ के स्वरूप को अपनी फैंटेसी द्वारा चित्रित किया और सामंतवादी तथा पूंजीवादी व्यवस्था के क्रिया-व्यापार को पहचाना। यही सत्-चित्-वेदना ज्ञानेन्द्रपति के यहाँ अपने लोकोन्मुख सांस्कृतिक-बोध में आकर जन-मन-वेदना में बदल जाती है, जहाँ मनुष्य अपनी संघर्ष-गाथा में आदिम महक के साथ मौजूद है। ज्ञानेन्द्रपति की काव्य-यात्रा से गुजरते हुए यह महसूस होता है कि वे जनवादी पक्षधरता के साथ लोक-संकृति की अलख जगाने वाले आधुनिक कबीर हैं। उनकी कविअताओं में सत्ता की दमनात्मक प्रवृत्ति का निडरता पूर्वक विरोध, प्रेम की मानवीय अनुभूति, जनवादी और लोकतान्त्रिक व्यवस्था की पक्षधरता, खत्म हो रही लोक संस्कृति का संरक्षण आदि भाव प्रमुखता से मौजूद है। अंततः उनकी कविताओं को व्याख्यायित करती हुई एक कविता जो उन्होंने स्वयं लिखी है।

 

‘शब्दों में जो रोशनी है

जन-मन-वेदना में सनी है

होठों से ही नहीं कढ़ी

बात गहरी, हिरदै- छनी है।’[8]

 



संदर्भ 

 

[1] कवि ने कहा – ज्ञानेन्द्रपति – पृ. 7

[2] वही-पृ. 11

[3] वही

[4] संशयात्मा – ज्ञानेन्द्रपति (संग्रह के फ्लैप से)

[5] मुक्तिबोध रचनावली – सम्पा. नेमिचंद्र जैन

[6]  रीद्मस- कार्ल बुशर पु. (लोक संस्कृति आयाम एवम् परिप्रेक्ष्य- सम्पा। महाबीर अग्रवाल) से उद्धृत, पृ. 29

[7] कवि ने कहा – ज्ञानेन्द्रपति पृ. 13

[8] कविता भविता – ज्ञानेन्द्रपति, पृ. 67

 

 

 

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मेल- upjyoti22@gmailcom

 

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