विजय गौड़ का आलेख 'कल्पना का तार्किक कलन'
विजय गौड़ |
बोल्शेविक क्रान्ति दुनिया की अन्य क्रांतियों से इस मायने में भिन्न है कि वह प्रथम विश्व युद्ध के बीच ही रूस में घटित हुई थी। इसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा। कला का प्रायः हर क्षेत्र इससे प्रभावित हुआ। स्वाभाविक तौर पर हिन्दी कहानी भी इससे प्रभावित हुई। ठीक इसी समय हिन्दी कहानी एक नई करवट ले रही थी। वह दंत कथाओं और मिथकीय अवधारणाओं से बाहर निकल कर यथार्थ की पृष्ठभूमि पर खड़ा होना सीख रही थी। इस तरह हिन्दी कहानी अपनी यात्रा में आधुनिकता की तरफ कदम बढ़ा रही थी जो आगे चल कर हिन्दी कहानी को भी वैश्विक परिप्रेक्ष्य का आयाम प्रदान करने में समर्थ साबित हो सकी। युद्ध और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का असर भी हिन्दी कहानी पर स्पष्ट दिख रही थी। प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, उपेन्द्र नाथ अश्क, रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी', रघुवीर सहाय से होते हुए यह क्रम अल्पना मिश्र की कहानियों में युद्धजनित घटनाओं का यह क्रम स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इन कहानियों को इस क्रम में उल्लिखित करने का सर्वप्रथम श्रेय विजय गौड़ को है। विजय गौड़ खुद भी एक सुपरिचित कथाकार और उपन्यासकार हैं। इधर आलोचना के क्षेत्र में भी उन्होंने कुछ गम्भीर काम किये हैं। अनहद में कहानियों पर आलोचना की एक श्रृंखला नियमित रूप से प्रकाशित की जा रही है जिसकी जिम्मेदारी विजय गौड़ उठा रहे हैं। बोल्शेविक क्रान्ति के शताब्दी वर्ष पर अनहद का एक अंक 'बोल्शेविक क्रान्ति विशेषांक' के रूप में प्रकाशित हुआ था। विजय गौड़ का प्रस्तुत आलेख उस अंक में प्रकाशित हुआ था। आज पहली बार पर प्रस्तुत है विजय गौड़ का आलेख 'कल्पना का तार्किक कलन'।
कल्पना का तार्किक कलन
विजय गौड़
दूसरों का प्रिय बने रहने भर के लिए कुछ भी कहने और करने में नहीं, तार्किक आधार पर अपनी बात कहना और वैसी ही गतिविधियों में शामिल रहना ही आधुनिक होना है। आधुनिकता के इस विन्यास में ही अभिव्यक्ति की तार्किक जददोजहद भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण पाती है। दंत कथाओं एवं मिथकीय कथाओं की पुन: प्रस्तुति से खुद को बाहर निकालते हुए हिंदी कहानी ने भी अपनी यात्रा में आधुनिकता की शुरूआत ऐसे ही की। तिलस्म और अय्यारों के किस्सों की बजाय यथार्थ भरे घटनाक्रम आधुनिकता की पहचान बनने लगे। कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानियां इस कारण से भी हिंदी कहानी में आधुनिकता का प्रस्थान बिन्दु होने का गौरव संभाले हैं। दुनिया भर में आधुनिकता की यह शुरुआत 1917 की उस बोलशेविक क्रांति के साथ हुई जिसने कल्पना का भी तार्किक कलन (ऐल्गरिदम) तैयार किया। तार्किकता के उदघोष में पूर्व की जनवादी क्रांतियों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यह तथ्य है कि सामाजिक सुधारवादी नजरिया उनकी सीमा बना रहा, नैतिकता और आदर्श के स्तर पर कोई नया मॉडल विकसित करने में सक्षम नहीं हो पायीं। क्रांतियों के प्रभाव भी इसी कारण सीमित भूगोल तक रहे। बोलशेविक क्रांति की विशेषता है कि उसने मानवीय गतिविधि के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हुए नैतिकता और आदर्श का अपनी तरह से उत्खनन किया एवं स्थापना की। दुनिया के समस्त ज्ञान विज्ञान को सुव्यवस्थित तरह से परखते हुए सामंतवाद एवं पूंजीवाद के ढोंग और प्रतिक्रियावाद के विरूद्ध एक साथ संघर्ष के रास्ते का निर्माण करने का काम किया है। जनवादी मूल्यों की स्थापना में वर्गीय दृष्टिकोण एवं सत्ता पर बहुसंख्यक सर्वहारा के अधिकार की वकालत की और पूर्व की जनवादी क्रांतियों से निसृत होती नैतिकता को भी चुनौती दी है।
नैतिकता के निर्माण और स्थापना में एक लम्बे समय तक धर्म ने जिस तरह का सामाजिक ढांचा खड़ा किया, उसमें शासकीय प्रभुत्व से भरे कुलीन वर्ग की उत्पत्ति ही हुई। साथ ही समुचा जन गण मजबूर हुआ कि इस पृथ्वी पर मौजूद उपभोग की प्रत्येक वस्तु पर कुलीन वर्ग का ही प्रथमत: अधिकार स्वीकारे। इस बात का ध्यान रखते हुए भी कि दुख-दर्दो को भुलाने के लिए लम्बे समय से धर्म ही जन गण का सहारा बना हुआ है, बोलशेविक क्रांति के नायक लेनिन के यहां सबसे पहले वह धर्म ही संसार की सबसे घिनौनी अवधारणा के रूप में आया है। अपने साथियों को धर्म पर लगातार प्रहार करने की प्रेरणा वे देते रहे, ‘’जहां तक समाजवादी सर्वहारा पार्टी का प्रश्न है, धर्म एक व्यक्तिगत मामला नहीं है। हमारी पार्टी मजदूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले अग्रणी योद्धाओं की संस्था है। ऐसी संस्था धार्मिक विश्वासों के रूप में वर्ग चेतना के अभाव, अज्ञान अथवा रूढि़वाद के प्रति तटस्थ नहीं रह सकती है, न उसे रहना चाहिए। हम चर्च के पूर्ण विघटन की मांग करते हैं ताकि धार्मिक कोहरे के खिलाफ हम शुद्ध सैद्धांतिक और वैचारिक अस्त्रों से, अपने समाचार पत्रों और भाषणों के साधनों से संघर्ष कर सकें। लेकिन हमने अपनी संस्था, रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी की स्थापना ठीक ऐसे ही संघर्ष के लिए, मजदूरों के हर प्रकार के धार्मिक शोषण के विरूद्ध संघर्ष के लिए की है। और हमारे लिए वैचारिक संघर्ष केवल एक व्यक्तिगत मामला नहीं है, सारी पार्टी का, समस्त सर्वहारा का, मामला है।‘’[i] लेव तोलस्तोय के साहित्य का मूल्यांकन एवं आलोचना करते हुए उनके साहित्य में दो भिन्नताओं को चिह्नित करते हुए लेनिन लिखते हैं, ‘’एक तरफ अति गम्भीर यथार्थवाद है जो सब तरह के पाखण्ड के पर्दे फाड़ डालता है, दूसरी ओर संसार की सबसे घिनौनी वस्तु- धर्म का प्रचार किया गया।‘’[ii] ईश्वर की परिकल्पना के सवाल पर भी लेनिन की राय स्पष्ट रही कि उसकी उपस्थिति तो संदिग्ध ही है। कथाकार गोर्की को संबोधित पत्रों में गोर्की की आलोचना करते हुए ईश्वर के प्रति उनके झुकाव को ‘आत्मपरक शुभेच्छा’ ही कहा है।
बोलशेविक क्रांति, जिसने मजदूर वर्ग के हाथ में निर्णायक अधिकार दे कर आधुनिकता का वस्तुपरक वैज्ञानिक विस्तार किया, उस रोशनी में ही हिंदी कहानी में आधुनिकता को पहचानने की कोशिश ही इस आलेख का प्रस्थान बिन्दु है। समकालीन दुनिया की चुनौतियों की पहचान और उनसे निपटने के लिए सामूहिकता बोध की स्थापना में हिस्सेदार हो पाने की चेष्टा भी, संलग्न उददेश्य के तौर पर है। आधुनिकता को समझने की यह कोशिश कहानियों के विश्लेषण में इकहरे पाठ को आधार बनाने से बचते हुए ही की जा सकती है। आलेख में उन कहानियों के रास्ते ही अपनी स्थापनाओं का प्रयास है, जिनसे निसृत होती वैचारिकी के पक्ष को ‘किन्तु-परन्तु’ वाले भाषायी मुहावरे के सहारे संभालने की जरूरत न पड़े। कथाकार यशपाल की कहानी ‘दो दुनिया’ का यह अन्तिम हिस्सा शायद ज्यादा सटीक तरह से इसके लिखे जाने के कारणों को व्याख्यायित कर पाये, ‘’मैं स्वयं इस दुनिया से असंतुष्ट हूं और उस दुनिया का सपना देखता हूं, जिसमें मनुष्य को आत्मनिर्णय का अवसर और अधिकार हो ; परन्तु ऐसा कर सकने के लिए समाज के रक्त को मुनाफा बना कर चूस लेने वाले कीड़ों को दूर करना ही होगा। यह कीड़े समाज के शरीर को टाइफाइड, तपेदिक, कोढ़, पूंजीवाद या तानाशाही से ग्रस्त किये हैं परन्तु व्यक्तिगत रूप से मुक्ति चाहने वाले लोग, मेरे उस दुनिया के स्वप्न को हिंसा बता कर विरोध करते हैं। उनकी दृष्टि में उनका स्वार्थ ही सबसे बड़ा समाज-हित और न्याय है।‘’[iii]
यह निर्विवादित है कि बोलशेविक क्रान्ति ने सामाजिक संरचना में जो हलचलें पैदा की उसके प्रभाव वैश्विक स्तर पर प्रकट हुए। उन प्रभावों के ही प्रतिफल रहे कि राजनैतिक पार्टियों के साथ-साथ जनसंगठनों के गठन की प्रक्रिया भी आगे गढ़ीं। आधुनिकता के स्वीकार एवं व्यवहार में नैतिकता और प्रतिबद्धता के मानक के निर्माण का यह अहम चरण था। जनसंठनों ने तो इस जिम्मेदारी को अतिरिक्त रूप से अंगीकार किया कि चेतना के निर्माण की प्रक्रिया के लिए मानक स्तर पर सक्रियता बनाएं। भारतीय समाज और राजनीति भी ऐसे ही प्रभाव में आधुनिक होने की ओर अग्रसर हुए। लेकिन इस तथ्य की अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित भारतीय मानस, समाज में पहले से ही अभिन्न तरह से मौजूद रही, दया, करुणा की अवधारणा वाली नैतिकता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सका। ऐसा होने के कारणों को तलाशे तो दिखायी देगा, आजादी से पूर्व का भारतीय परिवेश पारम्परिक नैतिकता के प्रभाव में विकसित होते मध्य वर्ग के साथ था। लिहाजा आधुनिक चेतना को पूरी तरह से व्यवहार में आने तक एक स्वाभाविक जड़ता समाज में बनी हुई थी। आजादी के तराने के साथ परिस्थितियों में जो नया मोड़ आया, उसने मध्य वर्ग को भ्रमित ही किया, पूंजीवाद और सामजवाद के फर्क को पूरी तरह से समझने में असमर्थ हुआ। जबकि राष्ट्र का समूचा जन-गण मध्यवर्गीय मान्यताओं के पीछे आँख बंद करके बढ़ रहा था। पूंजीवादी दायरे में चुनावी प्रक्रिया वाला जो लोकतांत्रिक ढांचा खड़ा हुआ, उसने दलित शोषित वर्ग के लिए चंद सुविधाओं को जारी करते हुए समझौतापरस्ती के दर्शन के ही बीज बोये। साथ ही दया-करूणा का भारतीय दर्शन भी राजनैतिक संघर्षों को अपनी तरह से मोड़ देता रहा। हिंदी का रचनात्मक जगत, जिसका सबसे सक्रिय हिस्सा मध्य वर्ग के बीच से ही आता रहा, उसकी रचनाएं भी वही गान गाने लगीं। क्रांति से परहेज के साथ सर्वधर्म सम्भाव वाली धर्मनिरपेक्षता का एक ऐसा मॉडल तैयार किया गया जिसने तमाम रचनात्मक गतिविधियों को भी प्रभावित किया। बहुसंख्यक की साम्प्रदायिकता को निशाना बनाते हुए ही सामाजिक सौहाद्र का माहौल रचने के प्रयास होने लगे। गांधी का दर्शन जीवन व्यवहार बना रहा। फलस्वरूप पूंजी की गुलामी के लिए प्रेरित मन में भी धर्म के धागे से बुनी हुई चादर में लिपटी हिंसा ही दया करूण उपजाती रही। अवधारणा के स्तर पर वैश्विक उदात भाव लेकिन व्यवाहार के स्तर पर झूठी नैतिकता और आदर्श का बोलबाला ही मध्यवर्गीय जीवन शैली होता रहा। ईश्वर का करुणा निधान रूप इस दया करुणा में ही वास करता है। मार्क्सवादी विचारों पर यकीन के बावजूद ईश्वरीय विधान के उपक्रम को अपनाते रहना न सिर्फ गलत समझ को निजी तौर पर स्वीकारना है, अपितु अवैज्ञानिकता का सामाजिकीकरण करना रहा है। परिणामत: दक्षिणपंथी ताकते अपने सामाजिक विभेदकारी कुतर्कों के साथ सहानुभूति प्राप्त करते हुए लगातार ताकतवर होती रही।
गोर्की को लिखे गये लेनिन के पत्रों की वैचारिकी सिद्धांत और व्यवहार के अंतर्विरोधों को अलग-अलग करने में एक सहायक दस्तावेज है। उसके आलोक में देखें तो सर्वधर्म सम्भाव वाली भारतीय धर्मनिरपेक्षता भी इसीलिए एक ‘आत्मपरक शुभेच्छा ही है। ऐसी जो इस बात में संतोष किये रहना चाहती है कि बिना दूसरे के धर्म को ऊंचा नीचा मानते हुए हर कोई अपने-अपने धर्म में बना रहे, बेशक कूपमण्डूकता में डूबा हुआ। तेरा ईश्वर भी वही, मेरा अल्लाह भी वही, उसका वाहे गुरू और परमपिता भी वही। फिर आपस का झगड़ा क्यों, जब हम ‘उस’ एक ही संतान है तो? यह पूर्व में कही जा चुकी बात को दोहराना ही होगा कि सामाजिक विश्लेषण की सुसंगत, तथ्यात्मक एवं वैज्ञानिक समझ ने इस बात को स्वीकारा है कि धर्म को ‘व्यक्तिगत मामला है’, मान कर उसके विरुद्ध कोई ठोस रणनीति न बनाना कतई प्रगतिशील विचार नहीं है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप सर्वधर्म सम्भाव में इस तार्किक व्याख्या से किनारे कर लेता है, बल्कि व्यवहार में उस बात के विरुद्ध बना रहता है। सामाजिक राजनैतिक बदलाव के बुनियादी संघर्ष इस समझ के कारण भी आगे बढ़ने में उस गति को हासिल नहीं कर पाए जो अवाम के बीच सांगठनिक ताकत को बढ़ाने वाली हो गयी होती। स्वतंत्रता की परिभाषा का बाना पहन कर सर्वधर्म सम्भाव की वकालत करने वाले विचार के मूल में ज्यादा सुसांस्कृतिक, ज्यादा आधुनिक दिखने की ऐसी चातुरता निहित रही जो जातीय श्रेष्ठता के बोध से भरी थी। न दिखाते हुए भी नेतृत्वकारी स्थिति में बैठा उच्च वर्ग संगठन के आम कार्यकर्ता से श्रेष्ठ बना रहा और उस गैर जनतांत्रिकता को फैलने देता रहा जिसमें मुददों पर बहस की गुजांइश ही पैदा नहीं हो सकती थी। रिक्शे चलाने वाले, हल जोतने वाले, रेहड़ी खींचने वाले, कारखाने के मजदूर और दूसरे ऐसे ही जरुरी कामों में लगे रहने वाले साथी जो सामाजिक विसंगति के चलते बहुतायत में दलित जातियों से ही रहे, नेतृत्वकारी साथियों को कृपा बरसाने वालों की तरह ही मानते रहे। यहां तक कि अपने पेशेगत संगठनों के नेतृत्व भी उन्हें सौंपे नहीं गए। यह समझना मुश्किल नहीं कि व्यवहार की उपज में सिद्धांत से दूर हटते राजनैतिक माहौल से मुनाफाखोर पूंजी को भी अपनी ताकत के विस्तार में कहीं अड़चन नहीं दिखती है। साहित्य, जो पहले से ही उच्च वर्ग की पहुंच के दायरे में रहा, उन्हीं स्थितियों के साथ दया करूणा उपजाने वाली कथाओं के सहारे संवेदनशील बना रहा। यानी सर्वधर्म सम्भाव जहां एक ओर सामंतशाही के विरूद्ध उभार लेते नये पूंजीवादी को मुफीद लगता रहा, वहीं जाति श्रेष्ठता से भरे ब्राह्मणत्व को संरक्षित किए रहा। हिंसक धार्मिक उन्माद के खिलाफ भी कोई ठोस कार्रवाई करने में उसकी अक्षमता सर्वविदित है। विधर्मियों की सरेआम हत्या का ताण्डव, विभाजन की पृष्ठभूमि यूं ही नहीं बना और बाद के दौर में हिंसा के वार्षिक कत्लेआम से ले कर ऐतिहासिक ढांचे का ढहाया जाना और गोधरा-गुजरात हो जाना, सर्वधर्म सम्भाव वाली धर्मनिरपेक्षता के रहते ही होता रहा। यह तथ्य है कि नृशंसताओं के इस खेल के बावजूद जनता से ऐसी ताकतों को अलगाना ही मुश्किल नहीं हुआ बल्कि वे लोकप्रियता के नये नये स्तम्भों को छूते हुए सत्ता के शीर्ष में पहुंचने वाली हुई। हिंसक मंसूबों के साथ उनकी स्वीकार्यता का ग्राफ इतना तीव्र है कि खुलेआम विरोध करने की ताकत जुटाना भी आज एक कार्यभार हो गया। दूसरी ओर मध्य वर्गीय व्यवहार मुनाफाखोर पूंजी के हितों की हिफाजत में कानूनी होता हुआ है। मेहनतकश आवाम की तकलीफों को बढ़ाने में ही जन दुश्मनों के साथ उसका खिसकते जाना सरे आम है। वही राष्ट्रद्रोह एक नया पाठ रच रहा है। एक तरफ आध्यात्मिक बंधन की जकड़ और दूसरी ओर जीने के अवसरों का कम होते जाना। आत्महत्याओं के लिए मजबूर करती तथा निराशा एवं अवसाद उपजाती स्थितियों का कठिन समय चहुं ओर है। ऐसे में किसानों, मेनतकशों की हत्या और आत्महत्या के सवाल क्या सिर्फ साम्राज्यवादी मंसूबों की मुखालफत के जरिये संबोधित हो सकते है, यह विचारणीय प्रश्न है। पिछली सदी की, अस्सी के दशक के आस पास के दौर में, कितनी ही रचनाएं याद की जा सकती हैं जब साम्प्रदायिकता की मुखालफत में रक्त की लालिमा के प्रतीक को इस्तेमाल किया गया। मंचों पर धूम मचाती कवितानुमा अदाकारी परखनलियों में रखे हिंदु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई के रक्त के एक से रंग के खुलासा करते हुए साम्प्रदायिकता की मुखालफत का भाष्य हो कर ही प्रगतिशील बनी रही। साम्प्रदायिकता के प्रतिरोध में लिखी गई हिंदी कहानियों की एक लम्बी शृंखला है। उन पर आलोचनाओं का भी एक लम्बा सिलसिला रहा है। लेकिन धर्म को निशाने पर रखने की बजाय सर्वधर्म सम्भाव आलोचना के दायरे में दिखता नहीं और रचनाएं भी उसमें अपना मूल स्वर प्राप्त करती रही है।
जयशंकर प्रसाद के नैतिक गल्प हो, चाहे हिंदी कहानी में यथार्थवाद के प्रणेता प्रेमचंद का आदर्शवाद, उनकी परख करने में भी एक ही तरह की आलोचना दृष्टि प्रभावी रही है। जबकि प्रेमचंद की कहानियों में नैतिकता के सवाल आधुनिकता की राह पकड़ना चाहते रहे। उनकी कहानी ‘नया विवाह’ इस बात की स्पष्ट साक्ष्य है कि स्त्री को वस्तु समझने वाली सामंती नैतिकता से रचनाकार असहमत ही नहीं है, बल्कि उसको बदल देना चाहता है। बदलाव के उन तरीको में जो कुछ रचा गया, उसकी आलोचना की जाये तो ही दो भिन्न नैतिकताओं में स्पष्ट अंतर करना संभव होगा जो प्रेमचंद की रचनाओं में दिख जाती है। जिसका एक रूप पारम्परिक नैतिकता को आदर्श मानता है तो दूसरे में वही प्रश्नांकित हो जाती है। देख सकते हैं कि जय शंकर प्रसाद की कहानी ‘’बेड़ी’’ में उस मध्यवर्गीय नैतिकता का रूप किस तरह से कारूणिक हो कर प्रकट होता है।
''बाबूजी, एक पैसा!''
‘’मैं सुन कर चौंक पड़ा, कितनी कारुणिक आवाज थी। देखा तो एक 9-10 बरस का लडक़ा अन्धे की लाठी पकड़े खड़ा था। मैंने कहा- सूरदास, यह तुमको कहाँ से मिल गया?
‘’अन्धे को अन्धा न कह कर सूरदास के नाम से पुकारने की चाल मुझे भली लगी। इस सम्बोधन में उस दीन के अभाव की ओर सहानुभूति और सम्मान की भावना थी, व्यंग न था।‘’ [iv] जयशंकर प्रसाद की कहानियों में जो दार्शनिकता है, उसका पक्ष नवजागरणीय मूल्य, मान्यताओं को आत्मसात किये है। एक अन्य कहानी ‘’गूदड़ साईं’’ में उस जमाने की नैतिकता और उसको संवारते मध्य वर्ग को भी देखा जा सकता है। ‘’साईं वैरागी था,- माया नहीं, मोह नहीं। परन्तु कुछ दिनों से उसकी आदत पड़ गयी थी कि दोपहर को मोहन के घर जाना, अपने दो-तीन गन्दे गूदड़ यत्न से रख कर उन्हीं पर बैठ जाता और मोहन से बातें करता। जब कभी मोहन उसे गरीब और भिखमंगा जान कर माँ से अभिमान करके पिता की नजर बचा कर कुछ साग-रोटी ला कर दे देता, तब उस साईं के मुख पर पवित्र मैत्री के भावों का साम्राज्य हो जाता। गूदड़ साईं उस समय 10 बरस के बालक के समान अभिमान, सराहना और उलाहना के आदान-प्रदान के बाद उसे बड़े चाव से खा लेता; मोहन की दी हुई एक रोटी उसकी अक्षय-तृप्ति का कारण होती।‘’
एक दिन मोहन के पिता ने देख लिया। वह बहुत बिगड़े। वह थे कट्टर आर्यसमाजी, 'ढोंगी फकीरों पर उनकी साधारण और स्वाभाविक चिढ़ थी।' मोहन को डाँटा कि वह इन लोगों के साथ बातें न किया करे। साईं हँस पड़ा, चला गया।‘’ [v]
प्रेमचंद किस तरह की नैतिकता के साथ यथार्थवादी रास्ते पर बढ़ते हुए आधुनिकता के प्रणेता होते हैं और कहां आदर्श की स्थापना में पारम्परिक नैतिकता में अटक कर गंवई गढडे में फंस जाते हैं, उसको पहचानने के लिए दुनिया को बदलने की प्रेरणा भरे उन स्वरों को सुनना जरूरी है, जिनका आहवान रहा, ‘’भागो नहीं दुनिया को बदलो’’। बोलशेविक क्रांति का यही सबसे अहम सबक है। बदलाव की प्रक्रिया में चरणबद्ध विकास का सिद्धांत उसकी विशेषता है। इस तरह का उतावलापन भी नहीं, जैसा अज्ञेय की कहानी ‘द्रोही’ के इस अंश में दिखता है- ‘’अगर मैं एक दिन के लिए, कालिदास, या रवि ठाकुर या माइकेल एंजेलो, या शेषन्ना हो सकता, तो मुझे जितना आनन्द, जितना अभिमान होता, उतना एक समूचे राष्ट्र का विधाता हो कर भी नहीं हो सकता। परन्तु उस जीवन का, उस जीवन के सौ वर्षों का, मैं देश की सेवा में बिताए हुए एक क्षण के लिए प्रसन्नता से उत्सर्ग कर दूँगा, क्योंकि मुझे अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान है, मैं जानता हूँ कि एक दासताबद्ध देश को कवियों और कलाकारों की अपेक्षा योद्धाओं की अधिक आवश्यकता है...’’
अज्ञेय की एक अन्य कहानी ‘एक घंटे में’ में उस धैर्य को देखा जा सकता है, जिसके प्रभाव उल्लेखित की गई आधुनिकता में समा सकने वाले हैं। नैतिक मूल्यों की टकराहट इस कहानी में बार-बार उभरती है और इंकलाब को स्वीकारते हुए पाठक को लगातार परिष्कृत करती जाती है। एक सामान्यय पाठक कथानायिका रजनी के साथ-साथ अपने को वैचारिक रूप से परिष्कृत करते हुए कथा नायक प्रभाकर के वैचारिक पक्ष को स्वीकारने की ओर बढ सके, रचनाकार की मंशा एक दम स्पष्ट दिखती है। यानी इस तरह से देखें तो हिंदी कहानी में आधुनिकता की धारा दो उपधाराओं में बंटती हुई नजर आती है। एक गंवई आधुनिक और दूसरी को बिना किसी विशेषण के आधुनिक कहना ही उचित है। वृहद पैमाने में गंवई आधुनिक धारा ही विभिन्न कथा आंदोलनों के रूप में उल्लेखनीय बनी रही। कभी वह साठोत्तरी होती है तो कभी युवा, कभी नयी कहानी-नयी कहानी का राग अलापती है तो दूसरे ही पल शायद बिगड़े हुए ताल में अकहानी हो जाती है। जनवादी और प्रगतिशील कहलाने में तो उसकी पहचान इतनी गडबड़ होती रही है कि फीता, (?) के लिए उनके भेद को स्पष्ट करने वाला आलोचक समांतर-समांतर ही दौड़ता रहता है। जबकि पूरे दौर में विराजित गंवईपन एक ही तरह से हर जगह अटा रहा। किन्हीं दो रचनाकारों के रचना कर्म से ही नहीं, बल्कि विभिन्न समय अंतरालों में लिखी एक ही रचनाकार की रचनाओं से गुजरते हुए भी इसे परखा जा सकता है। ममता कालिया की कहानी ‘बोलने वाली औरत’ एक महत्वपूर्ण रचना है। आजाद भारत के बाद के दौर की कहानी। ध्यान रहे कि आजादी के संघर्ष में गंवई आधुनिकता ही आड़े रही जिसने पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर समा जाते हुए उसे ऐसी स्वीकार्यता प्रदान की कि संसदीय नियमावली का झुनझुना बजाना संभव हुआ है। गंवई आधुनिकता ने ही कानून के राज की ताकत स्थापित की। कहानी की नायिका शिखा स्थितियों की विकटता में भी बेबसी की शिकार नहीं होती, बल्कि दृढ़ता के साथ अपने को अभिव्यक्त करने का संकल्प लेती है। लेकिन यह देखना भी दिलचस्प है कि सामाजिक माहौल में बदलाव की लहर की अनुपस्थिति उसे एक समय में अख्तियार कर लिए गए तेवर से आगे नहीं जाने देती। इस कथा नायिका का विकास ही कथाकार ममता कालिया की ही हाल-हाल में प्रकाशित रचना ‘थोड़ा-सा प्रगतिशील’ में देखें तो देखा जा सकता है कि तीस एक वर्ष पहले रचनाकार जिस वैचारिकी के साथ खड़ी थी उसमें खड़े रहने में भी उसके पांव लड़खड़ाने लगे हैं। उस दौर का पति कपिल चाहता था कि शिखा एक अनुकूल पत्नी की तरह रूटीन का बड़ा हिस्सा अपने ऊपर ओढ़ ले। जिसका वह उस समय अपने तरह से प्रतिकार करती रही। लेकिन ‘थोड़ा-सा प्रगतिशील’ में रूपांतरित हो कर जब वही नायिका चेतना के रूप में प्रकट होती है तो उस रूटीन का हिस्सा हो चुकी है। शिखा से चेतना तक के रूपांतरण में एक ‘भली गृहणी’ की जो तस्वीर कहानी में उभरती है उसमें पहली कहानी में कपिल के नाम से पुकारा जा रहा पति विनीत के रूप में इतनी ज्यादा सहूलियत पा चुका है कि अब उसे यह आरोप लगाने की भी जरूरत नहीं, ‘’पहले सिर्फ मुझे सताती थी, अब बच्चों का भी शिकार करने लगी है‘’। लेकिन विनीत हो चाहे कपिल, उनके भीतर का पुरूष और उस पुरूष का मन तो आशंका में ही है। कहीं चेतना में बोलने वाली औरत फिर से न प्रवेश कर रही हो। वह उसे तौलना चाहता है। क्योंकि यह भी जानता है कि जिंदगी की दौड़ में चेतना उसे बहुत पीछे छोड़ सकती है। पर उस दौड़ के अंत में तो रचनाकार का मानस नितांत अकेलेपन की दासता को ही स्त्री की विमुक्ति मान रहा है। ’फेसबुक पर चेतना के हजारों दोस्त बन गये। वह अब घर ही घर में एकदम मगन रहती। वह रात में जाग कर इंटरनेट पर कुछ न कुछ पढ़ती रहती। यद्यपि ‘थोड़ा-सा प्रगतिशील’ कहानी, ‘बोलने वाली औरत’ से जुदा कहानी है लेकिन दोनों ही कहानियों को रचने वाला मानस एक ही रचनाकार है। दोनों ही कहानियों का संयुक्त पाठ रचनाकार के विकास बिन्दु का विश्लेषण करने के साथ-साथ दौर विशेष में ही छाती रही उस गंवई आधुनिकता की तस्वीर भी है जिसमें मुक्ति का गान आभासीय दुनिया के बीच स्वतंत्र विचरने तक सीमित हो जाता है।
कथाकार दूधनाथ सिंह की कहानी ‘’अम्मांएं’’ के जरिये बात करें तो कहा जा सकता है कि कहानी में समकालीन दौर की विसंगतियां और उस जटिल यथार्थ को बहुत ही खूबसूरत तरह से पकड़ती है। लेकिन जनगणना के विवरणों के साथ सुव्यवस्थित होना चाहती सत्ता के साथ मुठभेड़ करता यथार्थ यहां भी उस दृश्य के साथ सामने आता है जिसे संबोधित करने का सलीका दिखता नहीं। इस सलीके के अभाव में ही आधुनिकता के विस्तार में अड़चन भी आई। एक अन्य कहानी है कथाकार दूध नाथ सिंह की ‘’नपनी’’। कहानी उन स्थितियों को व्यंग्य के निशाने पर रख कर रची गई है जिसमें सामंती फूहड़पन अपनी ठसक के साथ पेश आता है। वही ठसक जिसमें जाति से दलित, लतियाये जाते हैं, जिसमें सामंती पौरूष हर स्त्री से बलवान नजर आता है और धार्मिक रीति रिवाजों और परम्पराओं का जो जब चाहे तब अपने पक्ष में इस्तेमाल करती है। अफसर पुत्र के लिए दुल्हन खोजने निकले पिता के व्यवहार में वही ठसक है। उपधिया जी लड़के के पिता के ‘दोस्त’ हैं। उपधिया जी की लड़की को नपनी की उपाधि से विभूषित किया जा रहा है। वही नपनी जो संभावित दुल्हन की कद काठी और रूप-रंग और बनावट को नापने के लिए पैमाना बना कर साथ ले जायी जा रही है। कामरेड पिता की दुल्हन लड़की को लड़के के पिता की ठसक का जवाब देने के लिए नपनी ही प्रेरित करती है। प्रेरित हुई दुल्हन लड़की 'बिलरंखी' हो जाती है, और बेटे के लिए अनूठी दुल्हन खोजने निकले पिता की हरकतों पर फिरंट हो कर उनके गाल जड़ देती है (फिरंट हो कर गाल पर तमाचा) । यूं यह कहानी स्त्री विमर्श के दायरे को विस्तार देने के लिए लिखी गई हो, ऐसा लगता नहीं। लेकिन उस स्वर में भी रचनाकार के भीतर के प्रगतिशीलपन का भाष्य बन रही है। लेकिन कहानी के दूसरे विवरण, जो उस प्रगतिशीलता के दायरे में आने ही चाहिए थे, संबोधित हुए बिना ही रह जाते हैं। मसलन, दुल्हन के पिता जो कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि नेतृत्वकारी साथी हैं, आखिर उनकी कौन सी मजबूरी है कि उन्हें अपनी ‘खूब लड़ी मरदानी’ वाली छवि समेटी लड़की के लिए वर खोजते हुए ऐसे व्यक्ति से सम्पर्क करना पडा जिसके लिए स्त्री वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं। पक्ष में बहुत से कुतर्क हो सकते हैं कि कामरेड पिता को तो परिवार के दूसरे लोगों की निजी राय का भी सम्मान करना था। इन दूसरे लोगों में सबसे पहले पत्नी, उसके बाद बेटी और दूसरे नाते रिश्तेदार। फिर वही सवाल, कामरेड पिता के विचार में यह छूट लेता हुआ तत्व कौन सा था जो कुंडलीनुमा विज्ञान के सहारे बेटी का प्रोफाइल उसके जन्म के समय ही बना बैठा है। विवाह के लिए कुंडली मिलायी गयी, यह कहानी में अवांतर रूप से ही दर्ज है। कुल मिला कर आशय यह कि कहानी जिन स्थितियों पर व्यंग्य कर रही हैं निश्चित ही वे व्यंग्य के लायक हैं, लेकिन मात्र उन पर ही व्यंग्य कस कर प्रगतिशीलता की घोषणा करती वह तथाकथित राजनैतिक नैतिकता व्यंग्य के निशाने पर क्यों नहीं आ पाती, जिसके व्यवहार में वैसा ही दुहरापन बचा रहता है ? हिंदी कहानी में ऐसी दुहरी नैतिकता पर प्रहार बहुत ही सीमित हैं।
संघर्ष की स्थितियों से पलायन करते मध्य वर्ग को निशाना बनाती कहानियों का भी एक परिदृश्य हिंदी कहानी का स्वरूप तय करता रहा है, लेकिन गंवईपन में उनकी आधुनिकता भी संदिग्ध रही। पलायन की स्थितियों का वस्तुपरक विश्लेषण करने को प्रेरित करती रचनओं की बजाय, निराश और हताशा पैदा करते उनके पाठ ही ज्यादतर हावी रहे हैं। रचनाकारों के मनोगत आग्रह ही उनमें हावी होते हुए दिखते हैं। दरअसल गंवई आधुनिकता के साथ बनी रही हिंदी कहानी राजनीति से मुंह मोड़ना चाहती रही। यथार्थ की विसंगतियों की तार्किक तारतम्यता की बजाय संवेदना का जागरण उसका प्राथमिक केन्द्र बना रहा। कथाकार भैरव प्रसाद गुप्त की एक ऐसी ही कहानी है ‘हड़ताल’। हड़ताल की सफलता पर खुश होता कथा नायक उस वक्त मृत्यु को प्राप्त होता हुआ है जब वह हड़ताल को विफल कर दिये जाने वाले षड़यंत्र से परिचित हो जाता है। इस तरह की कहानियों को जनवादी कहानी के नाम से पुकारा जाना और इन्हें बोलशेविक प्रभाव में लिखा गया मानना कतई उचित नहीं। जबकि यह तथ्य है कि वामपंथी रुझान वाले कथाकारों ने ऐसी कहानियों की भी रचना की है। ‘वसुधा’ के अंक जून-जनवरी 2015 में प्रकाशित कैलास वनवासी की कहानी, ‘बस के खेल और चार्ली चैप्लिन’ एक ऐसी ही कहानी के रूप में संदर्भित की जा सकती है। कहानी का पाठ बताता है कि वास्तविक दुश्मन की पहचान तक नहीं पहुंच पाने वाले एक रचनाकार का अनजानापन कैसे झूठे शत्रु गढ लेता है। झूठे दुश्मनों के तौर पर स्कूल की मास्टरनियां, वकील की तरह का कोट पहना एक व्यक्ति और ऐसे ही रोजगार एवं व्यवसाय के साथ निम्न मध्यवर्गीय स्थितियों में पहुंचे तबके के कुछ लोग। पेशेगत रूप से उच्च नजर आने वाले ये लोग भी ठसाठस भरी उस बस में ही रोज की यात्रा करने को मजबूर हैं जिसमें कथाकार के प्रिय पात्रों वाले सकुचाए, शर्माये बच्चे। वह एक ऐसा परिवार है जिसमें चार लोग हैं- पति, पत्नी और दो छोटे बच्चे – एक साढ़े-तीन साल का लड़का और उससे बमुश्किल एकाध साल बड़ी लड़की। बस से वे आगे रेलवे स्टेशन जा रहे हैं। वहां से फिर अपने किसी गंतव्य की ओर- टाटा, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद, हैदराबाद, श्रीनगर, पठानकोट, आदि आदि। कहानीकार अपने प्रिय पात्रों की तकलीफों के साथ है। उनके जीवन की उस त्रासदी के साथ, जिसकी झलक एक ठसा-ठस भरी भीड़ में टपरे, संदूक और उनमें मौजूद गिरस्थी के साथ पूरे परिवार को ही पलायन करने को मजबूर करती हुई है। कहानी का नैरेटर पात्र अपनी रोज की यात्रा में गांव से शहर-दुर्ग लौटता हुआ है। दिसम्बर की किसी सांझ के नर्म सिंदूरी आलोक में रास्ते के किनारे बसे गांवों के उल्लास को देखते हुए की जाने वाली अपनी रोज की यात्राओं में पिछले कुछ दिनों से कुछ नये ही अनुभव से गुजर रहा है। बस में चढ़ते ही उसका वास्ता सहसा बदल जा रही दुनिया से पड़ रहा है।
इस सहसा बदल रही दुनिया के कारण रोज गांव से शहर लगभग 36 किमी की यात्रा के बाद अपने अपने पेशेगत ठिकानों में नौकरी बजाने वाले बस के यात्री अपनी तकलीफों को कुछ ज्यादा बढ़ा हुआ महसूस करने लगे हैं। उन्हें ही नैरेटर माल-असबाब के साथ बस में ठुंस जाने वालों का दुश्मन मान रहा है। क्योंकि वे ही उन ‘प्रिय पात्रों’ को हिकारत की नजर से देखने लगे हैं। कहानी के विवरणों में ही दर्ज है, बस की दिशा गांव से शहर की ओर है। इसलिए यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि रोज लगभग 72 घंटे की यात्रा के बाद घर से अपने कार्यस्थल आने जाने वाले लोगों का रहन-सहन और उनका आर्थिक ढांचा और अपने ही पेशे में उनकी वर्गीय हैसियत क्या हो सकती है। यूं कहानी में भी वह मौजूद है, ‘’ बस में उस दौर के कुलीन लोग सवार हैं- उद्योगपति, अफसर, व्यवसायी या जमींदार। कोट पहने मोटी-मोटी मूंछ वाले रौबदार लोग। और बहुत कीमती विक्टोरियन रेशमी घरारेदार गाउन पहनी मोटी स्त्रियां। सब उसे बुरी तरह से दुत्कार-फटकार रहे हैं,..’’[vi]
स्पष्ट है कि लेखक मध्य वर्ग के भीतर व्याप्त उस लालसा को पकड़ पाने में चूक रहा है जो पेशेगत कारणों से उनके भीतर शासकीय रूआब बनी रहती है। न ही उनके अपने अन्तरविरोधों में रहने वाले उस ढुलमुल व्यवहार को समझना चाहता है जिसके आधार पर इंकलाब की मोर्चे बंदी में इस वर्ग के प्रगतिशील खेमे पर भरोसा किया जा सकता है। लेखक के नैरेटर पात्र ने तो अवाम के दुश्मनों का ढूंढ लिया है, वे वकील, अघ्यापक और दूसरे ऐसे ही पेशों के लोग हैं। बगल की सीट वाली लड़की जो स्कूल टीचर है और जिसने बच्चे को अपने साथ बैठा लेने में एतराज किया था। उसके दुश्मन होने का सबूत है भी नैरेटर को मिल गया है कि वह अपने गेम में फिर उसी तरह मगन हो जाती है जैसे पहले थी। बच्चा अपनी भोली आंखें से फिर उसके मोबाइल स्क्रीन पर हो रहे कूद-फांद को देख रहा है और दृश्य कुछ इस तरह फ्रिज होता है कि मजूर पिता को अपने बेटे का दिल बहलाने के लिए कहना पड़ रहा है- ‘’अरे, देख तो बेटा---मेडम हा का खेलत है।‘’ इस फ्रिज होते हुए दृश्य में बच्चे के चेहरे पर तो खुश होती हुई मुस्कराहट उभरती है लेकिन उस उभरती हुई मुस्कराहट में ही कहानी उस गंवई आधुनिकता का बयान हो जाती है जो अवाम के वास्तविक दुश्मनों को छुपा देती है।
यूं तो ऐसी कहानियों के मंतव्य सद-इच्छाओं वाले हैं। लेकिन यथार्थ को वस्तुनिष्ठता के बजाय मनोगत आग्रहों के सहारे पकड़ते हैं। फिर भी गर्व करने को उनमें बहुत से तत्व है जिनसे उनकी प्रगतिशीलता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। जातिविभेद, लैंगिक विभेद, भाषायी एवं क्षेत्रीय विभेद के प्रति वहां स्पष्ट नकार है। हिंसा की राजनीति का प्रतिकार और मेहनतकश अवाम के दुख-दर्दों का चिटठा होना उनका अहम पक्ष है। माना जा सकता है कि आधुनिक होने की चाह उनमें बनी रहती है। उस चाह में ही निर्द्वंद हो कर किसी भी सत्ता का विपक्ष बने रहना भी वहां दिखायी देता रहता है। सवाल है कि जब गंवई आधुनिकपन भी प्रगतिशील चेतना का वाहक रहा है तो आधुनिकता को पहचानने की ललक कहीं अनावश्यक जबरदस्ती तो नहीं ?
उपरोक्त सवाल का कोई भी जवाब तब तक झूठी सफाई बना रहेगा जब तक बोलशेविक नैतिकता को न खंगाला जाए। बोलशेविक क्रांति का मंतव्य किसी भी किस्म की शाश्वत नैतिकता से स्पष्ट इंकार था, एवं इस बात को पुष्ट करना हुआ कि नैतिकता का भी आधार वर्गीय होता है। उसे वर्गीय दृष्टिकोण से ही परिभाषित किया जा सकता है। यह भी कि नैतिकता द्वारा ही मानव समाज ऊँचा उठता है और श्रम के शोषण से मुक्त होता है। नैतिकता के सवाल पर बोलशेविक क्रांति के नेता लेनिन की स्पष्ट राय रही, ‘’किसी कम्यूनिस्ट के लिए नैतिकता शोषकों के विरूद्ध सचेत जनसंघर्ष और उसके संगठित अनुशासन में ही निहित है।‘’[vii] लेनिन ने नैतिकता के साम्यवादी दर्शन को सर्वोपरी माना। अपनी बात को स्पष्ट तरह से रखते हुए ही वे ‘पुरोहितवाद के चाटुकार स्नातकों’ से सावधान रहने को आगाह करते रहे, ‘’चाहे वे लोग अधिकृत विज्ञान के प्रतिनिधि के तौर पर काम करें या अपने आपको स्वतंत्र रूप से प्रचार कार्य करने वाले ‘लोकतंत्र वामपंथी अथवा सैद्धान्तिक समाजवादी’ ही क्यों न रहें।‘’[viii]
लेनिन के नेतृत्व में सर्वहारा के अधिनायकवाद का आगाज करती बोलशेविक क्रांति ने इस बात को स्थापित किया कि कोई भी अवधारणा वस्तु जगत से निरपेक्ष हो कर तार्किक निष्पत्तियों तक पहुंचने में सहायक नहीं होती है। भौतिक जगत से कटे हुए विचार के कारण ही अवैज्ञानिकता की धूल वातावरण को धुंधला किये रहती है। साथ ही यह समझ भी दी कि इस धूल धक्क्ड़ को छांट कर, इतिहास, वर्तमान और भविष्य, यानी काल की सतत गति के साथ जारी दुनियावी गतिविधियों, को विश्लेषित कर पाने की समझ ही, आधुनिकता है। स्पष्ट है कि रचनाओं में बोलशेविक क्रांति के प्रभावों की पहचान उनके तार्किक पाठ से दिखाई देती आधुनिकता को पहचानते हुए ही संभव हो सकती है। यह बात हिंदी कहानियों में दिखायी देती आधुनिकता के मूल्यांकन के लिए भी उतनी ही सही है। यूं भी लिखी या सुनायी गई किसी भी कहानी का एक सार तो घटना, पात्र, भाषा और शिल्प की जुदा-जुदा व्याख्या नहीं ही हो सकता है। कहानी तो अपने इन घटकों की अभिव्यक्ति से प्रकट होते हुए समग्र प्रभाव के बाद ही पूर्ण होती है। एक तार्किक पाठ तो कथा-घटकों के साथ व्यक्त होती स्थितियों से गुजर कर ही तैयार होता है। लेखकीय वैचारिकी भी तो अव्यक्त रह जाने के बावजूद प्रकट हो जाने वाले उस पाठ से ही दिखायी दे सकती है। कथाकार यशपाल की कहानी ‘डायन’ और दशकों बाद उसी तरह की पृष्ठभूमि में लिखी कथाकार विद्या सागर नौटियाल की कहानी ‘फट जा पंचधार’ का पाठ एक साथ करें या अलग-अलग, दोनों में ही बहुपति विवाह की सामंती नैतिकता का प्रतिकार मुख्य स्वर बना रहता है। दोनों कहानियों के विस्तार में जाने की बजाय उनका जिक्र इतने भर के लिए ही कि लगभग चार दशकों के अंतराल पर लिखी दोनों ही कहानियों में घटनाक्रम जिस पृष्ठभूमि की बात करता है, वह एक सा ही क्यों दिखता है। क्या इसे मुख्य धारा के जन जीवन से भिन्न समाज की विशिष्टता मान लिया जाये या फिर इनके हवाले से मुख्यधारा के समाज में व्याप्त रही उस गंवई आधुनिकता को परखा जाए जो दिखावे के आधुनिकपन में नितांत एकांगी बनी रही। अपने आधुनिकपन की साज-संभाल में इस मुख्यधारा का लक्ष्य सिर्फ आधुनिक किस्म के तकनीकी उपयोग के साथ उपभोक्तवादी मूल्य की स्थापना एवं सृजन ही होता रहा। दूसरे जनसमाज को प्रभावित कर पाने और उन्हें अपने जीवन व्यवहार को बदल सकने की प्रेरणा परावर्तित कर सकने की क्षमता तक हासिल करने में वह अक्षम साबित हुआ। दोनों कहानियों में जो अंतर दिखता है वह उनके रचाव भर पर से परिभाषित हो पाता है। नैटियाल जी की कहानी ज्यादा सुघड़ शिल्प में है। शिल्प की यह सुघड़ता स्त्री विमर्श की आहट को भी समेट लेना चाहती है। साथ ही संवेदना के जागरण का अतिरिक्त भार उठाये हुए भी है। यशपाल की कहानी ‘डायन’ सचेत तटस्थता में स्थितियों का बयान करते हुए है सामूहिक विमर्श का वितान रचने की चेष्टा होती दिखती है। हाल के रचनात्मक परिदृश्य में प्रेम एक प्रमुख विषय के तौर पर उभरा है। प्रेम की परिभाषा गढ़ती कथाकार रमेश उपाध्याय की कहानी ‘प्रेम के पाठ’ इसीलिए ध्यान खींचती है कि गंवई मिजाज में प्रेम का उथलापन भी अच्छी खासी जगह पाता रहा है। ‘प्रेम के पाठ’ का स्मरण भी कि इससे लगभग पचास दशक पहले लिखी यशपाल की कहानी ‘होली नहीं खेलता’ की याद को ताजा कर देती है। कथाकार यशपाल को भी प्रेम को परिभाषित करने की जरूरत क्यों हुई होगी, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं। इन कहानियों के पाठ काफी हद तक तय पाठ हैं। इसलिए उनको समझना आसान है।
भुवनेश्वर की कहानी ‘भेडिया’ का पाठ वैसा तय पाठ नहीं जैसा पूर्व उल्लेखित कहानियों का दिखता है। लेकिन अपने हर पाठ में वह बोलशेविक क्रांति के उस उजले पक्ष को ही उजागर करती है जिसमें अंत तक संघर्ष करते हुए भेडि़यों के गोल से निकलने के लिए आत्मोत्सर्ग कर देने वाला बलिदानी का भाव प्रबल होता है। चाँदी की नथनी, नये जूतों की सार संभाल में उस प्रतिकात्मकता को देखा जा सकता है जो बोलशेविक इंकलाब से कुछ माह पहले घटे घटनाक्रम में हासिल की गयी विजय है - वर्ष 2017 के फरवरी माह में मेंसेविक जार को हटा कर सत्ता पर कायम हो चुके हैं लेकिन साम्राज्यवादी युद्ध में बने मित्र खेमे के साथ बने रहते हुए अपने निम्न पूंजीवादी ख्यालों को जारी रखते हैं। जिसका विरोध ही बोलशेविक विरोध है। मजदूर वर्ग की सत्ता का वह आखिरी चरण लेनिन के नेतृत्व में उनवान चढ़ता है जो पूंजीवादी लचर तंत्र को पूरी तरह से ध्वस्त कर देता है। युद्ध का विरोध और मानवीयता की रक्षा का गान गाना बोलशेविक क्रांति ने ही सिखाया था। भुवनेश्वर की एक छोटी सी कहानी ‘लड़ाई’ जिस तीखे तरह से युद्ध के सवाल पर इस तरह के संकेत छोड़ती है, वह बोलशेविकों के उस पक्ष का समर्थन है जिसके चलते क्रांति अपने अन्तिम चरण तक पहुंची और सत्ता को निम्न पूंजीवादी मेंशेविकों से मजदूर वर्ग के हाथों में हस्तांतरित करने का रास्ता सुगम हुआ। कहानी का एक पात्र, छात्र, अपने सहयात्री सैनिक, जो युद्ध अनुभव के गर्व से भरा है, से सवाल करता है, ‘’ स्टूडेंट ने जोर से कहा - ’’लेकिन तुम किसलिए लड़े थे, तुम्हें क्या पल्ले पड़ा, चमकीले बटन, मुर्दे के तन से उतारी हुई वर्दियाँ, गरमी, सूजाकवाली बदचलन नर्सें?’’ ... सोल्जर (डिब्बे में फीकी नीली रोशनी हो गयी थी) जोर से बोलकर प्रतिवाद कर रहा था - जर्मन हस्पताल, खाइयाँ... इंग्रेज तो भूलनेवाले ठहरे...’’ यह देखना दिलचस्प है कि सैनिक स्टूडेंट के संवाद से विवाद में जाने की बजाय उसके पक्ष में जाता हुआ। कहानी का आगे का विवरण इस बात का संकेत है कि वह सैनिक के बिस्तर में ही उसके साथ सिगरेट सूतता रहा।
‘’ डिब्बे में तीखी गरम रोशनी थी, खद्दरपोश उतर चुका था, महिला और उसके पति सो रहे थे, स्टूडेंट वैसे ही धुएँ के लच्छे बना रहा था। लड़का सोल्जर के बिस्तरे पर बैठा था, उसने जले हुए सिगरेट जमा किए थे। वह उन्हें गिन रहा था। एक, दो, तीन... पाँच।‘’ बोशेविक क्रांति ने उम्मीदों से भरा भविष्य दिया। जिसमें तर्क और ज्ञान के उदय की संभावना रचनाकारों को प्रेरित करने वाली थी। वे अपने भीतर के उदगारों में कथाओं का सृजन करते नजर आते हैं। सौन्दर्यबोध कथारस की बजाय उस कथा वस्तु में जीवन्त होता हुआ था जो सुंदर भविष्य को गढ़ देना चाहता था।
हिंदी कहानियों में प्रेमचंद के बाद, और उनसे भी ज्यादा तीव्र तरह से यथार्थ को प्रस्तुत करने में जददोजहद ज्यादा तीव्र है, उन पर बात हो तो कहा जा सकता है कि यशपाल, भुवनेश्वर, रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय की कहानियां हिन्दी कहानी में आधुनिकता का पड़ाव बनती दिखती है। दुनियावी बदलाव की वे जददोहजद जो माहौल को जनतांत्रिक बनाने में सक्षम हुई हैं और आगे भी होती रहेंगी, इन रचनाकारों की कहानियों में विस्तार से जगह पाती हैं। भावुकता पर लगाम लगाने की जो सीख क्रांति ने दी, वह इन रचनाकरों के रचनाओं में साफ दिखती है। भुवनेश्वर एवं यशपाल की कहानियां तो भावुकता को छूने से भी परहेज करती हुई ही दिखती हैं। दोनों ही रचनाकारों ने क्रांति के इस दर्शन को आत्मसात किया और अपने रचना कर्म में ढाला। भावनाओं को तटस्थ तरह से रखने का अंदाज ही आगे के दौर में एक हद तक रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ की कहानियों की विशेषता बनता है। भावुकता यहां भी शर्मा के मुंह ढांप ही लेती है। भावुकता से छलांग लगाने की कोशिश में ही मुक्तिबोध यथार्थ को लांघकर फैंटेसी में प्रवेश करते हैं और रघुवीर सहाय पूरे मध्य वर्ग पर हंसते, किलस्ते नजर आते हैं। फेंटेसी में मुक्तिबोध की छलांग[ix], हिंदी में छाती जा रही संवेदनशीलता के घटाटोप को ही भेदती है और रघुवीर सहाय की चिड़चिड़ाहट सामूहिकता की चिंता बनना चाहती है। संवेदनशीलता का आवरण ओढ़ कर बनी रहने वाली गंवई आधुनिकता पर उसकी नाराजगी यूं ही नहीं है। मुक्तिबोध के रास्ते आधुनिकता का सफर तय करती हिन्दी कहानी जहां पर ठहरती हुई सी दिख जाती रही, रघुवीर सहाय की कहानियों में वे उन साफ इरादों के साथ प्रकट होती है, जिसमें जारी मध्य वर्गीय गतिविधियों का संजाल हर स्तर पर घृणा किये जाने योग्य दिखता है। लेकिन इस घृणा के प्रकटीकरण को मध्य वर्ग को ही दुश्मन मानने की भूल, गलती नहीं की जा सकती। बदलाव की संभावना में वहां साफ-साफ इशारे हों। रघुवीर सहाय की कहानियों को शिल्प और भाषा की कसावट का नमूना भर कह कर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। दरअसल शिल्प और बनावट की कसावट तो उनकी कहानियों में उस कथ्य में से उपज रही है जो बार-बार खोले जाते गलत दरवाजे के साथ सुनायी देती आवाज है कि ‘रास्ता इधर है’। रघुवीर सहाय की कहानी का यह शीर्षक मात्र एक कहानी भर का शीर्षक नहीं है बल्कि आधुनिकता की भटकती राह में बार -बार उठती हुई आवाज है। ऐसी कहानियां ही गवाह हैं कि आधुनिक हिंदी कहानी अपने समय की विसंगतियों को देखने में सक्षम होना चाहती रही है और साथ ही इंक्लाबी चेतना के विकास के लिए अपनी जिम्मेदारी तय करना चाहती रही है। वर्गीय मोर्चे की जरूरत को स्वीकारते हुए उनमें शत्रु और मित्र की पहचान करने के रास्तों को सुगम बनाने की चेष्टा दिखायी देती है। कथाकार रमा प्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ की ऐसी ही एक कहानी ‘आठ साथी’ के विवरण को यहां रखना उचित लग रहा है, ‘’किसान के दो बेटे- एक सिपाही और दूसरा रिक्शे वाला। एक सड़ी-गली हुकूमत की रक्षा करने का ढोंग रचता है। दूसरा दिन भर रिक्शे पर सेठ, बाबू तथा और सवारियों को ढोता है और फिर पुलिस के चंगुल में फंसता है। हुकूमत सुना कि गोरी से काली हो गई है। अब पुलिस अंग्रेज के गुणगान न गा कर, गांधी जी की दुहाई देती है।‘’ [x] कह सकते हैं कि गहन संवेदना से भरी आधुनिकता का ताना-बाना जिन रास्तों से हो कर गुजरता है, उल्लेखित रचनाकारों की कहानियां उसको विस्तार देने में सहायक है। हिंदी में लिखी गई अभी तक की कहानियों में आधुनिकता का रास्ता सबसे अधिक चौड़ा इन रचनाकारों की कहानियों में ही नजर आता है। थोड़ा कम चौड़ा और साथ ही कई दूसरे रास्तों की और निकलती शाखाओं वाले रास्ते पर अज्ञेय, मोहन राकेश, ज्ञान रंजन, भैरव प्रसाद गुप्त, काशीनाथ सिंह, ममता कालिया, हरिचरण प्रकाश, योगेन्द्र आहूजा आदि कई रचनाकार नजर आते हैं। सबसे युवा पीढ़ी में अल्पना मिश्र की कहानियों में उसकी रेखा थोड़ा गहरी होती हुई है, लेकिन माहौल में मौजूद तेज रफ्तार वाली भ्रष्ट आधुनिता के प्रभाव भी उनके यहां कई बार अपना असर दिखा देते है।
आपसी बातचीत में बहुत से ‘प्रबुद्ध नागरिकों’ के यह तर्क सुने जा सकते हैं ‘पहले हमें ही अपनी मानसिकता को बदलना होगा, तभी कोई सामाजिक बदलाव संभव हो सकता है।‘ सामाजिक बदलाव के प्रति बिखरी-बिखरी यह समझ उस नैतिकता से प्रभावित है जिसमें ‘भले भले बने रहने और दिखने की मध्यवर्गीय मानसिकता का वह दार्शनिक पक्ष ही हावी है जिसका विकास पारम्परिक नैतिकता में होता है। दिलचस्प है कि ऐसे तर्कों की हिमायत बहुधा वैज्ञानिक अवधारणाओं को मानने वाले बौद्धिकों को भी करते हुए पा सकते हैं। दिक्कत यह है कि दुनिया की खुशहाली की चिंताएं यहां स्वत: मौजूद होती हैं। साथ ही एक तरह से नैतिक, आदर्शवादी और ईमानदार बने रहने का उपक्रम भी बचा रहता है। जिसके कारण सीधे विरोध की स्थिति बन नहीं पाती। कहानी में आधुनिक चेतना के प्रणेता यशपाल ऐसी स्थितियों को निशाने पर रखते हैं और इस तरह विचार के पीछे मौजूद उस दर्शन पर वार करते हैं जिसका छुपा हुआ एजेण्डा व्यक्ति को समाज से काट कर देखने पर निर्भर करता है और जिसके प्रभाव, बेशक अनजाने में ही, प्रगतिशील धारा में भी घर करने लगते हैं। ‘दो मुंह की बात’ यशपाल की ऐसी कहानी है। कहानी के संकेत पारम्परिक नैतिकता को इस रूप में भी प्रश्नांकित करते हुए हैं कि कब उसका प्रगतिशील रूप भी पुरातनपंथी हो कर ही प्रकट हो सकता है। बदलती मूल्य चेतना से नाइत्तिफाकी में तो वैसा होता ही, लेकिन आधुनिक दिखने की चेष्टा में भी वह गंवई राह पकड़ लेती है। कहानी के इस पक्ष को समझने के लिए मूल कथा से बाहर निकल कर समाज में उसकी व्याप्ति खोजना मजबूरी है।
प्रेम का भाव सामंती अकड़ का सबसे बड़ा दुश्मन है, क्योंकि बराबरी के साथ सम्मान उसके मूल में बना रहने वाला प्राण तत्व है। जनतंत्र के अभाव में भी मनुष्यता के इस प्रबल भाव ने अपने होने को साबित किया है। प्रेम की नैतिकता का सर्वोच्च गुण कुछ इस कारण से भी अनकहा रह जाना मान लिया गया। क्योंकि उसके प्रकट हो जाने में तो सामाजिक भूचाल के अंदेशे वास करते रहे। अनकहे प्रेम की नैतिकता को यशपाल की कहानियां बार-बार लांघती हैं। ‘’प्रेम का सार’’ एवं ‘’पहाड़ की स्मृति’’ जैसी कहानियां ही नहीं अन्य कहानियों में भिन्न अंदाज में उसकी झलक मिलती रहती है। ‘’प्रेम का सार’’ में अपने प्रेमी फज्जा को खोजते हुए अनजाने शहर लाहौर की गलियों तक भटक आने वाली कश्मीरन को पुलिस संदिग्ध रूप में यूं ही नहीं पकड़ लेती है। फज्जा उसको छोड़ कर वर्षों पहले लाहौर चला आया है और हर बार उसके द्वारा लगायी जा रही वापिस लौटने की पुकार को ठुकराता हुआ है। फज्जा का प्रेम विरह की स्थितियों के उस अमूर्तन को स्वीकार नहीं सकता। अपने प्रेमी की निकट उपस्थिति की अकुलाहट उसके भीतर हर वक्त बनी रहती है। उसको पाने में अधिकार का एक बोध भी छुपा है, जिसका प्रकटीकरण उस वक्त होता है जब पुलिस जांच के दौरान उसकी गठरी से एक वास्कट और छूरा भी निकल आता है। छूरा वह इसीलिए साथ ले कर चली है कि अब जो फज्जा ने साथ लौटने में ना नुकूर की तो उसे छूरे से मारने का डर दिखा कर लिवा ले चलेगी। यह बताने में न तो किसी तरह का संकोच उसको घेरता है और न ही कोई डर। प्रेम के अनकहे पन में जीने की बजाय वह उसे सार्वजनिक रूप से जीने की चाह पाले रहती है। अपने प्रेम पर यकीन करता प्रेमी ऐसे ही साहस से भरा होता है। उसके भीतर जो फज्जा वास करता है, वह उसे ही पाना चाहती है, एक जवान और आंखों में उमंग की रोशनी सँभाला फज्जा। पुलिस द्वारा खोज लिया गया फज्जा उसका फज्जा नहीं। वह तो निरीह उम्र दराज कोई अन्य व्यक्ति है। उसके साथ वापिस लौटने की बजाय वह तो वर्षों से संभाले वास्कट को भी उसके मुंह पर फेंक कर वापिस लौट जाती है। प्रेम का यह रूप उस रूमानियत में ही जिन्दा रहता है जिसमें वस्तु ही नहीं उस जगह से भी प्यार महसूस करते प्रेम को उनकी कहानी ‘’पहाड़ की स्मृति’’ में देख सकते हैं। खुमानी बेचने वाली पहाड़ी स्त्री उस जगह के नाम को सुन कर ही प्रेम से भर जाती है जहां उसका प्रिय रहता है। यहां तक कि उस जगह रहने वाला कोई अनजान व्यक्ति भी चाहे वह उसके प्रेमी को भी न जानता हो, उसका प्रिय पात्र हो जाता है। प्रेम की यह पराकाष्ठा अनकहे प्रेम की नैतिकता में तो अट ही नहीं सकती। यदि अट गई होती तो आखिर यह सुनना, बेशक गल्प ही हो, कि मीरा को जहर का प्याला पीना पड़ा था, क्यों ही होता। कहानी के विवरण बताते हैं कि समाज में पुरूष के प्रति स्त्री के लगाव को रंडियापे से परिभाषित किया जाना आम है। उन खतरों के बारे में सोचे बगैर खुमानी वाली तो एक अजान व्यक्ति से अपने प्रेमी के हाल समाचार जानना चाहती है। दिलचस्प है कि वह अनजान व्यक्ति इस कारण भर से ही उसका प्रिय है कि वह उस जगह का निवासी हैं कि वह उसके प्रिय का गांव का है। ऐसे प्रिय व्यक्ति से व्यापार कैसा। खुमानी की कीमत के लिए भी इंकार कर देती है। मानवीय संबंधों की सघन अनुभूति से भरी भुवनेश्वर की कहानी ‘मौसी’ भी ऐसी ही लेखकीय तटस्थता की अप्रतिम कहानी है।
बीसवीं सदी के आरम्भ और मध्य में हुए युद्धों पर लिखी गयी कहानियों का जिक्र जब भी होता है, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ पर ही आलोचकों की कलम उछाल लेती रही है। निश्चित ही वह एक उम्दा कहानी है। लेकिन उसका उल्लेखनीय होना इस बात पर भी निर्भर करता हुआ है कि प्रेम की मध्यवर्गीय नैतिकता वहां बरकरार रहती है। भुवनेश्वर की कहानी ‘मौसी’ एवं कथाकार रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ की कहानी ‘’वह किसकी तस्वीर थी’’ एक ही धरातल पर खड़ी कहानियां है। अनकहा प्रेम। प्रेम का वही अनकहापन, मध्यवर्गीय नैतिकता का गंवईपन जिसे ‘पवित्र’ मानते हुए ही आधुनिक होना चाहता है। दोनों ही कहानियां उसमें सेंध मारती हुई हैं। ‘’वह किसकी तस्वीर थी’’ की सुभद्रा के भीतर प्रेम की ज्योति राजनीति में पेशेवराना तरह से शामिल कामरेड के लिए जली रहती है तो ‘‘मौसी’’ का अकेलापन सामाजिक असंवेदनशीलता के संत्रास में जन्म लेता है। भुवनेश्वर की कहानी ‘’मास्टरनी’’ में भी असंवेदनशीलता के विरूद्ध प्रेम की नोंक तीखी है। मध्यवर्गीय नैतिकता का तकाजा, जिसमें घर से बाहर पांव रखने के लिए स्त्री को पुरूष की इजाजत जरूरी है, इन कहानियों में बचा नहीं रह पाता है। उस मध्यवर्गीय नैतिकता का निर्वाह न कर पाना यहां इतना सहज हो कर प्रकट होता है कि नायिकाओं की छवि को मजबूती से उभारता है। ‘पहाड़ी’ जी की एक और कहानी है- ‘’रामू और भाभी’’। वही दबा-छुपा प्रेम यहां भी। भाभी विधवा है। पति के दोस्त रामू से प्रेम करने लगी है। लेकिन लोक-लाज का डर उसके अन्दर बना हुआ है। कल्पित ईश्वर ने और उसके कारण निर्धारित हो रही सामाजिक नैतिकता ने उसे जकड़ा हुआ है। कथाकार की वह आंतरिक छटपटाहट कहानी में कई जगह प्रकट होती है जिसमें नैतिकता का लबादा फटना चाहता है लेकिन भैतिक परिस्थितियां अनुकूल नहीं बन पाती है। कहानी अपने अंत में इस दिलचस्प मोड़ पर पहुंचती है प्रेम में अनकहे को ही शाश्वत, पवित्र और नैतिक मानने वाली अवधारणा को लेखक बचे नहीं रहने देता। वह रामू को उस शाश्वतता से मुक्त कर के ही कहानी के अंत तक पहुंचता है।
प्रेम के बेइंतहा प्रदर्शनों के बावजूद प्रेम के प्रति एक तरह की असंवेदनशीलता ही आज चारों और व्याप्त है। निजी मिल्कीयत की तरह अधिकार जताने वाले घटनाक्रम ही प्रेम की परिभाषा होते हुए दिखते हैं। स्वतंत्रता, लोकतंत्र और जनवाद के प्रति हिमायती मानस भी उससे मुक्त नहीं, या इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि वह भी कब प्रेम की उस पारम्परिक नैतिकता की गिरफ्त में हो जाता है, इसका उसे भी अंदाज नहीं रहता। प्रेमी को अपनी कैद में रखने में सुख प्राप्त करती यह अनोखी चाह ही प्रेम की उत्कृष्टता का मानक बनी हुई है। कथाकार ‘पहाड़ी’ की कहानी ‘’एक पहेली’’ ऐसी ही स्थितियों पर टिप्पणी करती है। निश्चित ही वह अनायास टिप्पणी नहीं है, एक सचेत रचनाकार का पक्ष बनकर ही सामने है। उसका अनायास होना भी, राजनैतिक पक्षधरता के बिना असंभव ही है। जब मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि मानने वाले प्रेम के प्रति अपेक्षाकृत शून्यता ही चारों और हो, ऐसी कहानियां एक राह बनाती हुई दिखती है। उनके संग्रह ‘सफर’ में एक अन्य कहानी ‘’गेंदा’’ है जिसका पाठ स्त्री विमुक्ति की भी आवाज बनता है। कहानी परिस्थितिजन्य संकट को समझने में मददगार है। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की तरह दिखायी देने वाले प्रेम के दौर में ऐसी कहानियां तथ्यात्मक तरह से यथार्थ को प्रस्तुत करने की समझ देती हुई है। दिखायी दे रहे झूठ को भी वह दया करूणा के भुलावे वाले व्यवहार में अनदेखा कर जाने वाले संतोषी की तरह ही बना रहना तो पारम्परिक नैतिकता का दुर्गुण है। ‘अपनो’ से बगावत की कल्पना तो वहां गुनाह ही हुई। बेशक ‘अपना’ ठग ही रहा हो। लेकिन गेंदा का पाठ तो ऐसा नहीं।
‘पवित्र’ किस्म की नैतिकता को ही हर बार छलनी-छलनी कर देना यशपाल की कहानियों की विशेषता है। उनकी कहानी ‘निर्वासिता’ में स्त्री विमुक्ति की उस आवाज को सुना जा सकता है जिसका स्वर तो बेशक संतान की चाह के साथ ही स्त्री की संपूर्णता को मानने वाली नैतिकता में उत्पन्न होता है लेकिन उसकी अनुगूंज उस पारम्परिक नैतिकता से भिन्न लय में वास करती हुई है। कथानायिका इंदु आधुनिक और पढ़ी-लिखी स्त्री है। योग्यता और पौरूष का अभिमान करने वाले अपने हमउम्र नवयुवकों को वह कई कदम पीछे छोड़ देती है। कहानी के माता-पिता भी अपनी प्रतिभावान लड़की के लिए एक मालिक खरीदकर बेटी को जीवन भर के लिए नर-पशु के पांव तले डाल देने पर यकीन करने वाले मां-बाप नहीं है। बेटी को पढ़ा-लिखा कर उसे आर्थिक रूप से स्वतंत्रता हासिल करने का अवसर देना चाहते हैं और अपने लक्ष्य में सफल भी हो जाते हैं। इंदु स्त्रियों के एक कॉलेज में अध्यापक हो जाती है। नौकरी के वास्ते पिता का घर छोड़कर बम्बई चली जाती है, पति-मालिक की दासी और उपयोगी वस्तु बनकर नहीं, आत्मनिर्भर सम्मानित नागरिक बन कर। उस दौरान ही शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो जाने पर स्वास्थ्य लाभ के लिए फिर मसूरी जाकर रहने लगती है। मसूरी में जिस होटल में किराये का कमरा ले कर रहती है, उस होटल का मालिक अपने परिवार के साथ ही ऊपरली मंजिल में रहता है। होटल मालिक व्यवहार में बेहद कड़क है। व्यवहार की वह कड़क नैतिकता और आदर्श से ताकत हासिल करती है। होटल की आमदनी का विचार भी उसकी आचार निष्ठा को शिथिल नहीं कर सकता। इंदु के साथ किसी पुरूष रक्षक को न पा कर भी यदि वह उसे होटल का कमरा किराये पर देता है तो उसके पद और प्रतिष्ठा का सम्मान करते हुए ही। इंदु रूपये की ताकत पर यकीन करने लगी है। रूपये के दम पर कितने ही पुरूषों को वह अपनी चाकरी में जोत देने की समझदारी रखने लगी है। यही वजह है कि मन में संतान की कामना के पैदा हो जाने और उसके लिए एक सभ्रांत पुरूष से की जा चुकी अनुनय के ठुकरा जाने पर वह उन रूपयों के जोर पर ही अपनी इच्छा को पूरी कर लेना चाहती है। कहानी यहीं से ऐसा मोड़ ले लेती है कि इंदु का ‘व्याभिचार’ होटल मालिक के संज्ञान में आ जाता है और पद प्रतिष्ठा के कारण दिये हुए सम्मान को होटल मालिक पूरी तरह से भूल जाता है और उसे तुरंत होटल खाली करने का आदेश दे देता। ऐसा न करने पर पुलिस की धमकी देने से भी नहीं चूकता। एक निर्वासिता की तरह इंदु वहां से निकलने को मजबूर है। कहानी का सार कुछ इस तरह से बनता है जिसमें लेखक का पक्ष इंदु के साथ है। यानी साफ है कि यशपाल उस पारम्परिक नैतिकता को निशाने पर रख रहे हैं जिसमें एक कुंवारी स्त्री के मां बनने की इच्छाएं सामाजिक अपराध हो जा रही है। संतान की कामना के पक्ष का हिमायती होने के बावजूद कहानी की बुनावट इस तरह से की गई है कि यह बात कहीं नहीं उभरती कि लेखक स्त्री की संपूर्णता को संतान उत्पत्ति के साथ ही पूर्ण मान रहा है। बल्कि यही बात प्रमुख बन रही है कि पारम्परिक नैतिकता एक स्त्री को प्राकृतिक मानवीय अभिलाषाओं के साथ भी नहीं स्वीकारना चाहती है। यानी पुरूष की वंश वृद्धि की इच्छा का मान रखती स्त्री ही केवल सच्चरित्र हो सकती है। स्त्री विमुक्ति के सवाल पर इतने धैर्य और दृढ़ता की आवाज तो किसी अन्य हिंदी कहानी में आज तक भी सुनी नहीं गई। एक उपन्यास का यह प्रसंगवश ही जिक्र कर देना जरूरी लग रहा है- मुझे चांद चाहिए। उस उपन्यास में नायिका वर्षा वशिष्ठ के कुछ ऐसी ही इच्छाओं के साथ दिखायी देती है लेकिन उसके मूल में संतान के साथ स्त्री के स्त्रीत्व की पूर्णता को परिभाषित करने वाला गंवई गढढा भी नजर आता है। यशपाल की कहानी ऐसे किसी झूठ का सहारे लिए बगैर सिर्फ एक सहज इच्छा के जन्म ले लेने पर उसके लिए एक भद्र पुरूष से अनुनय करती इंदु जैसी पात्र से परिचित कराती है। अपनी अनुनय के तिरस्कार पर ‘संस्कार’ के पर्दे को भी एक तरफ फेंक देने वाली इंदु नजर आती है।
साफ है कि यशपाल स्त्री को निर्वासिता या पालतू बना कर रख देने वाली मानसिकता के मध्यवर्गीय मिजाज से असहमत हैं। ‘भले भले’ बने रहने की चाहत उनके निशाने पर है। ‘’उतरा नशा’’ कहानी लिख कर वे अपने इस विचार को ज्यादा पुष्ट तरह से रखने में सक्षम भी हैं। कहानी चिरंजीव जैसे पात्र से परिचित कराती है जो पत्नी को बेइज्जत करने वाले अपने मैनेजर से एक दिन भिड़ जाता है। यद्यपि चिरंजीव का वह व्यवहार सामान्य स्थिति की बजाय शराब के नशे में ही है। लेकिन यहां मध्य वर्गीय कमजोरियों का वह पक्ष भी उजागर होता है जिसमें सामान्य स्थिति में इस वर्ग का व्यक्ति कैसे ‘भले भले’ दिखने के बरताव को ओढे होता है और सामने ही हो रहे अत्याचार पर मुंह खोलने की बजाय निर्लज्ज खोमोशी को ही धारण किये रहता है। नशे में किये जा चुके व्यवहार के लिए प्रायश्चित करते चिरंजीव के भीतर यही बात मौजूद रहती है, ‘’चिरंजीत शराब पीने की लज्जा स्वीकार कर के भी दीन-पीडि़त स्त्री की सहायता के लिए उत्तेजित हो जाने की बात पर लज्जित न हो सका। उसने अत्याचार-पीडि़त की सहायता करने का साहस किया था। इस बात पर वह गर्व करना चाहता था। परंतु उस गर्व की नींव खिसक जाती जब याद आता, साहस किया भी तो नशे में !’’[xi]
भावुकता से सीधे परहेज करती भुवनेश्वर की कहानियां बोल्शेविज्म के असर में ही अपनी सार्थकता को सिद्ध करती है। कहानियों से इतर उनके तर्कों का तीखापन भी इसीलिए राजनैतिक बहस की मांग करता है। भुवनेश्वर की कहानियों की बहस उस खोदे जाने वाले गढढे को निरर्थक साबित करती है जो संवेदनाओं के रचाव में ऊर्जा को जाया करने के साथ रही है। कौन बड़ा गढढा खोद सकता है ताकि ज्यादा से ज्यादा पाठक उसमें डूब सकें, ऐसे पाठ रचने की बजाय, उनकी कहानियां उद्वेलित करती हैं। झिंझोड़ती हैं और इस तरह से निराशा और हताशा के जल से भरे गढढे में डूबने देने से उबार लेती हैं। कथाकार ‘पहाड़ी’ की कहानियों के मंतव्य तो उत्पादन के यंत्रो और उत्पाद को समूचित तरह से वितरित करने सकने वाली व्यवस्था के लिए प्रयत्नशील संघर्षों को ही मुख्य मानते हुए समग्र सामाजिक बदलाव की बात करती हैं। आधुनिकता को सीधे तौर पर संबोधित कहानी ‘’अवशिष्ट रूढि़यां’’ के जिक्र के बिना तो हिंदी कहानी की आधुनिकता भी नहीं परिभाषित की जा सकती। तमाम तरह के अंधविश्वास, सामाजिक विसंगतियां कहानी के केन्द्र में हैं। किसान जीवन के प्रति गहरे अनुराग और शहरी जीवन की तंगहालियां भी उनकी कहानियों में सबोधित हुई हैं। ‘आठ साथी’ उनकी ऐसी कहानी है जिसमें व्यापक जनवादी मोर्चे की जरूरत महसूस करती जिम्मेदारी के साथ एक ही वर्ग के भीतर मौजूद अन्तर विरोधों की पड़ताल हुई है।
कथा में स्थान-विशेष की तलाश करने वाले पाठकों के लिए कथाकार ‘पहाड़ी की कहानियां इस तरह की छूट के साथ प्रकाशमान है कि स्थान के नाम की जगह वहां प्रतीकातमक चिह्न ही दर्ज होता। पाठक उस प्रतीकात्मक चिह्न की जगह स्थान-विशेष का नाम अपने आप से रख कर कहानी का पाठ जारी रख सकता है। इस तरह से कहानी पढ़ते हुए पाठक को ठिठक कर प्रतीकात्मक चिह्न पर रुक भी जाना होता है, क्योंकि पाठ के सहज प्रवाह में वह अपठनीय प्रतीक, अवरोध बन जाता है। किसी गली, किसी मुहल्ले, किसी शहर, राज्य, राष्ट्र एवं देश का नाम लिख देने भर से कथा को उस सीमित भूगोल का ही सत्य मान लेने की बजाय लेखक की चिंताएं, इस तरह भी, अपने पाठक से संवाद करने की उस चाह रखने का ही नतीजा बनती है जिसमें पूंजी के प्रभाव और उसकी मंशाओं के हिसाब से विकासमान होती सामाजिकता निशाने पर बनी रहे। प्रयोग के स्तर पर यह एक चिह्नित करने वाली बात है। और इसलिए भी यह कोई भाषायी और शिल्पगत सौन्दर्य की चाह के लिए किया जा रहा प्रयोग नहीं है, बल्कि ऐसा प्रयोग है जिसमें लेखक की वैचारिकी झलकती है। स्त्री विमुक्ति का वह पाठ जो आर्थिक स्वतंत्रता को प्राथमिक मानता है, और इस कारण से आलोचना के दायरे में भी रहता है, कथाकार ‘पहाड़ी’ की कहानी ‘’छायावादी हिरोइन’’ में ऐसे प्रयोगों के साथ ही प्रकट होता है और कथा को एक सीमित भूभाग में घटने से रोकता है। कहानी में आर्थिक स्वतंत्रता और उसके साथ जन्म लेती स्वच्छंदता पूंजी के चरित्र का बयान होना चाहती है।
युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी भुवनेश्वर और रमा प्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ की कई कहानियां हैं। भवुनेश्वर की कई कहानियां - ‘भविष्य के गर्भ में’, ‘हाय रे मानव ह्रदय’ युद्ध की छाया में ही लिखी गई हैं। उनकी कहानियों के पाठ यह समझ देते हैं कि युद्ध की विभिषिका सिर्फ लाशों के ढेर ही नहीं खड़े करती, जीवित व्यक्ति को भी मृत घोषित कर देने के लिए मजबूर कर देती है। साथ ही ऐसे रहस्यों का उदघाटन करते हुए स्वार्थी मन के अधीन दौड़ती भागती लालसाओं से भी परिचित करा देती है। कहानी को सिर्फ घटना के साथ ही पढ़ने वालों को स्त्री विरोधी भुवनेश्वर नजर आ सकता है, लेकिन युद्धोन्मांद में डूबी मानसिकता को उजागर करता कहानीकार ही यहां मौजूद है। अफसोस की हिंदी आलोचना की दुनिया से भुवनेश्वर बाहर फेंक दिए जाते हैं। यदि कहीं कोई भुवनेश्वर दिखता भी है तो ‘भेडि़ये’ के रूप में ही नजर आता है।
वातावरण में कंपकपाहट पैदा करती युद्ध की छाया कथाकार रमा प्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ की कहानी ‘क्यू‘ पर भी पड़ी रहती है। ‘’नया रास्ता‘’ तो उस दौरान शुरू हुए भारत छोड़ो आंदोलन की हवा में भभक कर जतली आग की लपटों को समेटे है। तत्कालीन राजनैतिक स्थितियों वाले विवरणों से भरी उनकी कहानियों का पूरा संग्रह ही साहित्य के इतिहास की धरोहर है। उनकी रचनात्मकता का उददेश्य कहानियों में सिर्फ घटनाक्रमों का दस्तावेजीकरण ही नहीं है बल्कि जनपक्ष की राजनीति का आहवान है। जनतंत्र की ऐसी मांग जिसमें नेतृत्व की कार्रवाइयों की आलोचना भी जरूरी तौर पर स्वीकार्य हो। बानगी के तौर पर कहानी ‘’नया रास्ता’’ का यह अंश देखा जा सकता है। ‘’भारत में कांग्रेस के महान नेता जन-आंदोलन नहीं छेड़ना चाहते थे। वे तो लड़ाइ्र के संकट से फायदा उठा कर बिना किसी आंदोलन को छेड़े हुए ही साम्राज्यशाही से सौदा कर लेना चाहते थे। नेता जनता की ताकत पर विश्वास न कर के समझौता करना हितकर पाते थे।‘’[xii] कहानी का घटनाक्रम सास-बहू की पारिवारिक दास्तान को भी वैश्विक युद्ध की छाया और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे राजनैतिक माहौल की खदबदाहट में बुने, ऐसा तो हिंदी की अन्य किसी कहानियों में भी शायद ही आया हो। मेरे सीमित अध्ययन के अनुभव में ऐसी कोई कहानी स्मृति में नहीं है जहां सामाजिक-राजनीति के इतने गहरे प्रभावों में भी आपसी संबंधों को देखना संभव हुआ हो। भुवनेश्वर और रमाकांत घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ के कथानकों की बुनावट यह मूल तत्व है। कथाकार ‘पहाड़ी’ की कहानियां तो घर, मुहल्ले, दफ्तर के दैनिक जीवन में भी राजनीति के प्रभावों को पकड़ने का रास्ता सुझाती हुई हैं। साथ ही मुक्ति कामी संघर्षों को भी उसी तरह से संचालित करने की हिदायत देती हैं। ‘’सैनिक तो युद्ध-क्षेत्र के मोरचे पर लड़ता है और ये नारियां गृहस्थी के मोरचे की रक्षा किया करती हैं। वे सब कुछ उनके लिए त्याग देती हैं।‘’[xiii] स्त्री मन की कथा और जमाने की हलचल को साथ-साथ बुनते चले जाने वाला यह अंदाज निराला ही नहीं बल्कि राजनैतिक पक्षधरता को रचनात्मक रूप से प्रस्तुत करने की मिसाल है। हिंदी कहानी में कई सालों बाद ऐसी एक आवाज अल्पना मिश्र की कहानी ‘’छावनी में बेघर’’ में सुनाई दी थी। उस कहानी पर फिर कभी, अभी तो सिर्फ इतना ही कि स्त्री विमर्श का वर्तमान जो नितांत अपनी अकेली राह चलने का हिमायती है, एक भटकाव है।
दिलचस्प है कि एक कथाकार की बजाय कवि की पहचान पाए रचनाकार की कहानी को मुझे आधुनिकता के रास्ते में चलती कहानी कहना पड़ रहा है। रघुवीर सहाय की कहानी ‘’ग्यारहवीं कहानी’’। शीत युद्ध की समाप्ति और वैश्विक स्तर पर बदलती राजनीति इस कहानी की पृष्ठभूमि बनती है। बहुत से आम जीवन के विवरणों से गुजरता कथानक पूंजी की गिरफ्त में फंसे विज्ञान को निशाने पर लेता है। वह स्वास्थ्य विज्ञान जिसकी खोजों के लिए आम गरीब जन को अपने को आत्मोत्सर्ग कर देना होता है। लेकिन दवा के ईजाद पर भी वह उससे वंचित रह जाता है। वैश्विक राजनीति के अध्ययन बताते हैं कि जिस वक्त रूस में राजनैतिक फिजा बदल रही थी और हमेशा के दुश्मन अमेरिका के साथ रूस शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बातों का हाथ बढ़ा रहा था, चीन के नेता माओ ने एक बहस छेड़ी थी। वह ‘महान बहस’ थी जिसकी चिंताएं साम्राज्यवादी मंसूबों का पर्दाफाश करती थी। भविष्य में दुनिया भर का कम्यूनिस्ट आंदोलन उस बहस के पक्ष एवं विपक्ष में बंटा हुआ भी दिखा। हिंदी कहानी में उस तरह की हलचल रघुवीर सहाय की उक्त कहानी में सुनायी देती है। ‘’सभ्यता के इतिहास का वह चरम क्षण था। रूस और अमेरिका पृथ्वी के तल पर और उसके गर्भ में, सागर के अतल में और आकाश के अनंत में उपलब्ध संपत्ति का उपभोग करते हुए एक दिन एक-दूसरे के बराबर संपन्न हो गए थे। उन्होंने प्रतिद्वंद्विता के नियमों को छोड़ कर बराबरी के नियमों के अनुसार निश्चित किया कि वे परस्पर मित्र हैं, शत्रु नहीं - जैसा कि सारी दुनिया उन्हें मानती है।‘’[xiv] इस तरह से वैश्विक राजनीति के प्रभावों को पकड़ती हिंदी की दूसरी कहानी मेरे अध्ययन में नहीं रही है। यह कहानी उस अनिश्चितता को भी सामने रखती है जिसका हश्र नब्बे के दशक में होता है। ‘’इससे एक संकट उत्पन्न हो गया। कोई समझ नहीं पा रहा था कि इसके बाद क्या होगा? खासतौर से वे तो बिल्कुल ही नहीं जानते थे जो कि अभी तक इन दोनों राष्ट्रों में से किसी एक के मित्र और दूसरे के शत्रु थे। ये तमाम अधनंगे और अधपेट आदमी अपने कष्टों का दोष इनमें से किसी एक पर डालते रहने के इतने आदी हो गए थे कि अब उनके लिए एकाएक यह कह पाना संभव नहीं हो पा रहा था कि दोनों ही एक समान दोषी हैं। इसके बजाय, जैसा कि बाद के इतिहासकारों ने लक्ष्य किया है, इन अधनंगों और अधपेट लोगों की बुद्धि में इस परिवर्तन का एक लंबा क्रम चला कि पहले के एक की जगह अब दो महाशक्तिशाली राष्ट्र उनके मित्र हैं।‘’[xv] रघुवीर सहाय की एक अन्य कहानी है ‘’मुठभेड़’’। शिवराम की मां मर चुकी है। पारम्परिक शब्दावली में जिसे ‘अन्तिम यात्रा’ कहा जाता है, कथा के नैरेटर को उसमें शामिल होना है। उस नाजुक मौके वाले घटनाक्रम में भी रचनाकार की निगाह बदलते समय की आपाधापी में संबंधों को निभाने की औपचारिकता जगह पाती है, बजाय संवेदना जगाने के वह पाठक को उन स्थितियों से साक्षात्कार करने को मजबूर करता है जिसमें मानवीय संबधों का झीजता जाना दिखने लगता है और इस तरह पाठक को किसी दूसरे से नहीं खुद से मुठभेड़ करने को उकसाती है।
हिंदी कहानी में बोलशेविक क्रांति के प्रभावों को एक काल विशेष की रचनाओं में बांध कर नहीं परखा जा सकता है। दरअसल उसके प्रभाव में तो हिंदी कहानी आज भी आधुनिक होने का रास्ता तलाशती हुई है। अक्सर देखने में आता है कि अपनी तात्कालिकता में शायद ही कोई घटना रचना का हिस्सा होती हो। वैसे यह कोई अन्तिम सिद्ध बात नहीं। फिर यहां तो घटना के जिक्र का नहीं कहानी में उसके प्रभाव की बात तलाशने का सिलसिला है। आशय इतना ही है कि किसी भी घटना के तात्कालिक प्रभाव में जो कुछ सामने आता है, वह गतिविधि के तौर पर ही ज्यादा होता है। इसलिए कहानियों में बोलशेविक इंकलाब के प्रभावों को तो उन संकेतों में आज भी पकड़ा जा सकता है, संरचना के कटाव भरे जिन तराशों के साथ हिंदी कहानी अपनी निर्मिति को प्राप्त करती रही है। घटनाक्रम, पात्रों की उपस्थिति, रचनात्मक भराव का चिंतनपरक दर्शन, यह तीन बिन्दु ज्यादा महत्वपूर्ण रहे हैं। भाषायी प्रयोगों की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि हाल ही में, नया ज्ञानोदय के जनवरी 2018 के अंक में प्रकाशित कथाकार शंकर की कहानी ‘लपटें’ और पल्लवी प्रसाद की ‘इहलोक’ में उभर आ रही आधुनिकता ध्यान खींचती है। ‘लपटें’ एक ऐसे ढोंग को उदघाटित कर रही है, जो आजादी के बाद गठित हुई व्यवस्था के भीतर लगातार जारी रहा । हाल-हाल का एक घटनाक्रम भी याद करें, जिसमें न्याय व्यवस्था के भीतर मौजूद विसंगतियां खुलकर सामने आईं हैं। वहां सवाल सिर्फ न्याय को लागू करने में बाहरी दबाव को ही ले कर नहीं उठता, अपितु राष्ट्रीयता के उस गान का भी ढकोसला बनता है जो कानूनसम्मत ढा़चे से नैतिकता को लागू करके राष्ट्रनिर्माण करना चाहता रहा। न्यायधीशों के सामूहिक त्यागपत्र इस बात की ताकीद करते हैं कि कानूनों के जरिये यदि नैतिकता के पाठ स्वीकार्य बना दिये जाना संभव होता तो राष्ट्र निर्माण या राष्ट्र उदय के लिए निर्धारित मान्यताओं को कहीं भी खड़े हो कर राष्ट्रगान गाने के झूठ का सहारा लेना जरूरत नहीं हो जाता। पारम्परिक नैतिकता में तो झूठ बोलना, धोखा देना, हिंसा फैलाना, अमानवीय होना आदि, निकृष्ट कोटि के कर्म कहलाते हैं। दुर्गुण हैं। इनके नैतिक प्रतिकार में ही पूंजीवादी व्यवस्था राज्य के कल्याणकारी रूप को गढ़ने का ढोंग रचती हैं। शंकर की कहानी ‘लपटें’ वैसे ही एक ढोंग को अन्य घटनाक्रम के जरिये पकड़ रही है। पल्लवी प्रसाद की ‘इहलोक’ में अनकहे प्रेम की नैतिकता से भिन्न प्रेम का आधुनिक पाठ होना जगह पाता है। थोड़ा पीछे निगाह दौड़ाये तो कथाकार भैरव प्रसाद गुप्त की एक कहानी ‘एक पाँव का जूता’ पर निगाह अटक जाती है जो एक बेहतरीन कहानी है। कविता की तरह अर्थ व्यापकता भरा कहानी का अंत उसे यादगार कहानी बना देता है। आजादी के हासिल संसदीय जनतंत्र की करूपता और अत्याचारों का एक प्रतीकात्मक खुलासा इस कहानी का पात्र बाबू जी जो कभी एम एल ए रहा यदि वाकई ऐसे पाश्चाताप करने की मन:स्थिति में पहुंचा होता तो मुसीबतों की मार झेलते मेहनतकश आवाम को आत्महत्याओं को अपनी मुक्ति का रास्ता नहीं बनाना पड़ता। मनुष्यता के रुदन की आवाजें सुनने वाला यथार्थ अपने राजनेताओं के व्यवहार का रास्ता शायद ही कभी सुना गया हो। काई अपवाद घटना हो तो हो। पर लेखकीय इरादों में यहां एक ऐसा पात्र जो राजनेता रहा, बेशक तमाम आदर्शों भरी राजनीति की लेकिन मेहनतकश आवाम के प्रति एक नफरत उसके भीतर हमेशा बनी रही। ‘गत्ति भगत’ एक अन्य बेहतरीन कहानी। निरे आदर्शों की बजाय संघर्ष करती जनता के साथ अपने को जोड़ने वाला गत्ति भगत अपनी उस कंठी को धारण किये हुए जिसे धारण करने की शर्त ही है कि उसे झूठ नहीं बोलना है। लेकिन अत्याचारी शासक वर्ग और उसकी पुलिस से मुठभेड़ करती जनता के पक्ष में खड़े होना ही वास्तविक सत्य है,
इसी कारण झूठ बोलने के बावजूद कंठी का प्रभाव नष्ट नहीं होता है। इस आशय की अभिव्यक्ति से भरी यह कहानी अपने तरह से कहानी कला के सौन्दर्यशास्त्र को भी साधे रहती है।
समकालीन दौर की सबसे युवा पीढ़ी की रचनाओं में झांके तो अल्पना मिश्र की कहानियों पर ठहरना पड़ता है। अल्पना मिश्र की कहानियों में गल्प की तस्वीर कुछ इस तरह बनती है कि प्रतिरोध की आवाज में कहन का बुरा मान जाना हमेशा बचाए जाने की कोशिश में रहता है। लेकिन पारम्परिक नैतिकता से नाता तोड़ चुकी रचनाकार का मन और मानस दोनों ही उसे बचे नहीं रहने देते । ‘’वे सच, जो सच के भीतर छिपे रहते हैं, दिखते नहीं, जिन्हें बेदखल मान लिया जाता है, वे सच, अपनी अनुपस्थिति में भी उपस्थित होते हैं।‘’[xvi] न छुपे रहने वाले इस अंदाज में ही अल्पना मिश्र की कहानियों के कथानक पारम्परिक नैतिकता को धकियाते हुए लक्षित बिन्दु को प्रकाशित करते रहते हैं। इस तरह से वे कहानियां एकांगी घटनाक्रम में विकासमान नहीं बनी रहती, जमाने भर में मौजूद गंवईपन के कोलाहल को साफ करती चलती हैं। फिर चाहे ‘बेदखल’ हो और चाहे ‘अंधेरी सुरंग में टेढ़े-मेढ़े अक्षर’। रीमा-सीमा जमाने के डर के मारे बेशक भीड़ से बाहर आकर मृत मां को कंधा देने का उपक्रम न कर पाएं लेकिन ठाकुर साहब की चीख-चिल्लाहट में जोर मारती राजरानी की इच्छाओं को कोई भी सुन सकता है। ‘’अरे रुको, क्या कर रहे हो? कंधा रीमा-सीमा भी लगाएँगी, कहा था उन्होंने हमसे।‘’....
‘’पापा! पगला गए हैं क्या! सँभालिए जीजा जी इन्हें। ताऊ जी!' सुपुत्र ने सबसे अपील की। ठाकुर साहब अबकी स्पष्ट चीखे - 'उतारो उनके गहने-फहने... उतारो...' फिर वे पास खड़े आदमी की तरफ हाथ उठाकर बोले - 'कहा था उन्होंने’’[xvii] अल्पना मिश्र की कहानियों में वह जो अनकहेपन का कहा जाना है, सिर्फ प्रकट होने के लिए प्रकट होता हुआ नहीं है, अपितु पाठक को उद्वेलित कर देता है। संगीत की उत्ताल तरंगों वाला उद्वेलन। आप उन्हें एकातं में पढें और खामोशी के गाढ़ेपन में उस पढ़े गए को याद करें, न भी करना चाहें तो शब्द ऐसा करने को मजबूर कर ही देंगे। मौन को चीरती एक ऐसी चीत्कार सुनायी देगी जिसमें दबी-घुटी सिसकियां नहीं, झूठ-मूठ का प्रेम नहीं, गैर बराबरी का व्यवहार नहीं, बल्कि स्वतंत्र, स्वच्छंद और आत्मीय वातावरण का सपना आकार लेता हुआ दिखेगा। फिर यह देखना असंभव नहीं कि अल्पना की कहानी ‘’राग-विराग’’ में एन एस एस की लड़कियां कैसे अपने भीतर को खोल कर रख देना चाहती हैं। उस वक्त उनके भीतर दया और करुणा का राग भी दिखावे की संस्कृति में बनी रहने वाली दया करुणा से कैसे भिन्न हो जाता है। ‘त्रिशायर’ में रोगी बच्चों की मदद को हुल्लसाया उनका मन निरुद्देश्य जीवन में जलती हुई लौ से दीप्त होता हुआ है। वे अपने-अपने हिस्से का बंद-समोसा लेती जाती हैं और कुछ न कुछ कहते हुए ‘‘टा... टा... बाए... बाए...’’ करते हुए, लाइन से बेखबर गेट से बाहर निकलती जातीं।
गेट का बड़ा-सा जबड़ा खुल गया था। जाना अब टाला नहीं जा सकता।‘’[xviii] अल्पना की कहानियों में स्त्री की स्वतंत्रता के चित्र उतने अकेले नहीं, हिंदी कहानी में जारी स्त्री विमर्श जिसकी गिरफ्त में बहुधा दिखता है। वहां चिंताए ज्यादा गहरी हैं। माहौल को बदरंग बनाने वाली उस मानसिकता का कच्चा चिट्ठा भी वहां खुलता जाता है जो अपनी संततियों को हिंसक बनाने के लिए ही अपने पौरूष का बखान करती है। कहानी ‘नीड़’ का एक पाठ कुछ इस तरह भी बन रहा है। यह पाठ ही, ‘नीड़’ को आम घरेलू स्त्री पर शासन करती पुरूष मानसिकता की ही कहानी भर नही रहने देता है, बल्कि वीर गाथाओं के बखान के साथ वाचाल होती जाती मानसिकता को भी विश्लेषित करने का अवसर देता है।
हिंदी कहानियों में बोलशेविक प्रभावों की पड़ताल के उददेश्य से किये गये अध्ययन की यह कोशिश उन संकेतों को रखने में ही प्रयासरत होते हुए है जिनका उददेश्य है कि वैश्विक पूंजी के कुचक्र का पर्दाफाश करना जरूरी है और भ्रांतियों में डूबे समाज को पुरातनपंथी षड्यंत्रों से बाहर निकलने को प्रेरित करना ही आधुनिकता की पहली शर्त है। आधुनिकता का रास्ता धार्मिक रूप से आस्थावान समाज के सामाजिक संकटों को सर्वधर्म सम्भाव वाली नैतिकता से निपटते हुए नहीं नापा जा सकता है। परिवर्तनकारी संघर्षों के लिए वक्त चुराकर उसमें शामिल होने वाली जनता को झूठे जश्नों में उलझा कर दिखावे की ‘सामाजिक संस्कृति’ में फंसाने वाले धर्म का बाजार कभी भी और किसी भी प्रांत में एक ही तरह घुसा हुआ है। फिर वास्तविक उत्साह और उमंग का माहौल तो जड़ होते जाते सामाजिक संबंधों को आभासीय सुख की रचना करके स्थापित किया ही नहीं जा सकता। मन की मलिनता को तात्कालिक रूप से ढंकना बेशक हो जाए- चलो क्रिसमस-क्रिसमस मनाये, ताजिये को सजाये उजले रंग से, होली का गुलाल उड़ाये, दीप से दीप जलाये, खेले आतिशबाजी। न रहे क्षोभ में, न्यू इयर-न्यू इयर, फादर्स डे, मदर्स डे, चलो झुलाए प्रेम की बांहे- गाए वैलेंटाइन। हर धर्म के बीच बना रहे सदभाव। आज ब्रज में होरी रे रसिया। लोक परम्पराओं की दुहाई देती धारा भी उस सच्चे और वास्तविक लोक को, जो मनुष्यता के सम्मान से भरा रहे, तब तक प्राप्त नहीं कर सकती जब तक धार्मिक विविधता के रंग वाले समाज की दुहाई दी जाती रहेगी। हिंसक व्यवहार में महानता की चुटिया बांधने वाली भद्रता तो जनतंत्र की हिमायती हो ही नहीं सकती। न ही श्रेष्ठताबोध से भर उसके अहंकार का शमन किया जा सकता है। विरासत में मिली गुलामी की औपनिवेशिक मानसिकता में आधुनिकता का गंवईपन इन्हीं कारणों से पलने लगता है। हिंदी कहानी जब तक इस तरह की चुनौतियों का सामना करने से बचती रहेगी, बोलशेविक क्रांति के आदर्श तो दूर की बात हुए, समाज में गंवई आधुनिकता का मासूम भाव भी बचाए रखना उसके लिए मुश्किल ही रहेगा।
संदर्भ
[i] लेनिन, धर्म के बारे में, राहुल फाउंडेशन, पृ 1, संदर्भित संग्रहित रचनाएं, खंड 10, पृ 83-87
[ii] लेनिन, धर्म के बारे में, राहुल फाउंडेशन, पृ 15, संदर्भित संग्रहित रचनाएं, खंड 15, पृ 202
[iii] यशपाल, वो दुनिया, रचनावली खण्ड 8, पृष्ठ 194
[iv] जयशंकर प्रसाद, बेड़ी
[v] जयशंकर प्रसाद, गूदड़ साईं
[vi] कैलास बनवासी, बस के खेल और चार्ली चैप्लिन, प्रगतिशील वसुधा-96, पृ 106
[vii] लेनिन, धर्म के बारे में, राहुल फाउंडेशन, पृ 59,
[viii] लेनिन, धर्म के बारे में, राहुल फाउंडेशन, पृ 65
[ix] विस्तार के लिए मुक्तिबोध की कहानियों को आधार बनाकर लिखा गया आलेख संदर्भित है, अनहद अंक-7 में प्रकाशित
[x] रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी, आठ साथी, कैदी और बुलबुल, पृ 46-47
[xi] यशपाल, उतरा नशा, रचनावली खण्ड 8, पृष्ठ 240
[xii] रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’, नया रास्ता, पृष्ठ 195
[xiii] रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’, नया रास्ता
[xiv] रघुवीर सहाय, ग्यारहवीं कहानी
[xv] रघुवीर सहाय, ग्यारहवीं कहानी
[xvi] अल्पना मिश्र, बेदखल
[xvii] अल्पना मिश्र, अंधेरी सुरंग में टेढ़-मेढे अक्षर
[xviii] अल्पना मिश्र, राग-विराग, पाखी, अक्टूबर 2016
सम्पर्क
तानपुरा हाउस, लेन न. 13, इन्द्रप्रस्थ,
रिंग रोड, नत्थनपुर,
देहरादून-248005
मो: 09474095290
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