भगवानदास मोरवाल के उपन्यास ‘ख़ानज़ादा’ का एक अंश।
अछूते विषयों को केंद्र में रख कर उपन्यास लिखने वाले उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल की समकालीन हिंदी कथा-साहित्य में अपनी विशिष्ठ छवि है। इस कथाकार के अब तक काला पहाड़ , बाबल तेरा देस में , रेत , नरक मसीहा , हलाला , सुर बंजारन, वंचना , शकुंतिका और ख़ानज़ादा सहित नौ उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। पूर्वी राजस्थान और उत्तर प्रदेश के ब्रज से लगे दक्षिण हरियाणा के काला पानी कहे जाने वाले मेवात में जन्मे इस कथाकार के लेखन की बड़ी विशेषता है गहरी तरल संलग्नता तथा गज़ब की किस्सागोई। हिंदी कथा-साहित्य में अपनी एक विश्वसनीय जगह बना चुके इस कथाकार के बिना आज समकालीन कथा-साहित्य पर बात करना नामुमकिन है। भगवानदास मोरवाल इन दिनों फिर से चर्चा में है। इस चर्चा का कारण है हाल में राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित नया उपन्यास ‘ख़ानज़ादा’। कहने को यह उपन्यास हिंदुस्तान में आए तुग़लक़, सादात अर्थात सैयद, लोदी और मुग़लों से लोहा लेनेवाले मेवातियों की गाथा है। यह उपन्यास इन बाहरी आतताइयों द्वारा मेवातियों पर किए गए बर्बर अत्याचारों का जीवंत, मगर एक सृजनात्मक दस्तावेज़ है। इतिहास, कल्पना और ग़ज़ब की क़िस्सागोई में पगा यह उपन्यास हिंदू अस्मिता के उस दौर में मुस्लिम आक्रान्ताओं की भयावहता का आख्यान भी कहा जा सकता है यह उपन्यास। आज पहली बार पर प्रस्तुत है भगवानदास मोरवाल के इसी उपन्यास का अंश।
उपन्यास अंश
हम कुछ और हो जाएँ ये मुनासिब नहीं
भगवानदास मोरवाल
वसंत ऋतु के बाद पतझड़ को बीते काफ़ी समय हो गया है। सर्दी भी अपना चोला पूरी तरह उतार चुकी है। सुबह की मीठी ठंड में बस हल्का-सा गुनगुनापन बचा हुआ है। छोटे-बड़े, नए-पुराने पेड़-पौधे नए पत्तों और कोंपलों के लिबास में चहक रहे हैं। हिंदुस्तानी चैत्र महीने में चारों तरफ़ छाई ख़ूबसूरत हरियाली बाबर को भीतर तक शीतलता प्रदान कर रही है। कई दिनों के लंबे सफ़र के बाद जुह्र की नमाज़ से कुछ देर पहले बाबर ने, पंद्रह हज़ार सेना के साथ देहली से पचपन मील के फ़ासले पर उत्तर दिशा की तरफ़, यमुना किनारे बसे पानीपत के पास अपने ख़ेमे गाड़ दिए।
दूर तक फैले यमुना के पाट और आबादी से थोड़ी दूर बाबर के तोपची उस्ताद अली क़ुली और मुस्तफ़ा रूमी ने अपनी तोपों को खड़ा कर दिया। पश्चिम की तरफ़ लुढ़कते सूरज की धूप और बढ़ती गर्मी के कारण पसीने से तर बाबर भी थकान मिटाने शाही ख़ेमे में चला आया। कुछ देर आराम करने के बाद वह ख़ेमे से बाहर आया और दूर तक फैली और मंथर गति से दक्षिण की तरफ़ बहती यमुना पर नज़र डाली। यमुना के साफ़ चिलकते पानी को देख, एक पल के लिए उसे लगा मानो उसके सामने पिघली हुई चाँदी की विशाल नदी बह रही है। जब-जब यमुना की सतह पर लहरें थिरकतीं हुई आपस में अठखेलियाँ करतीं, तब-तब लगता जैसे किसी धवल चादर के कोनों को पकड़ कोई धीरे-धीरे हिला रहा है। कुछ देर रुक कर वह वापिस अपने ख़ेमे में लौट आया।
शाम को मग़रिब की अज़ान के समय बाबर की नहाने की इच्छा हुई। शाही ख़ेमे से निकल वह यमुना की तरफ़ चला आया। यमुना के तट से वह नदी के विहंगम दृश्य को देखने लगा। जुह्र के वक़्त जिस धूप ने नदी के बहते पानी को चाँदी के वरक़ में बदल दिया था, डूबते सूरज की स्वर्णिम आभा ने उसी पानी को पिघले हुए पीतांबरी दरिया में तब्दील कर दिया। जहाँ तक बाबर की नज़र जाती, लगता मानो पिघले हुए सोने का दरिया बहा जा रहा है। कभी-कभी तो बुझती शाम के चिलकते पीतांबरी पानी को देख कर लगता, जैसे दूर यमुना की सतह पर सोने की असंख्य अशर्फ़ियाँ तैर रही हैं। बाबर छोटे-छोटे क़दमों के साथ बड़ी सावधानी के साथ यमुना के उथले पानी में उतर गया। कमर तक बहते पानी में उसने एक बार नहीं कई डुबकियाँ लगाईं। बर्फ़ से शीतल पानी में जब भी वह डुबकी लगाता, तो ऐसा लगता जैसे नसों में ख़ून नहीं, यमुना का ठंडा पानी बह रहा है। बाबर देर तक यमुना में नहाता रहा।
बाबर के गुप्तचरों ने बड़ी बारीकी के साथ पानीपत और उसके आसपास का मुआयना किया। मुआयने के दौरान उन्होंने पाया कि पानीपत के दोनों तरफ़ जो जंगल और दलदल है, उसे बड़ी-से-बड़ी सेना आसानी से पार नहीं कर सकती। इससे पहले बाबर अपने सैनिकों को हुक्म दे चुका है कि जितनी ज़ल्दी हो सके, वे आसपास के गाँवों से कुछ और अराबों (लकड़ी के छकड़ों) का इंतज़ाम करके लाएँ। जो अराबें पहले से उनके पास हैं, उनसे काम नहीं चलने वाला। सिपाहियों को इन छकड़ों को खोजने और उन्हें इकट्ठा करने में कोई ख़ास मशक़्कत नहीं करनी पड़ी। क्योंकि हिंदुस्तान के हर गाँव के किसान के पास ये हमेशा मौजूद रहते हैं। इस तरह सात सौ और छकड़ों का इंतज़ाम हो गया।
अपने तोपची उस्ताद अली क़ुली और दूसरे बेगों व सरदारों के साथ मिल कर पानीपत और यमुना के मध्य उसने जो जगह चुनी, उसके दाईं तरफ़ यमुना है। जबकि वहीं बीच में उसकी रणनीति के हिसाब से वह बड़ा-सा टीला है, जिस पर इस समय वह ख़ुद खड़ा हुआ है। इसके एक तरफ़ घना आबादी वाला पानीपत शहर है, जिसकी संकरी गलियों से लोग आते-जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।
मैदान का आख़िरी बार मुआयना कर, बाबर अपने तोपची अली क़ुली की ओर मुड़ा।
”उस्ताद, मेरे ख़याल से शहर और यमुना के बीच बने इस टीले पर छकड़ों को, बाज़ुओं के आधे घेरे की शक्ल में, इनका मुँह ढलान की तरफ़ करवा कर खड़ा करवाना ठीक रहेगा? इनके आगे और इनके बीच के तंग फ़ासलों में तीरंदाज़ों और तुफ़ंगचियों की ढाल खड़ी कर दी जाएगी, ताकि ये आसानी से तीर और गोलियाँ दाग सकें। वो देखो उधर, जिधर से लोग आ-जा आ रहे हैं, वहाँ से बैरी का आना बहुत मुश्किल है। इसलिए उनके पास सिवाय सामने से हमला करने के दूसरा रास्ता नहीं होगा।”
“आप सही फ़रमा रहे हैं हुज़ूरे आली। अब देखना यह होगा कि टीले के नीचे खोदी जाने वाली और घास-फूस से ढकी खाई, और ऊपर से नीचे की तरफ़ एक साथ लुढ़क कर आने वाले छकड़े, दुश्मन की ताक़तवर फ़ौज के दबाव को किस हद तक रोक पाने में कामयाब हो पाते हैं।”
“इसीलिए इन छकड़ों के पहियों के नीचे लकड़ी की टेकें लगा कर, इनको एक-दूसरे के साथ रूमी तरीक़े से बाँधने के लिए बैल की ख़ाल के मज़बूत तस्मों का इंतज़ाम किया गया है। जंग के दौरान मौक़ा पड़ने पर जैसे ही छकड़ों के पहियों के नीचे से लकड़ी की टेकें हटाई जाएँगी, एक-दूसरे से बंधे सारे छकड़े एक मज़बूत और भारी ज़ंजीर की की शक्ल में नीचे की तरफ़ एकसाथ लुढ़कते हुए आएँगे।” बाबर ने अपने तोपची उस्ताद अली क़ुली की आशंका का निवारण करते हुए बताया।
“मगर हुज़ूर, इस बात का ख़ास ख़याल रखना होगा कि जैसे ही इनके पहियों के नीचे टेकें हटें, ये एक ही चाल से, एक साथ नीचे की तरफ़ आएँ।” हिंदू बेग इंदर ने पहली बार अपनी राय प्रकट की।
“आप सही फ़रमा रहे हैं हिंदू बेग। यह काम इतना आसान नहीं है जितना हमें लग रहा है। अगर ये छकड़े एक साथ नहीं लुढ़के, तो इन्हें बाँधने वाले तस्में टूट सकते हैं जिससे इनकी क़तार भी टूट सकती है। मगर ऐसा होगा नहीं क्योंकि हमारे सिपाही इस काम में बहुत माहिर हैं।”
इसके बाद बाबर हिंदू बेग इंदर के साथ टीले से उतर कर उस खाई की तरफ़ आ गया; जिसे बड़ी–बड़ी टहनियों, घास-फूस और मिट्टी से ढक दिया गया था। इस जगह को देख कर कोई नहीं कह सकता कि इनके नीचे खाई खुदी हुई है। इस खाई को ढकने का मक़सद यह है कि दुश्मन के हाथी और घोड़े इनमें गिर कर फँस जाएँ। हर तरफ़ और हर तरह से पूरी तरह तसल्ली हो जाने के बाद बाबर शाही ख़ेमे में लौट आया।
अभी बाबर अपनी तैयारियों से निश्चिंत हुआ ही था कि उसके गुप्तचर ने आ कर ख़बर दी कि सुल्तान इब्राहिम लोदी ने तक़रीबन छ्ह हज़ार घुड़सवारों को यमुना के दूसरी पार भेज दिया है। गुप्तचर ने बाबर को यह भी बताया कि इब्राहिम लोदी के पास कुल सत्ताईस हज़ार सैनिकों का इंतज़ाम है।
1526-First Battle of Panipat-Ibrahim Lodhi and Babur
इस ख़बर को सुन बाबर ने भी अपनी फ़ौज को आगे बढ़ने का हुक्म दिया। बाबर की फ़ौज ने जिस तरह दुश्मन पर हमला किया, उसमें उसे न केवल सफलता मिली बल्कि इब्राहिम लोदी के कई जाँबाज़ सरदारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। अपितु कुछ तो जान बचा कर मैदान से भाग गए।
इस हार के बाद सुल्तान इब्राहीम लोदी ने तुरंत अलवर, शाहे-मेवात और अपने मौसेरे भाई ख़ानज़ादा हसन खाँ मेवाती के पास संदेश भेजा कि जितनी ज़ल्दी हो सके वह देहली आ जाए। संदेश मिलते ही हसन खाँ देहली के लिए रवाना हो गया।
अपने मौसेरे भाई को चिंता में डूबा देख हसन खाँ को समझते हुए देर नहीं लगी, कि ज़रूर कोई बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है जिसके कारण इब्राहिम लोदी इस तरह चिंता में डूबा हुआ है।
“सुल्तान, सब ख़ैरियत तो है? ऐसा क्या हुआ जो आपने रुक्के में यह लिख भेजा कि रोटी वहाँ खाओ, तो पानी यहाँ आ कर पीना?” हसन खाँ मेवाती ने आते ही सुल्तान इब्राहीम लोदी से पूछा।
“ख़ैरियत क्या हसन, उस वक़्त आपने ठीक कहा था कि हमें अपने इस नए बैरी से चौकन्ना रहने की ज़रूरत है।” सुल्तान इब्राहीम लोदी ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
“मैं कुछ समझा नहीं सुल्तान। आप किस बैरी की बात कर रहे हैं?”
“उसी जहीरुद्दीन बाबर की जिसने हिंदुस्तान में आए कभी अपने पुरखे अमीर तैमूर लंग के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों की माँग की थी।”
“मगर सुल्तान यह तो पुरानी बात हो गई। उसका आज क्या लेना-देना जो आपको मुझे इस तरह तुरंत हाज़िर होने का पैग़ाम भेजना पड़ गया?” हसन खाँ मेवाती ने हैरान होते हुए पूछा ।
“लेना-देना है तभी तो मैंने आपको बुलाया है। दरअसल, हमें यह ख़बर मिली है कि हमारा बैरी बाबर देहली के क़रीब पहुँच चुका है। ”
“क़रीब पहुँच चुका है, मगर कहाँ?”
“देहली के शुमाल में जमना के किनारे बसे पानीपत आ पहुँचा है। आज अगर वह पानीपत है तो कल देहली पर भी ज़रूर चढ़ाई करेगा।”
“फिर आपने क्या सोचा है सुल्तान?”
“इसीलिए तो आपको बुलाया है कि इस मुआमले में आप हमारी क्या मदद कर सकते हैं।”
“सुल्तान, हम ख़ानज़ादे तो आपकी ख़िदमत में हर वक़्त तैयार हैं। बस, आप एक बार हुक्म करिए।”
“हसन, लगता है हमें जंग के लिए तैयार रहना पड़ेगा। जो शख़्स पूरे लाव-लशकर और जंगी साज़ो-सामान के साथ देहली की तरफ़ बढ़ा आ रहा है, उससे अमन-चैन की उम्मीद करना बेकार है।”
“सुल्तान, हम तो हमेशा तैयार हैं। मैं अपने बेटे ताहिर खाँ को आपकी फ़ौज में शामिल होने के लिए बुला लेता हूँ।”
“फ़िलहाल आप ताहिर खाँ को ही भेजना। क्योंकि इस नाज़ुक मौक़े पर आपका अलवर में रहना बेहद ज़रूरी है।”
“जैसी आपकी मर्ज़ी सुल्तान।” फिर कुछ पल सोचने के बाद हसन खाँ ने पूछा, ”वैसे बाबर की जंग की कैसी तैयारी है?”
“पैदल सेना तो उसके पास सिर्फ़ बारह-तेरह हज़ार ही है। हाँ, कुछ तोपें और तुफ़ंग ज़रूर हैं उसके पास।”
“क्या उसकी यह बारह-तेरह हज़ार सेना हमारे सुल्तान की हाथी और घुडसवारों वाली एक लाख फ़ौज के सामने टिक पाएगी?” हसन खाँ मेवाती ने एक फ़ीकी हँसी हँसते हुए कहा।
“यही तो समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे एक आदमी कुछ हज़ार फ़ौज और कुछ तोप-बंदूकों के बूते, इतनी दूर से हमसे जंग करने आ रहा है।” सुल्तान इब्राहिम लोदी की पेशानी पर बल गहरे होते चले गए।
“सुल्तान, देखना हमारी फ़ौज उस बाबर की मुट्ठी भर सेना को चीटियों की तरह मसल देगी। ख़ुदा पर यक़ीन करिए। फ़तह आपके क़दम चूमेगी।”
“मैं जानता हूँ हसन कि ऐसा ही होगा। दरअसल, मेरी फ़िक्र की वजह ना तो यह बाबर है, न ही इसकी ये तोप और तुफ़ंग। मेरी फ़िक्र की वजह है अपने वे बाग़ी अमीर और वे हिंदुस्तानी राजा, जो हमसे नाराज़ ही नहीं बल्कि ना-ख़ुश भी हैं।”
“आप कहना क्या चाह रहे हैं सुल्तान। अगर आपके अमीर आपसे नाराज़ और ना-ख़ुश हो कर बाग़ी हो गए हैं, तो उनका बाबर से क्या वास्ता है?”
“यही तो फ़िक्र की बात है हसन कि वे नाराज़ हो जाते। हमसे ना-ख़ुश हो कर बाग़ी भी हो जाते, कोई बात नहीं थी। मगर उन्होंने तो हमारे ही दुश्मन से हाथ जा मिलाया।”
“फिर तो आपकी फ़िक्र मुनासिब है सुल्तान।”
First battle of Panipat was fought on 21 April 1526.
“मुझे तो यहाँ तक ख़बर मिली है कि हमारे कुछ नाराज़ अफ़ग़ान अमीर-उमराव ही नहीं, कुछ हिंदू राजा भी बाबर को हमारे ख़िलाफ़ हिंदुस्तान आने की दावत दे चुके हैं। उससे बार-बार यहाँ आने की गुज़ारिश कर रहे हैं। हसन, आपको सुन कर हैरानी होगी कि इन हिंदू राजाओं में राजस्थान के राजा राणा संग्राम सिंह भी शामिल है। हमारे दरबार में तैनात हिंदू सरदार इंदर तो सात साल पहले बाबर की चौखट चूम ही चुका है। अब राजा राणा संग्राम सिंह भी चाहता है कि बाबर उसके साथ मिल कर हमारे ख़िलाफ़ जंग लड़े। बाबर के हौसले की असल वजह उसकी ये तोप-तुफ़ंग नहीं हैं, बल्कि इसकी वजह हैं वे अफ़ग़ान अमीर-उमराव और हिंदुस्तान के कुछ हिंदू राजा, जो जानते हुए भी अपनी ज़मीन से खदेड़े गए एक आततायी को अपने घर में घुसने की दावत दे रहे हैं। बहरहाल, मुझे आपसे यही उम्मीद थी।”
“सुल्तान, अगर यह बात है तो आने वाले दिनों में हिंदुस्तान को इसकी बड़ी भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। आने वाली नस्लें अपने इन पुरखों को कभी मुआफ़ नहीं करेंगी। फिर भी सुल्तान, आपको चौकन्ना और सावधान रहने की ज़रूरत है। अपने गुप्तचरों से उसकी तैयारियों और पल-पल की ख़बर लेते रहना चाहिए।”
“आप सही कह रहे हैं हसन।” फिर कुछ क्षण चुप रहने के बाद सुल्तान इब्राहिम लोदी बोला, ”हो सके तो बेटे ताहिर खाँ के साथ कुछ फ़ौज और असलाह भी भिजवा देना। दुश्मन को कभी भी कमज़ोर नहीं मानना चाहिए।”
“आप बेफ़िक्र रहें सुल्तान। मेरे ज़हन में यह बात पहले से है।”
अलवर लौटने के बाद शाहे-मेवात हसन खाँ मेवाती ने शाही महल में अपने वालिद अलावल खाँ, दोनों बेटों, चाचा हुसैन खाँ, चचेरे भाई जमाल खाँ, फ़तहजंग, अपने अहलकार करमचंद समेत ख़ास सरदारों को तुरंत दीवान में इकट्ठा होने के लिए कहा। कुछ ही देर में सब इकट्ठा हो गए।
दीवान में इकट्ठा होने के बाद थोड़ी देर ख़ामोशी छाई रही। इस ख़ामोशी को अहलकार करमचंद ने बड़े अदब के साथ तोड़ते हुए पूछा, ”शाहे मेवात, ऐसी क्या बात है जो आपने सब को इस तरह इकट्ठा होने के लिए कहा है? इससे पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ, जब सबको इस तरह इकट्ठा होने के लिए कहा गया हो?”
अपने अहलकार की बात सुन हसन खाँ मेवाती ने दीवान में मौजूद सब पर नज़र डाली। आख़िर में उसकी नज़र अपने वालिद अलावल खाँ पर आकर टिक गई।
“हसन, बेटे दीवान जी ने कुछ पूछा है?” अलावल खाँ ने हसन खाँ से पूछा।
“अब्बा हुज़ूर, सुना है कि अमीर तैमूर ख़ानदान का एक वारिस जहीरुद्दीन मोहम्मद मिर्ज़ा बाबर देहली के क़रीब आ पहुँचा है।”
“उस अमीर तैमूर लंग का वारिस, जिसने इस ख़ानज़ादा ख़ानदान के जाँ-बाज़ और हमारे पुरखे वली बहादुर खाँ के बेटे मल्लू खाँ यानि इक़बाल खाँ ने जिसकी नाक में दम कर दिया था... और मल्लू खाँ के पकड़ में न आने पर उसके दोनों बेटे ख़ुदादाद खाँ और सईफ़ुद्दीन को गिरफ़्तार कर तैमूर के सामने पेश किया गया था?”
“जी अब्बा हुज़ूर, यह उसी अमीर तैमूर का वारिस है।” हसन खाँ ने अपने वालिद अलावल खाँ की बात की तस्दीक की।
“सुना है बाबर ने एक बार हिंदुस्तान में अमीर तैमूर के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों को भी, हमारे साढू सुल्तान सिकंदर शाह लोदी के बेटे और आपके मौसेरे भाई सुल्तान इब्राहिम लोदी से वापिस लौटाने के लिए कहा था?”
“आपने सही सुना है अब्बा हुज़ूर। यह वही बाबर है जो हिंदुस्तान पर हुकूमत करने की मंशा और नीयत से इस बार देहली तक पहुँचने में कामयाब हो चुका है। इसी सिलसिले में सुल्तान इब्राहिम लोदी ने मुझे देहली बुलाया था।”
“शाहे मेवात, हम कुछ समझे नहीं कि आप किस सिलसिले की बात कर रहे हैं?” इस बार अहलकार करमचंद बोला।
“दीवान साहब, सुल्तान की बातों और उसे मिली ख़ुफ़िया जानकारी से ऐसा लगता है कि बाबर हिंदुस्तान जंग की पूरी तैयारियों के साथ आया है। मैंने आप सबको इसी मशविरे के लिए बुलाया है कि हमें सुल्तान की किस तरह मदद करनी चाहिए?”
हसन खाँ मेवाती द्वारा मदद की बात सुन पूरे दीवान में एक पल के लिए ख़ामोशी छा गई। फिर धीरे-से करमचंद की आवाज़ उभरी, ”आपने क्या सोचा है शाहे-मेवात? मेरा मतलब है सुल्तान से इस मसले पर आपकी क्या बात हुई है?”
“सुल्तान ने मुझसे मदद की गुज़ारिश की है।”
“किस तरह की मदद?” इस बार अलावल खाँ ने बेटे से पूछा।
“यही कि असलाह के अलावा हम में से कोई उसकी फ़ौज में शामिल हो कर उसकी मदद करे।”
“यह तो हमारा फ़र्ज़ ही नहीं हमारी ज़िम्मेदारी भी बनती है। आख़िर सुल्तान हमारा क़रीबी रिश्तेदार जो ठहरा। क्या पता, हसन का मौसेरा भाई होने के नाते उसने हमसे इमदाद की गुहार की हो।”
“मैंने तो कहा था अब्बा हुज़ूर कि हम आपकी मदद के लिए आ जाते हैं। मगर सुल्तान ने सिर्फ़ हमारे बेटे ताहिर खाँ को माँगा है।” हसन खाँ बोला।
“ताहिर के साथ आप भी क्यों नहीं चले जाते?” अलावल खाँ ने सुझाव दिया।
“मैंने कहा था तो बोला कि आपका अलवर में रहना ज़रूरी है।”
“सुल्तान ने यह बात तो सही कही है। बैरी का क्या पता, वह कहाँ धावा बोल दे।” फिर अलावल खाँ गहरी साँस लेते हुए बोला, ”सुल्तान ने सिर्फ़ ताहिर खाँ बुलवाया है, तो कुछ सोच कर ही बुलवाया होगा।”
“मगर फिर भी हमें सुल्तान की हर मदद के लिए तैयार रहना होगा।” हसन खाँ के चाचा हुसैन खाँ ने पहली बार प्रतिक्रिया दी।
“मेरी राय तो यह है कि ताहिर खाँ ही नहीं, फ़तहजंग और मुझे भी सुल्तान की फ़ौज में शामिल होने के लिए जाना चाहिए।” हसन खाँ का चचेरा भाई जमाल खाँ बोला।
“जमाल खाँ, इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। देखना, सुल्तान की हाथी-घोड़ों वाली एक लाख की फ़ौज के आगे बाबर की बारह-तेरह हज़ार की फ़ौज तिनकों की तरह हवा में उड़ जाएगी।”
“जमाल, यह बात तो हसन खाँ सही कह रहा है। कहाँ एक लाख फ़ौज और कहाँ बारह-तेरह हज़ार।” हसन खाँ के चाचा हुसैन खाँ मुस्कराते हुए बोला।
“तो फिर ठीक है। ताहिर खाँ आप देहली जाने की तैयारी कर लें!”
“जी अब्बा हुज़ूर।” अपने वालिद हसन खाँ मेवाती के आदेश ताहिर खाँ ने हामी भरते हुए कहा।
अप्रैल महीना और उसकी की एक संध्या।
दूर तक फैली यमुना की देह को छू कर आती हवाएँ, जब-जब जलती हुई मशालों से आकर टकरातीं, तो मशालों का ग़ुस्सा देखते ही बनता। मारे क्षोभ के उनकी लौ रह-रह झुँझलाने लगतीं। बाबर ने ख़ेमों के बाहर खुले आसमान के नीचे अपने सारे बेगों, मुसाहिबों, बहादुरों, वज़ीरों, ओहदेदारों, तोपचियों, सिपहसालारों और सरदारों, जिन्हें पहले से ऐसी जंगों का तजुर्बा है, मशविरे के लिए बुलाया। उसने सबके साथ मिल कर आगामी रणनिति पर सलाह-मशविरा किया। किस जगह पर और कैसे जंग होनी चाहिए, जैसे युद्ध-संबंधी पहलुओं पर गहन चर्चा हुई।
उस रात बाबर को पूरी रात नींद नहीं आई। बीच-बीच में जब भी नींद का कोई झोंका आता, अवचेतन में चल रहे युद्ध की तैयारी उसे फिर से जगा देती। शाही ख़ेमे में जल रहे चिराग़ों की रोशनी में उसे बनात की मोटी दीवार पर करवट लेती अपनी परछाई तैरती नज़र आती। उसने जैसे तय कर लिया कि इस जंग में वह उन्हीं तरीक़ों पर अमल करेगा, जो उसने मध्य एशिया में होने वाले युद्धों में बड़ी बारीकी और नज़दीक से देखे थे। कुछ युद्धों के बारे में उसने सुना था और कुछ में उसने ख़ुद हिस्सा लिया था। अपने पुरखे अमीर तैमूर लंग द्वारा थानेश्वर की जंग में, मेवात के ख़ानज़ादा मल्लू खाँ उर्फ़ इक़बाल खाँ के डर के चलते जिस बचाव के तरीक़े का इस्तेमाल अमीर तैमूर ने किया था, उसी तरीक़े का इस्तेमाल वह यहाँ भी करेगा।
उसने अपने ख़ानदान के लोगों से सुना था कि किस तरह मल्लू खाँ की फ़ौज को देख कर अमीर तैमूर के सैनिक डर गए थे। इस डर को दूर करने के लिए अमीर तैमूर ने अपने सैनिकों को हुक्म दिया कि अपनी फ़ौज के आगे ऊँचे-ऊँचे टीले बना दिए जाएँ। इन टीलों के सामने गहरी खाइयाँ खोद कर उनके सामने हाथियों की पंक्ति बना, उनकी गर्दनों और पैरों को चमड़े के पट्टों से बाँध दिया जाए ताकि दुश्मन के आगे एक अभेद्य दीवार बन जाए। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए बाबर ने जो युद्ध-प्रणाली तैयार की है, वह उसे इस जंग में इस्तेमाल करेगा। इस प्रणाली को बाबर ने रूमियों, मंगोलों, ईरानियों और बोहेमियंस के अनुभवों को ध्यान में रख कर तैयार किया है। इसलिए वह पूरी तरह आश्वस्त ही नहीं बल्कि उसे पूरा यक़ीन है कि इस जंग में उसकी फ़तह ज़रूर होगी। तरह-तरह की कल्पनाओं में डूबे बाबर को फ़ज्र की अज़ान से कुछ देर पहले नींद ने ऐसा दबोचा कि सुबह जब उसकी आँखें खुलीं, तो देखा सूरज आसमान में काफ़ी ऊपर चढ़ आया है।
अगले दिन बाबर ने एक बार फिर से अपने बेगों, बहादुरों, तोपचियों, सिपहसालारों और सरदारों के साथ जंग के मैदान की तैयारियों का जायज़ा लिया।
“हमें इस बात का ख़ास ख़याल रखना होगा कि हमारे घुड़सवार और तोपख़ाना, दोनों का आपस में एक-दूसरे से इस तरह ताल्लुक़ होना चाहिए, कि इनकी आपस में एक-दूसरे की हर चाल और हरकत पर नज़र रहे।” बाबर ने अपने विश्वासपात्र और सबसे विश्वसनीय बेग से कहा।
“जी पादशाह सलामत। ” बेग सर हिलाते हुए बोला।
“और उस्ताद अली क़ुली, जैसे ही हमारे सिपाहियों से दुश्मन की फ़ौज चारों तरफ़ से घिर जाए, आपको और मुस्तफ़ा रूमी को अपनी तोपों से ताबड़-तोड़ हमला कर देना है!”
“जी हुज़ूरे आली। ” तोपची उस्ताद अली क़ुली बड़े अदब से आगे बढ़ते हुए बोला।
Vaki'at-i_Baburi_-_The_Battle_of_Panipat_(1526)_by_Deo_Gujarati
इसके बाद बाबर ने वहाँ मौजूद अपने बहादुरों और सरदारों की तरफ़ देखा और फिर एक कुटिल मुस्कान बिखेर, उन्हें सम्बोधित करते हुए बोला, ”ऐ मेरे ख़ुदावंद बहादुर सरदारों, यह सब बताने का मेरा मक़सद यह है कि आप कोई आम तरीक़े से जंग लड़ने नहीं जा रहे हैं। बल्कि एक ख़ास तरीक़े से जंग लड़ने जा रहे हैं, जिसका नाम है-तुलुग़मा। इसके इस्तेमाल करने के पीछे मेरा मक़सद है अपनी फ़ौज के सभी हिस्सों को महफूज़ रखना। फ़ौज के सभी हिस्सों के साथ मिल कर दुश्मन के ख़िलाफ़ आगे बढ़ना, और मिल कर उस पर हमला करना। एक-दूसरे की मदद कर आगे बढ़ कर जंग लड़ना, या ज़रूरत के मुताबिक़ अपने आपको बचाते हुए जंग करना।”
जिस वक़्त बाबर अपने सरदारों को संबोधित कर रहा था, पूरी फ़ौज बड़ी तल्लीनता से उसके आदेशों और निर्देशों को सुन रही थी। इसके बाद बाबर ने दूर अभ्यास करते अपने तोपचियों और तुफ़ंगचियों की तरफ़ देखा और फिर अपने ख़ेमे में आ गया।
अपने गुप्तचरों से मिली जानकारी के आधार पर सुल्तान इब्राहिम लोदी राजपूत राजाओं की तरह हाथियों और घुड़सवारों की विशाल सेना ले कर पानीपत की तरफ़ चल पड़ा। पानीपत से दो मील पहले उसने अपना लश्कर रोक दिया। पानीपत पहुँचने के बाद जंग के मैदान में उतरने से पहले सुल्तान इब्राहिम लोदी ने एक आलिशान दरबार लगाया। दरबार में अपने अमीर-उमरा, बहादुरों और जाँ-बाज़ सिपाहियों को सम्बोधित करते हुए वह बोला, ”ऐ मेरे बहादुर अमीर-उमरा, ये लो बेशकीमती हीरे-जवाहरात और सोने की अशर्फ़ियाँ। इस जंग में तब तक आपको लड़ते रहना है, जब तक अपनी सल्तनत के लिए शहीद ना हो जाओ!” इसके बाद उसने अपने दाएँ तरफ़ देखते हुए कहा,”हमारा शाही नुजूमी कहाँ है?”
अपने सुल्तान की आवाज़ पर शाही ज्योतिषी लपक कर आगे आया।
“ख़ुदावंद नुजूमी, आसमान की दशा देख कर बताओ कि इस जंग में किसकी जीत होगी ?” सुल्तान इब्राहिम लोदी ने शाही ज्योतिषी से पूछा।
“हुज़ूरे आली, सितारों की चाल से ऐसा जान पड़ता है कि हमारे सारे हाथी और घोड़े बाबर की फ़ौज में दाख़िल हो चुके हैं। ”
“इसका मतलब यह हुआ कि कामयाबी हमारे क़दम चूमने को बेताब है। इस जंग में मुगलों पर हमारी फ़तह होगी?”
“जी सुल्तान, ऐसा ही होगा। ” ज्योतिषी ने बताया।
“देखा मेरे बहादुरों! हमारा शाही नुजूमी भी हमारी कामयाबी की बात कर रहा है। इस जंग को जीतने के बाद मैं आपको बेशकीमती तोहफ़े देकर मालामाल कर दूँगा।”
अपने शाही ज्योतिषी के कथन के बाद सुल्तान इब्राहिम लोदी जैसे अपनी जीत को लेकर निश्चिंत हो गया। पानीपत के मैदान में अपने पचास हज़ार सैनिक और एक हज़ार हाथियों की भारी-भरकम फ़ौज के बावजूद उसने अपने दुश्मन पर आक्रमण नहीं किया। न तो उसने बाबर की फ़ौज की संख्या और सैन्य-व्यवस्था जानने की कोशिश की, और न ही शहर से रसद पहुँचने वाली व्यवस्था को ध्वस्त किया। इतना ही नहीं उसने राणा संग्राम सिंह जैसे राजाओं और पूर्वी इलाक़ों के अफ़ग़ानों तक से किसी तरह की मदद लेने की कोशिश नहीं की। यहाँ तक कि न तो उसने बाबर की तरह अपने सैनिकों को पंक्तिबद्ध किया और न ही किसी नई युद्ध- प्रणाली पर ध्यान दिया। इस तरह पानीपत में सुल्तान इब्राहिम लोदी अगले आठ दिनों तक बाबर के ख़िलाफ़ बिना किसी सैनिक कार्यवाई के हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा।
जबकि इन आठ दिनों में बाबर ने और पुख़्ता तैयारी कर ली। जब उसे लगा कि सुल्तान इब्राहिम लोदी की सेना लड़ने को आतुर हुई जा रही है, तब उसने दुश्मन की फ़ौज को युद्ध करने के लिए बाध्य किया। उसने अपने तीन बेगों को लगभग पाँच हज़ार सैनिकों की टुकड़ी के साथ दुश्मन के लश्कर पर छापा मारने के लिए रवाना दिया। ऐसा बाबर ने दुश्मन को उकसाने के लिए किया और एक हद तक वह इसमें क़ामयाब हो भी गया।
अगली सुबह यमुना के बाएँ तट के क्षितिज से धरती की कोख से निकले, सूरज की धूप में नहाई सुल्तान इब्राहिम लोदी की विशाल सेना, समंदर की बे-क़ाबू लहरों-सी हरहराती हुई तेज़ी से आगे की तरफ़ बढ़ने लगी। पूरा क्षितिज आसमान में उड़ते धूल के बादलों और सैनिकों की अंतहीन क़तारों के पीछे छिप गया। बाबर उस टीले पर खड़ा अपनी तरफ़ बढ़ते सैन्य-ज्वार को अपलक देखे जा रहा है, जिस पर बैल की ख़ाल के तस्मों से कस कर बाँधे गए छकड़े क़तार में पूरी मुस्तैदी के साथ तैनात हैं। बाबर को जैसे इसी मौक़े की तलाश थी।
दुश्मन नज़दीक आता जा रहा है। नज़दीक आने के बावजूद बाबर ने धैर्य नहीं खोया। वह एकदम शांत रहा। उसे जैसे अब भी किसी ख़ास मौक़े की तलाश है। उसने पलट कर टीले पर पंक्तिबद्ध खड़े छकड़ों व ढालों की ओट में छिपे सिपाहियों की मज़बूत दीवार की तरफ़ देखा। फिर सेना के उस दाएँ हिस्से पर नज़र डाली, जिसकी कमान हुमायूँ ने सँभाली हुई है। बाएँ हिस्से की कमान मुहम्मद सुल्तान मिर्ज़ा और मेहँदी ख़्वाजा को सौंपी गई है। सेना के मध्य भाग के दाएँ हिस्से में चिन तैमूर सुल्तान, सुलेमान मिर्ज़ा, मुहम्मद कोकुलदाश को तैनात किया गया है। वहीं मध्य हिस्से के बाएँ बाज़ू में ख़्वाजा मीर-मीरान व तरदी बेग को ज़िम्मेदारी सौंपी गई। तुलुग़मा के लिए दाएँ हिस्से के सिरे पर शेख़ जमाल बारीन को रखा गया। इन दोनों टुकड़ियों का काम चक्कर लगा कर दुश्मन की फ़ौज को दाईं और बाईं तरफ़ से घेरना है। इस तरह मध्य में तोपची, तुफ़ंगची, तीरंदाज़ और पैदल सेना तैनात की गई। जबकि तुलुग़मा के लिए दोनों सिरों पर तूफ़ानी हमलों के लिए घुड़सवार दस्ते तैनात किए गए हैं।
महीना वही अप्रैल। दिन शुक्रवार।
सुल्तान इब्राहीम लोदी की सेना काली आँधी की तरह हरहराती हुई मुग़लों की तरफ़ चली आ रही है। बाबर एकदम निश्चल खड़ा उसे देखे जा रहा है जबकि उसकी सेना और बेगों से इंतज़ार करना अब मुश्किल हो रहा है। उसे जैसे ही अपनी सेना और बेगों में कुछ हलचल नज़र आती, वह ज़ोर से चिल्ला उठता, ”ऐ मेरे ख़ुदावंद बहादुरों, सब्र से काम लो! थोड़ा इंतज़ार करो ! कोई आगे न बढ़े!”
इसी बीच सुल्तान इब्राहिम लोदी की नज़र छकड़ों व ढालों की दीवार के पीछे शांत खड़ी सेना पर पड़ी। शांत सेना को देख, उसने भी अपनी फ़ौज रोक दी। उसने बाबर की सेना पर नज़र दौड़ाई और कुछ पल सोचने के बाद अपने सिपहसालारों को हुक्म दिया, ”ऐ मेरे सिपाहियों! तुरंत वापिस मुड़ो ! दुश्मन पर सामने से हमला करने के बजाय, शहर की तरफ़ से निकल कर टीले को घेर कर, उसके दाहिने हिस्से पर टूट पड़ो !”
मगर जब तक अपनी विशाल फ़ौज तक सुल्तान इब्राहिम लोदी का हुक्म पहुँचता और वह कुछ कार्रवाई करता, बाबर की सेना ने जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी। दो हज़ार घुड़सवार सैनिक इब्राहिम लोदी के बाएँ तरफ़ मुड़ रहे हाथियों व पैदल सिपाहियों के बग़ल से निकल कर, उसके पिछले हिस्से में पहुँच गई। तुलुग़मा बनाने वाले सेनिकों ने दाएँ-बाएँ से इब्राहिम लोदी की सेना को घेर लिया और उन पर बाणों की बौछार शुरू कर दी। देखते-ही-देखते इब्राहिम लोदी की सेना चारों तरफ़ से घिर गई। बाबर ने जैसे ही देखा कि इब्राहिम लोदी की सेना चारों तरफ़ से घिर गई है, वह टीले पर बैलों की ख़ाल के तस्मों से जकड़ कर बाँधे गए छकड़ों के बीच में खड़ी तोपों की तरफ़ इशारा करते हुए चिल्लाया,”उस्ताsssद ! अपनी तोपों का मुँह खोल दो!”
इधर बाबर का हुक्म हुआ, उधर उस्ताद अली क़ुली और मुस्तफ़ा रूमी की टीले पर खड़ी तोपें गरज़ उठीं। देखते-ही-देखते इब्राहिम लोदी की सेना के पाँव उखड़ने लगे। बाबर की योजना सफल होने लगी। इब्राहिम लोदी की सेना बाबर की सेना से कई गुना ज़्यादा है। भले ही इब्राहिम लोदी की सेना के घोड़े बेहद तेज़ हैं, पर हाथियों से बहुत कमज़ोर हैं। घेरे को तोड़ने के लिए सिपाही कभी दाएँ तरफ़ दौड़ने लगे, कभी बाएँ तरफ़। चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री मच गई। इसी बीच बाबर ने टीले के सामने वाले हिस्से को अपने सैनिकों से ख़ाली करने का आदेश दिया। इधर जैसे ही बीच का यह हिस्सा ख़ाली हुआ इब्राहीम लोदी को इससे बेहतर मौक़ा नज़र नहीं आया। उसने जंग के फ़ैसले को अपनी तरफ़ मोड़ने की ग़रज़ से अपने जंगी हाथियों को टीले की तरफ़ मोड़ने का हुक्म दे दिया, ताकि इस ऊँची जगह से जंग को जीता जा सके। इब्राहिम लोदी के हुक्म पर उसके जंगी हाथी तेज़ी से टीले की तरफ़ बढ़ने लगे। बाबर ने जैसे ही देखा कि इब्राहिम लोदी के जंगी हाथी, बैलों की ख़ाल के तस्मों से बाँध कर खड़े किए गए छकड़ों की तरफ़ बढ़ रहे हैं, उसने छकड़ों के पहियों के नीचे लगी उन टेकों को हटाने का हुक्म दिया, ढलान पर जो छकड़ों को रोके हुए थे। टेक हटते सारे छकड़े हरकत में आ गए और भयानक दैत्य का रूप धारण कर, जो भी उनके सामने आया, उसे कुचलते हुए नीचे की तरफ़ लुढ़कने लगे। इधर एक साथ बाबर के सैंकड़ों छकड़े दुश्मन की फ़ौज का काल बन उन्हें रौंदते हुए गति पकड़ने लगे, उधर दुश्मन पर तोपों और तुफ़ंग से गोलीबारी तेज़ हो गई।
उस्ताद अली क़ुली और मुस्तफ़ा रूमी की तोपों की गगनभेदी गर्जना से जैसे कान के परदे फटने लगे। लगने लगा जैसे बादलों को फाड़ कर आसमानी बिजली इब्राहिम लोदी की सेना पर गिर रही है। चारों तरफ़ छाए धुएँ और कालिख की वजह से युद्ध के मैदान में कुछ नज़र नहीं आ रहा है। जब-जब तोपों की नालों में भरे गए पत्थर तोपों के मुँह से पूरी गति से निकल हाथियों से आकर टकराते, मारे दर्द के हाथी बिलबिला उठते। चिंघाड़ते हुए घायल हाथी अपने ही घुड़सवारों और पैदल सेना को ऐसे कुचलने लगे, मानो उनके पैरों तले कीड़े-मकौड़े कुचले जा रहे हैं। महावत जैसे-जैसे उन्हें काबू में रखने की कोशिश करते, वे उतने ही बे-क़ाबू होने लगे। सुल्तान इब्राहिम लोदी के इतने सैनिक बाबर की सेना से हुई लड़ाई में नहीं मारे जाने लगे, जितने टीले से नीचे लुढ़कते छकड़ों की चपेट में आने और तोपों से निकले पत्थरों की मार से मारे जाने लगे। देखते-ही-देखते युद्ध का मैदान इब्राहिम लोदी के मरे हुए सैनिकों मरघट बन गया। जो अमीर-उमराव इब्राहिम लोदी से असंतुष्ट थे, वे मौक़ा पाते ही उसे अकेला छोड़ आसपास के जंगलों में भाग गए।
इब्राहिम लोदी अब अपने पाँच हज़ार घुड़सवारों के साथ बाबर की सेना से घिर गया। अपने सुल्तान को घिरा देख उसका एक अमीर महमूद खाँ, इब्राहिम लोदी के पास आया और उससे गुज़ारिश करने लगा,”हुज़ूर, आप बहुत बड़ी मुसीबात में घिर गए हैं। अच्छा होगा कि आप मैदाने-जंग से निकल जाएँ। अगर आप सलामत रहेंगे, तो यह फ़ौज फिर से इकट्ठी हो जाएगी!”
“महमूद खाँ, क्या कहा मैदाने-जंग से निकल जाऊँ? हम अफ़गानों के लिए मैदाने-जंग से निकल कर भागना कितनी बड़ी बुज़दिली है, यह आप जानते हैं? जिस सुल्तान के इतने अमीर-उमराव और जाँ-बाज़ सिपाही उसके सामने शहीद हुए पड़े हुए हों, वह सुल्तान उन्हें इस तरह लावारिस छोड़ कर भाग जाए, आपने कैसे सोच लिया? आप शायद भूल रहे हैं कि बादशाह सुर्ख़ ख़ेमे लगाते हैं और यह उनकी सुर्ख़-रूई की निशानी होती है। महमूद खाँ, हमने अपने ख़ून से अपने आपको सुर्ख़ कर लिया है। हमने फ़तह की सुर्ख़-रूई का लिबास पहन लिया है और अब जब सुर्ख़ लिबास पहन ही लिया है, तब यह कैसे ज़र्द हो जाए?” इसके बाद इब्राहिम लोदी ने एक फ़ीकी हँसी बिखेरी और आकाश की तरफ़ देखते हुए बोला, ”इस वक़्त यह बे-गैरत आसमान भी इस बाबर की ही मदद कर रहा है। इसलिए अच्छा तो हम सबके लिए यही है महमूद खाँ कि मैं और मेरे ये साथी सब एक ही जगह पर ख़ून से सनी धूल में मिल जाएँ। इसलिए याद रखिए कि-
हम कुछ और हो जाएँ ये मुनासिब नहीं
कि सुर्ख़-रूहों को ज़ैब नहीं ज़र्द हो जाना।”
अपने सुल्तान की दृढ़ता देख महमूद खाँ की आँखें भर आईं। वह जानता है कि उसके सुल्तान का बचना अब मुश्किल है, फिर भी उसे यहाँ से निकलना मंज़ूर नहीं है। महमूद खाँ ने कुछ नहीं कहा और वह भी पूरी दिलेरी और बहादुरी के साथ अपने सुल्तान के कंधे से कंधा मिला कर युद्ध करने लगा।
युद्ध अब अपने पूरे उन्माद पर पहुँच गया। जब-जब उस्ताद अली क़ुली और मुस्तफ़ा रूमी की तोपों से निकले और बारूद की गंध में सने पत्थर के गोले पूरी गति के साथ हवा को चीरते हुए दुश्मनों पर पड़ते, तो धरती दहल उठती। पत्थर के गोलों, तुफ़ंग की गोलियों और कमान से छूटे तीरों की बौछारों के आगे इब्राहिम लोदी के सैनिकों की हिम्मत जैसे जवाब देने लगी और थोड़ी देर बाद उनमें भगदड़ मच गई। इस भगदड़ में ज़मीन पर गिरे हुए उसी के सैनिक कुचले जाने लगे। इस दृश्य से घबरा कर बाकी सैनिक भी अपने-अपने हथियार फेंक कर भागने लगे।
ऊपर टीले पर तोपों के पीछे खड़े बाबर ने जैसे ही यह भगदड़ देखी, वह समझ गया कि फ़तह अब उससे ज़्यादा दूर नहीं है। उसने उसी समय अपने कुम्मैत घोड़े को एड़ लगाई और चिल्लाते उसने उसे अपने अंगरक्षक दल की तरफ़ मोड़ दिया, ”बेग, ज़ल्दी से पता करो कि हमारा दुश्मन इब्राहिम लोदी मैदाने-जंग में मौजूद है या वह भी मैदान छोड़ कर भाग गया है?”
बाबर का हुक्म पाते ही एक बेग ने धुएँ व गरदे में लिपटे जंग के मैदान पर नज़र दौड़ाई। एक बार तो लाशों और ज़ख़्मी सिपाहियों से पटे मैदान को देख उसका रोआँ-रोआँ सिहर गया। इससे पहले कि बेग कोई जवाब दे पाता, उसी समय रक़ाब में फँसे ख़ून से लथपथ पैरों के साथ एक घोड़ा बाबर के सामने आ कर रुका और उस पर बैठा सैनिक किलकते हुए बोला,”हुज़ूर, फ़तह हमारी हुई! दुश्मन भागने लगा है।”
“इब्राहिम कहाँ है?” बाबर ने दाँत पीसते हुए पूछा।
“हुज़ूर, यह तो पता नहीं। मगर मैंने एक सफ़ेद झूलवाला हाथी अपने जाँ-बाज़ सिपाहियों से घिरा ज़रूर देखा है। ”
“रुकिए बेग!” पहले बेग को रोकने का हुक्म दे बाबर अपने एक चालीसेक साल के हट्टे-कट्टे बेग की तरफ़ मुड़ा, ”दिलावर खाँ, जैसे भी हो हमारे दुश्मन को ढूँढ़ो। अगर वह भाग गया है तो पूरी रफ़्तार से उसका पीछा करो! देहली ही नहीं आगरा तक उसका पीछा करना पड़े, तो करो! तबाह कर दीजिए इब्राहिम को। मुझे आपसे पूरी उम्मीद है मेरे बहादुर। ”
“पादशाह सलामत, अपने इस काम को अंजाम देने के लिए मैं अपनी जान की बाज़ी लगा दूँगा।”
“जाइए, ज़ल्दी करिए! कहीं ऐसा न हो कि वह हमारी हद से बाहर हो जाए।” बाबर बोला।
अप्रैल की बढ़ती गर्मी के साथ सूरज बीच आसमान में पहुँच गया। जंग अब भी चल रही है।
The battle of Panipat and the death of Sultan Ibrāhīm, the last of the Lōdī Sultans of Delhi
दिलावर खाँ ने सफ़ेद झूलवाले हाथी पर बैठे इब्राहिम लोदी को बहुत ढूँढ़ा मगर वह उसे कहीं नहीं मिला। जब वह नहीं मिला तब दिलावर खाँ ने इब्राहिम लोदी के कुछ महावतों को पकड़ लिया।
“देखो, अगर तुम मुझे यह बता दोगे कि तुम्हारा सुल्तान किधर भागा है, तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगा वरना...”
इससे पहले कि दिलावर खाँ अपनी बात पूरी करता, एक महावत घिघियाते हुए बोला, ”मैंने सुना है कि सुल्तान अपने हाथी के साथ मारा जा चुका है।”
“मारा जा चुका है तो फिर कहाँ गया। ज़मीन ने उसे अपने भीतर समा लिया या आसमान निगल गया?” दिलावर खाँ झल्लाते हुए बोला।
मगर पकड़े गए किसी भी महावत ने कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। दिलावर खाँ निराश हो इधर-उधर देखने लगा। इसी बीच एक मुग़ल सिपाही उसके पास आया और बड़े अदब से बोला, ”बेग साहब, कुछ लोगों की लाशें उस तरफ़ भी पड़ी हैं।” सिपाही ने हाथ के इशारे से एक उजाड़ की तरफ़ इशारा करते हुए बताया।
दिलावर खाँ कुछ सैनिकों को लेकर उसी तरफ़ बढ़ गया। उसकी जहाँ तक नज़र गई, उसे छोटे-छोटे ताज़ा ख़ून के तालों के इर्द-गिर्द रक्त में लिपटे मरे हुए दुश्मन के सैनिकों की लाशें-ही-लाशें दिखाई दीं। इतनी लाशें कि इनकी गिनती करना भी मुश्किल है। लग रहा है जैसे यमुना के किनारे बसे पानीपत के इस मैदान में लाशों की फ़सल उग आई है। लाशों से बचते-बचाते वह धूल और ख़ून में सनी एक लाश तक पहुँचा, तो देखा लाश का ताज उसके सर के पास और आफ़ताबरीर (छत्र) अलग पड़ा हुआ है। सिपाही की बात सच निकली। बीच में पड़ी इस लाश को पहचानने में दिलावर खाँ को एक पल भी नहीं लगा। सुल्तान इब्राहिम लोदी की धूल और ख़ून में सनी लाश को देखते ही दिलावर खाँ रो पड़ा।
दिलावर खाँ सुल्तान इब्राहिम लोदी की लाश के बारे में अभी कुछ फैसला कर पाता, कि उसने देखा एक सिपाही अपनी म्यान से ख़ून में सनी तलवार खींच, लाश का सर धड़ से अलग करने के लिए आगे बढ़ रहा है। दिलावर खाँ ने सिपाही को ललकारते हुए बीच में रोक दिया, “ख़बरदार जो आगे बढ़ा। यह ठीक नहीं है। आख़िर इब्राहीम लोदी भी अपनी सल्तनत का सुल्तान रहा है। हमें इसकी इत्तिला अपने पादशाह को जाकर देनी चाहिए।”
दिलावर खाँ की चेतावनी पर सिपाही जहाँ था, वहीं रुक गया। उसने अपनी तलवार म्यान में वापिस रख ली। दिलावर खाँ बाबर को इब्राहिम लोदी की मौत की ख़बर देने के लिए लौट गया।
बाबर अपने घोड़े पर सवार अब भी उसी टीले पर है। वह जैसे अपने बेग दिलावर खाँ का ही इंतज़ार कर रहा है।
“कुछ पता चला ख़ुदावंद दिलावर खाँ ?” अपने सामने हाथ बाँधे उदास खड़े दिलावर खाँ की तरफ़ देखते हुए बाबर ने पूछा।
बाबर ने दोबारा पूछा तो इस बार दिलावर खाँ की रुलाई फूट गई
“ओह ! तो सुल्तान इब्राहिम लोदी सचमुच मारा जा चुका है।” दिलावर खाँ को रोता देख बाबर की समझ में सारा माजरा आ गया।
“जी...जी पादशाह सलामत। ” दिलावर खाँ के शब्द एकाएक टूटने लगे।
“लाश कहाँ है?”
“उस तरफ़ हुज़ूर !” दिलावर खाँ ने भरे मन से बताया।
“चलिए!” इतना कह बाबर अपने दूसरे बेगों के साथ दिलावर खाँ के पीछे-पीछे चल दिया।
“पादशाह सलामत!”
पीछे से पड़ी आवाज़ पर बाबर ने पलट कर देखा। लगा जैसे दिलावर खाँ कुछ कहना चाहता है।
“बेग, कुछ कहना चाहते हो ?” बाबर ने रुकते हुए पूछा।
“बस, एक छोटी-सी अर्ज़ है कि सुल्तान के जनाज़े को उसी इज़्ज़त और रिवायत के साथ दफ़नाना, जिस तरह एक पादशाह या सुल्तान को दफ़नाया जाता है।”
“इस बात से बेफ़िक्र रहिए दिलावर खाँ।”
बाबर ने दिलावर खाँ द्वारा बताए गए उजाड़ में सुल्तान इब्राहिम लोदी की धूल और ख़ून में सनी लाश को देखा, तो एक बार वह भी भीतर तक काँप गया। वह छोटे-छोटे क़दमों से इब्राहिम लोदी की लाश तक गया। एक तरफ़ लुढ़के सर को उसने सीधा किया। फिर उसके सर से अलग हुए ताज को सर पर रखा और पास में पड़े आफ़ताबरीर (छत्र) को ताज में लगाते हुए, सुल्तान इब्राहिम लोदी की मृत देह को मिट्टी से अपने दोनों हाथों में उठा लिया । कुछ पल उसे निहारने के बाद वह बोला, ”तेरी जाँबाज़ी को सलाम है सुल्तान।” इसके बाद बाबर मरहूम की आत्मा की शांति के लिए दुआ करने लगा, ”इन्नालिल्लाहय व इन्ना इलैहि राजीउन। अल्लाह तआला मरहूम की मग़फ़िरत फ़रमाए...जन्नतुल फ़िरदौस अता फ़रमाए... आमीन सुम्मा आमीन!”
“आमीन !” बाबर के बाद आपसपास खड़े बेगों और सिपाहियों ने समवेत स्वर में कहा।
इसके बाद बाबर धीरे-से दिलावर खाँ की तरफ़ मुड़ा,”दिलावर खाँ, ज़रबफ़्त के थानों का इंतज़ाम और मिसरी का हलुवा तैयार करवाया जाए। मरहूम सुल्तान के जनाज़े को नहला कर उसी जगह दफ़नाया जाए, जहाँ यह शहीद हुआ है !”
“जी हुज़ूरे आली।” कहते हुए दिलावर खाँ के शब्द एक बार फिर भीगते चले गए।
बाबर के हुक्म पर सुल्तान इब्राहिम लोदी को वहीं दफ़ना दिया गया, जिस उजाड़-सी जगह पर उसकी लाश पाई गई थी।
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