स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी-1'।
सिनेमा एक ऐसा माध्यम जिससे शायद ही दुनिया का कोई व्यक्ति अपरिचित हो। तकनीक के क्षेत्र में सिनेमा ऐसा माध्यम साबित हुआ जिसने दुनिया भर की संस्कृति और परिवेश को व्यापक तौर पर प्रभावित किया। इंटरनेट के युग ने सिनेमा के पुरातन स्वरूप में भी काफी बदलाव कर दिया है। खैर हम यह कह सकते हैं कि तब वह एक जमाना हुआ करता था और फिल्मों के पहले शो का टिकट हासिल करना और फ़िल्म देखना एक उपलब्धि की तरह होता था। ऐसे लोगों को 'सिनेमाबाज' कहा जाता था। यह उपाधि बहुत हद तक नकारात्मक सेंस में होती थी। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव आजकल संस्मरणों की एक श्रृंखला लिख रहे हैं। हाल में ही उनके संस्मरण की एक उम्दा किताब 'जैसा मैंने जीवन देखा' आयी है। संस्मरण लिखने का उनका सिलसिला आज भी अबाध चल रहा है। हमारे अनुरोध को स्वीकार कर उन्होंने अपने संस्मरण पहली बार को नियमित रूप से उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया है। इसी क्रम में आज पहली कड़ी की हम शुरुआत कर रहे हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी'।
एक सिनेमाबाज की कहानी
(संस्मरण)
स्वप्निल श्रीवास्तव
गांव में रहते हुए मेरा यह सपना था कि शहर जा कर फिल्में देखूं। मेरे गांव के कुछ बच्चे शहरों में रहते थे, वे जब गर्मी की छुट्टियों में गांव लौटते थे उनके पास फिल्मों की बहुत सी कहानियां होती थीं। खासकर जब वे अभिनेत्रियों का नख-शिख वर्णन करते थे तो मन रोमानी हो जाता था। हमारे गांव का हीरा लोनिया अभिनेताओं की एक्टिंग कर हमें हैरान कर देता। वह हीरो-हीरोइनों के साथ अपनी फोटो दिखा कर हमें विस्मय में डाल देता था। वह अभिनेताओं की तरह कपडे पहनता था, उन्हीं की स्टाइल में बाल काढ़ता था, उन्हीं की तरह चलने की कोशिश करता था। उसने हमें बताया था कि एक बार एक देहाती शहर के हाल में सिनेमा देखने आया था, वह सबसे आगे के क्लास में बैठा हुआ था - जैसे उसने सिनेमा के परदे पर दहाड़ते हुए शेर का दृश्य देखा, उसने आव न देखा न ताव, बस दन्न लाठी चला दिया था। परदा दो टुकड़ो में फट गया था। हाल में अफरा–तफरी मच चुकी थी। मैनेजर ने उससे कहा कि तुमने ऐसा क्यों किया? उसने जबाब दिया कि उसे लगा कि उसके सामने शेर आ गया है, कहीं उसे खा न जाय। लोगों ने उसे बताया कि यह परदा है कोई जंगल नहीं है।
उसके पास फिल्म और सिनेमाहाल की अनगिनत कहानियां थीं। हम उससे ईर्ष्या करते थे और सोचते ‘हाय हुसेन हम न हुए’।
हम एक मैले–कुचैले गांव में रहते थे, जहां मनोरंजन के साधन के रूप में नौटंकियां थीं जो ग्रीष्म के मौसम में बारातों के साथ आती थीं, उसी से हम अपने मनोरंजन की क्षुधा शांत करते थे। पिता हीरा से मिलने के लिए मना करते थे, कि कहीं हम उसकी सोहबत में बिगड़ न जाय। उनका मानना था कि सिनेमा देखने से लडकों के चरित्र और बुद्धि का नाश होता है। लड़कों को पच्चीस साल की अवस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और धार्मिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए ताकि मन किसी गलत दिशा में न भटके। यह धारणा पिता की उम्र के बहुत से लोगों की थी। वे हम उम्र लोगों के बीच रामायण की चर्चा करते रहते थे और हमें कई तरह के सबक देते रहते थे। हम लोगों को इस तरह की कहानियों में कोई रुचि नहीं थी।
गांव के बुजुर्गो की चिंता नाजायज नहीं थी। पास के गांव की नौटंकी में काम करने वाला एक नचनिहा घर से पैसे-जेवर चुरा कर मुम्बई में हीरो बनने गया था। उसे कोई काम–धाम नहीं मिला। जब पैसे आदि खत्म हो गये या, उसके बाद घर लौटा था। उसकी खूंब धुनाई हुई थी, बहुत दिन तक घर में मुंह में चुराये बैठा था। वह बहुत अच्छी सेहत का लड़का था, बम्बई से लौटा तो उसके गाल चुचुक चुके थे। चेहरे पर हड्डियां उभर आयी थीं। पिता कहते देखो, इस लड़के का क्या हाल हो गया है – तुम लोग तो अब सुधर जाओ। इस तरह के लफड़ों में मत पड़ो। लेकिन हमारी कल्पनाओं की दुनिया ही अलग थी।
सिनेमा की बात छोडिए, हमें नौटंकी देखने की आजादी नहीं थी। शादी–व्याह में बारात के साथ जो नाच आती था, उसे देखने की अनुमति मुश्किल से मिलती थी। बार–बार पिता धमकात थे कि नाच–नौटंकी से पेट नहीं भरता है, कभी-कभी कापी-किताब भी खोल कर देख लिया करो। असली परेशानी तब होती थी जब जवार में कोई मशहूर नाच आता और हमें उसे देखने की जुगत भिड़ानी पडती थी। ऐसी नाच-नौटंकियो का प्रचार बहुत पहले हो जाता था। नचदेखवे नाच देखने के लिए अपना गोल बांधते रहते थे। हम लोगों का नाम नचदेखवों में शरीक था लेकिन हम गुप्त नचदेखवे थे, मां–बाप से बच कर नाच देखने जाते थे। इस अभियान में काफी मशक्कत करनी पडती थी। इसके लिए हमें मां की उदारता का फायदा उठाना पड़ता था। मां बहुत नाराज होती थी कि अगर पिता को मालूम हो गया तो क्या होगा, उलटे वे मुझ पर फिरंट हो जायेगे, वे कहते ही रहते है कि मैं तुम्हें बिगाड़ रही हूं।
लेकिन मां तो आखिर मां होती है।
जिस दिन नाच देखने जाना होता था हम जल्दी सो जाते थे। पिता घर के बरामदे में सोते थे। मैं बड़े आंगन के पास वाले ड्योढी में मां के पास चारपाई लगा कर सोता था। इस ड्योढी के पास एक छोटा सा दरवाजा था जो बगीचे में खुलता था और यही मेरे लिए बाहर जाने का चोर-रास्ता था। गांव की औरतें इसी रास्ते से मां से मिलने आती थी। उन दिनों खपरैल के मकानों में बिना लोहे के सलाखों की खिड़कियां जरूर होती थी। इसका उपयोग बाहर आने-जाने के लिए किया जाता था। ड्योढी और दरवाजे के बीच एक गलियारा था जहां जातें और धनकुटनी लगी हुई थी। औरतें यहां भिनसार में लोकगीत गाते हुए जांता चलाती थी। लोक गीत और जातें की आवाज दोनों मिल कर एक नयी संगीत ध्वनि की रचना करते थे। इस रास्ते का उपयोग मैं नाच देखने जाने के लिए करता था।
पिता भोजन के उपरांत घोडे बेच कर सो जाते थे। वे लम्बे लम्बे खर्राटे भरते थे। उनके खर्राटों की आवाज दूर तक सुनाई पडती थी। जब उनके खर्राटे रूक जाते तो हमें लगता कि वे गश्त पर निकलने वाले हैं। हम सावधान हो जाते थे। दिखावे लिए हम किताबों में अपना सिर गडा लेते थे। यह एक तरह से बिल्ली और चूहे का खेल था। पिता के खर्राटे उनके गले में घंटी की तरह थे। उनके खर्राटे की ध्वनियां अलग–अलग थी। वह धीमें से शुरू होती फिर जोर पकड़ लेती थी। कभी–कभी उनके खर्राटे डरावने हो जाते थे। रात के सन्नाटे में उनका स्वर हमें भयभीत कर देता था।
हमारे दोस्त घर से बाहर निकलने की अलग–अलग जुगत करते थे। कोई अपने सोने की जगह पर तकिया रख कर उस पर चादर ओढ़ा देता था ताकि यह भ्रम बना रहे कि यहां कोई सोया हुआ है। हम एक साथ घर से नहीं निकलते थे। हम सबकी जुटान पूरब की बगिया में होती थी। रास्ता निरापद इसके लिए हम अस्त्र–शस्त्र से सुसज्जित रहते थे। लाठी और टार्च हमारे अस्त्र और हनुमान चालीसा हमारे शास्त्र होते थे। अंधेरी रातों में जब हमें डर लगने लगता था तो हम हनुमान चालीसा का सस्वर-पाठ करने लगते थे।
उन दिनों गांवों में भूत की कहानियां बहुत प्रचलित थी। आए दिन कोई-कोई भूतग्रस्त हो जाता था, इसका फायदा सोखा खूब उठाते थे। असल में ये सोखा नहीं शोषक थे लोगों की मानसिक कमजोरी का फायदा उठाते थे। पूजा-पाठ के लिए बकरे या मुर्गे की बलि चढ़ाते थे। वे लोगों में भूत का भय जगाते रहते थे और उपचार के लिए नये-नये अनुष्ठान करते रहते थे। जिन लोगों के सिर पर भूत आता था, उसका अभुवाना हम देखने जाते थे। ऐसे समय में उनकी मुख-मुद्रायें बदल जाती थी, वे डरावने लगने लगते थे। वे गले से विचित्र आवाज निकालते थे, कभी–कभी हम डर जाते थे। जब हम नाच देखने जाते थे, हमारे अवचेतन में वे दृश्य उतरने लगते थे।
जब नगाड़ा बजने लगता था तो हमें पता लग जाता था कि अब नाच की शुरूआत होने वाली है। नाच शुरू होने के पहले हमें नचनिहों को सजते हुए देखना अच्छा लगता था। वे अपने चेहरे पर रंग–रोगन लगाते थे। स्त्री पात्र बनने के लिए छाती पर वक्ष की जगह गेंद बांधते थे। उस स्थल को नोकदार बनाते थे ताकि नाच देखने वालों के भीतर उत्तेजना का संचार हो सके। वे सलीके से साड़ी पहनते थे भौहों को उत्तेजक बनाते थे। जब वे सज–धज कर स्टेज पर आते तो वे औरतों को मात कर देते थे। यह सब दृश्य हम टेंट के पीछे छुप कर देखते रहते थे। इस काम में खतरा भी बहुत था, पकडे जाने पर हमारे कान ऐठ दिये जाते थे।
नाच के किसी मजेदार दृश्य पर हम खुशी से उछल जाते थे और जोर से नारे लगाते थे। इस काम में हमें अवर्चनीय आनंद मिलता था। नाच रात भर चलता रहता था लेकिन हमें सुबह के बहुत पहले घर लौटना होता था ताकि हमें कोई न पकड सके। हम अपने-अपने बिस्तरों की खोल में खुद को कैद कर लेते थे और सुबह उठ कर इस तरह से अभिनय करते थे कि जैसे हम घर से बाहर गये ही न हो। घर पहुंच कर हमारे भीतर जान आ जाती थी। नाच देखते समय भी घर का डर हमारा पीछा करता था। हमें जवार का कोई आदमी देख न ले, इससे बचाव के लिए हम अगोछे से अपना मुंह छुपा लेते थे। हमारी उम्र के लड़के इस क्रिया में पारांगत थे। यह हमारे अभिनय का हिस्सा था। हम गुप्तचरों से बचे रहना चाहते थे।
॥ दो ॥
पिता कुशीनगर के एक कस्बे रामकोला में नौकरी करते थे। मेरी मिडिल क्लास से आगे की पढाई यही से हुई। रामकोला एक उनींदा कस्बा था, वहां दो चीनी मिलें थी। आकाश मिल के धुंये से भरा रहता था। सड़के गन्ने की गाडियों से भरी रहती थी। गन्ने के सीजन की धज ही अलग थी। खूब चहल–पहल रहती थी। हम गन्ने की गाड़ियों से गन्ना चुराते और दूर जा कर चुहते थे। हमें गाड़ी वालों से गालियां मिलती जिसे हम आशीर्वाद की तरह स्वीकार कर लेते थे। इस काम हमें बहुत रोमांचित करता था। मेरे साथ रहने वाला मेरा ममेरा भाई प्रकाश इस चौर्य कला में पारंगत था। प्रकाश ने मुझे बताया कि कस्बे में टूरिंग टाकीज लगने वाला है। यह मेरे लिए खुश-खबर थी। मेरा वर्षो पुराना सपना साकार होने वाला था। कुछ दिनों बाद रेलवे–स्टेशन के पास के मैदान में टीन–टप्पर, बल्लम टेंट उतरने लगे। हम सब समय निकाल कर उस जगह को देखने जाते थे। सवाल तो यह था कि क्या पिता सिनेमा की अनुमति हमें मिलेगी?
उस दौर के समाज में बच्चों का सिनेमा देखना अपराध माना जाता था लेकिन बच्चों के पिता यह जुर्म करते थे। सिनेमा का नून शो स्कूल और गांव से भाग कर आए हुए बच्चों से भरा रहता था। औरतों को सिर्फ धार्मिक फिल्में देखने की अनुमति थी। कोई धार्मिक फिल्म लगती तो गांव की औरतें बैलगाड़ी पर सवार होकर आती थी। वे रंग–बिरंगे परिधान में सजी होती थीं, उनका चेहरा घूंघट से ढ़का रहता था। वे जहां भी बैठती, वहां वह एक जगह रखी हुई गठरियों की तरह लगती थीं जो कभी–कभार हिलती-डुलती रहती थीं। उन्हें कस्बे में आने का अभ्यास नहीं था, वे किसी विशेष अवसर पर कस्बे में आती थीं। वे अकसर घूंघट में छिपी रहती थीं। उन दिनों पर्दा–प्रथा बहुत प्रचलित थी। मर्द न तो ठीक से अपनी औरतों को देख पाते थे और न स्त्रियों को यह सौभाग्य मिलता था। उनके लुक-छिप कर मिलने का परिणाम तब दिखाई देता था जब वे पिता बन जाते थे।
टूरिंग टाकीज तैयार होने के पहले धूमघाम से फिल्मों का प्रचार होता रहता था। रिक्शे के पीठ पर फिल्मों के पोस्टर सजे रहते थे और उस पर बैठा आदमी नाटकीय अंदाज में बोलता था। वह अमीन सयानी की आवाज में बोलता रहता था, उन दिनों अमीन सयानी बिनाका गीत माला के कारण बहुत मशहूर थे। जब भी उनका प्रोग्राम आता, पान की दुकानों और गुमटियों में भींड़ जमा हो जाती थी।
कस्बे के लड़के उस रिक्शे का पीछा दूर तक करते थे। वह आदमी बीच–बीच में गाना भी बजाता रहता था। पूरा कस्बा संगीतमय हो जाता था। जगह जगह टूरिंग टाकीज की चर्चा हो रही थी। बड़े–बूढ़े टूरिंग टाकीज के नाम से खफा थे। उनका मानना था कि टूरिंग टाकीज के आने से बच्चे बरबाद हो जायेगे लेकिन बच्चों के भीतर गज़ब का उत्साह था। उन्हें घर से सिनेमा देखने की अनुमति नहीं मिलती थी लेकिन वे सिनेमा देखने का जुगाड़ लगा लेते थे।
सन साठ के बाद का समय भोजपुरी और धार्मिक फिल्मों का स्वर्णकाल था। कस्बे के टाकीज की पहली फिल्म ‘लागी नाही छूटे रामा’ थी। यह भोजपुरी फिल्म थी। यह गांव की अदभुत प्रेम कथा थी। नायक-नायिका के रूप में कुमार नाज और सुजीत कुमार ने काम किया था। सुजीत कुमार को भोजपुरी फिल्मों का दिलीप कुमार कहा जाता था। इस फिल्म मे नाजिर हुसेन, कुमकुम और इंद्राणी मुखर्जी ने भी अभिनय किया था। उस फिल्म का मजरूह का लिखा गीत अक्सर याद आता है।
लाल-लाल ओठवा से बरसेला ललैया हो कि रस चुवेला
जैसे अमवा के मोजरा से रस चुवेला।
वह श्वेत-श्याम और यथार्थवादी सिनेमा का दौर था। इसी दौर में ‘बिदेसिया’, ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढईबे’, ‘भौजी हमार संसार’ जैसी भोजपुरी फिल्मों की धूम थी। नाजिर हुसेन, सुजीत कुमार, कुमकुम, लीला मिश्रा तिवारी उन दिनों भोजपुरी फिल्मों के चमकते सितारे थे। नाजिर हुसेन ने अपनी भोजपुरी फिल्म ‘हमार संसार’ में कोलकाता के हाथ-रिक्शा चलाने वाले की अदभुत भूमिका की थी। इसी तरह अभिनय विमल राय की फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ में बलराज साहनी ने किया था। आज के भोजपुरी फिल्मों को देख कर बहुत अफसोस होता है, उसमें कला और परम्परा की जगह अश्लीलता और फूहड़पन होता है। नृत्य जैसे कोई काम- पाठ आयोजित किया जा रहा हो, सम्वाद द्वीअर्थी होते हैं। गीतों में कोई सिर–पैर नहीं होता है। यह अराजकता केवल भोजपुरी फिल्मों में ही नहीं अन्य भारतीय भाषाई फिल्मों में भी दिखाई देती है।
आप कह सकते हैं कि जब इस तरह की फिल्में देखने की अनुमति नहीं मिलती थी। पिता जब कस्बे के बाहर किसी दौरे या जनपद मुख्यालय पर जाते थे तो हम फिल्म देखने का अवसर निकाल लेते थे। प्रकाश सिनेमा देखने के मामले में बहुत दुस्साहसी था। वह छत से रस्सी के सहारे उतर कर नाइट शो में सिनेमा देखने चला जाता था और लौट कर बिस्तर में छिप जाता था। लेकिन जब दोस्ती फिल्म सिनमाहाल में लगी तो पिता ने हमें सहर्ष हमें वह फिल्म देखने की अनुमति दी थी। इस फिल्म के गीत कर्णप्रिय होने के साथ–साथ शिक्षाप्रद भी थे। यह फिल्म दो मित्रों की कथा थी जो संघर्ष करते हुए जिंदगी का रास्ता तय करते थे। उनकी दोस्ती बेमिसाल थी। इस फिल्म का गीत
‘काहे मनवा दुख की चिंता तुम्हें सताती है
दुख तो अपना साथी है’।
पिता की उदारता धार्मिक और शिक्षाप्रद फिल्मों तक सीमित थी। हम रोमांटिक फिल्में देखने को तरस जाते थे। पिता हमें इस उम्र में ही वानप्रस्थ में पहुंचा देना चाहते थे और हम रोमानी दुनिया में रहना चाहते थे।
उन्हीं दिनों आई मिलन की बेला, झुक गया आसमान, मेरे महबूब, द्ल्हा दुल्हन, वह कौन थी और राजेंद्र कुमार-साधना की फिल्म आरजू आयी। जब इस तरह की फिल्में आती तो हम खुदा से मिन्नत करते कि वह पिता को दौरे पर भेज दे। ताकि हम फिल्म देख सके। इस तरह हम अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए जद्दोजहद करते रहते थे।
हमें साधना की अदायें और स्टाइल बहुत पसंद आती थी। जब तक हेमामालिनी का उदय नहीं हुआ, साधना हमारे सपनों की रानी थी। हमें जुबली कुमार राजेंद्र भी पसंद आते थे लेकिन देवानन्द का कोई जबाब नहीं था। ‘काला पानी’, ‘ज्वेल थीफ’, ‘तीन देविया’, ‘हम दोनों’ उनकी मशहूर फिल्में थीं। उनकी फिल्म ‘गाइड’ देख कर हम उनके मुरीद हो गये थे। उनकी शुरूआती फिल्में अब भी याद आती हैं। बाद की फिल्मों में पहले जैसी आग नहीं थी। फिल्मी अभिनेत्रियों में सिर्फ साधना के जलवे खूब थे। साधना–कट हेयर स्टाइल उन दिनों बहुत लोकप्रिय थी। दरअसल साधना का माथा बड़ा था, उसे ढ़कने के लिए वह अपनी जुल्फों को माथे पर गिरा लेती थी। हम अभिनय नहीं स्टाइल देखने जाते थे।
उन दिनों प्यार के इजहार के तरीके शालीन थे। सिर्फ किसी लड़की को छूने में महीनों गुजर जाते थे। चुम्बन तो अंत तक वर्जित होता था। आज तो प्रेम का सारा खेल ही सार्वजनिक हो गया है। बेडरूम कोई गोपनीय जगह नहीं रह गयी है –वहां लोग इस तरह से प्रेम करते हैं कि जैसे दो मुर्गे आपस में लड़ रहे हो। प्रेम के नैतिक नियम बदल गये हैं। आज तो प्रेम का सारा खेल सामने ही घटित हो रहा है। पुराने दौर में जो चीजें वर्जित थीं अब उनसे मुक्ति मिल चुकी थी। सेंसर बोर्ड उदार हो चुका था। प्रेम सम्बंध हिंसक हो गये थे।
उस दौर की फिल्मों में लक्ष्मण रेखाये का उल्ल्घन नहीं किया जाता था, सब कुछ प्रतीकों और संकेतों के माध्यम से दिखाया जाता था। देह की समीपता को दिखाने के लिए दो फूलों को आपस में मिला दिया जाता था या बहते हुए झरने या दो तितिलियों को गुत्थमगुत्था प्रदर्शित कर दिया जाता था। हम इन प्रतीकों के पीछे के दृश्यों की कल्पना कर लेते थे।
॥ तीन ॥
टूरिंग टाकीज दो चार माह के लिए आते थे फिर वे दूसरी जगह अपना ठिकाना बनाते थे। जब उनके उजडने की सूचना मिलती हम उदास होने लगते थे। कस्बे की रौनक खत्म होने लगती थी। पिता कहते - चलो एक जहमत तो इस शहर से गयी। हमें उनकी यह बात बुरी लगती थी। भले ही हम रोज न सिनेमा देखे लेकिन उसके रहने से एक आश्वस्ति बनी रहती थी कि जब हमें मौका मिलेगा, हम फिल्में देख लेगें। हमारी खुशियां स्थायी नहीं थी। हां, कभी–कभी इंद्रधनुष की तरह दिख जाती थी। टूरिंग टाकीज आने के बाद हमारा पढ़ने में मन नहीं लगता था। हमारी किताबों के भीतर किसी हीरोइन का चेहरा दिख जाता था और हम गुमसुम हो जाते थे। वे लडकपन के दिन थे, हमें बडे लोगों की बातें समझ में नहीं आती थीं। जब हम उनकी उम्र को छूते हैं तो लगता है कि वे सही बात कहते थे।
हम कल्पना की दुनिया में विहार करते थे। बात-बात में हम परिंदों की तरह उड़ कर सिनेमाहाल के परिसर में पहुंच जाते थे। किशोर-वय में कल्पनाशीलता के रंग बहुत चमकीले होते थे, उसमें हकीकत के लिए बहुत कम जगह बचती थी।
हर वर्ष सिनेमाहाल आते और अपना खेल दिखा कर चले जाते थे। उनके जाने के बाद हम फिल्मों के गीत गुनगुनाते थे और अगले साल का इंतजार करते थे। टूरिंग टाकीज की सज्जा अस्थायी होती थी, उसमें ज्यादातर काठ की कुर्सिया लगी रहती थीं। प्रथम और द्वीतीय कक्ष में हाल को विभाजित कर दिया जाता था। बालकनी क्लास थोड़ा जमीन से ऊपर होता था, उसकी कुर्सियों पर रेक्सीन लगा रहता था। बाल्कनी और प्रथम कक्ष के बीच लेडीज–क्लास के लिए जगह निकाल दी जाती थी। बाल्कनी क्लास के दर्शक हाल में प्रवेश करते समय और सेकेंड-थर्ड में बैठे हुए लोगों को हिकारत से देखते थे जैसे हम उनके रियाया हो। बाज लोग पास के देसी–शराब के ठीके से दारू चढ़ा कर आते थे और अंड–बंड बोलते हुए सिनेमाहाल में प्रवेश करते थे। जो लोग सीमायें लांघ जाते थे, उन्हें पुलिस दुरूस्त कर देती थी। शांति व्यवस्था पर निगरानी रखने के लिए पुलिस तैनात रहती थी।
कस्बे के टूरिंग टाकीज में फिल्म देखते हुए हम ऊब चुके थे। कभी-कभी फिल्म की प्रिंट खराब आती तो कभी साउंड-लाइट में व्यवधान पड़ जाता था। लाइट चले जाने के बाद सिनेमा मालिक के सात पुश्तों को मौलिक गालियों से नवाजा जाता था। हम किसी बड़े शहर के दिव्य सिनेमाहाल में बैठ कर सिनेमा देखने का आनंद उठाना चाहते थे। रामकोला कस्बे से गोरखपुर दूर था।
कुछ दिनों बाद यह हमारा सपना साकार हो गया था। पिता ने हमें एक शादी में शरीक होने के लिए गोरखपुर भेजा था। पिता अपने दफ्तर के जरूरी काम में व्यस्त होने के कारण नहीं जा सके थे। हमारे तो जैसे पंख लग गये थे। हम आजाद पक्षी बन गये थे। हमने और प्रकाश ने बैग में अपने मनपसंद कपड़े रखे और सुबह की गाड़ी से गोरखपुर रवाना हो गए। हमारी जेब में कुछ बचे-बचाये पैसे थे जिसे हमने आपात काल के लिए आरक्षित कर रखा था।
Vijay Picture Palace bank Road Gorakhpur
गोरखपुर एक बड़ा शहर था – जैसे हमारे गांव से रामकोला बड़ा था, उसी तरह गोरखपुर रामकोला से बड़ा था। वहां दस से ज्यादा सिनेमाहाल थे। सिनेमा रोड पर चार-पांच टाकीज थे। उनके बारे में हमने पहले से जानकारी हासिल कर ली थी। हम रिक्शा ले कर सीधे सिनेमा रोड पर पहुंचे। एक सिनेमाहाल में दिलीप कुमार की फिल्म ‘राम और श्याम’ लगी हुई थी। सिनेमाहाल शानदार था। सिनेमाहाल पर एक बड़ा पोस्टर लगा हुआ था। हमने दो सेकेंड क्लास के दो टिकट खरीदे और अपनी सीट पर जा कर बैठ गए। इस फिल्म में दिलीप कुमार का डबल रोल था। प्राण इस फिल्म का खलनायक था। प्रकाश को सबसे अच्छा रोल प्राण का लगा। प्रकाश से मैंने पूछा कि तुम्हे प्राण का अभिनय क्यों पसंद आया जबकि वह अंत में उसकी असलियत जाहिर हो जाती है। उसने कहा कि ऐसा फिल्मों में होता है जिंदगी में नहीं, जिंदगी में ऐसे लोग ही मौज करते हैं। प्रकाश व्यवहारिक आदमी था, वह सिद्धांतो पर बहुत कम भरोसा करता था इसलिए वह जीवन में मुझसे ज्यादा सफल हुआ। मैं जीवन में सम्वेदनशील और कल्पनाजीवी था इसलिए मेरे जीवन में बहुत से भावानात्मक संकटों का सामना करना पड़ा। मैं दिमाग से ज्यादा भरोसा दिल पर करता था और उसके सदमें उठाता था। आज भी यह आदत बरकरार है। कुछ आदतें आजीवन बनी रहती हैं।
जैसे ही इस फिल्म का शो खत्म हुआ, हम लपक कर पास के सिनेमाहाल में पहुंचे, वहां सूरज फिल्म प्रदर्शित की जा रही थी। यह राजेन्द्र कुमार और बैजंतीमाला मुख्य भूमिका में थे। प्रकाश को गजगामिनी और मांसल हीरोइन बैजंतीमाला बहुत पसंद आयी। उसने कहा कि इस हीरोइन के लिए एक-दो लोगों की जान भी ली जा सकती है। बाद में हेमामालिनी उसकी स्वप्न सुंदरी बनी। हेमामालिनी की पहली फिल्म ‘सपनों का सौदागर’ थी जिसमें उसके नायक राजकपूर थे। देखते–देखते हेमामालिनी फिल्मी परदे पर छा गयी। उसे ड्रीम-गर्ल के खिताब दी गयी थी। प्रकाश हेमामालिनी का दीवाना बन गया। वह उसकी हर फिल्म देखता था। उसकी सुदीर्घ आंखें और बांकी अदायें उसे खूब भाती थी।
वह मांसल अभिनेत्रियों का रसिया था। उसे तवंगी हीरोइनें कत्तई नहीं पसंद आती थीं। उसे ऐसी हीरोइनें किसी भूख–ग्रस्त क्षेत्र से आयी हुई लगती थी। हेमामालिनी संवाद बोलते समय थोड़ा हांफती थीं और प्रकाश की धड़कन तेज होने लगती थी। उसके साथ हेमामालिनी की फिल्में देखने में मजा आता था। वह उसके बारे में मौलिक श्लील-अश्लील टिप्पणियां करता था कि हम शरमा कर रह जाते थे। कभी-कभी तो उसकी टिप्पणियों से सिनेमाहाल में हंगामा मच जाता था।
जिस दिन उसकी शादी धर्मेद्र से हुई, उस दिन से प्रकाश ने हेमामालिनी की फिल्में देखनी बंद कर दी थीं। जब मैंने इसकी वजह पूछी तो उसने जबाब दिया –...बेवफा हो गयी है। यह उन दिनों का चलन था कि जब अभिनेत्रियों का विवाह हो जाता था तो लोगों की रूचि उस अभिनेत्री में कम होने लगती थी। उसकी मार्केट वैल्यू गिरने लगती थी। कापीराइट बदल जाता था। वह सार्वजनिक सम्पत्ति नहीं रह जाती थी, उस पर पति का एकाधिकार हो जाता था। हेमामालिनी के कई आशिक थे जिसमें जीतेंद्र और संजीव कुमार प्रमुख थे लेकिन पूर्व विवाहित धर्मेंद्र बाजी मार ले गए। हेमामालिनी की शादी प्रकाश के लिए किसी हादसे से कम नहीं थी। सबसे दयनीय हालत संजीव कुमार की थी। जिन अभिनेत्रियों से उसने दिल लगाया, वे दगाबाज़ निकली। उन्होने अपना घर भी नहीं बनाया और किराये पर रहते हुए इस दुनिया को उम्र के पहले अलविदा कह दिया था।
॥ चार ॥
दिन के पक्षी तेजी से उड़ रहे थे। वे हर दिन अपनी शाख बदलते रहते थे। वक्त की रफ्तार का कोई पता नहीं चलता था। हम अचानक पीछे मुड़ कर देखते हैं तो पता चलता है कि कई साल बीत गये हैं। इंटर पास होने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए गोरखपुर जाना पड़ा। वहां बी. ए. में नाम लिखवाया और नई जिंदगी शुरू हुई। वहां के सिनेमाहाल हमारे लिए मनोरंजन और संस्कृति के केंद्र बने। हम मनचाही फिल्में देख सकते थे। वहां मेरी तरह के कई सिनेमाबाज थे जिसमें इन्द्रप्रकाश, जगदीश और ईश्वर भैया प्रमुख थे। ईश्वर भैया मेरे रिश्तेदार थे। वे दुर्दांत सिनेमाबाज थे। उन दिनों सिनेमाहालों में अपार भींड़ होती थी। सिनेमाहाल की खिड़की से टिकट हासिल करना बहादुरी का काम माना जाता था। बाज लोग भीड़ कम होने के बाद फिल्म देखने जाते थे लेकिन पेशेवर सिनेमाबाजों के पास यह धैर्य कहां - वे पहले दिन और पहले शो में फिल्म देखना अपना जन्मसिद्ध अधिकारमानते थे। ईश्वर भैया उसी मिजाज के मालिक थे।
सिनेमा के इतिहास में ये, वे दिन थे जब टिकट खिड़की से टिकट हस्तगत करना कठिन काम था। कभी-कभी तो हम टिकट खिड़की से हम खाली हाथ लौट जाते थे। टिकट खिड़की तक पहुंचते-पहुंचते टिकट खत्म हो जाते थे लेकिन अगर ईश्वर भैया हो तो हमें यह घाटा नहीं उठाना पड़ता था। वे शो के बहुत पहले पहुंच जाते थे। वे अपनी शर्ट और पैंट उतार कर मुझे थमा देते थे और अंडरवियर और बनियाइन में हनुमान की तरह उछल कर टिकट–खिड़की पर पहुंच जाते थे और टिकट हासिल कर विजेता की तरह प्रकट हो जाते थे। उनके चेहरे की चमक देखते ही बनती थी। वे इसकी परवाह नहीं करते थे कि उनकी बनियाइन कितनी जगहों से फट गयी है। जांघिए का नाड़ा कहां से कहां खिसक गया है। टिकट लेते समय उनके उपर गालियों की बौछार पड़ती रहती थी इससे वे तनिक विचलित नहीं होते थे। उन्हें अपने लक्ष्य का पता था। जैसे अर्जुन का निशाना चिडिया की आंख थी, उसी तरह वे सिनेमा टिकट पर आंख गड़ाए हुए रहते थे।
इस प्रसंग में मुझे अपने दोस्त शमशाद आलम की याद आती है। वे मेरे कस्बे रामकोला के मित्र थे जो मेरी तरह गोरखपुर पढ़ने आए थे। उनके सिनेमा देखने की आदत बरकरार थी। यहां उन्हें देखने और टोकने वाला कोई नहीं था। रामकोला में वे छिप-छिप कर सिनेमा देखते थे, यहां उन्हें मेरी तरह कोई डर–भय नहीं था। वे अपनी मर्जी के मालिक थे। उन दिनों शहर में ‘जानी मेरा नाम’ फिल्म लगी हुई थी। मैं थोडी देर में पहुंचा। सिनेमाहाल में हाउसफुल का बोर्ड लटका हुआ था। वे मुझे देख कर मुस्कराने लगे। अब टिकट कैसे मिले? मैने उनसे अनुनय-विनय किया। उन्हे दया आ गयी। वे बोले - चलो मैं तुम्हें टिकट दिलवाता हूं। वे मुझे सिनेमाहाल के पास की गली में ले गये। वहां एक टूटे–फूटे मकान के पास एक मैला–कुचैला आदमी बैठा हुआ था। वह देखने में शुद्ध गजेड़ी लग रहा था। शमशाद ने उसके कान में कुछ कहा, उसका जबाब था कि टिकट के कुछ ज्यादा पैसे लगेगे। हम इस बात के लिए तैयार हो कर आए थे। इस तरह टिकट खरीदना और फिल्म देखना हमारे रोमांच को बढ़ा देता था। ऐसे अनगिनत वाकये हमारी स्मृति में दर्ज हैं।
सिनेमाहाल में ब्लैकिए खूब थे। वे सिनेमा मैनेजर से एडवांस में टिकट खरीद लेते थे और उसे ऊंचे दाम पर बेचते थे। इसमें मैंनेजर, बुकिंग क्लर्क, ब्लैकियों की मिलीभगत होती थी। टिकट खिड़की से बहुत कम टिकट बुक किये जाते थे। बाकी ब्लैक की भेट चढ़ जाते थे। इस धंधे से जुड़े लोग मालामाल हो जाते थे। इस अराजकता को रोकने के लिए पुलिस की डियूटी लगाई जाती थी। वे भी इस बहती हुई गंगा में हाथ धो लेते थे। सिनेमाहाल की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए पहलवान और दवंग किस्म के लोगों को रखा जाता था। वे अराजक स्थिति को सम्भालने का काम करते थे। फिल्म का पहला शो गहमागहमी से भरा होता था। टिकट खिडकी पर दस बजे से ही भींड़ जमा हो जाती थी। जिसके पास ताकत होती, उसे टिकट मिल जाता था। बाकी लोग हाथ मलते रह जाते थे।
सिनेमा देखने के लिए हमें कई असुविधाजनक और कभी अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ता था। मुझे याद है कि शहर के एक मशहूर सिनेमाहाल में मिलेटरी से रिटायर एक फौजी को मैनेजर को रखा गया था। उनकी मूंछे लम्बी और नोकदार थी, उनके कमर में पिस्तौल लटकी रहती थी। उनके हाथ में एक रूल था जिसे वे हवा में घुमाते रहते थे। वह मैनेजर कम खलनायक ज्यादा दिखता था। मेरा दावा था कि अगर वह बम्बई जा कर फिल्म में काम करने की कोशिश करता तो वह जरूर सफल होता। उसकी आंगिक मुद्रा डरावनी थी। मिलेटरी की नौकरी ने उसके चेहरे को सख्त बना दिया था। उसकी आवाज बड़ी कड़क थी वह अगर लड़कों को ठीक से डाट दे तो पतलून ढ़ीली हो जाती थी।
सिनेमाहाल के मालिक चाहते थे कि लोग लाइन में लग कर टिकट ले, लेकिन इसका पालन कोई नहीं करता था। गुंडे किस्म के लडके कहां मानने वाले थे, वे जबरदस्ती खिडकी तक पहुंच जाते थे। इस जद्दोजहद में छूरेबाजी जैसी घटनाये आम थी। लेकिन इस मैंनेजर ने जैसे फिजा ही बदल दी थी। वह लाइन लगवाता और रूल ले कर खड़ा हो जाता था। जो भी लाइन तोडता, उसकी खबर अपने रूल से लेता था। कई चिलबिल्ले लोग उसके रूल से लाभान्वित हो चुके थे लेकिन मुझे मुफ्त में सजा मिल गयी थी। मैं बिलबिला उठा था। मैने सोचा अगर जिंदगी में कुछ बन गया तो इस अपमान का बदला जरूर लूंगा।
उस बुकिंग क्लर्क के प्रति मेरा गुस्सा कम नहीं था जो मेरी हथेली पर डाट पेन से सीट नम्बर दर्ज कर दिया था। मेरा कोई खास गुनाह नहीं था। बस बुकिंग खिड़की पर टिकट दर्ज करवाते समय मेरी हथेली उसकी दाढ़ी तक पहुंच गयी थी और उसने इतनी जोर से हथेली पर सीट नम्बर लिखा कि वह मेरी त्वचा को चीर गया था। इस घाव को ठीक होने में हफ्ते का समय मिला। जब लोग इसका सबब पूछते थे तो मैं अपने जबाब बदल देता था और उस दुष्ट का चेहरा मेरे सामने आ जाता था। बहुत दिनों यह दाग मेरी हथेली पर दर्ज था - जैसे यह फिल्म देखने की सजा का निशान हो।
फिल्म देखने के लिए हमारे पास कोई अतिरिक्त बजट नहीं होता था। जो हमें जेब-खर्च मिलता था, उसे बचा कर हम लोग फिल्म देखते थे। फिल्म देखने के लिए किसी से उधार मांगने में शर्म नहीं आती थी। मैं जहां उधार मांगने में भूमिका बनाता था, वहां बाज दोस्त सीधे उधार मांग लेते थे। फिल्म देखने का नशा ही ऐसा था कि हम ऐसे झूठे और अचूक बहाने बनाते थे जिससे उधार आसानी से मिल जाय। किसी फिल्म का गाना देखने के लिए ग़ेटकीपर को सिगरेट, पान या चाय का लालच दे कर मनपंसद गाने देख लेते थे। हमने ऐसे कई गेटकीपरों से दोस्ती कर ली थी। वे आपातकाल में हमारा सहयोग करते थे।
हम शहर में बाहर से आए हुए लोग थे इसलिए हमें फिल्में देखने की स्वतंत्रता थी लेकिन जो शहर में रहते थे, उनके ऊपर सेंसरशिप थी। वे जब घर लौटते तो उन्हें समय का हिसाब देना पड़ता था लेकिन उनके पास उसकी भी काट थी। दो लोग मिल कर एक टिकट खरीदते। आधी फिल्म देखने के बाद दूसरा आधी फिल्म देखता फिर दूसरे दिन फिर इसी क्रम को दोहराया जाता था। इस तरह दो शो में फिल्म पूरी हो जाती थी। हालांकि इस तरह फिल्म देखने में तारतम्य टूट जाता था। फिल्म न देख पाने से अच्छा था कि इस तकनीक से फिल्म देख ली जाय। आवश्यकता आविष्कार की जननी है – के सूत्र का उपयोग करते थे।
हमें उस लंगड़े गेटकीपर की याद आती है जो अक्सर हमारी मदद करता रहता था वह अच्छे परिवार से आता था। फिल्मों के प्रति उसकी दीवानगी ने उसे गेटकीपर बना दिया था। जब हाउसफुल होने के पहले वह बुकिंग से कुछ टिकट खरीद लेता था और उसे वह टिकट के लिए परेशान लड़कियों को थोड़ी बढ़ी हुई कीमत पर बेच कर उन्हें कृतार्थ कर देता था। इंटरवल में उनके लिए चाय-पानी का इंतजाम करता था। यह उसका शगल था। वह लक–दक कपड़े पहनता था और स्टाइल में रहता था। उसके हाथ में हमेशा एक सिगरेट सुलगती रहती थी – वह बहुत करीने से उसकी राख झाड़ता रहता था।
उन दिनों मनोरंजन का मुख्य साधन फिल्में थी। जब कोई धार्मिक या पारिवारिक फिल्म आती थी तो पूरा परिवार फिल्में देखने जाता था। फिल्म देखना किसी उत्सव से कम नहीं होता था। सुबह से ही तैयारी होने लगती थी। धोबी के यहां कपड़े प्रेस कराये जाते थे। असुविधा से बचने के लिए पहले से ही टिकट मंगा लिए जाते थे। इसके नाइट शो का चुनाव किया जाता था। लोग भोजन जल्दी कर लेते थे। दो तीन रिक्शों पर परिवार लद जाता था। सिनेमाहाल में पहुंच कर लोगों की बांछे खिल जाती थी, जल्दी फिल्म छूटे और सिनेमाहाल में दाखिल हो। इतनी बेचैनी हम किसी काम में नहीं दिखाते थे। पिता व्यंग से कहते कि इतनी तन्यमयता अगर तुम लोग पढ़ने में दिखाते तो बेड़ा पार हो जाता। रस-भंग करना पिताओं की पुरानी आदत थी।
फिल्म देखने के बाद हम उस फिल्म की चर्चा करते हुए चादर तान कर निद्रा रानी की गोद में चले जाते थे। रात में खूब अच्छे सपने आते थे। टी. वी. चैनल और वीडियो के आगमन से रात के शो में भींड निरंतर कम होने लगी। शांति– व्यवस्था की स्थिति पहले जैसी नहीं रह गयी थी इसलिए परिवारों का जाना कम हो गया था। सिनेमाबाज भी रास्ते में यदा-कदा लूट लिए जाते थे।
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510- अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज
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बेहतरीन । अपनी ही कहानी सी लगता है। फिल्में और नौटंकी हमने भी खूब देखी है। और धार्मिक साहित्य पढ़ने के उपदेश भी खूब सुने हैं। पढ़ा भी खूब है। कई मित्र तो तब से आज तक वही पढ़ रहे हैं। हम वाया फ़िल्म और नौटंकी असली साहित्य तक आ गए।
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