अमित सिंह
-
प्रेम और विश्वास के अकूण्ठ जिद की कविताएँ
कविता मनुष्य की मुक्ति का आख्यान रचती है, लेकिन यह मुक्ति मोक्षकामी नहीं होती। यह जीवन को पाना है उसके समस्त मल्यों के साथ। सुख-दुःख, राग-द्वैष, हानि-लाभ से गुजर कर ही जीवन और कविता दोनों पूर्ण होते है। जिस तरह जीवन में हर क्षण आह्लादक, सुखदायी और सुन्दर ही नहीं होता है उसी तरह कविता में भी हर पल वसंत का गान ही नहीं सुनाई पड़ती बल्कि पतझड़ के अंतिम पत्ते के टूटने की टीस भी होती है।
जीवन और कविता दोनों उस क्षण पूर्ण होते है जब प्रेम जैसे शाश्वत मूल्य के परिपाक को अभिव्यक्त करने लगे। इसी शाश्वत मूल्य की खोज करने वाली कविताओं के साथ युवा कविता की श्रृंखला की एक नई कड़ी के रूप में उपस्थित हुए है कवि अमित। अमित की कविताएँ अभी कहीं प्रकाशित नहीं है मगर वो कई पाठकों के ह्नदय में अंकित अवश्य हो चुकी है, जिसमें स्वाभाविक रूप से एक पाठक मैं भी हूँ। अमित की कविताओं को पढ़ने से ऐसा लगता है कि एक गहरे सूझ-बूझ और सूक्ष्म दृष्टि के साथ किसी ने नई दुनिया में प्रवेश किया है। उनकी कविताओं में टटकापन है मगर कच्चापन नहीं। अल्हड़ता है मगर बिखराव नहीं। वो ताजे-ताजे फूलों से भरी टोकरी के साथ कविता की साधना के लिए उपस्थित हुए हैं। कवि को यह पता है कि प्रेम को पाने के लिए आवश्यक तत्व है विश्वास। आज सबसे ज्यादा संकट विश्वास की कमी का ही है। पूँजीवादी संस्कृति और सम्प्रदायिकता ने लोगों के भीतर से विश्वास को समाप्त कर दिया है जिसे हमें पाना होगा। कवि जब प्रेम की बात करता है तो वह उसके तड़क-भड़क और प्रदर्शनकारी रूप का तिरस्कार करने से चुकता नहीं। उसे पूर्ण विश्वास है कि हम सहज होकर ही वास्तविक प्रेम को प्राप्त कर सकते है। उसे बड़बोलेपन में विश्वास नहीं है ‘एक मैं हूँ‘ शीर्षक कविता में कवि कहता है-‘प्रेम में / लांघते है सारा अलंघ्य / लोग संभव करते है / प्रत्येक न होने को / क्या कुछ नहीं कर जाते / एक मैं हूँ कि / बस तुम्हें प्रेम किये जाता हूँ।’ यह सहज अभिव्यक्ति ही उस प्रेम को पाने के लिए आवश्यक है जो हमें अपेक्षित है। कवि की एक खासियत और है कि वो प्रेम की सहजता को तो स्वीकार करता है लेकिन प्रेम में विघ्न पैदा करने वाली सामंती, जड़ और यथारिथतिवादी चेतना को प्रश्नांकित करने से नहीं चुकता। ‘मर्द हूँ मैं‘ कविता जड़ परम्पराओं और पुरूष-वर्चस्ववादी संस्कृति के रूप को उजागर करती है। जहाँ एक ठहरी हुई और प्रतिक्रियावादी सोच अब भी कायम है। कवि ने कुर्सी शीर्षक से लिखी कविताओं में उसके चरित्र को सामने लाने का प्रयास किया है-‘बैठने के लिए / कभी / बनी होगी कुर्सी / काम आने लगी / गिराने के। आज कुर्सी सत्ता का पर्याय बन गयी है जो उठाने और गिराने में विश्वास करती है। अमित की कविताएँ आज के षड्यंत्रकारी छद्म से आच्छादित समय में विश्वास और प्रेम को बार-बार पाने की अकूण्ठ जिद पैदा करती है, जो कविता और जीवन दोनों के लिए आश्वस्तिदायक है।
-रविशंकर उपाध्याय
एक मैं हूँ
ह्रदय
कुर्सी
अमित कुमार
सिंह
जन्म : जन. १९८३, डुमरांव, जिला-बक्सर ,
बिहार
शिक्षा : कशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पी एच डी
सम्प्रति : अध्यापन
हिंदी विभाग,गुरु घासीदास विश्वविद्यालय
बिलासपुर,छOOOrarग.
मोबाइल : 09770565788, 07587036695
पहली बार पर हमने एक नया स्तम्भ शुरू किया है जिसमें एक कवि की कवितायें
दूसरे कवि की टिप्पणी के साथ प्रस्तुत की जा रही है. स्तम्भ की तीसरी कड़ी
के अंतर्गत प्रस्तुत है नवोदित कवि अमित सिंह की कवितायें. अमित की कविताओं
पर टिप्पणी की है युवा कवि रविशंकर उपाध्याय ने.
प्रेम और विश्वास के अकूण्ठ जिद की कविताएँ
कविता मनुष्य की मुक्ति का आख्यान रचती है, लेकिन यह मुक्ति मोक्षकामी नहीं होती। यह जीवन को पाना है उसके समस्त मल्यों के साथ। सुख-दुःख, राग-द्वैष, हानि-लाभ से गुजर कर ही जीवन और कविता दोनों पूर्ण होते है। जिस तरह जीवन में हर क्षण आह्लादक, सुखदायी और सुन्दर ही नहीं होता है उसी तरह कविता में भी हर पल वसंत का गान ही नहीं सुनाई पड़ती बल्कि पतझड़ के अंतिम पत्ते के टूटने की टीस भी होती है।
जीवन और कविता दोनों उस क्षण पूर्ण होते है जब प्रेम जैसे शाश्वत मूल्य के परिपाक को अभिव्यक्त करने लगे। इसी शाश्वत मूल्य की खोज करने वाली कविताओं के साथ युवा कविता की श्रृंखला की एक नई कड़ी के रूप में उपस्थित हुए है कवि अमित। अमित की कविताएँ अभी कहीं प्रकाशित नहीं है मगर वो कई पाठकों के ह्नदय में अंकित अवश्य हो चुकी है, जिसमें स्वाभाविक रूप से एक पाठक मैं भी हूँ। अमित की कविताओं को पढ़ने से ऐसा लगता है कि एक गहरे सूझ-बूझ और सूक्ष्म दृष्टि के साथ किसी ने नई दुनिया में प्रवेश किया है। उनकी कविताओं में टटकापन है मगर कच्चापन नहीं। अल्हड़ता है मगर बिखराव नहीं। वो ताजे-ताजे फूलों से भरी टोकरी के साथ कविता की साधना के लिए उपस्थित हुए हैं। कवि को यह पता है कि प्रेम को पाने के लिए आवश्यक तत्व है विश्वास। आज सबसे ज्यादा संकट विश्वास की कमी का ही है। पूँजीवादी संस्कृति और सम्प्रदायिकता ने लोगों के भीतर से विश्वास को समाप्त कर दिया है जिसे हमें पाना होगा। कवि जब प्रेम की बात करता है तो वह उसके तड़क-भड़क और प्रदर्शनकारी रूप का तिरस्कार करने से चुकता नहीं। उसे पूर्ण विश्वास है कि हम सहज होकर ही वास्तविक प्रेम को प्राप्त कर सकते है। उसे बड़बोलेपन में विश्वास नहीं है ‘एक मैं हूँ‘ शीर्षक कविता में कवि कहता है-‘प्रेम में / लांघते है सारा अलंघ्य / लोग संभव करते है / प्रत्येक न होने को / क्या कुछ नहीं कर जाते / एक मैं हूँ कि / बस तुम्हें प्रेम किये जाता हूँ।’ यह सहज अभिव्यक्ति ही उस प्रेम को पाने के लिए आवश्यक है जो हमें अपेक्षित है। कवि की एक खासियत और है कि वो प्रेम की सहजता को तो स्वीकार करता है लेकिन प्रेम में विघ्न पैदा करने वाली सामंती, जड़ और यथारिथतिवादी चेतना को प्रश्नांकित करने से नहीं चुकता। ‘मर्द हूँ मैं‘ कविता जड़ परम्पराओं और पुरूष-वर्चस्ववादी संस्कृति के रूप को उजागर करती है। जहाँ एक ठहरी हुई और प्रतिक्रियावादी सोच अब भी कायम है। कवि ने कुर्सी शीर्षक से लिखी कविताओं में उसके चरित्र को सामने लाने का प्रयास किया है-‘बैठने के लिए / कभी / बनी होगी कुर्सी / काम आने लगी / गिराने के। आज कुर्सी सत्ता का पर्याय बन गयी है जो उठाने और गिराने में विश्वास करती है। अमित की कविताएँ आज के षड्यंत्रकारी छद्म से आच्छादित समय में विश्वास और प्रेम को बार-बार पाने की अकूण्ठ जिद पैदा करती है, जो कविता और जीवन दोनों के लिए आश्वस्तिदायक है।
-रविशंकर उपाध्याय
एक मैं हूँ
प्रेम में ,
लांघते हैं सारा अलंघ्य
लोग, संभव करते हैं
प्रत्येक न होने को
क्या कुछ नहीं कर जाते !
एक मैं हूँ, कि बस
तुम्हे प्रेम किये जाता हूँ....
मर्द हूँ मैं
तुम मुस्कुराती हो
और भहरा कर गिरने लगता है
मेरे पुरखों से मिला अहं
सक्रिय होने लगता है मस्तिष्क
परम्पराओं के रक्षार्थ
शुरू हो जाती है कवायद
संस्कृति और संस्कारों
को पुनर्जीवित करने की..
तुम कहती हो आज़ादी,
और मचने लगता है हाहाकार
अंगों में ,
शिथिल पड़ने लगता है
तने होने का परम्परागत भाव,
आँखें खोजने लगती हैं
भीतर ही भीतर
अदृश्यनुमा हथियार कोई,
जो पहुंचा दे तुम्हे,
वर्जनाओं के उसी गह्वर में
और गहना बन जाये तुम्हारा
‘एनीस्थीसिया’...
लगभग चिढ़ता हुआ
पूछता हूँ तुमसे,
कैसे शांत रहेंगे मेरे पुरखे
और उनकी थाती यह अहं
जब तुम ऐसा करोगी ..
आखीर , ‘मर्द’ हूँ मैं भी !
प्रेम
ठीक
घुटने के बीचों – बीच
हड्डी की चोट जैसा
तुम्हारा प्रेम...
मानो कह रहा हो,
बूझो तो जानें.... !
विश्वास
हज़ार में एक है ज़मालुदीन
लोग उसका विश्वास करते हैं
काटने हों माडो के बांस
या लगाना हो गीलवा
महजिद की पछिमाही देवाल पर
दूहनी हो एकहथ गाय
या साफ़ करना हो छठ घाट
हर जगह उपस्थित है जमालु
इस उर्स पर भी
उसे ही डालनी थी पहली माला
पीर बाबा को,
हर बार की तरह
लेकिन, जमलुआ बदल रहा है
सुना है पीर बाबा ने
नसीहत भी दी है तरक्कीपसंदों ने उसे
महजिद जाकर कसमे खाने
और दूर रहने की काफिरों से
आखिर ‘लोग’ विश्वास करते हैं उसका
और वह ! रात भर
मलता रहा खैनी
और विचार भी
क्या कहेगा ! सिगासन बो से नेवता के बारे में,
हांक लगाएंगे तेजा काका
जब गाय दूहने के लिए
और नही पहुंचेगा जब अछ्नमी का बेसन
जटाई ओझा के घर ....!
बधार में
बैठा हुआ जमलुआ,
एक ही दिन में
मनबढ़ और मोटी चर्बी
वाला हो गया..
पीर बाबा
को माला डाल रहा है,
भयातुर जमालुदीन,
पीठ
ठोंकते हैं पीर बाबा,
बहुत
नेक है जमालुद्दीन
तभी तो सब विश्वास करते हैं..
इस्तेमाल और विश्वास
का फर्क
समझने लगा है
जमालुद्दीन I
नाक
रोजमर्रा की बात है
पौ फटते ही उसका जागना
और जागते रहना
सबके सोने तक
बचाना रोटी का टुकड़ा
उपास रहने से चुहानी
ऐसे ही खर्चती है रोज
अपने जीवन का अंश
और बचाती है उपास से
चुहानी और जीवन
बस किसी
दिन,
कहने पर ना
या किसी इनकार पर
बतायी जाती है औकात
उसकी जात की,जुमलों से
मसलन “इनके नाक न होती
तो....’
और
फिर,
दरकिनार कर अपनी ‘ना’
रखती है फिर सबकी
नाक
रोज-रोज
अपनी नाक छूती हुई
जैसे
इज्ज़त और नाक का
सम्बन्ध जोड़ रही हो
और
मन ही मन ना कह रही हो
उसी दृढता से
ह्रदय
पढ़ा था कभी
ह्रदय
कोशिकाओं का घर होता है
यह तुम थीं
जब जाना
भावनाओं का समन्दर
होता है
ह्रदय
कुर्सी
बैठने के लिए
कभी
बनी होगी कुर्सी
काम आने लगी
गिराने के
कुर्सी-2
कुर्सी
बहुत उपयोगी होती है
जब तक
सत्ता का पर्यायवाची नही
होती
झूठ
हमनाम
गंगा में तैरते दीये
सुन्दरतम होते हैं
तुम्हारे होने पर
तुम्हारी आँखें इतनी चुप
क्यूँ हैं
हमनाम
प्रेम त्याग मांगता है
कई बार !
नही हमनाम, नहीं..
गंगा में तैरते दीये
लाचार होते हैं
हमारी तरह
आँखों में चुप्पी
और जुबान पर होता है
‘त्याग’
सफेदपोश हत्यारे जैसा
चीत्कार कर हर बार
अपनी चुप्पी में
प्रेम अपना अधिकार
माँगता है
(रविशंकर उपाध्याय युवा कवि हैं और आजकल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में शोध कर रहे हैं.)
रविशंकर ठीक ही कहते हैं कि कवितायें भी जीवन की ही तरह होती हैं ...यहाँ प्रेम भी है और उदासी भी | आगे बढ़कर हाथ थामने की कोशिश भी है और जरुरत पड़ने पर उसे रोक लेने का माद्दा भी |अमित की कविताओं में हमें सारे रंग दिखाई देते हैं और यह किसी भी युवा कवि के प्रति आश्वस्तिकारक है ...| विश्वास कविता बहुत अच्छी है और बाकि भी ...
जवाब देंहटाएंकविता की बढिया व्याख्या ..
जवाब देंहटाएंअमित जी की रचनाओं के लिए शुक्रिया ..
समग्र गत्यात्मक ज्योतिष
amit ji ki kavitaayen achhi lagi.inme ek achhe kavi ki puri sambhavna hai.bhasha paripakva hai. ravishankar ji ki tippadi bhi ullekhniya hai. 'pahaleebar'ki ,kavita ke sath tippadi dene ki yah pahal prashanshaniya hai.
जवाब देंहटाएंनए कवियों को सबके सामने लाने के इस सार्थक प्रयास के लिए संपादक जी का हार्दिक आभार ! अमित जी की कवितायें भी बेहतरीन हैं उन्हें साधुवाद !
जवाब देंहटाएं