रंजीता सिंह 'फलक' की कविताएं
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रंजीता सिंह 'फलक' |
पितृसत्तात्मक समाज की यह त्रासदी है कि वह स्त्रियों को वह सम्मान नहीं दे पाता जिसकी वे अधिकारी होती हैं। इसकी वजह वह पुरुषवादी मानसिकता है जिसमें स्त्रियों को दोयम दर्जे का मान लिया जाता है। लेकिन सच तो यही है कि इस समाज के संचालन में स्त्रियों की भूमिका उतनी ही अहम है, जितनी कि पुरुषों की। रंजीता सिंह फलक अपनी एक कविता में उचित ही लिखती हैं 'किसी ऐसे शहर में मैंने/ बेधड़क चलना शुरू किया था/ जहाँ स्त्री को स्त्री की तरह देख पाने की भी/ सलाहियत नहीं रख पाए थे वहाँ के पुरुष'। ऐसे बंद समाज में स्त्रियों से ही सारे शील, संकोच, मर्यादा, नैतिकता की उम्मीद की जाती है। उन स्त्रियों को जो लीक से अलग हट कर अपनी राह चुनती हैं उन्हें तमाम किस्म के फिकरे सुनने पड़ते हैं। लेकिन यह दुनिया एकांगी नहीं है। यहां दुष्ट हैं तो सज्जन लोग भी दिख जाते है। रंजीता लिखती हैं 'किसी पुरुष के वात्सल्य भरे/ हाथ ने ही मुझे सँभाला/ हर आघात में/ उन चंद पुरुषों ने ही मुझे सिखाया/ कि दुनिया सिर्फ भीड़ नहीं/ और स्त्री होना कोई अपराध नहीं'। कवयित्री के हृदय में वह प्रेम है जो अन्ततः सभी पर भारी पड़ता है। यह प्रेम उनके संकल्पों को मजबूती देता है और एक नई राह पर चल पड़ने का जज्बा भी। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रंजीता सिंह 'फलक' की कविताएं।
रंजीता सिंह 'फलक' की कविताएं
पावस ऋतु प्रेम की कराह है
कितना मुश्किल है
पीठ फेर कर रहना
और
मन को साधना,
बहुत मुश्किल है बच पाना
स्थिर रह पाना
जब प्रेम किसी आपदा-सा
अवतरित हो
कितना मुश्किल है
सुने को अनसुना करना
जब हृदय की हर साँस तक
पहुँच रही हो प्रेम की आतुर पुकार
कितना मुश्किल है
उन आँखों को अनदेखा करना
जो विदा के वक्त निर्निमेष निहार रही हों
कैसे न डूब जाए कोई आकंठ
उन उदास, आप्लावित आँखों में
सच तो ये है कि
ज़िंदगी से मुँह मोड़ने से भी कठिन है
प्रेम से मुँह मोड़ना
नैतिकताओं और कामनाओं के मध्य हुए
हर आदिम युद्ध में
पराजित हुआ है सिर्फ और सिर्फ
प्रेमाकुल हृदय
प्रेम की त्वरा को नैतिकता के
घोर हठ से परास्त तो किया जा सकता है
पर निषेध की गई समस्त कामनाएँ
धँसी रह जाती हैं देह में शूल-सी
आजन्म टीसता है हृदय
पावस ऋतु
प्रेम की चुप-सी कराह ही तो है
सब भंगुर है, नश्वर है सब
फिर भी कैसे विस्मृत हो
तुम्हारी दैवीय मुस्कान
तुम्हें आँख भर भी तो देखा नहीं था
पर तुम्हारी निश्छल मुस्कान के बीच दिखती
त्रियक धवल दंतपंक्ति
मेरी निद्रा का अब भी मखौल उड़ाती है
स्मृतियों की गाढ़ी गेह से कैसे मुक्त ये मन प्राण
तुम्हें एकटक देखने भर से
लगता है
देह पर अशुद्धि का दोष
तुम्हारी सुधि भर से
आ लगती हैं लांक्षनाएँ
कल रात ही तो स्वप्न में
तुम्हें देखा था
वहीं उसी तकिए पर जहाँ
घोषित रूप से किसी और का सर था
लोकाचारों और मर्यादा के
असमंजस में डूबा हृदय
कहाँ विसर्जित करे
अपनी निश्चल चाहनाएँ
किसे प्रेषित करे
सारी उलाहनायें
मृत्यु निश्चित छीन लेगी
मेरी आँखों के सारे स्वप्न
पर शेष तो रहेंगी
हृदय की अतृप्त कामनाएँ
क्या ब्रह्मांड में नहीं गूँजेगी
मेरी आर्त पुकार
एक निष्कलुष हृदय की
निर्दोष कामना से
क्या खंडित नहीं होगा
नियति का दर्प।
युद्ध और वसंत
किसी वसंत
उसने हथेलियों पर
लिखा मेरा नाम
और
उस बरस
मन के आँगन में
खिल उठे ढेर सारे फूल
ख़्वाहिशें
पार कर आईं
प्रतिबंधों के सारे छोर
और
किसी ढलती रात जब
उसने लिया
मेरा नाम
एक उनींदी-सी
थरथराती आवाज़ में
तब
काँप कर पलटे
सारे लम्हे
ख़लाओं में गूँजा
एक अस्फुट स्वर
जैसे
ताबीज बाँधते हुए
पढ़ी जाती है
कोई आयत
या फिर
कलाई पर
पूजा के बाद
बाँधा जाता है
कोई शुभ धागा
और
धीमे से उचारा जाता है
कोई मंत्र
जैसे कोई जाप
कोई प्रार्थना
कोई आरती
कोई अरदास
कोई नमाज़
कोई अजान
किसी जाड़े में
पहाड़ की सुफेद चादरों पर
उसने जब उकेरा मेरा नाम
तो
इश्क की तपिश में
पिघल-सी गई
सारी वादियाँ
और
आसमान से मन्नतों की तरह बरसी
कपास-सी हल्की बर्फ
किसी साल
जब सब कुछ हो रहा था
तहस-नहस
युद्ध, आतंक और
विस्फोटों के शोर में
जब डूबी थी दुनिया
उस लम्हे
ज़िन्दगी के नाशाद पलों में
मुझसे मीलों दूर
मेरे भीतर की उम्मीद को
बचाये रखने के लिए
उसने जोर-जोर से लिया
बेसाख्ता मेरा नाम ..
तभी
बज उठी
गिरिजाघर की घंटियाँ
और
हवाओं में गूँजा मेरा नाम
मद्धम धुन में गाये गए
किसी प्रेमगीत की तरह
और जब
इस वसंत
मैंने पुकारा है उसे तो
मेरे पास आई हैं -
बुलबुल की चहचहाहटें
फूलों की भीनी खुशबू
वादियों की ठंडी हवाएँ
इन्द्रधनुष के सपनीले रंग
ओस में धुली सुनहरी सुबह
और
मेरे हाथों में
काँप रहा है
अंतिम विदा का
आखिरी ख़त
अब, जबकि
मैं जानती हूँ
किसी भी वसंत
वो नहीं पुकार सकेगा
मेरा नाम
फिर भी
हर वसंत मैं करती हूँ उसे याद
और पुकारती हूँ उसका नाम
किसी कब्र के पत्थर पर खुदे
आख़िरी हर्फ़ की तरह
मेरे दिल पर चस्पां है
उसका नाम।
आजन्म बिछोह
होना तो ये चाहिए था कि
पिछली हजार यात्राओं की तरह
इस यात्रा के बाद भी
मैं उसी उल्लास से
डायरी लिखती
तस्वीरें निहारती
और
लिखती यात्रा वृत्तांत
की सुंदर शृंखलाएँ
पर इस दफा
लौटने के बाद
न तो तस्वीरें देखीं
न डायरी के पन्ने खोले
लौटा हुआ मन
जाने क्यों इतना उचाट
विकल और थका-थका सा है
मेरे जूड़े के बाएँ कोने पे
जहाँ मौसमी फूलों के गुच्छे
मैंने खोंस लिए थे
ठीक वहीं एक जोड़ी उदास आँखें टँगी हुई
महसूस हो रही हैं
आषाढ़ के मध्य की
और भी तो यात्राएँ की हैं मैंने
पर विगत किसी भी आषाढ़ में
स्मृतियों के जल जमाव ने
मुझे यूँ आतंकित नहीं किया
मेरे पास तो किसी प्रतीक्षा की नाव भी नहीं
न ही किसी के दिए वचनों की
कोई छतरी है
क्या करूँ
मुझे तो ठीक तैरना भी नहीं आता !
इस साल की यात्रा में उमड़े इस सैलाब से
कैसे निजात पाऊँ?
मुझे याद है बचपन में
माँ पानी वाली जगहों से
मुझे दूर ही रखती थी
पता नहीं ज्योतिषी ने
क्या अशुभ उचारा था !
अगर मुझे ठीक-ठीक
पता होता कि
मेरे प्रारब्ध में किस यात्रा के बाद
डूब कर मरना लिखा है तो
यकीनन मैंने
स्थगित कर दी होती
अपनी सारी यात्राएँ
पर प्रेम के घात से कौन बचा है
वह तो हमेशा
ऐसे हीं दबे पाँव आता है
और
हमें संभलने का मौका दिए बिना
हमारा ग्रास कर जाता है
आषाढ़ की मृत्यु का शोक क्या करना
शोक तो बस उन उदास आँखों का है
जिनके प्रारब्ध में कोई मिलन नहीं
शायद
अगली मुलाकात भी नहीं
बस
आजन्म बिछोह लिखा है।
विरह
विरह मुझे बहुत व्यथित करता है
फिर भी
तुम ऐसे प्रेमपत्र न लिखा करो
जिसे पढ़ते ही बमुश्किल
छुपाया गया प्रेम
किसी संक्रमण की तरह
एकाएक प्रकट हो जाए
तुम मेरी याद में
इतनी सुंदर कविताएँ भी
न लिखा करो
क्योंकि
तुम्हारा लिखा हुआ पढ़ते ही
धक्क् से हो जाता है दिल
जाने कितनी लंबी
हो जाती है साँस
आम के बौर-सी नाजुक
हो जाती हैं भंगिमाएँ
और
इच्छाएँ
हरसिंगार-सी झरने को आतुर...
डरती हूँ
कि कामनाओं के ज्वार से
कैसे बचूँगी शेष
डर से ज्यादा लाज का बोझ है
और ये जो लज्जा है न
रक्तिम कर देती है
मेरा सर्वस्व
जेठ की दुपहरी में जो सूरज
तुम्हें स्पर्श कर रहा है न
वो मेरी ही कामनाओं की
ऊष्मा से
धधक रहा है
उसने मेरी ही लज्जा की लालिमा
और देह की दाह चुराई है
पिछले माघ
जब हाड़ हिलाने वाली ठंड में
मैं तुम्हारी स्मृतियों की जुराबें डाले
कल्पनाओं की सलाई पर
सपनों का स्वेटर
बार बार बुन-उधेड़ रही थी
तब आधी रात अजीब सी तपिश से
खौल उठता था एकांत
तुम्हारे नाप की स्वेटर बुनते हुए
जब भी सीने के ऊपर
कांधे के फंदे घटाते हुए
याद करती थी
तुम्हारा सीना
तो घने रोयों से भरे उस जंगल में
गुम हो जाते थे सारे फंदे
तुम्हारे सीने के जंगल में खिले
अपने ही होठों के फूल मुझे
चकित किए देते थे
मेरे नथुनों में भर उठती थी
तुम्हारी मादक देहगंध
उस जंगल से लौटते हुए
मेरे साथ बची रहती थी
प्रणय की सुंदर स्मृतियाँ
माघ की घनघोर शीतरात्रि में भी
मेरे पोर-पोर में चढ़ आता था
एक अजीब सा खुमार
किसी गुमज्वर की शक्ल में
उन ठंडी रातों में भी
पसीने से भींग जाती थी
मेरी पेशानी
उनींदी रातों की
अर्ध चेतना में
तुम्हारी पीठ पर सर टिकाए
लंबी रात काटना भी
एक स्वप्न ही था
फागुन से चैत
और चैत से वैशाख
आते-आते
न देह का ज्वर गया
न मन का ताप
तुमसे मिल पाने के
हर अधूरे यत्न के बाद ..
जेठ की दुपहरी और रातें
इस उम्मीद में बीत रहीं कि
भस्म होने का इससे अच्छा महीना
और कौन सा होगा।
तुम्हारा शहर
पृथ्वी के मानचित्र पर
अब भी तुम्हारा शहर
नियत स्थान पर ही है
पर नियति ने
महज कुछ घंटों की दूरी पर
स्थित तुम्हारे शहर को
जैसे
देश ही नहीं
विश्व के मानचित्र से भी
विलुप्त कर दिया है
तुमसे मिलने के सारे यत्न यूँ
निरर्थक होते हैं
कि कई बार मैं खुद भी नहीं समझ पाती कि
इस वैज्ञानिक युग में भी
क्या नियति सच में
किसी भी शहर के भूगोल को
यूँ अदृश्य कर सकती है
मुझे अपने पाँव के अशक्त होने की पीड़ा से ज्यादा
इस बात पर रोष आता है कि
जब कुछ भी नहीं असम्भव
तो फिर
तुम तक पहुँचने की हर यात्रा इतनी बार स्थगित
कैसे हो सकती है?
इतने यत्नों में तो कोई
मंगल या चांद पर भी
पहुँच जाता होगा
पर खैर
इन सारी विडंबनाओं
के बावजूद
मैं जानती हूँ कि
तुम्हारा शहर
मेरी स्मृति के मानचित्र से
कभी विलुप्त नहीं हो सकता
स्थगित हुई यात्राओं का दंश भी
उस मुस्कान को नहीं छीन सकता
जो तुम्हारे स्मरण मात्र से मेरे होठों तक आती हैं
जीवनपर्यन्त विलुप्त हुआ तुम्हारा शहर
जब भी किसी काल के उत्खनन में मिलेगा
तो उसी शहर में मिलेंगे
मेरे वो तमाम पत्र
जो अनवरत
रात के तीसरे या चौथे पहर
मैंने तुम्हें लिखे थे
इन एक जोड़ी आँखों के स्वप्न
जिन पर दुर्भाग्य
किसी परमाणु बम-सा गिरा था
जिसमें बेमौत मरी थीं
ढेर सारी कोमल कल्पनाएँ
और एक पराजित हृदय
जो किसी कर्णफूल-सा
तुमसे विदा के वक्त वहीं कहीं छूट गया था।
आकुल हृदय
सोचती हूँ
कि क्या तुम्हें न देखने भर से
मिट जाएँगी तुम्हारी स्मृतियाँ
हृदय के कपाट बंद कर देने भर से
क्या कभी नहीं आयेगी
तुम्हारी सुधि की सुवास
मर्यादा के किसी भी अभेद्य किले में
कैद कर लूँ खुद को
पर क्या कभी
इतनी बहरी हो सकूँगी
कि न सुन सकूँ
प्रेम की पदचाप
मेरे चित्त में असंख्य उठते प्रश्नों का
कोई उत्तर नहीं है मेरे पास
मेरे पास है बस एक आकुल हृदय
और उसकी असीम अधीरता
जो संसार के तमाम लोकाचारों को
विस्मृत किए देती है
तुम्हारे प्रथम दृष्टिपात से
मेरी काया में जो एक क्षीण-सा
सुराख हुआ है
उसे विस्मृति की किसी भी मिट्टी से
भरा नहीं जा सकता।
तुम पुकार लो
मैनें सोचा है
तुम्हें कभी आवाज न दूँ
न कभी जोर से पुकारूँ
चुपचाप
तुम्हारी पीठ के पास
खड़ी रहूँ
इतने पास कि मेरी उतप्त साँसे
तुम्हारे कांधे को छू सके
और मेरी साँसों का ताप
तुम्हारी पीठ से होते हुए
सीधे -सीधे तुम्हारे
हृदय तक पहुँच सके
ऐसी किसी ऊष्मा में
जलते हुए
शायद पिघल सके
एक दिन
तुम्हारा मौन
उस एक दिन के इंतजार में
मैं खड़ी रहूँगी चुपचाप
ठीक तुम्हारी पीठ के पास
इस उम्मीद में कि
मेरे पुकारने के पहले तुम
पुकार लो मेरा नाम।
सुख-दुख
चौंकती हूँ
सबसे ज्यादा
सुख की आहट से
सुख हमेशा मिला
किसी भीतरघात की तरह
या शायद छोड़ कर जाते
प्रेमी की तरह
सोचती हूँ
दुख न होता
तो कैसे जान पाती कि दुनिया
दुख के हाथों नही
सुख के हाथों छली जाती है।
पिता के लिए नहीं लिखी कोई कविता
अपनी सारी डायरी खँगालते हुए
कहीं नहीं मिलती
पिता के लिए लिखी गई
कोई भी कविता
मुझे नहीं पता
भाई के लिए कैसे लिखी
इतनी कविताएँ
उसके बारे में सोचने बैठूँ तो
आँखों में तिरती हैं
जाने कितनी छवियाँ
और उसकी तो
हर छवि पर लिख सकती हूँ
जाने कितनी कविताएँ
माँ के जाने के बाद ही लिख पाई
माँ के लिए पहली कविता
शायद इसलिए कि
जीते जी माँ ऐसे ही रही
जैसे कोई बेटे वाली स्त्री
अपनी बेटी के साथ रहती है,
पर माँ के चले जाने के बाद
बेटे वाली माँ जाने कैसे
एकदम बराबर सी बँट गई
हम दोनों में
माँ के चले जाने के बाद
उसे ज्यादा बराबरी से पाया मैंने
शायद इसीलिए लिख पाई
माँ के चले जाने के बाद
उस पर कोई कविता
लिखा तो मैंने भतीजे के लिए भी था
क्योंकि बुआ शब्द की तरलता में
मन पर उलीचे गए तमाम
अनावश्यक संवाद
धुल उठे थे
और सब कुछ कितना नरम, शफ्फाक-सा हो गया था
पर पिता के लिए क्यों नहीं लिखी कोई कविता..?
इसका क्या जवाब देती!
हर बार पूछे गए इस
सवाल से ज्यादा जरूरी था
चुपचाप खुद को टोहना
पिता को याद करते ही
जाने क्या हो जाता है
पिता को सोचते ही
चेतनाशून्य
कोमा मरीज सी हालत हो जाती है
अनुपस्थित पिता को
अपने चारो तरफ़ साकार देखती हूँ
कई बार तो लगता है कि
दूध में मिसी गई रोटी और
सादी परवल की सब्जी का भाप
उठ रहा सामने की मेज़ से
अर्ध अल्जाइमर जैसी व्याधि से
पीड़ित पिता का चेहरा
दुधमुँहे बच्चे-सा लगता है
बुशर्ट की जेब में पाँच सौ रुपए को
बार बार चौकन्ना हो कर
टटोलते हुए पिता
और शाम होते ही किसी बहाने से
पैसे गुम जाने का शोर मचाते हुए पिता
हालाँकि पाँच सौ का नोट
नाती के पॉकेट में डालने की
चेतना थी उनमें
सबके नाम पर अजनबीयत दिखाते हुए भी
बबली ..मेरा नाम सुनते ही
उछाह से भर उठते पिता
उनकी बीमारी को भला डॉक्टर भी कहाँ समझ पाया होगा
मस्तिष्क की जाने किस शिरा में
अटका था मेरा नाम
जो बाकी सब भूल जाने पर भी याद रहा
सोचती हूँ, मेरा नाम धरते हुए
हुलसते पिता को
क्या इसका किंचित भी आभास रहा होगा कि
अपने आखिरी दिनों में सब भूलते वक्त
वो इसी एक नाम को याद रख पाएँगे
अपने हाथ में दो लुंगी, दो बुशर्ट पैंट लिए
एक थैला बगल में दुबकाए
हर बार मेरे जाते वक्त
बरामदे में सामने आते हुए पिता
धीरे से फुसफुसाते ..
इतना धीरे कि सिर्फ मैं ही सुन पाती
सुनती कम काँपती ज्यादा ..
तुम्हारा घर है न ..?
पूछते हुए पिता की
प्रश्नवाचक नजरें मुझे बेधतीं
उनकी शंका का क्या करूँ
हाँ..!
थूक घोंटते हुए बोलती ..
हालाँकि जानती थी, उन्हें याद होगा कि
मेरा कोई घर नहीं था
मैं किसी किराए के मकान में थी
घर से निकले लोग
किराए के मकान में ही तो जाते हैं
फिर भी मेरा बहुत मन होता
कि उस मकान को घर बना लूँ
ले जाऊँ पिता को उसी घर में
उनके छोटे-से थैले के साथ
पिता खुद की बनाई कोठी में
इतने अपरिचित थे
कि जीवन भर की कमाई और
वैभव से विरक्त
उस एक थैले में ही संतुष्ट थे
और मेरी ऐसी विवशता कि
साथ चलने की मनुहार करते पिता को
अपने साथ रख पाने का
न हौसला था
न इजाजत
यूं भी बेटे वाले माँ-बाप भला कब
बेटियों के मकान तक आ पाते हैं
पिता के राजसी वैभव में पली कोमल देह
वक्त की निष्ठुरता से काठ-सी हो गई है
और पिता से आनुवांशिक मिली
बड़ी-बड़ी आँखों में आने लगे हैं
दुखों के कुछ मोतियाबिंद
जैसे ही कुछ लिखने बैठती हूँ
धुँधला सा जाता है सब
तुम्हें याद करते हुए
बस काँपते हैं प्राण ...
ऐसे में, पिता तुम्हीं बोलो !
कैसे लिखूँ कोई कविता?
भाई (तुम्हें देखते हुए)
तुम्हें देखते वक्त
मैं और कुछ नहीं देख पाई
नहीं देख पाई
जीवन के अकथ विषाद से
स्याह हुए थके-माँदे
हताश-निराश
वर्तमान का चेहरा
तुम्हें देखते हुए मुझे याद आता है
बस मेरा माजी
तुम्हें देखते हुए मैं लौट जाती हूँ
कई बरस पीछे
खूब याद आता है
घर के ठीक पीछे का बागीचा
आँगन में झुकी नीम की डाल
गर्मी की रातों में मसहरी लगाकर
गप्पे मारते दोनों
तुम्हें देखते हुए नहीं रोक पाती
अपने अंदर उमड़ते अगाध प्रेम का वेग
तुम्हें सोचते हुए
कितनी रातें उठ-उठ कर बैठ जाती हूं
सोचती हूँ, क्या तुम भी कभी
अचानक जागकर
ऐसे ही हमारे बचपन और
जवानी के सुंदर दिनों को याद करते हो
स्मृतियाँ रौंदती हैं
रिश्तों के मध्य उग आए
अनावश्यक गिले-शिकवे और
औपचारिकताओं के झाड़-झंखार को
मेरे सामने होता है एक
गोरा-चिट्टा, बड़ी-बड़ी आँखों वाला
गोल-मटोल बच्चा
जिसकी मुस्कान में झलकते थे
मोती जैसे दूधिया दाँत
जो घर से बाहर निकलते ही
बड़ी चुस्ती से
न सिर्फ मेरी उँगलियाँ पकड़ता
बल्कि
मेरी ढेर सारी परेशानियाँ भी
अपने नन्हें हाथों में समेट लेता था
मसलन मेरे खेल में हारने पर तमतमाते हुए
सारा खेल भांड देना
या क्रोध में नथुने फुलाते हुए
ललकारना
खेल भांड देना
एक प्रतिशोध था
मुझे हारा हुआ देखना
तुम्हें कभी अच्छा नहीं लगा
तुम्हें देखते वक्त
मैं अब भी अपमान और प्रतिशोध में जलते
उस मासूम बच्चे के आँखों की पीड़ा
नहीं भूल पाती
तुम्हें देखते वक्त
मैं हर पल याद रखती हूँ
तुम्हारे भोले चेहरे की विवशता और
वही तमतमाहट
और शायद तुम्हारी उन्हीं आँखों ने
मुझे सिखाया है
जीवन से लड़ना और बार-बार जीतना
तुम्हें देखते हुए
सच में भूल जाती हूँ
जिंदगी का हर संताप
नियति के हर खरोंच
भूल जाती हूँ सारे अवांछित दुख
अपमान,पीड़ा,
अघोषित चरित्र हनन
क्रूरतम साजिशें
जघन्यतम प्रताड़नाएँ
पीठ पीछे की फुसफुसाहटें
सबकी आँखों का परायापन
तुम्हें देखते हुए
भूल जाती हूं वो सब कुछ
जो तुम्हारे नहीं होने पर
कभी नहीं भूल पाई
तुम्हें देखते हुए उतर आता है
जैसे पूरा का पूरा वसंत
करती हूँ शुक्रिया
मार्च के इस सुंदर माह का
जिसकी आमद हो तुम
पुरी के समुद्र सा उफान खाता है
मन का नेह और
नवाती हूँ सर,उस अज्ञात को
जिसकी सत्ता पर सबसे ज्यादा प्रश्न भी
मैंने ही उठाए थे
पर नास्तिक होने से पहले
हर बार
याद आ जाते हो तुम
तुम्हें देखते हुए बहुत याद आता है
हमारा घर
हमदोनों का घर
जो अब माँ,पिता के नहीं होने से
घर कम और तीर्थ ज्यादा हो गया है
इस हर साल अकेले जाते
और बंद घर की चाबियाँ खोलते हुए
मुझसे आ लिपटती है
बरसों पुरानी तुम्हारी देहगंध
पैरों पे महसूस होती है
स्मृतियों की मुलायम छुअन ..
तुम्हें याद करते हुए
अक्सर सोचती हूँ
कि काश तुम्हें रोज-रोज देख पाती
तो कितना सुंदर हो जाता यह जीवन।
शर्मनाक हादसों के गवाह
हम जो हमारे समय के
सबसे शर्मनाक हादसों के
गवाह लोग हैं
हम जो हमारे समय की
गवाही से मुकरे
डरे, सहमें मरे से लोग हैं
हमारे माथे
सीधे-सीधे
इस सदी के साथ हुई
घोर नाइंसाफी
को चुपचाप देखने का
संगीन इल्जाम है ,
हमने अकीदत की जगह
किये हैं सिर्फ और सिर्फ
कुफ्र
हमने अपने समय के साथ
की है दोगली साज़िशें .
हमने अपने हिस्से की
जलालत
पोंछ ली है
पसीने की तरह
और घूम रहे हैं
बेशर्म मुस्कुराहटों के साथ
दोहरी नैतिकता लिए
हम सिल रहें हैं
चिथड़े हुए
यकीं के पैरहन और
उदासियों,मायूसियों,
नाकामियों के लिहाफ
कि ढँक सकें
अधजले सपनों के चेहरे
हमने अपने होठों पर
जड़ ली है
एक बेगैरत चुप्पी
बड़ी ही बेहय़ायी से
दफना दी है
ज़िन्दा सवालों की
पूरी फेहरिस्त
हमने अपनी तालू पर
चिपका लिए हैं
चापलूसी के गोंद
और सुखरू हो चले हैं
कि हमने सीखा दी है
आने वाली नस्लों को
एक शातिराना चुप्पी
हम ठोंक-पीट कर
आश्वस्त हो चले हैं कि
मर चुके सभी सवाल
पर हम भूल गए हैं कि
असमय मरे लोगों की तरह
असमय मरे सवाल भी
आ जाते हैं
प्रेत-योनि में
और भूत-प्रेत की तरह ही
निकल आते हैं मकबरों से
मँडराने लगते हैं
चमगादड़ों की तरह
हमारी चेतना के माथे पर
हम भूल जाते हैं कि
कितनी भी चिंदी-चिंदी कर
बिखेर दें
तमाम हादसों के दस्तावेज
वे तैरते रहते हैं
अंतरिक्ष में
शब्दों की तरह
हम भूल जाते है कि
शब्द नहीं मरते
वे दिख जाते हैं
जलावतन किये जाने के बाद भी
वे दिखते रहते हैं
हमारे समय के दर्पण में
जिन्हें हम अपनी
सहूलियत,महत्त्वाकांक्षाओं
और लोलुपताओं
के षड्यंत्र में
दृष्टि-दोष कह
खारिज कर देते हैं
हम,जो हमारे समय के
सबसे शर्मनाक हादसों के
गवाह लोग हैं !
पुरूष
पुरुषों की भीड़ से
मैं उसी विरक्त भाव से गुजरती
रही
जैसे ट्रैफिक जाम में फँसा कोई आम इंसान
विचित्र संयोग रहा कि
दिन-दुपहरी
रात-बेरात
स्त्री हो कर भी पुरुषों के बीच
पुरुषों-सी गुजरती रही
मुझे घूरने वाली तमाम
मरदाना आँखों को मैं
यकीनन
एक गलत मुहावरे की शक्ल में मिली
दुनिया की भीड़ में अब भी
स्त्रियों से ज्यादा पुरुष हैं
और आज से बीस साल पहले
किसी ऐसे शहर में मैंने
बेधड़क चलना शुरू किया था
जहाँ स्त्री को स्त्री की तरह देख पाने की भी
सलाहियत नहीं रख पाए थे वहाँ के पुरुष
बहुत दिनों तक दबा-दबा-सा शोर
गूँजता रहा
आस-पडो़स, चौक-चौराहे पर
अचानक फूटे बलून की तरह कुछ फिकरे
ठीक कानों के नीचे गिरते
फिकरे कमर तक की चोटी में उलझ-उलझ
पीठ पर खरोंच पैदा करते
कमर तक की चोटी को
कंधे तक के थ्री स्टेप में काट
उन फिकरों की चुभन से मैंने
मुक्त होने की कोशिश की
फिकरे फिसल कर धप्प से
जमीन पर गिरने लगे
गिरे हुए फिकरों को मैं
जूती की नोक से कुचल
आगे बढ़ने लगी
पुरुषों की दुनिया में
पीठ छीलती भीड़ के बीच से
रोज़-रोज़ गुजरते हुए
यकायक मिले
स्त्रियों से भी ज्यादा कोमल और
सखियों से सगे कुछ
भरोसेमंद और प्रबुद्ध पुरुष
उन्हीं कुछ पुरुषों की वजह से
सूखते रहे पाँव के छाले
मिटती रही पीठ की खरोंच
मिलता रहा जी सकने भर का
सुकून
किसी पुरुष की आँखों में ही
मैंने पहली बार देखा
अपना चट्टान-सा व्यक्तित्व
और लिया कभी न टूटने का संकल्प
किसी पुरुष के वात्सल्य भरे
हाथ ने ही मुझे सँभाला
हर आघात में
उन चंद पुरुषों ने ही मुझे सिखाया
कि दुनिया सिर्फ भीड़ नहीं
और स्त्री होना कोई अपराध नहीं
उन पुरुषों ने दिया
मुझे मनुष्य होने का सम्मान
विश्वास और मैत्री जैसे शब्द
उनसे मिलकर ही सार्थक हुए
उन हाथों ने इंगित किए
हमेशा सही राह
मेरी सिसकी-मात्र पर सजल होते
और मुझे धीर धराते पुरुषों ने ही बचाया
मेरा खंडित होता आत्मबल
अपनी विवशताओं पर
बुक्का फाड़कर रोते वक्त
मैंने नहीं देखा उनका पुरुष होना
पुरुषों की भीड़ से विरक्त गुजरते हुए
मैं कई बार ठहरी
उन तमाम पुरुषों के पास
जो भीतर से स्त्री थे
और आचरण में
पूरे के पूरे मनुष्य।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
परिचय :
रंजीता सिंह
लेखकीय नाम-रंजीता सिंह 'फ़लक'
संपादक/लेखक/कवि/समाजसेवी।
शिक्षा-रसायनशास्त्र से स्नात्कोत्तर (जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा)।
*साहित्यिक मासिक पत्रिका 'कविकुंभ'और 'खबरी डॉट कॉम न्यूज पोर्टल' की सम्पादक ,प्रकाशक,प्रोपराईटर l
*महिलाओं के पक्षधर संस्था 'बीईंग वुमन' की संस्थापक राष्ट्रीय अध्यक्ष।
*मानवाधिकार संस्था 'ह्यूमन राइट्स एसोसिएशन' की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य।
*देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में स्पेशल न्यूज, परिचर्या, रिपोर्ताज, गीत-गजलों, कविताओं का विगत दो दशकों से अनवरत प्रकाशन।दूरदर्शन ,आकाशवाणी और अन्य चर्चित चैनल से काव्य पाठ ,संवाद,परिचर्चा,और साक्षात्कार प्रसारित।
किताबें
* शब्दशः कविकुंभ - बातें कही अनकही ( वरिष्ठ साहित्यकारों के साक्षात्कार)|
*कविता संग्रह -'प्रेम में पड़े रहना','वैली ऑफ वर्ड्स'द्वारा 2021 की सर्वश्रेष्ठ पांच हिंदी कृतियों में नामित और चयनित।
* "चुप्पी प्रेम की भाषा है "काव्य संग्रह, मंत्रिमंडल सचिवालय राजभाषा विभाग बिहार द्वारा चयनित पांडुलिपि का 2025 में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशन।
*कई किताबों में कविताओं पर आलोचनात्मक चर्चा एवं साझा संकलन।
*अंग्रेजी,भोजपुरी,बंगला,मराठी, उड़िया, नेपाली, आसामी, आदि भाषाओं में कविताओं/आलेखों का अनुवाद ।
*कविताओं पर नृत्य नाटिका और नाटक का मंचन ।
उपलब्धियां :~
*बिहार राजभाषा पांडुलिपि सम्मान,'गोपालराम गहमरी पत्रिका सम्मान','सूरज प्रकाश मारवाह साहित्य रत्न सम्मान'
'राष्ट्र शक्ति शिरोमणि सम्मान',' नेशनल सोशल मीडिया लीडरशिप अवार्ड','सरोजिनी नाएड़ू अंतरराष्ट्रीय सम्मान',
'सरस्वती सम्मान',हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा 'शताब्दी सम्मान',ओएनजीसी'साहित्य-साधना' सम्मान, 'संघमित्रा' सम्मान, जी लिट्रा ग्रुप 'शिखर सम्मान',भारतीय पत्रकार संस्थान द्वारा 'पत्रकारिता सम्मान',अमर उजाला द्वारा 'देवभूमि सम्मान', 'तेजस्विनी' सम्मान','भिखारी ठाकुर सम्मान' 'बचपन बचाओ' संस्था द्वारा 'विशिष्ट मानवाधिकार कार्यकर्ता सम्मान'एवं कई अन्य सम्मान।
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बहुत सुन्दर रचनाएं
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