श्रीविलास सिंह की कहानी 'अलाव'

 




अक्सर यह कहा जाता है कि स्त्री और पुरुष एक ही गाड़ी के दो पहिए की तरह होते हैं जिनसे जीवन की गाड़ी आगे बढ़ती है। लेकिन यह सच कुछ तिलिस्मी सा लगता है। दरअसल महिलाओं का जीवन अंतहीन संघर्ष का जीवन होता है। शोषण और उत्पीड़न उनके जीवन की कहानी होती है। पुरुषवादी सोच हमेशा आधिपत्यवादी नजरिए से सोचती और महसूस करती है। श्री विलास सिंह एक बेहतरीन कवि और कथाकार हैं। उन्होंने दुनिया के उस साहित्य को सामने लाने का काम किया है जिससे हिंदी की दुनिया अपरिचित थी। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं श्रीविलास सिंह की कहानी 'अलाव'।



'अलाव'


श्रीविलास सिंह 



"मेरा नाम कमली है। उम्र चौबीस साल। बाप का नाम दशरथ और  पति का नाम रमेश। गाँव रजापुर, थाना घसिया। इस गाँव में मेरी ससुराल है।”


“पहले मेरी ससुराल के अधिकांश लोग गाँव के जमीदार विक्रम सिंह के यहाँ ही काम करते थे। लेकिन मेरा पति रमेश अपनी थोड़ी सी खेती बाड़ी करने के  बाद खाली समय में शहर में काम करता है। मेरा जेठ ददन और उसके घर वाले अभी भी विक्रम सिंह के यहाँ ही काम करते हैं।" उसने अपने बारे में विवरण दिया। 


अपना बयान दर्ज कराते हुए वह मेरे प्रश्नों के जवाब दे रही थी जिसे एक महिला कांस्टेबल लिखती जा रही थी। पुलिस अभिरक्षा में होने के और बावजूद इस बात के कि उसे हत्या के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था, वह बिलकुल डरी हुई नहीं लग रही थी। बल्कि उसका सारा अस्तित्व ग़ुस्से से जलता हुआ सा लग रहा था। उसके भीतर घृणा की आग सी सुलगती रही थी।


"जी नहीं, किसी और के कहने पर नहीं, मैंने अपनी मर्जी से,  पूरे होशोहवास में विक्रम सिंह को मारा है। मुझे अपने किये पर कोई पछतावा नहीं। मैं विक्रम सिंह के अलावा अपने जेठ ददन और रज्जन तिवारी को भी मार डालना चाहती थी लेकिन दुःख है कि ऐसा करने का मौका नहीं मिला। इन्ही हरामजादों के साथ मिल कर विक्रम सिंह ने मुझे बर्बाद किया था।" उसने घृणा से दाँत पीसे। उसके भीतर की समस्त पीड़ा, सारा आक्रोश उसके चेहरे पर उमड़ आया था। 


बयान दर्ज करने वाली महिला कांस्टेबल ने उसकी बतायी हुई बातें कागज़ पर दर्ज की। वह मेरे अगले प्रश्न और उसके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी। मैं एक पुलिस अधिकारी था और इस घटना की जाँच कर रहा था। पुलिस स्टेशन में बैठा मैं घटना के सम्बंध में उससे पूछताछ करता हुआ सारे घटनाक्रम पर विचार कर रहा था। 



जब मैं घटनास्थल पर पहुँचा था, रात के नौ बज चुके थे। चांदनी रात थी और चैत के महीने में हवा में अभी भी थोड़ी ठंडक बाक़ी थी। गेंहू की अधिकांश फसल कट चुकी थी। बस कुछ खेतों में अभी भी फसल बची हुई थी। रात में इस समय तक गांव में लोग सो जाया करते हैं लेकिन लग रहा था उस रात नींद गांव वालों की आंखों से दूर जा चुकी थी। उस रात सारा गांव वहीं उमड़ा पड़ा लगता था, जिस जगह मैं पहुँचा था। मुझे बताया गया कि थोड़ी ही देर पहले रात के सन्नाटे में गूंजते आर्तनाद को सुन एकाएक सारे गांव वाले इसी ओर खिंचते चले आये थे। संभवतः चीखें बहुत  दर्दनाक और भयानक रही होंगी। सोलर  लैम्प और लालटेनों की रोशनी में घटना स्थल का दृश्य बीभत्स और भयोत्पादक लग रहा था। 


वह तेईस चौबीस साल की जवान और सुंदर मजदूर औरत थी। उसका शरीर मेहनतकश औरतों की ही तरह मजबूत और कसा हुआ था। उसके चारो ओर गांव  के आदमियों, औरतों और लड़कों की भीड़ लगी हुई थी। बच्चे या तो उस समय तक सो चुके थे अथवा लोगों ने उन्हें वहाँ से वापस घर भगा दिया था। स्त्री नीम के पेड़ के पास मेड़ पर बैठी थी। उस के चेहरे, बालों और कपड़ों पर खून के ढेरों छीटें पड़े थे मानों किसी ने होली में लाल रंग उड़ेल दिया हो। उसके हाथ रक्त से तर-बतर थे। वह भावशून्य आंखों से क्षितिज की ओर देख रही थी। कुछ दूरी पर एक रक्तरंजित  शव जमीन पर पड़ा हुआ था। कुछ लोग शव से थोड़ी दूर खड़े धीमी आवाज़ में गम्भीर चर्चा में निमग्न थे। 


पता चला कि मरने वाला उसी गांव का दबंग विक्रम सिंह था। शायद भागते समय वह मेड़ की ठोकर खा कर औंधे मुँह गिर पड़ा था। उसके शरीर पर कपड़ों के नाम पर केवल एक पजामा था। उसका गठीला शरीर कमर के ऊपर बिलकुल नंगा था और उसके अपने ही रक्त से डूबा हुआ था। मरने वाले की उम्र तीस बत्तीस साल से अधिक नहीं रही होगी और वह अच्छा करसती जवान था। उसकी गर्दन, कंधे और पीठ पर किसी धारदार हथियार के अनगिनत निशान थे । लगता था कातिल ने उस पर तब तक वार किए थे जब तक वह मर नहीं गया था या फिर कातिल ही वार करते करते थक नहीं गया था। लाश देख कर ही कोई कह सकता था कि कातिल को उससे अत्यधिक घृणा रही होगी। और इस बात में भी किसी को संदेह नहीं था कि विक्रम सिंह की कातिल मेड़ पर बैठी वह औरत ही थी। पास ही हत्या का हथियार, फसल काटने का हंसिया, भी पड़ा था जो मूंठ तक खून से सना हुआ था। चारो तरफ खून ही खून बिखरा था जो अब सूखने लगा था। कुल मिला कर भयानक दृश्य था। कुछ दूरी पर विक्रम सिंह के पड़ोस के लोग और गांव के कुछ और लोग खड़े आपस मे बातें कर रहे थे। हवा में तनाव स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता था। गांव में जिस ओर विक्रम सिंह का घर था, उधर से औरतों के जोर जोर से रोने की आवाजें आ रहीं थी। 


जिस समय मैं अपने पुलिस दल के साथ वहाँ पहुंचा था, उसी के कुछ समय पश्चात विक्रम सिंह के दो छोटे भाई और कुछ रिश्तेदार भी वहाँ पहुँचे थे। वे लोग दुःख से भी अधिक, ग़ुस्से में भरे लग रहे थे। यदि पुलिस उन्हें उस जगह से बलपूर्वक दूर न ले गयी होती तो वे लोग निश्चय ही उस औरत को उसी समय जान से मार डालते। वे सब दूर पुलिस के घेरे में खड़े मेड़ पर बैठी उस औरत को गालियाँ दे रहे थे और बार बार उसे जान से मारने की कसमें खा रहे थे। औरत इन सब बातों से निस्पृह अपनी खाली आँखों से शून्य में देख रही थी। मेरे साथ के लोग अपनी जाँच पड़ताल में व्यस्त हो गए थे। कई कोणों से लाश की फोटो खींची गई। पाजामें की तलाशी में एक मोबाइल फोन और कुछ रुपये तथा सिगरेट और माचिस की डिब्बी निकली, जिन्हे सीलबंद कर दिया गया। हंसिये को भी पारदर्शी लिफाफे में रख कर सील कर दिया गया। लाश का पंचनामा तैयार कर के पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया गया। 


इसके पहले कि मेड़ पर बैठी औरत को  गिरफ्तार करने के लिए विशेष प्रयत्न किया जाता, वह स्वयं ही उठ कर पुलिस की गाड़ी में बैठ गयी। लग रहा था कि उसके परिवार में कोई नहीं था, क्योंकि किसी ने उसके पास तक जाने का भी प्रयत्न नहीं किया था। पड़ोसी भला क्यों अपनी जान आफ़त में फंसाते। आखिर कत्ल का मामला था, वह भी गांव के दबंग और रसूखदार परिवार के मुखिया का। लोगों को पुलिस से अधिक विक्रम सिंह के परिवार वालों की नाराजगी का डर था।


उससे नया सवाल पूछने के साथ ही  मैं अपने विचारों के भँवर से बाहर आ गया और उसकी बात ध्यान से सुनने लगा।




"मैंने किस कारण विक्रम सिंह का कत्ल किया? हुँह! मौका मिलता तो गांव की दसियों औरतें और लड़कियां उस बदकार को जान से मार देती। वह हरामी था ही नाली का कीड़ा। लेकिन यह बात कोई सरेआम नहीं मानेगा। विक्रम सिंह एक नंबर का लफंगा, नीच और चरित्रहीन आदमी था। न जाने कितनी औरतों और लड़कियों के साथ उसने जबरदस्ती की होगी। कुछ ने तो अपने घर वालों तक को नहीं बताया था। कुछ के घर वालों को पता चलने पर वे लोग विक्रम सिंह के डर के मारे चुप रह गए थे और पीड़ित औरत को भी चुप करा देते थे। गांव के ही दो तीन लोग विक्रम सिंह के साथी और सहायक थे जिनमें रज्जन तिवारी उसका लंगोटिया यार था। मेरा जेठ ददन भी उसका चमचा था।" वह एक ही सांस में बोलती चली गयी। उसका चेहरा लाल हो रहा था और उसके गले की नसें फूल गयी थी।


"जी नहीं मैंने गांव भर की औरतों का बदला लेने के लिए उसको नहीं मारा। वे और उनके परिवार के लोग जब खुद उसका विरोध नहीं करते थे तो मुझे क्या पड़ी थी कि मैं उनके लिए उसे मारती। मैंने अपने खुद के कारण उसे मारा। अपना बदला लेने के लिए। अभी भी उसके दो हरामज़ादे साथी बाकी बच गए हैं," उसने जोर से ज़मीन पर थूक दिया। उसकी आँखों में घृणा और क्रोध के मिल जाने से लपट सी निकल रही थी। नथुनों से सांस ऐसे निकल रही थी जैसे कोई नागिन धीरे धीरे फुंफकार रही हो।


"मैं बताती हूँ मेरे साथ क्या हुआ था। विक्रम सिंह ने, एक रात जब मेरा पति शहर गया हुआ था, अपने साथी रज्जन तिवारी के साथ मेरे घर में घुस कर मेरे साथ जबरदस्ती की थी। मुझे बरबाद कर दिया। मैं चिल्ला न सकूं इसलिए हरामजादों ने मेरा मुँह गमछे से बांध दिया था। बात इतने  तक ही नहीं रही। कमीनों ने मेरा वीडियो भी बना लिया था और उसे मेरे पति तथा गांव वालों को दिखाने की धमकी दे कर विक्रम सिंह मेरे साथ जब चाहता था तब मनमानी करता था। जब मर्जी हो वह मुझे गाँव से दूर खेतों में बने अपने ट्यूबबेल वाले कमरे पर बुला लेता था। मेरी हालत उसके गुलाम जैसी हो गयी थी।" वह सांस लेने के लिए एक क्षण को रुकी। उसके चेहरे पर और आंखों में घृणा के गहरे भाव थे। 


उसने फिर आगे कहना शुरू किया, "इधर कुछ दिनों से तो वह मुझे अपने दोस्तों को खुश करने के लिए भी कहने लगा था। कई बार मैंने मर जाने, आत्महत्या कर लेने की बात सोची लेकिन फिर सोचा कि उससे इस कुत्ते का क्या बिगड़ता। वह किसी और को अपने चंगुल में फंसा लेता। इसलिए उस दिन मैं सोच समझ कर उसे मार डालने के लिए ही हंसिया ले कर गयी थी। मौका मिलता तो मैं रज्जन तिवारी और अपने जेठ ददन को भी मार डालती। वे दोनों भी मरने लायक हैं।"  वह एक क्षण के लिए रुकी। मैंने उसे पीने को पानी दिया। पानी पीने के बाद वह थोड़ी सामान्य हुई। यद्यपि वह क्रोधित और थोड़ी उत्तेजित थी लेकिन उसके व्यवहार में कोई घबड़ाहट या डर नहीं दिख रहा था। अपने किये पर उसे कोई पछतावा था, ऐसा भी नहीं लगता था।


"ठीक कहा आपने, पहले दिन मुझे बरबाद करने में रज्जन तिवारी भी बराबर का हिस्सेदार था। और ददन, मेरा जेठ। वीडियो तो उसी हरामजादे ने बनाया था। वीडियो मेरे पति को दिखाने की धमकी दे कर ट्यूबवेल पर जाने का संदेश भी वही लाया करता था। उसको मालूम था कि विक्रम सिंह उसकी बेटी पर भी बुरी नज़र रखता था लेकिन डर, नशा और पैसे के लालच में वह उसका चमचा बना रहा था। वह कमीना पैसों के लिए कुछ भी कर सकता है।" घृणा से उसके चेहरे पर और गहरी हो गई थी। उसने अपने पल्लू से अपना मुंह पोछा। एक क्षण को रुकी। फिर मेरे अगले सवाल का जवाब देने को तैयार हो गयी।


"इतने दिन बाद क्यों मारा? उसे मार डालना तो मैं पहले दिन से ही चाहती थी लेकिन मौका नहीं मिल रहा था। और अब तो पानी सिर से ऊपर जा रहा था। विक्रम सिंह मुझे अपने दोस्तों को भी खुश करने के लिए जोर देने लगा था। वह चाहता था कि मैं अपनी भतीजी, उसके चमचे ददन की लड़की, को भी किसी तरह उसके पास ले आऊं। डायन भी एकाध घर छोड़ देती है, लेकिन वो कमीना तो अपने कुत्ते की बेटी पर भी नज़र गड़ाए बैठा था। इसलिए मैंने सोच लिया था कि अब जल्दी ही कुछ करना पड़ेगा।" वह फिर सांस लेने के लिए रुकी।


"उस रात मैं अपने कपड़ों में हंसिया छिपा कर ले गयी थी। वैसे तो विक्रम सिंह मेरे ट्यूबवेल वाले कमरे तक पहुंचने के पहले ही अपने चमचों के साथ दारू पी चुका होता था फिर भी मुझ से पीने के लिए पूछा करता था। पहले मैं मना कर देती थी। इसलिए उस रात जब मैंने भी दारू पीने की इच्छा प्रगट की तो उसे आश्चर्य हुआ। उसने मज़ाक भी किया कि अब मैं लाइन पर आने लगी हूँ। फिर वह मेरी ओर पीठ करके गिलास में शराब डालने लगा। इसी मौके पर मैंने उसकी गर्दन पर पहला वार किया था जो उसकी गर्दन और कंधे पर लगा था। इस एकाएक के वार से वह बिलबिला गया और बाहर की ओर भागा। मुझ पर खून सवार हो चुका था। मैं उसके पीछे भागी और उसकी पीठ पर वार करने लगी। फिर उसे मेंड़ से ठोकर लगी और वह गिर गया। मैं पता नहीं कब तक उस पर वार करती रही। वह किसी घायल सांड की तरह डकरा रहा था। उसकी चीखें सुन कर और उसका भलभला कर बहता खून देख कर मैं बता नहीं सकती मुझे कितनी शांति मिल रही थी। जैसे किसी ने मेरे सीने में सुलगते किसी अलाव पर ठंडा पानी डाल दिया हो।" उसकी मुखमुद्रा से लग रहा था मानो अब भी उस घटना को याद कर के उसे एक अव्यक्त सा आनन्द मिल रहा था।





"अफसोस! कैसा अफसोस। अफसोस तो इस बात का है कि मैं उसके साथियों रज्जन और ददन को नहीं मार पायी। विक्रम सिंह के मर जाने से तो गांव का कोढ़ मिट गया। शायद अब लड़कियों और औरतों को कुछ राहत मिले। मुझे अपने किये का कोई अफसोस नहीं है। अलबत्ता यदि मुझे मौका मिलेगा तो मैं बाक़ी दोनों को जरूर मारूंगी।" उसने एक बार फिर अपनी बात दोहराई और लम्बी सांसें लेने लगी। उसकी आवाज़ से ही उन दोनों के प्रति उसकी घृणा का अनुमान हो रहा था। उसका बयान पूरा हो गया था। मैंने बयान पर उसके हस्ताक्षर कराए और आगे की कार्यवाही में व्यस्त हो गया।


मैं देर से अपने कार्यालय के कमरे में बैठा उस के मामले के बारे में विचार कर रहा था। आज उसे विचाराधीन क़ैदी के रूप में पुलिस स्टेशन से ज़िला जेल में स्थानांतरित किया जाना था। इसके पूर्व मैं उससे कुछ बातें करना चाहता था। यद्यपि यह न तो हमारा रूटीन था और न ही अपेक्षित था किंतु उसके मामले को देखते हुए मुझे अपनी पेशेवर तटस्थता के बावजूद उससे सहानुभूति सी महसूस होती थी। महिलाओं के शोषण और उत्पीड़न के इस तरह के मामले रोज़ की बात हो गए थे और पुलिस और न्यायालय जाने अंजाने इन मामलों में पीड़ितों को न्याय दिला पाने में अपेक्षा से बहुत पीछे थे। अक्सर ऐसे मामले पुलिस तक पहुँचते ही नहीं थे और बदनामी और झूठी इज्जत के नाम पर घर वालों द्वारा ही दबा दिए जाते थे। यदि कभी रिपोर्ट होती भी और मामले पुलिस और अदालत तक पहुँच भी जाते तो क़ानूनी जटिलताओं, जाँच की लापरवाहियों, पीड़ितों की साधनहीनता और अपराधियों के रसूख़ के चलते, बहुत कम मामलों में ही अपराधियों को दंड  मिल पाता था। ऐसे में यद्यपि उसकी  क़ानून को हाथ में लेने की बात का समर्थन नहीं किया जा सकता था लेकिन मामले को सहानुभूतिपूर्वक तो देखा ही जा सकता था। आख़िर ऐसे मामलों में स्त्रियाँ, जहाँ पीड़ित होने के बावजूद भी समाज और लोग उन्हें ही दोषी मानते हैं, कब तक क़ानून के सहारे बैठी रहेंगी? 


मैंने उसे बताया कि उसके बयान और अन्य साक्ष्यों के आधार पर रज्जन और ददन को भी गिरफ्तार किया जा चुका था। विक्रम सिंह के मोबाइल में मौजूद वीडियो उनके खिलाफ पक्का सुबूत था। वही वीडियो उन दोनों के मोबाइल में भी मौजूद मिला था। मैंने उसे आश्वासन दिया कि परिस्थितियों को देखते हुए मैं कोशिश करूँगा कि उसे कम से कम सजा हो। लेकिन ऐसा लग रहा था कि उस पर मेरी बात का कोई असर नहीं हुआ था। जैसे अब जीने मरने से उसको कोई ख़ास फर्क न पड़ता हो। मेरी बात का कोई उत्तर देने की बजाय वह बस शून्य में देख रही थी। 


मैंने उसे आगे बताया कि उसका पति शहर से आ गया था और सब कुछ जानने के बाद भी उसे निर्दोष बता रहा था और यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि उसने स्वेच्छा से कुछ भी ग़लत किया होगा। यह भी बताया कि वह उसे छुड़ाने के लिए दौड़ धूप कर रहा था और वकील से बात कर रहा था। मैंने उसे बताया कि वह उससे मिलने आया था और बाहर बैठा प्रतीक्षा कर रहा था। इस बात से पहली बार उसके मौत जैसे सपाट और भावहीन चेहरे पर जीवन की लालिमा के कोमल रंग उभर आए। और शून्य में ताकती उसकी आँखों में आशा की रोशनी सी झिलमिलाने लगी।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


सम्पर्क 


मोबाइल - 8851054620


टिप्पणियाँ

  1. बहुत उम्दा कहानी है। स्त्री का संघर्ष और प्रतिरक्षा के लिये अत्याचारी का वध कहानी को महत्त्वपूर्ण बनाते हैं। श्री विलास जी को बधाई।

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  2. बहुत सुंदर कहानी, बधाई सर

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