प्रतुल जोशी का आलेख 'बिहू की खोज में'

प्रतुल जोशी

भारत इस मामले में विविधवर्णी देश है कि यहाँ पर विविध जाति, धर्म, वर्ग, भाषा और बोली वाले लोग अपनी संस्कृति और परम्पराओं के साथ एक दूसरे संग लम्बे अरसे से जीवन यापन कर रहे हैं। यहाँ हर क्षेत्र की अपनी लोक-संस्कृति, लोक-नृत्य और लोकगीत हैं। इसमें जीवन का उत्साह और जीने के विविध प्रकार के रंग भरे होते हैं। ऐसा ही एक आयोजन है असम का लोक नृत्य – बिहू। बिहू के भी अनेक प्रकार हैं। इनमें सर्वाधिक ख्यात है – अप्रैल महीने में मनाया जाने वाला ‘रोंगाली बिहू’ उत्सव। यह बात शायद ही किसी को पता हो कि असम के विविध क्षेत्रों में इस बिहू के अलग-अलग रंग-रूप-प्रकार-तरीके हैं। आकाशवाणी के शिलांग केन्द्र और अब लखनऊ केन्द्र से जुड़े हुए प्रतुल जोशी ने बिहू को नजदीक से देखा और आकाशवाणी के लिए इस पर वृत्त चित्र बनाया है। प्रतुल ने बिहू के को नजदीक से जानने के लिए कई बार असम की यात्रा की है। बिहू पर प्रतुल जोशी का एक विस्तृत लेख विशेष तौर पर पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है। तो आइए बिहू के मौसम में जानते हैं बिहू उत्सव के विविध पक्षों के बारे में प्रतुल जोशी की कलम से।  

  
       

बिहू की खोज में

(एक प्रसारणकर्ता का आत्मवृत्तांत)



प्रतुल जोशी




अप्रैल 2017, ठीक एक वर्ष बाद मैं एक बार फिर शिवसागर में था। शिवसागर माने ऊपरी असम। बिहू की जन्मभूमि। इस बार शिवसागर लखनऊ से पहुँचा था। वर्ष 2016 के अप्रैल में शिवसागर शिलौंग से आया था। एक वर्ष में एक बड़ा परिवर्तन हो गया था। अपन का स्थानांतरण आकाशवाणी की पूर्वात्तर सेवा, शिलौंग से आकाशवाणी लखनऊ हो चुका था। तीन साल शिलौंग में बिताने के बाद अपन वापस लखनऊ पहुँच गये थे। लखनऊ तो पहुँच गये थे लेकिन बिहू ने पीछा नहीं छोड़ा था। अप्रैल 2005 से बिहू उत्सवों में जाने का जो शौक जागृत हुआ था वह 2017 में भी पीछा नहीं छोड़ रहा था। दरअसल बिहू (माने रोंगाली बिहू) में ऐसी मादकता है कि यदि हमारे जैसा रसाग्रही एक बार उसका स्वाद पा ले तो फिर बार बार स्वाद पाने के लिए प्रयत्नशील रहेगा।



बिहू से सबसे पहले मेरा साक्षात्कार ईटानगर के एक उत्सव मैदान में अप्रैल 2005 में हुआ था। उन दिनों मैं आकाशवाणी ईटानगर में पोस्टेड था। ईटानगर की सीमा बनाता हुआ असम का उत्तर लखीमपुर जिला है। ईटानगर में प्रवेश करने के लिए असम के उत्तर लखीमपुर जिले से हो कर जाना पड़ता हैं। ईटानगर में बसे असम निवासी, बिहू उत्सव मनाने के लिए उत्तर लखीमपुर से बिहू पार्टियों को बुलाते रहे हैं। वर्ष 2005 में पहली बार बिहू के आयोजन को देख कर मैं हतप्रभ था। मंच पर क्रमिक रूप से आते हुए पुरूषों और महिलाओं के नृत्य समूह, साथ में विविध वाद्य यन्त्रों का सुंदर तालमेल। शुरू-शुरू में बिहू के बारे में मुझे जो समझ आया, वह केवल यह था कि यह असम का एक लोक नृत्य है जिसमें महिलाएं मूंगा सिल्क की मेखला चादर पहने, माथे पर बड़ी सी बिन्दी लगाये, गले में ढेर सारे आभूषण डाले और पुरूष धोती, मूंगा सिल्क का कुर्ता और माथे पर गमछा बांध कर नाचते हैं।



‘‘इनमें जो वाद्ययन्त्र इस्तेमाल होते हैं उनके क्या नाम हैं?’’ ‘‘बिहू में नृत्य के अलावा कौन-कौन सी रस्में होती हैं?’’ इन बातों से मैं अनभिज्ञ था। लेकिन बिहू में महिलाओं द्वारा हाथों को कमर के पीछे ले जाना और शरीर को बायें से दांये और फिर दांये से बांये घुमाना, वहीं पुरूषों द्वारा माथे पर गमछा बांध कर बांसुरी की सुरीली तानों और भैंस के सींग से बने वाद्ययन्त्र पेपा को पूरी मस्ती के साथ बजाना, यह सब ऐसा सम्मोहक था कि ईटानगर में अगले दो वर्षों तक बिहू के अवसर पर मैं उस मैदान में जरूर होता जहाँ यह आयोजन सम्पन्न होता।



जून 2007 में मैं ईटानगर छोड़ कर लखनऊ आ गया था। पिछले वर्षों में लखनऊ में भी बिहू का आयेजन प्रति वर्ष किया जा रहा है। यद्यपि यह बहुत बड़े स्तर पर नहीं होता। कैंट क्षेत्र में ऐतिहासिक दिलकुशा कोठी के हरे भरे लॉन में असमवासी प्रति वर्ष अप्रैल के मध्य में (प्रायः रविवार को) बिहू पार्टी जैसा आयोजन करते हैं। इसमें अधिकांश वह असमवासी होते हैं जो केन्द्रीय सरकार के विभिन्न विभागों में (विशेषकर रक्षा विभाग में) कार्य कर रहे होते हैं। बिहू की एक झलक पाने और उत्तर पूर्व भारत में बिताए अपने समय को पुनः जीने के उद्देश्य से 2008 से 2013 तक लगातार मैं इस आयोजन में शरीक होता रहा।



लेकिन 2013 के अक्टूबर में मैंने पुनः उत्तर पूर्व भारत में जाने का मन बनाया। अबकि मेरी मंजिल शिलौंग थी। शिलौंग यानि उत्तर पूर्व भारत की पूर्व राजधानी। एक समय जहाँ से पूरे उत्तर पूर्व का शासन नियंत्रित होता था। शिलौंग जहाँ एक तरफ हिल स्टेशन है, वहीं वह गुवाहाटी से बिल्कुल सटा हुआ भी है। गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से लगभग 100 किमी की दूरी पर। वर्ष 2014 के रोंगाली बिहू की आमद के बहुत पहले मैं यह तय कर चुका था कि बिहू का आनन्द गुवाहाटी में उठाया जाएगा। मित्रों परिचितों के माध्यम से मुझे यह भी पता चला चुका था कि गुवाहाटी में बिहू बड़े-बड़े पंडालों में मनाने की परम्परा है और देर रात तक वहाँ बिहू नृत्य और संगीत के आयोजन होते हैं। शिलौंग पहुँचने के थोड़े दिन बाद मैंने लखनऊ के दोस्तों में यह प्रचार भी शुरू कर दिया था कि उत्तर पूर्व आने का सबसे उत्तम समय अप्रैल का मध्य है क्यूंकि अप्रैल में बिहू की अनुपम छटा के दर्शन असम में होते हैं। मेरी बातों को अधिकांश मित्रों ने ध्यान से सुना। लेकिन गुवाहाटी आने की ज़हमत सिर्फ श्री भगवान स्वरूप कटियार ने ही उठायी। कटियार जी उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग से कुछ वर्षों पहले सेवानिवृत्त हुए हैं। घूमने फिरने के इतने शौकीन हैं कि हाल के वर्षों में दुनिया के बहुत से देश घूम आये हैं। तो अप्रैल 2014 में गुवाहाटी के पंडालों में बिहू का आनन्द मैंने कटियार दम्पत्ति के साथ उठाया।



इस नागरी बिहू को देखने के बाद बिहू के बारे में और जानने समझने की मेरी इच्छा बलवती हो चुकी थी। इसके बाद लगातार तीन वर्ष अप्रैल के महीने में असम के विभिन्न स्थानों की यात्रा कर बिहू को जानने का सुयोग मुझे मिला।



वर्ष 2015 में मैंने आकाशवाणी दिल्ली के अपने साथियों को आश्वस्त कर लिया था कि आकाशवाणी की राष्ट्रीय पत्रिका ‘‘संस्कृति भारती’’ (जिसका प्रसारण प्रत्येक माह के दूसरे बुधवार को आकाशवाणी दिल्ली से राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है) के अप्रैल अंक में एक रिपोर्ट ‘‘अप्रैल माह में उत्तर पूर्व भारत में मनाये जाने वाले त्यौहार के तौर पर शामिल की जा सकती है।” दरअसल अप्रैल महीने में उत्तर पूर्व के विभिन्न राज्यों में कई त्यौहार मनाये जाते हैं।



अरूणाचल प्रदेश के वेस्ट सियाँग जिले में रहने वाली जनजाति ‘‘गालो’’ के सदस्य प्रति वर्ष 05 अप्रैल को अपना त्यौहार ‘‘मोपिन’’ बड़े जोर शोर से अरूणाचल के विभिन्न हिस्सों में मनाते हैं। अरूणाचल प्रवास के दौरान मैं ईटानगर और तेजू में इसमें शामिल हो चुका था। इसी तरह मेघालय के सेंग खासी; (Seng Khasi) समुदाय द्वारा प्रतिवर्ष 14 अप्रैल को मनाए जाने वाले त्यौहार ‘‘शाद सुक मिनसेम (Shed Suk Mynsiem)’’ में भी मैं वर्ष 2014 में, शिलौंग में हिस्सा ले चुका था। नगालैंड की कोन्याक जनजाति प्रति वर्ष अप्रैल के पहले सप्ताह में मोन जिले में अपनी जनजाति का उत्सव ‘‘आओलिंग उत्सव (Aoling Festival) मनाती है। मेरा मानना था कि इसके साथ असम के रोंगाली बिहू का जोड़ कर जो रिपोर्ट दिल्ली से प्रसारित की जाएगी, उससे पूरे देश के श्रोताओं को उत्तर पूर्व भारत की सांस्कृतिक परम्पराओं’ की अच्छी जानकारी मिलेगी। मेरा प्रस्ताव दिल्ली के साथियों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके चलते वर्ष 2015 में बिहू के आयोजन को मुझे आकाशवाणी के प्रतिनिधि के रूप में कवर करने का अवसर हासिल हो गया। चूंकि मसला राष्ट्रीय स्तर पर रिपेर्ट के प्रसारण का था, इसलिए तय किया गया कि गुवाहाटी शहर के साथ ही असम के ग्रामीण इलाकों को भी शामिल किया जाएगा।



आकाशवाणी कॉलोनी शिलौंग में पड़ोस में कुछ समय से मनोज आ कर रहने लगा था। मनोज गुवाहाटी से सटे जिले नलबाड़ी के एक गाँव का रहने वाला है। इससे अच्छा कोई विकल्प नहीं हो सकता था कि नलबाड़ी में मनोज के घर चल कर ही रोंगाली बिहू का आनन्द उठाया जाये और असम के ग्रामीण क्षेत्रों में रोंगाली बिहू कैसे मनाते हैं, इसकी जानकारी भी श्रोताओं को दी जाए।



गुवाहाटी शहर में रोंगाली बिहू की छटा देखते ही बनती है। शहर के हर एक हिस्से में बड़े बड़े पंडालों में रोंगाली बिहू मनाया जाता है। यहाँ सबसे पुरानी कमेटी लताशील बिहू सम्मिलनी है। गुवाहाटी हाईकोर्ट के पास एक बड़े से मैदान में लताशील का मंच सजता है। वहीं आकाशवाणी गुवाहाटी के निकट ‘‘चांदमारी बिहू सम्मिलनी’’ है। इसी तरह उत्तर पूर्व फ्रंटियर रेलवे के मुख्यालय मालेगाँव के समीप के एक बड़े मैदान से ले कर ब्रहमपुत्र नदी के किनारे भरलूमुख बिहू पंडालों में यदि कुछ में केवल सांस्कृतिक गतिविधियाँ होती हैं तो बहुत से पंडालों में दिन में विभिन्न किस्म की क्रीडा प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं।



वर्ष 2015 में चांदमारी और लताशील के विभिन्न कार्यक्रमों को देखने के पश्चात् तय किया कि नलबाड़ी चला जाए। नलबारी मेरे लिए उत्सुकता का विषय भी था।


गुवाहाटी से एक टैक्सी ले कर हम लोग नलबाड़ी के लिए निकले। रास्ते में दिल्ली से FM Rainbow के एंकर का फोन मेरे मोबाइल पर बज रहा था।


‘‘सर! आप तैयार हैं। आपको हम लोग Air पर ले रहे हैं। ’’
‘‘जी बिल्कुल तैयार हूँ’’ मैं उत्तर देता हूँ।



दरअसल आकाशवाणी के प्रसारण तंत्र पर मेरा जरूरत से ज्यादा भरोसा रहा है। हमारे श्रोता न जाने कहाँ-कहाँ बैठ कर हमें सुन रहे हैं। इसीलिए जब भी किसी विशिष्ट कार्यक्रम में मैं शामिल हुआ हूँ तो FM प्रसारण से जुड़े दिल्ली आकाशवाणी के अपने सहकर्मियों को हमेशा सूचित करता रहा हूँ। आकाशवाणी के FM Rainbow चैनल और FM  Gold का जो प्रसारण दिल्ली से होता है उसे देश के कई राज्यों में भी रिले किया जाता है।



 ‘‘और अब हम आपको लिये चलते हैं गुवाहाटी जहाँ से हमारे प्रतिनिधि प्रतुल जोशी आपको असम के बिहू के बारे में जानकारी देंगे।” दिल्ली से FM Rainbow के एंकर, माइक पर उद्घोषणा करते हैं जिसे मैं अपने मोबाइल पर स्पष्ट सुन जाता हूँ।



 ‘‘गाड़ी रोको!’’ मैं ड्राइवर को निर्देश देता हूँ। गाड़ी सड़क के एक तरफ रोक दी जाती है। एक पुल पार कर के हमारी गाड़ी ने बांये काटा था। सड़क चौड़ी थी लेकिन धूल भरी थी। चलती गाड़ी में सिग्नल डिस्टर्ब होने की आशंका थी।


"बिहू तीन प्रकार का होता है। आश्विन और कार्तिक मास की संधि पर यानी अक्टूबर के मध्य में, जो बिहू मनाया जाता है उसे ‘काती’ या ‘कंगाली बिहू’ कहा जाता है। ‘कंगाली’ इसलिए क्यूंकि इस समय खेतों में फसलें खड़ी होती हैं, किसानों के अन्न भण्डार खाली होते हें। मकर संक्रांति के समय जो बिहू मनाया जाता है, उसे ‘माघी’ या ‘भोगाली बिहू’ कहते हैं। अब फसलें खेतों से कट कर खलिहानों में आ गयी होती हैं। घर में अन्न भण्डार भरे होते हैं। खाने-पीने की खूब धूम होती है। लेकिन अप्रैल में आज कल जो बिहू मनाया जा रहा है इसे ‘बोहाग’ या ‘रोंगाली बिहू’ कहते हैं। इस बिहू में नाच गाने का आयोजन होता है। ‘बोहाग बिहू’ से ही असमिया नववर्ष की शुरूआत भी होती है।’’



मैं बिहू से संबंधित अपनी सीमित जानकारी धारा प्रवाह रूप से देने में लगा था। FM Rainbow के एंकर्स FM स्टाइल में प्रश्न दागते हैं। गुवाहाटी नलबारी रोड पर आसमान में प्रश्न उत्तर कर मेरे मोबाइल तक पहुँचते हैं।




‘‘शहरों में जहाँ बड़े-बडे़ पंडालों में इसका आयोजन किया जाता है, वहीं गाँवों में सामूहिक रूप से लोग एक दूसरे के घर टोली बना कर बिहू गीत गाते हुए जाते हैं। गाँवों में बिहू से संबंधित वक्तव्य मैं उस स्मृति के आधार पर देता हूँ जब लगभग एक दशक पूर्व बिहू की एक शाम ईटानगर से गुवाहाटी बस से की गई यात्रा के दौरान मुझे सड़क के किनारे पड़ने वाले उत्तरी लखीमपुर के गाँवों में एक घर से दूसरे घर जाती दर्जनों बिहू टोलियों के दर्शन हुए थे। कुछ ऐसे ही दृश्य का सपना संजोए हम नलबाड़ी के रास्ते पर होते हैं।




नलबाड़ी के एक गाँव में हम लोग शाम ढलते न ढलते पहुँच जाते हैं। लेकिन यह क्या? जिस दृश्य की कल्पना के साथ मैं नलबाड़ी पहुँचा था वह दृश्य दूर-दूर तक कहीं उपलब्ध नहीं था। हाँ, एक स्कूल में छोटे से मैदान में बहुत सारे नवयुवक और नवयुवतियाँ इकट्ठा थे। माइक वगैरह लगा कर बिहू उत्सव के आयोजन की तैयारियाँ चल रही थीं। मनोज के घर में उनके माता-पिता और भाई भाभी के आतिथ्य का पूरा आनन्द उठाते हुए मैंने बिहू के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि गाँव की संस्था ने कुछ बिहू पार्टियों को बुलाया है और उन पार्टियों के पहुँचने का इंतजार किया जा रहा है। कार्यक्रम में विलम्ब हो गया है।



 ‘‘बिहू पार्टियों को बुलाया है?’’ मेरे ख्वाबों पर जैसे वज्रपात हो गया।


‘‘लेकिन गाँव में तो एक दूसरे के घर टोलियों में बिहू गाते हुए जाने की परम्परा है। मैंने स्वयं उत्तरी लखीमपुर में देखा है।’’


 ‘‘जी, आप सही कह रहे हैं। यह सब ऊपरी असम में ज्यादा होता है। हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता। हम लोग एक मैदान में इकट्ठे हो कर बिहू मना लेते हैं। हमारे यहाँ ‘रोंगाली बिहू’ के मुकाबले ‘भोगाली बिहू’ ज्यादा मनाने की परम्परा है’’। मनोज के पिता जी ने उत्तर दिया।



 ‘‘ओह! तो मैं असम के बारे में कितना कम जानता था।’’ मुझे उस वक्त यह अहसास हुआ। असम संस्कृति और भूगोल के हिसाब से कई भागों में विभक्त किया गया है। ऊपरी असम में तिनसुकिया, डिब्रूगढ़, गोलाघाट, उत्तरी लखीमपुर, शिवसागर, जोरहाट का इलाका है। यह क्षेत्र तेल के कुँओं से ले कर चाय के बागान तक के लिए मशहूर है। लोअर असम में नलबाड़ी, बरपेटा, ग्वालपाड़ा, कोकराझार, गुवाहाटी, बोगाईगाँव आदि नगर आते हैं। मध्य असम में कार्बी आंग्लोंग, दिमा हासाऊ जैसे जिले हैं जो जनजाति बहुल हैं। इसी तरह असम का दक्षिणी हिस्सा जो बड़ी तादाद में बांग्लादेश के साथ सीमाबद्ध है। ‘‘बराक घाटी’’ के रूप में जाना जाता है। सिलचर हैलाकांडी, करीमगंज इस क्षेत्र के प्रमुख कस्बे हैं। बांग्लादेश से सीमाबद्ध होने के चलते ‘‘बराक घाटी’’ में असमिया संस्कृति के मुकाबले बांग्ला संस्कृति का प्रभाव ज्यादा है। असम के अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग किस्म की संस्कृति के दर्शन होते हैं।




प्रसारण की आवश्यकता को देखते हुए मैंने गाँव के कुछ नौजवानों एवं वरिष्ठ व्यक्तियों से उनके गाँवों में बिहू मनाने की परम्परा के बारे में बातचीत रिकार्ड की। लेकिन बिहू के जिस रूप की कल्पना के साथ मैं नलबाड़ी पहुँचा था, उस रूप के दर्शन न हो पाने का मुझे अफसोस हो रहा था। अलबत्ता मनोज के घर में बेहतरीन दही, चूड़ा और पीठा खा कर हमने रास्ते की थकान मिटायी थी।




अप्रैल 2015 में असम के गाँवों में बिहू के असली रूप को न देख पाने की पीड़ा मुझे वर्ष भर परेशान करती रही। दरअसल मैं बिहू में उस कुमाऊॅंनी संस्कृति को ढूँढ रहा था जिसका वर्णन मुझे अपने बचपन में यदा कदा अपने पिताजी से सुनने को मिलता था। कुमाऊॅं में गाँवों में होली के अवसर पर समूह में होली गाते हुए एक घर से दूसरे घर जाने की परम्परा का वर्णन मैंने पिता जी से सुना था। असम के बिहू में भी उसी का अक्स देख रहा था। आधुनिकता और ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में सामूहिक होली गायन की वह परम्परा कुमाऊॅं के गाँवों में किस रूप में है, यह तो मुझे नहीं पता लेकिन इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में भी बिहू गायन की परम्परा असम के गाँवों में बड़े पैमाने पर विद्यमान है, यह मेरे लिये उत्सुकता और अन्वेषण दोनों का सबब था।




अप्रैल 2016 के आगमन तक मैं ऊपरी असम में बिहू देखने की अपनी व्यवस्था पूरी कर चुका था। एक बार पुनः आकाशवाणी की राष्ट्रीय पत्रिका ‘‘संस्कृति भारती’’ में उत्तर पूर्व भारत की संस्कृति की झलक शामिल करवाने के लिए मुझे दिल्ली से सहमति प्राप्त हो गयी थी। इस बार मैंने केवल ‘‘रोंगाली बिहू’’ को ही अपना विषय बनाया था और यह तय किया कि ऊपरी असम के जिले शिवसागर और उसके आस-पास के गाँवों में जाकर बिहू की परम्परा पर रिपोर्ट बनाई जाए। लेकिन एक समस्या मेरे सामने मुँह बाए खड़ी थी। समस्या थी कि शिवसागर में मैं किसी को जानता नहीं था तो बिहू के बारे में पता कैसे चलेगा?




आकाशवाणी डिब्रूगढ़  के अपने साथियों को फोन कर मैं शिवसागर के कुछ बिहू कलाकारों/वार्ताकारों का फोन नंबर लेता हूँ। यह वह लोग हैं जो समय-समय पर आकाशवाणी डिब्रूगढ़ में अपनी रिकार्डिंग करवाने के लिए आते रहते हैं। आकाशवाणी डिब्रूगढ़ के हमारे मित्र एवं सहकर्मी लोहित डेका कुछ व्यक्तियों के नाम एवं फोन नंबर देते हैं। गुवाहाटी के ‘‘दैनिक पूर्वादय’’ के संपादक रवि शंकर ‘रवि’ से मैं शिवसागर स्थित उनके संवाददाता का फोन नंबर मांगता हूँ। वह अपने छायाकार का नंबर दे देते हैं।



मैं एक रोमांचक यात्रा के प्रस्थान बिन्दु पर अपने को पाता हूँ। मुझे बिहू के बारे में बिहू की जन्मस्थली में जा कर ढेर सारी जानकारियाँ हासिल करनी थीं लेकिन मैं उस जनस्थली में किसी को नहीं जानता। मेरे पास होते हैं केवल कुछ टेलीफोन नंबर्स। अप्रैल 2016 के दूसरे हफ्ते की एक सुहानी सुबह शिवसागर शहर से थोड़ी दूर स्थित मुख्य मार्ग के रेलवे स्टेशन सिमालगुड़ी रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर उतर मुझे एक नये कस्बे, एक नयी संस्कृति के दर्शन होते हैं। शिवसागर पहुँच ने के लिए सिमालगुड़ी मुख्य रूट पर स्टेशन है। यद्यपि शिवसागर शहर के भीतर भी एक रेलवे स्टेशन है लेकिन मेन रूट की ट्रेनों से गुवाहाटी से शिवसागर पहुँचने के लिए सिमालगुड़ी ही उतरना पड़ता है। सिमालगुड़ी से 15-16 किमी. दूर है स्थित है शिवसागर।



शिवसागर के करीब नाजिरा में तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ONGC) की असम इकाई का मुख्यालय भी है। यह क्षेत्र तेल और प्राकृतिक गैस की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। इस क्षेत्र में जगह जगह जमीन के भीतर तेल एवं गैस के अनुसंधान के लिए ओ. एन. जी. सी. द्वारा स्थापित प्लेटफार्म देखने को मिल जायेंगे।





होटल में ‘‘दैनिक पूर्वादय’’ के शिवसागर स्थित छायाकार महोदय आ जाते हैं। उनको भी पता नहीं है कि शिवसागर में ऐसा कौन है जो बिहू के बारे में पुख़्ता जानकारी दे सके। वह बताते हैं कि होटल से कुछ दूरी पर एक कलाकार रहते हैं जो बांसुरी, पेपा आदि वाद्य यन्त्रों का निर्माण करते हैं। मैं दूसरे फोन नंबर्स पर डायल करता हॅू तो ज्ञात होता है कि फोन वाले सज्जन या तो शिवसागर से बहुत दूर रहते हैं या अगले दो तीन दिन अनुपलब्ध हैं। छायाकार महोदय की मोटर साइकिल पर पक्की कच्ची सड़कों, पानी से भरे गड्ढों को पार कर मैं शिवसागर के द्वारिकापार इलाके के बरपात्रो नगर मुहल्ले में एक बंगलेनुमा घर में दाखिल होता हूँ। लेकिन यहाँ तो एक अलग नज़ारा है। उस घर में रहने वाले द्विजेन गोगोई एक अद्भुत प्रतिभा के स्वामी हैं। औसत कद के कंधे तक झूलते लम्बे बालों वाले गोगोई जी बताते हैं कि वह 65 किस्म के वाद्ययन्त्र बना भी लेते हैं और बजा भी लेते हैं। मैं तो शिलौंग से चला था बिहू के अद्भुत संसार को खोजने लेकिन यहाँ तो एक दूसरा संसार सामने उपस्थित था। गोगोई साहब के घर के पीछे वाले हिस्से में जाता हूँ। वहाँ एक स्थान पर टीन शेड के नीचे मिट्टी के चूल्हे में हल्की आंच में बांसुरियाँ पकाई जा रही हैं। मुझे लगता है मेरे भीतर से कोई कविता फूट सकती है।



‘‘हाँ, मैंने आग पर
बांसुरियों को पकते देखा है
जैसे पकती हैं
आग पर रोटियाँ’’



लेकिन वह समय कविता लिखने का नहीं था। गोगोई साहब का घर एक छोटा मोटा संग्रहालय जैसा दिख रहा था। घर के हर कमरे में विभिन्न किस्म के वाद्ययन्त्र करीने से सजे थे। ऊपर हॉल तो पूरी तरह से असम के वाद्य यन्त्रों का संग्रहालय था। गोगोई साहब के घर में उनके शिष्यों का जमावड़ा भी दिख रहा था। वह अपने शिष्यों को बांसुरी पकाना भी सिखाते हैं और बांसुरी बजाना भी। गोगोई साहब एक शिष्य को निर्देश देते हैं कि वह बांसुरी पर कुछ सुनाये। शिष्य दीपंकर बांसुरी पर एक सुरीली तान छेड़ देता है। मैं अनुरोध करता हूँ कि वह बिहू की लोक-धुन बजाए। दीपांकर बिहू की एक धुन बांसुरी के छिद्रों से प्रस्तुत कर देता है। कुछ क्षणों के लिए मैं अपने को बिहू डांस की टोली में पाता हूँ। दीपांकर की बांसुरी रूकते ही मेरी चेतना वापस लौट आती है। मैं दीपांकर को अपने छोटे से नागरा रिकार्डर पर रिकार्ड करने लगता हूँ। वह शिवसागर के समीपवर्ती नाजिरा के संगीत स्कूल से प्रशिक्षित हैं और उस समय द्विजेन गोगोई के साथ बांसुरी बनाने के पेशे से जुड़े हुए थे। मैंने प्रश्न किया कि आखिर उन्होंने बांसुरी बनाने का पेशा ही क्यूँ चुना? दीपांकर का उत्तर मुझे आश्चर्यचकित करने वाला था। उस रिकार्डिंग को मैं हूबहू यहाँ रख रहा हूँ –



प्रश्न :  आप ने बांसुरी बनाने का यह पेशा क्यूं चुना। इसके पीछे क्या कारण था?


उत्तर : हर नौजवान तो Western Music  में चला जाता है। लेकिन असम का जो लोक-संगीत है, जो कल्चर बिगड़ रहा है उसको तो फिर भी हमको इन्टरनेशनल लेवल में उत्सर्ग करना है, इसलिए हमने संस्कृति के इस फील्ड को चुन लिया।


नौजवान दीपांकर की बातों से मैं प्रभावित था कि कोई बहुत प्रशिक्षित संगीतज्ञ इतनी कम उम्र में अपने समाज और अपनी संस्कृति के उत्थान को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने का सपना देखता है। बजाए इसके कि वह अपने को राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर एक महान बांसुरी वादक के रूप में पेश करने की जुगत लगाए। बातचीत के क्रम में दीपांकर ने बताया कि वह पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में अपने ग्रुप के साथ बांसुरी वादन कर चुके थे। दीपांकर के बाद मैं अपने रिकार्डर के साथ द्विजेन गोगोई से मुखातिब था। मैं द्विजेन जी की प्रतिभा के आगे नतमस्तक था। एक व्यक्ति जिसने पूरी तरह से अपने को लोक कला के लिए समर्पित कर दिया था और इस बात को ले कर कहीं से भी किसी तरह का अभिमान उनके व्यक्तित्व पर दूर-दूर तक नजर नहीं आता। न ही गोगोई साहब के घर में विभिन्न संस्थाओं से सम्मानित होते हुए चित्रों से ड्राइंग रूम की दीवारें पटी थीं और न उनकी बोल-चाल में कहीं आत्मप्रशंसा और आत्ममुग्धता का भाव था। वह एक सहज, निर्मल व्यक्तित्व के रूप में उपस्थित थे। ऐसा लग रहा था कि वाद्यों और लोकसंगीत के बाहर के विश्व में उनकी कोई रूचि नहीं थी। जब उन्होंने बताया कि वह 65 किस्म के वाद्ययन्त्र बजा भी सकते हैं और बना भी सकते हैं तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। गोगोई जी का कहना था कि वह ढोल, पेपा, गोगना, बांसुरी, हुतुली, तोका, खाम, एकतारा, आनन्द लहरी, बीन, करताल, रामताल, खुटीताल, जयधुन, नेगेरा आदि आदि वाद्ययन्त्र बना एवं बजा लेते हैं। यह सभी वाद्य यन्त्र असम की लोक संस्कृति से जुड़े हैं। मुझे द्विजेन गोगोई जी ने एक बारह मीटर लम्बी बांसुरी भी दिखाई जिसे एक साथ सात लोग बजा सकते हैं। मैंने जब उस बांसुरी के बारे में जानकारी चाही तो उन्होंने कहा कि इस बांसुरी को बनाने के पीछे उद्देश्य था कि इसके माध्यम से वह उत्तर पूर्व भारत के सात राज्यों की संस्कृति को दर्शा सकें। मेरी उत्सुकता थी कि क्या कभी इस बांसुरी का सार्वजनिक प्रदर्शन भी हुआ है तो उन्होने बताया कि हाँ, कई बार गुवाहाटी और अन्य स्थानों पर मंच पर सात वादकों ने मिल कर यह बांसुरी बजायी है।




गोगोई जी के घर के अहाते में वाद्ययन्त्रों की एक दुकान भी है। गोगोई जी के वाद्ययन्त्रों के खरीददार न सिर्फ शिवसागर और आस-पास के क्षेत्रों के रहने वाले हैं बल्कि रूस, जर्मनी, जापान, थाईलैंड, ब्रिटेन, अमेरिका के नागरिक भी खरीदते हैं। गोगोई जी के घर की यात्रा की स्मृतियों के रूप में मैं भी कुछ वाद्य यन्त्र उनके यहाँ से खरीदता हूँ।




मुझे गोगोई जी में उस व्यक्तित्व के दर्शन हो रहे थे जो बिहू में प्रयुक्त होने वाले वाद्ययन्त्रों के बारे में अच्छी जानकारी दे सकता था। इसलिए मैंने अपनी बातचीत की दिशा उस ओर मोड़ दी थी। अब मैं उन वाद्ययन्त्रों के बारे में जानना चाहता था जिसे मैंने कई बार बिहू के मंच पर मुखरित होते देखा था। सबसे पहले मैंने ‘पेपा’ के बारे में जानकारी चाही। ‘पेपा’ वह वाद्य यन्त्र है जो हमेशा बिहू के विज्ञापनों में पुरूष नर्तक के हाथ में दिखता है। ‘रोंगाली बिहू’ के मौसम में असम के तमाम शहरों एवं कस्बों में विभिन्न उत्पादों के होर्डिंग्स बाजारों में शोभायमान होते हैं जिसमें बिहू नृत्य करती एक बाला के साथ पेपा बजाते एक पुरूष का चित्र होता है। कंपनियाँ अपने उत्पादों की मार्केटिंग के लिए बिहू उत्सव का पूरा इस्तेमाल करती हैं तो “पेपा माने बिहू” (प्रसून जोशी के “ठंडा माने कोका कोला” की तर्ज पर)।





मैं पेपा के बारे में कुल मिला कर यह जानता था कि यह भैंस के सींग से बना एक वाद्य यन्त्र है। लेकिन गोगोई जी ने मुझे उसकी कुछ और विशेषताओं के बारे में बताया। ‘पेपा’ जो कि भैंस का सींग होता है उसके पतले वाले हिस्से में छोटी बांसुरी जैसी बांस की एक छोटी सी डंडी लगी रहती है जिसमें चार पांच छिद्र होते हैं। बांस की इस डंडी को असमिया भाषा में ‘‘नल’’ कहा जाता है, इस नल के पीछे एक गोल लकड़ी जिसे ‘‘मुई’’ कहते हैं को लगाया जाता है। इस तरह तीन अलग-अलग वस्तुओं से मिल कर बनता है पेपा। वादक पेपा बजाते समय ‘‘मुई’’ पर फूंक मार कर ‘‘नल’’ में लगे छिद्रों पर अपनी अंगुलियाँ नचाता है और इसके साथ ही पेपा से बड़ी मधुर ध्वनि निकलती हैं नाम के अनुरूप ही ‘‘पे........पे..........पे।’’




पेपा के बाद में ‘‘गोगोना’’ के बारे में जानकारी प्राप्त करता हूँ। ‘गोगोना’, बांस की एक पतली पत्ती से बना वाद्य यन्त्र है जिसमें एक तरफ बांस की पत्ती बिल्कुल प्लेन रहती है। पत्ती के शेष आधे हिस्से को तीन भागों में विभक्त कर दिया जाता है। महिलाएं बिहू नृत्य के दौरान ‘गोगोना’ को अपने बालों में खोंसे रहती हैं। नृत्य के बीच में बालों से निकाल कर ठोस हिस्से को दांतों से दबा और दूसरे हिस्से पर अंगुलियाँ चला एक अलग किस्म की ध्वनि निकालती हैं। ‘गोगोना’ कुछ-कुछ ‘मोरचंग’ वा़द्य जैसा होता है जिसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर राजस्थानी संगीत में दक्षिण भारत के कर्नाटक संगीत में या फिर पाकिस्तान के सिंध प्रांत में होता है। ‘मोरचंग’ और ‘गोगोना’ में अन्तर यह है कि ‘मोरचंग’ जहाँ धातु का होता हैं वहीं ‘गोगोना’ बांस की एक पत्ती होती है। बिहू नृत्य के दौरान कई बार मैंने महिलाओं को नृत्य के दौरान अपने बालों से ‘गोगोना’ को निकालते हुए देखा है। कई बार ऐसा लगता था जैसे वह बालों में से कोई कंघी निकाल रही हैं।



पेपा

‘हुतुली’ : अब जिस वाद्य से मेरा परिचय होने जा रहा था उसे मैं पहली बार देख रहा था। यह था ‘हुतुली’। अभी तक बांस या भैंस के सींग से बने वाद्य यन्त्रों से मेरा परिचय हुआ था। लेकिन अब मिट्टी का एक छोटा सा वाद्य यन्त्र मेरे सामने था। इसकी आकृति सीप जैसी थी। 'हुतुली' के ऊपरी भाग में एक बड़ा सा छेद और किनारे दो छोटे-छोटे छेद होते हैं। 'हुतुली' को बजाने से कोयल की आवाज की ध्वनि निकल रही थी।

हुतुली

द्विजेन गोगोई जी ने इसके अलावा एक और वाद्ययन्त्र से मेरा परिचय करवाया। वह था 'तोका'। यह एक छोटे से बांस को दो हिस्सों में चीर कर बनाया गया था। तोका की ध्वनि अन्य वाद्य यन्त्रों के मुकाबले कम प्रभावशाली थी। यह सारे वाद्य यन्त्र बिहू नृत्य और गायन में इस्तेमाल होते हैं। इतने सारे वाद्य यन्त्रों से परिचय पा कर मैं अभिभूत था। लेकिन द्विजेन गोगोई से बातचीत के बावजूद मेरी वह जिज्ञासा अभी तक बरकरार थी कि आखिर बिहू का गाँवों में क्या रूप है और इसकी सही जानकारी मुझे कौन दे सकता है? द्विजेन गोगोई ने एक नाम सुझाया और उनसे बात भी करायी। मुझे कदापि यह अहसास नहीं था कि मैं जिस व्यक्ति से मिलने वाला हूँ उनसे मिल कर बिहू के बारे में मुझे इतनी ढेर सारी जानकारियाँ हासिल होने जा रही हैं कि दस मिनट की रेडियो रिपोर्ट क्या मैं बिहू पर एक किताब लिख सकूँगा। वह सज्जन थे डॉ. अनिल सैकिया। डॉ. अनिल सैकिया शिवसागर और डिब्रूगढ़  के मध्य में पड़ने वाले एक छोटे से कस्बे मोरान में डिग्री कालेज के प्रिंसिपल के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। मुझे बताया गया कि मोरान कस्बा शिवसागर से लगभग 80 किमी दूर है। यह भी बताया गया कि मोरान के लिए शिवसागर से बसें नियमित रूप से मिलती रहती हैं। मैं यह आयोजना कर रहा था कि अगली सुबह डॉ. सैकिया से मिलने उनके घर जाऊंगा कि तभी डॉ. सैकिया का फोन मेरे मोबाइल पर बज उठा। उन्होंने सूचित किया कि वह शिवसागर के करीब ही हैं और अगले एक घंटे में मेरे होटल पहुँच जायेंगे। मुझे ऐसा लग रहा था कि प्यासा कुएं के पास न जा कर बल्कि कुंआ ही प्यासे के पास चला आ रहा है।

डॉ. अनिल सैकिया के साथ लेखक प्रतुल जोशी

2016 में डॉ. सैकिया मोरान डिग्री कालेज के प्रिसिंपल पद से कुछ समय पूर्व ही सेवानिवृत्त हुए थे। वह अध्यापक तो अर्थशास्त्र के थे लेकिन असमिया लोक संस्कृति के बारे में उनकी जानकारी अद्भुत है। बिहू के विभिन्न रूपों को गा कर सुनाने की उनकी प्रतिभा उनके व्यक्तित्व में बहुत कुछ जोड़ देती है। संगीत उनके रोम-रोम में रचा बसा है। उनका एकमात्र पुत्र वर्तमान में मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री में म्यूजिक कम्पोजर के रूप में काम कर रहा है। ‘दंगल’ जैसी फिल्म में उसने बैकग्राउण्ड स्कोर म्यूजिक दिया हैं औसत कद के गौरवर्ण डॉ. अनिल सैकिया, असमिया लोक संस्कृति के चलते फिरते विश्वकोष हैं। होटल के कमरे में हमारी बातचीत का क्रम शुरू होता है। सैकिया जी सिलसिलेवार तरीके से बिहू के बारे में ढेर सारी जानकारियाँ दे कर मुझे समृद्ध करते हैं। वह अंग्रेजी में बोलना चाहते थे लेकिन मैं प्रसारण के मद्देनजर उनसे बातचीत हिन्दी में करने का आग्रह करता हूँ। उनकी टूटी फूटी असमिया एवं अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी से एक अलग किस्म का संगीत निःसृत हो रहा था।

    
डॉ. सैकिया मुझे इतिहास के उन पृष्ठों में ले जाते हैं जब असम में बिहू की परम्परा की शुरूआत हुई होगी। डॉ. सैकिया बताते हैं कि कैसे सभ्यता के प्रारम्भ में मनुष्य ने अपने खाली समय में अपने प्रेमपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति जंगल और नदी के पास जा कर की होगी। वह बताते हैं कि प्रारंभिक बिहू रचनाएं दो लाइना हुआ करती थीं। पहली लाइन में प्रकृति को प्रतीक के रूप में निरूपित किया जाता था और दूसरी पंक्ति लड़की और लड़के के रिश्तों पर हुआ करती थीं। वह दो पंक्तियाँ सुनाते हैं –



बोकारे गोरोई मास लुकाले लुकाले
(The fish there in the mud)
आका खत उड़िले बग
(Bird is flying in the sky)
मनर कथा कात,
मनरे थाके
(I could not meet you to express my desire to you)



डॉ. सैकिया कहते हैं कि ‘‘This is the very meaning of Bihu song i.e. love frustration and merriment’’

डॉ अनिल सैकिया

डॉ. सैकिया बिहू के इतिहास में क्रमिक बदलावों पर रोशनी डालते हुए कहते हैं कि जहाँ बिहू के प्रारंभिक काल में, नदी किनारे या जंगल में जाकर गाने की परम्परा रही होगी, वहीं दूसरे चरण में बिहू जंगलों और नदियों से निकल कर समृद्ध व्यक्तियों के घरों के आंगन में पहुँच  जाता है। अब बिहू में बहुत सारे कर्मकाण्ड जुड़ने लगते हैं। वह बताते हैं कि असम के Ballad Songs भी अब बिहू में जुड़ जाते हैं जैसे मनिकुअर का गीत, फूलकुंअर का गीत, जैसे जयमति का गीत।



डॉ. सैकिया बिहू के तीसरे चरण के रूप में इसमें श्रीमंत शंकर देव का प्रवेश मानते हैं। उनका कहना था कि शंकर देव ने बिहू में धार्मिक भावों को प्रविष्ट करा दिया। सिर्फ गाने में ही नहीं बल्कि वाद्ययन्त्र जैसे ढोल की धुनों में भी बिहू के नैसर्गिक लोक रंग की जगह उसमें भक्ति भाव वाले रंग का प्रवेश, श्रीमंत शंकर देव के समय से हो जाता है। सैकिया जी अपने मुँह से ही विभिन्न ध्वनियाँ निकाल कर यह अन्तर मुझे समझाते हैं। संगीत में मेरी कोई विशेषज्ञता न होने के चलते, मैं उनके वर्णन को पूरी तरह तो नहीं समझ पाता लेकिन थोड़ा बहुत समझता हूँ। सैकिया जी दो लाइन गा कर यह भी बताते हैं कि किस तरह श्रीमंत शंकर देव ने हरि और राम इन दो शब्दों का प्रवेश बिहू में करा दिया था।



डॉ. अनिल सैकिया से मेरी मुलाकात के दो घंटे भी नहीं हुए थे, इस बीच उन्होंने बिहू की इतनी ढेर सारी जानकारियाँ मुझे दे दी थीं। डॉ. सैकिया लगातार बोल रहे थे और मैं मंत्रमुग्ध सा उनकी बातों को सुन रहा था। बिहू के विकास को अलग-अलग चरणों में निरूपित करते हुए वह चौथे चरण के रूप में वर्ष 1706 का जिक्र करते हैं जब राजा रूद्र सिंह ने बिहू टीमों को आमंत्रित किया था कि वह शिवसागर के रंग घर में आयें और अपना प्रदर्शन प्रस्तुत करें। डॉ. सैकिया के अनुसार बिहू के इतिहास में यह बिहू का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन था। 1706 में बिहू के रंग घर में प्रदर्शन के साथ ही बिहू की टोन में एक रेखांकित किये जाने योग्य परिवर्तन परिलक्षित होने लगता है। जिस बिहू में जंगलों और नदियों के किनारे मनुष्य की प्रेम और विरह की भावनाएं मुखरित हो रही थीं, उसी में अब राज भक्ति के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं। सैकिया जी ने एक बार फिर इस अन्तर को मुझे गा कर सुनाया। बिहू के दोनों ही बोल को। पहले बोल में जहाँ प्रकृति का निर्द्वंद्वपन अपने पूरे रूखड़पन के साथ झांक रहा था, वहीं दूसरे बोलों में चाटुकारिता और चारण भाव के दर्शन बेहद स्पष्ट थे। उन्होंने इस चारण भाव वाले गीत को अंग्रेजी में कुछ इस तरह बयान किया-



Excuse us, O King
Excuse us. We are very little son, Excuse us.



राजा रूद्रसेन के युग के पश्चात् डॉ. अनिल सैकिया अंग्रेजो के आगमन का बिहू गीतों पर क्या प्रभाव था, उसका वर्णन करते हैं। वह बताते हैं कि अंग्रेजों के आगमन के साथ ही असम की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में बड़े बदलाव दृष्टिगोचर हुए। 1826 में असम में अंग्रेजों के आगमन के साथ ही टी कंपनियाँ, तेल कंपनियाँ और बाद में रेल का आगमन हुआ। अब बिहू गानों में अंग्रेजी शब्दों का इजाफा होने लगा। सैकिया जी एक बिहू गाना सुनाते हैं।


 ‘‘गुमुगुमाया हिलै कंपनी जहाज ओए।’’


‘‘अब इस गाने में कंपनी और जहाज जैसे दो अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल हुआ है’’ सैकिया जी बताते हैं। अंग्रेजों के आने से बिहू में एक और कड़ी जुड़ी और वह था स्टेज। जो बिहू पहले जंगलों, नदी के किनारों, मैदान में हो रहा था, उसे स्टेज भी मिल गया। 1931 में सबसे पहले गोलाघाट बेतियानी में स्टेज पर बिहू का आयोजन हुआ। 1935 में डेरेगाँव में, 1952 में शिवसागर में स्टेज पर बिहू का आयोजन हुआ और जब 1952 में गुवाहाटी के लताशील में स्टेज पर बिहू का आयोजन हुआ तो उसके बाद पूरे असम में बिहू स्टेज पर होने लगा। और वर्तमान में तो बिहू गाने और नृत्य सीडी और कैसेट्स में सर्वत्र. उपलब्ध हैं।



डॉ. सैकिया से बिहू का लम्बा चौड़ा इतिहास सुनने के बाद भी न तो मैं थका था और न ही डॉ. सैकिया ही बताने की इच्छा कम हुई थी। मेरे पास बिहू को ले कर ढेर सारे प्रश्न थे और डॉ. सैकिया के रूप में मैं एक ऐसी शख्सियत के सम्पर्क में आ चुका था जो मेरे हर प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार थी। वर्ष 2015 के अपने छोटे मोटे अनुभव से मुझे यह ज्ञात हो चुका था कि बिहू को सात दिन मनाने की परम्परा है। मैंने अपनी इसी जिज्ञासा को प्रस्तुत किया। डॉ. अनिल सैकिया ने बताया कि बोहाग बिहू का प्रथम दिवस ‘‘गोरू बिहू’’ के रूप में मनाया जाता है। चूंकि कृषि कार्य में गाय की बहुत जरूरत होती है, इसलिए बिहू का पहला दिन गायों की पूजा के साथ शुरू होता है। यह असमिया कैलेण्डर का अन्तिम दिन भी होता है। असमिया नववर्ष की शुरूआत रोंगाली बिहू के दूसरे दिन यानी ‘‘मानू बिहू’’ से होती है। मानू मतलब मनुष्य। यानी मनुष्य के लिए बिहू मनाया जाता है। तीसरा दिन रिश्तेदारों के साथ बिहू मनाने के लिए होता है इसलिए इसको ‘‘कुटुंब बिहू’’ या ‘‘सनेही बिहू’’ कहते हैं। कई जगह तीसरे दिन के बिहू को ‘‘गोखाई बिहू’’ भी कहते हैं। गोखाई माने पुजारी। केवल कुछ जगह, सब जगह नहीं। चौथे दिन के बिहू को ‘‘हाथ बिहू’’ कहते हैं। पांचवे दिन के बिहू को ‘‘तात बिहू’’ के नाम से जाना जाता है। अन्तिम दिन के बिहू को ‘‘शरा बिहू’’ के नाम से जानते हैं।



डॉ. सैकिया का कहना था कि बिहू के बहुत से नाम दिये गये हैं। अलग-अलग गुरूओं ने अलग-अलग नामों से बिहू को संबोधित किया है। सात दिनों के लिए कुल बारह नाम प्रचलन में हैं। हम लोग बिहू से जुड़े और भी बहुत से विषयों पर बातचीत करते हैं और डॉ. सैकिया बड़े उत्साहपूर्वक सभी प्रश्नों का उत्तर देते हैं। डॉ. सैकिया के रूप में मेरा परिचय एक ऐसी शख्सियत से हो चुका था जिनके माध्यम से मैं देश के सबसे बड़े लोक उत्सव की बारीकियों को जान सका था।



शिवसागर आने के बाद मैं शिवसागर कस्बे में ही अटक गया था। मेरा मुख्य उद्देश्य अभी भी पूरा नहीं हुआ था। मुझे असम के गाँव में बिहू देखना था। लोहित डेका (कार्यक्रम अधिशासी, आकाशवाणी डिब्रूगढ़) ने मुझे जिन कलाकार महोदय का फोन नंबर दिया था, उन्होंने बताया कि वह शिवसागर से करीब चालीस किमी. दूर एक गाँव में रहते हैं। मेरे लिए इससे अच्छा कोई अवसर नहीं हो सकता था कि मैं उनके गाँव पहुँचूँ और बिहू से जुड़ी जानकारी हासिल करूँ।



अगली सुबह मैं स्कोर्पियो टाईप एक बड़ी गाड़ी में ड्राइवर के साथ शिवसागर जिले के एक गाँव के लिए निकल पड़ता हूँ। शिवसागर का इलाका तत्कालीन मुख्य मन्त्री तरूण गोगोई के विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के करीब पड़ता था। किन्तु फिर भी वहाँ सड़कें इतनी खराब थीं कि बड़ी गाड़ी में भी हिचकोले खाने पड़ रहे थे। लगभग ढाई घंटे की यात्रा के बाद खरामा-खरामा जब हमारी गाड़ी एक छोटे से कस्बेनुमा क्षेत्र में पहुँची तो मेजबान खियाँता फूकन ने पहले से अच्छी तैयारी कर रखी थी। मैं उनके क्षेत्र में बिहू से करीब तीन चार दिन पूर्व पहुँच गया था। मैं उन्हें बता चुका था कि मैं आकाशवाणी के लिए ‘रोंगाली बिहू’ पर एक रिपोर्ट बना रहा था। वह मुझे गाँव के एक स्कूल में ले आये थे। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न था जब मैंने देखा कि गाँव के एक प्राइमरी स्कूल में छोटे छोटे बच्चों से ले कर नवयुवतियाँ बिहू के पारम्परिक परिधानों में सजे एकत्रित थे। उन सभी को सिर्फ मेरे आने का इंतजार था। मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं एक छोटे से नागरा रिकार्डर पर बिहू गीतों की रिकार्डिंग करने वाला आकाशवाणी का कार्यक्रम अधिशासी न होकर किसी फिल्म का निर्देशक हूँ जिसके साथ उसका पूरा क्रू बिहू गीतों और नृत्य को शूट करने के इरादे से, असम के एक अन्दरूनी इलाके में आया है। लेकिन यह सब खामख्याली थी और मुझे उन ढेर सारे कलाकारों के गायन की रिकार्डिंग अकेले ही करनी थी। थोड़ी ही देर में स्कूल के सामने के खुले मैदान में एक नवजवान ने हुचूरी की तान भरी और उसके बाद बच्चों से ले कर नवयुवक-नवयुवतियों ने बिहू गाने और नृत्य की शुरूआत कर दी। मैं यद्यपि बिहू के बोलों को समझने में असमर्थ था लेकिन गायन और नृत्य की मस्ती से उन भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था। बिहू के त्यौहार का एक आवश्यक अंग होता है कि उस दौरान मेहमान का स्वागत असमिया गामोछा से किया जाता है। उपस्थित ग्रामवासियों के मध्य मुझे भी एक गामोछा भेंट कर मेरा सम्मान किया गया।




बिहू गीतों की रिकार्डिंग के पश्चात् मेरी मुलाकात उस गाँव के मुखिया प्रदीप फूकन जी से हुई। बातों ही बातों में मैंने उनसे पूछा कि आखिर असम के गाँवों में ऐसी क्या विशेषता है जो सब लोग इतना मिल-जुल कर बिहू को बड़े सामुदायिक स्तर पर मना लेते हैं। क्या असम के गाँवों में ग्रामवासियों के मध्य आपसी झगड़े नहीं होते? मुझे उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँव याद आ रहे थे जहाँ जमीन के एक छोटे से टुकड़े को ले कर भाई-भाई आपस में लड़ जाते हैं। फूकन जी का उत्तर मुझे आश्चर्यचकित करने वाला था। उन्हांने बड़ी ही मासूमियत से कहा कि असम में ग्रामवासी बिहू से पहले अपनी सभी झगड़े सुलझा लेते हैं। उनके इस मासूम उत्तर से मुझे आश्चर्य भी हो रहा था और हँसी भी आ रही थी। दरअसल उनका उत्तर आंशिक रूप से शिवसागर जिले के कुछ गाँवों  के लिए तो सही लग रहा था लेकिन पूरे असम के लिए ऐसी स्थिति मुझे कल्पनातीत लगी।



खियाँता फूकन का आग्रह था कि मैं उनके घर चल कर कुछ जलपान ग्रहण करूँ और मैंने उसके लिए सहर्ष स्वीकृति दे दी। दरअसल खियाँता पत्र पत्रिकाओं के लिए भी समय-समय पर लिखते रहते हैं और मैं उनके साथ बैठ कर उस क्षेत्र के सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भों के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता था। खियाँतो एक स्कूल में अध्यापक हैं और उनका घर उस वक्त पूरी तरह से बनने की प्रक्रिया में था। उनके ड्राइंग कम डाइनिंग कम बेड रूम कक्ष में खियाँतो के साथ बातचीत के दौरान मुझको पता लगा कि बिहू के दौरान असम के गाँवों  में पारम्परिक खेल खेलने का रिवाज है।



‘‘किस तरह के खेल?’’ मेरी जिज्ञासा बढ़ गई थी।

गोरु बिहू


’’कौड़ी खेल! यह खेल चैत्र महीने की 15 तारीख से गोरू बिहू के एक दिन पहले तक गाँव में खेला जाता है।’’



खियाँतो बताते हैं कि अन्तिम दिन खेले जाने वाले ‘कौड़ी खेल’ को ‘राजा कौड़ी’ कहते हैं। उस दिन जो इस खेल में हारता है उसके पूरे शरीर में बालों में रंग लगा दिया जाता है और अगले दिन यानी ‘गोरू बिहू’ के दिन उस आदमी को पोखर या नदी के पास ले जाते हैं, जहाँ गाय वगैरह को नहलाया जाता है। वहाँ उसे देख कर सब हँसते हैं। फिर उसे नहलाया जाता है।



इसी तरह गाँवों में माघ महीने में स्त्रियों और पुरूषों के बीच रस्सी खींच प्रतियोगिता का भी आयोजन किया जाता है। कल गाछ प्रतियोगिता एक अन्य प्रतियोगिता है जिसमें गाँवों  में मैदान में एक पेड़ खड़ा कर उसके ऊपर कोई वस्तु रख दी जाती है और समुदाय के मध्य उस वस्तु तक पहुँचने और उसे प्राप्त करने की प्रतियोगिता होती है।



खियाँतो फूकन से बातचीत के दौरान मुझे ऐसा लग रहा था कि उस समय मैं देश के ऐसे हिस्से में रह रहा था जहाँ औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण ने अभी दस्तक नहीं दी थी और कृषि अर्थव्यवस्था अभी भी बिना किसी टूट फूट के अपना अस्तित्व बचाये हुई थी। देश के पूर्वोत्तर में आज भी बहुत से ऐसे इलाके हैं जहाँ जाकर लगता है किम जैसे आप पचास साल पूर्व के भारतवर्ष मे हैं। यह आजादी के सत्तर साल बाद के विकास की ऊबड़ खाबड़ तस्वीर है, जहाँ एक तरफ देश का पश्चिमी और दक्षिणी हिस्सा अंधाधुंध भौतिक विकास की दौड़ मे व्यस्त है तो वहीं दूसरी तरफ देश के पूर्वी और उत्तर पूर्वी हिस्सों में बड़ी आबादी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर ही अपना जीवन यापन कर रही है।



अगले दिन सुबह मैं डिब्रूगढ़ के लिए निकल चुका था क्यूंकि बिहू पर मेरी रिपोर्ट का प्रसारण आकाशवाणी दिल्ली से राष्ट्रीय नेटवर्क पर बिहू के ठीक एक दिन पहले यानी 13 अप्रैल को होना था। डिब्रूगढ़ आकाशवाणी में मुझे वहाँ के स्टूडियो में अपनी रिपोर्ट बनानी थी। रेडियो कार्यक्रम जो अंततः श्रोताओं तक पहुँचते हैं, उसे निर्मित करने में प्रस्तुतकर्ताओं को काफी मेहनत मशक्कत करनी पड़ती है। कम शब्दों में ज्यादा बात कहने की कला प्रोडयूसर को आनी चाहिए। साथ ही Sound Bytes  का संपादन और कार्यक्रम के अनुरूप संगीत का चुनाव एक लम्बे अनुभव के बाद ही हासिल होता है।



डिब्रूगढ़ मैं पहले भी कई दफे जा चुका था। असमिया संस्कृति का गढ़ है डिब्रूगढ़। ब्रहमपुत्र के किनारे बसे डिब्रूगढ़ में व्यापारिक गतिविधियाँ बडे़ पैमाने पर नजर आती हैं। अच्छी तादाद मारवाड़ी लोगों की है जो उन्नीसवी सदी के आखिरी दशकों में वहाँ पहुँच गये थे। साथ ही काफी संख्या में बिहारी जनता भी डिब्रूगढ़ में है। डिब्रूगढ़ में ब्रहमपुत्र को पार कर कोई भी अरूणाचल के पासीघाट कस्बे में पहुँच सकता है। दो दिन डिब्रूगढ़ में बिताने और आकाशवाणी डिब्रूगढ़ के सहकर्मियों के सहयोग से बिहू पर एक रिपोर्ट, आकाशवाणी दिल्ली भेजने के बाद मैं रिलैक्स था। तय हुआ कि 14 अप्रैल को यानी बिहू के दिन मैं डॉ. अनिल सैकिया के मोरान स्थित आवास पर पहुचूंगा और फिर वहाँ से हम लोग बिहू के कार्यक्रमों में जाएंगे। मोरान डिब्रूगढ़ की तहसील मोरान में एक छोटा सा कस्बा हैं यह कस्बा चारों तरफ चाय बागानों से घिरा हुआ है। डिब्रूगढ़ से जो भी गाडियाँ शिवसागर जाती हैं, वह मोरान हो कर ही जाती हैं। मोरान में एक रेलवे स्टेशन भी है। 14 अप्रैल 2016 की सुबह सुनसान सड़क पर डिब्रूगढ़ से शिवसागर जा रही तेज़ रफ्तार की बस में मोरान तक की यात्रा में बाहर असीम विस्तार वाले चाय बागानों के नयनामिराम दृश्यों को देखते हुए मुझे यह अंदाजा नहीं था कि यह तो बस एक खूबसूरत दिन की शुरूआत भर है। मेरी जिन्दगी का एक बेहद खूबसूरत दिन बनने जा रहा था बिहू का वह दिन, जिसकी स्मृतियाँ मेरे साथ जीवन भर रहनी थी।




नौ बजते न बजते मैं डॉ. अनिल सैकिया के दीवानखाने में था। ‘बाइडो’ (असमिया भाष में भाभी के लिए बाइडो शब्द का प्रयोग किया जाता है) ने टेबल पर नाश्ते के लिए ढेर सारे व्यंजन रख दिए थे। उन व्यंजनों के भीतर से भी असमिया संस्कृति की भीनी-भीनी खुशबू आती हुई। दही, चिवड़ा, चावल के पीठे और भी न जाने क्या क्या। डॉ. अनिल सैकिया की तरह बाइडो भी बेहद सुसंस्कृत एवं मधुर भाषी हैं। बड़े प्रेम से एक असमिया गामोछा उन्होंने मुझे ओढ़ाया यह कहते हुए कि आज तो बिहू है और मैं एक बेहद शुभ दिन उनके घर आया हूँ। मैं इस सोच विचार में डूब उतर रहा था कि कहीं हमें बिहू के लिए देर तो नहीं हो रही थी कि डॉ. सैकिया ने मुझे अपना संग्रहालय देखने का न्यौता दे दिया। इस न्यौते के साथ ही डॉ. सैकिया के व्यक्तित्व का एक नया आयाम और सामने खुलने जा रहा था। जिसने मुझे लगभग चमत्कृत कर दिया था। डॉ. सैकिया के घर में ऊपरी मंजिल पर एक बड़ा सा हॉल है और इस हॉल में डॉ. सैकिया का संगीत प्रेम अपने शबाब पर नजर आता हैं। कमरे में डेढ़ हजार से ज्यादा एल.पी. (Long Playing) और ई.पी. (Extended play) रिकार्ड्स एवं दो दर्जन से ज्यादा पुरानी ग्रामोफोन मशीनें जिनमें हैंडिल चलाकर, हवा भरकर ग्रामोफोन रिकार्डस प्ले किये जाते थे। डॉ. सैकिया ने मुझे एक बेहद पतला (प्लास्टिक की पन्नी जैसा) रिकार्ड भी दिखाया जिसे उन्होंने दूसरे रिकार्ड के ऊपर रखकर चलाया। रिकार्ड हिन्दी गाना ‘‘सात समुंदर पार से, गुड़ियों के बाजार से, अच्छी सी गुडिया लाना..... पापा जल्दी आ जाना’’ का असमिया संस्करण था। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस बेहद लोकप्रिय हिन्दी गाने का असमिया संस्करण बिल्कुल वैसी ही अनुभूति दे रहा था जैसे हिन्दी गाने से मिलती है। हिन्दी गाने की तरह ट्यून, वैसा ही गायक का स्वर। डॉ. सैकिया को संग्रह में हिन्दी गानों से लेकर असमिया संगीत और रवीन्द्र संगीत तक के सैकड़ों रिकार्ड मौजूद थे। सुबह के 11 बजते न बजते डॉ. सैकिया की मारूति कार में बैठ हम लोग शिवसागर की तरफ निकल लिये थे। डिब्रूगढ़  शिवसागर हाईवे पर फर्राटा भरती हमारी कार कुछ अंतराल के बाद शिवसागर जिले के भीतरी अंचल में थी। हम लोग पश्चिम कुंअरपुर ग्राम पंचायत क्षेत्र में थे। सड़क के एक तरफ एक छोटे से मैदान में, मैदान के बीचों बीच, बांस के छोटे छोटे डंडे एवं रस्सी लगा कर मैदान में एक चोकौर घेरा बनाया गया था। बाहरी हिस्से में, पंडाल में, स्त्री पुरूषों के बैठने की व्यवस्था थी। चौकोर घेरे में कमेटी के पदाधिकारियों के साथ मैं और डॉ. सैकिया भी उपस्थित थे। स्थानीय कमेटी के झंडे पूरे मैदान में जगह-जगह नजर आ रहे थे। अधिकांश पुरूष सफेद धोती कुर्ता में थे। किसी किसी ने रेशमी कुर्ते भी पहन रखे थे। मैदान में ‘‘प्रदर्शनी मूलक मूकलि बिहू’’ के बैनर नजर आ रहे थे। दरअसल जब बिहू का आयोजन मैदान में किया जाता है तो उसे ‘मूकलि बिहू’ कहते हैं। बिहू की शुरूआत से पहले बिहू झंडे का अनावरण स्थानीय कमेटी के एक पदाधिकारी द्वारा किया गया। फिर कई पदाधिकारियों द्वारा बिहू के बारे में अपने विचार रखने के साथ असम आन्दोलन में उस इलाके के योगदान पर भी चर्चा की गयी। दरअसल अस्सी के दशक में जब आसू (Akhil Assam Student Union) के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर असम में आन्दोलन की शुरूआत हुई थी उस वक्त शिवसागर इलाके से भी बडे़ पैमाने पर नवजवान इस आन्दोलन में कूद पड़े थे। यद्यपि असम आन्दोलन को समाप्त हुए लगभग तीन दशक का समय बीत चुका है, लेकिन शिवसागर के लोगों में उसकी स्मृतियाँ अभी तक मौजूद हैं। विभिन्न वक्ताओं के उद्गार से मुझे यही समझ आ रहा था। खैर! बिहू उत्सव थोड़ी देर में शुरू होना था। डॉ. सैकिया ने सबसे मेरा परिचय करवाया और बिहू सम्मिलनी के पदाधिकारियों को बताया कि मैं आकाशवाणी की तरफ से बिहू पर कार्यक्रम बनाने के लिए आया हूँ एवं मेरी एक रिपोर्ट का प्रसारण विगत रात्रि राष्ट्रीय स्तर पर हो चुका है। उपस्थित पदाधिकारियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सूचना थी कि उनके त्यौहार को कोई व्यक्ति राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित करने के लिए इतनी भागदौड़ कर रहा है। सभी ने बड़े ही सम्मानपूर्वक मेरा और डॉ. सैकिया का सम्मान परम्परागत तरीके से गामोछा पहना कर किया।



कुंअरपुर में बिहू के उदघाटन के तुरंत बाद डॉ. सैकिया और मैं वहाँ से चल दिये क्यूंकि डॉ. सैकिया को शिवसागर कस्बे में एक और बिहू उत्सव में शामिल होना था। हम लोगों की गाड़ी शिवसागर कस्बे में करेंग घर के सामने आकर ही रूकी। करेंगघर में बड़े पैमाने पर बिहू का आयोजन होता है। यहाँ भी डॉ. सैकिया का सबने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया। एक बार फिर डॉ. सैकिया ने सभी से मेरा परिचय करवाया। करेंगघर वाले मैदान में दर्जनों नर्तक दल बारी-बारी से बड़े ही कलात्मक ढंग से विभिन्न बिहू नृत्यों को अंजाम देने में जुटे थे। युवक युवतियों के इस नृत्य समूहों के प्रदर्शन को देख कर लग रहा था कि इन्होंने अपनी प्रस्तुति के लिए कितनी तैयारी की होगी। छोटे से लेकर बड़े तक सभी बिहू के रंग में डूबे थे। कोई समूह पारम्परिक नृत्य प्रदर्शन करता तो कुछ ने अद्भुत प्रयोग भी बिहू में कर रखे थे। एक नृत्य दल ने बिहू नृत्य के साथ मणिपुरी नृत्य को इतने सधे तरीके से पिरोया था कि देखने वाले सिर्फ ‘‘वाह’’ ही कर पा रहे थे। पारम्परिक बिहू नर्तकों के समूह में मणिपुरी परिधानों के साथ शास्त्रीय भाव भंगिमाओं से नर्तकी का प्रवेश और धीरे धीरे पुनः वापस लौटना, सब कुछ अद्भुत था। शिवसागर से मोरान लौटते हुए रास्ते में मुझे जगह-जगह पर बिहू के आयोजनों की झलक दिख रही थी। शिवसागर के भीतरी अंचलों में तीन चार साल के छोटे-छोटे बच्चे भी बिहू के परिधानों में ब़डे़ आकर्षक दिख रहे थे। वाकई असम में अगर कहीं ‘रोंगाली बिहू’ का उत्सव अपने शबाब पर होता है तो वह शिवसागर और आस-पास का क्षेत्र ही हैं। अपनी संस्कृति अपनी कला के लिये जैसा समर्पण शिवसागर और आस पास के निवासियों में है वैसा मुझे और कहीं नहीं दिखा। लोक कला और लोक उत्सव का प्रभाव किस तरह से आम जनजीवन के भीतर पैठा हुआ है, इसकी बानगी देखनी हो तो ‘रोंगाली बिहू’ के दिनों में उत्तरी असम में रहना चाहिये। वर्ष 2016 में बिहू के अगले दिन असम में तेज बारिश का दौर शुरू हो गया था। मैंने सीधे शिलौंग की राह पकड़ी यह सोचते हुए कि शायद भविष्य में मुश्किल से ही मुझको एक बार फिर शिवसागर जाने और बिहू के रस में सराबोर होने का मौका मिलेगा। लेकिन मैं पूरी तरह गलत था। नियति ने मेरे लिए एक बार और जाने की व्यवस्था सुनिश्चित कर रखी थी। एक बार और बिहू के रस में डूबना था मुझे। लेकिन इसकी आहट वर्ष 2016 के अप्रैल में मुझको कदापि नहीं थी।



जैसा मैंने इस लेख के बिल्कुल प्रारम्भ में बयान किया था कि वर्ष 2017 के अप्रैल में मुझे एक बार फिर बिहू की जन्मभूमि शिवसागर जाने का अवसर मिला था। एक बार फिर आकाशवाणी महानिदेशालय के साथियों ने इस कार्य में मेरी मदद की थी। दरअसल दिसम्बर 2016 में शिलौंग से लखनऊ स्थानांतरित हो जाने के बावजूद बिहू का आकर्षण मेरे भीतर कहीं से कम नहीं हुआ था।



पिछले उपक्रमों में रोंगाली बिहू पर मेरी रिपोर्ट अधिकतम बारह मिनट की राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित हुई थी। उन रिपोर्टों ने आकाशवाणी के सहकर्मियों (विशेषकर महानिदेशालय के सहकर्मियों को) खासा प्रभावित किया था।



मेरा मानना था कि बिहू जैसे इतने बड़े लोक उत्सव पर आकाशवाणी को आधे घंटे का एक वृत्त रूपक राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित करना चाहिए। मैंने यह प्रस्ताव महानिदेशालय के अपने वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किया तो उसे सहर्ष स्वीकृति मिल गयी। महानिदेशालय के केन्द्रीय रूपक एकांश से एक आदेश आकाशवाणी लखनऊ पहुँच गया कि मैं आकाशवाणी के केन्द्रीय रूपक एकांश के लिए आधे घण्टे का एक वृत्त रूपक ‘‘रोंगाली बिहू’’ पर प्रस्तुत करूँगा।



तो मैं एक बार फिर अप्रैल के महीने में शिवसागर में था। यद्यपि अप्रैल 2016 में, मैं बिहू के बारे में काफी कुछ जानकारियाँ हासिल कर चुका था किन्तु फिर भी अभी बहुत कुछ ऐसा था जिसे हासिल करना शेष था और इसी उद्देश्य से मुझे यह यात्रा करनी पड़ रही थी।



लखनऊ से शिवसागर के पूरे रास्ते मेरे दिमाग में एक ही प्रश्न कौंध रहा था। आखिर मैं बार-बार बिहू के लिए असम क्यूं आता हूँ? इसका कहीं एक अस्पष्ट सा उत्तर भी मेरे भीतर ही मौजूद था। शायद सुदूर अंचलों में बची हुई लोक-संस्कृति की एक झलक पाने। या फिर एक ऐसे उत्सव में शिरकत करने जहाँ बड़े पैमाने पर लोक की भागीदारी थी। या नृत्य और संगीत के प्रति अपनी रूचि के चलते, बिहू नृत्यों और संगीत का आनन्द उठाने। कहीं न कहीं बिहू संगीत की मधुर तानें मुझे आल्हादित करती रही हैं।



इस संगीत में इतनी मादकता है कि कई बार अपने भीतर नवीन ऊर्जा के संचार के लिए मैं अपने लैपटॉप या मोबाइल पर बिहू के वीडियो लगा देता था। गुवाहाटी से किसी दूसरे उत्तर पूर्वी राज्य की यात्रा बस से करने के दौरान रास्ते में पड़ने वाले बस अड्डों पर रात रात भर बिहू के गीत बजते रहते हैं। यह गीत वातावरण में जोश और उत्साह का संचार करते रहते हैं। बिहू अब सिर्फ अप्रैल के महीने में मनाया जाने वाला त्यौहार नहीं रह गया है बल्कि वर्ष भर असम समेत देश विदेश में इसकी धमक सुनाई पड़ती है। तो वर्ष 2017 के मध्य अप्रैल में उसी बिहू को एक बार फिर से जानने के लिए मैं शिवसागर पहुँच चुका था। बिहू की इस यात्रा में इस बार मेरे साथ लखनऊ में पड़ोस में रहने वाले अग्रज तुल्य और हिन्दुस्तान अखबार से कुछ वर्ष पूर्व समाचार संपादक से सेवानिवृत्त हुए महेश पांडेय जी भी थे। एक से दो भले।



शिवसागर में बिहू के आगमन की धमक शहर में लगी होर्डिंग्स से दिख रही थी। कई होर्डिंग्स में बिहू नृत्य के प्रशिक्षण की सूचना थी। पिछले वर्षों में असम में बिहू से बहुत पहले विभिन्न शहरों में बिहू नृत्य और संगीत को ले कर प्रशिक्षित कलाकारों द्वारा प्रशिक्षण शिविर का रिवाज आम हैं इनमें छोटे बच्चों से ले कर अधेड़ उम्र की महिलाएं भी बिहू नृत्य और संगीत के विभिन्न पक्षों को सीखते हैं। देश के एक अंचल में लोक संस्कृति को इस तरह पल्लवित पुष्पित होते देखना एक सुखद अनुभव था।



मुझे एक बार पुनः पथ प्रदर्शक के रूप में डॉ. अनिल सैकिया के सहयोग की आवश्यकता थी और वह पुनः उसी उत्साह से शिवसागर में उपस्थित हो गये थे। तय हुआ कि अगले दिन यानी गोरू बिहू के दिन सैकिया जी की कार में हम लोग शिवसागर के समीप के किसी गाँव में जा कर ‘गोरू बिहू’ देखेंगे और वृत्त रूपक हेतु मैं उसकी रिकार्डिंग करूँगा।



जैसा मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि ‘गोरू बिहू’ से ‘रोंगाली बिहू’ की शुरूआत होती है। असमिया कैलेण्डर के मुताबिक चैत्र माह के अन्तिम दिन (जो असमिया वर्ष का भी अन्तिम दिन होता है) ‘गोरू बिहू’ का आयोजन होता है। 14 अप्रैल 2017 की सुबह डॉ. अनिल सैकिया की कार में सवार हम लोग शिवसागर जोरहाट राजमार्ग पर थे। डॉ. सैकिया असम साहित्य सभा की शिवसागर इकाई के अध्यक्ष भी थे। वर्ष 2017 की फरवरी में असम साहित्य सभा का शतवार्षिकी आयोजन शिवसागर में ही हुआ था। डॉ. सैकिया हमें उसी मैदान की तरफ ले गये जहाँ यह आयोजन हुआ था। अप्रैल के मध्य में वहाँ सिर्फ लम्बे चौड़े खाली मैदान दिख रहे थे। डॉ. सैकिया ने हमें बताया कि फरवरी में इन्हीं खाली मैदानों को आकर्षक तरीके से सजाया गया था और वहाँ हजारों की तादाद में साहित्य प्रेमी इकट्ठा हुए थे। मैदान के पास राष्ट्रीय राजमार्ग पर अचानक सैकिया जी ने कार रोक दी थी। फिर हम लोगों को ले कर वह एक घर के भीतर चले गये। डॉ. सैकिया की शिवसागर और आस-पास के क्षेत्रों में इतनी स्वीकार्यता है कि वह बेहिचक किसी के भी घर जा सकते हैं। जिन गृहस्थ के घर वह गये वह ‘गोरू बिहू’ की तैयारी कर रहे थे। हम लोगों का परिचय पा कर उनका पूरा परिवार अत्यंत प्रसन्न हो गया। थोड़ी देर पश्चात् हम सब उसी खाली स्थान की तरफ बढ़ रहे थे जहाँ असम साहित्य सभा का शत वार्षिकी आयोजन हुआ था।



डॉ. सैकिया हमें बताते हैं कि हम लोग रूद्रसागर गाँव में हैं और इस इलाके का नाम जैरंगा पथार है। साथ ही वह यह भी बताते हैं कि यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से भी बेहद प्रसिद्ध है क्यूंकि यहाँ असम साहित्य की एक बेहद लोकप्रिय पात्र जयमति का निधन हुआ था।



हम लोग एक बड़े से पोखर के करीब पहुँच चुके थे जहाँ गाँव वाले अपनी गायों के साथ पहले से मौजूद थे।



मैं अत्यंत उत्साहित था क्यूंकि वर्ष 2016 में ‘गोरू बिहू’ देखने की मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई थी। ठीक एक वर्ष बाद यह सुयोग बन रहा था। ‘गोरू बिहू’ के लिए गाँव वाले बांस की थाली में सात प्रकार के खाद्य पदार्थ ले कर उपस्थित थे। इसमें फल और सब्जियाँ शामिल थीं। ‘गोरू बिहू’ की एक रस्म यह भी होती है कि गायों को पोखर या नदी में लाने से पहले सुबह-सुबह उनके शरीर में हल्दी और उरद की दाल का लेप लगाया जाता है। मैं अपना रिकार्डर ऑन कर देता हूँ और डॉ. अनिल सैकिया को आमंत्रित करता हूँ कि वह गोरू बिहू के बारे में हमें बताएं। (इस रिकार्डिंग को बाद में मैंने अपने वृत्त रूपक में इस्तेमाल किया)। सैकिया जी बताते चलते हैं कि गृहस्थों के हाथ में हम जो डंडी देख रहे थे जिसमें विभिन्न सब्जियाँ एवं फल बंधे थे, उनको ‘‘सत’’ (CHAT) कहा जाता है (असमिया भाषा में का उच्चारण के रूप में किया जाता हैं जैसे चार को सार एवं चाय को साय कहते हैं।) इस डंडी में लौकी, करेला, बैंगन, खीरा आदि सब्जियाँ एवं फल पिरोए गये थे। साथ में उन्होंने बताया कि पेड़ की दो टहनियाँ भी ले कर लोग आये थे। दरअसल वह औषधीय पेड़ की टहनियाँ थीं जिनका नाम ‘‘दिखलोती’’ और ‘‘माखियोती’’ था। इन टहनियों को ‘गोरू बिहू’ के दिन शाम को घरों में जलाने का रिवाज है। यह माना जाता है कि इनके जलाने से वर्ष भर घर में मक्खी मच्छर नहीं आयेंगे। हम लोग देख रहे थे कि गायों को डंडी वाली सब्जियाँ खिलाने के बाद उनको नहलाने के बाद, उनके गले में पड़ी हुई रस्सी निकाल कर एक नयी रस्सी डाली जा रही थी। सैकिया जी बताते हैं कि यह भी ‘गोरू बिहू’ की एक आवश्यक रस्म है।



'गोरू बिहू' के पूरे विधान को देखने के बाद हम लोग पुनः उसी असमिया परिवार के घर में प्रवेश करते हैं। वहाँ हम लोगों को पूरे जोश से आदर सत्कार किया जाता है। असमिया परम्परा के अनुसार हम तीनों को एक एक गामोछा पहनाया जाता हैं। खाने में चावल से बने ढेर सारे व्यंजन प्रस्तुत किये जाते हैं। घर में मुखिया और उनकी पत्नी के अलावा, बेटा बेटी और पुत्रवधू भी उपस्थित थे। सभी हम लोगों के बारे में पूरी जिज्ञासा से ढेर सारे प्रश्न करते हैं इसी दौरान गृहस्वामी और उनका बेटा मुर्गी के दो अंडों को ले कर आपस में लड़ाने लगते हैं। हमें पता चलता है कि ‘रोंगाली बिहू’ के अवसर पर ऊपरी असम में ऐसे बहुत से पारम्परिक खेलों का रिवाज अभी भी ऊपरी असम में है। जिसे हम अंग्रेजी में Egg Fighting कह रहे थे, असमिया में उसे ‘‘कनी जूच’’ कहते हैं।



पिता पुत्र की अंडा लड़ाई प्रतियोगिता में पिता का अंडा फूट जाता है। मैं पूछता हूँ टूटे हुए अंडे का क्या करेंगे? बेटी हँसते हुए जवाब देती है ‘‘आमलेट बना लेंगे’’। इसी बीच एक अंडा मुझे भी पकड़ा दिया जाता है। मैं और गृहस्वामी का पुत्र अंडा लड़ाते हैं। मेरा अंडा विजयी नहीं होता। वह प्रतिद्वंद्वी के अंडे के आगे नहीं टिक पाता।



हम लोगों को जोरहाट जाना था इसलिए अपने मेज़बानों से विदा ले कर हम लोग जोरहाट के लिए निकल पडते हैं। जोरहाट ऊपरी असम का एक प्रमुख शहर है और गुवाहाटी के बाद सबसे तेज उन्नति करता हुआ असम का नगर। जोरहाट के समीप में ही विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली भी है। साथ ही जोरहाट में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के संस्थान जैसे Tocklai Tea Research Institute, Rain Forest Research Institute, Central Muga Eri Research & Training Institute है तो Assam Agricultural Univerity भी है।



हम लोग जोरहाट शहर के केन्द्र में स्थित स्टेडियम में पहुँच चुके थे जहाँ दर्ज़नों बिहू पार्टियाँ पहले से उपस्थित थीं। जोरहाट और निकटवर्ती क्षेत्रों में असम की जनजाति जनसंख्या बड़ी तादाद में है, ऐसा वहाँ उपस्थित समूहों को देख कर लग रहा था। मिशिंग जनजाति के अलावा देवरी जनजाति के सदस्यों को मैं पहचान पा रहा था। वहाँ अन्य जनजाति के सदस्य भी होंगे लेकिन मेरी जानकारी सीमित थी।



स्टेडियम में ‘‘मूकलि बिहू’’ का आयोजन था। ‘‘मूकलि बिहू’’ का अर्थ है खुले मैदान या खेतों में नीले आसमान के नीचे वृक्षों की छांह में समूह में नृत्य करना। जहाँ भी ‘‘मूकलि बिहू’’ आयोजित किया जाता है, वहाँ मैदान में एक दो पेड़ अनिवार्य रूप से होते हैं। यदि पेड़ नहीं होते तो पेड़ के किसी तने को मैदान में ला कर स्थापित कर दिया जाता है। बिहू पार्टियाँ पेड़ के आस पास नृत्य करते हुए मिलेंगे। पेड़ों पर कपड़े की चीवरें भी बांधी जाती हैं।

मूकली बिहू

हम लोगों को जोरहाट से शिवसागर लौटना था जबकि सैकिया जी को रात जोरहाट में ही बितानी थी। इसलिए स्टेडियम में ‘‘मूकलि बिहू’’ का आनन्द उठाने और वृत्त रूपक के लिए रिकार्डिंग करने के पश्चात् मैं और पांडेय जी जोरहाट से बस पकड़कर शिवसागर लौट आये। शिवसागर पहुँचते पहुँचते शाम घिर आयी थी। अचानक मुझे प्रतीत हुआ कि शहर के हर इलाके में घरों के भीतर से धुंआ उठ रहा है। गौर से देखने पर पता चला कि अधिकांश घरों के आगे वहाँ निवासियों ने लकड़ियाँ जला रखी हैं।



मुझे सैकिया जी के सुबह के शब्द याद आये। निश्चित रूप से हर एक के घर में ‘‘माखियोती’’ और ‘‘दिखलोती’’ टहनियाँ जल रही थीं ताकि वर्ष भर मक्खी-मच्छर घर पर अटैक न कर सकें। बिहू जैसे लोकपर्व का स्थानीय जनता पर कितना गहरा प्रभाव होता है, इसका अंदाजा मुझे शिवसागर कस्बे में उठ रहे धुंऐ से लग रहा था।



बिहू पर इतना कुछ लिखने के बाद भी अभी लगता है कि जैसे बिहू के महासागर से कुछ बूंदे ही निकाल पाया हूँ। ऐसी प्रभावशाली संस्कृति के इतने आयाम हैं कि जितनी बार भी बिहू के उत्सव में शामिल होऊंगा, हर बार कुछ नया अपने हिस्से में आयेगा। एक बार फिर हुचूरी गायन वाले समूहों को गाँव में एक घर से दूसरे घर में जाते देखने की इच्छा अधूरी रह गयी। सरकारी कार्य में समय का दबाव इसके पीछे मुख्य कारण था साथ ही यह दुःख भी बार-बार सालता रहा कि काश! यदि असमिया भाषा का अच्छा ज्ञान अपने पास होता तो बिहू गीतों को पूरी तरह समझ कर मैं अपना आनन्द दुगुना चौगुना कर सकता था। लेकिन कहा जाता है कि यदि प्यास अधूरी रह जाये तो वह अच्छा है। अभी बिहू को और जानने की प्यास बाकी है। देखें! वह कब बुझती है।



सम्पर्क –
मोबाईल - 09452739500


(इस पोस्ट में प्रयुक्त अधिकांश चित्र गूगल के सौजन्य से साभार लिए गए हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (09-04-2018) को ) "अस्तित्व बचाना है" (चर्चा अंक-2935) पर होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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