श्रीधर दुबे का आलेख ‘ब्रज की संस्कृति’
भारत की संस्कृति ही वह मूल तत्व है, जिसकी
बदौलत दुनिया भर में उसकी पहचान कुछ अलग तरह की बनी। संस्कृति को कई लोगों ने कई तरह से परिभाषित
किया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है – ‘सभ्यता
अगर गुलाब का फूल है तो संस्कृति उस फूल की सुगन्ध।’ भारत इस मामले में समृद्ध है कि यहाँ पर इस
संस्कृति के तमाम रंग रूप हैं। हमारे यहाँ एक चर्चित कहावत है – ‘कोस कोस पर
बदले पानी, पाँच कोस पर बदले बानी।’ इसी संदर्भ में संस्कृति को भी रखा जा सकता
है। कुछ दूरी पर ही इस संस्कृति में बदलाव सहज ही देखा महसूस किया जा
सकता है। ब्रज की संस्कृति इसी तरह की संस्कृति है जिसमें मिथक हैं, किस्से-कहानियाँ
हैं, किंवदंतियाँ हैं, धर्म है, इतिहास है, साथ ही और जीवन को जीवन बनाने वाला भी
बहुत कुछ है। इस संस्कृति के मूल में हैं – ‘कृष्ण’। कृष्ण जो ब्रज के परिवेश में हैं। लेखन में हैं। साहित्य में हैं। ब्रज के जीवन में हैं। एक तरह से कृष्ण इस ब्रज संस्कृति में ऐसे
घुले-मिले हैं, जिनके बिना ब्रज संस्कृति की कल्पना तक नहीं की जा सकती। युवा कवि श्रीधर दुबे ने ब्रज संस्कृति पर एक
आलेख लिखा है। इसे आलेख की जगह ललित निबन्ध कहना अधिक मुनासिब
होगा। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं श्रीधर दुबे का आलेख ‘ब्रज की संस्कृति’।
ब्रज की संस्कृति
श्रीधर दुबे
ब्रज की संस्कृति आत्मदान
की संस्कृति
रही है, और उस संस्कृति के
अग्रदूत रहे हैं कृष्ण। राधा- कृष्ण और गोप-गोपियों
के प्रेम से सिक्त हुई ब्रज भूमि कुछ कवियों को तो ऐसी रास आई की वो ब्रज के,
ब्रज की संस्कृति
के और ब्रज संस्कृति
के प्राण-पुरूष कृष्ण के ही हो कर रह गये। मानुष रूप में,
पशु रूप में, खग
के रूप में या फिर निर्जीव पाहन के रूप में भी रहने या होने की उनकी कामना ब्रज
में ही रहने या होने की ही रही। रसखान के
उपर तो ब्रज का और ब्रज के बाँके-बिहारी का रंग
ऐसा चढा की उन्होंने
विट्ठल दास से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में ही जा बसे।
मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल
गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
ब्रज की साँस्कृतिक चेतना के मूर्त रूप हैं क़ृष्ण। क़ृष्ण का
पूरा जीवन लोक का और लोक के उद्धार का जीवन रहा। लोक के उद्धार के लिए ही उन्होंने जन्म लेते ही अपने माँ-बाप को छोडा और गोकुल में आ बसे। गोकुल में भी हरवाहों
चरवाहों के साथ गाय चराते बचपन बिताया। राधा और गोपियों से प्रीति की गाँठ जोडी और
फिर गोकुल से मथुरा और मथुरा से द्वारिका चले गये। कृष्ण का प्रेम किसी व्यक्ति
विशेष में एकनिष्ठ न होकर सृष्टि के कण कण तक पसरा हुआ था। यही वजह थी की उनकी
मुरली की टेर पशु-पक्षियों तक को भी अपनी ओर खींच लेती थी।
कृष्ण ने पद और प्रतिष्ठा के मिथ्या अहँकार को हमेशा अछूत
समझा। उनके लिए जीवन की सार्थकता अहँकार को विगलित करके प्रेम और समरसता को
प्रसारित करने में थी। वह तीनों लोकों के पूजनीय हो कर भी कभी
देवत्व के अहँम भाव से नहीं भरे। उन्होने ममता के हर रूपों का आस्वादन खुद भी किया
और साथ ही साथ औरों को भी कराया। यशोदा और नन्द के जाये हुए न हो कर भी
उनको पुत्रवत स्नेह से अभिसिंचित किया, कुबडी दासी के भीतर भासित होते सौन्दर्य को परखा। कभी
गोपियों की गगरी फोडी, उनके वस्त्र चुराये तो कभी उन्हीं गोपियों के लिए खुद को
छँछिया भर छाँछ के लिए खूब छ्काया भी।
सेष, गनेस, महेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखँड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।
नारद से सुक ब्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहिर की छोहरियाँ छछियाँ भरि छाछ पै नाच नचावैं।
ब्रज की
संस्कृति
जीवन जीने की एक सम्पूर्ण संस्कृति है जिसका मूल तत्व है प्रेम।
ब्रज की माटी के कण-कण में समाये उसी प्रेम
तत्व का कायिक रूप है माखन। कृष्ण द्वारा माखन पाने की ललक उसी प्रेम तत्व को पाने
की ललक थी जिसकी प्राप्ति मनुष्य को मनुष्य से जोडे
रखती है, मनुष्य को मनुष्य के लिए अनिवार्य बनाती है।
कृष्ण के प्रेम की व्याप्ति सिर्फ मनुष्य भर तक ही न होकर तृण, लता, नदी
पहाड़
जीव-जंतु सब तक थी। व्रज संस्कृति के
प्राणपुरूष कृष्ण लोक की चेतना में आज भी अगर बसे हुए हैं तो वजह यही है कि उनका
जीवन् लोक जीवन रहा है और उस लोक जीवन को पाने में ब्रज की उर्वर भूमि का ही
योगदान रहा। वे धरती से जुडे हुए रहे, उन्होंने जीवन का
वास्विक रस धरती से जुड़ कर
लिया, उन्होने खुद को कृषि सँस्क़ृति से जोडकर रख्खा
जिससे जुड़ कर उन्होंने खुद को
देश की आत्मा से जोडे रखा। मथुरा के वैभव में भी उनका मन करील के
कुंजों को ही खोजता रहा।
रसखान
कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तडाग
निहारौं।
कोटिक हू
कल्धौत के धाम, करील
के कुँजन उपर वारौं॥
कृष्ण
राग का मर्म जानते थे, इसिलिए राग में डूबे हुए भी विरागी थे।
वैराग्य उनके शरीर का रंगीन परिधान मात्र न हो कर
उनकी अत्मा का परिधेय था। उनके लिए जीवन की मुक्ति जीवन से पलायन नहीं बल्कि जीवन
के रस में डूब कर उतारने में थी।
स्वयम
कृष्ण और कृष्ण के साथ साथ गोपियाँ भी जिस राग में डूबे हुए थे, वही राग
जीवन का असली
राग है। उसी राग से रागान्वित हो कर
पुरुष स्त्री या स्त्री-पुरूष एक दूसरे की ओर एक
दूसरे की प्राप्ति की आकाँक्षा लिए हुए बढते हैं। ब्रज की सँस्क़ृति उसी रागलालसा
से रागांवित दिखती है जिसकी लहक आज भी फाग के राग में साफ साफ झलकती है। उस लहक
में स्त्री पुरूष का भेद मिट जाता है। काम की कुँठा गीत-सँगीत
के उल्लास में तिरोहित हो जाती है।
गोकुल
में गोपिन गोविन्द सँग खेली फाग।
राति भर
प्राति समय ऐसी छबि छलकैं॥
देहें
भरि आलस कपोल रसरोरी भरे।
नींद भरे नयन कछूक झपै झलकैं॥
लाली-भरे
अधर बहाली-भरे मुखबर।
कवि
पदमाकर बिलोके को न ललकैं।।
भाग-भरे
लाल और सुहाग-भरे सब अँग।
पीक-भरी
पलकैं अबीर-भरी अलकैं॥
स्त्री
और पुरुष दोनों को एकाकार करने वाले रस की रसभूमि है ब्रज की भूमि। ब्रज की उसी
रसभूमि के नायक हैं कृष्ण, जिनकी अनतरँगता का परस पा कर
राधा समेत समस्त गोपियाँ कृष्णमय हो गई थीं। कृष्ण प्रेम के मद में छकी हुई
गोपियाँ इतनी बेसुध हो जाती हैं की उन्हें अपने देह तक की भी सुधि नहीं रहती।
प्रेम-मद-छाके पग परत कहाँ के कहौ
थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है।
कहै रतनाकर यौं आवत चकात ऊधौ
मानौ सुधियात कोऊ भावना भुलाई है॥
धारत धरा पै ना उदार अति आदर सौं
सारत बँहोलिनी जो आँस-अधिकाई है।
एक कर राजै नवनीत जसुदा को दियौ
एक कर बंशी वर राधिका पठाई है॥
गोपियों
के इस तरह बेसुध होने में ही जीवन की सच्ची सुधि है और वही सुधि ब्रज के संस्कृति की असली
सुगन्ध है। उसी सुगन्ध ने अन्धे सूर को दृष्टि दी थी और मीरा को प्रेम की दीवानी
मीरा बना दिया था।
इस तरह
ब्रज की संस्कृति
एक साथ आत्मदान, आत्म
तर्पण, समर्पण, स्नेह, मस्ती
की भी संस्कृति
है। कृष्ण को हमने लीला पुरूष कहा तो इसलिए कि यह सारी सृष्टि इश्वर की लीला ही
है। ब्रज की बोली बानी हो, ब्रज के तीज-तयौहार
हों, ब्रज
का खान-पान हो, ब्रज
की होली हो, सबका
अनूठा रँग होता है। आज आधुनिकता की बयार कितनी ही बह रही हो, ब्रज
का वैभव अक्षुण्ण है। मथुरा, गोकुल, गोबर्धन, कृष्ण, राधा, गोपियाँ
केवल सँज्ञाएँ नहीं हैं, मानवीय संस्कृति के
मूलाधार हैं, हमारी
गँवई संस्कृति
व सभ्यता के स्रोत हैं।
सम्पर्क –
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ई-मेल
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी तस्वीरें गूगल से साभार ली गयी हैं.)
(यह आलेख उत्तर प्रदेश पत्रिका के मार्च 2018 अंक में छपे आलेख का परिष्कृत रूप है.)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13-04-2017) को बैशाखी- "नाच रहा इंसान" (चर्चा अंक-2939) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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बैशाखी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'