अमरेन्द्र कुमार शर्मा का यह आलेख ‘कुँवर नारायण की कविता : पारिस्थितिकी का अंत:साक्ष्य’



श्री एवं श्रीमती कुँवर नारायण के साथ अमरेन्द्र कुमार शर्मा

हमारे समय के अप्रतिम कवि कुँवर नारायण का पिछले नवंबर में निधन हो गया। कुँवर जी की कविताएँ हमें उस जीवन दर्शन का साक्षात्कार कराती हैं जिसकी आज के समय में कहीं अधिक जरूरत है उनके जीवन काल में ही उनकी कई काव्य-पंक्तियाँ सूक्ति की तरह इस्तेमाल होने लगी थीं किसी भी कवि के लिए इससे बढ़ कर क्या सम्मान हो सकता है कविता या काव्य-पंक्तियों की यही सार्थकता होती है कि वह लोगों की जुबान पर बस जाए यह आसान भी कहाँ होता है उसके लिए कवि को जीवनानुभव के कठिन पथ से हो कर गुजरना पड़ता है अमरेन्द्र कुमार शर्मा ने आलोचना के क्षेत्र में अपनी पहचान स्थापित कर ली है अमरेन्द्र ने कुँवर नारायण की कविता की एक आलोचकीय पड़ताल की है आज पहली बार हम प्रस्तुत कर रहे हैं अमरेन्द्र कुमार शर्मा का यह आलेखकुँवर नारायण की कविता : पारिस्थितिकी का अंत:साक्ष्य


कुँवर नारायण की कविता : पारिस्थितिकी का अंत:साक्ष्य



अमरेन्द्र कुमार शर्मा  




जीवन कविता को और कविता जीवन को एक परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं। आपका जीवन को जीना कविता के स्तर पर  जीवन को कविता में उल्था करना नहीं है। यदि आप जीवन ‘जीतेहैं तो कविता ‘रचतेहैं तो कच्चे माल के रूप में जीवन को कविता के लिए केवल महसूस करने की वस्तु के रूप में नहीं लेते।

 -मलयज (1979), ‘कविता से साक्षात्कार’, पृष्ठ -118


जीवन’,‘कविताऔर वस्तुकी उपर्युक्त संरचना के सन्दर्भ से कुँवर नारायण की कविता जख्मकी कुछ पंक्तियों को सबसे पहले दर्ज कर रहा हूँ –


इन गलियों से
बेदाग़ गुज़र जाता तो अच्छा था
और अगर
दाग़ ही लगना था तो फिर
कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं
आत्मा पर
किसी बहुत बड़े प्यार का जख्म होता
जो कभी न भरता



कुँवर नारायण की कविता की उपर्युक्त पंक्तियों और मलयज के उद्धरण के साथ मैं तीन घोषणाएँ करना चाहता हूँ


दुनिया की अधिकांश कलाओं में जब दैहिक सुख औरइरोटिक्सकी छवियाँ और उसकी परछाइयाँ सांस्कृतिक जीवन के चिन्हों, स्मृतियों को विखंडित कर रही है, सांस्कृतिक उत्तेजनाओं की एक नई भाषा निर्मित हो रही है, प्रतीकों, चिन्हों और मिथकों की नई परिभाषा निर्मित की जा रही है तब कुँवर नारायण की रचनाओं से गुजरते हुए ,उनकी कृतियों में प्रवेश करते हुए कुँवर नारायण की रचनाओं से कुछ ज्यादा प्यार होने लगता हैप्यार होते हुए की प्रक्रिया में हम खुद के लयात्मकहोनेपर कुछ ज्यादा यकीन करने लगते हैं यह भरोसा  होने लगता है कि दुनिया की दुर्निवार कठिनाईयों के बीचमनुष्यताके पक्ष में खड़े रहना कितना जरुरी है

 

कुँवर नारायण की समस्त रचनाशीलता के बारे में पढ़ते, सुनते हुए एकरसता का बोध होता है कि कुँवर नारायण की रचनाओं में मिथकों, आख्यानों का बड़ा प्रभाव रहा है वे आध्यात्मिक चेतना के कवि हैं दो काव्यआत्मजयी, ‘वाजश्रवा के बहानेकुँवर नारायण की पहचान है और उपलब्धि भी बाकी कविताओं पर मिथकों, आख्यानों की आंच है मैं स्वीकारता हूँ की बेशक यह है लेकिन क्या कुँवर नारायण कीआत्मजयी, ‘वाजश्रवा के बहाने  काव्य के इतर की कविताओं का  पाठ करते हुए मिथकों, आख्यानों की छायाओं और प्रतिछायाओं से मुक्त नहीं हुआ जा सकता इस लेख मेंआत्मजयीऔरवाजश्रवा के बहानेसे इतर कुछ कविताओं का सन्दर्भ है अपने इस मिथक और आख्यान रहित लेख के प्रांगण में पाठक का स्वागत करते हुए  स्वाभाविक रूप से आशंकित हूँ  



वस्तुके स्थान परप्यार का जख्मऔर उसके साथजीवनऔरकविताकी ट्रायोलोजी में यह लेख अपनेहोनेकी एक अधूरी खोज करता है  

                                            
बीसवीं शताब्दी की हिन्दी कविता में विवेकसम्मत नैतिक चेतना को बड़े ही सुकून से आवाज देने वाले लेखक कुँवर नारायण (19 सितंबर 1927-15 नवम्बर 2017) की कविता को याद करना दरअसल मनुष्यता के पक्ष में अपने हाथ खड़े करना जैसा है। कुँवर नारायण की कविता में जीवन की ध्वनि के साथ विचार की संवेदनात्मक लयात्मकता और तरलता, काल का लम्बा वितान और स्थान का सुचिन्तित भू-दृश्य, अपने समय की राजनीति के रूप-अरूप और समाज के भीतरी सतह और उसके तलछट को  इतिहास और उससे कहीं दूर मिथकों तक जा कर देख लेने की दृष्टि, अपनी अनन्त संभावनाओं वाली अर्थ की इयत्ता और जिम्मेदारी की जिजीविषा मौजूद हुआ करती है। कुँवर नारायण की कविता की इस बहुस्तरीयता के बारे में लिखने का साहस करना दरअसल स्वयं को एक संभावित खतरे में डालना है। मुझे इस बात का इल्म है कि मैं इस संभावित खतरे के घेरे में हूँ। बाबजूद इसके कुँवर नारायण की कविता के बारे में सोचते हुए, लिखते हुए स्वयं को समृद्ध कर रहा हूँ कि कुँवर नारायण की कविता का मुल्यांकन। कुँवर नारायण की कविता के माध्यम से यह एक तरह से स्वयं को जानने की कोशिश भी है। हर कोशिश अधूरेपन की संभावना से भरी होती है, सो यह लेख भी उसी संभावना के बीच विन्यस्त है।

 
  
कुँवर नारायण की कविता की अपनी एक पारिस्थितिकी है। इस पारिस्थितिकी में मनुष्य की आस्था के खो देने का जोखिम है तो उसके बौद्धिक सामर्थ्य और उस सामर्थ्य से आगामी मनुष्यता के निर्माण का अंत:साक्ष्य भी है। कविता में कर्म की जिम्मेदारी का बोध, कवि का नैतिक दायित्व होता है। इसलिए कुँवर नारायण की कविता की पारिस्थितिकी का भूगोल बेहद विस्तृत है। इस भूगोल में व्यक्ति और स्थान की कोई सीमा रेखा है और कोई निश्चित क्रम। इस भूगोल की एक स्वायत्त और स्वतन्त्र दुनिया है। दरअसल, कुँवर नारायण की कविता भूगोल और इतिहास, व्यक्ति और संस्कृति के बीच आरोहण-अवरोहण का प्रत्याख्यान रचती है। जिसमें लखनऊ, अयोध्या, मगहर, क्राकाऊ का चिड़ियाघर, प्राहा, वेनिस की गलियाँ, बल्लीमारान, हैम्सबर्ग, वावेल का दुर्ग, लाल किला, हुमायूँ का मकबरा, कुतुबमीनार, मास्को, वारसा, ट्यूनीशिया का कुआँ, श्रावस्ती, कोणार्क, फतेहपुर सीकरी, वियतनाम, बेलची, बेल्सीन, बांग्लादेश, गोलकुंडा, विजयनगर आदि अपनी गहरी काट-छाँट के साथ विस्तृत दुनिया है तो दूसरी तरफ कबीर दास, शेक्सपियर, ग़ालिब, गुरुनानक, बुद्ध, शार्दुल, अप्सराएँ, देवदासियाँ, सरहपा, अमीर खुसरो, पाब्लो नेरुदा, नाजिम हिकमत, नीरो, पिकासो, इब्नबतूता, गैलिलियो, ईसा मसीह, सिकंदर, कोलम्बस, बख्तियार खिलज़ी आदि की दुनिया का नक्शा है। स्थान और चरित्र मिल कर कुँवर नारायण की कविता के जिस पारिस्थितिकी का निर्माण करते हैं उसकी तुलना करने के लिए हिन्दी में मुझे अभी तुरन्त कोई दूसरा कवि दिखलाई नहीं देता।  




कुँवर नारायण की कविताओं के रु--रु और साथ होने से पूर्व एक छोटी सी टिप्पणी जरुर देना चाहता हूँ। कुँवर नारायण के बारे में और उनकी कविताओं के बारे में हिन्दी आलोचना में सामान्तया इस बात को बार-बार स्थापित किये जाने का प्रयास किया जाता है कि, कुँवर नारायण ने किसी विचार या पंथ का समर्थन नहीं किया, वे किसी भी विचारधारा से लेखक की स्वायतत्ता को सबसे ऊपर मानते रहे हैं। हिन्दी के कवि, आलोचक और कुँवर नारायण पर किताबों के सम्पादक ओम निश्चल जी ने लिखा, “वे (कुँवर नारायण) यह कोशिश करते रहे हैं कि शुद्ध, निष्पक्ष और अकादमिक समीक्षा का एक उत्तरदायी संसार हिन्दी में विकसित हो। (दैनिक भास्कर,17 नवम्बर 2017, पृष्ठ 4) कवि, आलोचक, सम्पादक विजय बहादुर सिंह (जो आचार्य नन्दुलारे वाजपेयी के करीबी रहे और उन पर बेहतरीन जीवनी लिखी, बाबा नागार्जुन के साथ कई वर्षों का संग-साथ रहा और उन पर उन्होंने कई किताबें लिखी, कवि शलभ श्रीराम सिंह के अभिन्न मित्र रहे।) ने कुँवर नारायण की कविता पर लिखते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर केयात्री आभि रे/ पारबे केऊ आमा के धीरेका सन्दर्भ हैं और कुँवर नारायण के बारे में दर्ज करते हैं, “वह कवि है क्या जो किसी एक विचार या सिद्धान्त के खूंटे से बंध कर संतुष्ट रह जाए।ओम निश्चल और विजय बहादुर सिंह के कथन को स्वयं कुँवर नारायण के इस कथन से बड़ा बल मिलता है, जो उन्होंने अपनी डायरी में जून 1994 को लिखा,किसी भी विचारधारा से मैत्री एक बात है, उसकी नौकरी या गुलामी अलग बात।(पृष्ठ-17) ऐसा नहीं है कि कुँवर नारायण ने विचारधारा के सन्दर्भ से वक्तव्य एक बार दिया हो यह चिंतन कुँवर नारायण में लगातार चलता है, वे 8 अगस्त 1998 को अपनी डायरी में फिर दर्ज करते हैं, “सही और सम्पूर्ण साहित्य वह है, जिसे हम दोनों आँखों से देखते हैं सिर्फबायींया सिर्फदांयींआँख से नहीं।(पृष्ठ-27) कुँवर नारायण के विचारधारा का खूंटा, ‘बायीं’, ‘दायींजैसे पद का सन्दर्भ कविता की रचना-प्रक्रिया के एक निश्चित वास्तु-शिल्प से है जिसे पाठक खूब समझते हैं। कविता के इस खासवास्तु-शिल्पकी संरचना को देखते हुए ही यह कहा जाता रहा है कि कुँवर नारायण किसी विचार या पंथ का समर्थन नहीं करते। तो क्या कविता बिना किसी विचार की होती है? बीसवीं शताब्दी की कविताओं की विस्तृत दुनिया क्या बिना किसी विचार के ही चली रही है? बर्तोल्त ब्रेख्त, पाब्लो नेरुदा, मायकोवस्की, नाजिम हिकमत जैसे कवि कि कविता को कैसे देखा जाना चाहिए। पूछा जाना चाहिए कि कबीर की कविता को क्या बिना किसी विचार या पंथ का सन्दर्भ लिए समझा जा सकता है। क्या कबीर किसी विचार के समर्थक नहीं है। मध्यकालीन भारत में फैले हुए पाखण्ड, अंधविश्वास और वर्चस्व के विरुद्ध कबीर की कविता का अपना एक विचार है पंथ है। मैं यहाँ जान बूझ कर भटकाव की संभावना के कारण हिन्दी के आधुनिक साहित्य के कवि मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि दर्जनों कवि के नाम नहीं ले रहा हूँ। कुँवर नारायण स्वयं अपना पक्ष चुनते हैं, अपनी कवितातटस्थ नहींमें वे स्वयं कहते हैं, ‘तट पर हूँ  पर तथस्थ नहीं कविता में या समीक्षा मेंशुद्धऔरनिष्पक्षहोना क्या होता है? क्या यह हुआ जा सकता है? क्या ऐसा होना चाहिए? और अगरशुद्धऔरनिष्पक्ष हुआ जा सकता है तो हमें कहने दीजिए कि शुद्धता और निष्पक्षता का भी अपना एक विचार,अपना एक पंथ होता है। टेरी इग्लटनउत्तर आधुनिकताके विमर्श की अपनी पूरी बहस में इस बात पर जोर देते हैं किविशुद्ध साहित्यिक थ्योरीएक प्रवंचना है। दरअसल कविता को हमें इस आधार पर देखना, पढ़ना चाहिए कि क्या वह दुनिया के शोषणकारी हालातों के लिए ज़िम्मेदार शक्ति-संरचनाओं को  कोई चुनौती देता है, क्या कविता, आर्थिक शोषण के नए-नए रूपों से प्रभावित दुनिया के एक बड़े हिस्से की त्रासदीपूर्ण परिवेश को संबोधित करती है। गरीबी, भूख और समानता और न्याय के हक़ के पक्ष में कविता अपना हाथ कितना और किस तरह से उठाती है। और कविता जब यह सब कर रही होती है, तो कहा जाना चाहिए कि कविता शोषण और अत्याचार के विरुद्ध अपना एक पक्ष चुनती है, वह निष्पक्ष या स्वायत्त नहीं होती। कुँवर नारायण स्वयं अपनी कविता कविता की जरूरत में लिखते हैं – 



बहुत कुछ दे सकती है कविता
क्योंकि बहुत कुछ हो सकती है कविता
ज़िन्दगी में
अगर हम जगह दें उसे
जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
जैसे तारों को जगह देती है रात

 

दरअसल इस पर विचार करना बेहद जरुरी है कि हम कविता के पास अपनी किसमांगको ले कर जाते हैं, जाना चाहते हैं? हम कविता से क्या चाहते हैं? इसका जबाब हमें कुँवर नारायण की एक दूसरी कविता में मिलता है जिसका शीर्षक हीकविताहै – 



कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
कभी हमारे सामने
कभी हमसे पहले
कभी हमारे बाद



बहरहाल, मैं अपनी टिप्पणी को यहाँ और ज्यादा विस्तार नहीं देता हूँ, और कुँवर नारायण की कविता को, कविता के भीतर निवास कर रहे विचार के सन्दर्भ से समझने की कोशिश करता हूँ। क्योंकि हम जानते हैं और जिसे देरिदा ने रेखांकित किया कि, ‘पाठ के भीतर केंद्रीय और सीमान्त स्वरों के बीच सतत् घमासान चलते रहना एक अनिवार्यता है। और यह भी किअन्तिम और परम अर्थ हमेशा स्थगित होता रहेगा।


भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी मेंनामक कविता में जब कुँवर नारायण लिखते हैं -



एक भाषा जब सूखती
शब्द खोने लगते अपना कवित्व
भावों की ताज़गी
विचारों की सत्यता
बढ़ने लगते लोगों के बीच
अपरिचय के उजाड़ और खाइयाँ...
 

तब वे अपने समय की एक ख़तरनाक चाल के लक्षण को उसकी तिर्यक भंगिमा के साथ हमारे सामने रख रहे होते हैं। भाषा, इंसानी दुनिया की इजाद है, भाषा का कोई मनुष्येतर सत्य नहीं होता। ऑफ़ ग्रामेटोलोजीमें देरिदा ने भी कहा है, ‘भाषा और इस दुनिया के बीच का एक सीधा-सरल सम्बन्ध है तथा भाषा इस दुनिया का प्रतिनिधित्व करती है।किसी भी भाषा के सूखने का सन्दर्भ मनुष्यता के लिए एक आसन्न संकट है, यह सांस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया का अनिवार्य लक्षण है। भाषा के सूखने का सवाल जब कविता में  कुँवर नारायण विन्यस्त कर रहे होते हैं और कविता में विचारों की सत्यता के खोने के आसन्न संकट की बात कर रहे होते हैं तब प्रसिद्ध दार्शनिक और शिक्षाविद रूसो (1712-1778) का यह कथन मनुष्य का नैतिक पतन उसके सभ्य होने के साथ-साथ हुआहमें आसन्न संकट की पूर्व कल्पना कराता है। वह यह बताता है कि हमारे सभ्य हो जाने की प्रक्रिया में कई जरुरी चीजें नष्ट हुईं जो मनुष्यता के लिए आवश्यक थीं। सभ्य होने के सन्दर्भ को 1762 में रूसो ने कह दिया था कि हम महानगरों में घुमने वाले वनमानुष हैं’। हमें कहना चाहिए कि हमारी पृथ्वी पर विगत कुछ अवधि में ऐसे वनमानुषों की संख्या में अभूतपूर्ण वृद्धि हुई है। वर्चस्ववादी व्यवस्था सबसे पहले छोटी-छोटी अस्मिताओं की भाषा पर सबसे पहले हमला करती है, उसे नष्ट करती है। ताकि वर्चस्ववादी भाषा अपना आधिपत्य बना सके। एक भाषा की हत्या दरअसल एक सभ्यता की हत्या होती है। कुँवर नारायण की इस कविता में अपरिचय’, ‘उजाड़’, ‘खाइयाँ एक सभ्यता की हत्या किये जाने की प्रक्रिया का उत्पाद है।

    
माध्यम कविता में कुँवर नारायणमौनको अर्थवान होने की प्रक्रिया को दर्ज करते हैं,
 

मेरे और तुम्हारे बीच एक मौन है
जो किसी अखंडता में हमको मिलता है।



अखंडतामें मौनके वास को अलग से इसलिए रेखांकित किया जाना चाहिए क्योंकि मौनकी उपस्थिति किसी स्थिर समय में नहीं होती है बल्कि वह समय की तरलता में मौजूद होती है, हम उस मौनको आकार देते हैं। आकार देने में हमारा होनास्थगित नहीं होता बल्कि यह भास्वर हो कर प्रकट होता है। 11 दिसंबर 1998 को कुँवर नारायण अपनी डायरी दिशाओं का खुला आकाशमें भी इस मौन की ध्वनि को स्पष्ट करते हैं, “मौन का अर्थ केवल शोर (ध्वनि) की अनुपस्थिति नहीं है। मौन की अपनी एक सशक्त प्रतिध्वनि की प्रस्तुति है - शोर से कहीं अधिक तीव्र। मौन की प्रतिध्वनियों की कई तहें होती हैं। उनमें अनन्त का नाद-निनाद शामिल है।” ( पृष्ठ 27) ‘मौनकी प्रतिध्वनि की तहों को कुँवर नारायण अपनी इस कविता में समय की तरल मौजूदगी के साथ होने को विन्यस्त करते हैं, ‘मौनकेहोनेके भास्वर पक्ष को प्रकाश के समानांतर देखते हैं - 



पर मैं प्रकाश का वह अंत:केंद्र हूँ
जिससे गिरने वाली वस्तुओं की छायाएँ बदल सकती है !’ 



यह गिरना कुँवर नारायण के यहाँ सामान्य नहीं है बल्कि यह गिरता है -  



हाड़ सी बिजलियों की तरह अकस्मात
अपनी पंक्तियों में भभक कर



हाड़-सी बिजलियों की तरह अकस्मातका जो यह दृश्य बिम्ब है यह कुँवर नारायण के यहाँ किसी अबूझ की तरह नहीं और न अपने समय की प्रवृतियों से अबोलेकी तरह प्रकट होता है और न यह किसी विचारधारा में नारे की तरह।  इसलिए यह कुँवर नारायण के शब्दों में 



मैं संसार को नंगा ही नहीं करता
बल्कि अस्तित्व को दूसरे अर्थों में भी प्रकाशित करता हूँ ।’ 



कविता में अस्तित्व को प्रकाशित करना कुँवर नारायण की कविता की अपनी लय है।  


वह कौन-सा तत्व है इस दुनिया के बनने की प्रक्रिया में, जो हर शब्द को काव्य-शब्द में बदल देता है और हर अर्थ को काव्य-अर्थ में? क्या यह असंभव की दुनिया है?’ यह सवाल कवि, आलोचक मलयज का है, जो वे अपनी पुस्तक कविता के साक्षात्कारमें शमशेर बहादुर सिंह की कविता के सन्दर्भ में करते हैं। कुँवर नारायण की काव्य-यात्रा की बनावट-बुनावट के बीच विन्यस्त मानुष-लयको देखते हुए हम शब्द और अर्थ को काव्य-शब्द और काव्य अर्थ में संभव होते हुए देखते हैं। कुँवर नारायण की कविता चक्रव्यूहबहुचर्चित और बहु उद्धरित रही है। महाभारत के युद्ध का सन्दर्भ अपने अतीत की क्रूर सचाई के साथ हमारे वर्तमान में कैसे उतर आता है, यह  इस कविता में उस तरह से नहीं देखा जा सकता है, जैसे धर्मवीर भारती की काव्य-नाटिका अँधा युगमें देखा जाता है। दरअसल, कोई भी युद्ध अपनी त्रासद तासीर के साथ जितनी देह पर उतरती है उतनी ही देह से परे भी। युद्ध केवल मनुष्यता के लिए नैतिक संकट नहीं है बल्कि यह पूरी संस्कृति के साथ स्वयं के ध्वस्त हो जाने की दास्तान है –



मेरे हाथ में टूटा हुआ पहिया,
पिघलती आग सी संध्या,
बदन पर एक फूटा कवच,
सारी देह क्षत-विक्षत

 

कुँवर नारायण की कविता में यह साँझ जो आग सी पिघलती जा रही है, वह महज साँझ का पिघलना नहीं है बल्कि युद्ध की साँझ धीरे-धीरे रात की राख में तब्दील हो जाना है। युद्ध अपने अन्तिम उत्पाद में महज राख़ ही तो होता है। इस राख़ किसी गैर का नहीं होता न किसी अनजाने का बल्कि यह राख स्वयं का होता है, हम युद्ध में स्वयं को जलाते हैं, हम युद्ध में स्वयं के ख़िलाफ़ लड़ते है और लड़ते हुए स्वयं नष्ट हो जाते हैं। कुँवर नारायण की कविता अलग अलग खातों मेंयह लड़ाई स्वयं के ही नष्ट हो जाने का स्वर है


किसी ने कहा - लड़ो
ज़िन्दगी हक़ की लड़ाई है।
हथियार उठाया तो देखा
मेरे ख़िलाफ़ पहला आदमी
मेरा भाई है।

                                
कुँवर नारायण की कविता समुद्र की मछलीमें मनुष्य के आरंभ और पुनः आरंभ होने का सन्दर्भ है। यह आरंभ/ पुनः आरंभहोने की आकंक्षा कवि की कविताओं में बार-बार आता है। 


बस वहीं से लौट आया हूँ हमेशा
अपने को अधूरा छोड़ कर
जहाँ झूठ है, अन्याय है, कायरता है, मूर्खता है –
प्रत्येक वाक्य को बीच ही में तोड़-मरोड़ कर,
प्रत्येक शब्द को अकेला छोड़ कर,
वापस अपनी ही बेमुरौव्वत पीड़ा के
एकांगी अनुशासन में
किसी तरह पुनः आरंभ होने के लिए  



झूठ, अन्याय , कायरता, मूर्खता भरी दुनिया में होने का दर्द और पुन:आरंभ होने के लिए लौट आने की चाह हमें एडवर्ड सईद की  किताब आउट ऑफ़ प्लेसऔर पॉलिटिक्स ऑफ़ डीसप्जेशनकी तरफ ले जाता है, जहाँ स्वयं के होने’, ‘न होने  के विस्थापन का दर्द एक सिद्धान्त के रूप में छटपटाहट के साथ मौजूद होता है। छोड़ने की पीड़ा को ले कर कुँवर नारायण अपने पुराने शहर लखनऊ पहुँचते हैं –



किसी मुर्दा शानो शौकत की कब्र-सा,
किसी बेवा के सब्र- सा,
...खंडहरों में सिसकते किसी बेगम के शबाब - सा लखनऊ
बारीक मलमल पर कढ़ी हुई बारीकियों की तरह
इस शहर की कमज़ोर नफ़ासत,
नवाबी ज़माने की जनानी अदाओं में
किसी मनचले को रिझाने के लिए।’ 



संघर्ष और मेहनत की छवियों से इत्तर नवाबी ज़माने के बेमुरौव्वत समय को कुँवर नारायण यदि अपनी इस कविता में याद कर रहे हैं तो वे दरअसल समृद्ध और खाती-पीती दुनिया के ख़िलाफ़ पीड़ित दुनिया प्रति की आवाज को याद कर रहे हैं। बारीक मलमल की नफ़ासत में दबी हुई अनगिनत आहों को स्वर दे रहे हैं । कुँवर नारायण का अपने शहर लखनऊ शहर को छोड़ने का फैसला किन परिस्थियों के बीच हुआ था हिन्दी समाज इसे अच्छे से जानता है। मैं यहाँ उस कथा के विस्तार में नहीं जा रहा हूँ। कुँवर नारायण की एक बहुचर्चित कविता है अयोध्या 1992इस कविता में कुँवर नारायण ने जीवन के कटु यथार्थजो 1992 का एक राजनीतिक यथार्थ भी है ; के सामने महाकाव्य के राम को एक बेबस मनुष्य की त्रासदी के रूप में  बदल जाने की विवशता को चित्रित किया है । कुँवर नारायण 1992 के अयोध्या में घटित राजनीतिक दुर्घटना की जटिल बुनावट को देखते हुए दर्ज करते हैं



उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर-लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है।

 

यह बेहद कठिन है जब हमारे समय में यह पहचान करना मुश्किल हो जाए कि विभीषण का पक्ष वह नहीं रहा जो हमने महाकाव्यों में देखा था। इसलिए कुँवर नारायण राम को कहते हैं –



सविनय निवेदन है प्रभु की लौट जाओ
किसी पुराण - किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्निक...


कुँवर नारायण की कविता में स्वप्न और स्मृति का इतिहास साँस लेता है। कविता के पाठ में पाठक साँस की आवाज में अपनी साँस की आवाज भी सुन सकता है।  



 
कुँवर नारायण की कविता और जीवन में भी नफ़रत के लिए कोई स्थान नहीं है, जो लोग भी कुँवर नारायण से व्यक्तिगत रूप से कभी मिले हैं यह परिचय हुआ है वह यह जानते हैं कि कुँवर नारायण बड़े ही सरल, सहज, मनुष्यता के वृहत्तर परिपेक्ष्य के बारे में सोचने वाले कवि हैं। इसलिए कुँवर नारायण की कविता में पुनः आगमन की घोषणा हमें भीतर, कहीं गहरे तक उम्मीद से भर देता है, हमें यह लगने लगता है कि हम जब कभी पुन: लौटना चाहेंगे तो कुँवर नारायण की इस कविता की तरह ही लौटना चाहेंगे –


अबकी अगर लौटा तो
बृहत्तर लौटूँगा /
...अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूँगा। 


इस तरह अपने अर्थ-विस्तार में यह कविता सिर्फ कुँवर नारायण की कविता नहीं रह जाती बल्कि उन सब की हो जाती है जो सबकेहिताहितमें सोचता पूर्णतरलौटना चाहता है। उनकी एक प्रसिद्ध कविताएक अजीबसी मुश्किलहै जिसमें वे मनुष्य के जीवन को, समानता और न्याय को, नफ़रत की निर्थकता के साथ देखते हुए एक जोखिम उठाते हैं



‘अंग्रेजों से नफरत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपियर आड़े आ जाते ...
मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आ कर खड़े हो जाते। 
...सिखों से नफ़रत करना चाहता
तो गुरुनानक आँखों में छा जाते
 


कुँवर नारायण की कविता में प्रेम स्थान-परिवेश से आबद्ध नहीं है, प्रेम की ताप सर्वव्यापी है। नफ़रत के लिए कोई जगह नहीं और प्रेम एक रोग की तरह दुनिया के नक़्शे में पैबस्त है। 



बाजार की बढ़ती अराजकता और अराजकता से उत्त्पन्न प्रछन्न अकेलापन हमारे समय की विशिष्ट पहचान है। कुँवर नारायण इसे अपनी कविता बाजारों की तरफ भीदर्ज करते हैं –



बाज़ार एक ऐसी जगह है
जहाँ मैंने हमेशा पाया है
एक ऐसा अकेलापन जैसा मुझे
बड़े-बड़े जंगलों में भी नहीं मिला।
 


इक्कीसवीं सदी में बाजार एक आतंकवादी की भूमिका में अवतरित हुआ है, यह मनुष्य को भीड़ में एकदम अकेला और निहत्था कर देता है और कभी-कभी उसे गहरे अवसाद में मृत्यु के करीब पहुंचा देता है। फ्रैंक ब्रूनी की एक प्रसिद्ध किताब है कंज्यूमर टेरेरिज्म जो बताती है कि कैसे बाजार अपने उत्पादों, विज्ञापनों में छुपे हुए शर्तों के माध्यम से छुप कर वार करता है। यह एक विरोधाभास है, एक उलटबांसी कि कोई बाजार में रहकर भी अकेला रह जाए। इस कारण कुँवर नारायण की कविता में जो बाजार है वह  आंतकित कर देता है। कुँवर नारायण आजकल कबीरदासमें मृत्यु को आज और कल के बीच एक विभाजक रेखा के तौर पर देखते हैं


‘कौन कह सकता है कि जिसे
हम जी रहे आज
वह कल की मृत्यु नहीं
और जिसे हम जी चुके कल
वह कल का भविष्य नहीं?’



मनुष्य के जीवन में क्या मृत्यु एक प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह होता है? मृत्यु क्या है? इस प्रकार के प्रश्नों पर भारतीय वांग्मय में खूब विचार हुआ है। मुझे कुँवर नारायण की इस कविता को पढ़ते हुए दक्षिण अफ़्रीकी जीव विज्ञानी ल्याज वाट्सन (12 अप्रैल 1939 – 25 जून  2008) की एक प्रसिद्ध किताब बायोलोजी ऑफ़ डेथ का सन्दर्भ याद आ रहा है, जहाँ जीवन की अनुपस्थितिको ही मृत्यु कहा गया है। मृत्यु को चैन तब तक नहीं आती जब तक कि वह धक्का दे कर जीवन को न फेंक दे। जीवन के साथ मृत्यु नत्थी है। इसलिए यह कि 



हम जी रहे आज
वह कल की मृत्यु... है ।

लेकिन मृत्यु की इस अनिवार्य प्रक्रिया के बाए में सोचते हुए भी कुँवर नारायण रचना के लिए अपनी कविताओं में बार-बार पृथ्वी पर लौट आने की चाह रखते हैं । क्योंकि उनके लिए, उनके यहाँ जीवन और रचना साथ-साथ चलने वाले अवयव हैं। यह सृजनात्मक चाहत कुँवर नारायण में अकेले का नहीं है, यह पाब्लो नेरुदा और रिल्के के यहाँ भी है। कुँवर नारायण अपनी कविता मद्धिम उजाले में दर्ज करते हैं – 



एक अधूरी रचना 
लौटती है पृथ्वी पर बार-बार
खोजती हुई उन्हीं अनमनी आँखों को
जो देखती हैं जीवन को जैसे एक मिटना सपना,
और सपनों में रख जाती हैं एक अमिट जीवन। 



दरअसल, ‘अधूरापन हमेशा एक यात्रा में होता है, अधूरेपन की कोई मंजिल नहीं होती, अपनी अनवरत यात्रा में वह एक पूर्णता की तलाश करता है जो कहीं नहीं होती, कभी नहीं होती। पूर्णता के भ्रम में अधूरापन निम्मजित होता रहता है। कुँवर नारायण की कविता मद्धिम उजाले में अधूरेपन का एक मद्धिम उजाला है जो पृथ्वी पर लौटती है बार-बार, एक पूर्णतर की तलाश में वह सपने में अमिट जीवन को छोड़ जाती है। इसलिए कवि, आलोचक मलयज ने अपने कथन में यह कहा की जीवन कविता को और कविता जीवन को एक परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं।   

   

कुँवर नारायण की कविता सन्नाटा या शोर का रूपबंध गहरी सर्जनात्मकता से अपना आकार ग्रहण करती है। कविता की भाव-संरचना और कविता के बाह्य ढांचे में एक द्वंद्ध है । यह द्वंद्ध भाव-संरचना और बाह्य ढांचे में परस्पर सामंजस्य स्थापित करने के संघर्ष से निर्मित हुई है। दरअसल, रचनाधर्मिता में यह देखा गया है कि सर्जनात्मकता के गहरे तनाव को अपने नियन्त्रण में रखने के लिए रचनाकार प्राय: अमूर्त्तन का सहारा लेता है। अमूर्त्तन के इस तकनीक को मलयज ने अपनी काव्य-आलोचना में विस्तार से जगह दी है। कुँवर नारायण की यह कविता इसी गहरे तनाव से निकलती है –

 

कितना अजीब है
अपने ही सिरहाने बैठ कर
अपने को गहरी नींद में सोते हुए देखना।’ 


दरअसल, स्वयं को गहरी नींद में सोते हुए देखना, अपने भीतर की दुनिया में झाँकना होता है।  सोते हुए स्वयं को देखने का मतलब हुआ, जागते हुए देखी गई दुनिया को विदा कहना। नींद, जागती हुई दुनिया का एक विदा गीत है। जिसमें  भीतर की दुनिया में झाँकना एक असंबद्ध और अनिर्णीत क्रिया है। जहाँ दुःख और सुख के सपने देखता एक शहर होता है। आवश्यक नहीं कि जो रौशनी है वह केवल जीवन को रोशन ही करेगी, वह जला भी सकती है।

 

यह रौशनी नहीं
मेरा घर जल रहा है
मेरे जख्मी पाँवों को एक लम्बा रास्ता निगल रहा है
मेरी आँखें नावों की तरह
एक अँधेरे महासागर को पार कर रही है।’ 



कविता में स्वयं को या स्वयं के जीवन को देखना एक ऐसी अंतर्दृष्टि है जिसमें बाहरी जीवनबोध के जटिल तनाव की सतह की टूट-फुट अंदरूनी जीवनबोध के साथ मिलकर आंतरिक अनुभूति का एक्य निर्मित करती है।





अपने ही सिरहाने बैठ करयह देखना कि 



यह पत्थर नहीं
मेरी चकनाचूर शक्ल का एक टुकड़ा है
मेरे धड़ का पदस्थल
उसके नीचे गड़ा है।’ 



एक खास तरह की काव्य-निष्ठा और अर्थं-निष्ठा है जिसमें शक्ल की टूट-फुट का एक हिस्सा पत्थर है और धड़ नीचे गड़ा हुआ है। टूटते-बिखरते अस्तित्व की यह अनस्तित्व दास्तान हमें काफ्का की कहानी की तरफ भी ले जाती है। कुँवर नारायण के भीतर की गहरी सर्जनात्मकता के ध्रुव में पिस गया, दो कठिन पाटों के बीचका स्वाद है, जब वे लिखते हैं –

 

मेरा मुँह एक बंद तहखाना है। मेरे अंदर
शब्दों का एक गुम खजाना है। बाहर
एक भारी पत्थर के नीचे दबे पड़े
किसी वैतालिक अक्लदान में चाबियों की तरह
मेरी कटी उँगलियों के टुकड़े।  



मुँह का बंद तहखाने में बदलना और शब्दों का एक खजाने के रूप में ढल जाना और जिसकी चाबी वैतालिक अक्लदान में कटी अँगुलियों की तरह होना व्यक्ति का अपने ही भीतर आत्मनिर्वासित हो जाना है। यह गौर करने की बात है कि बाहर की रौशनी से अपने भीतर के अँधेरे से मुक्ति नहीं मिलती। भीतर के अंधेरे से मुक्ति, भीतरी रौशनी से ही संभव है। इसलिए कुँवर नारायण की  सन्नाटे का शोरकविता के उपर्युक्त अंश के साथ मुझे फ़्रांस के कवि शार्ल बौदलेयर (1821-1867) की कविता एक अजीब आदमी का सपनाकी कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है



मैं मर गया था, और भरी प्रभात ज्योति ने
समेट लिया था मुझे अपने में
और क्या ! यही नहीं था?
खेल हो चुका था खतम, और मैं इंतजार करता जा रहा था।

 

कुँवर नारायण की कविता की पारिस्थितिकी में समय और परिवेश की स्थिति तरल है। कविता जिस देह को पहनती है, उसका नक्शा वैश्विक है। कविता में समय और परिवेश के बदल जाने से उत्त्पन्न प्रभाव बहुत देर बाद समझ में आता है। कुँवर नारायण की कविता हमेशा पृथ्वी की यात्रा पर निकली हुई जैसी लगती है। जिन लोगों का परिचय विश्व कविता से थोडा बहुत भी है और वे आक्टोवियो पाज, मलार्मे, शिम्बोर्स्का, रिल्के, नेरुदा, फेदरिको गार्सिया लोर्का, नाजिम हिकमत, कोंस्तान्ती कवाफ़ी, एर्नेस्तो कार्देनाल, फर्नांदो पेसोआ जैसे कवि की कविता से परिचित हैं वे जानते हैं कि कविताएँ जब अपनी यात्रा पर निकलती है तो उसकी भाव-यात्रा का भूगोल किसी खास परिक्षेत्र का भूगोल नहीं लगता बल्कि वह हमारे आस-पास, हमारे ही भीतर का लगता है। कुँवर नारायण की नागरिकता चेतना के असीमसे और वैश्विक भावदशासे निर्मित है इसलिए उनके हर कहन में संजीदगी और ईमानदारी दिखलाई देती है। इस कारण हम जब भी कुँवर नारायण की कविता के पास जाते हैं, जाना चाहते हैं तो एक  अभिसार-बोध के साथ। लेख के अंत में लेख के पहले पृष्ठ पर दर्ज कुँवर नारायण की जख्मकविता में किसी बहुत बड़े प्यार का जख्म...की माँग के साथ उनकी  घर रहेंगे कविता के एक हिस्से को दर्ज करता हूँ, जो हम सब का यथार्थ है -  


घर रहेंगे, हमीं उनमें रह पाएँगे :
समय होगा, हम अचानक बीत जाएँगे :
अनर्गल ज़िन्दगी ढोते किसी दिन हम
एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जाएँगे


(बहुवचन के हालिया अंक से साभार.)
 

 
अमरेन्द्र कुमार शर्मा

सम्पर्क –


अमरेन्द्र कुमार शर्मा
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा

मोबाईल - 8765480535 

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