सुशान्त सुप्रिय की कहानी ‘नास्तिक’।
सुशान्त सुप्रिय |
धर्म का समूचा कारोबार आस्था, भय और अंधविश्वासों पर ही टिका होता
है। दुनिया के हर धर्म की यही कहानी है। विकास क्रम में जब मनुष्य प्रकृति में घट
रहे घटनाओं का कोई तार्किक जवाब नहीं पाता था तो उस घटना से वह किसी अलौकिक शक्ति
का सम्बन्ध जोड़ देता था। सूरज, पृथ्वी, चाँद से ले कर चन्द्र ग्रहण और सूर्यग्रहण
के बारे में तमाम कहानियाँ मिथक के रूप में इसी समय गढ़ी गयीं। समाज के प्रबुद्ध
वर्ग ने इन अंधविश्वासों का फायदा उठाया और इसे अपनी रोजी रोटी के साधन से जोड़
लिया। यहाँ तक कि राजाओं ने भी इस धर्म का सहारा ले कर अपने को देवता घोषित कर
लिया और निरंकुश रूप से शासन चलाने लगे। तब से ले कर आज तक धर्म का कारोबार अबाध
रूप से चालू है। विज्ञान ने धर्म के सामने चुनौतियाँ प्रस्तुत कीं। लेकिन आज भी
समाज का एक बड़ा हिस्सा धर्म के नाम पर शोषण का शिकार होने के लिए अभिशप्त है। जो
इस सच को उजागर करने का प्रयास करते हैं उन्हें या तो जहर पिला दिया जाता है या
जिन्दा जला दिया जाता है। सुशांत सुप्रिय ने इस धर्म को ही कहानी का आधार बना कर ऐसे
सच को सामने रखने का प्रयास किया है जो हमारे समय की एक बड़ी विडम्बना है। ठगे जाने
के बावजूद हमारे यहाँ की धर्म भीरु जनता देवी देवताओं के दलाल पुरोहितों और बाबाओं
के चक्कर में फंस कर अपना सब कुछ गँवाने के लिए जैसे आज भी अभिशप्त है। तो आइए आज पहली
बार पर पढ़ते हैं सुशान्त सुप्रिय की कहानी ‘नास्तिक’।
नास्तिक
सुशांत सुप्रिय
शुक्रवार की शाम थी। ढलती हुई धूप बादलों के बीच लुका-छिपी खेल रही थी। मैं दफ़्तर से निकल कर आकाशवाणी
के बस-स्टॉप की ओर चल दिया। बस-स्टॉप पर भीड़ कुछ ज़्यादा ही थी। भीड़
में कुछ जाने पहचाने चेहरे थे। उन से अभिवादन का आदान-प्रदान हुआ। इस बीच हाँफ़ती-कराहती हुई कई बसें
आईं।
अपना कुछ बोझ भीड़ में उगल कर, भीड़ का एक अंश निगल कर वे आगे बढ़ गईं। मैं अपने घर तक जाने वाली बस
की प्रतीक्षा में खड़ा था। सोच रहा था, काफ़ी अरसे से कोई कहानी
नहीं लिखी है।
तभी पास-ही शोर-सा हुआ। उधर देखा तो बीच सड़क पर आकाश से एक चील आ गिरी थी। उसके इर्द-गिर्द एक काला साँप
लिपटा हुआ था। दोनों में घमासान मचा हुआ था।
जल्दी ही ट्रैफ़िक युद्ध-रत साँप और चील के अग़ल-बगल से गुज़रने लगा।
गुत्थम-गुत्था साँप और चील के चारो ओर तमाशबीनों का घेरा लग गया। मैं भी उन
में जा शामिल हुआ।
कभी साँप का पलड़ा भारी होता तो कभी चील का। जीवन-मरण का प्रश्न था। जितने
मुँह, उतनी बातें।
"यह चील नहीं, बाज़ है बाज़। साँप को मार डालेगा।"
"अरे नहीं, यह तो चील ही है। लेकिन वह साधारण साँप नहीं, काला नाग है। उसका फ़न नहीं देखते? नाग के सामने चील की एक नहीं चलेगी।"
देखते-ही-देखते भीड़ की सहानुभूति दो हिस्सों में बँट गई। कुछ लोग चील के पक्ष
में हो गए। बाक़ी साँप का पक्ष लेने लगे।
भीड़ में कुछ सटोरिए भी आ पहुँचे।
"सौ-सौ की शर्त लगा लो, सौ-सौ की। नाग जीतेगा। "
"लगी शर्त। बाज़ जीतेगा।"
भीड़ में खड़ी एक बूढ़ी महिला बोली- "अरे बेटा। कोई इन्हें अलग करो, नहीं तो दोनो मर जाएँगे।"
किसी ने कहा - "माता जी, हम इन्हें अलग करने गए तो ये हमें ही काट खाएँगे।"
एक आवाज़ आई - "बड़े डरपोक हो तुम। "जवाब मिला - "तुम बड़े तीसमार-खाँ हो तो तुम्हीं इन्हें हाथ लगाओ। हम भी तो देखें तुम्हारी मर्दानगी।"
जब साँप का पलड़ा भारी होने लगा तो भीड़ में खड़े एक साधू बाबा
ने जयकार लगाई -- "बम-बम भोले! नाग देवता की जय हो।"
जब चील विजयी होने लगी तो भीड़ में से आवाज़ आई - "यह तो भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ है। यह तो साँप को छोड़ेगा नहीं।"
सटोरिए लोगों से रुपए इकट्ठे करने में लगे थे। भीड़ में जो लोग चील
के पक्षधर थे उनके चेहरों पर विजेता की मुस्कान थी। साँप का पक्ष लेने वालों के चेहरे
लटके हुए थे।
शायद किसी खिन्न व्यक्ति ने अपनी खीझ उतारने के लिए एक पत्थर उठा कर
एक बस के शीशे पर दे मारा। शोर मच गया। लोग इधर-उधर भागने लगे।
तभी दो ट्रैफ़िक-पुलिस वाले भीड़ और शोर-शराबा देख कर वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखते ही सटोरिए खिसक लिए। भीड़ तितर-बितर होने लगी। भीड़
में से बस पर पत्थर किसने मारा था, यह पता नहीं चल पाया। किसी ने क्षत-विक्षत साँप को उठा
कर बस-स्टॉप के बगल में फुटपाथ पर डाल दिया।
मेरे घर तक जाने वाली बस आ गई थी। धक्के खाता मैं बस में चढ़ गया
और बस चल दी।
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दो दिन बाद सोमवार शाम को दफ़्तर से निकल कर घर जाने के लिए जब मैं आकाशवाणी के
बस-स्टॉप पर पहुँचा तो वहाँ का नज़ारा देख कर मैं दंग रह गया।
शुक्रवार शाम बस-स्टॉप के बगल में फुटपाथ पर जहाँ क्षत-विक्षत साँप को डाला
गया था वहाँ एक छोटा-सा पक्का मंदिर बन गया था। मंदिर के चारों ओर की दीवारों पर सफ़ेद टालें लगी हुई
थीं। मंदिर में शिवलिंग स्थापित था। साथ में नाग-देवता का एक बड़ा-सा चित्र था जिस पर
फूल-माला टँगी थी ।
मंदिर में वही साधू बाबा घंटी बजा कर पूजा-अर्चना कर रहे थे जिन्होंने
शुक्रवार की शाम को चील को पत्थर मारा था। बाहर कुछ महिलाएँ शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए
लोटों में दूध लिए लाइन में खड़ी थीं। कुछ 'भक्त-जन' भी गेरुए वस्त्रों में
बाहर खड़े थे। मंदिर के बगल में एक
फूल-वाला फूल-मालाएँ बेच रहा था और एक मिठाई-वाला बूँदी के लड्डू बेच रहा था। मंदिर
के बगल में ही एक ताज़ा पेंट किया गया साइन-बोर्ड भी लगा था जो सभी को सहर्ष सूचित कर रहा
था कि इस मंदिर का शिलान्यास शनिवार को नगर-निगम के पार्षद श्री क ख ग के कर-कमलों से हुआ।
मैंने एक गेरुआ वस्त्र-धारी से पूछा - "भाई साहब, यह सब क्या है?"
"आपको नहीं मालूम? ये साधू बाबा बनारस के पहुँचे हुए महात्मा जी हैं। इन्हें दो रात पहले
सपना आया कि यहाँ एक शिवलिंग गड़ा है। और यहाँ नाग-देवता का वास है। यहाँ पूजा कर के मन्नत
माँगने से मुराद पूरी होती है।"
मुझ से रहा नहीं गया। मैंने कहा - "क्या बात करते हो? शुक्रवार शाम को मैं यहीं था। यहाँ एक चील ने एक साँप को मार डाला था।
साँप की लाश यहीं फुटपाथ के किनारे डाल दी गई थी। यह साधू बाबा भी यहीं चील को पत्थर मार रहे थे ..."
इससे पहले कि मैं और कुछ कहता, वह गेरुआ वस्त्र-धारी गुस्से से काँपते
हुए बोला - "नास्तिक कहीं के!"
मैंने उस व्यक्ति से बहस करना ठीक नहीं समझा। आप अंधे को रास्ता दिखा
सकते हैं पर यदि कोई आँखें रहते हुए भी न देखना चाहे तो उसे आप क्या दिखाएँगे।
मैंने बस पकड़ी और घर आ गया।
घर पहुँच कर देखा तो श्रीमती जी नहा-धो कर लोटे में दूध लिए तैयार खड़ी थीं।
"सुनते हो, पडोसनें कह रही हैं कि आकाशवाणी के बस- के पास एक नया मंदिर
बना है। बनारस के एक पहुँचे हुए महात्मा जी आए हैं। कहते हैं, वहाँ जो मन्नत माँगो, पूरी हो जाती है। तुम
तो जानते हो, अपने पड़ोसी शर्मा जी का प्रोमोशन कई सालों से रुका पड़ा था। आज सुबह
ही मिसेज़ शर्मा ने उस मंदिर में पूजा की और मन्नत माँगी। और दोपहर में ही शर्मा जी
का प्रोमोशन हो गया। अपने टुन्नू की कल दसवीं की परीक्षा है। सो मैं भी वहाँ माथा
टेक आती हूँ। तुम चलोगे क्या?"
"तुम हो आओ। मुझे कहानी लिखनी है। मैं पूजा-घर में माथा टेक लूँगा" – मैंने हँस कर कहा।
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