मुक्तिबोध पर आलोचक जीवन सिंह से महेश चंद्र पुनेठा की बातचीत
मुक्तिबोध |
वर्ष 2017 को हिन्दी साहित्य जगत ने मुक्तिबोध के जन्म शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया। इस क्रम में वर्ष भर अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने मुक्तिबोध पर विशेष अंक निकाले और देश भर की साहित्यिक संस्थाओं ने विभिन्न आयोजन किए। हमने 'पहली बार' ब्लॉग पर भी नियमित रूप से मुक्तिबोध पर खास आलेख और साक्षात्कार देने की पहल की थी। उसी श्रृंखला में हम एक विशेष साक्षात्कार भी देना चाहते थे। जिसे कवि महेश चन्द्र पुनेठा ने आलोचक जीवन सिंह से लिया था। यह साक्षात्कार काफी लंबा है और कहना न होगा कि महेश जी ने इस पर काफी परिश्रम किया है। जीवन सिंह से महेश के इस लम्बे साक्षात्कार को अगर 'मुक्तिबोध वर्ष' की उपलब्धि कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज पहली बार के पाठकों के लिए हम इस लम्बे साक्षात्कार के एक अंश को प्रस्तुत कर रहे हैं। यह साक्षात्कार हमने 'समकालीन जनमत' से साभार लिया है। तो प्रस्तुत है यह विशिष्ट साक्षात्कार।
मुक्तिबोध पर आलोचक जीवन सिंह से महेश चंद्र पुनेठा की बातचीत
मुक्तिबोध मेहनतकश की आजादी के पक्षधर हैं शोषक
वर्ग की नहीं
डॉ. जीवन सिंह
(डॉ. जीवन सिंह हिन्दी के प्रतिष्ठित, प्रतिबद्ध और ईमानदार आलोचक हैं। अलवर राजस्थान में रहते हैं। अब तक
आलोचना की तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। पहली किताब ‘कविता की लोक प्रकृति’ नाम से प्रकाशित हुई। दूसरी किताब ‘कविता और कवि कर्म’ बहुत चर्चित रही।
तीसरी किताब ‘शब्द और संस्कृति’ में भक्तिकालीन
कवियों के अलावा साहित्य और संस्कृति पर बहुत जरूरी आलेख संकलित किए गए हैं।
लोकधर्मी कविता के लिए जाने-जानी वाली पत्रिका ‘कृति ओर’ में वह निरंतर लिखते रहे। अलीबख्शी ख्याल और मेवाती लोक
संस्कृति पर गहरी पैठ रखते हैं। अपने गांव जुरहरा (भरतपुर) की रामलीला में पिछले
पैंतालीस वर्षों से जुड़ाव और रावण का अभिनय करते रहे हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी
उदयपुर के सर्वोच्च ‘मीरा पुरस्कार’ से पुरस्कृत और ब्रजभाषा अकादमी से
सम्मानित। 1968 से 2004 तक राजस्थान के विभिन्न राजकीय कालेजों में अध्यापन करते
रहे। प्रस्तुत है उनसे फेसबुक के माध्यम से हुई लंबी बातचीत के कुछ अंश)
महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध के समय
बहुत सारे आधुनिकतावादी कवि यह कहते हुए पाए जाते थे कि जनवाद, समाजवाद भीड़ की
मनोवृति के परिचायक हैं। जुलूस, हड़ताल आदि राजनीतिक सामूहिक कार्य गलत हैं। जनता
ढोर है, वह पशु है, क्योंकि वह नेताओं के बहकावे में आती है क्योंकि उसमें स्वतन्त्र
निर्णय करने की शक्ति नहीं है। इस पर आपका क्या कहना है?
जीवन सिंह- मैं इस तरह की धारणाओं को गलत मानने
के साथ-साथ इनका विरोध करता हूँ। यह जनवाद ही तो है जो हमको सामंती प्रवृत्तियों
से बचाए हुए है। आज इस जनवाद को ही चारों तरफ से घेर कर एक नयी तरह के फासीवाद की
तरफ धकेल कर ले जाने की कोशिशें संस्कृति के नाम से राजनीति और अर्थ नीति के स्तर
पर की जा रही हैं। इसलिए जनवाद की रक्षा आज की पहली आवश्यकता है। रही समाजवाद की
बात, जनवाद यदि सुरक्षित है और वह लगातार परिपक्व होता है तो अगली सीढ़ी समाजवाद की
ही होगी। लेकिन आज जब जनवाद पर ही संकट के बादल मँडरा रहे हैं तो समाजवाद अभी दूर
की बात है। सच तो यही है कि पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प यदि कोई है तो वह
समाजवादी व्यवस्था ही हो सकती है।
जनवाद और उससे अगली सीढ़ी समाजवाद भीड़ की
मनोवृत्ति के सूचक नहीं हैं। मुक्तिबोध ने अपनी डायरी में इस बात को साफ करते हुए
स्पष्ट शब्दों में कहा है,
‘कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यह जानता है कि एक स्थान में एकत्र संगठित
जनता भीड़ नहीं है, क्योंकि वह संगठित है। जहाँ संगठन है
वहाँ एक प्रेरणा और एक उद्देश्य भी है। जहाँ एक प्रेरणा और उद्देश्य है, वहाँ एक
स्फीत और सक्रिय चेतना है। देश-विदेश के पिछले इतिहास में हमें यह सूचित होता है
कि संगठित जनता ने असाधारण कार्य किए हैं।’
सत्ता के प्रतिरोध में संगठित जनता ने ही जुलूस,
हड़ताल और अनशन जैसे विभिन्न संघर्ष-रूपों का आविष्कार किया है। ये लोकतांत्रिक
प्रतिरोधों के अनुसार विकसित हुए हैं। इनके माध्यम से जनभावनाओं की अभिव्यक्ति
होती है। यही कारण है कि दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों में जनता अपनी भावनाओं
और आकांक्षाओं को इन्हीं माध्यमों से व्यक्त करती है। मुक्तिबोध उन
आधुनिकतावादियों के विचारों को उद्धृत करके उनकी काट प्रस्तुत करते हैं। वे तो
मानते ही यह हैं कि सामान्य जन और मेहनतकश के पास ही ईमान का डंडा और अभय की गैंती
और तगारी है जिससे आत्मा के नये भवन बनाए जा सकते हैं।
महेश चंद्र पुनेठा- समाजवाद में व्यक्ति के
स्थान पर समाज को अधिक महत्व दिया जाता है। एक व्यक्ति को क्या करना है यह भी समाज
तय करता है। जबकि मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का समर्थन करते हैं। उनका मानना
है कि व्यक्ति स्वातंत्र्य कला के लिए, दर्शन के लिए, विज्ञानं के लिए अत्यधिक
आवश्यक और मूलभूत है। यह कैसा अन्तर्विरोध है?
जीवन सिंह- मुक्तिबोध व्यक्ति और समाज में इकतरफा
रिश्ता मानने के स्थान पर इन दोनों का द्वन्द्वात्मक रिश्ता मानते हैं। समाज अपनी
जगह पर महत्वपूर्ण होता है किन्तु जीवन के अनेक क्षेत्रों का नेतृत्व करने में
व्यक्ति की भूमिका भी कम महत्व की नहीं होती। मार्क्स, गांधी, लेनिन, भगत सिंह, आइंस्टीन,
प्रेमचंद आदि व्यक्ति ही थे, जो
समाज के लिए अपना सब कुछ त्याग कर जीवन संग्राम में उतरे, जिन्होंने समाज की दिशा बदलने का काम
किया। यहाँ व्यक्ति की सामाजिक भूमिका स्पष्ट हो रही है। क्या व्यक्ति की इस
भूमिका को नकारा जा सकता है। मुक्तिबोध इसी अर्थ में समाज के साथ व्यक्ति की
भूमिका को कम आ्ँक कर नहीं चलते। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वे व्यक्तिवाद के
समर्थक हैं। व्यक्ति की भूमिका और व्यक्तिवाद में जमीन-आसमान जैसा फर्क होता है।
महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के समर्थक थे लेकिन उनका कहना था कि मुनाफाखोरों और
उत्पीड़कों के व्यक्ति स्वातंत्र्य के लक्ष्य और जनता के व्यक्ति स्वातंत्र्य के
लक्ष्य में अन्तर है। यह अन्तर किस तरह का है? कुछ प्रकाश डालिए।
जीवन सिंह- स्वाधीनता के बिना सृजन संभव नहीं
होता। होता भी है तो वह पराधीनता की परिधि से बाहर नहीं निकल पाता। इसलिए व्यक्ति
स्वातंत्र्य जरूरी होता है अन्यथा सचाई को व्यक्त कर पाना संभव नहीं होता। लेकिन
मुक्तिबोध का स्पष्ट कहना था कि स्वतन्त्रता का अर्थ इस बात में है कि समाज में
उसका क्या उपयोग किया जा रहा है और जन-कल्याण तथा मानव-उत्थान के लिए उसे कौन सी
दिशा में ले जाया जा रहा है। वे मुनाफाखोरी करने वाली या किसी का भी शोषण-उत्पीड़न
करने वाली स्वतन्त्रता का बेहिचक विरोध करते हैं। उनकी एक कविता है, ‘जमाने का चेहरा’ यह
कविता कहीं से भी दुर्बोध नहीं है। इसमें वे साम्राज्यवादी उत्पीड़कों और
मुनाफाखोरों का विरोध करते हुए कहते हैं-
‘फल-पुष्प-भारमय
वृक्षों की हरी भरी
शाखाओं पर बैठे हैं वानर व वन-बिलाव
साम्राज्यवादियों का वास्तविकता व वह
भविष्य को बढ़ने ही नहीं देगा जब तक
कि उसका न नाश हो
इसी सोच-सोच में
लिखता जाता हूँ
कविता की पंक्तियाँ।’
पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था जहाँ भी हैं
अपनी मुनाफाखोरी के लिए आजादी की बात करती हैं किन्तु ये ही मेहनतकश की आजादी पर
लगाम लगाती हैं। इसलिए वे मेहनतकश की आजादी के पक्षधर हैं शोषक वर्ग की आजादी के
नहीं।
मेहनतकश की आजादी से उस लेखक की आजादी
निर्धारित होती है जो उसके पक्ष में लिखता है और शोषक-उत्पीड़क वर्ग का विरोध करता
है। लेकिन जिस व्यवस्था में मेहनतकश वर्ग की आजादी पर अंकुश लगा दिया जायगा तो यह
रचनात्मकता पर भी प्रकारान्तर से अंकुश होगा, जिसे मुक्तिबोध स्वीकार नहीं करते।
वे रचना के संदर्भ में किसी भी तरह के रेजीमेंटेशन के विरोधी हैं। मुनाफाखोर के
स्वातंत्र्य में शोषण होता है जबकि श्रमिक स्वातंत्र्य में रचनात्मकता की
संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध का
व्यक्ति-स्वातंत्र्य अज्ञेय के व्यक्ति स्वातंत्र्य से किस रूप में भिन्न है?
जीवन सिंह- व्यक्ति-स्वातंत्र्य प्रयोजन और परिस्थिति
में भिन्न स्वरूप ग्रहण कर लेता है। एक व्यक्ति का व्यक्ति-स्वातंत्र्य सिर्फ और
सिर्फ अपने निजी लाभ और स्वार्थ-पूर्ति के लिए होता है उसे समाज और दूसरे लोगों के
हितों से ज्यादा लेना देना नहीं होता। दूसरा व्यक्ति वह होता है जो सामाजिक हितों
के प्रयोजन से व्यक्ति-स्वातंत्र्य की माँग करता है। अज्ञेय और मुक्तिबोध की
व्यक्ति-स्वातंत्र्य की धारणाओं में यही अन्तर है। अज्ञेय की धारणा का सम्बन्ध
निजी स्वातंत्र्य से है जबकि मुक्तिबोध की धारणा का सामाजिक हितों के लिए काम में
आने वाली स्वतन्त्रता से। इसीलिए वे ‘अँधेरे में’ कविता के इस अंश में साफ-साफ
कहते हैं-
कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,
स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी छल नहीं सकता
मुक्ति के मन को, जन को।
इसी वजह से नई कविता आन्दोलन में स्वतन्त्रता
के बारे में जो बातें अज्ञेय और उनके शिविर द्वारा उठाई गयीं थीं, कि समाजवादी
व्यवस्था व्यक्ति-स्वातंत्र्य की सबसे बड़ी दुश्मन होती है तब मुक्तिबोध ने इस तरह
की पक्षपातपूर्ण बातों का बिन्दुवार जवाब दिया था। तब उन्होंने यह भी कहा था कि
कोई व्यवस्था सम्पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं देती। ‘सम्पूर्ण स्वतन्त्रता कहने भर की बात है।’ सामाजिक प्रतिबंध हर
व्यवस्था लगाती है। देखने की बात यह है कि व्यक्ति-स्वातंत्र्य की जो सीमा बाँधी
गई है। वह मानव मूल्यों और मानव मुक्ति के लक्ष्यों के अनुकूल है या प्रतिकूल। यही
फर्क है अज्ञेय और मुक्तिबोध की व्यक्ति-स्वातंत्र्य सम्बंधी धारणाओं और उनके
व्यवहार में।
महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध लेखक
और कलाकार की स्वतन्त्रता को समाज-सापेक्ष या समाज-स्थिति-सापेक्ष मानते हैं। क्या
यह एक तरह से लेखक और कलाकार की स्वतन्त्रता में कुछ प्रतिबन्ध स्वीकारना तो नहीं
है? क्या आपको लगता है कि किसी
समूह या संगठन का हिस्सा रहते हुए एक लेखक अपनी स्वतन्त्रता को बनाए रख सकता है?
जीवन सिंह- इस सम्बन्ध में मुक्तिबोध की
मान्यता को ही समझना चाहिए। उनके एक लम्बे निबंध ‘समाज और साहित्य’ में
उन्होंने कहा है, “प्रत्येक युग, अपनी सामाजिक-ऐतिहासिक
स्थिति की अनुभूत आवश्यकता के अनुसार अपना साहित्य निर्माण किया करता है।” उन्होंने
साहित्य और कला में मूल्यवान क्या होता है जैसे प्रश्न को समाज के साथ
काल-सापेक्ष्य मानते हुए कहा है कि यदि हम सम्पूर्ण मानव समाज के विकास क्रम को
देखें तो पायेंगे कि मनुष्य समाज ने प्रत्येक नवीन समाज रचना में पूर्वकालीन
समाज-रचना से अधिक स्वतन्त्रता पायी है। स्वतन्त्रता जिस तरह से समाज और
काल-सापेक्ष्य होती है उसी तरह वह व्यक्ति-सापेक्ष्य भी होती है। यह बात एक लेखक
को ही सुनिश्चित करनी होती है कि वह प्रदत्त स्वतन्त्रता का उपभोग कैसे करता है? वह अपनी ऐतिहासिक, सामाजिक स्थिति की आवश्यकताओं के
अनुसार अपने प्रधान विषय चुनता है। इन विषयों में वह तत्कालीन मानव सम्बन्ध, विश्व
दृष्टि और जीवन मूल्यों को व्यक्त करता है। अब यह लेखक की अपनी मूल्य दृष्टि और
वर्गीय जीवनानुभवों की ग्राहकता से तय होता है कि उसने प्राप्त स्वतन्त्रता का
कितना और किस तरह से उपयोग किया है। ऐसे भी लेखक होते हैं जो प्राप्त स्वतन्त्रता
का पूर्ण उपभोग करने से साहित्येतर कारणों से नहीं कर पाते। देश को आजादी मिलने के
बाद पहले के कई लेखक ऐसे थे जिन्होंने अपनी दिशा और दृष्टि दोनों को बदल लिया था।
तब भी नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार और मुक्तिबोध सरीखे लेखकों ने अपनी घोर उपेक्षा
सह कर तत्कालीन स्थितियों से समझौता नहीं किया और प्राप्त स्वतन्त्रता का अपनी
दृष्टि और मूल्य विवेक के अनुसार उपयोग किया।
किसी लाभ-लोभ से लेखक स्वयं अपनी स्वतन्त्र
स्थिति पर सेंसर लगा लेता है या उसके अनुभव संसार की परिधि उसके आकार को स्वयं
छोटा कर देती है। मध्य वर्ग के लेखक जो लोक की बात करते हैं, वे भी लोक के
दुख-दर्द की बात तो करते हैं और श्रम करते हुए लोक के सौन्दर्य का आख्यान भी रचते
हैं किन्तु कोई अपवादस्वरूप ही उन कारणों का तथ्यपूर्ण विश्लेषण कर पाता है, जिसकी वजह से उसके दुख-दर्दों की अनन्त
श्रृंखला सी चलती रहती है। उनमें स्वयं मध्य-वर्ग की स्थिति और वास्तविक भूमिका का
शायद ही उसे कोई ऐसा बोध रहता है कि जो उन स्थितियों को बदलने में एक ईमानदार
भूमिका अदा कर सके। यह स्वयं लेखक पर ही निर्भर करता है कि वह प्राप्त स्वतन्त्रता
का उपयोग किस उद्देश्य से करता है। लेखक संगठन और समूह में रहते हुए भी
लोकतांत्रिक स्थिति में कोई ऐसी पाबंदी नहीं होती कि वह अपनी स्वाधीनता का उपयोग न
कर सके। समाज भी एक समूह ही होता है जिसके द्वारा लगाई गई अनेक तरह की पाबंदियों
के भीतर रहते हुए भी यह व्यक्ति और उससे निर्मित कोई समूह ही होता है जो अमानवीय
स्थितियों के विरुद्ध वातावरण बना कर एक दिन उनको तोड़ डालता है।
महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतन्त्रता
में अन्तरात्मा के कठोर नियमों के अनुशासन की बात भी करते हैं। उनका मानना है कि
इस अनुशासन के बिना व्यक्ति स्वातंत्र्य निरर्थक और विकृति हो जाता है, खोखला हो जाता है। यह अन्तरात्मा के
कठोर नियमों के अनुशासन से उनका क्या आशय है? यह
किस प्रकार संभव है?
जीवन सिंह- लेखक की अन्तरात्मा एक दिन में नहीं
बनती। वह निरन्तर बदलती और विकसित होती है। वह एक जगह पर स्थिर और जड़ नहीं होती।
इस बारे में उनकी एक कविता है ‘अन्तःकरण का आयतन’, जिसके बारे में वे बतलाते हैं
कि यह संक्षिप्त होता है। मनुष्य की बुद्धि इतनी कम है और उसके सामने यथार्थ इतना
विस्तृत और उलझा हुआ है कि उसे केवल एक लेखक अपनी सीमित ज्ञान प्रक्रिया से नहीं
जान सकता। इसलिए उसे सम्पूर्ण जगत की ज्ञान और भाव प्रक्रिया में शामिल होने और
रहने की जरूरत होती है तभी वह उसका सर्वश्लेषी आकलन करने में समर्थ हो पाता है।
उनके लिए अन्तरामा का प्रश्न उनकी या एक लेखक की अपनी आत्मा का सवाल नहीं है। इसका
सम्बन्ध सम्पूर्ण जगत और उसकी स्थितिजन्य वास्तविकताओं से है, जिनको विश्व ज्ञान
परम्परा में जा कर समझना पड़ता है। इसीलिए एक व्यक्ति की अन्तरात्मा का आयतन
संक्षिप्त ही रहता है। उसके विस्तृत करने की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है। उसे
राष्ट्रीय परिधियों में सीमित ज्ञान से भी आगे विश्व ज्ञान परम्परा में शामिल होने
की जरूरत होती है। तभी असल में अन्तरात्मा का प्रयोजन पूरा हो पाना संभव है। वे
संसार से असावधान रहने वाले लेखक के बारे में यह भी बतलाते हैं कि मनुष्य कभी कभी
अपने ही बनाए जाल में फँस जाता है और अपनी अन्तरात्मा के प्रयोजनों के मार्ग से
स्वयं ही हट जाता है और अपने जीवन में तरह तरह के समझौतों का शिकार हो कर अपना
रास्ता तक बदल लेता है। इस तरह के समझौतों से उसका व्यक्तित्व नपुंसक हो जाता है।
यही अन्तरात्मा का कठोर अनुशासन है कि वह
समझौताविहीन जिन्दगी जीता हुआ न केवल अपने अन्तःकरण के आयतन का विकास करे वरन इस
प्रक्रिया को कभी शिथिल न होने दे। यह संसार लेखकों द्वारा बनाया हुआ नहीं है
बल्कि यह अपनी गति से चलता है। लेखक को पहले इसके सत्य को जानना पड़ता है। चूंकि आज
का संसार अपनी गति को बहुत तेज कर चुका है इसलिए उसे समझने के लिए लेखक को भी उसी
तरह की तैयारियों की जरूलत होती है। यही है उनके कठोर अनुशासन की प्रक्रिया। यह
संसार कितने ही तरह के प्रलोभन पाशों में लेखक को फँसाता है जिससे वह अपना मार्ग
बदल ले। वैसे भी अधिकांश लेखक यश पाने और धन अर्जित तक ही सीमित हो कर रह जाते
हैं। इस वजह से भी कठोर अनुशासन की आवश्यकता होती है।
चूंकि इस संसार में किसी का भी व्यक्ति स्वातंत्र्य
खरीदा जा सकता है और इसे बेचा भी जा सकता है। जो आजकल खूब हो रहा है। इससे लेखक के
‘अन्तःकरण का आयतन’ विस्तृत होने के बजाय सिकुडता जाता है और एक लेखक के रूप में
वह शीघ्र ही मृत्यु का शिकार हो जाता है या फिर एक समय की ढर्रे प्राप्त बातों को
ही आजीवन दुहराता रहता है। उसके विकास की प्रक्रिया एक जगह आ कर दम तोड़ देती है
लेकिन वह अपनी ही बात पर अड़ा रहता है। वे यह भी मानते हैं कि जो व्यक्ति
स्वातंत्र्य समाजवाद और जनतन्त्र के समन्वय में बाधक हो या इन दोनों में से किसी
भी एक का उत्सर्ग करने के लिए उत्सुक हो, ऐसे
व्यक्ति स्वातंत्र्य की वे निन्दा करते हैं और इसे वे तिरस्करणीय मानते हैं। वे
कहते हैं कि ‘समाजवाद, जनता की, जनसाधारण की मुक्ति का राजपथ है।’ लेखक का यह प्रयोजन उसके
अनुशासित व्यक्ति स्वातंत्र्य, विश्व ज्ञान प्रक्रिया में उसकी ईमानदार संलग्नता
और अपनी समृद्ध होती हुई संवेदनात्मक प्रक्रिया तथा तदनुरूप आचरण से ही संभव है
महेश चंद्र पुनेठा- यह बात बिलकुल
सही है कि एक लेखक समझौताविहीन जिंदगी जीता हुआ न केवल अपने अन्तःकरण के आयतन का विकास करे वरन
इस प्रक्रिया को कभी शिथिल न होने दे। निश्चित रूप से यह कठोर अनुशासन है. आपको
क्या लगता है आज का कवि-लेखक इस कठोर अनुशासन का पालन कर पा रहा है? आपके पास कुछ उदाहरण हों तो
जरूर उल्लेख कीजिएगा।
जीवन सिंह- आज के अधिकाश लेखक उस मध्य वर्ग से
आते हैं जो धीरे-धीरे नव धनाढ्य वर्ग में शामिल हो रहे हैं। उनके पास जिन्दगी की
वे सभी उच्चतर सुविधाएं मौजूद हैं जो कभी उच्च वर्ग के पास हुआ करती थी। इसके साथ
वह निम्न मध्यवर्गीय लेखक भी है जो औसत जिन्दगी में संतोष कर लेता है। इस तरह का
वर्ग विभाजन उनकी संवेदना भूमि की परिधि को तय करता है क्योंकि जिन बातों का कभी
अनुभव ही लेखक को नहीं हुआ, उनको वह रचना में कैसे ला सकता है। अखबारी अनुभव भी
बहुतों को होते हैं जैसे किताबी ज्ञान से होता है। किन्तु क्या कबीर की यह बात आज
भी सच नहीं है कि पोथी पढ़ने मात्र से कोई पंडित नहीं होता। पंडित होने के लिए जीवन
संग्राम में उतरना जरूरी है। जितनी दूर तक जो उतरेगा, उसकी रचना भी उतनी ही दूर तक
उसका साथ देगी। रचना कर्म की पहली सीढ़ी इन्द्रियबोध है, जिस से उसके जीवनानुभव समृद्ध होते
चलते है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और लेखक के लिए सबसे ज्यादा काम की यही सीढ़ी है।
इसी के ऊपर रचना का भवन निर्मित होता है। इन्द्रियाँ ही उसे बतलाती हैं कि जिन्दगी
के सबसे निचले धरातल पर क्या चल रहा है। ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ दोनों
मिल कर रचना की आधार भूमि का निर्माण करती हैं क्योंकि यथार्थ और क्रूर एवं कठोर
वास्तविकताओं को प्रामाणिक तौर पर मालूम करने का कोई दूसरा जरिया नहीं होता। इन
सवालों पर विचार करते हुए जब आज के रचनाकार और उसके रचना संसार को देखते हैं तो
बहुत कम लोग ऐसे दिखाई देते हैं जो अपना लेखन पूरी ईमानदारी और तैयारी के साथ कर
रहे हैं। अधिकांश लेखक तो अपनी अस्तित्वगत मजबूरियों के चलते इसे सहलेखन की तरह
करते हैं। यानी आजीविका से अलग।
पिछले पच्चीस सालों से जिस तरह की नई भौतिक
परिस्थितियाँ पूरे विश्व और अपने देश में बनी हैं उनमें मध्य-वर्ग में भी अलगाव की
प्रक्रिया बहुत तीव्र हुई है जो एक तरफ व्यक्तिवादी दर्शन की राह दिखाती है, साथ ही आत्म-मुग्धता को भी बढ़ाती है।
इससे तेजी से लेखक की सक्रिय और व्यवहारगत सामाजिकता का तेजी से क्षरण हुआ है।
उसका मूल्य पक्ष भी दुर्बल हुआ है। धीरे धीरे उद्देश्यों ने भी दिशा बदल ली है।
कुल मिला कर आज के लेखक के लिए रचना कर्म करना और अपने सिद्धांत पर टिके रहना तथा
नए यथार्थ को समझ पाना पहले से मुश्किल हुआ है। मौकापरस्त लेखकों की बाढ सी आ गई
है।
महेश चंद्र पुनेठा- साहित्यकारों की
नयी पीढ़ी में इस दृष्टि से आपको क्या संभावना दिखाई देती है?
जीवन सिंह- संभावना हर युग में होती हैं। किस
का क्या पता कि कब कौन अपनी साहित्य-साधना और जीवन-साधना को एकरूप कर ले। यद्यपि
मौजूदा स्थितियों और परिस्थितियों में ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है।
सुख-सुविधाएं इतनी अधिक हो गई हैं और मध्य वर्ग के लिए अब जीवनयापन करने जैसी
कठिनाई भी लगभग समाप्त हो गई है। दूसरी तरफ निम्न मेहनतकश की मुश्किलें ज्यादा बढ़
जाने से मध्य और निम्न-वर्ग में अलगाव और फासला दोनों ही बहुत बढ़ गये हैं। इस वजह
से मध्य-वर्ग से आने वाले लेखक समुदाय के ‘अन्तःकरण का आयतन’ विस्तृत होने के बजाय
सिकुडने की स्थितियों में आ गया है। ऐसी स्थिति में ज्यादातर लेखक अपने सीमित
अनुभवों में ही शिल्पगत वैशिष्टय के माध्यम में या अपने एक ही क्षेत्र के अनुभवों
से प्राप्त बारीकियों को उकेरने तक ही सीमित रहने का खतरा उत्पन्न हो गया है। इससे
कला के आयाम तो विकसित अवश्य होते हैं किन्तु साहित्य का प्राण तत्व कमजोर पड़ जाता
है।
मुझे तो उन युवा मित्रों में ज्यादा संभावना
नजर आती है जो साहित्य-साधना के साथ जीवन-साधना भी करते हैं। हमारे साहित्य की
परम्परा ही इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। भक्ति काल और आधुनिक काल के साहित्य से ही
इसको समझा जा सकता है। भक्ति का्ल का कवि साहित्य से आगे जीवन को रखता है इसलिए
दरबारों की शरण में नहीं जाता। सूर, तुलसी चाहते तो अकबर के दरबार में जा सकते थे।
एक जनश्रुति है कि तुलसी के लिए रहीम ने ऐसा प्रयास किया भी था कि वे अकबर की
मनसबदारी स्वीकार कर लें। तो पता है उन्होंने क्या उत्तर दिया-
हम चाकर रघुबीर के, पढौ लिखौ दरबार।
तुलसी अब का होंहिगे, नर के मनसबदार।।
सूर से आयु में बड़े अष्टछाप के प्रमुख कवि
कुंभन दास का वह पद तो प्रसिद्ध है ही जिसका सम्बन्ध अकबर से ही बतलाया जाता है।
उनका यह मशहूर पद है-
संतन कौ कहा सीकरी सौं काम।
आबत जात पनहिया टूटी, बिसर गयौ हरि नाम।
जिनकौ मुख देखे दुख उपजत, तिनकौं करिबे परी
सलाम।
कुंभनदास लाल गिरधर बिनु, और सबै बेकाम।।
इससे दरअसल, यह
पता चलता है कि एक कवि या रचनाकार को कैसा होना चाहिए। किसी भी तरह की सत्ता और
प्रलोभनों से उसका कैसा रिश्ता होना चाहिए। क्योंकि इस दुनिया में चारों तरफ तरह
तरह के प्रलोभनों का जाल फैला हुआ है जिसमें व्यक्ति को उलझा कर उसकी धार को कुन्द
कर दिया जाता है। भक्ति काल के बाद जब हिन्दी कविता राजदरबारों में प्रवेश कर गई
तो आम जन से कट गई। वह राजदरबारों को रिझाने का काम करने लगी और उसके बदले में
कविगण इनाम-इकरार और जागीर पाने लगे। उनको अपने समय में अपार धन और वैभव हासिल
हुआ। कविता रचने की प्रतिभा उनमें कम नहीं थे। वे बेहद प्रतिभाशाली और मेधा के धनी
थे जिसका उपयोग उन्होंने निजी हित यानी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए किया। इस वजह
से उनकी कविता लोक-हृदय से दूर हो गई। जब तक राजदरबार रहे, उस कविता को महत्वपूर्ण
माना गया। उसकी कीर्ति कथाएं भी साहित्यशास्त्र में लिखी गई लेकिन जब राजदरबारों
की जगह पर लोकतन्त्र आया तो उनकी सचाई सबके सामने आ गई। सबको मालूम हो गया कि ये
प्रतिभाशाली तो हैं किन्तु उसका उपयोग इन्होंने निजी फायदे के लिए किया है। इनके
जीवन में वैसा त्याग और कुर्बानी का भाव नहीं है जो भक्तिकाल के कवियों में था या
आधुनिक काल में भारतेन्दु,
महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मुक्तिबोध
सरीखे लेखकों में था। इनमें दो का सम्बन्ध- प्रेमचंद और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का
अलवर के तत्कालीन राजदरबार से जुड़ा। 1908 में अलवर के तत्कालीन नरेश जय सिंह ने
अपनी रियासत की राजभाषा हिन्दी को घोषित कर दिया था और इस काम को अंजाम देने के
लिए काशी से उक्त दोनों हिन्दी विद्वानों को अच्छे वेतन-भत्तों और अन्य राजसी
सुख-सुविधाओं के साथ अलवर आमंत्रित किया गया था। इनमें प्रेमचंद ने राजदरबार की
नौकरी करने से साफ इन्कार कर दिया। उनकी पत्नी शिवरानी जी ने जब उनके न जाने का
कारण जानना चाहा तो प्रेमचंद ने जवाब में कहा कि अलवर जाने पर मैं राजा का लेखक रह
जाता, जनता का नहीं। कहते हैं कि अपने परिवार के दबाव में शुक्ल जी यहाँ चले तो आए
किन्तु एक-दो माह से ज्यादा टिक न सके। ये प्रसंग दरअसल इस बात के प्रमाण हैं कि
लेखक के लेखन का प्रयोजन और उसके जीवन मूल्य क्या हैं? और उसके लिए उसकी तैयारी और उसका तरीका क्या है?
इसका तात्पर्य यह भी है कि लेखक चाहे कितना ही
प्रतिभाशाली है किन्तु उसकी जीवन-साधना और प्रयोजन सही दिशा में नहीं हैं और वह केवल
यश या अर्थार्जन के लिए साहित्य रचता है तो वह अपने समय में भले ही चर्चित हो जाय,
बड़े-बड़े सम्मान और पुरस्कार भी पा जाय किन्तु वह जनता के सम्मान का भागी नहीं बन
सकता।
अब आप स्वयं ही इस कसौटी पर अपने समय के
साहित्यकार को देख लीजिए तो बहुत कम ऐसे साहित्यकार मिलेंगे, जो किसी भी तरह की
तिकड़म, जोड़-तोड़ से दूर रह कर अपने पुरखों जैसी
जीवन और काव्य-साधना में लगे हों। इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि इस समय ऐसा कोई
भी नहीं है। आज भी सत्ता प्रलोभनों से दूर ऐसे लोग हैं जो अपनी साधना में ईमानदारी
से लगे हुए हैं। मैंने आपको ही नजदीक से देखा है कि आपने अपने शिक्षक होने के
दायित्व को कितनी सक्रियता और ईमानदारी से अंजाम दे रहे हैं। यही आपके रचना-कर्म
में सहायक होगा। जो अपनी जिन्दगी में ईमानदार नहीं, वह रचना में भी कम फ्राड नहीं करता। मुक्तिबोध ने अपनी डायरी में एक
जगह पर लिखा है “जिन्दगी एक महाविद्यालय या विश्वविद्यालय नहीं है। वह एक प्राइमरी
स्कूल है, जहाँ टाट-पट्टी पर बैठना पड़ता है, जरा-सी बात पर चाँटे के आघात की सारी
संवेदनाएं गालों पर झेलनी पड़ती हैं।”
तो जो जिन्दगी को एक सरकारी प्राइमरी स्कूल मान
कर चलता है वही जिन्दगी के बुनियादी सरोकारों तक अपनी पँहुच बनाए रख सकता है।
जिसकी जिन्दगी एक विश्वविद्यालय की तरह है उसका साहित्य भी जिन्दगी की बुनियाद से
उतना ही दूर मिलेगा। पिछले दिनों मैं एक प्रतिभाशाली युवा रचनाकार अच्युता नन्द के
सम्पर्क में आया। उन्होंने कविता-कर्म भी किया है किन्तु इन दिनों वे आलोचना-कर्म
में संलग्न हैं। वे आज के सभ्यता संकट और रचना-कर्म से जुड़े सवालों पर काम करने
में लगे हुए हैं। जब हम इस तरह से सभ्यता के संकट को जानने की कोशिश करते हैं तो
कोई विकल्प अवश्य निकल कर आता है। श्री मिश्र ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं।
उन्होंने मध्य वर्ग में तेजी से बढ़ रही अलगाव की प्रवृति और आधुनिक विज्ञान के
अध्ययन के साथ फिर से आधुनिकता का सवाल तथा ज्ञान और ताकत का साझा इतिहास जैसे
सभ्यता से सम्बंधित नए सवालों पर गहनता से विमर्श किया है। उनकी जिज्ञासा और
ज्ञानात्मकता का क्षेत्र विस्तार रचना कर्म के लिए भी आवश्यक है। हमें इस तरह के
सवालों पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। पिछले दिनों जब शुभम श्री की कविता ‘पोएट्री
मैनेजमेंट’ पर कवयित्री को भारत भूषण अग्रवाल सम्मान घोषित किया गया तो कविता के
पारम्परिक हल्कों में बड़ा बावेला मचा। जबकि मैं यह मान कर चलता हूँ कि वह एक
संभावनाशील कवयित्री हैं। उन्होंने सभ्यता के संकट के उस बिन्दु को पकड़ा है और उस
प्रवृत्ति की मजाक उडाई है जो मध्य वर्ग में तेजी से पनप रही है। उसने कविता को
आत्मपरक भावुकता से आगे ले जा कर वस्तुपरक जमीन पर खड़ा किया है और उसके लिए पुराने
शिल्प को भी ध्वस्त कर दिया है। हर समय की कविता की एक लीक बन जाती है। नयी से नयी
कविता की भी। जब उसको कोई तोड़ता है तो हलचल मचती है। जबकि हमारी जिन्दगी हमारे नियन्त्रण
में नहीं है। उस पर विश्व शक्तियों का नियन्त्रण हो चुका है और हम हैं कि अपनी ही
ढपली बजाए चले जा रहे हैं। ढर्रे पर चलने से कुछ भी होने वाला नहीं है। उससे एक
तरह का रीतिवाद पैदा हो जाता है। दूसरी बात यह है कि कला का काल भी बहुत छोटा नहीं
होता। समझदारी आने में समय लगता है। मैंने किसी रूसी किताब में पढ़ा है कि हमारा
जीवन हमारे चारों तरफ नए नए कार्य प्रस्तुत कर रहा है। हमें खुद को नई बात के
अनुकूल बनाना पड़ता है। अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के एक प्रसिद्ध महान जापानी
चित्रकार होकुसाई ने कहा था कि उन्होंने छः साल की उम्र से चित्र बनाना शुरु किया।
पचास साल तक कई चित्र बनाए, लेकिन सत्तर साल की उम्र पर पँहुचने पर ही मैं कुछ
महत्वपूर्ण कर पाया, इससे पहले नहीं। 73 साल की उम्र में मैंने जानवरों, चिड़ियों, कीटों
और पौधों की संरचना का अध्ययन किया। उन्होंने कहा कि अस्सी साल की उम्र तक मेरी
कला विकसित होती रहेगी। 90 साल की उम्र पर पँहुच कर ही मैं कला के मर्म को समझ
पाने में समर्थ हो पाँऊगा।
इस तरह से मैं कह सकता हूँ कि नयी युवा पीढ़ी
में कुछ रचनाकार ऐसे अवश्य हैं जो रचना कर्म के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगाए
होंगे। संभावनाएं हमेशा नई पीढ़ी और नया सोच रखने वालों में ही होती हैं। जो पुराने
हो चुके हैं वे तो हर बात को अपने ही रंग में देखना चाहते हैं। इनमें बुनियादी उलट
फेर भाषा के तर पर हुआ है। धीरे धीरे अँग्रेजी का इतना प्रभुत्व व वर्चस्व बढ़ गया
है कि वह गाँवों के दरवाजों और खेतों तक जा पँहुची है। उसने देश की भाषाओं के भीतर
अपनी घुसपैठ कर ली है। यह सब मध्य वर्ग की बढ़ती और नीचे के श्रमिक वर्ग की घटती
ताकत का एक छोटा सा सबूत है। बाजार और आवारा पूँजी ने इस खेल को इतना फैला और बढ़ा
दिया है कि अब सारी दुनिया एक मैनेजमेंट हो कर रह गयी है। मनुष्य की अवधारणा तक को
बदला जा रहा है और हम अपना पुराना राग ही अलापने में लगे हैं। अब हमारी भाव
प्रणाली पर भी इन बातों का असर हुआ है। इस वजह से आज के ताकतवर होते मध्य-वर्ग और
निम्न-वर्ग के बीच अलगाव की खाई तैयार हुई है। पुराने समय में एक व्यक्ति के
दस-पाँच मित्र हुआ करते थे,
अब फेसबुक ने मित्रों की संख्या बढ़ा कर
पाँच हजार कर दी है। इस बारे में अच्युतानंद ने अपने एक आलेख में सवाल उठाया है कि
क्या इस तरह के मित्र-संवाद की प्रक्रिया में हमारा जैविक अस्तित्व उसी तरह सक्रिय
होगा, जैसे कि पहले था। फिर इस पाँच हजार की
संख्या के साथ हमारे मस्तिष्क का तालमेल किस तरह का होगा? किस किस्म की तार्किक
संवेदना हमारे मस्तिष्क में निर्मित होगी? इस
तरह के सवालों को उठाते हुए आखिर में एक प्रश्न वे छोड़ते हैं कि ‘इन प्रक्रियाओं
से हो कर जो मनुष्य बनेगा। क्या वह स्थायी रूप से अधिक क्रूर, अधिक यांत्रिक और
अधिक अमानवीय नहीं होगा?’ ऐसे बदले और हर साल तेजी से बदलते समय में कविता के मानदंड क्या
पुराने ही रहेंगे? कविता के रूप-स्वरूप में क्या कोई
बदलाव नहीं होगा? कविता के वनोद्यान में क्या एक ही तरह
की तरुमालाएं होंगी या जीवन में आ रही भिन्नता की तरह उसमें भी अनेक तरह के फूल
खिलेंगे? आज भी कविता में पुराने ढंग की कविताएं
खूब लिख रहे हैं। गीत-गजल भी खूब लिखी जा रही हैं। सभी तरह का काव्य-व्यापार चल
रहा है। उसमें यदि कोई साहसिक कवयित्री कोई जोखिम उठाती है और किसी नए रूप विधान
में नयी बात को लाती है तो पुरानी बातों को मानते हुए भी नए का स्वागत नहीं किया
जाना चाहिए?
महेश चंद्र पुनेठा- आपने शुभम श्री
की कविता ‘पोयट्री मेनेजमेंट’ का उल्लेख किया है। इस पर
पिछले दिनों सोशल मीडिया में बहुत अधिक चर्चा हुई। बहुत सारे कवि-आलोचकों का कहना
था कि यह कविता होने की शर्तों को भी पूरा नहीं करती। इसमें तो न लय है और न ही
काव्यात्मक भाषा। उस लद्धड गद्य का एक नमूना है जैसा आज की बहुत सारी अमूर्त और
अबूझ कविताओं में दिखाई देता है। इस तरह की कविताएं आज बहुतायत में लिखी जा रही
हैं। जैसा कि आप मानते रहे हैं कि एक अच्छी कविता मनुष्य भाव की रक्षा करती है, सामाजिकता के तीखे प्रश्नों
से रु-ब-रु होती है, समय और समाज के यथार्थ और जीवन सौन्दर्य को व्यक्त करती है, वेदना
के स्रोतों को संगत और पूर्ण निष्कर्षों तक पहुँचती है, मध्य वर्ग की सीमाओं को तोड़
कर लोक के दुःख-दर्द और संघर्षों तक ले जाती है, उस में अपनी जमीन की खुशबू होती
है, जीवन की आवेगमयी अन्तव्र्याप्ति होती है, स्वयं के जीवन की ईमानदार और सच्ची अभिव्यक्ति होती है, इन्द्रियबोध
की विलक्षणता होती है, उस में मनुष्य जीवन का एक बड़ा सत्य व्यक्त होता है, जीवन का
यथार्थ कविता बनता है, अपने रंजक धर्म से पाठक के ह्रदय में प्रवेश करती और उसे
अपना दोस्त बना लेती है, ह्रदय के रस्ते मन-मष्तिष्क तक पहुँचती है आदि-आदि। क्या
आपको लगता है कि शुभम श्री की यह कविता उक्त कसौटियों से कुछ में भी खरी उतरती है? यदि हाँ तो इसके कविता होने
पर ही प्रश्न खड़े करने वालों की काव्य समझ के बारे में क्या कहेंगे?
जीवन सिंह- इस तरह का ध्यानाकर्षण तो शायद इस
कवयित्री की तरफ भी नहीं होता यदि इसकी एक कविता पर भारत भूषण अग्रवाल सम्मान की
घोषणा न होती तो। शुभम श्री तो इससे पहले से लिख रही हैं। पहले भी एक बार इनकी
कविताएं फेसबुक पर ही मेरी नजर में आईं थी। तब भी मेरे मन पर उनकी नवीनता का असर
हुए बिना नहीं रहा था। ऐसा ही जब पहली बार शाहनाज इमरानी की कविताएं ‘कृति ओर
सम्मान’ के सन्दर्भ में पढ़ने को मिली थी तो उनका एक प्रभाव मन पर कायम हुआ था।
नवीनता का भी अपना आकर्षण होता है और उसका पता पहली बार तभी चलता है जब उनमें कोई
बात लीक से हट कर होती है।
शुभम श्री की कविता का बदलाव कविता की
अन्तर्वस्तु और उसके रूप विधान दोनों स्तरों पर है। उन्होंने कविता को मध्य वर्ग
में तेजी से पैर पसार रही बोलचाल उस नयी भाषा में कविता को रचा है जो एक तरह से
ऐसी संकर भाषा है जो जमीन से कटी हुई है। लेकिन है आज की वास्तविकता। वे उसे अपने
व्यंग्य का निशाना बनाती हैं। ऊपर से जब हम उस भाषा को अभिधा में पढ़ते हैं तो वह
कहीं से भी कविता नजर नहीं आती। इसके विपरीत वह कविता की खिल्ली उड़ाती जान पड़ती
है। लेकिन वह व्यंजना में लिखी हुई कविता है जिससे उसकी पूरी संरचना का अर्थ बदल
जाता है। इसीलिए तो वह कविता की लीक से अलग जाती हुई विरोध और विवाद का विषय बनती
है। जिन्होंने भी कविता में इस तरह का नवाचार करने का प्रयास किया है, उनको विरोध झेलना पड़ा है।
दूसरे नवाचार करने वाले कवि भी जब किसी की नजर
में आयेंगे, उनकी तरफ भी अवश्य ध्यान जायगा। देर-सबेर हो सकती है क्योंकि आज कोई
ऐसा निश्चित स्थान नहीं है जहाँ कविता के प्रचलित सभी रूप सबको एक साथ पढ़ने को मिल
जाते हों। इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि आज की वास्तविकता की जैसी पकड और उसको
व्यक्त करने तथा हर तरह का जोखिम उठाने की जो शुरुआती समझ शुभम श्री के यहाँ है, वह
विरल होती है।
महेश चंद्र पुनेठा- क्या आपको नहीं
लगता है कि इस कविता को ले कर फेसबुक पर कुछ आवश्यकता से अधिक चर्चा हो गयी? जो बहस हुई क्या वह आपको
किसी निष्कर्ष तक पहुँचती लगी? या कुछ लोग खारिज करने में
और दूसरा बचाव करने में ही लगे रहे? क्या कुछ आवश्यकता से अधिक आक्रामक नहीं लगे?
जीवन सिंह- कविता के बारे में एक बार जिसकी जो
धारणा बन जाती है, उसे छोड़ पाना बहुत मुश्किल होता है। हम एक समय में बनी हुई
धारणा के अनुरूप जब हर कविता को जाँचते हैं तो इस तरह के विवाद होते ही हैं। जब
कोई चीज टूटती है तो आहट होती ही है। व्यक्ति किसी भी तरह की नवीनता को आसानी से
स्वीकार नहीं करता। पहले उसका विरोध होता ही है। आज तक भी ऐसे लोगों और पाठकों की
संख्या बहुत अधिक है जो मुक्त छंद में लिखी कविता के प्रति नानुकर का रवैया अपनाते
हैं।
कोई बात नहीं, ज्यादा चर्चा हो गई तो। मंथन से
ही अमृत भी निकला और गरल भी। दधि मंथन के बाद नवनीत और छाछ दोनों निकलते हैं तब
नवनीत ही नहीं, छाछ भी सेहत के लिए उपयोगी होती है।
दोनों पक्ष एक दूसरे से सीखते हैं और इसी प्रक्रिया से बात आगे बढ़ती है बशर्ते कि
बात सदाशयतापूर्वक और समझदारी बढ़ाने के प्रयोजन से की गई हो।
जरूरी नहीं कि कोई बहस तुरंत किसी निष्कर्ष तक पहुँचे
लेकिन निष्कर्ष की दिशा में जाने के लिए एक कदम ही सही बात आगे बढ़ती है। लोकतान्त्रिक
प्रक्रिया भी यही है। जो लोग किसी बहस का तुरंत परिणाम चाहते हैं वे नहीं जानते कि
एक छोटे से बीज से ही एक दिन छतनार वृक्ष बन जाता है।
जो किसी बात को खारिज करते हैं या बचाव करते
हैं उनके बीच एक ऐसा तटस्थ वर्ग भी होता है जो बहस की तराजू के दोनों पलड़ों के वजन
को देख लेता है। इसी से आगे कोई फैसला होने में मदद मिलती है।
आक्रामकता की प्रकृति कैसी है बात इससे तय होती
है। हमारे यहाँ एक कहावत है कि ठंडा करके खाना चाहिए। बहुत गर्म खाने से मुँह ही
नहीं जलता, आँतों और पेट को भी नुकसान होता है। भोजन को चबा-चबा कर खाने से जो रस
बनता है वह जल्दबाजी से नहीं। आक्रामकता और आत्मरक्षा दोनों ही युद्ध कला के
अन्तर्गत आते हैं। कई बार कोरी आक्रामकता बहुत नुकसानदेह होती है।
संपर्क-
डॉ. जीवन सिंह
1/14 अरावली बिहार,
अलवर-301001 (राजस्थान)
मोबाईल - 09785010072
महेश चंद्र पुनेठा,
शिव कालोनी, न्यू पियाना,
पो0- डिग्री कालेज, जिला-पिथौरागढ़ 262502.
मोबाईल - 09411707470
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