अमृत सागर की कविताएँ
अमृत सागर |
परिचय, तदभव, सोच-विचार, आरोह-अवरोह, दैनिक
जागरण, नेशनल दुनिया आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ
प्रकाशित, पुस्तक एवं फिल्म समीक्षाएं भी लगातार प्रकाशन के
क्रम में
पूर्वांचल
विश्वविद्यालय, बीएचयू व जामिया मिल्लिया
इस्लामिया से शिक्षा व
लगभग तीन
वर्षों पत्रकारिता में सक्रियता, फ़िलहाल दिल्ली में रहते हुए एक
राष्ट्रीय दैनिक में सबएडिटर के पोस्ट पर कार्यरत
हर व्यक्ति मूलतः
अपने में एक निर्वासन लिए रहता है. आज की जो यह दुनिया है वह निर्वासितों की ही तो
दुनिया है. निर्वासन अपने पीछे हमेशा गहन स्मृतियाँ लिए रहता है. हम लाख कोशिशें
करें उन स्मृतियों से हम अपना पीछा नहीं छुड़ा सकते. अमृत सागर ऐसे ही युवा कवि हैं
जिन्होंने निर्वासन की पीड़ा को महसूस करते हुए बेहतरीन कविताएँ रची हैं. निर्वासन,
प्रेम, फिलिस्तीन और नदी जैसी कविताएँ इसका उदाहरण हैं. युवा कवि रविशंकर
उपाध्याय, जिनका हाल ही में असामयिक निधन हो गया, के उपर लिखी गयी कविता भी इसी
क्रम में है जो हमारे किसी अपने से इस तरह निर्वासित होने को ले कर लिखी गयी है. अमृत
की कविताएँ पढ़ते हुए लुप्तप्राय होती जा रही लय और छन्द की परम्परा की भी स्मृति
हो आती है. अपना शिल्प विकसित करते हुए अमृत ने इस लय और छन्द को बखूबी साधने का
प्रयास किया है. आज अमृत सागर का जन्म दिन है. अमृत को जन्म दिन की बधाई देते हुए हम
प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ नवीनतम कविताएँ.
अमृत सागर की कविताएँ
अमृत सागर की कविताएँ
निर्वासन
मेरे भीतर
कहीं गहरे धंसे हैं!
पेड़, पहाड़, नदियाँ, बर्फ, पंक्षी और कोटर..
तिलिस्मी सन्नाटे में
धूल और आंसूओं में लिथरे
गाढे मगर भोथर!
मेरे भीतर
कहीं गहरे धंसे हैं!
पेड़, पहाड़, नदियाँ, बर्फ, पंक्षी और कोटर..
तिलिस्मी सन्नाटे में
धूल और आंसूओं में लिथरे
गाढे मगर भोथर!
जहाँ से निकलती
है!
एकं अंतहीन आह!
जिसमें लगातार कुछ भुरभुरा सा!
एक जादूई धुंध में
धसकता जाता है!
एकं अंतहीन आह!
जिसमें लगातार कुछ भुरभुरा सा!
एक जादूई धुंध में
धसकता जाता है!
जिसे लगातार निगलता जाता है!
मुंह बाये, कंक्रीट का
गहरा स्लेटी रंग!
मुंह बाये, कंक्रीट का
गहरा स्लेटी रंग!
जहाँ सब कुछ आभासी है!
पर साबित करने पर तुला है
कि पूराना और प्रकृति में
सब कुछ बासी है!
पर साबित करने पर तुला है
कि पूराना और प्रकृति में
सब कुछ बासी है!
अब सब कुछ बदल रहा है!
बदल रही हैं सूरज की स्थितियां
और घट रहा हैं चाँद!
बदल रही हैं सूरज की स्थितियां
और घट रहा हैं चाँद!
यह इशारा है!
कि क्यों ठहरे हैं आप?
कि क्यों ठहरे हैं आप?
तब मेरे अन्दर का ठहरा हुआ गांव
अपनी आँखे बंद कर
बुदबुदाता है!
अपनी आँखे बंद कर
बुदबुदाता है!
ऐ शहर!
तुझे पाना
तुझे पाना
मुझसे मेरा निर्वासन है!
तुम्हारा जाना!
तुम्हारे होने और न होने का फर्क
ठीक वैसा ही है!
जैसे किसी के लिए रात के बाद
सूर्य का लापता हो जाना
यूँ ही पृथ्वी का नीला पड़ जाना
जैसे चढ़ जाना आसमान पर
धूल की एक गाढ़ी परत का
और सागर की लहरों का
मानो एक झटके से थम जाना
ओह!
तुम्हारे जाने से
मैंने जाना
जीवन की गुनगुनी धूप का
तपती आग में बदल जाना
पसर जाना इठलाती लहरों का भंवर में
जैसे बलखाती हवा का
फिसल जाना अंधड़ में
घने पेड़ से घोंसलों का उजड़ जाना
मानो प्यासे होठों को छू
पानी का हो जम जाना
तुम्हारे जाने से ही जान पाया
किसी का बहुत दूर, कहीं दूर चले जाना!
हाँ! मैं जानता हूँ!
तुम्हारे होने और न होने का फर्क
ठीक वैसा ही है!
जैसे
तुम्हारा न होना
न होने कि अंतिम बिन्दु है
और तुम्हारी स्मृतियाँ
बहुत कुछ होने का प्रस्थान बिन्दु
पर अफ़सोस!
यह भी कोई जाने का वक्त था!
जब नहीं होता है शब्दकोश में शामिल
जाना! ओह! तुम्हारा जाना!
( यह कविता 'परिचय' के हालिया रविशंकर स्मृति अंक में भी अंकित है)
तुम्हारे होने और न होने का फर्क
ठीक वैसा ही है!
जैसे किसी के लिए रात के बाद
सूर्य का लापता हो जाना
यूँ ही पृथ्वी का नीला पड़ जाना
जैसे चढ़ जाना आसमान पर
धूल की एक गाढ़ी परत का
और सागर की लहरों का
मानो एक झटके से थम जाना
ओह!
तुम्हारे जाने से
मैंने जाना
जीवन की गुनगुनी धूप का
तपती आग में बदल जाना
पसर जाना इठलाती लहरों का भंवर में
जैसे बलखाती हवा का
फिसल जाना अंधड़ में
घने पेड़ से घोंसलों का उजड़ जाना
मानो प्यासे होठों को छू
पानी का हो जम जाना
तुम्हारे जाने से ही जान पाया
किसी का बहुत दूर, कहीं दूर चले जाना!
हाँ! मैं जानता हूँ!
तुम्हारे होने और न होने का फर्क
ठीक वैसा ही है!
जैसे
तुम्हारा न होना
न होने कि अंतिम बिन्दु है
और तुम्हारी स्मृतियाँ
बहुत कुछ होने का प्रस्थान बिन्दु
पर अफ़सोस!
यह भी कोई जाने का वक्त था!
जब नहीं होता है शब्दकोश में शामिल
जाना! ओह! तुम्हारा जाना!
( यह कविता 'परिचय' के हालिया रविशंकर स्मृति अंक में भी अंकित है)
फ़िलस्तीन
तुम बोलोगे ! रात
मैं बोलूँगा ! दिन
तुम मेरी कनपटी पर
बन्दूक सटा कर बोलोगे
एक, दो, तीन...
मैं बोलूँगा !
फ़िलस्तीन ! फ़िलस्तीन ! फ़िलस्तीन !
मैं बोलूँगा ! दिन
तुम मेरी कनपटी पर
बन्दूक सटा कर बोलोगे
एक, दो, तीन...
मैं बोलूँगा !
फ़िलस्तीन ! फ़िलस्तीन ! फ़िलस्तीन !
-जब फलिस्तीन बोलना भी अपराध हो जायेगा
नदी
इजरायल
ऐ ईदी ! सुनो ना
!
क्या अबकि
फातिमा का चाँद
मेरे छत के ऊपर नहीं दिखेगा?
क्या अबकि
फातिमा का चाँद
मेरे छत के ऊपर नहीं दिखेगा?
क्या अबकि
मुजफ्फरनगर में
जुम्मन के घर से चाँद
आधा ही दिखेगा?
जुम्मन के घर से चाँद
आधा ही दिखेगा?
क्या यह भी सच है कि
गाज़ा का चाँद
अस्पताल में घायल पड़ा है?
और इजरायल
उसे पाने के लिए अड़ा है !
गाज़ा का चाँद
अस्पताल में घायल पड़ा है?
और इजरायल
उसे पाने के लिए अड़ा है !
- ईद के दिन जब
गाजा में इजरायल की गोलाबारी जारी थी!
नदी
1-
एक लम्बा इंतजार!
कि आओ
और आगोश में ले लो!
कि आओ
और आगोश में ले लो!
पर एक अजीब कशमकश!
डूब जाऊं कि करूँ पार!
डूब जाऊं कि करूँ पार!
तेरी लहर बनूं
या नाव बनकर
उन पर हो जाऊं सवार!
या नाव बनकर
उन पर हो जाऊं सवार!
२-
ऐ नदी!
तू खुद में पसरती
रेत
खुद में लहरता एक
जंगल है!
और हम कागज की नाव
जो फुल बन कर
तेरी फलक पर खिले रहना चाहते हैं!
3-
चाहता हूँ !
सुकून भरी एक लम्बी शाम
सुकून भरी एक लम्बी शाम
जहाँ तनहाई पैर पसारे
तेरे कंधे पर सर रख कर
अपनी आँखें मूंदे ले
तेरे कंधे पर सर रख कर
अपनी आँखें मूंदे ले
और जेहन में तूम
देर तक ठहरी रहो
देर तक ठहरी रहो
हरहराती हुई!
4-
मैं जानता हूँ!
कि तुम्हारी धार, मुझे बहा ले जायेगी
और मैं तुम्हारे
भीतर की एक लहर बन जाऊंगा
फिर भी देखना
मेरी नदी!
तुम मेरे चेहरे
पर
बर्फ बनकर तैरती
मिलोगी
5-
ऐ नदी!
मुझसे ज्यादा कोई नहीं चाहेगा
तुम्हारी गोद में सर रख कर
एक घास का मैदान हो जाना!
मुझसे ज्यादा कोई नहीं चाहेगा
तुम्हारी गोद में सर रख कर
एक घास का मैदान हो जाना!
जहां जीवन मुझे
लांघता और चरता हुआ निकल जाये
जहां से चाँद और सूरज
तेरे आँखों में सिर्फ दो फाख्ता नजर आये!
जहां से चाँद और सूरज
तेरे आँखों में सिर्फ दो फाख्ता नजर आये!
कि तेरी गहराई मेरी बाहों से निकले
तो एक नीला झरने की तरह मेरे जीवन के रूखे अरारों पर गिरे
और वो मुलायम और चिकने होते चले जाएँ!
तो एक नीला झरने की तरह मेरे जीवन के रूखे अरारों पर गिरे
और वो मुलायम और चिकने होते चले जाएँ!
हाँ! मुझे मंजूर है पहाड़ बन जाना!
जो ज़माने की गर्म हवाओं को
तुझ तक आने से रोकने के लिए
ताजिंदगी खड़ा रह सकता है!
तुझ तक आने से रोकने के लिए
ताजिंदगी खड़ा रह सकता है!
सूरज
------
1-
सूरज
रात भर जोतता है आकाश
और उग आती है
रौशनी!
२-
ऐ सूरज! आओ न..
रात की नाव लेकर
शब्दों के समुद्र में निकल चलते हैं!
रात की नाव लेकर
शब्दों के समुद्र में निकल चलते हैं!
जहाँ देखने वाला सिर्फ चुप्पी का चाँद हो!
3-
मैं तुम्हे करता हूँ याद!
हर उस रात
हर उस रात
जब मेरी आँखों के आसमां से
टपकते हैं टूटते तारे
और भोर तक नींद
गीले बिस्तर तक
आने से कतराती है!
टपकते हैं टूटते तारे
और भोर तक नींद
गीले बिस्तर तक
आने से कतराती है!
तब तेरे इंतजार में मेरी आँखें
दो से एक हो जाती हैं
और जिस्म भोर का तारा !
दो से एक हो जाती हैं
और जिस्म भोर का तारा !
जिसे देख
जिन्दगी के बेतरतीब ग्रहों
के इर्द-गिर्द घूमते सुर्ख सपने
वायुमंडल से निकल
उपग्रहों में तब्दील होने लगते हैं!
जिन्दगी के बेतरतीब ग्रहों
के इर्द-गिर्द घूमते सुर्ख सपने
वायुमंडल से निकल
उपग्रहों में तब्दील होने लगते हैं!
और हो जाती हैं
सुबह तक आँखें
सरसों के खेत में
गलती से उग आये
सूरजमुखी के फूल!
सुबह तक आँखें
सरसों के खेत में
गलती से उग आये
सूरजमुखी के फूल!
आखिर!
मेरा भी एक सौरमंडल है!
और तू मेरा सूरज!
मेरा भी एक सौरमंडल है!
और तू मेरा सूरज!
प्रेम
प्रेम
अपने व्यक्तित्व
के पहाड़ से
कूदना ही तो है!
कूदना ही तो है!
और बिछुड़न
गहरे तलहटी में बैठ गये
सुर्ख आंसूओं को खोजना
गहरे तलहटी में बैठ गये
सुर्ख आंसूओं को खोजना
फिर भी हम हैं कि
इस अधूरेपन को पाने कि कोशिश में
अंतिम साँस तक झोंक देते हैं!
इस अधूरेपन को पाने कि कोशिश में
अंतिम साँस तक झोंक देते हैं!
और जिन्दगी यादों के गठ्ठर बांध
दूसरी दुनिया में सरक जाती है!
ओह! ये प्रेम!
दूसरी दुनिया में सरक जाती है!
ओह! ये प्रेम!
प्रेम और विद्रोह
हथौड़े को सांसों में भर
अपनी ओर खींचता
तो प्रेम
अपनी रीढ़ से वक्र बनाते
दोगुनी रफ़्तार से घन गिराता
तो विद्रोह
अपनी ओर खींचता
तो प्रेम
अपनी रीढ़ से वक्र बनाते
दोगुनी रफ़्तार से घन गिराता
तो विद्रोह
प्रेम जितनी
गहराई से खींचता
उतनी ही ऊंचाई से गिरता विद्रोह
उतनी ही ऊंचाई से गिरता विद्रोह
बिना प्रेम के
नहीं हो सकता विद्रोह!
जितना प्रेम उतना विद्रोह!
नहीं हो सकता विद्रोह!
जितना प्रेम उतना विद्रोह!
उदासी
जिन्दगी की राहों
में उदासी
किनारे की पगडंडियों सी हैं !
किनारे की पगडंडियों सी हैं !
जो ताउम्र साथ चलती हैं !
जहाँ आँखों का
सफ़ेद सुखापन
हर पहर बाद..
कुछ और खामोश हो जाता है !
हर पहर बाद..
कुछ और खामोश हो जाता है !
और नि:शब्दता कुछ
और गहरी !
चानू इरोम!
जैसे तुम कैद
नहीं कर सकते हवा!
बांध नहीं सकते सागर
जैसे आजाद होती है धूल
और हर सुबह खिलते हैं फूल !
वैसे ही आजाद है
मनुष्य का रोम-रोम!
और मुस्कुराती इरोम!
बांध नहीं सकते सागर
जैसे आजाद होती है धूल
और हर सुबह खिलते हैं फूल !
वैसे ही आजाद है
मनुष्य का रोम-रोम!
और मुस्कुराती इरोम!
लड़ती इरोम! चानू
इरोम!
शांति
यह उन दिनों कि
बात है!
जब खबरों में सिर्फ आदमी मारे जा रहे थे!
हाथों से हथियार
और हथियारों से युद्ध गढ़े जा रहे थे!
जब खबरों में सिर्फ आदमी मारे जा रहे थे!
हाथों से हथियार
और हथियारों से युद्ध गढ़े जा रहे थे!
तब जिनकी कमीजों
पर
सबसे ज्यादा खून के छींटे पड़े थे!
उन्हीं के शांति संदेश!
सुबह के अख़बारों में
अटे पड़े थे!
सबसे ज्यादा खून के छींटे पड़े थे!
उन्हीं के शांति संदेश!
सुबह के अख़बारों में
अटे पड़े थे!
दिल्ली
1-
ऐ दिल्ली!
तुम मेरे लिए एक ऐसी आवाज हो!
तुम मेरे लिए एक ऐसी आवाज हो!
जो किसी गहरी खोह में
सदियों से गिरे व्यक्ति का
नाम ले पुकार रही है!
सदियों से गिरे व्यक्ति का
नाम ले पुकार रही है!
२-
इस उजास नगर में
कोई भी साथ नहीं चलता
आप की परछाई भी नहीं!
कोई भी साथ नहीं चलता
आप की परछाई भी नहीं!
साथ चलती है तो बस वह सड़क!
जो मंजिलों तक पहुंचाने के बावजूद
जो मंजिलों तक पहुंचाने के बावजूद
आपके क़दमों के
नीचे रहना पसंद करती है!
सम्पर्क-
मोबाईल - 8373953025
ई-मेल : amrit360sagar@gmail.com
कुछ कविताएं तो बहुत सुंदर हैं !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कवितायेँ ..अमृत सागर जी को शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंअमृत सागर जी को आज जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। मुबारक मौके पर अच्छी रचनाएँ पढनें मिली।श्रृंखला वार रचनाओं का स्वागत।
जवाब देंहटाएं