पल्लव की किताब 'कहानी का लोकतन्त्र' पर रेणु व्यास की समीक्षा





आमतौर पर हिन्दी कहानी के क्षेत्र में आलोचना की स्थिति बेहतर नहीं रही है। यह सुखद है कि इन दिनों कुछ युवा आलोचक इस क्षेत्र में तन्मयता से अपना काम कर रहे हैं। इन युवा आलोचकों में पल्लव का नाम महत्वपूर्ण हैकहानी आलोचना पर पल्लव की एक किताब हाल ही में प्रकाशित हुई है- ‘कहानी का लोकतन्त्र’ नाम से। इस किताब की एक समीक्षा पहली बार के लिखा है रेणु व्यास ने। तो आइये पढ़ते हैं यह समीक्षा।       

कहानी का लोकतंत्र’ रचती आलोचकीय दृष्टि

रेणु व्यास
                                                                                          
वर्तमान युग की प्रतिनिधि साहित्यिक विधा निर्विवाद रूप से कहानी है। आज की अधिकांश साहित्यिक पत्रिकाओं के केन्द्र में कहानी है। कहानीकारों की संख्या तो किसी भी संभव अनुमान से भी कहीं ज़्यादा है। फिर भी कहानी की आलोचना पर नई पुस्तक आना अपने आप में एक बड़ी घटना है।

काव्य और नाटक की आलोचना की हमारे यहाँ समृद्ध परम्परा रही है। किंतु काव्य’ को साहित्य का पर्याय मानने वाली भारतीय परंपरा से हमें कथा-विधा की आलोचना के मानदण्ड प्राप्त नहीं होते। यह एक प्रमुख कारण है कि हिन्दी के साहित्यिक जगत् में कथा-साहित्य का रचना और प्रकाशन के स्तर पर बहुसंख्यक होने के बावज़ूद कथा-विधा की आलोचना के क्षेत्र में नई कहानी’ के दौर के बाद कोई बड़ी आलोचना की पुस्तक नहीं आई। कथा-साहित्य में भी उपन्यास की आलोचना के मानक काफी हद तक स्थापित हो चुके हैं, मगर कहानी’ की आलोचना की स्थिति आज भी अराजकता की ही है। इसके लिए काफी हद तक इस विधा की प्रकृति भी जिम्मेदार है। कहानी-विधा की यह विशेषता है कि इसे अनगिनत तरीके से कहा/रचा जा सकता है। मानव-मन गूढ़ वृत्तियों से लेकर विश्व युद्धों जैसे व्यापक मानवता को छूने वाले विषय भी कहानी का कथ्य बन सकते हैं। हिन्दी की प्रारंभिक कहानियाँ निबंध का रूप लिए थीं। फिर घटना-प्रधान कहानियों का दौर आया। इसके बाद कथानक और घटनाओं की न्यूनता वाली कहानियों का दौर आया। कहानी ने इतिवृत्तात्मकता से लेकर पत्र, डायरी, संस्मरण, रिपोर्ताज़, यहां तक कि कविता का भी चोला अंगीकार किया, किंतु इन सारे बाहरी परिवर्तनों के बाद भी वह रही कहानीही। सैंकड़ों कहानीकार! हरेक की अपनी निजी विशेषताएँ! साथ ही हर कहानीकार द्वारा रची गई सैंकड़ों कहानियाँ, जो कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से विविधता लिए होती हैं और प्रत्येक कहानी अपने मूल्यांकन के लिए नवीन कसौटी की माँग करती है। कथ्य की विविधता के साथ-साथ रचना-शैली और शिल्प की यही विविधता जिस स्पेस’ का सृजन करती है, वही कहानी का लोकतंत्र’ है।

नवोदित आलोचक पल्लव की पहली आलोचना पुस्तक का शीर्षक ही कहानी का लोकतंत्र’ है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से स्पष्ट है, इसमें आज के हिन्दी कहानी-जगत् को अपनी संपूर्ण विविधता में एवं ब्योरों की व्यापकता में एक पुस्तक में समेटने का प्रयास है। इस पुस्तक में तीन खंडों में बँटे बीस आलोचनात्मक लेख हैं, जो हिन्दी कहानी के विभिन्न पहलुओं को स्पर्श करते हैं। मूलतः ये सभी लेख कथा-साहित्य की व्यावहारिक आलोचना के उदाहरण हैं, किंतु इनकी यह भी विशेषता है कि आलोचक इन विविध कहानियों के उदाहरणों के बीच से भी आगमनात्मक विधि से छोटी-छोटी सैद्धांतिक स्थापनाएँ भी देते चलते हैं।

सैकड़ों ही नहीं हज़ारों कहानियों के डिटेल्स इस पुस्तक में दिए गए हैं। लेकिन आलोचक इन ब्योरों का वर्णन करके ही अपने कर्तव्य की इति श्री नहीं मान लेते। इन डिटेल्स के भीतर से सूक्ष्म और सारभूत सिद्धांतों का अंकुरण भी करते हैं। कथालोचक पल्लव मानते हैं कि कहानी सबसे पहले कहानी होनी चाहिए। पठनीयता और रोचकता कहानीपन की सबसे प्राथमिक शर्त है। पाठकीय भागीदारी का आह्वान करती कहानीलेख में ये लिखते हैं – “आस्वादन कहानी की जरूरी शर्त है, अरोचक कहानी कोई क्यों पढ़ेगा?  एवं इसी लेख में वे आगे लिखते हैं –अब यह समय नहीं कि कोई पाठक कुछ ब्यौरे जानने के लिए या समस्या को समझने के लिए ही कहानी पढ़ने बैठ जाए, इसके लिए उसके पास कहानी से बेहतर माध्यम मौज़ूद हैं।“ कहानी की बनावट को जरूरी मानते हुए उन्होंने लिखा है- कथ्य की विदूपता को कहानी की बनावट में यदि रोचक तरीके से ना कहा गया तो कहानी निबन्ध या कोरा गप्प होकर भी रह सकती है।

इस पुस्तक में लेखक की सबसे बड़ी विशेषता है - आलोचना में कहानी के कथ्य और शिल्प दोनों को बराबर का महत्त्व देना। पुस्तक के हर लेख में आप इन दोनों क्षेत्रों का आनुपातिक सामंजस्य देख सकते हैं। कलावादी माने जाने वाले कृष्ण बलदेव वैद की प्रतिनिधि कहानी मेरा दुश्मन’ के संबंध में पल्लव लिखते हैं -दरअसल वैद मनुष्य के भीतर खुद ही गढ़ लिए गए उस द्वीप से लड रहे हैं जो मनुष्य को जीवन की सच्चाई से दूर ले जाता है। यह द्वीप मनुष्य अपने लोभ, कामना, वासना, और विलास के कारणों से बनाता जाता है। जब उसका सामना इनसे होता है तो वह बेचैन होकर इनसे पीछा छुड़ाने की हरसंभव कोशिश भी करता हैं। आलोचक की नज़र में कहानी सबसे पहले कहानी हो, यह कहानी की प्राथमिक शर्त तो है, किंतु यही इसकी एकमात्र सीमा नहीं। कथ्य और शिल्प दोनों को अपनी निगाह में रखते हुए भी आलोचक की प्रगतिशील दृष्टि इस पुस्तक में सदैव अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। कहानियों के साथ-साथ उनके ताने-बाने से झांकती वर्ग-विषमता, दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श हो या पूंजीवादी भूमंडलीकरण और बढ़ता हुआ बाज़ारवाद या उपभोक्तावाद कुछ भी आलोचक की दृष्टि से ओझल नहीं हुआ है। तय था हत्या होगी’ लेख में पल्लव लिखते हैं – “यह पूंजीवादी भूमंडलीकरण की नीतियों का ही परिणाम है कि हमारे यहाँ किसानी पर सबसे ज़्यादा मार पड़ी है और देश के सबसे सम्पन्न इलाकों के किसानों ने सबसे ज़्यादा आत्महत्या की।“
दरअसल इस पुस्तक में संकलित लेखों में जिन कहानियों को संदर्भित किया गया है, उनके चयन के पीछे भी आलोचक की यही प्रगतिशील दृष्टि कार्य कर रही है। अकारण नहीं कि नये कहानीकारों की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं - वस्तुतः किसी भी रचनाशीलता का विकास अपनी परम्परा से टकराकर और यथार्थ के नये स्वरूप को खोज कर ही हो सकता है। यह चुनौती इन कहानीकारों के समक्ष है। 

अब एक नज़र पुस्तक की भाषा पर भी! पुस्तक की भाषा मानक हिन्दी होते हुए भी एक नई रव़ानी लिए हुए है। लिखने की भाषा से भी ज़्यादा यह बातचीत या बोलचाल की भाषा के करीब है। बीच-बीच में पल्लव मुहावरों ओर कहावतों का भी उचित प्रयोग अपने लेखों में करते हैं – “भारत खेती -किसानी करने वालों का देश है, यहीं उत्तम खेती मध्यम बान, नीच नौकरी भीख निदान’ जैसी कहावत प्रचलित हो सकती थी।

आलोचना के शाब्दिक इन्द्रजाल से कोसों दूर इस पुस्तक की भाषा कहानी और पाठक के बीच एक सहृदय मध्यस्थ दोस्त की भाषा है। एक और मज़ेदार बात यह है कि कहना न होगा कि’ यह वाक्यांश जिस बहुलता के साथ नामवर जी के आलोचना साहित्य में आता है, उसकी एक झलक इस पुस्तक में पल्लव की भाषा में भी देखी जा सकती है।

इस पुस्तक के जरिए पल्लव कहानी को और उसकी आलोचना की दुनिया को उसकी विविधताओं और विशिष्टताओं के उद्घाटन के साथ और अधिक लोकतांत्रिक बनाने में सफल हुए हैं।
कहानी का लोकतंत्र : पल्लव
आधार प्रकाशन, पचकूला (हरियाणा)
मूल्य- रु 250/-

सम्पर्क- 

29, छतरी वाली खान, सेंती,  
चित्तौड़गढ़
312001(राजस्थान)

मो. - 09461392200

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं