एस आर हरनोट के कहानी संग्रह ‘लिटन ब्लाक गिर रहा है’ पर उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा
एस आर हरनोट हमारे समय के चर्चित कथाकारों में से हैं। हाल
ही में इनका एक कहानी संग्रह ‘लिटन ब्लाक गिर रहा है’ प्रकाशित हुआ है और पाठकों
के बीच काफी सराहा गया है। इस संग्रह की एक समीक्षा पहली बार के लिए लिखी है युवा
आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा।
लिटन ब्लॉक गिर रहा है- मनुष्य और मनुष्यता का द्वन्द
उमाशंकर सिंह परमार
पहाडी लोक जीवन
की कथा भूमि लेकर सार्वदेशिक, सार्वभौमिक, कहानियों की रचना करने वाले एस. आर. हरनोट उन विरले
कथाकारों में से हैं जिन्होंने अपनी कहानियों का सूत्र सामंती संस्कृति और जन
संस्कृति के मध्य विद्यमान टकरावों में खोजा है, उनकी कहानियां जन
संस्कृति व जन सरोकारों का अभासी समाज खोजती है। इस खोज में कहीं-कहीं मनुष्य कटघरे
में खडा हो जाता है या फिर व्यवस्था कटघरे में खडी हो जाती है लेकिन मनुष्य वहीं
पुनर्विचार के दायरे में आता है जब वह मनुष्यता की क्षय करता है। हरनोट जी की
कहानियों का ध्वंस स्वरूप व्यवस्था है तो सृजन पक्ष मनुष्यता है उनका सम्पूर्ण
साहित्य मनुष्यता का रेखांकन है। इस रेखांकन में मनुष्य बाधा बन कर उपस्थित होता है
तो हरनोट जी मनुष्य को भी बख्शते नहीं हैं बल्कि निर्मम समीक्षा करते हैं। मनुष्य और
मनुष्यता के बीच विद्यमान अंतर्विरोधों के मध्य सामंजस्य बैठाने का उद्योग करते
हैं।
अभी हाल में ही
(वर्ष 2014) आधार प्रकाशन पंचकुला, हरियाणा से उनका नया कहानी संग्रह ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ प्रकाशित हुआ है। यह कहानी संग्रह उनकी मनुष्यता की खोज का
विस्तार है, यह कहानी संग्रह शैल्पिक व विषयपरक विविधता के बावजूद भी एक
सूत्रबद्ध निष्कर्ष का प्रतिपादन करता है। वह निष्कर्ष है छोटी-छोटी मुठभेडों से
व्यापक संघर्ष की पीठिका तैयार करना व नष्ट प्राय मनुष्यता की खोज करके सम्पूर्ण
सांस्कृतिक, राजनैतिक, जैविकीय, प्रकृतिक उपागमों का पुनःसंस्कार करना इस संग्रह का निष्कर्ष
है।
इस संग्रह में
नौ कहानियां हैं। संग्रह आने के पूर्व ये कहानियां हिन्दी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित हो चुकी हैं। इन कहानियों की पर्याप्त समीक्षा हो चुकी है। फिर भी एक
संग्रह के रूप में एक साथ आना ही इन कहानियों में एक रचनात्मक अंतर्संबंध स्थापित
कर देता है। मेरा मानना है कि पीडित बहुसंख्यकों के प्रति लगाव यदि लेखक की अपनी
रचना दृष्टि है तो प्रतिबद्धता अनिवार्य नहीं रह जाती क्योंकि प्रतिबद्धता से
ज्यादा महत्वपूर्ण सृजनात्मक जीवनदृष्टि होती है। क्योंकि यही जीवनदृष्टि लेखन को
जन सरोकारों से जोडती है। ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ पढने के बाद मैं कह सकता हूं कि सृजनात्मक जीवन दृष्टि यदि
कहीं देखना है तो हरनोट जी को पढने से बेहतर कुछ नहीं है। इस संग्रह की दूसरी विशेषता
जो मुझे आकर्षित करती है वह है चरित्र से लेकर भाषा तक सादगी का खूबसूरत समावेश किया
गया है। उन्होने सादगी का समावेश तो अपनी हर रचना में किया है पर इस संग्रह में
उन्होने सादगी को ही शिल्प बना डाला है। हर एक कहानी अपनी सादगी और सहजता के बूते
पाठक को मोहपाश में बांधने की कूवत रखती है।
राल्फ फॉक्स ने
कहा है कि व्यक्ति और समाज के बीच विद्यमान असंतुलन के कारण उत्पन्न टकरावों से
कहानी का जन्म होता है। जहां असंतुलन नहीं है वहां कहानी की कल्पना नहीं की जा सकती,
असंतुलन के कारण
ही कहानी संतुलन का सृजन करती है। हरनोट जी का ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ इसी असंतुलन को लेकर चलता है। वो टकरावों को केवल सामाजिक
द्वन्द से जोड कर नहीं देखते अपितु उसे बहुआयामी, बहुस्पर्शी बना
देते हैं। धर्म, संस्कृति, आस्था, जाति परम्परायें, राजनीति, गांव, कस्बे, शहर, इतिहास, भूगोल, ऐसा कोई क्षेत्र
नहीं है जहीं उन्होने टकरावग्रस्त मनुष्यता की खोज न की हो। समस्त भाव भूमियों में
लडते हुये अंत में अपनी कहानी को ही लडाकू बना कर छोड देते हैं। यही कारण है कि
हरनोट के चरित्र शान्त है लेकिन कहानियां जूझती है। इस संग्रह की कहानियां मनुष्य और
मनुष्यता को नियति के यूटोपीयाई विसंगतियों से बाहर निकाल कर समकालीन जमीन पर खडा
करती हैं। समकालीन सरोकारों से जोडने के लिये वो संस्कृति व पर्यावरण के मानक पर
कसने से नहीं चूकते। मनुष्यता के प्रति लेखक का लगाव जमीनी है जिसके कारण उनकी
कहानियों का रचित संसार व्यापक व गहरा हो गया है। मामूली व उपेक्षित समझे जाने
वाले वर्ग के बुनियादी सवालों को उठा कर मनुष्य और मनुष्य के बीच विद्यमान अंतर्विरोधों
को व्यापक जमीनी स्पर्श देना इस संग्रह की खासियत बन गयी है। इसका मूल कारण लेखक
की जीवन दृष्टि है। जिसका आधार सामाज का पीडित और उपेक्षित तबका है। लेखक भी उसी
समाज में रह रहा है जहां कहानी उत्पन्न हो रही है। वह अपनी आंखो से समाज का कटु
सत्य देखता है, वह अनुभूत करता है, वह बार-बार विसंगतियो से टकराता है एवं
उन परिस्थितियों से जूझता है जिससे मनुष्य का क्षरण होता है। स्वाभाविक है कि लेखक
देखा हुआ सच अनदेखा नहीं कर सकता यही देखा हुआ सच लेखक की जीवनदृष्टि बन जाती है।
वह देखता है कि सामंतवादी सामाज में क्या अंतर्विरोध है? वह पूंजी और सत्ता का
गठजोड भी देखता है। वो कानूनी दांवपेंच, भ्रष्टाचार और उत्पीडन की पराकाष्ठा भी देखता है। वह अपने आसपास के
माहौल में सरकारी योजनाओं की दर्दनाक मौत भी देखता है। वो दलित वर्ग की सांस्कृतिक
परम्पराओं की जडता का हिंसात्मक रूप भी देखता है। वो शोषितों, वंचितों और आम आदमी की विकास
के नाम पर तिल-तिल कर मौत भी देखता है। यह देखना किसी भी लेखक के लिये युगबोध का विजन
तय कर सकता है। हरनोट जी की कहानियां इसी विजन को लेकर चलती है।
संग्रह की
आखिरी कहानी ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ में लिटन ब्लॉक की टूटन केवल सांस्कृतिक, ऐतिहासिक इमारत की
टूटन नहीं है वह टूटन बहुआयामी है। समाज के सबसे उपेक्षित तबके की टूटन है। ‘नसमू और कुबडी’ को चरित्र के रूप में सवांर कर उन्होने सत्ता और पूंजी के अदृश्य
गठजोड को परत दर परत खोल कर धर दिया है। भूख और रोटी जैसी सामान्य आवश्यकता किसी
की मौत का कारण बन सकती है इसको न केवल सिद्ध किया है अपितु एक कदम आगे बढकर विकास
के दांवों का खोखलापन उजागर करते हुये वो जता देते हैं कि कुबडी की मौत एक बेघर
भूखे की मौत ही नहीं है वरन् मनुष्यता की भी मौत है। संग्रह की पहली कहानी ‘आभी’ प्रकृति और मानव
के द्वन्द का उदाहरण है। प्रकृति की विभिन्न संरचनाओं के मध्य विद्यमान पारस्परिक
निर्भरता व विनिर्मित जैविक परिवेश को स्वच्छंदतावादी परिवेश के परिप्रेक्ष्य में
देखते हुये लेखक ने प्रकृति के प्रति मानवीय कूरता को विलुप्त होती मानवीय चेतना
से जोड कर देखा है ‘आभी’ के यूटोपीआई परिवेश
की वकालत करते हुये हरनोट जी अमानवीय विकासपरक नारों को काला चिट्ठा खोल कर रख देते हैं। मनुष्य
और मनुष्यता के बीच यह अंतर्द्वन्द उनकी कहानी ‘हक्वाई’ में खूबसूरत शैल्पिक गठन एवं भाषाई सादगी के साथ अभिव्यक्त
हुआ है। इस कहानी में जनसंस्कृति और अभिजात्य संस्कृति का द्वन्द पूरे वजूद के साथ
विद्यमान है। भागीराम का बेघर होना समूची जनसंस्कृति का पतन है साथ ही पूंजीवादी
सरोंकारों से सनी हुयी मनुष्यता की क्रूरतम दावेदारी भी है। उनकी कहानी ‘लोग नहीं जानते कि उनके पहाड खतरे में हैं।’ यह एक अलग भाव भूमि और निहितार्थ लेकर यात्रा करती है। इस कहानी
में लेखक नें परम्परागत जन क्रान्ति के मायने ही बदल दिये हैं। इस कहानी में
औद्योगिक पूंजीवाद व भूमण्डलीकरण के कुचक्र में नष्ट हो रही प्राकृतिक संम्पदाओं
और समाजिक संरचनाओं की सुरक्षा हेतु लेखक ने आस्था और धर्म को हथियार बनाने की
जबरदस्त योजना तैयार की है। उन्होने इस कहानी के माध्यम से सिद्ध किया है कि जो
मनुष्य वर्ग चेतना से अनभिज्ञ है जिसे क्रान्ति की समझ नहीं है जो पूंजीवादी
हथकण्डो में उलझ चुका है जिसे जडता ने चौतरफा घेर रखा है उसे केवल आस्था और धर्म
के सहारे ही वर्गीय चेतना समझायी जा सकती है। उसकी मनुष्यता की संस्कार किया जा
सकता है। यह कहानी आस्था और धर्म की पूंजीवादी संकल्पना का खण्डन करती है।
कहानीकार हरनोट जी |
उनकी
कहानी ‘शहर में रतिराम’ जो बयां पत्रिका
में 'स्खलन' शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है, मनुष्यता की नयी परिभाषा देती हुयी प्रतीत
होती है। रतिराम की ग्राम-सहजता व ईमानदारी नयी बाजारवादी संस्कृति के परिप्रेक्ष्य
में कैसे असामयिक हो जाती है इस तथ्य को उन्होने बडे ही तार्किक अंदाज में दिखाया
है। रतिराम की सहजता ही मनुष्यता है पर बाजारवाद ने उसे इस कदर पीडित किया है कि
रतिराम खुद को असहाय पाता है। रतिराम का असहाय होना मनुष्यता का स्वाभाविक रूदन है,
मनुष्यता का
शोकगान है। अंत में रतिराम का आक्रोश देखते ही बनता है। “उसे लगा कि वह पेशाबघर में नहीं किसी ऊंचे पहाड पर खडा होकर
पूरे शहर पर मूत रहा है” (पृष्ठ 56) ‘लोग नहीं जानते कि उनके पहाड खतरे में हैं।’ कहानी में हरनोट
जी ने जिस आस्था और परम्परा को क्रान्ति चेतना व वर्गीय द्वन्द से जोडकर देखा है।
उसके ठीक उलट अपनी कहानी ‘आस्थाओं के भूत’ में वो आस्था के सामंतवादी दकियानूसी स्वरूप पर करारा
प्रहार करते हैं। आस्था के प्रति इस पक्षधरता व प्रतिरोध का मानक उनकी मनुष्यता है
जब यही आस्था मनुष्यता की खोज करती है तो वो उसमें क्रान्ति की संभावना तलाशते
हैं। जहीं आस्था पूंजीवाद की सहायक बनकर सामने आती है वहां वो खण्डन करने से भी
नहीं चूकते ‘आस्थाओं के भूत’ में चुन्नी का
संघर्ष सामंतवादी परिवेश में जकडी मनुष्यता
का संघर्ष है। आस्था पर चुन्नी की जीत मानवता की जीत है। इस संग्रह की कहानी ‘गाली’ स्वतंत्रता के बाद हिन्दुस्तानी गांवो की जीवंत राजनैतिक
तस्वीर खींचती है। कहानी का शिल्प तमाम अंतर्विरोधों को एक सूत्र में पिरोता हुआ
गांधीवादी सपने की दुर्दशा अभिव्यजिंत कर रहा है। ग्राम प्रधान की हत्या के मायने
आज के लोकतांत्रिक समाज में चाहे जो हों लेकिन मुस्कीराम आरंभ से लेकर अंत तक पाठक की संवेदना का पात्र
बना रहता है। राजनैतिक कुटिलता में फंसे मुस्कीराम का दोष केवल इतना है कि उसने सच
बोलने का दुस्साहस किया है। यह सच वहीं है जहां मनुष्यता झूठ के सामने लाचार हो जाती है। कहानी ‘जूजू’ विकास के साथ
बदलती संवेदनाओं का नया खाका खींच रही है। एक ऐसा खाका जहां मनुष्यता को निजी
लिप्सा ने लील लिया है। उनकी कहानी ‘मांए’ एक अलग कहानी है।
इस कहानी में पशु की पशुता को नकार कर मनुष्यता की प्रतिष्ठा की गयी है। मनुष्य की
वेदना चाहत व संवेदनाओं को बहुउद्देशीय स्वार्थपरकता से जोड कर दिखाया गया है। साथ
ही पशुओं की निश्छलता व प्रेम के समक्ष तुलनात्मक मूल्यांकन किया गया है। 'मांए'
कहानी में हरनोट जी परम्परा, विकास, कुरीति, राजनीति, प्रचार, मीडिया सब पर एक साथ प्रहार करते नजर आते हैं। मनुष्यता की प्रतिष्ठा करने हेतु उन्होने बंदर की ममता का जिस तरह से चित्रण किया है इससे पाठक
के समक्ष खण्डित मनुष्यता की दर्दनाक चीख रह-रह कर सुनाई देती है।
कहा जाता है कि
भाषा कभी भी सरोकारों से कटकर नहीं चल सकती। लेखक प्रतिबद्ध है या नहीं इसका फर्क
भाषा से जोड कर नहीं देखा जा सकता। ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ की भाषा ने न तो प्रतिबद्धता को नकारा है और न ही तीखे भाव
बोध को नकारा है। भाषा के कथा बिम्बों ने इस संग्रह को जनापेक्षी बनाने में कोई
कसर नहीं छोडी इसका कारण है कि हरनोट जी ने भाषा का सबसे मजबूत दुर्ग बोलचाल की भाषा अपनाई है। जिस कथ्य में भाषा रूढि बन कर उपस्थित होती है वहां प्रतिबद्धता एक
विज्ञापन लगने लगती है। हरनोट जी इस खतरे से दूर हैं। क्योंकि उनकी भाषा न तो
आरोपित है और न हीं प्रचारधर्मी है वरन् जीवंत संवेदनाओं की लगावपूर्ण सादगी से
सुगठित है। यदि सादगी का नकार इन कहानियों में होता तो निश्चित है कि ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ की खोज अप्रमाणिक हो जाती है।
यही बात शिल्प के
संबंध में कही जा सकती है शिल्प वह साधन है जिसके द्वारा लेखक अपने विषय की छानबीन
करना है। उसका विकास करता है, उसको प्रस्तुत करता है। हरनोट जी का शिल्प वही है जिसे
अधिकांश कहानीकार अपनाते रहे हैं। इसे कहानी का “क्लासिकल शिल्प” कहा जा सकता है। इसमें घटना का आरम्भ एक बिन्दु से हो कर
तमाम बिन्दुओ को स्वयं में समाहित करता हुआ एक बडे विजन की ओर बढता जाता है। और
अंत में लेखक अपने सरोकरों से लैस निष्कर्ष का बडी सावधानी से प्रतिपादन कर देता
है। हरनोट जी की सबसे बडी विशेषता है कि बीच-बीच में कथा मूर्तन के सहारे बडा ही
रोचक वातावरण सृजित करते हैं। इस प्रक्रिया से कहानी की सम्प्रेषणीयता व
अभिव्यंजना कई गुना बढ जाती है। विषेशकर जब वो प्रकृति व परम्परागत समुदायों की अहस्तक्षेपपूर्ण
अवस्थाओं की ओर पाठक को ढकेलते हैं। तो उनकी कथा मूर्तन क्रिया बडी शिद्दत के साथ
पाठक के साथ साथ चलने लगती है। इस प्रक्रिया से उन्होने वर्गीय द्वन्द, वर्गीय चेतना की
पहचान भौतिक द्वन्द का सहज मूर्तन उपेक्षित समुदायों की पीड़ाओं को बखूबी दिखाया है।
हरनोट जी की कथा
प्रवृत्ति किसी भी सैद्धातिक और भाषिक चौखटे पर जकडे जाने में विश्वास नहीं करती।
वो मुक्त रचनाधर्मिता के कायल हैं। उनकी रचनादृष्टि पीडित, वंचित, शोषित समुदाय के प्रति लगाव से नियंत्रित है। यही
कारण है कि उनका कहानी संग्रह ‘लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ अलग-अलग कथा भूमियों को सहेज कर भी एक सार्वभौमिक निष्कर्ष का
प्रतिपादन कर रहा है। वो सार्वभौमिक निष्कर्ष है तमाम अंतर्विरोधों में गुमशुदा
मनुष्य की खोज। उन्होने समय के साथ मनुष्य के टकरावों को दिखाने के लिये वातावरण
का सृजन अपने पहाडी अंचल में ही किया है। एक सहज परिवेश, सहज चरित्र,
सहज शिल्प,
सहज भाषा के
द्वारा मनुष्य और मनुष्यता के टकरावों का सांगोपांग विवेचन अपने आप में अनूठी
प्रक्रिया है। हरनोट जी इसमें पूर्ण रूप से सफल रहें है। उन्होने अपनी कहानी की
वस्तु वहीं से लिया है जहां असंतुलन है, जहां अंतर्विरोध है। इस असंतुलन के दौर
में उनके चरित्र मोह भंग का शिकार नहीं हुये बल्कि मनुष्यता के साथ डट कर खडे रहे।
इस प्रकार ‘लिटन ब्लॉक गिर
रहा है’ अपने अलहदा समस्या
के कारण अपने समकालीन संग्रहों से अलग दिखाई पडता है। उत्पीडक व्यवस्था, संस्कारहीनता,
लोकतांत्रिक तानाशाही,
संवेदनहीनता को
मुंह चिढाते हुये मनुष्य और मनुष्यता के द्वन्द का चित्रण करते हुये मनुष्यता की
सम्भाव्य भंगिमा को स्वीकार करते हुये यह संग्रह मनुष्य व मनुष्यता के बीच द्वन्द
का अद्भुद प्रलेख बन गया है।
सम्पर्क-
उमाशंकर सिंह परमार
जिला सचिव, जनवादी लेखक संघ बांदा,
हिन्दी प्रवक्ता,
आदर्श किसान इंटर कालेज भभुवा, बांदा, उत्तर प्रदेश
मोबाईल - 09838610776
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें