आशीष मिश्र का आलेख 'गणेश पाइन : मृत्यु से दो-दो हाथ'
गणेश पाइन |
'गणेश पाइन : मृत्यु से दो-दो हाथ'
आशीष मिश्र
गणेश पाइन को समझने के लिए मनोविश्लेषण और रूढ यथार्थवाद दोनों
नाकाफ़ी हैं। पर उनके बारे में आम समझ इन्हीं आधारों पर निर्मित है। एक के अनुसार
उनका सर्जक व्यक्तित्त्व मैलेंकोलिया (एक मनोरोग जिसमें सबकुछ उदास लगता है) की उपज
है तो दूसरे के अनुसार- वे यथार्थ से दूर और रूपवादी हैं। पहला, अपना तर्क पुष्ट करने के लिए उनके
बाल्य-जीवन में उतरता है और दूसरा, ‘बंगाल
स्कूल’ व ‘सोसाइटी ऑफ कंटेम्परेरी
आर्टिस्ट ग्रुप’ को ‘प्रोग्रेसिव
आर्टिस्ट ग्रुप’ के बरक्स रखकर सारी कसरत टेक्स्ट के बाहर
करता है।
यह सही है कि उनकी कृतियों में उदासी और अवसाद एक स्थाई भाव की तरह मौजूद
है। पर रंगों की चादर के नीचे जो दिप-दिप करता जीवन है, उसकी
व्याख्या कैसे होगी! गणेश पाइन के यहाँ चीजें बड़ी
द्वंद्वात्मकता में उपस्थित हैं- गाढ़ा अंधकार-दीप्त फंतासी,
मृत्यु-जीवन, छाया-प्रकाश- एक-दूसरे का ‘जस्तोपाज़’, एक-दूसरे से लिपटे,
एक-दूसरे में उपस्थित। इन चित्रों में यथार्थ सीधे और इकहरे रूप में नहीं आता, वे इसकी पूर्णता का ‘आब्सट्रैकशान’ करते है और इसे विशिष्ट मोटिफ में रचते हैं। अगर कोई पल्लवग्राही यहाँ
कहानी ढूढ़ना या यथार्थ बटोरना चाहे तो निराश ही होगा। कलाओं में चीज़ों की
वस्तुवत्ता सीधे-सीधे कागज़ पर या कैनवाश पर नहीं उतर जाती। पहले वह कलाकार के आत्म
का हिस्सा बनती है और फ़िर चेतन-अवचेतन के विविध परतों को पार करती हुई रूपाकार
ग्रहण करती है।
फूल में धरती, हवा,
पानी सब कुछ है पर रंग, सुगन्ध और गढ़न के रूप में। उनके इस ‘आन्तरिक यथार्थ’ में मिथक,
साहित्य, लोक-कथा, इतिहास, बालमन पर पड़े दंगों और मृत्यु की छापें, जीवन के
नैत्यिक अनुभव, दुनिया की कला परम्पराएँ सब एक-दूसरे में
घुले-मिले रूप में मौज़ूद हैं। एक बार किसी साक्षात्कार में उन्होने उथले यथार्थवाद
का विरोध करते हुए कहा- ‘इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं’।
गणेश पाइन के कलाकार व्यक्तित्त्व की जड़ें अपनी जमीन में बहुत
गहरे तक धँसी हैं। उनके व्यक्तित्त्व का महत्त्वपूर्ण हिस्सा उस समय भी अपनी स्थानीय
परम्परा से जुड़ा हुआ था जब अन्य कलाकारों के साथ प्रगतिशील आंदोलनों से जुड़े
कलाकार बंगाल स्कूल तथा उसके राष्ट्रवादी बोध का विरोध करते हुए एक विशिष्ट तरह के
अंतर्राष्ट्रीय आधुनिकता की तरफ़ बढ़ रहे थे।
धारा के विपरीत उन्होने अपने को बंगाल
स्कूल से जोड़ा और कला को समृद्ध किया। उन्होने कई जगह इस बात को स्वीकार किया है
कि उन पर अवनीन्द्र्नाथ टैगोर का प्रभाव है। इसके बावजूद भी वे परम्परावाद के
गिरफ़्त में नहीं आते, बल्कि
परम्परा से जुड़ कर आधुनिकता का एक विशिष्ट मुहावरा गढ़ते हैं।
उनका जन्म कलकत्ता (आज के कोलकाता) में 1937 ई॰ में हुआ था। वे
बंगाल में हुए तमाम दंगों के साक्षी रहे। 1946 की गर्मियों में मुस्लिम लीग द्वारा
घोषित सीधी कार्रवाई दिवस से मची सांप्रदायिक हिंसा का उनके बालमन पर गहरा प्रभाव
पड़ा। इसके अतिरिक्त जीवन तमाम पारिवारिक क्षति भी झेला। उनके अपने समय का यथार्थ
इन सबके साथ मिल कर चित्रों में उदासी, पीड़ा और कुछ नष्ट होने के भाव के रूप में अभिव्यक्त होता है।
पाइन का
अन्तर्मन बचपन में सुनी कथा-कहानियों से भरा हुआ था, जिसे
उन्होने कई जगह स्वीकार किया है। कला-शिक्षा पूरी होने के बाद उन्होने
कार्टून-एनीमेशन का पेशा अपनाया। इस समय वे अमेरिकी कलाकार वाल्ट डिज़्नी (जिसने
हॉलीवुड में ख़ूब नाम कमाया) से प्रभावित दिखते हैं। एनीमेशन उनके अंतर्जगत में भरी
कहानियों और लोक-कथाओं से जुड़ कर विशिष्ट प्रभाव पैदा करता है। इसमें वर्तमान, भूत और भविष्य का जड़ कालबोध मिट जाता है।
एनीमेशन के प्रभाव ने इनके
कलाकार व्यक्तित्त्व को और मुक्त किया। इनके चित्रों में महाभारत के किसी पात्र के
चेहरे पर हमारे समय का भाव दिख जाए तो स्वाभाविक है। उनके ‘द
गेट’ शीर्षक चित्र को देखते हुए लगता है हम पाइन की आँखों
में झाँक रहे हैं। उसी दौर में गठित ‘सोसाइटी ऑफ कंटेम्परेरी
आर्टिस्ट’ से भी इनका जुड़ाव रहा। ‘प्रोग्रेसिव
आर्टिस्ट ग्रुप’ से इतर इस संगठन ने कलाकारों की शैली और
रूपाकार में निजता को विशेष महत्त्व दिया।
पाइन को आरंभिक पहचान जलरंगों में मिली पर आज उन्हें टेम्परा के
लिए याद किया जाता है। एक साक्षात्कार में कहते हैं- ‘कलम-स्याही, जलरंग और
कंटी के बाद मैं टेम्परा पर आया, जो मेरे मन के सर्वाधिक
अनुकूल था। हालाँकि अपना टेम्परा बनाने में मुझे दस साल लग गए। यूरोपीय और भारतीय
मिनिएचर पद्धति को मिला कर मैंने अपनी टेम्परा विकसित की। यह मेरे मन से बहुत
मिलता-जुलता है।
गणेश पाइन के चित्रों में गाढ़ा अंधकार एक सामान्य विशेषता के रूप
में हर जगह मौज़ूद है। यह सामने की आकृतियों को उभारने का काम करता है पर इससे
ज़्यादा यह एक मानसिक दार्शनिक सन्दर्भ के रूप में उपस्थित है। यह मृत्यु, अनस्तित्व, उदासी, आतंक आदि एक-दूसरे में घुले-मिले भावों का प्रतीक है। इस भाव का अक्श
सामने की आकृतियों पर भी होता है। ये आकृतियाँ इनमें डूबी हुई पर एक गहरी उदासी, पीड़ा, संत्रास के साथ इससे बाहर भी दिखती हैं। पाइन
के चित्रों में मृत्यु का बोध बड़ा गहरा है। उनके लिए यह कोई अवस्था न होकर
सार्वभौम सत्य है; हर क्षण जीवन के साथ लगी हुई। यह किसी ‘बुकमार्क’ की तरह बार-बार उनके चित्रों में लौटता
है।
एक दफ़ा उनके एक प्रशंसक ने कारण पूछा तो उन्होने कहा - ‘मौत
से मुझे ख़ास लगाव है। हम सब जानते हैं कि मौत ही अन्तिम सच है। मैंने उसे बहुत
क़रीब से देखा है’। उनके लिए मृत्यु स्वाभाविक है; डर का विषय नहीं। उनके चित्रों में गाढ़े रंगों में अभिव्यक्त अनस्तित्व
सामने विविध भावों में डूबे अस्तित्व को उभारने और पकड़ पाने का एक तरीक़ा भी है। अनस्तित्व
हर तरफ़ है, सबकुछ में शामिल है पर मनुष्याकृतिओं, पशु-आकृतियों, दिया के लौ,
हड्डी के ढ़ाचों, कबूतर और घायल पक्षी के रूप में अस्तित्व भी
हमेशा दीप्त है। यह पाइन का मृत्यु से लड़ने का अपना कलात्मक तरीक़ा है। यह सम्भव हो
पता है सिंबोलिज़्म और सुर्रियलिज़्म का अपने लिए साधे हुए उपयोग और उनके विशिष्ट
टेम्परा के कारण।
यह वाक़ई आदमी के मन की तरह है- भाव के ऊपर भाव, रंगों के ऊपर दूसरे रंग की चादर, इस सबके नीचे से
झाँकता सबसे प्रभावी गाढ़ा रंग। यहाँ अतीत, वर्तमान और भविष्य
एक-दूसरे से बगलगीर हैं। यहाँ चीज़ों के बारे में ‘कॉमन सेंस’ थोड़ा ढीला करना होता है, जिससे यथार्थ के अन्य
जरूरी पक्ष अपने आप ही आ जाते हैं। यहाँ एक मोची दार्शनिक दिख सकता है और कंकाल
में एक पीड़ा और दर्द का भाव मिल जाए इसकी भी पूरी संभावना है।
गणेश पाइन ने अन्य चित्रकारों की अपेक्षा चित्र चाहे कम बनाए हों
पर इसमें विषय की बहुलता है। उन्होने इतिहास, मिथ और साहित्य के हाशिये पर पड़े चरित्रों को लेकर अनेक चित्र बनाए-
दुशाला, अम्बा, एकलव्य, युयुत्सु, चैतन्य आदि। इस दृष्टि से महाभारत शृंखला
के सारे चित्र उल्लेखनीय हैं। ‘बोट मैन’ क्रम के चित्रों को भी ख़ूब प्रसिद्धि मिली। इस सबके बावजूद जब BBC पर एक साक्षात्कार में पूछा गया-‘अब पीछे मूड कर
देखने पर कैसा महसूस करते हैं? तो उनका जवाब था –“मैं निरंतर
सीख रहा हूँ। सही अर्थों में जिसे संतुष्टि कहते हैं, वह
अबतक मुझे नहीं मिल सकी है। यह कहना ज़्यादा सही होगा कि मुझे इतने वर्षों बाद भी
संतुष्टि की तलाश है”। यह कथन उस व्यक्ति का है जिसके बारे में एम एफ हुसैन साहब ने
कहा- “हजारो वर्षों के भारतीय कला में सिर्फ़ एक गणेश पाइन ही काफी हैं”।
आशीष मिश्र |
सम्पर्क-
मोबाईल- 08010343309
(युवा आलोचक आशीष इन दिनों दिल्ली में रहते हुए स्वतन्त्र रूप से लेखन कार्य कर रहे हैं. इन दिनों कलाओं का विशेष अध्ययन और कला से जुड़े गंभीर लेखन में लगे हुए हैं.)
बहुत उपयोगी जानकारी गणेश पाइन जी के बारे में , उनकी रचनाशीलता के बारे में।
जवाब देंहटाएंआशीष मिश्र और पहलीबार के प्रति आभार।
-नित्यानंद गायेन।
स्तरीय और जानकारी पूर्ण लेख
जवाब देंहटाएंसिंबोलिज्म और सुर्रियलिज्म का भारतय चित्र परंपरा के साथ जैसा मेल हम गणेश पाइन की कला में देखते हैं, वैसा सच में भारतीय कला में कहीं नहीं दिखाई देता है। आशीष ने बहुत सुंदर ढंग से गणेश पाइन के ऐतिहासिक अवदान को रेखांकित किया है।
जवाब देंहटाएं