भरत प्रसाद की सुरेश सेन निशान्त से बातचीत
कविता के क्षेत्र में आज अनेक
महत्वपूर्ण कवि सक्रिय हैं। सुरेश सेन निशांत ऐसे ही कवि हैं जो सुदूर हिमाचल के
पर्वतीय अंचल में रहते हुए भी लगातार सृजनरत हैं। उनकी कविताएँ चोंचलेबाजी से दूर
उस सामान्य जन की कविताएँ हैं जो लगातार हाशिये पर रहा है। निशान्त में उस हाशिये
को जानने की एक ललक दिखाई पड़ती है। जो उनकी कविताओं में स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ती
है। ‘वे जो लकडहारे नहीं हैं’ नामक उनका कविता संग्रह काफी चर्चित रहा है। ऐसी ही
जमीन के कवि सुरेश सेन निशान्त से एक बातचीत की है युवा कवि-आलोचक भरत प्रसाद ने।
आइए रु-ब-रु होते हैं हम इस बातचीत से।
भरत
प्रसाद की सुरेश सेन निशान्त से बातचीत
भरत
प्रसाद :- हिन्दी कविता की
मौजूदा गति, प्रगति और संभावना को आप किस रूप में देखते हैं? हताशाजनक, उत्साहवर्धक या
आश्चर्यपूर्ण उम्मीद से भरी हुई।
सुरेश
सेन निशान्त :- जहां तक कविता
की वर्तमान अवस्था की बात है मैं उससे पूरी तरह आशान्वित हूँ। यह ठीक है कि कविता
को एक वर्ग द्वारा दुरूह यानि गद्यनुमा बनाने के प्रयत्न हो रहे हैं और उसे ही
कविता मानने व मनवाने की कवायद भी चल रही है। कुछ आलोचकों द्वारा उसे प्रशंसित व
पुरस्कृत भी किया जा रहा है, पर इसके बीच भी
कुछ लोगों द्वारा अच्छी कविता लिखी जा रही है .... पढ़ी जा रही है और सुनी जा रही
है .... ऐसे कवि अभी भी हैं जो अपने श्रम और रियाज से ऐसी कविता रच रहे हैं जिसमें
वे कविता की आंतरिक लय का क्षरण नहीं होने दे रहे हैं .... इसे चाहें तो त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल जी की कविताओं में देख सकते
हैं। उसके बाद अगली पीढ़ी के कवियों में विजेन्द्र, भगवत रावत और केदारनाथ सिंह में यह लय देखी जा सकती है।
थोड़ा आगे चलने पर राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा हैं। कुछ और आगे बढ़ें तो एकान्त श्रीवास्तव, मदन कश्यप, कुमार अम्बुज, अरूण कमल हैं जो हमारे लिए आदरणीय और अनुकरणीय हैं, जिन्होंने कविता को अपनी शर्तों पर जिया और जन तक पहुंचाया
है। इनकी कविताओं का पाठ लोगों को कविता की दुनिया में रूकने के लिए मजबूर करता है
... मैंने अनेक बार इन कवियों की कविताओं का पाठ लोगों के बीच किया है, खासकर ग्रामीण जनों के बीच। उन लोगों ने इनकी कविताओं को
समझा और सराहा है। अच्छी कविता के प्रति उनकी ललक देखते ही बनती है। मैंने अपनी
कविता की किताब “वे जो लकड़हारे नहीं हैं” की लगभग 200 प्रतियां खुद जन के
बीच जा कर बेची हैं .... अगर वे कविता के पाठक न होते तो वे मेरी
किताब क्यों कर खरीदते? एक और बात हम
कवियों को भी ये सोचना होगा कि हमें अपनी रचना को लोगों तक कैसे पहुंचाना है और
इसके बारे में गम्भीरता से सोचना होगा ..... अगर पाठक कविता के पास नहीं पहुंच पा
रहे हैं तो कविता को जन के पास पहुंचने की तरकीबें और रास्ते ढूंढने होंगे। ये
रास्ते किसी दिल्ली,
भोपाल या पटना
जैसे बड़े शहरों से नहीं निकलेंगे बल्कि हमें अपने जनपद में ही ढूंढने होंगे।
मैं अपने जनपद में पहल, वसुधा, कथादेश, बया, कृतिओर, जनपथ, नया पथ, आकण्ठ, पक्षधर, समयान्तर, वर्तमान साहित्य जैसी अनेकी पत्रिकाओं का वितरण करता हूँ, जागरूक पाठकों के पास बार-बार जाता हूँ, उन्हें पढ़ने के लिए उकसाता हूँ। मैंने देखा है कि लोग अच्छी
रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, अच्छी पत्रिका
खरीद कर पढ़ते हैं। शिमला में यही काम एस.आर. हरनोट जी कर रहे हैं। ये मैंने उन्हीं
से सीखा है कि हमें अपने जनपद में पाठकों को ढूंढना होगा, पढ़ने-पढ़ाने का एक नया माहौल बनाना होगा, तभी हमारे लिखने का कुछ फायदा है।
भरत
प्रसाद :- अपनी रचना-यात्रा
में वे कौन से मूल कारण रहे, जिसने आपको कविता
के लिए उकसाया, प्रेरित किया या मजबूर किया। सृजन का निर्णय आपके स्वभाव के
कारण है या योजना के तहत लिया गया फैसला?
सुरेश
सेन निशान्त :- जब मैं आठवीं में
पढ़ता था तब पहली कविता लिखी .... अपना एक दोस्त था शंकर उसे शर्माते हुए दिखाई
.... उसने कहा यार इसे छपने के लिए भेजो और उसी ने “जनप्रदीप” नामक दैनिक अखबार में छपने के लिए भेज दी और वह छप गई ....
कक्षा के विद्यार्थियों ने वह कविता हिन्दी की प्राध्यापिका को दिखाई, भले ही वह कविता अच्छी नहीं रही हो पर उन्होंने मेरे कवि
होने पर बहुत खुशी जताई। दसवीं के बाद डिप्लोमा करते हुए गजलें लिखने लगा ....
गजलें इधर-उधर छपने भी लगीं। मुझे स्थानीय कवि सम्मेलनों में बुलाने भी लगे। मैं
सोचता था बस इतनी भर ही है यह साहित्य की दुनिया .... उन्हीं दिनों 1990-1991 की
बात है मुझे एक कवि सम्मेलन में किसी ने “पहल” पढ़ने के लिए दी। “पहल” को पढ़ना, उसके बीच से गुजरना एक अद्वितीय अनुभव था .... मैं आज की
कविता की बनक और उसका असर देखकर हैरान रह गया। मैं “पहल” के माध्यम से ही केदार नाथ अग्रवाल, नागार्जुन और
त्रिलोचन जी के पास पहुंचा। उन्हीं दिनों मुझे केदार नाथ अग्रवाल जी का कविता
संग्रह “फूल नहीं रंग बोलते हैं” हाथ लगा ..... उसकी भूमिका पढ़ कर मैं अभीभूत हो गया। मेरी
बहुत सी शंकाओं का समाधान उस किताब की भूमिका ने कर दिया। मैंने लगभग पचास बार उस
भूमिका को पढ़ा होगा .... जैसे उस भूमिका ने मुझे निराशा के गहन अन्धेरे से निकाल कर
नईं रोशनी में बिठा दिया हो। भूमिका कुछ इस प्रकार थी “बहुत पहले जो मैं
लिखना चाहता था वह नहीं लिख पाता था, कठिनाई होती थी।
कविता नहीं बन पाती थी। कभी एक पंक्ति ही बन पाती थी। कभी अधूरी ही पड़ी रह जाती
थी। तब मैं अपने में कवित्व की कमी समझता था। खीझ कर रह जाता था। औरों को धड़ल्ले
से लिखते देख कर अपने उपर क्षुब्ध होता था। मौलिकता की कमी महसूसता था। तब मैं यह
नहीं जानता था कि कविता भीतर बनी-बनाई नहीं रहती। मैं समझता था कि वह कवि के हृदय
में-मस्तिष्क में सहज-संवरे रूप में पहले से रखी रहती है। प्रतिभावान कवि उसे भीतर
से बाहर ले आता है। कितना गलत था मेरा विचार, कितनी गलत थी मेरी
मौलिकता की धारणा। “ कई सालों तक उनकी
भूमिका की ये पंक्तियां मैंने अपनी पढ़ने की मेज के शीशे के नीचे रखे रखी। इन
पंक्तियों के पीछे छुपी सृजन की तपिश मुझे आज भी हौंसला देती रहती है।
“पहल” में छपी समीक्षाओं के माध्यम से मैंने जाना कि मुझे कौन सी किताबें
पढ़नी चाहिए। मैंने राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, विजेन्द्र, आलोक धन्वा, कुमार अम्बुज और एकान्त श्रीवास्तव को पढ़ा। कविता की तमीज
सीखने की कोशिश की ..... इन्हीं लोगों की कविताओं ने कविता की दहलीज पर जैसे मेरा
स्वागत किया ..... मेरे अन्दर बैठे कवि को पोसा उसका हौंसला बढ़ाया। “पहल”, “कृति ओर”, “आकण्ठ”, “साक्षात्कार” (सोमदत्त जी के सम्पादन में निकलने वाली), “दस्तावेज”, “वसुधा”, “कथादेश”, “वागर्थ” जैसी पत्रिकाओं ने मेरे कवि संस्कारों को ठीक ढंग से पोषित
किया और एक माँ की तरह मार्गदर्शन भी किया .... जहां तक कविता में उतरने की बात है
वह हर कवि के स्वभाव, उसके व्यक्तित्व
की कैमिस्ट्री में घुला हुआ होता है। कवि चाहे छोटा हो या बड़ा .... अच्छा हो या
बुरा मेरे ख्याल में किसी योजना के तहत वह इस रास्ते पर नहीं आता .. कविता के
प्रति एक अन्जान आकर्षण उसे इस दुनिया में ले आता है। यह परिस्थितियों पर और उसकी
मानसिकता पर निर्भर करता है कि वह अपने आस-पास की दुनिया से किस तरह प्रभावित होता
है वह कैसे लोगों से मिलकर अड्डेबाजी करता है, किन कवियों को पढ़ते हुए अपने संस्कार विकसित करता है ... वह
लम्बे रियाज के लिए अपने को तैयार करता है या कोई शॉर्टकट अपनाते हुए एक ही सांस
में इंग्लिश चैनल पार कर जाना चाहता है।
भरत
प्रसाद :- अपने समकालीन कई
महत्वपूर्ण बहुचर्चित और तथाकथित अनेक बड़े नाम हैं। जैसे केदारनाथ सिंह, विजेन्द्र, विष्णु खरे, भगवत रावत, उदय प्रकाश, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्रपति
इत्यादि। अपने प्रखर पाठक और जिम्मेदार कवि को कसौटी पर ही नहीं, अपने निरपेक्ष इन्सान की कसौटी पर इन वरिष्ठ कवियों के
योगदान, महत्व और सच्चाई का मूल्यांकन कैसे करेंगे?
सुरेश
सेन निशान्त :- ये तीन-चार नहीं
और भी कई बड़े नाम हैं, जिन्होंने इस
काव्य की परम्परा को आगे बढ़ाया है और अपनी तरह से एक नए व अनूठे ढंग से समृद्ध भी
किया है। जहाँ तक विष्णु खरे जी की बात है, वे बड़े और अच्छे
आलोचक हैं, पर वे कवि के रूप में मुझे उतना प्रभावित नहीं करते हैं। पर
जहां तक केदार नाथ सिंह, विजेन्द्र जी व
भगवत रावत जी की बात है ये तीनों अलग-अलग तरह से मुझे प्रभावित करते हैं। भले ही
केदार नाथ सिंह जी आकर्षित बिम्बों के साथ ग्राम्य जीवन का पॉजिटीव पक्ष ही दिखाते
हों। भले ही उसमें कलाकारिता ज्यादा हो, पर इसके बावजूद वे
जीवन के कवि हैं, उसकी जीत के कवि हैं। उनकी कविता में छुपी गेयता पाठकों को
दूर और देर तक छूती है।
विजेन्द्र जी हमें
त्रिलोचन जी की परम्परा के कवि लगते हैं, उनके व्यवहार की
सादगी नए कवियों के प्रति उनका प्रेम उनकी रचनाशीलता पर उनकी पैनी नजर उन्हें नए
कवियों के बीच लोकप्रिय बनाती है। विजेन्द्र जी जितने अच्छे कवि हैं उतने ही अच्छे
और बड़े सम्पादक भी। कविता के सम्बन्धित उनके सुलझे सम्पादकीय लोक कविता के प्रति
हमारी सोच को परिष्कृत करते हैं और लोक के नए सौंदर्य शास्त्र को हमारे सामने
खोलते हैं।
जहां तक भगत रावत
जी की बात है .... वे मुझे बच्चों जैसी इनोसैंस से भरे हुए कवि लगते है .... अपने
जीवन और समझ के बहुत पास, सरलता को साधते
हुए .... जीवन को सजाने की उष्मा से भरे हुए .... हर नया कवि जो कविता में सरलता
को साधना चाहता है,
उसके लिए भगवत
रावत जी को पढ़ना बहुत जरूरी है। भगवत जी हमारे समय के बहुत ही महत्वपूर्ण कवि हैं
और हम नए कवियों के लिए तो बहुत जरूरी कवि भी।
उदय प्रकाश जी के
मैंने लगभग सभी संग्रह पढ़े हैं। वे कवि के रूप में प्रभावित भी करते हैं। पर इधर
उनकी जीवन शैली और फेसबुक पर झलकता उनका अहंकार (समयान्तर जनवरी में छपी कविता
कृष्ण पल्लवी से उनकी बातचीत) तथा एक हिन्दुत्ववादी मंच पर पुरस्कार लेने के लिए
उनका पहुंचना ..... हमारे मन में बनी उनकी गरिमामय छवि को तोड़ता है। जहां तक आलोक
धन्वा जी की बात है उनकी कविताएं हमारे लिए जन गीतों की तरह हैं। जो अकेले में लोक
गीतों की तरह गुनगुनाई जा सकती हैं। ज्ञानेन्द्र पति जी कविता में डूबी हुई
शख्सियत हैं, उनके गद्य और पद्य में एक लय है, शिल्प की एक साधना है, किसानी मिट्टी की
गंध है, उनसे हमें यह बात सीखनी होगी कि आज भी कविता के लिए अपने को
कोई इतना डिवोट कर सकता है।
भरत
प्रसाद :- हिमाचल प्रदेश
आपका गृह-प्रदेश है। जिसने आपको बनाया, गढ़ा और विकसित
किया है। अपने निर्माण में इस प्रदेश के योदान को आप किस तरह (सकारात्मक और
नकारात्मक) देखते हैं?
सुरेश
सेन निशांत :- हिमाचल प्रदेश एक
पहाड़ी प्रदेश है। यहां जीना एक कठिन दुर्गम साधना की तरह है .... भले ही बाहर से
आए पर्यटकों को यहां के पहाड़ और पेड़ थोड़ा-बहुत लुभाते होंगे। पर यह उन लोगों के
लिए मुफीद जगह नहीं है जो शांति से जीना चाहते हैं। यहां वन हैं जिनका वन माफिया
ने जी भर कर दोहन किया है ..... यहां पहाड़ हैं, जिन्हें यहां के नेताओं के स्टोन क्रशर व पूंजीपतियों की
सीमेन्ट फैक्ट्रियाँ जी भर कर उनकी देह को खाए जा रही हैं, मगर उनकी भूख है कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही। हम
हिमाचल को तीन भागों में बांट सकते हैं। अपर हिमाचल है जो ठण्डा है, जहां सेब है, टूरिस्ट हैं और
सेब से होने वाली अच्छी आय है। यहां प्रदेश की बहुत ही कम जनसंख्या रहती है, जिसके कई कारण हैं जिनकी डिटेल्ज में मैं यहां नहीं जाना
चाहता। यहां मध्य हिमाचल है ..... जहां कोई कैश क्रॉप नहीं, जहां जमीन बंजर है, पहाड़ तपे हुए
रेगिस्तानों की तरह हो गए हैं ..... साल में एक फसल ही ढंग की होती है और रोजगार
के नाम पर अधिकतर लोग यहां से बाहर जा कर मजदूरी, कुलीगिरी या सीमेंट फैक्ट्रिरियों में काम करते हैं। पानी
के स्रोत आए दिन होने वाले विस्फोटों के कारण सूखते जा रहे हैं। यहां औरतों का
जीवन बहुत ही कठिन है। वह घास और पानी के सफर के बीच ही बीत जाता है। लोअर हिमाचल
है, यह पंजाब के निकट है ... कह सकते हैं कि बाऊंड्री लाईन है
पंजाब की .... बस थोड़ी सी खुशहाली दिखती है तो बस यहीं। हिमाचल की अपनी कोई भाषा नहीं।
अपर हिमाचली में भोटी या तिब्बती का प्रभाव है, मध्य हिमाचल में डोगरी का, लोअर हिमाचल में पंजाबी का। यहां के साहित्य संस्कारों में
इन सभी का थोड़ा-बहुत समावेश है .... ज्यादातर प्रभाव हिन्दी की पत्रिकाओं का है
जिन्होंने यहां के साहित्य के संस्कारों को पोषित किया है।
मैं यहां मध्य हिमाचल में पैदा हुआ हूँ। यहां हिमाचल की
अधिकतर जनसंख्या बसी है। यहां वनों का विनाश और पहाड़ों का क्षरण हर कहीं देखा जा
सकता है। मैंने साहित्य का ककहरा यहीं विनाश के कारण क्षरण हुई इस मिट्टी में सीखा
है। यहां केशव, श्रीनिवास श्रीकांत, सुन्दर लोहिया, एस.आर. हरनोट, मधुकर भारती ये
सभी ऐसे शख्स हैं जिन्होंने अपनी मेहनत और स्नेह से यहां के साहित्यिक वातावरण को
पोसा है। यहां युवाओं में आत्मारंजन, मुरारी शर्मा, कृ.च. महादेविया, गणेश गनी जैसे
सहृदयता से भरे मित्र हैं। आत्मारंजन जितना अच्छा कवि है उतना ही अच्छा इन्सान है।
अपनी निराशा के क्षणों में मैंने उसे हमेशा एक सम्बल की तरह पाया है। अगर वह यहां
नहीं होता तो शायद यहां का वातावरण कभी का मेरे अन्दर बैठे कवि को खत्म कर चुका
होता। यहां जहां जीवन के साकारात्मक और अच्छे पक्ष हैं, वहीं नकारात्मक और निराशा भरे पक्ष भी हैं, जो गहन दुख की ओर धकेल देते हैं। सरकारी स्तर पर एक वर्ग
विशेष की ओर से घोर उपेक्षा ही मिली है, इसका कोई कारण तो
जरूर ही रहा होगा,
शायद मेरा कम पढ़ा
होना, मेरी पारिवारिक गवईं पृष्ठभूमि, शायद मेरी कविताओं में दुखों के दाग कुछ ज्यादा ही दिखते
हों, अनुभवों की उतनी कलात्मक बारीकियां न हों। सरकारी पत्रिका
के एक पूर्व सम्पादक महोदय ने तो अपने कार्यकाल में यहां की कविता में समाई
प्रगतिशील विचारों की खुशबू को खत्म कर देने का एक अभियान सा चलाए रखा। जरा से
लालच के कारण यहां के कुछ घोषित मठाधीश उन्हें सहयोग भी देते रहे, प्रगतिशील कविता के विरूद्ध उनका यह सहयोग बहुत पीड़ा देता
रहा है। ये मठाधीश यहां भी उतना ही कुरूप चेहरा लिए हुए हैं .... हत्यारे यहां भी
उतनी ही कुशलता से वार करते हैं .... ऐसे दोस्त यहां भी हैं जो मुस्कुराते हुए पीठ
पर छुरा घोंपते हैं और पूछते हैं कि कहीं दर्द तो नहीं हो रहा दोस्त।
मेरी कविता की किताब “वे जो लकड़कारे
नहीं हैं” के विमोचन के अवसर पर मेरे सभी दोस्त आए थे सिवाय अजेय के। मैंने जब इस बाबत
अजेय से पूछा तो उसने कहा कि अगर मैं इसमें शामिल होता हूँ तो वामपंथी इसका फायदा
उठा लेंगे (मेरी किताब के इस विमोचन को हिमाचल प्रदेश की जनवादी इकाई ने आयोजित
किया था और जहां चंचल चौहान जी मुख्य अतिथि थे)। मैं अजेय की बात सुनकर कुछ आहत
हुआ, पर सोचते हुए कुछ संतोष भी हुआ था कि चलो जो वामपंथ विरोध
अजेय की बातों में झलकता है, वह उसे जीवन में
भी बहुत गम्भीरता से उतार रहा है। पर जब दिल्ली में उसकी किताब का विमोचन हुआ तो
पता चला कि वहां मंगलेश डबराल जी के साथ चंचल चौहान भी मुख्य अतिथि थे तो मैं काफी
हैरान हुआ।
भरत
प्रसाद :- समकालीन
रचनाशीलता को मायावी बाजारवाद ने कितने भीतर तक दुष्प्रभावित किया है - यह किसी से
छिपा रहस्य नहीं है। मौलिक रचना की संभावना मानो समाप्त प्रायः हो चली है। इस
बाजारवाद के दुष्प्रभाव और उससे न सिर्फ बचने, बल्कि उसके सामने साहसपूर्वक खड़े हो कर साहित्य का गौरव
लौटाने का कोई रास्ता है आपकी नजर में।
सुरेश
सेन निशांत :- बाजारवाद का असर
ग्लोबल हैं इसे दिल्ली, कलकत्ता और बम्बई
में ही नहीं हमारे कस्बे में भी देखा जा सकता है, कस्बे क्या हमारे छोटे से गांव में भी देखा जा सकता है। जिस
तेजी और कुशलता के साथ दबे पांव यह हमारे साहित्य में घुस रहा है, इससे बचने के उपाय भी हमें ही खोजने होंगे। इसकी धूल बहुत
ही खतरनाक है ये जहां जिस चीज पर गिरती है उसे लोहे पर लगी जंग की तरह खा जाती है।
इतना भर तो हम सभी जानते हैं कि बाजारवाद के संस्कार कला को
कमोडिटी में बदल देते हैं। इस संस्कार से भरे हुए लोग जब कविता में उतरते हैं तो
वे कविता से भी वह सब कुछ चाहते हैं, जो कविता के पास
है ही नहीं ..... वे कविता की दुनिया में भी हिमेश रेशमियां की तरह दो-चार अधकचरे
गीतों के बाद मशहूर हो जाना चाहते हैं। वे कविता लिखते ही इसलिए हैं कि इसके बदले
में उन्हें कुछ ऐसा हासिल हो जो उन्हें एक सैलिब्रिटी में बदल दे। उनकी महफिलों
में दुखों के विरूद्ध संघर्ष नहीं ..... कविता नहीं, महज कविता का शोर होता है ...... उस शोर में कविता से मिलने
वाले यश की बातें होती हैं। अपने उपर लिखी हुई प्रशंसा से भरी हुई आलोचना की बातें
होती हैं, पुरस्कार होते हैं, यात्राएं होती हैं, सम्मेलन होते हैं, बस एक चीज नहीं
होती वह है जन तक पहुंचने की सोच और लगन, पर इसके बीच भी
कुछ हैं जो गांव और कस्बों में काम कर रहे हैं। हमारे यहां कृष्ण चन्द्र महादेविया
है, वह जहां भी जाता है .... वह अपने ही दम पर दूर-दराज के गांवों
में लोक नाटकों के मंचन और कवि सम्मेलनों का आयोजन शुरू कर देता है .... साहित्य
के प्रति गांव के लोगों को जोड़ना उस जैसा समर्पित कार्यकर्ता भाव ही हमें इस
बाजारवादी मानसिकता के समक्ष खड़ा कर सकता है।
मैंने कृ.च. महादेविया की संगत में जाना है कि लोगों में
अभी भी अच्छी कविताओं के प्रति बहुत ललक है। वे अभी-भी अरूण कमल की “अपनी केवल धार” कविता बार-बार सुनना चाहते हैं। वे अभी भी आलोक धन्वा की “गोली दागो पोस्टर”
और मदन कश्यप की “छोटे-छोटे ईश्वर” जैसी कविताएं
सुनकर जोश से भर जाते हैं .... उन्हें अभी भी राजेश जोशी, एकान्त श्रीवास्तव की कविताएं बहुत ही आत्मीय लगती हैं
..... बस जरूरत है उनके पास पहुंचने के लिए बाजारवादी अवरोधों को लांघने की।
भरत
प्रसाद :- मौजूदा युवा पीढ़ी
में कई दर्जन युवा कवि अतिशय सक्रिय हैं। प्रकाशित होने, छपने और चर्चा कमाने के रूप में भी। बावजूद इसके पाठकों की
रूचि, पसंद और सजग विवेक की कसौटी पर कुछ ही युवा कवि खरे
उतरेंगे। ऐसे वे कौन हैं जो न सिर्फ आपको बांधते, छूते और लम्बे समय तक सोचने को विवश करते हैं। क्या इन्हें
भविष्य की ऊँची, स्थायी और श्रेष्ठ उम्मीद के रूप में देखा जा सकता है?
सुरेश
सेन निशान्त :- मायकोवस्की ने
ज्यादा कवि होने की हिमायत की है। ये कवि ही कविता के प्रति माहौल बनाते हैं .....
सभी अपने-अपने ढंग से सक्रिय भी रहते हैं। जिसमें सच्चे कलाकर की तरह रियाज करने
की क्षमता होगी वह लम्बे समय तक टीका रहेगा .... वरना बहुत से लोग तेजी से दौड़ कर
थक हाफ कर किनारे बैठ जाते हैं। हर दौर में ऐसा ही होता रहा है, इतनी ही भीड़ रही है और रहेगी भी। वही टिकेगा जो समय की छननी
से छनकर आगे आएगा,
वही बचेगा भी।
बहुत पहले मुझे एक पंजाबी लेखिका दिलीप कौर टिबाणा का
साक्षात्कार पढ़ने को मिला। उसमें उन्होंने बहुत सुन्दर बात कही है कि किसी भी लेखक
के मरने के सौ साल बाद उसकी किताब बात करती है .... तब न तो लेखक की चर्चित होने
के लिए उसकी तिकड़में होती हैं, न दोस्तों की
सिफारिशें, न टांग घसीटने वाले दुश्मनों के षड़यन्त्र, बस होती है तो उसकी किताब, उसका सृजन।
जहां तक पसंद-नापसंद की बात है, हरेक की अपनी कैमिस्ट्री है जो उसकी पसंद को निर्धारित करती
है। मुझे आत्मारंजन की “कंकड़ बिनती औरतें”, “नहाते बच्चे”, आपकी “रैड लाईट एरिया”, केशव तिवारी की “काहे का मैं”, अनिल कारमेले की “लोहे की धमक”, हरिओम राजौरिया की “भाभी”, कमलेश्वर साहु की “फलों का स्वाद” जैसी कविताएं बहुत पसंद हैं जिनमें शब्दों की कलाकारिता भर नहीं है अपितु जीवन
का ताप है। यह ताप इन कविताओं को बार-बार पढ़ने पर मजबूर करता है और इन्हें देर तक
लोगों के मनों में जिन्दा भी रखेगा। युवाओं में और भी मेरे मनपसंद कवि हैं जिनकी
कविताएं मैं ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ता हूँ। जैसे नीलकमल, संतोष चतुर्वेदी, प्रदीप जिलवाने, अरूण शीतांस, शंकरानन्द, संतोष तिवारी, उमाशंकर चौधरी, संजीव बक्शी, विजय सिंह, राज्यवर्धन, बसन्त शकरगाये, अरूणाभ सौरभ, शिरोमणि महतो, निशान्त, बृजराज कुमार सिंह, देवान्शु पाल, निर्मला तोदी, रंजना जायसवाल इन सभी नए कवियों के सृजन में जीवन के पास
पहुंचने की, उसे सजाने की एक सच्ची ललक मिलती है .... जो कविता के प्रति
एक नईं उम्मीद बंधाती है। कभी निर्मला पुतुल और शिरीष मौर्य की कविताएं भी
ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ता था, उनकी शुरूआती
कविताओं ने काफी प्रभावित किया था। खासकर शिरीष की “हल” और “हाट” कविताएं भूलती ही नहीं।
भरत
प्रसाद :- प्रत्येक कवि
अपनी कमियों का सटीक पारखी होता है और होना भी चाहिए। निःसंदेह आप स्वयं अपनी
कमजोरियाँ बखूबी समझते और उससे मुक्ति पाने की कोशिश करते होंगे। आपकी वे
कमजोरियाँ क्या हैं?
सुरेश
सेन निशान्त :- मैं दसवीं तक पढ़ा
हूँ ..... अध्ययन की कमी तो है ही। यह कमी शायद मेरे सृजन में भी झलकती है और
आत्मविश्वास में भी। मैं नामचीन लोगों से मिलते हुए सकुचाता हूँ, फोन पर भी बात नहीं कर पाता, फेसबुक और ब्लॉग पर लोगों की आत्मश्लाघा और दम्भ देख उससे
दूर चला आया। अपने बारे में मुझे कोई भ्रम नहीं है ..... न ही कोई ऐसी परफेक्ट
होने की ग्रन्थि मैंने पाल रखी है। इधर एक सम्पादक महोदय का फोन आया था कि मेरी
कविताओं में मात्राओं की गलतियां बहुत होती हैं .... एक दोस्त ने सुझाया कि न
ज्यादा लिखूं न ज्यादा छपूं और छपूं भी तो बड़ी पत्रिकाओं में। पर विजेन्द्र जी से
जब मैंने इस बाबत डिस्कशन की तो उन्होंने कहा कि अब नहीं लिखोगे-छपोगे तो कब
लिखोगे-छपोगे? उन पत्रिकाओं को चुनो और उनमें छपो जिनमें छपी रचनाएं
तुम्हें संघर्षों के लिए तैयार करती हैं। कोई भी पत्रिका छोटी या बड़ी नहीं होती
हाँ अच्छी और बुरी जरूर होती है ..... हाँ एक कवि के लिए कुछ अर्से बाद अपने ही
फॉरमेट को तोड़ना जरूरी होता है, नहीं तो वह दोहराव
का शिकार हो जाता है ..... फॉरमेट तोड़ने के लिए अध्ययन और रियाज के साथ-साथ जन
संघर्षों और आंदोलनों पर पैनी नजर रखते हुए उनसे गहरा जुड़ाव बहुत जरूरी है। मेरी
कई कविताओं में अनावश्यक विस्तार मिलेगा, उन्हें ऐडिट करना
जरूरी था ..... अपनी कमजोरियों पर विजय पाने के लिए मैं खूब संघर्ष कर रहा हूँ, देखें कितना और कहां तक सफल हो पाता हूँ? मैंने कहीं पढ़ा था कि बिस्मिल्लाह खाँ शहनाई पर
उन्नीस-उन्नीस घण्टे रियाज करते थे। काश उस तरह का डिवोशन मुझे में भी आ पाता।
भरत
प्रसाद :- सृजन की
श्रेष्ठता का भ्रम फैलाने में पुरस्कारों ने और कुछ “इलीट क्लास टाईप” पत्रिकाओं ने निर्णायक भूमिका अदा की है। अपने शब्दों में कहूँ तो आज “बंडल है
पुरस्कारों का निर्णायक मंडल।“ जेनुइन का पुरस्कृत होना एक आश्चर्य बनता जा रहा है। पुरस्कारों के इस तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र-साम्राज्य पर आप क्या सोचते हैं?
सुरेश
सेन निशान्त :- समाज में जब
चारों ओर मूल्यों का क्षरण दिख रहा हो तो साहित्य भी कहां बचेगा? साहित्य में भी तो आदमी उसी समाज से आएगा। अपनी-अपनी
मानसिकता और अपने ऐजेण्डे को लेकर। सवाल यह है कि मूल्यों के क्षरण उससे मिलने
वाली सुविधाओं की जो चमक है वह उस चमक से अपने आपको किस तरह बचाता है? एलीट वर्ग बहुत ही चालाक है, उसका ऐजेण्डा हिडन होता है। वह क्रान्ति की बात करते हुए
क्रान्ति को तोड़ने का प्रयास करता है। वह त्याग की बात करते हुए आपसे आपकी कीमत
पूछता है और कहता है कि वह आपकी कीमत नहीं लगा रहा है, न आपको खरीद रहा है, अपितु वह आपको
अपनी तरफ से पुरस्कार दे रहा है। भाई कुछ पुरस्कार जैन्युन भी हैं। देने वाले की
मन्शा ठीक भी है। पर अधिकतर आपका मोल लगाते हैं, आपको खरीदते हैं .... गुलाम बनाकर रखने के लिए आपको साधते
हैं।
भरत
प्रसाद :- समय के सच के आगे
रचना की ताकत हमेशा कमजोर पड़ती है। आज की तारीख में तो और भी ज्यादा आपके पास ऐसी
कोई युक्ति, विचार या उपाय हैं जो रचना की ताकत को समय के यथार्थ से
इक्कीस साबित कर सकें?
सुरेश
सेन निशान्त :- कभी-कभी समय के
सच के आगे रचना की ताकत ज्यादा जान पड़ती है। यह तब घटित होता है जब लेखक के भीतर
और बाहर का संघर्ष एक हो जाता है। रचना में जीवन और जीवन में रचना को डूबा देता है
तभी जाकर गोदान, अंधेरे में, उसने कहा था, राम की शक्ति पूजा, परती परिकथा जैसी
रचनाएं हमारे पास होती हैं। प्रफुल्ल कोलाख्यान ने अपने आलेख में कहीं कहा है कि ऐतिहासिक क्रिया
में समय लगता है, यह चटपट नहीं होता। यह सत्य है कि चटपटिया समय में एतिहासिक
प्रक्रिया को सम्पन्न होते देखने का धैर्य नहीं होता। जिस लेखक या कवि के पास असीम
धैर्य होगा वही कालजयी रचना रच सकेगा।
भरत
प्रसाद :- कबीर, निराला, प्रेमचन्द, टैगोर, शरत, नागार्जुन यहाँ तक कि रेणु बाबू नजीर बन गए हैं। प्रेमचन्द
के बाद, नये प्रेमचन्द को कौन कहे किसी आधे-अधूरे प्रेमचन्द या शेष
रामविलास शर्मा की संभावना नहीं दिखाई देती। इस दुर्दशा के कारणों की पड़ताल।
सुरेश
सेन निशान्त :- इस चीज की पड़ताल
हमें अपने समय के भीतर ही करनी होगी। जितनी फैसिलिटी ... जितना आराम ... जितनी
सुविधाएं हमारे समय में हैं उसके पासंग भर सुविधाएं भी निराला और मुक्तिबोध के
हिस्से में नहीं आई। हमें इस प्रश्न के उत्तर का सिरा यहीं से ढूंढना होगा .....
एक कवि हुए हैं मिक्लोश रादोनित जिनकी मृत्यु नाजियों के यातना शिविर में युवा
अवस्था में ही हो गई थी। यातना शिविर में उनकी व उनके साथियों की हत्या कर दी गई
थी। बाद में जब एक सामुहिक कब्र को खोला गया तो उनकी पत्नी ने उनके शव की पहचान
की। उनकी जेब से कीचड़ से सनी एक छोटी सी डायरी मिली जिनमें उनके अंतिम दिनों की
कविताएं थी। ये कविताएं कविता के प्रति उनके गहरे विश्वास को दर्शाती हैं। उन
दारूण परिस्थितियों के विरूद्ध लड़ाई का एक जज्बा, कविता पर उनका अथक विश्वास बताता है .... जो उनमें मृत्यु
की भयंकर पीड़ा के समक्ष भी एक उम्मीद की लौ उनमें जला रहा था। कबीर, निराला, प्रेमचन्द ये सभी
इस जीवन में दमन चक्र के विरूद्ध तन कर खड़ा होने वाले रचनाकार हैं। ये बड़े रचनाकार
महज इसलिए बड़े रचनाकार नहीं हैं कि उन्होंने उस दुख को भोगा है। ये बड़े इसलिए हैं कि
उन्होंने उन दुखों पर लड़ते हुए विजय पाई और आने वाली पीढ़ी को लड़ने का नया रास्ता
सुझाया। इनके जीवन में इनकी रचनाओं ने हमें और ज्यादा मानवीय बनाया है। झूठी
सुविधाओं, झूठे यश, झूठी प्रशंसा के
पीछे भागने वालों की भीड़ से कभी कबीर, निराला या
नागार्जुन नहीं निकलेंगे, न निकल सकते हैं।
भरत
प्रसाद :- नामवर सिंह
श्रेष्ठ आलोचक सिद्ध हुए। मगर अब वे अपर्याप्त हो चले हैं - नयी सदी की पीढ़ी के
लिए। वैसे भी युवा रचनाशीलता से न्याय करने के बजाय उन्होंने जिस-तिस की
निर्ब्याज-भावेण प्रशंसा करके हकीकतों को उलझाया ही है। उनकी भूमिका को आप किस रूप
में साहसपूर्वक देख पाते हैं।
सुरेश
सेन निशान्त :- भरत भाई मैं आपको
इस प्रश्न पर कुछ नहीं कहना चाहता, बस “पाश” की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहता हूँ –
बेईज्जती वक्त की हमारे ही वक्तों में होनी थी
हिटलर की बेटी ने जिन्दगी के खेतों की माँ बन कर
खुद हिटलर का डरना
हमारे ही माथों में गाड़ना था।
यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने
बन जाता था सिंहासन के पायदान।
मार्क्स का शेर जैसा सिर
दिल्ली की भूल-भुलैया में मिमियाता फिरता
हमीं ने देखना था
मेरे यारो, ये कुफ्ऱ हमारे
ही वक्तों में होना था।
मेरे यारो, ये कुफ्ऱ हमारे
ही वक्तों में होना था।
भरत
प्रसाद- अपनी रचनाशीलता
के लिये आपने क्या मानक बनाया है? क्या साहित्य को चिरस्थाई सृजन देने का संकल्प है या फिर निरन्तर सक्रिय ही
रहना चाहते हैं। दीर्घजीवी रचना देने हेतु कितने प्रकार की तैयारियां होनी चाहिये।
ये तैयरियां क्या लगती है कि आप कर ले जायेंगे। यदि आप को आपका ही साहसिक आलोचक
बना दिया जाये तो अपनी दो टूक, तटस्थ और निर्मम आलोचना किस तरह करेंगे?
सुरेश
सेन निशान्त.:- मैंने जितना भर
भी सीखा है.....अपनी परंपरा से सीखा है और लगातार सीखने की कोशिश कर रहा हूं। मैंने
पहले भी कहा है कि मेरा एैकेडमिक अध्ययन बहुत ही कम है जो भी सीखा है वह दोस्तों
की संगत में सीखा है अपने और उनके अनुभवों से सीखा है। मेरी माँ एक कहावत अक्सर
सुनाया करती थी.... “कि पत्थरा तू किहां गोल हुआ?” अर्थात ओ पत्थर तू किस तरह इतना सुन्दर गोल हुआ?
तो पत्थर कहता है
बजी...बजी.. यानी टकरा टकरा कर....ठोकरें खा खा कर। पहाड़ों में नदियों के पत्थर आप
को गोल मिलेंगे...उनकी गोलाई तराशी हुई बहुत ही कलात्मकता से भरी हुई होती है।उस
गोलाई में उस तराशपन में उनका टकरा-टकरा कर गोल होने का अनुभव है....मैं अपने को उस
तरह से नदियों का पत्थर ही मानता हूं...नदियों के पत्थर की तरह जो भी सीखा है टकरा
टकरा कर ठोकरे खा कर। यहां कस्बे में साहित्य का कोई माहौल नहीं रहा कभी जो भी
सीखा है दूर दराज के दोस्तों की संगत व पत्रिकाओं से।
जहां तक चिरस्थाई
रचने की बात है... ...औरों से अलग दिखने की बात है....एैसी मन्शा रही नहीं मेरी
कभी...मुझे लगता है यह एक ग्रन्थी है...यह एक एलीट किस्म का संस्कार है। मैं
साधारण के बीच साधारण सी बात कहना चाहता हूं। सरलता को जीते हुये सरल से ढंग से।
हां जो मुझे करना है...उसके बारे में सोचना होगा कि किस ढंग से करना है...इसके
लिये कौन से रास्ते अपनाने होंगे...किन कवियों की संगत करते हुये मुझे अपना विकास
करना होगा...यह एक लम्बा सिलसिला है लिखने
के रास्ते कठिन तो हैं ये उस वक्त और भी कठिन हो जाते हैं जब आपको अपने आसपास का
माहौल नैगेटिव मिलता है।
जहां तक दीर्घजीवी
रचना की बात है......इसके लिये रियाज के साथ साथ वह जीने के तरीके पर भी निर्भर
करती है...हम नकारात्मक शक्तियों के साथ किस तरह संघर्ष करते हुये आगे बढ़ते हैं।
आपने ही कहीं कहा है जो मुझे भूलता ही नहीं......हताशा, निराशा, नाउम्मीदी की
धुन्ध छंटे ना छंटे आज के कवियों को फर्क नहीं पड़ता। जीते जी उसने अमरता का स्वाद
चख लिया है, अपनी जय जयकारा का अमृत कानों से पी लिया है फिर किस बात की
चिन्ता? कविता का सेंसेक्स लगातार गिर रहा है और गजब कवि बेफिक्र की
खुमारी में झुमते हुये गाते चले जा रहा है....बड़ी रचना के लिये मित्र आपके ही आलेख
की पक्तियां दुहराना चाहता हूं.....बड़ी रचना चाहत, महत्वाकांक्षा या अभ्यास
से नहीं बल्कि अपने भीतर रौशन आत्मा की सिद्धि से संभव होती है। देखते हैं उसके
लिये कितनी भर तैयारी कर पाते हैं हम सब?
भरत
प्रसाद- क्या मौजूदा
हिन्दी कविता समकालीन विश्व कविता का महत्वपूर्ण अध्याय नजर आती हैं? विश्व साहित्य के
वे कवि जो आप के गुरू, शिक्षक या मशाल की
भूमिका निभायें हो? समकालीन कविता का
ऐसा कोई स्तम्भ जिसे समकालीन विश्व कविता के समक्ष दृड़तापूर्वक रखा जा सके?
सुरेश
सेन निशान्त - विश्व कविता भी
विभिन्न देशों से उपजी कविता का ही समुच्य है। हमारे यहां भी कविता का माहौल
विभिन्न प्रदेशों की अनेक क्षेत्रीय भाषाओं मे रची जा रही कविता से ही बनता है
पंजाबी, मैथिली, बांग्ला, मराठी तेलगु आदि भाषाओं से। यहां हर भाषा में महान कवि हुये
हैं और वर्तमान में भी बहुत से अच्छे कवि कार्य कर रहे हैं।हिन्दी की जड़ें इन सभी
प्रदेशों में बहुत गहरे तक धंसी हैं...और हर जगह से खाद पानी ले कर अपना महान
विकास कर रही है। मैं जितना प्रभावित नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा से हूं .... जितनी ताकत मुझे महमूद दरवेश की
कवितायें देती है उतनी ही ताकत मुझे पाश, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, मदन कश्यप और
एकान्त श्रीवास्तव की कवितायें भी देती हैं .... इसमें मै निराला, केदारनाथ अग्रवाल, बाबा नागार्जुन और
त्रिलोचन जी का भी नाम जोड़ देना चाहता हूं ...कबीर और तुलसी तो हमारे मानक हैं ही।
(जनपथ से साभार)
भरत प्रसाद |
सम्पर्क
भरत
प्रसाद-
सुरेश
सेन निशान्त-
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
मेरे प्रिय रचनाकार साथी सुरेश सेन निशान्त से भरत प्रसाद जी की बेहतरीन बातचीत। महत्वपूर्ण सवालों के आत्मीय मन से सटीक जवाब। निशान्त जी द्वारा पाठकों को ढूंढ कर पढनें का नया माहौल बनाने ,किताबें देने का कार्य उम्दा हैं। पूरी बातचीत नव रचनाकारों के लिए शानदार दस्तावेज़। दोनों साहित्यकारों को बधाई। सन्तोष जी का विशेष आभार।
जवाब देंहटाएंसुरेश सेन निशांत मेरे प्रिय कवि है आज का समय जब कविताओं की बढ़ सी आ गयी है निशांत जी की कविताएँ अपना विशिष्ट स्थान रखती है विशिष्ट इन अर्थों में की वे गहरे जीवन के अनुभव से उपजी है जिन कविताओं में अनुभव की सच्चाई होती है वही देर तक टिकती है यह बात बिलकुल सही है ''बड़ी रचना चाहत, महत्वाकांक्षा या अभ्यास से नहीं बल्कि अपने भीतर रौशन आत्मा की सिद्धि से संभव होती है।''
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