अमीर चंद्र वैश्य

अपने गाँव धरमपुर में कवि विजेंद्र








समकालीन हिन्दी कविता में लोकधर्मी कवियों में विजेंद्र का नाम अग्रगण्य है. अब तक उनके १८ काव्य संकलनों, २ काव्य नाटकों के अलावा २ चिंतन प्रधान पुस्तकें एवं ३ डायरियां प्रकाश में आ चुकी है. आज भी अपने सर्जनात्मक कर्म में वह लीन हैं. ऐसे कवि से मेरा साक्षात्कार उनकी पहली लंबी कविता ‘जन शक्ति’ ने कराया था.

जो जनभाषा प्रकाशन, जोधपुर से १९७४ में प्रकाशित हुई थी और कवि मोहदत्त शर्मा साथी के सौजन्य से प्राप्त हुई थी.



बात ९० के दशक की है. उन दिनों मैं त्रिलोचन के सोनेट काव्य का अध्ययन कर रहा था और विजेंद्र ‘ओर’ पत्रिका का संपादन कर रहे थे. पता चला कि ‘ओर’ में निराला जी की एक कविता ‘हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र’ पर त्रिलोचन का व्यंग-आलेख छपा है. अभीष्ट अंक पढ़ने के लिए मैंने मनीऑर्डर भेज दिया, लेकिन अंक नहीं मिला. लंबे इंतजार के बाद मैंने विजेंद्र को एक कटु पत्र लिख कर भेज दिया.

उनका पत्रोत्तर पढ़ कर मैं ग्लानि से ग्रस्त हो गया. विजेंद्र ने अपने १२-१२-१९९२ के पत्र में लिखा था.



प्रिय भाई,

आपका आक्रोश भरा पत्र पा कर भी मुझे आपके स्नेह का अनुभव हुआ. मुझे पता नहीं कब आपने पत्र लिखा, मैं बाहर रहा और अस्त-व्यस्त, दर असल ‘ओर’ की अव्यवस्था के लिए मैं ही दोषी हूँ. इलाहाबाद से छपता है. वहीँ से वितरित होता है. मैं पूरी व्यस्था देख नहीं पाता.

आप ऐसा आदेश न दें कि पत्रिका को बंद कर दिया जाय. प्रयत्न रहेगा कि हम इसकी व्यवस्था को बेहतर बनायें.

अगला अंक जयपुर से ही निकलेगा. यहीं से वितरित होगा. आप किंचित धैर्य रखें. हमें सहयोग करें.

आप मेरे जिले के निवासी हैं. मेरी प्रारंभिक शिक्षा उझियानी में हुई. मेरा गाँव सहसवान में है. आपके १० रूपये वापस भेजवाऊंगा. आगे से आप कोई आर्थिक सहयोग हमें न करें. प्रसन्न होंगे.

सस्नेह,

विजेन्द्र

पुनश्च: हाँ, निंदा तो आप भले ही करें, उससे मैं सीखूंगा और प्रत्येक रचनात्मक कर्म के विषय में ज्ञान होगा. वि.



उनके उपर्युक्त पत्र से मैंने यह सीखा कि विनम्रता मत भूलो. और इसके बाद जो पत्र संवाद शुरू हुआ, उसने मुझे पहले ‘ओर’ और फिर ‘कृति ओर’ से जोड़ दिया. उनके प्रोत्साहन से पत्रिका के लिए लेख लिखे. उनके सभी काव्य संकलन मंगाए, पढ़े, उन पर कुछ लिखा भी. उनकी गद्य कृतियाँ भी खरीद कर पढीं. प्रसंगवश उनके २३-१२-१९९२ के पत्र का अंश इसलिए उद्धृत कर रहा हूँ जिस से उनकी विनम्रता व्यक्त हो रही है.



प्रिय भाई,

आपने मुझे क्षमा किया, मैं आभारी हूँ... ... ...

आपने हमारे लिए इतना कष्ट सहा, मैं आभारी हूँ. ‘ओर’ के लिए सहयोग और स्नेह बराबर प्रदान करें. बदायूं- उझियानी मेरी मनस-चेतना के अंग हैं. आप उस भूमि में कार्यरत हैं, जहां मेरा बचपन गुजरा है. मुझे आप प्रिय हैं. यदि आप कुछ लिखते हों तो रचनात्मक सहयोग दें. तथा आप ‘ओर’ के लिए सुदृढ़ जमीन तैयार करें.

सस्नेह,

विजेंद्र



ऐसा पत्र पढ़ कर कौन हैं जो प्रसन्न और सक्रिय नहीं होगा. मैंने त्रिलोचन के ‘शब्द’ संकलन से एक संस्कृतनिष्ठ सोनेट की व्याख्या लिख कर भेजी, जो ‘ओर’ में छपी थी. विजेंद्र अपने अपने पत्रों में अक्सर लिखते थे कि जयपुर में आपकी रिश्तेदारी है. एक बार आइये और मिलिए. लेकिन ऐसा संयोग नहीं बन सका. अपनी कविता में अपने जनपद को रचने वाले विजेंद्र जी की प्रेरणा से मैं, इस वर्ष २०१२ में, होली मनाने के बाद १२ मार्च को उनके गाँव धरमपुर के लिए चल पड़ा. उनकी कविताओं का चित्रात्मक संकलन ‘आधी रात के रंग’ की प्रति अपने साथ ले गया.

बदायूं से दिल्ली जाने वाली बस ने मुझे दहगँवा पहुंचाया. दहगँवा से धरमपुर जाने के लिए मैं ताँगे का इन्तजार करने लगा. विजेंद्र ने मुझे अपने ३ भतीजों अशोक सिंह, नरेश सिंह और उमेश सिंह का नाम बता कर कहा था कि वहाँ पहुँच कर कहना कि मैं विजेंद्र पाल सिंह का गाँव देखने आया हूँ. आस-पास के दुकानदारों से जब पूछ ही रहा था कि संयोगवश अशोक सिंह वहाँ आ गए और मेरे आने का प्रयोजन पूछने लगे. मैंने नाम-पता बता कर कहा कि मैं विजेंद्र जी का गाँव देखने आया हूँ. अपने चाचा का नाम सुनते ही उन्होंने मुझे बाईक पर बिठाया और शिकायत के लहजे में कहा कि जब से चाचा जी ने गाँव छोड़ा है, तब से वह वापस नहीं आये हैं. वे हमारे खानदान के सबसे बड़े बुजुर्ग हैं.

उस दिन हवा में ठंडक थी. लगभग ५२ वर्षीय अशोक सिंह हाफ स्वेटर पहने हुए थे.

अपना अनिवार्य काम करने के बाद वह दहगँवा से धरमपुर लगभग ११.३० बजे पहुंचे.

पक्के-कच्चे रास्ते पर बाईक दौडाते हुए. रास्ते के दोनों ओर गेहूं की हरी-भरी फसल हवा से आंदोलित हो रही थी. जगह-जगह ईंख भी खडी थी शुगर मिल पहुँचने की प्रतीक्षा में. फसल को पानी पिलाया जा रहा था पम्पिंग सेट द्वारा.



अशोक सिंह ने अपने बड़े भाई नरेश सिंह के द्वार पर बाईक रोकी. उनकी बैठक में, जो दुकान के रूप में थी, मुझे बिठाया, मेरे बारे में बताया. अपने चाचा का नाम सुन कर नरेश सिंह प्रसन्न हो कर भरतपुर यात्रा के संस्मरण सुनाने लगे. घर की महिलायें भी खुश दिखाई पड़ने लगीं. विजेंद्र की पत्नी उषा जी की भतीजी सुधा सिंह ने अपनी बुआ से धरमपुर आने का आग्रह किया कई बार. उन्होंने ‘आधी रात के रंग’ के चित्र स्वयं देखे और घर की महिलाओं को दिखाए. सभी ने विजेंद्र के चित्रों की तारीफ़ की.



बैठक से बाहर निकल कर मैंने विजेंद्र के पिता स्व लाखन सिंह की उस शानदार हवेली का ध्वस्त रूप भी देखा, जो ऊँचे और ढालू रूप में दिखाई पड रही थी. वहाँ अनगिनत कंडे सूख रहे थे. इसके बाद अशोक ने अपनी बाईक पर बिठा कर मुझे पूरा गाँव दिखाया. रास्ते के दोनों ओर गेहूं की बालियाँ इतनी ऊँची-लंबी थीं कि आवाजाही का रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था. अशोक ने पहले मुझे उन तीन बूढों से मिलवाया जिन्होंने लाखन सिंह को देखा था. ये तीन बूढ़े थे- सियाराम (उम्र लगभग सौ वर्ष), झंडू सिंह (उम्र लगभग ८२-८३ वर्ष) और पोशाकी लाल (उम्र लगभग अस्सी वर्ष). पोशाकी लाल से विजेंद्र ने फोन पर बात भी की. विजेंद्र के तीसरे भतीजे उमेश सिंह से उनके खेत में ही बातें हुईं. तब वे स्वयं अपने खेत में पानी पहुंचा रहे थे.


धरमपुर के जो दृश्य मैंने अपने कैमरे में कैद किये थे, वे ई-मेल द्वारा विजेंद्र के पास भेज दिए. जैसा कि विजेंद्र ने बताया उन चित्रों को देख कर वे उस रात सो नहीं पाए थे. उन्होंने अपने पुत्र नीलमणि के अनुरोध पर धरमपुर पहुचने का संकल्प ले लिया. नीलमणि नोयडा में रहते हुए दिल्ली में अपनी कंपनी चलाता है.



‘ऊधौ, मोंही ब्रज बिसरत नाहीं’ के समान विजेंद्र मन ही मन कहते हैं- ‘मोही धरमपुर बिसरत नाहीं’ उनकी कर्मभूमि राजस्थान के कई नगर रहे हैं, विशेष रूप से भरतपुर. इसलिए उनके काव्य में वहाँ के जन-जीवन और परिवेश की अभिव्यक्ति अधिक हुई है. लेकिन उन्होंने अपनी जन्मभूमि और बोली का विस्मरण नहीं किया है. ‘मैग्मा’ शीर्षक लंबी कविता में गंगा-यमुना के उर्वर प्रदेश का जिक्र किया गया है. (जनशक्ति, पृ. ११५)और ‘वसंत के पार’ संकलन में अपनी जन्मभूमि का आत्मीय स्मरण इस प्रकार किया गया है-


ओ मेरी जन्म भूमि
एक तरफ महावा
और दूसरी तरफ गंगा आलिंगित
फलवान (पेड़ों), आमों, जामुनों, अमरूदों से
छाये मार्ग
मैंने तुझे जब छोड़ा
आँखें डबडबायीं
तुम से दूर जाने की कसक
अब वो सब यादों का घना वन
अंदर से जगाता है.’

(जनशक्ति, पृ. ११३)



विगत २४ मार्च २०१२ को जब विजेंद्र अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्रबधू और पौत्री के साथ अपने गाँव धरमपुर पहुंचे, तब कार से उतरते ही अशोक सिंह से पूछा- ‘वहाँ सामने नीम के दो पेड़ थे, दिखाई नहीं पड़ रहे. क्या वे कट गए? हाँ, बाग नहीं दिखाई पड़े. मालूम हुआ वे बाग अब खेतों में बदल गए हैं. आजकल वहाँ फसल खडी है. अपनी हवेली का ध्वंसावशेष देख कर वे पुरानी यादों में खो गए. उस समय उनके मानस में ‘दिन का राजा’ की पंक्तियाँ मुखरित होने लगीं.


पिता कहा करते अक्सर
बेटा जन्म लिया है
ऐसे कुल में
ध्यान रहे
चल-विचल न होना
न लगे पुरखों को बट्टा
वंश चला करता है अच्छे कामों से
मैंने छोड़ा तुमको
सब कुछ
ये हाथी, घोड़े, रथ, रब्बे
बड़ी हवेली, हाट, बाजार
उम्दा नागौडी बैलों की जोडी
सीर मौरूसी धरती कंचन
ठाट बात बैसवाडे का./

... ... ... ...

अपनी राह बनाना
चाहें चलना पड़े अकेले बिलकुल

... ... ...

एक दिन सोच दिन का राजा
कहाँ गए सब गढ़ी हवेली
रथ-रब्बे हाथी घोड़े
रहा नहीं वहाँ कुछ
सिवाय एक नीम करुवा के
टंगा हुआ छप्पर उस पर

(ऋतु का पहला फूल, पृ. १९२-१९३)



बैसवाडे के ठाकुर खानदान के चिराग विजेंद्र पाल सिंह ने स्वयं को कवि विजेंद्र के रूप में रूपान्तरित कर अपनी अलग पहचान निर्मित की. और नयी राह बनाई. काल-चक्र ने अनायास ही उनका सम्बन्ध राजस्थान से जोड़ दिया. १९५८ में बी एच यू से अंगरेजी साहित्य से एम ए करने के तत्काल बाद ही शारदा सदन महाविद्यालय मुकुंदगढ़ में अंगरेजी के प्राध्यापक नियुक्त हो गए. और राजस्थान की विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन के उपरान्त १९९३ में प्राचार्य पद से सेवा निवृत्त हुए.



२०१२ में कवि विजेंद्र ५५ बरस बाद अपने गाँव धरमपुर आये और सभी परिजनों और ग्रामवासियों से आत्मीयता से मिले. खुद मुझे गले लगा कर कहा- ‘तुमसे मिलने की मेरी इच्छा आज पूरी हुई.’ और फिर अपने परिजनों से कहा- ‘यह हमारे आत्मीय मित्र तभी से है, जब इन्होंने हमें सख्त पत्र लिखा था.’ मैं मौन ही रहा.



अशोक सिंह के साथ मैं विजेंद्र की अगवानी के लिए दहगंवा से लिंक रोड की ओर जा रहा था कि सिल्वरी कार आती हुई दिखाई दी. हमारे संकेत पर कार रूकी, जिसमे से पहले राहुल नीलमणि फिर विजेंद्र बाहर निकले. लंबा कद- लगभग ५ फूट ६ इंच, सिर पर सफ़ेद विरल बाल, चौड़ा माथा, आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा, कान्तिमान ताम्बई रंग, पैंट-शर्ट पहने, क्लीन शेव्ड चेहरा जो निर्मलता का द्योतन कर रहा था अशोक और मैंने विजेंद्र जी को झुक कर प्रणाम किया. मन ही मन मैंने अनुमान लगाया कि युवावस्था में विजेंद्र जी और आकर्षक रहे होंगे. उन्होंने राहुल से हमारा परिचय कराया फिर हम धरमपुर की ओर बढ़ चले.



स्वागत सत्कार के बाद विजेंद्र जी अशोक और उमेश के साथ अपना गाँव देखने पहले कुंडा (जल-कुंड) पहुंचे. जलकुंड में पानी कम था जिसके किनारे पर कुछ लोग बैठे हुए थे. फिर सुधा के कच्चे घर में चारों ओर देख कर विजेंद्र ने कहा कि यहाँ मीठे अमरुदों के पेड़ थे. जिन्हें तोड़ कर मैं खाया करता था. अपनी पौत्री अनन्या की चंचलता और स्वच्छंदता देख कर वे मुदित हो रहे थे. अब विजेंद्र हमारे साथ विजयगढी का वह स्थान देखने गए जहां बाजार लगा करता है और पहले भी लगा करता था. विजेंद्र ने इसे देख कर कहा ‘पहले से बहुत अधिक बदल गया है लेकिन पेड़ वहीं हैं जिन्हें मैंने देखा था.’



विजेंद्र अपनी एक कविता में धरमपुर के परिवेश और पेड़ों का वर्णन करते हुए लिखते हैं-


याद आती है अपने गाँव की
पीर जाती नहीं
इस ठांव की
फिर याद आया टूटा किनारा
कच्चे आँगन का
लिपता तिवारा
आम जामुन नीबुओं का बाग
मिटे खंडहर
रह गया
पहचान को
बस तिकोना दाग
और हैं
आडू, लीची, फालसे, अमरूद
मिट्ठा
कटहल, चकोतरे, खिरनिया रसदार
और खट मीठे लुकाट
विरदावली गा कर
जी रहे हैं भांट

(पियाबांस, ऋतु का पहला फूल, पृ. ६८)



कविता में ‘चरित्र सृष्टि’ विजेंद्र की प्रमुख विशेषता है. अपने जनपद बदायूं के गाँव धरमपुर के अल्लादी शिल्पी, साबिर, रामदयाल जैसे जनों का वैशिट्य अंकित कर उन्हों ने अपने जन्म स्थान को अमर कर दिया है.



मेरे पुरखों के आस-पास
रहते थे बाबा
नाम भला सा रामदिल्ला
जात के धोबी
लेकिन ठकुराइस में
उन्हें पुकारा जाता था रमदिल्ला
कौन कहे
नाम की महिमा जुडी हुई है
सिंहासन से
मौज-मौज में छेडखानियाँ करते बाबा
कहते – जा माया के तीन नाम
परसा, परसी, परसराम
हम पर ठाकुराइस होती
तो हम होते खूब सिंह
अब तो गुलाम है रमदिल्ला
फिर माता में आँख गयी
तो रह गए कनैटू

(धरती कामधेनु से प्यारी, पृ. ८८-१००, पृ ११५)



अल्लादी यदि लुटार है तो साबिर घोड़े ताँगे वाला. ये कवितायें विजेंद्र के कवि व्यक्तित्व के रूपांतरण का प्रमाण हैं. बचपन में पिता के मना करने पर भी वे निम्न जाति के लड़कों के साथ खेलते थे.



अशोक सिंह के कच्चे मकान में बैठकी जमी. पुत्र राहुल के पूछने पर अतीत में लौटते हुए विजेंद्र बताने लगे. मेरी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई. उर्दू-फारसी के विद्वान मौलवी रफीक अहमद ने पढ़ाया था. वे कुरआन शरीफ लय से पढ़ा करते थे. फिर मुझे गाँव के पास ही टाट पट्टी वाले स्कूल में भेजा गया. दहगंवा से चौथा दर्जा पास किया. मेरे लिए एक घोड़ी थी जिस पर बैठ कर मैं दहगँवा जाता था. उन दिनों महावा पानी से भरी रहती थी. गाँव से आवाजाही होती थी. उझीयानी के नीदर सोल स्कूल से सातवीं कक्षा जबकि खुर्जा से १९५२ में हाईस्कूल पास किया. वहीं मार्क्सवाद से पहला परिचय हुआ जो बनारस की उर्वर भूमि में और प्रगाढ़ हुआ. बी. एच. यू. के विधि स्नातक भूपगिरि जी ने मुझे अंगरेजी पढाई. उन्हीं की संगत में मार्क्सवाद से परिचित हुआ. और बनारस जाने का संकल्प लिया. वहाँ छः वर्षों तक अध्ययन किया. इसी बीच जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में था तभी विवाह हो गया.



विजेन्द्र ने आगे बताना शुरू किया –‘शराब से नफ़रत होने के कारण एक बार मैंने शराब की कलसिया फोड़ दी थी.’ तभी बीच में ही मैंने टोका- लेकिन आजकल तो कोई भी साहित्य सृजन मद्य पान के बिन अधूरा रहता है. क्या साहित्य सृजन के लिए मद्य पान अनिवार्य है? विजेंद्र ने तत्काल कहा- ‘जब मुफ्त की शराब मिलती है तब खूब पी जाती है. नामवर सिंह को शराब न मिले तो उन्हें बेचैनी होती है.’

विजेंद्र ने मेरी बात का समर्थन किया कि उर्दू शायर जब मुक्त छंद में लंबी कविता रचते हैं तो उसे सुन कर लयात्मकता का एहसास होता है. जबकि हिन्दी कवियों की अधिकाँश कवितायें लयात्मक नहीं होतीं. आज के कवियों को छंदों का ज्ञान ही नहीं है. उनका कहना था कि उर्दू शायर गजल विधा के कारण अपनी नज्म को लयात्मक रूप में रचते हैं. उन्हें मीर, ग़ालिब, जौक की शायरी पसंद है. इन शायरों को वे बार-बार पढते हैं.



मुक्तिबोध के काव्य और आलोचना पर चर्चा के क्रम में विजेंद्र ने कहा कि उनमें आत्मग्रस्तता और दुरूहता है. आप उनके पत्र पढ़िए, जो नेमिचन्द्र जैन को लिखे गए हैं. वे विवाह पर दुःख व्यक्त करते हैं. यदि ऐसा था तो उन्होंने विवाह क्यों किया था.

ये सारी बातें मैंने डायरी में लिखी है.



बात जब निकलेगी, तब दूर तलक जायेगी. नामवर सिंह पर चर्चा होने लगी. विजेंद्र कहने लगे कि इस वर्ष पुस्तक मेले में नामवर सिंह ने हिन्दुत्ववादी भाजपाई सांसद तरुण विजय की पुस्तक ‘मन का तुलसीचौरा’ का लोकार्पण किया. लोगो के यह पूछने पर कि क्या नामवर जी बदल गए हैं? मैंने कहा कि वे तो ‘कविता के नए प्रतिमान’ लिख कर ही बदल गए थे. वास्तविकता यह है कि नामवर जी साहित्य अकेडमी का पुरस्कार पाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने अमरीकी नई समीक्षा की मान्यताएं मान कर ऐसी विवादास्पद पुस्तक लिखी जिसे पढ़ कर मार्क्सवाद के विरोधी तो प्रसन्न होंगे ही, और मार्क्सवादी लेखक भी इसे जरूर पढेंगे विरोध के लिए. मैंने ‘कृति ओर’ के माध्यम से ‘नए प्रतिमानों’ का विरोध करने के लिए जीवन सिंह को तैयार किया. उनके आलेखों से दिल्ली का सिंहासन हिलने लगा. मुझे धमकियां मिलने लगी. लेकिन प्रोफेसर चंद्रबली सिंह, शिवकुमार मिश्र ने उत्साह बढाते हुए कहा कि ऐसा तो हम भी सोचते थे लेकिन कहने और छापने का साहस आपने दिखाया. तभी से आलोचक जीवन सिंह का कद बढ़ गया. लोग समझने लगे कि कोई ‘सिंह’ तो है, जो ‘महाबली सिंह’ को चुनौती दे रहा है.



‘कविता के नए प्रतिमान’ के सन्दर्भ में विजेंद्र ने मुझे समझाया कि जब कवि अपनी कृति रचना के लिए स्वतंत्र है कि वह सामाजिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को सामने रखे. १९७२ की एक कविता में उन्होंने कहा है- ‘तुम अपने प्रतिमान बदलो’... ...



‘इतने सारे लोगों के बीच ही कथ्य बनाता है
भाषा की पहचान, इसीलिए मैंने कहा
तुम अपने प्रतिमान बदलो.’

(बुझे स्तंभों की छाया, पृ ४७-४८).



इस कथन से स्पष्ट होता है कि कवि विजेंद्र ‘नयी समीक्षा’ के प्रतिमानों को खारिज कर लोकधर्मी कविता के प्रतिमानों की सृष्टि अपनी सर्जना द्वारा करते हैं. इसी सन्दर्भ में उन्होंने कहा है कि मैंने साहित्य के सामंतों का हमेशा विरोध किया है.

प्रभावपूर्ण लंबी कविताओं के स्रष्टा विजेंद्र ने केदारनाथ सिंह की लंबी कविता ‘बाघ’ को अर्थ-बोध के स्तर पर पहेली बताते हुए कहा कि उनकी प्रारंभिक कवितायें तो अच्छी हैं, लेकिन अधिकतर कवितायें पहेली ही मालूम होती हैं. महानगर दिल्ली पहुँच कर उन्होंने अपने जनपद को विस्मृत कर दिया. दूसरी बात यह है कि उन पर पश्चिम के पतनशील कवियों रिल्के आदि का प्रभाव अधिक है. वस्तुतः कृति में जनपदीय जीवन के समावेश से कवि की अपनी पहचान बनती है. कवि का जनपदीय वैशिष्ट्य वैश्विक भी होता है. सर्जनशील चित्त सार्वदेशिक और सार्वकालिक होता है. तभी तो हमें शेक्सपियर आकर्षित करता है. और जर्मन कवि गेटे को ‘अभिज्ञान शाकुंतलम.’



मैं मानता हूँ कि वर्तमान समय के अनेक स्तरीय यथार्थ को गजल या गीत के माध्यम से नहीं व्यक्त किया जा सकता है. उसकी अभिव्यक्ति के लिए लंबी कविता का रूप अनिवार्य है. निराला अपने गीतों के कारण महान नहीं हैं. वे तो अपनी प्रदीर्घ कविताओं और यथार्थवादी चरित्र-सृष्टि के कारण बड़े कवि हैं. काव्य-भाषा के अनेक रूप भी उन्हें बड़ा कवि बनाते हैं. मैंने अपने काव्य नाटकों ‘क्रौंच-वध’ और ‘अग्नि-पुरुष’ की सृष्टि रंगमंच की दृष्टि से नहीं, संवाद-सौष्ठव की दृष्टि से की है.

नाट्य-काव्य का सन्दर्भ आते ही विजेंद्र कहने लगे मैं धरमवीर भारती की तरह ‘युग’ को ‘अंधा’ नहीं मानता. न तो आज का युग अंधा है न ही महाभारत का युग ‘अंधा’ था.


गीत? हाँ मैंने गीत लिखे हैं लेकिन सभी रचनाएं अभी तक प्रकाश में नहीं आयीं हैं. उम्मीद है उनका प्रकाशन भविष्य में संभव होगा.

संगीत? मुझे शास्त्रीय संगीत अच्छा लगता है, विशेष रूप से कुमार गन्धर्व का गायन, जो लोक से संबद्ध है. उनका गायन सुनकर मैंने एक लंबी कविता ‘अन्धकार को चीर आयी कौंध अकेली’ लिखी जो ‘ऋतु का पहला फूल’ में संकलित है. इस कविता में विजेंद्र ने स्वर साधना को लोक से जोड़ कर लिखा है


सांस-सांस का
प्रतिरोध बना है
तिनका नब कर
खडा हुआ है
धारा के विरोध में
यह नबना स्वर है
रचना का.

(पृ १६७)



बाहरी जगत और भीतरी जगत का सम्बन्ध समझाते हुए विजेंद्र ने अपनी बात समझाई कि सर्जना से पहले मूर्त वस्तु को भाव के स्तर पर अमूर्त बनाना पडता है. बाद में संवेदन ज्ञान को बुद्धिगत बताकर पुनर्गठित करना पडता है. उसे फिर मूर्त रूप देने की छूट है. यह स्तर पहले स्तर से जुड़ा हो कर भी गुणात्मक रूप से बहुत भिन्न और अगला स्तर है. अब यहाँ सिर्फ मूर्तन नहीं है. यह समूर्तन स्तर है. यह समूर्तन बिम्ब का ही रूप है. बिम्ब, प्रतिबिम्ब सिद्धांत के अनुसार वस्तु-सत्ता का संवेदनात्मक संज्ञान है, जो भाव-संवेग-संवलित है. यहाँ कला का ठाठ बुना रहता है.

हाँ, मैं यह मानता हूँ कि लोकधर्मी कविता के सम्प्रेषण के लिए उसका लयात्मक होना जरूरी है. मैंने अपनी कविताओं को विभिन्न लयों का आश्रय लेकर रचा है.

सम्प्रेषण का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए विजेंद्र ने अपने प्रतिनिधि संकलन ‘कवि ने कहा ’ से दो छोटी-छोटी कविताओं ‘मेरे जनपद का कृषक’ और ‘महाशक्ति का राग’

का पाठ मंथर गति से किया, जिसे सुनकर परिजनों ने अनायास ही समझ लिया.



अपने पुत्र का प्रश्न सुनकर विजेंद्र ने कहा कि मैंने गाँव इसलिए छोड़ा कि मेरी नियुक्ति मुकुंद्गढ़ के महाविद्यालय में अंगरेजी प्रवक्ता पद पर हो गयी थी. दूसरी बात यह कि उस समय सामंती प्रभाव क्षीण पड़ने लगा था. निम्न वर्ग के लोग कांग्रेस का झंडा लेकर निकलते थे. हमारी रंजिश बढ़ गयी थी. इसी क्रम में मेरे एक कजिन की ह्त्या कर दी गयी. इन सब परिस्थितियों में मैं अपने गाँव से दूर चला गया था लेकिन भरतपुर में रह कर किसानों के जीवन से सदा जुड़ा रहा.



अपने गाँव धरमपुर को देख कर और सबसे मिल कर विजेंद्र ने सपरिवार भोजन किया. जब चलने को हुए तो सभी परिजनों ने उनसे रूकने का आग्रह किया. सबके आग्रह का सम्मान करते हुए विजेंद्र ने अपना वापस जाना अनिवार्य बताया. विदा होने से पहले उन्होंने कहा- ‘देहाती और शहराती जीवन में कितना अंतर है?’



थोड़ी देर बाद उनकी कार पक्की सड़क पर दौडने लगी. विजेन्द्र को प्रणाम कर मैं बदायूं की ओर यात्रा के लिए मुखातिब हुआ. छोडने से पहले विजेन्द्र ने मुझे गले से लगा लिया. ‘धरमपुर आ कर मैं स्वयं को उर्जावान महसूस कर रहा हूँ.’ उनका यह वाक्य मेरे कानों में गूँज रहा है. मुंदी आँखे देख रही हैं- विजेंद्र कार से बाहर निकल कर अपनी जन्मभूमि को ममता भरी निगाह से निरख रहे हैं. प्रसन्न हो रहे हैं. यहाँ नीम के दो पेड़ थे; यहाँ हाथीखाना था; यहाँ गलियारा था जो हवेली की ओर जाता था’, अब तो मिटटी का टीला दिखाई पड़ रहा है. विजेंद्र अपने गाँव में घूमते हुए पुरानी बातों को याद कर रहे हैं. गाँव के दो मुस्लिम भाईयों से अपनेपन की भावना

से बतिया रहे हैं. एक वयोवृद्ध महिला को चरणस्पर्श कर प्रणाम कर रहे हैं. अपने बचपन की सब्जा घोड़ी के बारे में बता रहे हैं. अपने गाँव के समीप बहने वाली महावा नदी को याद कर रहे हैं.; उस नाव के बारे में बता रहे हैं, जिसमें बैठ कर लोग आवाजाही किया करते थे. दौडते थे लोग गाँव की ओर; अब तो महावा का वह रूप ही बिलुप्त हो गया है. बचपन में लटटूमार खेल खेलता था. पिता के साथ सहसवान जाया करता था. पिताजी मेरे लिए सबसे बढ़िया कपड़ा खरीदकर सिलवाया करते थे... ... ... और अचानक बस रूकी ... ... ... और मेरी आँखे खुल गयीं. देखा सवारियां चढ-उतर रहीं हैं.





संपर्क-

१८, चूना मंडी
बदायूं (उत्तर प्रदेश)
पिन- २४३६०१
मोबाइल- ०९८९७४८२५९७

टिप्पणियाँ

  1. हमारे समय के महत्वपूर्ण रचनाकार विजेंद्र जी के रचनात्मक जीवन को संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत करता है यह लेख .....बधाई अमीर जी को

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  2. गाँव,जनपद , लोक का यथार्थ और स्मृतियों ने एक नई रचना को जन्म दिया है यहाँ | अमीर चन्द जी को हार्दिक बधाई |

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