अल्पना मिश्र





हिन्दी के नए कहानीकारों में अल्पना मिश्रा ने अपने कहन के ढंग, छोटी छोटी चीजें जिस पर आम तौर पर हमारा ध्यान नहीं जाता के सूक्ष्म वर्णन और किस्सागोई के द्वारा हमारा ध्यान सहज ही आकृष्ट किया है. अल्पना को कहानी लिखने के लिए अतीत की खोह में नहीं जाना पडता बल्कि वे हमारे समय की घटनाओं को ही लेकर इस अंदाज में कहानी की बुनावट करती हैं कि हमें यह एहसास ही नहीं होता कि हम कहानी के बीच से गुजर रहे हैं या हकीकत से. अल्पना के यहाँ यह एहसास हकीकत में बदल जाता है. ऐसा लगता है जैसे हम स्वयं ही पात्र हों कहानी के. या जैसे बिलकुल आस-पास ही कोई घटना घटित हो रही हो. बीच-बीच में कुछ पंक्तियाँ हमें उनके कवि मन का दर्शन करातीं हैं. सूक्तियों सी लाईनें आती हैं. लेकिन कुछ भी अटपटा नहीं लगता. ‘उनकी व्यस्तता’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें लडकी के जन्म को लेकर तमाम आग्रह पालने वाला पिता पहले तो अपनी बेटी के साहस पर मुग्ध होता है. उसे बढ़ावा देता है. फिर शादी के बाद उसके ‘एडजस्ट’ न कर पाने पर मानसिक रूप से परेशान होता है. यह हमारा सामाजिक चेहरा है- विकृत सामाजिक चेहरा, जिससे शायद ही कोई इनकार कर सके. पति के घर में तमाम उत्पीडनों को सहते हुए उफ़ तक न करने की सलाह देते हम स्वयं नहीं थकते. क्योंकि आखिरकार पति का घर ही एक लडकी का अंतिम उद्देश्य होता है. लेकिन क्या यही सच है?








उनकी व्यस्तता




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वे फिर बैठे ही रह गए। सुबह तक। वे यानी सुदामा प्रसाद। सुदामा प्रसाद यानी सरकारी कर्मचारी। वे ऐसा ही कहते हैं अपने बारे में। यह नहीं कहते कि सरकारी कर्मचारी में कौन सा, किस तरह का सरकारी कर्मचारी? कौन सा ओहदा, कौन सा दफ्तर वगैरह। पूछने वाले को इसके लिए लाख बार कुरेदना पड़ेगा। तब जाकर वे किसी बात के बीच में कह देंगे कि उन्हें रोज रोज डांगरी पहन कर जाना बड़ा खराब लगता है। खराब मतलब फैशन वाला खराब नहीं, खराब से उनका मतलब असुविधा से है और इसे वे समझा कर दम लेते हैं कि असुविधा क्यों और किस तरह की है? फिर अपनी परेशान करने वाली अतिसार की बीमारी के बारे में बताने लगते हैं। कितना मुश्किल है कि आप हर जगह ‘फिरने’ की चिंता में रहें और दिन में छः सात बार डांगरी के भीतर से निकल कर दफ्तर के ट्वायलेट के सामने खड़े रहें। अब तो वे अपने साथ पानी की बोतल भी लिए रहते हैं। पीने के लिए नहीं भई, समझा करिए! इसी बीच में वे डांगरी और ग्रीस के अन्योन्याश्रित संबंध को भी बताते हैं और बताते बताते यह भी अफसोस जताते हैं कि डांगरी पहनने के साथ इंजीनियर साहब का बुलावा आता रहता है और यह भी कि इतना सीनियर हो जाने पर भी इंजीनियर साहब उन्हें सीनियर होने का लाभ नहीं लेने देते। इतने से अगर आप कुछ अंदाज लगा सकते हों तो लगा लीजिए। आगे वे फिर कभी कुछ बतायेंगे तो उसको भी इसी में मिला कर एक मुकम्मल तस्वीर बनाई जा सकती है, वरना तस्वीर अधूरी।




इसी दिन जब वे, यानी सुदामा प्रसाद, दफ्तर से थके हुए, देर शाम को घर में घुसे थे, तब पत्नी टी वी पर कोई ‘सास बहू’ जैसा सीरियल देख रही थीं। उन्हें अच्छा नहीं लगा। वे इतना ओवर टाइम कर के आए हैं और यहॉ मजे किए जा रहे हैं! यही सब देख कर औरतों का दिमाग खराब हो गया है। मन ही मन बोले -‘मूढ़मती, भइ मूढ़मती।’ लेकिन जोर से बोले तो गुस्से में बोले -‘ न्यूज लगाओ!’’




पत्नी हड़बड़ा कर उठीं और रिमोट वहीं ‘धप्प’ से रख कर चली गयीं। अचानक ही उन्हें लगा कि पत्नी को रसाघात हुआ है। ये कैसी बात उनके दिमाग में आयी? उन्हें खुद पर हॅसी आयी तो उन्होंने धीरे से कह दिया - ‘‘बाद में देख लेना। दसों बार तो दुहराता है।’’ उनकी इस उदारता को पत्नी ने नहीं सुना। वे रसोई में थीं। थोड़ी देर में वे झपक कर आयीं और चाय रख कर चली गयीं।


खबर में दिल्ली के किसी घर का दरवाजा बार बार दिखाया जा रहा था। खबर थी कि इस घर के लोगों ने अपनी बहू को एक कमरे में सात साल तक कैद कर के रखा। दरवाजे के बाद बहू को दिखाया जाने लगा। बहू, जो कंकाल भर रह गयी थी और बेहोशी की सी हालत में थी। उसके परिजन बता रहे थे कि ससुराल वालों से बार बार पूछते रहने पर भी उन्हें कुछ पता नहीं चल पाया। बात बहुत रहस्यमय तरीके से खुली थी, वरना कोई जान भी नहीं पाता कि इस घर में, इस दरवाजे के भीतर, सात साल से एक औरत ने सुबह का सूरज नहीं देखा है। उसे खिड़की के रास्ते कभी कभी रोटी और पानी फेंक कर दिया गया था और उसके ससुराल वाले उसकी सहज मौत की प्रतीक्षा कर रहे थे। सुनिए, दरिंदगी की दिल दहला देने वाली दास्तान.....





न्यूज चैनल पर कोई खूबसूरत रिपोर्टर पूरे जोश में बता रहा था।
 ‘‘इतने साल कहॉ रहे उसके मॉ बाप? .....’’ रिपोर्टर बीच बीच में कुछ सवाल भी उठाता और फिर भीड़ में से किसी किसी का इंटरव्यू लेने लगता।


वे विचलित हो उठे? ऐसा कैसे हो सकता है कि उसके मायके वालों को इतने साल पता न चले? ये कैसी व्यवस्था है हमारे समाज की, कि लड़की को ससुराल में छोड़ कर निश्चिंत हो लो?


दिल्ली, गुड़गॉव, नोएडा, बरेली.....बहुत सारे शहरों के नाम उनके दिमाग में आए। उन्हें सारे शहर एक जैसे लगने लगे। सबमें, कितने कितने घरों में, दिखाया जाता ऐसा ही एक दरवाजा था, जिसके पीछे कंकाल बन गयी, मौत को मात देती औरतें बेहोशी की हालत में कैद थीं।


‘‘अरे, सुनती हो!’’ वे बुलाने लगे।


पर जिसे बुला रहे थे, उसने झल्ला कर कहा- ‘‘बस, खाना लगा रही हूँ । चाय तो पीये हैं अभी अभी।’’


उन्हें समझ नहीं आया कि जो वे कहना बताना चाहते हैं, उसे अपने ही घर में कोई समझता क्यों नहीं?


दफ्तर की बात तो वे वैसे भी घर में नहीं बताते।


घर और दफ्तर को अलग अलग रखना चाहिए, ऐसा वे मानते हैं। इसीलिए पत्नी उनके ओवरसीयर या इंजीनियर साहब के बारे में नहीं जानतीं। न ही उनके डांगरी को नापसंद करने के सही सही कारण को। उनका काम बस उस डांगरी को धोते रहना था, ग्रीस छुड़ाते रहना था। बिना बोले, बिना पूछे।


तो इसी रात, वे अच्छी गहरी नींद में सो रहे थे लेकिन तीसरे पहर ही उनकी नींद उचट गयी थी। उसके बाद से लाख लाख कोशिश कर के भी ऑख नहीं लगी। न जाने कहॉ कहॉ से चिंताएं आ आ कर इकट्ठी हो गयीं। इन्हीं चिंताओं के बीच शरारती बिटिया शैलजा की याद भी चली आई। करीब पॉच साल हो गए उसकी शादी को भी। अभी तक एडजस्ट नहीं हो पायी है। ऐसा लोग कहते हैं। वे मान नहीं पाते। कितने आत्मविश्वास वाली लड़की है! सभी लड़कियॉ एडजस्ट करती हैं तो भला वह क्यों नहीं कर लेगी? शैलजा सामने होती तो कितने गद्गद हो जाते थे वे। हृष्ट पुष्ट खूब। कद काठी भी अच्छी। इसीलिए उसका नाम भी रखा था उन्होंने शैलजा। पर्वत पुत्री की तरह बहादुर। उसे देख देख कर उन्हें लगता कि इसे लड़का होना था। यह बात वे जाने कितनी बार पत्नी को कह- जता चुके थे। लड़का ही चाहिए था उन्हें, पर ईश्वर की कृपा होते होते रह गयी थी। ईश्वर की कृपा होते होते रह जाने के माने है कि लड़की, जो आ गयी थी, बस, लड़का बनते बनते रह गयी थी। जो ईश्वर जरा सा चूका न होता तो लड़का ही होना था उसे। अब लीजिए, कोई गुण तो लड़कियों जैसा हो उसमें! न लजाना, न डरना, न कोमलता, न गहने श्रृंगार का चाव, न कढ़ाई, बुनाई से कोई मतलब। खाना बनाना सीखने में कोई दिलचस्पी नहीं। मॉ का हाथ बटाने के नाम से ही दूर भागना। अब यही देखिए कि जब उसकी उम्र की लड़कियॉ तरह तरह के पकवान बनाना सीख रही थीं, तरह तरह के फैशन, मेकअप, कपड़ों, बालों की स्टाइल जैसी बातों में उलझी थीं, वह सबका मजाक उड़ाती मैदान में क्रिकेट मैच खेला करती थी। मैच की दीवानगी ऐसी कि नाम सुना नहीं कि रात दिन के लिए टी वी से चिपक गयीं। अगर आस पड़ोस ने टोक टोक कर और उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिल कर जोर दबाव डाल कर उसका मैदान में जाना बंद न कराया होता तो शायद आज भी वह क्रिकेट खेल रही होती। पर खैर, इसका उन्हें जरा भी अफसोस नहीं है। अब बड़ी हो गयी थी। ठीक नहीं लगता था। यही, मैदान में दौड़ दौड़ कर, उछल कूद कर, हल्ला गुल्ला करते हुए खेलना।





बचपन में खेलती थी तो वे खुश होते थे। बचपन में खेलती थी तो वे ईश्वर के जरा सा चूक जाने पर मुस्करा कर रह जाते थे। एक बार की बात है कि किसी बच्चे ने उसकी छुटकी बहन को झगड़े के बीच ‘मोटी, गधी’ कह दिया। छुटकी इससे आहत हो कर रोते हुए सरकारी स्कूल के उस मैदान में पॅहुची, जहॉ शैलजा क्रिकेट खेल रही थी। छुटकी ने रो रो कर अपना दुख बयां किया। बस, शैलजा ने वहीं क्रिकेट का बल्ला उठाया और दुश्मन को मार गिराने का संकल्प ले कर निकल पड़ी। छुटकी इससे दहशत खा गयी। पर बाजी उसके हाथ से निकल चुकी थी। वह पीछे पीछे रोते हुए चलती जाती। तभी रास्ते में सुदामा प्रसाद आ टकराये। बल्ला उठाए, वीर मुद्रा में चलती बेटी को देख कर उनके पसीने छूट गए। उन्होंने दोनों से पहले घर चलने के कई कई बहाने बनाए।


‘‘नहीं पापा। मेरे होते ये अन्याय नहीं होगा।’’


बल्ला हवा में लहरा कर, फिल्मों की किसी जांबाज नायिका की तरह शैलजा ने कहा।


‘‘ठीक है। अभी तो घर चल। मॉ बीमार है। फिर मैं भी तेरे साथ चलूंगा। चल, छुटकी, तू भी चल।’’शैलजा को झुकाना मुश्किल देख उन्होंने मॉ की बीमारी का अचूक बहाना बनाया। ‘मॉ’ शब्द ने शैलजा को फिलहाल निर्णय टालने पर मजबूर किया। छुटकी को तो जैसे रोने और दहशत से निकलने का मौका मिल गया।


‘‘फिर आप चलेंगे न।’’ शैलजा ने पिता से तसल्ली करवायी।


‘‘हॉ, हॉ, मैं कह रहा हूँ न।’’ पिता ने रूखाई से शैलजा का हाथ पकड़ा और घर की तरफ चल पड़े।


‘‘अगर आप नहीं चले तो समझ लीजिए कितना बुरा होगा।’’ शैलजा ने हुंकार भर कर कहा।


वे मन ही मन मुस्कराए।







तब वे खुश हुए थे और थोड़ा निश्चिंत भी। उन्होंने ईश्वर को चूक जाने के बावजूद भी धन्यवाद दिया था। वे उसकी हर ऐसी, माने लड़कों जैसी हरकत को बढ़ावा देते रहे थे। हवाले से दुनिया। उनकी पत्नी की यह शिकायत उन्हें अब समझ में आ रही है। तब तो वे इस खुशी से फूले न समाते थे कि उनकी लड़की किसी लड़के से कम नहीं। लेकिन दुनिया को नहीं भा रहा था। पास पड़ोस को शिकायत थी। पत्नी को चिंता घेरे रहती। तो बात गड़बड़ तो कुछ जरूर थी। वे सोचते पर पकड़ नहीं पाते। अब पॉच साल से लड़की जो ससुराल में परेशान है, कितना समझायें उसे? बेटा, ढंग से रहना सीखो! सोचा था सीख जायेगी। शादी के बाद सब लड़कियॉ कितनी सयानी हो जाती हैं। यह सोचते ही उन्हें अपनी ही बात पर हैरत हुई ! ज्यादातर लड़के शादी के बाद लम्बे समय तक सयाने नहीं हो पाते तो अगर एक लड़की सयानी नहीं हो पायी तो क्या बुरा हो गया? लेकिन वे कुछ और महसूस कर रहे थे। कुछ बुरा बुरा।



जब वे दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहे थे तो अचानक ही उन्हें यह ख्याल आया कि आज क्यों न चने की मीठी दाल बनाई जाए? उन्होंने सीधे जा कर पत्नी से कहा कि ‘ वे आज चने की मीठी दाल बनायेंगे। मसाला वसाला तैयार कर लें।’’ अरसे बाद वे एक बार फिर अपनी पाक कला का प्रदर्शन करना चाहते थे। पत्नी उनके उत्साह से उत्साहित नहीं हुईं। बर्तन मॉज रही थीं। मॉजते मॉजते सामान्य ढंग से बोलीं- ‘‘ कुछ चीजों के लिए थोड़ा पहले से सोचना पड़ता है।’’


वे हतोत्साहित हो गए। इतने पहले से वे कैसे सोच सकते थे कि उन्हें आज चने की दाल बनानी है या लड़की की शादी के बाद ऐसा होगा?


सोच तो सकते थे!


वे चने की दाल के बारे में सोचना भूलने के लिए कुछ और करने लगे। फिर अचानक ही पत्नी के पास आए और पूछने लगे-‘‘ हमारी बेटियॉ झगड़ालू हैं?’’


पत्नी ने मुंह बगल कर के अपने ब्लाउज में पोंछा। पसीना आ रहा था लेकिन कहा कुछ नहीं तो वे खुद ही धीरे से बोले-‘‘ लोग शायद ऐसा कहते हैं।’’


‘‘कौन लोग?’’


पत्नी ने भी धीरे से ही कहा।


इस पर वे भी कुछ नहीं बोले। अपने को इधर उधर के फालतू कामों में उलझाए रहे और आखिरकार थक गए। थक गए तो फिर तैयार हो कर दफ्तर चले गए।


वे एक बार फिर खुद से चौंक गए। एक ऐसा दृश्य उनके साने से गुजरा कि उनकी दफ्तरी रफ्तार थम गयी। आजकल वे ज्यादा सोचने लगे थे। बल्कि कहना चाहिए कि शैलजा की शादी के बाद, बेटी के चले जाने जैसी भावुकता के साथ उनके इस तरह सोचने में वृद्धि हो गयी थी।


उनकी स्कूटर की बगल से एक मोटर साइकिल निकली, जिस पर दो लड़के बैठे थे। हाँलाकि दोनों लड़कों की उम्र का वे एकदम सही अंदाजा नहीं लगा सकते थे, फिर भी उनके अनुमान से एक तेरह चौदह साल का लगता था और बिना हेलमेट के चला रहा था। जबकि इन दिनों दुपहिया वाहन वालों के लिए हेलमेट पहनना जरूरी हो गया था। उसके पीछे मुश्किल से आठ साल का लगने वाला नाजुक और भावुक चेहरे वाला लड़का बैठा था। ठीक उनके दूसरे बगल से दूसरी मोटरसाइकिल निकली, जिस पर तीन ऐसे लड़के बैठे थे, जिनकी उम्र के बारे में वे सिर्फ इतना कह सकते थे कि वे जवान थे। बीच की मॉग काढ़ कर कंधे तक लम्बे बाल लटकाए हुए थे। आगे वाले ने काला चश्मा पहना था, बाकियों को वे ध्यान से नहीं देख पाए। बल्कि यह सब भी वे अंदाजे से कह रहे हैं क्योंकि बहुत विस्तार से मुआयना करने का उन्हें बिल्कुल समय नहीं मिला। यहॉ तक कि हड़बड़ाहट में वे दोनों में से किसी भी मोटरसाइकिल की नम्बर प्लेट नहीं देख पाये। असल में ऐसा नहीं भी होता, पर वे दोनों छोटे लड़कों को बैठा देख, थोड़ी देर को ईश्वर की जरा सी चूक पर दुखी हुए थे और उन्हें लगा था कि लड़का हुआ होता तो कुछ दुख दूर हुए होते। ऐसे ही मोटरसाइकिल चलाता। न सही मोटरसाइकिल चलाता, पर इस तरह से, जैसे कि वे आज व्यथित हो रहे हैं, ऐसा तो न होता। पर इसी क्षण उन्हें यह विचार भी कौंधा कि अगर शैलजा को दिया जाता तो शायद इस लड़के से, जो डगमगाते हुए मोटरसाइकिल चला रहा था, अधिक बेहतर तरीके से चला लेती, बल्कि शायद मोटरसाइकिल को पूरा का पूरा अपने वश में कर लेती। बस, वे भी जरा सा चूके और दूसरी तरफ के जवान लड़कों की मोटरसाइकिल को बचाने में ऐसे लगे कि मोटरसाइकिल उनके स्कूटर के अगले चक्के को छूती हुई निकल गयी। वे सामने देखते हुए गिरे ओर दोनों मोटरसाइकिलों की नम्बर प्लेट नहीं देख पाए। सामने जा कर दोनों मोटरसाइकिल इतने पास हो गयीं थी कि उनका दिल अपनी चोट से ज्यादा आगे की घटना के लिए ‘धक्’ से कर के रह गया। छोटे लड़के की मोटरसाइकिल के पिछले चक्के से बड़े लड़कों की मोटरसाइकिल का अगला चक्का हल्का सा छू गया। छोटा लड़का डर गया। वह गिरती हुई अपनी मोटरसाइकिल पर से कूद सा पड़ा। पीछे वाला लड़का भी उतर गया। मोटरसाइकिल संभाल ली गयी।


‘‘अबे, रूक बे ! समझ क्या रखा है?’’


बड़े लड़के गाली दे कर चिल्लाये। छोटा लड़का एक क्षण को सहम कर सचमुच रूक गया। लेकिन तुरन्त ही उसे अपनी गलती का अहसास हुआ क्योंकि दूसरे लड़के उस पर झपटने जा रहे थे। वे अपने भीतर समाया हथियार जैसा कुछ निकाल रहे थे। मोटरसाइकिल चूंकि स्टार्ट थी, इसलिए छोटा लड़का, अपने पीछे उससे भी छोटे लड़के को बैठा कर भागा। तेज। दूसरी मोटरसाइकिल के लड़के भी अपना हाथ और हथियार लहराते उसके पीछे भागे। तेज।


कहॉ तक गए होंगे लड़के?


वे खुद ही उठ गए। अपनी धूल झाड़ते। गुजर चुकी दोनों माटरसाइकिल में से किसी का भी ध्यान उनकी तरफ नही। था। अलबत्ता कोई दूसरा स्कूटर उनके पास आ कर रूकते रूकते चला गया। खुद ही उन्होंने अपनी स्कूटर उठायी और चल पड़े।


वे इन चीजों को डायरी में दर्ज करना चाहते थे। रोजमर्रा के ये दृश्य। नहीं कर पाते थे। रात तक वे इतना थक चुके होते थे कि बस सोच सकते थे। वह भी कभी कभी और थोड़ी देर। अधिक सोचने से पूरी नींद उखड़ जाती थी और उनके जैसे आदमी के लिए यह बिल्कुल ठीक नहीं था। छोटी सी खटाउ नौकरी थी। उस पर से अतिसार की बीमारी थी। सुबह उठते ही आपाधापी में शामिल होना होता था। सुबह उठते ही कड़वी आयुर्वेद की दवाई पीनी पड़ती थी। अजीबोगरीब चूरन चाटना पड़ता था, जिसका स्वाद दिन भर बना रहता। उपर से इतना सीनियर हो जाने का कोई लाभ उन्हें इंजीनियर साहब नहीं लेने देते थे। जब देखो, बुला कर कोई काम सौंप दिया, वह भी किस चतुराई से।


‘‘ आप सबसे ज्यादा अनुभवी हैं। ये काम आपकी निगरानी में होगा।’’ बस हो गया बंटाधार।


या फिर मुस्करा कर कहते - ‘‘ अरे, सुदामा प्रसाद, मुझे चिंता से मुक्त करिए।’’ लो, हो गया बंटाधार। उन्हें लगना पड़ता। उनके अनुभव की, उनके काम की गुणवत्ता का सवाल हो जाता। उनकी बीमारी के बारे में कौन सुने? इस तरह बाकियों की तरह वे कभी खाली बैठ कर ताश खेल लेने या देर से दफ्तर पॅहुचने जैसे सीनियर होने के लाभ से वंचित रह जाते।


दफ्तर से वे लौटे। रोज की तरह। घर के बाहरी बरामदे में चढ़ते ही उन्हें, उनसे पहले अंदर जाती शैलजा की सहेली रूबीना दिखी। वे अपने ही घर में रूबीना के पीछे पीछे घुसे। रूबीना ने अचानक पलट कर उन्हें‘नमस्ते’ किया और पत्नी समेत बाकी लड़कियो से कुछ कहने पूछने लगी। उन्हें लगा कि उनके घर में ‘रूबीना आ गयी’ ऐसी कुछ खुशी भर गयी है। उन्होंने ‘नमस्ते’ के जवाब मे हल्का सा सिर हिलाया था, जिसे किसी ने नहीं देखा। पत्नी उन्हें देखते ही रसोई की तरफ चली गयीं। वे कमरे में। रूबीना को देखते ही उन्हें शैलजा की याद आयी थी। कब से उससे मिलने नहीं जा पाए थे। शैलजा से छोटी वाली की शादी तलाशने में सारी छुट्टियॉ स्वाहा हो रही थीं। एक को निपटा दिया, अब दूसरी के लिए लगे थे। वे डटे हुए थे। हाँलाकि बात कुछ बन नहीं पा रही थी। उधर शैलजा भी मरने जीने की हालत में ससुराल में पड़ी थी और वे थे कि उससे मिल कर, देख कर, समझा कर और लिवा लाने की कोशिश कर के चले आते थे। ससुराल वाले उसे भेजने को राजी नहीं होते थे। पर असल में वे खुद ही ऐसे वैसे झगड़े टंटे से बच रहे थे। बचना उन्हें जरूरी लग रहा था। जब तक बाकी बेटियों को निपटा नहीं देते। तब तक। केवल तभी तक।


वे चाय आने पर चौंके। एक मन हुआ कि पत्नी को रोक कर सब कह दें। पर चुप रह गए। एक दूसरे से बतियाने की आदत ही नहीं थी। उल्टा उनके मन में आया कि पत्नी रूबीना से बतियाने को अकुला रही होंगी, जैसा कि उन्होंने औरतों के स्वभाव के बारे में सुना था। किससे सुना था? पता नहीं! ठीक ठीक नहीं बता सकते।


चाय पी कर निकलने पर वे फिर चौंक उठे, जब उन्होंने पत्नी को रसोई में एक छोटे से स्टूल पर बैठ कर कुछ सोचते पाया। रूबीना शादी के बाद आयी है। पड़ोस की लड़की है। शैलजा की सहेली है। उसका हाल चाल लेना चाहिए था कि यहॉ बैठ कर......क्या वे भी शैलजा के बारे में सोच रही हैं?

 रूबीना भीतर के बारामदे में बैठी उनकी तीनों लड़कियों को कुछ कहानियॉ सुना रही है। जाहिर है कि ससुराल की तरफ की होंगी। उनके कान में ‘मेरी सास’, ‘मेरा देवर’ जैसे कुछ शब्द गिरे। वे सतर्क हुए। अचानक मुड़ कर रूबीना के पास पॅहुचे और अप्रत्याशित पूछ पड़े- ‘‘ वहॉ सब ठीक तो है?’’


हाँलाकि यह उन्हें सबसे पहले पूछना था। तब, जब वे दरवाजे पर ही रूबीना से मिले थे। उन्हें थोड़ी शर्मिंदगी भी लगी।


‘‘जी।’’ रूबीना ने अपनी सारी बात रोक दी।


‘‘अरे, करो करो तुम लोग बात।’’


लेकिन उनके कहने से क्या? बात रूकी ही रही। उन्हें अटपटा लगने लगा। बच्चे अकबकाये से कभी सिर झुका लेते तो कभी उनकी तरफ देखते। अंततः वे वहॉ से हट गए।


रूबीना चटक हरे रंग का चमकदार सलवार कुर्ता पहने थी। झालरों वाला दुपट्टा बार बार सिर पर खींच लेती थी। उसने हॅस कर बताया कि ऐसा करने की अब उसकी आदत पड़ गयी है।






वे अंदर चले आए थे। उनसे बैठते नहीं बन रहा था। देखो तो, रूबीना की शादी अब हुयी। शैलजा की शादी उन्होंने कितनी जल्दी कर दी। बी ए की पढ़ाई छुड़ा कर। हाँलाकि वे ऐसा नहीं करना चाहते थे, पर रिश्ता अच्छा मिल गया था। वे मजबूर हो गए थे। आखिर वे ये सब किस अज्ञात शक्ति के दबाव में किए जा रहे थे?




तब तो, अंधेरी शाम में स्कूल के बैडमिंटन हॉल में बैडमिंटन प्रैक्टिस करने की इजाजत दी थी उन्होंने शैलजा को। पत्नी के मना करने पर भी खुद पॅहुचा कर आते थे। तब शैलजा द्वारा बैडमिंटन कोच को बद्तमीज़ी के जवाब में थप्पड़ मारने पर वही थे कि खुश हुए थे। अब वही, वर्षों से कह रहे हैं कि सब सह लो। अन्याय, अत्याचार करने पर किसे मारो और किसे न मारो, इतनी बारीक रेखा है कि आदमी कैसे अलगाए? इतनी मोटी सी बात कि तुमसे जो बद्तमीजी करे, उसे कस कर, करारा जवाब दो, कैसे कहें? यही इतना, पॉच साल से चाह कर भी नहीं कह पा रहे थे। या कह कह कर बदल रहे थे।


अचानक उन्होंने अपने को रूबीना के सामने वही सवाल करते पाया - ‘‘वहॉ सब ठीक तो है?’’


इस बार रूबीना ने सिर हिला कर अपनी लज्जा जाहिर की और बेटियों ने मुंह के हाव भाव से अपना गुस्सा। इससे वे आहत हुए।


‘‘करो, करो, तुम लोग बात।’’ उन्होंने फिर कहा।


उनके कहने पर भी कोई बात शुरू नहीं हो सकी। वे लौट पड़े। सचमुच शर्मिंदा।


पिछले पॉच सालों में वे अपनी बाकी लड़कियों के प्रति अगाध दया भाव से भर आए थे और दुनिया भर की लड़कियों के लिए उनमें अचानक चिंता भाव पैदा हो गया था। अतः वे रूबीना के लिए अनजाने ही चिंतित हो गए। उन्हें अखबार की तमाम तमाम खबरें याद आयीं। भारतीय विवाह अधिनियम, क्रिमिनल लॉ, हिंदू और मुस्लिम पर्सनल लॉ...... जैसी तमाम बातें भी दिमाग में घूम गयीं, जिनके बारे में उन्हें मामूली जानकारी तक नहीं थी। इसी क्रम में उन्हें इमराना बलात्कार कांड की याद आयी। अपने ही ससुर के बलात्कार की शिकार और इस बात की शिकायत पर नगर भर ढिंढोरा। हुआ क्या? कुछ पता नहीं। सारी कहानी पूरी कहॉ बताते हैं अखबार वाले!




कम से कम किसी अखबार या किसी न्यूज चैनल की किसी खबर से वे इससे पहले तक इस तरह विचलित नहीं हुए थे। ज्यादा से ज्यादा ‘दुनिया बहुत बुरी हो गयी है’ या ‘रसातल में जा रहा है संसार’ ...... जैसा कुछ कह कर रह जाते थे।




वे अचानक दुनिया बदलना चाहने लगे थे। दरअसल यह अचानक नहीं था। वे बहुत सालों से ऐसा चाहते थे। लेकिन तब वे अपनी इस चाहने वाली बात पर गौर करना जरूरी नहीं समझते थे। अब लगता था कि ऐसा नहीं हुआ तो कैसे चलेगा? अब तो निहायत छोटी और जिन्हें वे रोजमर्रा की बात कहते थे, ने उन्हें भीतर तक बेचैन कर दिया था।




एक बार शैलजा की शादी के कुछ महीने बाद जब वे उसे कुछ दिनों के लिए ले कर आए थे, उसने तभी सारे परिवार के सामने अन्याय के विरूद्ध अपनी जंग की कहानी सुनाई थी। तब उन्हें हल्की सी उम्मीद हुई थी कि शैलजा सब संभाल ले जायेगी। बल्कि ससुराल में खाना बंद किए जाने के खिलाफ शैलजा ने जब रात में उठ कर रसोई के सारे बर्तन पटके तो यह सुन कर वे हल्के से खुश भी हुए थे। यह उम्मीद और खुशी उनके मन में थी। इसे उन्होंने जाहिर नहीं किया। पत्नी और सारे परिवार ने मिलकर अलबत्ता उसे डराया था कि सह लेना चाहिए था, पलट कर ऐसा नहीं करना चाहिए और यह भी कि शैलजा को अब बचपना छोड़ कर एक समझदार औरत की तरह व्यवहार करना चाहिए। इतना सब नहीं सहन करेगी तो परिवार कैसे चलेगा? बहनें हैं आगे शादी को। भाग कर, कहीं से कहीं शरण ले लेना कोई उपाय नहीं है। शरण वाली बात इसलिए विशेष रूप से समझाई गयी थी कि शैलजा ने यह कह दिया था कि ‘ वह ऐसे स्वर्ग में नहीं जाना चाहती’। तो उसे दी जाने वाली ये दलीलें इतनी भावनात्मकता के साथ रखी गयी थीं कि शैलजा हिल गयी और रोने लगी। पछताने लगी कि बर्तन पटक कर उसने भयंकर भूल की थी और अब उसे ससुराल में इसके लिए कभी माफी नहीं मिलेगी। वे चुप थे। इस तरह सहमत थे। इस तरह पति पत्नी, बहनों और पड़ोसियों ने उसे और अधिक विनम्र बना कर वापस भेजा था।




अचानक एक बार फिर उन्होंने अपने को रूबीना के सामने कुछ पूछते पाया। अब पत्नी उठ कर उन तक चली आयीं। पर वे पूछते रहे।


‘‘क्या शैलजा झगड़ालू है?’’


‘‘नहीं तो।’’


वे पत्नी की तरफ देखने लगे।


‘‘तुम तो कहती थी। झगड़ती हैं सब, कहीं रह न पायेंगी।’’


‘‘मैंने ये कब कहा? क्या करूं सहना सिखाना पड़ता है।’’ पत्नी ने कुछ नाराजगी ओर गुस्से से कहा।


क्या सहना?


अन्याय, अत्याचार.....?


वे देर तक पत्नी को नहीं देख सके। लौट पड़े। और बेचैन। इस सबके बीच वे भूल ही गए कि उनकी एक बॉह में हल्का सा दर्द है और स्कूटर से कुछ देर पहले ही वे गिर कर बचे हैं।


‘‘बस, बहुत हुआ।’’ उन्होंने अपने आप से कहा और पत्नी को आवाज लगा दी।


पत्नी के आते ही वे कहना चाहते थे कि ‘ बस, बहुत हुआ’ जैसा कि उन्होंने बस, चंद मिनट पहले ही सोचा था। इसके आगे वे यह भी कहना चाहते थे कि वे बस आज ही शैलजा को लेने निकल जायेंगे। उनका बैग लगा दें। बस, आज ही। कोई भी बस पकड़ लेंगे। लेकिन पत्नी के आते ही वे कुछ और कहने लगे। जैसे - ‘‘देखो, सबकी कैसी कैसी किस्मत होती है। लड़कियॉ भी अपना भाग्य खुद ले कर आती हैं। रूबीना को देखो, इतनी देर में शादी हुई और खुशी से.......’’




‘‘भाग्य क्या होता है? सोचने समझने की जरूरत होती है।’’ पत्नी ने बहुत धीरे से कहा। वे अवाक् रह गए। पत्नी अपना एक विचार भी रखती थीं और उनकी बात के एकदम उलट भी कह सकती थीं!


वे हड़बड़ा कर बोले-‘‘ भाग्य तो तुम्हें मानना ही होगा शैलजा की अम्मां। ऐसा सोचती थीं तो पहले क्यों नहीं बोली ?’’


‘‘जब जब बोली, आप व्यस्त रहे।’’


क्या वे सचमुच व्यस्त थे? इतने सालों से! पत्नी पर उनका ध्यान ही नहीं गया! बातचीत का कोई मौका ही नहीं आया? ये कैसी दूरी रह गयी उनके रिश्ते में? कैसी दुनिया में रह रहे हैं वे लोग? कैसे चलाए जा रहे हैं? क्यों चलाए जा रहे हैं? बदलना होगा यह सब.....




इसी बीच, जब वे विचारों के तेज प्रवाह में थे, उनसे मिलने गुप्ता जी आ गए। गुप्ता जी उनके पुराने परिचित थे। उनके आने की बात सुनते ही वे गुप्ता जी की तरफ दौड़े। इससे पहले कि वे अपनी आज की मनःस्थिति और निर्णय गुप्ता जी को सुनाते, गुप्ता जी बोल पड़े- ‘‘जल्दी में हूँ सुदामा। सब काम छोड़ छाड़ कर आया हूँ समझो। एक ठो बढ़िया रिश्ता मिल रहा है। चलो, देख आओ। लड़का नौकरी वाला है। कब से घर आया था लेकिन हमें ही देर से पता चला। अब तो उसके जाने का बखत आ गया। चलो, तैयार हो कर आओ। मौका हाथ से न निकल जाए। समझो कि वहॉ अपना दबाव भी बन सकता है। ऑटो रिक्शा रूकवाए हुए हैं।.......’’




वे कृतज्ञ हो उठे। अंदर आ कर जल्दी जल्दी पैंट शर्ट पहन कर तैयार हुए। झोले में धोती गमछा रखा और चलते चलते अजीब सी आवाज में पत्नी से कहने लगे-‘‘कल किसी से दफ्तर में खबर करवा देना। अब गुप्ता जी समय निकाल कर आए हैं तो हो आते हैं। उन्हीं के साथ लगे हाथ आगे जा कर दूसरा वाला रिश्ता भी देख आएंगे। गुप्ता जी बातचीत में निपुण आदमी हैं। संभाल लेंगे।’’




झोला उठा कर चलते हुए वे एक पल को ठहरे। एक पल को ही उन्हें लगा कि पत्नी कुछ कहना चाह रही थीं, पर अगले ही क्षण वे गुप्ता जी के साथ ऑटो रिक्शा में बैठ गए।


ठीक इसी समय न्यूज ब्रेक हो गया। ब्रेकिंग न्यूज के सामने पत्नी खड़ी रह गयीं। -




‘एक लड़की दिल्ली की सड़कों पर सिर्फ पैंटी और ब्रा में भागी जा रही थी। ससुराल से छूटी लड़की पुलिस थाना खोज रही थी। उसे पकड़ लिया गया है। पूछे जाने पर लड़की ने ससुराल के अत्याचार की भयानक कहानी सुनायी है।’


इसके बाद रिपोर्टर ने और जोश में कहना शुरू किया-‘‘ देखिए, भारतीय सभ्यता, संस्कृति पर कितना, कितना बड़ा तमाचा है यह। लड़कियॉ शर्म लाज छोड़ कर अब ऐसा कदम उठा रही हैं! उदाहरण है ये भले घर की बहू, जो अर्धनग्न अवस्था में दिल्ली की सड़कों पर भागती हुई पायी गयी। और ये देखिए, उसकी पीठ, बॉह पर कटे फटे के निशान। निशान गवाह हैं उसकी दर्दनाक दास्तां के। निशान गवाह हैं कि उसकी कहानी झूठी नहीं है। निशान चीख चीख कर कह रहे हैं उसके दुखों की दास्तां......’’ इसके बाद रिपोर्टर कुछ लोगों के विचार लेने लगता है। पुलिस, आम आदमी, नेता......कई तरह के लोग, कई तरह की बातें कर रहे हैं। फिर वही, बार बार वही दृश्य, चौबीस घंटों के लिए वही दृश्य....। एहतियातन लड़की की तस्वीर को पीठ की तरफ से, धुंधला कर के दिखाया जा रहा है। साफ साफ दिखाना जनता की कामोत्तेजना को भड़काना होगा। पत्रकारों, चैनलों, व्यवस्थापकों...... ने इसका ख्याल रखा है।






ऐसी, कटी फटी, नीली पीली देह वाली लड़की


ऐसी, कैद से छूट पड़ी लड़की


ऐसी, दिल्ली की सड़कों पर, कपड़ों की परवाह किए बिना भागती लड़की


ऐसी, कितने शहरों के, कितनी सड़कों पर, नंगी भागती पूरे हिंदुस्तान की लड़कियॉ कामोत्तेजना का केंद्र हो सकती हैं?


बलात्कार की शिकार -!


ऐसी कितनी ही लड़कियॉ, नंगे होने को देख लिए जाने के डर से कैद से नहीं भाग पाईं।


ये भाग आई।


इसने रास्ता खोल दिया।




पत्नी चुपचाप भीतर आईं और अपने पुराने बक्से से अब तक जोड़ी पूंजी निकाल कर उस सड़क की तरफ भागीं, जिधर से दिल्ली जाने वाली बस मिलती।



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संपर्क- 

55 कादम्बरी अपार्टमेंट
प्लॉट नं. 19 सेक्टर - 9
रोहिणी , दिल्ली - 85








टिप्पणियाँ

  1. झकझोर कर रख देती है यह कहानी .... अंत में पाठक के अन्तर्मन पर हमारे समाज का यह भयावह चेहरा अंकित रह जाता है , जो किसी भी कहानी की सार्थकता होती है ....बेहद संवेदनशील है यह कहानी ......बेहतरीन ..बधाई आपको

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  2. stree ke paas ant me sadak hee ek ashray bachta hai.. isliye stree dehri laanghne se pahle anek baar sochti hai.. kahani achhi lagi.. pita , pita jaise chinta karte hue dikhte hain.. ek aatmeey aur apna sa lagne vaala vatavarn kheencha hai .. alpana ji ko badhai..shukriya ramji..

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  3. वाह... जीवंत रचना... रचनाकार को बधाई और 'पहली बार' का आभार...

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