भालचन्द्र जोशी से अनुराधा गुप्ता की बातचीत


भालचन्द्र जोशी


भालचंद्र जोशी हमारे समय के चर्चित कहानीकार हैं। आदिवासी इलाके में काम करते हुये जोशी जी ने कुछ अप्रतिम कहानियां लिखी हैं। उनके पास जीवन के जो विविध अनुभव हैं, वे कहानी में अनायास ही आते हैं। कह सकते हैं कि उनके पास जीवन के सघन बिम्ब हैं और उन बिंबों को कहानी में ढालने का उम्दा हुनर भी है। यही बात उन्हे और कहानीकारो से अलग बनती है। युवा आलोचक अनुराधा गुप्ता ने हाल ही में उनसे एक लम्बी बातचीत की है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कथाकार भालचन्द्र जोशी से अनुराधा गुप्ता की बातचीत।
        

साक्षात्कार

लेखन से संतुष्ट हो जाना यानी लेखक का मर जाना है।


(कथाकार भालचन्द्र जोशी से अनुराधा गुप्ता की बातचीत)


अनुराधा गुप्ता : आपने 80 के दशक से लिखना शुरु किया जो अभी तक अनवरत जारी है। लगभग चार दशकों की लेखन यात्रा से आप गुजर चुके हैं। आप इसे कैसे देखते हैं?

भालचन्द्र जोशी : : पीछे पलट  कर देखता हूँ तो लगता है शुरुआती दिनों बहुत कम लिखा। शुरुआत में जब लिखना शुरु किया था तो कम उम्र में ही लगभग उन्नीस-बीस बरस की उम्र में कहानियाँ बड़ी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं फिर नौकरी लगी। झाबुआ जिले के अत्यंत दूरस्थ गाँवों में, जंगलों में रहना पड़ा। लेखन का माहौल भी नहीं था। लम्बे समय तक लेखन की रफ्तार बहुत कम रही। लेकिन उन दिनों पढ़ा बहुत। कम लिखा, लेकिन जीवन अनुभव बहुत बड़े हासिल हुए। यहीं से जीवन और समाज को देखने की नई दृष्टि भी मिली।

बरसों आदिवासियों के बीच, जंगलों में रहने के अनुभव बाद में लेखन के काम आए। यानी ये यात्रा निरंतर देखने-समझने और सीखते रहने और लिखते रहने की यात्रा रही। तो मुझे लगता है कि एक कमरे में बैठ कर लिखता रहता, उसकी अपेक्षा एक भिन्न परिवेश में नित नए अनुभवों की यात्रा के साथ लिखना ज्यादा बेहतर रहा, चाहे कम लिखा।



अनुराधा गुप्ता :  अब तक के अपने लेखन से आप कितना संतुष्ट हैं?
भालचन्द्र जोशी : : बहुत कम। लेखन से संतुष्ट हो जाना यानी लेखक का मर जाना है। लेखक मर कर ही लेखन से छुटकारा पा सकता है। संतुष्टि एक तरह का पूर्णता का पद है। मैं सोचता हूँ,  कोई भी लेखक जीवन में पूर्ण नहीं हो पाता है। कभी संतुष्ट नहीं हो पाता। संतुष्ट हो जाएगा तो फिर लिखेगा क्यों? लेखक के भीतर एक निरन्तर, बेचैनी बनी रहनी चाहिए। कहानी या जो भी रचना हो उसे लिखकर तोष मिलता है। गहरी खुशी भी होती है, लेकिन यह क्षणिक होता है। अगले दिन या अगले किसी समय एक बेचैनी फिर हमारी रचनात्मकता का रास्ता रोक  कर खड़ी हो जाती है।


अनुराधा गुप्ता :  आप लिख सकते हैंयानि आपके भीतर एक लेखक का दिल धड़क रहा है ये कब एहसास हुआ?
भालचन्द्र जोशी : : जब पहली कहानी लिखने का मन हुआ। जब पहली कहानी की कथा-वस्तु ने मुझे बेचैन किया। तेरह-चौदह बरस की उम्र रही होगी। घर में पढ़ने का माहौल था। भाई साहित्य में एम. ए. कर रहे थे। घर में साहित्य की किताबें आती थीं। माँ रोज शाम को हम दोनों भाइयों को पास बैठा कर रामचरित मानस पढ़ती थीं। पढ़ने की यह नियमबद्धता शब्दों के जादू से बाँधने लगी थीं। अब लगता है कि लिखने-पढ़ने के संस्कार माँ के कारण रामचरित मानस से मिले। मैं तो सोचता हूँ कि मानस पढ़े बगैर हिन्दी लेखक संभवतः अधूरा रहता है।


अनुराधा गुप्ता :  आप माँ जैसे हैं?
भालचन्द्र जोशी : : नहीं, पिता जैसा हूँ। लेकिन शक्ल-सूरत पिता जैसी नहीं है। मेरे पिता बहुत खूबसूरत थे। हमारे खानदान में ताऊ-चाचा आदि के परिवारों में भी उन जैसा कोई नहीं था। अलबत्ता माँ कहती है, मेरी बेटी एनी जरूर पिता जैसी दिखती है।


अनुराधा गुप्ता :  आपकी पहली कहानी कौन-सी थी? क्या वो प्रकाशित है? अब जब आप उसे देखते हैं तो कैसा पाते हैं? यदि आज आप उसे लिखते तो क्या ऐसे ही होती?
भालचन्द्र जोशी : : पहली कहानी तो बहुत कच्ची उम्र में लिखी थी। तेरह-चौदह बरस की उम्र रही होगी। वह अप्रकाशित है। आज उसे देखूँगा तो निश्चित रूप से पहले जैसी खुशी नहीं होगी। उसे दुबारा लिखने का श्रम भी नहीं करूँगा।


अनुराधा गुप्ता :  एक लेखक को अपने लिखे से एक विशेष तरह का मोह होता है। एक सर्जक और उसके सृजन के बीच का खास रिश्ता होता है। आपका अपनी कहानियों से कैसा रिश्ता है? वस्तुतः आप अपनी कहानियों की आलोचना को कैसे लेते हैं और क्या खुद उनको एक निष्पक्ष पाठक/आलोचक की दृष्टि से देख पाते हैं?
भालचन्द्र जोशी : मोह की अपेक्षा कहना चाहूँगा, कोमल रिश्ता होता है। कहानी लिखते ही बहुत खुशी होती है। एक बेनाम-सी खुशी कि जैसे आज कोई अपराध भी कर दूँगा तो खुद को माफ कर लूँगा, लेकिन कहानी लिखने के बाद मैं उसे रख देता हूँ, लगभग दो-तीन माह बाद उसे फिर से अजनबी की भाँति पढ़ता हूँ।


अनुराधा गुप्ता :  अजनबी मतलब?
भालचन्द्र जोशी : अजनबी यानी जैसे मेरी कहानी नहीं हो। देखिए अपनी प्रशंसा नहीं कर रहा हूँ, लेकिन यह एक तरह की गॉड गिफ्ट है मुझे। अपनी रचना के मोह से मुक्त होकर उसे पढ़ना। फिर मैं उसमें देख लेता हूँ कि क्या छूट गया है और क्या अनावश्यक आ गया है। फिर मैं उसे री-राइट करता हूँ।

अनुराधा गुप्ता :  ऐसा हर बार होता है?
भालचन्द्र जोशी : अरे.... नहीं। कभी-कभी तो साल भर बाद भी पढ़ता हूँ तो लगता है कि यह जैसी लिखी है, ठीक है।


अनुराधा गुप्ता :  फिर कहानी बढ़िया हो जाती है?
भालचन्द्र जोशी : अच्छी-बुरी तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन एक संतुष्टि मिल जाती है या मन कहता है कि अब इस कहानी पर काम करने की जरूरत नही तो बस फिर उस कहानी को फायनल मान लेता हूँ।


अनुराधा गुप्ता :  कौन-सी वो चीज है जो आपको प्रेरित करती है और किस तरह वो विचार, वो अनुभूति शब्दों का जामा पहन कर आती है। मेरा तात्पर्य आपकी रचना दृष्टि से है। कोई कहानी आपके जेहन से कैसे कागज तक उतर कर साकार होती है? संक्षेप में आपकी रचना प्रक्रिया जानना चाहूँगी।
भालचन्द्र जोशी : मुझे तो खुद आज तक समझ में नहीं आया। कभी-कभी कोई एक कहानी की एक तस्वीर मन में होती है। कभी कोई एक वाक्य ही होता है जो पूरी कहानी में तब्दील हो जाता है। कभी कोई कहानी का कोई छोटा-सा, धुँधला-सा हिस्सा मन के किसी अँधेरे कोने में बैठा रहता है फिर एकाएक किसी एक अजान दबाव में वह उपर आता है। कहानी बन  कर।


अनुराधा गुप्ता :  दबाव किसका? किसी विचार का?
भालचन्द्र जोशी : नहीं..... नहीं.....। किसी वैचारिकी या विचार विशेष या राजनीतिक प्रतिबद्धता के दबाव की बात नहीं कर रहा हूँ। यदि ऐसा संभव है तो यह मेरे लिए अचरज की बात है।



अनुराधा गुप्ता :  तो फिर?
भालचन्द्र जोशी : शायद रचनात्मकता का दबाव रहता हो। मेरे मन के भीतर जैसे एक कुआँ है। जिसके भीतर ढेरों चीजें उसकी दीवारों पर हवा में दौड़ती रहती है। डोलती रहती है। डायरी में लिखे सैकड़ों वाक्य, कथावस्तु या कोई घटना ये जब लिखने की मनःस्थिति से टकराती है तो उसे सतह के ऊपर आने, उस अजान, अँधेरे कुएँ से बाहर आने का रास्ता मिल जाता है। फिर यही कहानी होती है।


अनुराधा गुप्ता :  आपने विचार विशेष या प्रतिबद्धता से इंकार क्यों किया?
भालचन्द्र जोशी : इंकार नहीं, किंचित असहमति कहिए। एक लेखक जो सिर्फ सामाजिक या राजनीतिक ही क्यों? समूचे मानवीय मूल्यों के प्रति, मनुष्य की सम्पूर्ण स्वाधीनता को लेकर एक जिम्मेदारी से भरा मनुष्य है। लेखक दूसरों के लिए मरकर नहीं, दूसरों के लिए जी कर अपनी सर्जनात्मकता को नए अर्थ देता है। रचना में कोई राजनीतिक विचार की सर्वजनहिताय की छवि प्रकट हो तो वह अलग बात है यह सहजता सर्व प्रिय होती है, लेकिन कहानी को राजनीतिक पत्र का कथ्यात्मक रूपान्तरण नहीं होना चाहिए।



अनुराधा गुप्ता :  आप तो प्रगतिशील आन्दोलन में काफी सक्रिय रहे हैं?
भालचन्द्र जोशी : हाँ।

अनुराधा गुप्ता :  आज क्या बदलाव देखते हैं?
भालचन्द्र जोशी : देखिए, मैं प्रलेस में 1978 के आसपास आया था। म. प्र. में यह प्रगतिशील लेखक संघ के उठान के आरम्भिक दिन थे। प्रदेश भर में सक्रियता थी। आपातकाल के बाद राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया भी तेज थी। नेहरू युग का यूटोपिया पुरातत्वीय स्मृतियों में तब्दील हो चुका था। लेफ्ट को उम्मीद से देखा जा रहा था। प्रलेस की सक्रियता से लेखक एक उत्तेजना से भरे-भरे रहते थे। अनेक आयोजन, गोष्ठियाँ और असरदार रैलियाँ होती थीं। वैसी सक्रियता धीरे-धीरे खत्म होती गई। सरोकार बदल गए। नई पीढ़ी के लेखकों की प्राथमिकताएँ बदल गईं। संगठन में विचार को ले  कर एक रूढ़-आसक्ति बनी रही, बढ़ती गई। इस आंतरिक द्वन्द्व में लेखकों की भूमिका बदलने लगी। रही-सही कसर बाजार के अतिक्रमण से पूरी होने लगी।


अनुराधा गुप्ता :  आप बाजार के फैलाव की बात बताइए। सुबह आप टेलीविजन की भूमिका की बात भी कर रहे थे?
भालचन्द्र जोशी : दरअस्ल टेलीविजन के श्वेत-श्याम जमाने में ही बाजार यह समझ गया था कि सामान्यजन में रंगीनियत के प्रति असीम ललक और इच्छा छिपी है। इस रंगीन इच्छा को बाजार ने रंगीन टी. वी. के माध्यम से बाजार की जरूरत में बदला। इच्छा को आवश्यकता में बदला और इच्छाओं को और रंगीन बनाया। बाजार ने एक तरह से एस्थेटिक सेंस को बदला।


अनुराधा गुप्ता :  तो प्रलेस से आपका मोह भंग हो गया?
भालचन्द्र जोशी : भई देखो, विचार से मोह भंग संभव नहीं है। मोह भंग व्यक्ति से, संगठन या संस्थान से होता है। विचार एक लम्बी प्रक्रिया का हिस्सा है, अध्ययन, लेखन और अन्तर्द्वन्द्व की गहरी प्रक्रिया के बाद स्वीकार या अस्वीकार होता है। मोह भंग तो नहीं, लेकिन कह सकते है, किंचित हताश हो गया। विश्व पूँजी ने भयावह को विराट और विराट को जरूरी खूबसूरती के भ्रम के निर्माण में बहुत श्रम किया है।

बहुत संकोच और विनम्रता से कहना चाहूँगा कि हमारे यहाँ साम्यवाद के सांस्कृतिक रूप का थोड़ा बहुत ही सही भारतीयकरण होना चाहिए। हम मार्क्सवाद का मॉडल ज्यों का त्यों नहीं उठा सकते हैं। परम्परा के विरोध में मार्क्सवाद खुद एक रूढ़ परम्परा का पोषक नहीं हो जाए। यह हिचक प्रेमचंद के भीतर भी थी। संभवतः नेहरू-स्वप्न के असमय खंडित होने के कारणो में एक यह भी हासिल होता है।


अनुराधा गुप्ता :  प्रेम कठिन है या प्रेम कहानियाँ लिखना?
भालचन्द्र जोशी : (हँसते हैं) अरे, आपने तो विषय एकदम बदल दिया। दरअस्ल प्रेम कठिन या सरल नहीं है। प्रेम क्षण का मामला है। बस, हो जाता है। प्रेम कहानियाँ ज्यादा कठिन है। प्रियंवद तो कहते हैं कि लेखक का असली इम्तहान प्रेम कहानियाँ लेती हैं। मैं भी सोचता हूँ यदि कोई लेखक जीवन में प्रेम कहानी नहीं लिख पाता है तो उसकी चुनौती अधूरी है, चुनौती बाकी है, मैं तो सोचता हूँ मृत्यु नहीं, प्रेम शाश्वत् सत्य है। अमर है। अटल है। आत्मा का संबंध परमात्मा से नहीं, प्रेम से होता है।



अनुराधा गुप्ता :  आप तो अध्यात्म उलट रहे हैं?
भालचन्द्र जोशी : प्रेम किसी अध्यात्म के बस की बात नहीं है। साहित्य में अध्यात्म की बात ही मुझे असहज लगती है एक तरह का पलायन। मृत्यु कैसे? प्रेम आता है यानी जब टूट कर आता है तो व्यक्ति को पता चलता है कि यह प्रेम है। व्यक्ति मर कर नहीं जी कर प्रेम को महसूस करता है। इसलिए शाश्वत् सत्य तो प्रेम हुआ। अध्यात्म व्यक्ति के प्रेम, दुलार या दुख का रोमंटिज्म में अनुवाद नहीं है। अध्यात्म दुख का स्वीकार नहीं, मृत्यु की गरिमा का पर्याय है। अध्यात्म जहाँ शुरु होता है, साहित्य को वहाँ तक ले जाना फिर वहाँ से शुरुआत एक बीहड़ में दाखिल होना है। अध्यात्म चेतना की अनुभूति का चरम है और साहित्य एक प्रक्रिया है। उसकी निरन्तरता में उसका हासिल है वर्ना तो जीवन इसी तरह चलता है। कुछ अधूरी, अतृप्त, आवारा इच्छाओं के साथ।


अनुराधा गुप्ता :  आपकी हर कहानी की नायिका इतना नेगेटिव्ह शेड लिए क्यों हैं? यानी हर स्त्री छल-कपट से भरी धोखेबाज?
भालचन्द्र जोशी : अरे नहीं भाई, कोई धोखेबाज नहीं, किसी का कोई दोष नहीं। दरअस्ल मेरी शक्ल ही कुछ ऐसी है कि इसे देख कर लड़कियाँ धोखा देने के लिए मचल जाती थीं। (हँसने लगते हैं)



अनुराधा गुप्ता :  यानी प्रेम कहानी में निज का दखल ज्यादा होता है?
भालचन्द्र जोशी : (हँसते हुए) अरे नहीं... नहीं। मैंने बहुत सारी प्रेम कहानियाँ लिखीं हैं। सभी निजी अनुभव से उपजी नहीं है। कुछ देखा, कुछ सुना और हाँ कुछ भुगता भी...। प्रेम ही एकमात्र ऐसा पद है जो दूसरे के अनुभव को सुन कर भी अपना-सा लगता है।


अनुराधा गुप्ता :  आपका मन प्रेम कहानियों में ज्यादा रमता है?
भालचन्द्र जोशी : प्रेम में व्यक्ति ज्यादा मानवीय हो जाता है। एक खास किस्म की मानवीय मार्मिकता से भरा-भरा। दुनिया की तमाम क्रूरताओं के बीच प्रेम शताब्दियों से मनुष्य के लिए तरल आश्वस्ति रहा है। अनुराधा जी, मनुष्यता का पहला आग्रह प्रेम है। मैं आपको एक छोटा-सा किस्सा बताता हूँ। बरसों पहले भीष्म साहनी के साथ यात्रा में काफी समय साथ गुजारा तो उस समय उन्होंने मुझसे एक बात कही थी कि जितनी प्रेम कहानियाँ लिखना है, लिख लो। फिर एक उम्र के बाद प्रेम कहानी लिखना कठिन होगा। बरसों गुजर गए इस बात को, लेकिन मुझे आज इस अधेड़ उम्र में भी ऐसा नहीं लगता कि अब मैं प्रेम कहानियाँ नहीं लिख पाऊँगा। दरअस्ल मैं सोचता हूँ कि लेखक को प्रेमिल बना रहना चाहिए। जीवन की तमाम आपाधापी के बावजूद जीवन की कविता या कहें कोमलता से उसका नाता नहीं टूटना चाहिए। फिर एक बात और कहूँगा कि नितांत निजी अनुभव पर लिखी जाने वाली कहानी भी क्यों न हो, कहानी के रचाव में निज से नाता तोड़ना पड़ता है। गहरी संवेदना को निजी आसक्ति से मुक्त करके एक तटस्थ रचना-दृष्टि ज्यादा गहराई से प्रेम को व्यक्त कर सकती है, बेहतर कहानी में। अन्यथा तो रचना एक व्यक्ति का निजी रुदन हो कर रह जाएगी। एक लेखक खुद को दूर खड़ा कर के, खुद को प्रेम में डूबा हुआ देख सके तो यही निरपेक्ष देखना कहानी को संभव करता है। (कुछ देर रुक कर) मैं तो ऐसा ही सोचता हूँ।




अनुराधा गुप्ता :  तो इस देखना में प्रेम में कहानी और कहानी में प्रेम कहाँ तक साथ देता है? इसी द्वन्द्वात्मकता के बार में बताइए। क्योंकि प्रेम की ऐसी सान्द्र और इंटेंसअभिव्यक्ति क्या सिर्फ कल्पना का जतन है या इसमें आपकी व्यक्तिगत अनुभूति भी शामिल है?
भालचन्द्र जोशी : भई, यह कहना तो बड़ा कठिन है। मुझे लगता है प्रेम तो जीवन की सबसे कोमल और सबसे लम्बी अधलिखी कविता है। जिसे पूरा करने की कोशिश व्यक्ति जीवन भर करता है। व्यक्ति ईश्वर की निकटता से ज्यादा प्रेम की निकटता में खुश रहता है। व्यक्ति की आसक्ति और आत्म-निर्वासन दोनों स्थिति में जिसे अपने संवेदन-केन्द्र पर तीव्रता और पूरी तरलता से महसूस करता है। संभवतः वही प्रेम है। रही बात व्यक्तिगत अनुभूति की तो यह भी होता है। कोई भी लेखक या कम-से-कम मैंने तो प्रेम-कहानियाँ निजी अनुभव पर लिखीं हैं। अब प्रश्न यह है कि यह निजी अनुभव क्या है? दूसरों के प्रेम के अनुभव को भी हम संवेदना के उसी स्तर पर जा कर महसूस कर सकें जिसे वह प्रेमी महसूस कर रहा है तो उसका अनुभव भी हमारा अनुभव हो जाता है। आसानी से कहूँ तो यह किसी व्यक्ति से उसके प्रेम-अनुभव के साथ हमारे इनवाल्वमेंट पर निर्भर करता है। हमारी संवेदना किसी पराए प्रेम को हमारी रचनात्मकता में कितनी सघनता से शामिल करती है।


अनुराधा गुप्ता :  आप के लिए कहानी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा क्या है? उसकी फॉर्मेटिंग करते समय क्या किन्हीं खास पक्षों पर विशेष ध्यान दिया जाता है? या यह अपने आप में अखण्ड एक समान प्रक्रिया है?
भालचन्द्र जोशी : कथ्य तो खैर, महत्वपूर्ण होता है, लेकिन भाषा और शिल्प का साथ पूरी तरह से न हो तो अच्छी कहानी की भी अकाल मृत्यु होते देर नहीं लगती। देखिए, अज्ञेय ने कहा है कि संवेदना भाषा को संस्कार देती है। तो भाषा तो महत्वपूर्ण है, मैं सोचता हूँ कहानी को लेखक की इच्छा को पाठकीय संवेदना तक पहुँचाना चाहिए। भाषा लेखक का मंतव्य नहीं रचना की जरूरत होना चाहिए।


अनुराधा गुप्ता :  आज बड़ी संख्या में युवा पीढ़ी कहानी लेखन में संलग्न है। जो अपने-अपने तरीके से कहानी या साहित्य की दुनिया को समृद्ध कर रहे हैं। आप इस पीढ़ी को किस तरह देखते हैं और कितने आशान्वित हैं?
 
भालचन्द्र जोशी : बहुत उम्मीद के साथ देखता हूँ। आप कहानी का इतिहास देखिए....। हर पीढ़ी ने अच्छा लिखा है। जिम्मेदारी से लिखा है। हर पीढ़ी के सभी कहानीकार न सही, लेकिन कुछेक कहानीकार हमेशा ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपनी पीढ़ी के कहानी लेखन के दायित्व को बखूबी उठाया है।



अनुराधा गुप्ता :  आज एक पीढ़ी जो स्थापित हो चुकी है वो भी लेखन में सक्रिय है और एक वो पीढ़ी जो स्थापित होने के प्रयासों में है। इन दोनों के बीच आप कैसा तालमेल देखते हैं?
भालचन्द्र जोशी : तालमेल से आपका आशय रचनात्मकता या लेखकीय दृष्टि से है तो यह कहना जल्दबाजी होगी। इन दिनों जो युवा पीढ़ी लिख रही है उनके ऊपर बदलते समय यानी बाजार जो हर दिन हर पल समाज, समय को प्रभावित कर रहा है, उसका भी दबाव है। पिछली पीढ़ी ने इसका कैसे सामना किया वे उसे देख-समझ रहे हैं, लेकिन बाजार जिस तेजी से नए रूप में सामने आता है वह उनके लिए बड़ी चुनौती है। उनके लिए ही क्यों? हर लेखक के लिए।


अनुराधा गुप्ता :  आज जिस तरह की कहानियाँ लिखी जा रही हैं और जिस परिमाण में लिखी जा रही हैं, आप उससे कितना संतुष्ट हैं? आज की हिन्दी कहानी समकालीन समय की जटिलता को पकड़ कर आवाज दे पाने में किस हद तक सफल दिखती है?
भालचन्द्र जोशी : आज जो कहानियाँ लिखी जा रही हैं वह मुझे ही क्यों हर लेखक और पाठक के लिए सुखद अचरज है। ज्यादा संख्या में लेखक और रचनाएँ आ रही हैं। समय अनावश्यक को खुद हटा देगा।


अनुराधा गुप्ता :  हाशिए के समाज को जिसे आन्दोलन की तरह राजेन्द्र यादव हंस के माध्यम से विमर्श के मुख्य पटल पर लाए थे, आज आप उसे कितना सफल पाते हैं?
भालचन्द्र जोशी : राजेन्द्र यादव जिस आन्दोलन को विमर्श के केन्द्र में लाए उसकी रचनात्मक सार्थकता और उसकी दिशा और दशा की असली पहचान अब शुरु होगी। यह कितनी दूर तक जाएगा और इसकी आंतरिक संरचना की पहचान किस तरह आकार ग्रहण करेगी इसके लिए अभी इसे समय देना मुनासिब होगा।


अनुराधा गुप्ता :  क्या लेखन को वर्ग, लिंग, जाति और यहाँ तक की सम्प्रदायों में विभाजित करके देखना उचित है? उन्हें दलित लेखन, स्त्री लेखन जैसे वर्गों में बाँट कर देखना क्या सही है?
भालचन्द्र जोशी : दलित लेखन पृथक से एक आन्दोलन की भूमिका अपना चुका है। दिलचस्प बात तो यह है कि दलित लेखन का एक सौन्दर्यशास्त्र भी तैयार हो चुका है। मराठी में यह बहुत सशक्त वाजिब कारणों से उभरा। हिन्दी में यदि इसे वर्ग चेतना की तरह देखा जाए तो बुराई क्या है? रही बात स्त्री लेखन की तो अनेक महत्वपूर्ण लेखिकाओं ने लिंगभेद पर लेखन को विभाजित किए जाने से ऐतराज उठाया है। कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा, उषा प्रियंवदा, ममता कालिया, राजी सेठ लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने किसी विभाजन की सुरक्षा आश्वस्ति के बगैर अपनी एक बड़ी पहचान बनाई। साहित्य की दुनिया के समग्र लेखन के भीतर।


अनुराधा गुप्ता :  इस तरह के वर्गीकरण महिलाओं के लेखन को कमतर कर आँकने का प्रयास नहीं कर रहे हैं?
भालचन्द्र जोशी : लिंग आधारित वर्गीकरण के भीतर लेखक के मूल्यांकन की बात भी ज्यादातर लेखिकाओं की ओर से आई है। हालाँकि फिर भी स्त्री लेखनके वर्गीकरण के प्रयास और इससे नकार, दोनों को संदेह से देखना उचित नहीं है क्योंकि महिला लेखनअपने आप में उस तरह नकार या अवमूल्यन का प्रस्ताव नहीं है जैसा कि दलित लेखन भी नहीं है। इसी संदर्भ में मुझे याद आया कि मेरी मित्र है युवा लेखिका अमीता नीरव जिन्होंने एक दिलचस्प बात कही थी कि ‘‘लैंगिक समानता का विचार अपने मूल में प्राकृतिक, जैविक और मनोवैज्ञानिक विविधता का विरोध है।’’


अनुराधा गुप्ता :  इधर महिला लेखन में कहानी या उपन्यास क्या पढ़ रहे हैं? इसी सन्दर्भ में उसमें क्या विशेष लगा?
भालचन्द्र जोशी : फिलहाल तो कृष्णा सोबती का गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तानपढ़ रहा हूँ। अभी मैंने प्रज्ञा का गुदड़ बस्तीपढ़ा। गुदड़ बस्तीमहिला लेखन के परम्परागत विषयवस्तु घर-परिवार, प्रेम या पति-पत्नी के सम्बन्धों से बाहर के विषय का उपन्यास है। सर्वहारा को लेकर इस तरह इधर नई लेखिकाएँ कम ही साहस जुटाती हैं। स्त्री विमर्श के प्रचलित फ्रेम से बाहर निकलकर कहानीकार कविता ने जो कहानियाँ लिखी हैं, वह भी पसंद आई हैं। कविता के पास कहन बहुत खूबसूरत है। कविता का नदी जो अब भी बहती हैकी कहानियाँ इसी कहन का विस्तार है। स्त्री विमर्श पर एक पुस्तक अनामिका जी की है, ‘स्त्री विमर्श की उत्तर गाथाजो मुझे उनकी पुस्तक स्त्रीत्व का मानचित्रजैसी ही सधी हुई लग रही है। अनामिका जी की ये पुस्तकें आपने यदि नहीं पढ़ी हैं तो जरूर पढ़ें। हमारे यहाँ वे थोड़ी-सी लेखिकाएँ जिन्होंने स्त्री विमर्श को सिर्फ सिमोन-द-बोउवा के निष्कर्षों के इर्द-गिर्द नहीं रखा, उनमें अनामिका जी बहुत उल्लेखनीय नाम है।


अनुराधा गुप्ता :  आपने आदिवासी जीवन पर बेहद प्रामाणिक और मार्मिक कहानियाँ लिखी हैं? आपका इनसे इतना गहरा और आत्मीय जुड़ाव कैसे रहा?
भालचन्द्र जोशी : मैंने जीवन का एक लम्बा हिस्सा आदिवासियों के बीच गुजारा है। घने जंगलों में तमाम सुख-सुविधाओं से परे। इतने बरसों तक उनके साथ रहने पर मुझे लगा कि भगौरिया पर उनके जीवन की जो रंगीनियत नजर आती है वह उनके जीवन का प्रतिनिधि हिस्सा नहीं है। उनकी पीड़ा, शोषण और गरीबी के दुख इतने बड़े हैं कि दुनिया की किसी भी रंगीनियत को फीका कर देंगे। (कुछ रूक कर) अरे, मैं तो आदिवासी ही हूँ हालाँकि उनकी निश्छलता और श्रम तक नहीं पहुँच पाया, लेकिन उनके बीच रह कर घर जैसा लगता था। मेरा मन एक आदिवासी का है।


अनुराधा गुप्ता :  लेकिन इतने लम्बे और सघन अनुभव से पहाड़ों पर रात’, ‘जंगल’, ‘जंमलासो’, ‘हत्यारे कहाँ नहीं हैंयानी कहानियाँ तो बहुत हैं लेकिन कोई उपन्यास नहीं?
भालचन्द्र जोशी : नहीं इतनी कहानियों के बाद मैंने सोचा कि इसके लिए उपन्यास की जरूरत है। एक उपन्यास प्रार्थना में पहाड़हाल ही में प्रकाशित हुआ है। तीन उपन्यास और लिखने हैं। नोट्स बने हुए हैं। उन्हीं दिनों के।



अनुराधा गुप्ता :  इतने बरसों तक आदिवासियों के साथ जीवन बिताने पर उस जीवन की संश्लिष्टता ने कितना प्रभावित किया? कोई विशेष अनुभव?
भालचन्द्र जोशी : बहुत ज्यादा। जीवन के प्रति नजरिया ही बदल गया। खुद की गरीबी और अभाव आदिवासियों के दुख और गरीबी के आगे बौने लगने लगे। फिर मैंने जीवन में कभी अभावों का रोना नहीं रोया। उस समय आदिवासियों के बीच उनके हितों के लिए अनेक संगठन कार्य कर रहे थे। उनके साथ उठना-बैठना होता था। उन्हीं दिनों मार्क्स वगैरह भी पढ़ा एक कच्ची उम्र में मार्क्सवाद पढ़ने की गैरजरूरी रूमानियत भी थी। इन सब चीजों को ले कर मेरी मुश्किलें बढ़ी थीं। उन दिनों तो लगता था कि हाथ में एक अदृश्य मशाल है और बस अब क्रांति होने ही वाली है। उन दिनों मेधा पाटकर भी आती थी। दुबली-पतली शायद सलवार-कुर्ता पहने रहती थी साँवली-सी अल्पभाषी लेकिन निर्भिक लड़की। विद्रोह की करिश्माई ताकत थी उसके पास। एक सामान्य-से छोटे-से घर में ठहर जाती थी। मैं या मेरे दोस्तों के पास कोई सुख-सुविधा नहीं थी। यहाँ तक कि तीव्र गरमियों में भी पंखा तक नहीं था। लेकिन मजे से दिन गुजारते थे। उमंग और हलचल बदलने के उत्साह से भरे-भरे रहते थे। ताड़ी पहली बार तभी पी मैंने। महुए की शराब भी तभी पी। महुए की उम्दा और शुद्ध शराब रहती थी कि स्कॉच का अभिजात्य दम्भ उसके आगे बौना हो जाए।


अनुराधा गुप्ता :  आदिवासी जीवन की बात कही तो इसी से याद आया, कहते हैं और मैं मानती भी हूँ कि आपकी कहानियों में प्रकृति पात्र की भाँति आती है। कैसे सम्भव किया और क्यों?
भालचन्द्र जोशी : देखिए जीवन का एक लम्बा हिस्सा मैंने घने जंगलों में बिताया है। प्रकृति से इतनी निकटता कि मैं भी कोई पंछी कोई पेड़ हो जाना चाहता हूँ। हम लोग रात के अँधेरे में भी, जब वहाँ कच्ची रोड़ भी नहीं थी, मात्र पगडंडी पर इत्मीनान से बगैर किसी सहारे के एक गाँव से दूसरे गाँव चल देता था। साथ में आदिवासी साथी होते थे। शीशम और सागौन के लम्बे, ऊँचे पेड़ों से चाँद की रोशनी इस तरह छन कर आती थी कि जंगल की घास पर रोशनी के धब्बे बिखरे रहते थे। इस थिर सन्नाटे में एक पंछी यहाँ से बोलता तो दूसरा वहाँ से जवाब देता। फिर अनेक पंछी इस संवाद में शामिल हो जाते, लेकिन शोर नहीं होता। इतना खूबसूरत रिदम रहता कि रात की मोहकता बढ़ जाती और लगता था कि पेड़, पत्ते, और फूल साँस रोके यह संवाद सुन रहे हैं। जंगल की खूबसूरती, उसकी सादगी को जंगल में ही महसूस किया जा सकता है। जंगल आदमी के मन की निश्छलता की सँभाल करता है। जंगल मेरी कमजोरी है। मुझे हमेशा अपने लिए जंगल की एक खामोश पुकार सुनाई देती रहती है। एक मोहक और असीम लगाव। जंगल तो मेरे लिए जीवन का पर्याय है। एक बारिश होते ही पेड़ ऐसे नहा जाते हैं कि पत्तियों की रंगत बदल जाती है। जंगल खिलखिला उठता है। दरअस्ल मनुष्य ने प्रेम करना प्रकृति से सीखा है। जंगल जाना मुझे हमेशा घर जाने जैसा लगता है। जंगल इस संसार को एक खूबसूरत देन है। हम लोग औसतन बीस किलोमीटर रोज पैदल चलते थे। रास्ते नहीं बने थे बस नहीं थी। हमारे पास कोई वाहन नहीं। नौकरी ही ऐसी थी हर हफ्ते काम देखने जाना पड़ता था। एक जगह तो ऐसी थी जो पचास किलोमीटर दूर। रास्ते के एक गाँव में रात रूकते थे। बाजरे की रोटी और साग। साथ में ताड़ी या महुए की शुद्ध शराब। फिर रात को गाना-बजाना। कई बार रात को पीते या गीत सुनते सुबह हो जाती तो रोटी खाना भूल जाते थे। अलस्सुबह खाना खाते थे।


अनुराधा गुप्ता :  क्या आदिवासी जीवन की तरह आप दलित लेखन से भी अपने को जोड़ पाते हैं? सवर्ण होने के कारण क्या आपी लेखकीय ईमानदारी के सबूत माँगे गए?
भालचन्द्र जोशी : बिल्कुल। मैंने तो दलित जीवन के कड़वे यथार्थ की कहानियाँ लिखी हैं। सवर्ण होने के कारण कोई आपसे लेखकीय ईमानदारी के सबूत नहीं माँगता है एक भद्र सार्वजनिक उपेक्षा ही पर्याप्त होती है।


अनुराधा गुप्ता :  आपकी पालवाकहानी सर्वाधिक चर्चित कहानी है। यह कहानी एक बच्चे के मनोविज्ञान के साथ ही क्या दलित विमर्श और बल्कि मैं कहना चाहूँगी, स्त्री विमर्श की कहानी नहीं है?
भालचन्द्र जोशी : बच्चे का विरोध में जा कर दलित बूढ़े किसान का जूठा कप उठाकर पी लेना दलित विमर्श में प्रतिकार का सहज और बड़ा महत्वपूर्ण दृश्य था। ऐसा मैं नहीं, आलोचक भी कहते हैं, लेकिन आपने जो अंतिम बात कही है कि स्त्री विमर्श की कहानी भी है इसकी ओर कम लोगों का ध्यान गया। आपके अलावा युवा आलोचक अरूणेश शुक्ल का ध्यान इस ओर गया था और अकारके लिए लिखी समीक्षा में उन्होंने इस बात की ओर स्पष्ट संकेत दिए हैं।




अनुराधा गुप्ता :  जब आप कोई कहानी लिखते हैं तब क्या कोई निश्चित उद्देश्य आपके जेहन में होता है? कहने का तात्पर्य है कला की सोद्देश्यता के आप कितने पक्षधर हैं?
भालचन्द्र जोशी : देखिए कला और फिर आपने एक दिलचस्प बात जोड़ी है, सोद्देश्यता! लिखते समय मन में ऐसा कुछ नहीं होता है। जो लिखते समय एक उद्देश्य ले कर लिख लेते हैं, या उद्देश्य ले कर लिखने बैठते हैं ऐसे लेखकों को देखना या मिलना चाहता हूँ। न सामाजिक सरोकार और न कला की कोई सोद्देश्यता, कुछ नहीं बस जो लिखना है, जो लिख रहा हूँ, उसे लिख कर एक सघन विचलन, गहरी पीड़ा और वैचारिक अर्न्द्वन्द्व से मुक्ति। इस मुक्ति, इस छुटकारे में ही असीम शान्ति मिलती है। शायद इसी को रचनात्मक संतुष्टि कहते होंगे। या रचनात्मकता से उपजी तुष्टि।


अनुराधा गुप्ता :  एक लेखक की सामाजिकता को कैसे देखते हैं?
भालचन्द्र जोशी : जिसे आप लेखक की सामाजिकता कह रही हैं, उसे मैं लेखक का धर्म मानता हूँ। इस धर्म को ले कर जब सोचता हूँ तो कभी-कभी मन हताशा से भर जाता है कि क्यों लिख रहे हैं? हमारे लिखे की हिन्दी समाज को न चिन्ता है न परवाह। फिर लगता है कि लेखक हम इसलिए नहीं हैं कि हमें लिखना आता है, बल्कि इसलिए लिखते हैं कि हमारे होने की बड़ी सार्थकता हम लेखन में देखते हैं। लेखक मेरे अस्तित्व का मूल धर्म है इसलिए लेखन मेरी मानवीयता के, उसकी स्वाधीन चेतना का संस्कार है। लिखना मेरे लिए एक नैतिक हरकत है। मुझे लगता है कि लेखन ही अंतिम गुण या धर्म है जो लेखक को मरने से बचाते रहता है लेकिन यह लेखक की मदद के बिना संभव ही नहीं है। व्यक्ति पैदा होता है मनुष्य की तरह लेकिन मानवीयता उसे हासिल करना पड़ती है। उसी तरह लेखक होने के बाद लेखक होने का धर्म हासिल करना पड़ता है। उसे बचाए रखना पड़ता है। फिर एक बात और है, स्थानीयता के मोह से लेखक को जल्दी मुक्त हो जाना चाहिए। व्यक्ति को उसकी संवेदना सामाजिक सरोकारों से जोड़े यह तो ठीक है, लेकिन स्थानीय महत्वाकाँक्षाएँ व्यक्ति को एक तरह का चालू सामाजिक कार्यकर्ता या अनावश्यक उत्सवधर्मी बना देती हैं। इससे बचना चाहिए। बहुत ज्यादा सामाजिक हो कर कोई रचनात्मक लेखन नहीं कर सकता है। राजनीतिक मंशा से उपजी सामाजिक सक्रियता लेखन को हताश करती है।


अनुराधा गुप्ता :  हत्या की पावन इच्छाएँआपके लेखन का चरम है। जटिल यथार्थ को रचने की मुक्तिबोधीय फैंटेसी से ले कर रूहानी प्रेम और फिर उससे आगे पल-पल परलय, पिशाच, ‘कहाँ नहीं है हत्यारेजैसी कहानियों में किसानों की समस्याओं से शुरु हो कर पूँजीवादी देशों के षड़यंत्रों को टटोलना, किस तरह का अनुभव रहा?
 
भालचन्द्र जोशी : हत्या की पावन इच्छाएँकहानी मेरी रचना-यात्रा का पड़ाव है मुकाम नहीं। अलबत्ता यह कहानी पढ़ कर जितनी भी प्रतिक्रियाएँ मिली उनमें से एक तो बिज्जी यानी विजयदान देथा जी की थी। कहने लगे, -‘‘कहानी पढ़ कर चकित हूँ और खुश भी कि लोक की सँभाल के लेखक अभी हैं।’’ दूसरी प्रतिक्रिया थी प्रख्यात आलोचक श्री नित्या नंद तिवारी जी की। कहने लगे, -‘‘लोक के इस तरह के इस्तेमाल की हिन्दी में पिछले कई बरसों में तो ऐसी कहानी नहीं पढ़ी।’’ फिर एक रेडियो टॉक पर भी उन्होंने इस कहानी की चर्चा की थी। इस तरह वरिष्ठ लेखकों की प्रतिक्रियाएँ तसल्ली और खुशी देती हैं। दूसरी बात कि फैंटेसी, प्रेम कहानियाँ और किसानों की आत्महत्या की कहानियाँ कोई एक रेखीय यात्रा नहीं है। ज्यादातर देखा गया कि फैंटेसी के लेखक फैंटेसी से बाहर आ कर यथार्थपरक कहानियाँ लिखने से परहेज पालते रहे हैं। मैंने इसी दिक्कत को पार करने की कोशिश की है। मैंने दोनों तरह की कहानियाँ लिखीं। एक चुनौती की भाँति। किसान का बेटा हूँ इसलिए उनकी तकलीफों और उस अंतिम हद, आत्महत्या के यथार्थ से परिचित हूँ। इसलिए मुझे ये कहानियाँ लिखना भी जरूरी लगा। यह अनुभव कठिन रहा। तकलीफदेह। फिर एक बात और है कि खुशी से ज्यादा तकलीफ लेखक बनने में मददगार होती है।


अनुराधा गुप्ता :  अब इससे उलट बात पूछना चाहूँगी, आपकी कहानियाँ अलग-अलग भावभूमि पर लिखी गई हैं। धर्म का अन्ध उन्माद, सत्ता की क्रूरता और षड़यंत्र, भूमण्डलीकरण और विश्व बाजार की नीतियों के अप्रच्छन्न जहरीले असर, गाँव, किसान, शहर, आदिवासी आदि की जटिलताओं के बीच नदी के तहखाने में, तितली धूप, जंगल जैसी खालिस प्रेम की रूहानी कहानी कैसे लिख लेते हैं?
भालचन्द्र जोशी : मुझे खुद नही मालूम लेकिन कुछ श्रम तो प्रेम का पद अपनी ओर से भी करता है। उसे यदि लेखक मन-मुआफिक लगता है तो फिर प्रेम ही लेखक का हाथ पकड़ कर लिखवाता है। जहाँ तक प्रश्न है रूहानी प्रेम का तो यह प्रेम की छवि को किस तरह से ग्रहण कर रहे हैं उस पर निर्भर करता है। मैं प्रेम को डिवाइन मानता हूँ तो जीवन में मुझे ऐसे लोग भी मिले जो स्त्री को डिवाइन कहते हैं। मैं प्रेम की कविता या कहें कोमलता का हामीदार हूँ। कुछ लोग समझते हैं प्रेम देह से शुरु होता है, मैं ऐसा नहीं सोचता हूँ। देह की उपस्थिति प्रेम का धीरे-धीरे क्षरण करती है। दाम्पत्य जीवन में संदेह, कलह और क्षोभ के या फिर कहें ऊब का एक कारण यह भी है। प्रेम हमारे संवेदन-संतुलन की निरन्तर परीक्षा लेता है। वह हर बार आपको उत्तीर्ण देखना चाहता है।


अनुराधा गुप्ता :  आपको किस तरह की कहानियाँ लिखना अधिक तनाव से गुजरना लगता है?
भालचन्द्र जोशी : हर कहानी। हर कहानी को लिखते समय मैं एक गहरी बेचैनी और तनाव में रहता हूँ लेकिन कहानी खत्म होते-होते मन एक अलौकिक खुशी से भर जाता है। प्रत्येक परिवर्तन और नवीन यथार्थ एक लेखक के लिए नई चुनौती होता है और चुनौती एक अन्तर्द्वन्द्व को, एक तनाव को साथ रखती है। इस नवीन यथार्थ को अपनी रचनात्मकता का हिस्सा बनाने में किस हद तक लेखक उसे स्वीकार या संभव बनाता है। जिसमें उसके दायित्व की सार्थकता भी प्रमाणित हो। संभव बनाने के लिए यह चुनौती उसकी सर्जनात्मक दक्षता जिसमें दायित्व बोध और कलात्मक उपस्थिति का स्वीकार हो, दोनों के युग्म से रूपायित होती है। उसकी इस दृष्टि की सीमा भी प्रकट होगी कि बदलते यथार्थ को उसकी सर्जनात्मक क्षमता कितना सँभाल पाती है। यही सँभाल तनाव को खुशी तक ले जाती है।


अनुराधा गुप्ता :  हाल ही प्रकाशित आपके उपन्यास प्रार्थना में पहाड़के विषय में कुछ बताएँ।
भालचन्द्र जोशी :  प्रार्थना में पहाड़आदिवासियों के जीवन-संघर्ष, उनके सुख-दुख, प्रेम और प्रतिकार का उपन्यास है जिसमें कार्पोरेट जगत की कुटिलताएँ हैं जो आदिवासी जीवन, जंगल को नष्ट कर रही हैं। राजनीतिक उदासीनता और अवहेलना के बीच मीडिया के बदलते चरित्र की भूमिका भी है। मृत्यु के प्रति अटूट निर्भिकता और जीवन के प्रति असीम विश्वास मैंने आदिवासियों में देखा है। नंगे, सूखे पहाड़, पहाड़ होता जीवन, इसी जीवन, इसी पहाड़ की प्रार्थना है यह उपन्यास।


अनुराधा गुप्ता :  आपका अध्ययन विस्तृत है। आपको क्या लगता है हिन्दी कहानी भारतीय भाषाओं के साहित्य से अधिक जुड़ी है या विदेशी प्रभावों से?
भालचन्द्र जोशी : ऐसा कोई विस्तृत अध्ययन नहीं है क्योंकि जितना भी पढ़ो कम है। एक कभी न खत्म होने वाली भूख है, लेकिन एक समय मेरे भाई के एक मित्र थे जो मेरी हर कहानी के प्रकाशित करने से रोक देते थे कि अभी तुमने ये नहीं पढ़ा, अभी तुमने वो नहीं पढ़ा... इस तरह उस व्यक्ति ने मेरा देश-दुनिया के साहित्य से गहरा परिचय कराया। हिन्दी कहानी में जो प्रेमचंद और बाद में रेणु की परम्परा के लेखक हैं, वहाँ किसी प्रभाव की गुंजाइश नहीं थी। संबंधों की या विदेशी भाव भूमि की कहानियों पर इस तरह के प्रभाव की बात आलोचना में आती रही, लेकिन वे बातें दूर तक नहीं गईं। हिन्दी कहानी और ज्यादा भारतीय है।


अनुराधा गुप्ता :  आपको लगता है कि हिन्दी की कहानियों के पाठक जनसंख्या के अनुपात में काफी कम होते जा रहे हैं? यदि ऐसा वाकई है तो क्यों?
भालचन्द्र जोशी : जी बिल्कुल। बाजार ने सामान्य पाठक और बुद्धिजीवियों की प्राथमिकता बदल दी है। सोशल मीडिया को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है कि उसने व्यक्ति से उसके भीतर का पाठक छीन कर स्मार्टफोन के हवाले कर दिया, लेकिन एक कारण यह भी है कि प्राथमिकता बदलती गई, रूचि बदलती गई, रूचि भ्रष्ट भी होती गई। समाज की रूचि को अंततः उसका समय ही तो प्रभावित करता है। जितना लिखना कठिन है उतना ही पढ़ना भी कठिन है। आज युवा पीढ़ी की एक बड़ी आबादी कैरियर के कठिन दौर से गुजर रही है। प्राथमिकता बदलने में एक कारण यह भी है। हिन्दी साहित्य अब कैरियर का विषय नहीं रह गया है।


अनुराधा गुप्ता :  आपकी रचनाओं में कौन-कौन सी रचना आपको बेहद प्रिय है? क्या वे आज भी आपके विश्वास और आस्था के करीब है?
भालचन्द्र जोशी : देखो भाई, यह कहना तो कठिन है वर्ना क्या कारण है कि कई ऐसी कहानियाँ हैं जो अप्रकाशित हैं। कच्ची उम्र की कहानियाँ हैं लेकिन फेंकने का मन नहीं करता है। हर कहानी तभी लिखी जाती है जब वह आस्था और विश्वास के करीब हो, कम से कम मेरे साथ तो यही है। मैं बतौर लेखक अपनी कहानियों के साथ बहुत प्रेमिल हूँ। मैं तो अपनी कहानियों को उतना ही प्रेम करता हूँ जितना एक स्त्री को प्रेम किया जाता है और उम्र भर प्यार किया जाता है।


अनुराधा गुप्ता :  प्रगतिशील लेखकों में आप किन-किन से प्रभावित रहे हैं? क्या कुछ नए लेखकों के बारे में कहेंगे?
भालचन्द्र जोशी : अनुराधा जी, प्रगतिशील लेखक से आपका क्या आशय है? जो प्रलेस के सदस्य लेखक थे वे या जो इस विचारधारा से प्रभावित हो कर लिखते रहे वे या जो प्रगतिशील मूल्यों के लिए लिखते हैं?


अनुराधा गुप्ता :  इसी संदर्भ में बता दें!
भालचन्द्र जोशी : देखिए प्रलेस में सदस्य किसी लेखक से नहीं विचारधारा से प्रभावित रहता है। वहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता पर जोर रहा है। वर्ना तो प्रगतिशील मूल्य के लेखक वे भी हैं जो प्रलेस में नहीं रहे। जैसे मनोहर श्याम जोशी, राही मासूम रजा, अमृतलाल नागर, कृष्णा सोबती, रांगेय राघव, जगदीशचन्द्र, अमरकान्त, गिरिराज किशोर, फणीश्वरनाथ रेणु, श्रीलाल शुक्ल, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मन्नू भण्डारी, शानी, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया लम्बी फेहरिस्त है। दरअस्ल अवधारण को लेकर लेखक के द्वन्द्व को भी समझना होगा। प्रगतिशीलता बहुत व्यापक पद है।


अनुराधा गुप्ता :  प्रेमचंद भी प्रगतिशील लेखक कहे गए हैं। क्या वे साम्यवादी लेखक थे?
भालचन्द्र जोशी : देखिए जहाँ तक मैं सोचता हूँ प्रेमचंद, विकास की अवधारणा जो पूँजीवाद पर आधारित थी उससे असहमत थे और उनके निराकरण उन्हें साम्यवाद में नजर आते थे। अन्यथा तो वे ग्रामीण विकास की खासकर देसी खेती और कुटीर उद्योगों की बातें तो गाँधी के स्वराजमें देखते थे। आप उनके उपन्यास कर्मभूमि, प्रेमाश्रय और विशेषकर रंगभूमि को देख लीजिए। नए सन्दर्भों में गोदान को भी इस तरह से देखा जा सकता है। वे देसीपनमें ही आर्थिक और सांस्कृतिक विकास देख रहे थे। यही बड़ी बात है।



अनुराधा गुप्ता :  नए लेखकों वाली बात छूट गई...?
भालचन्द्र जोशी : पढ़ता हूँ। सबको पढ़ता हूँ। नई पीढ़ी में मुझे मनोज कुमार पांडेय जिनकी कहानी जिंस जिसे पढ़ कर मैंने तब कमला प्रसाद जी से कहा था कि वसुधा के विशाल अंकों की सार्थकता ऐसी दो चार कहानी के कंधों पर ही है। प्रदीप जिलवाने के पास गाँव के जो अनुभव है उन्हें कथानुरूप जरूरी भाषा में प्रकट करते हैं। प्रदीप की कहानियों में इधर के बनते-बिगड़ते गाँव-कस्बों की मार्मिक व्यथा देखी जा सकती है। रवि बुले, नीलाक्षी सिंह, सत्यनारायण पटेल और मनीष वैद्य हैं। कविता ने बहुत खूबसूरत कहानियाँ लिखी हैं। खास बात यह कि कविता के पास स्त्री विमर्श की सार्थकता को देहमुक्ति में देखने की ललक और आसक्ति नहीं है। उनकी सिंह वाहिनीकहानी बहुत अच्छी है। पंकज मित्र, तरूण भटनागर, आशुतोष, राकेश मिश्र, कुणाल सिंह, मोहम्मद आरिफ, चंदन पांडे, अभय नावरिया, ममता सिंह, विमल चन्द्र पांडेय हैं। उमा शंकर चौधरी, प्रभात रंजन, जयश्री राय, ज्योति चावला, कैलाश वानखेड़े हैं जिनके पास दलित जीवन के विरल और मार्मिक अनुभव हैं। मनीषा कुलश्रेष्ठ, गौतम राजऋषि हैं। राकेश बिहारी ने कारपोरेट जगत के अंदरूनी हलचलों, षड़यंत्रों और उससे उपजे तनाव या अन्तर्द्वन्द्व को ले कर बहुत प्रभावी कहानियाँ लिखी हैं उनके यहाँ नई तकनालॉजी और प्रौद्योगिक क्रान्ति के मुहावरे का बहुत खूबसूरत गद्यात्मक उपयोग है यानी ये शब्दावली सूचना या जानकारी की तरह नहीं, कहानी का हिस्सा हो कर आती है। (हँसते हैं) और एकाएक याद करना मुश्किल है। गीत चतुर्वेदी हैं, प्रज्ञा रोहिणी, शैलेय, रणविजय सिंह सत्यकेतु, अमीता नीरव, सिनीवाली शर्मा नई लेखिका है उनकी अधजली कहानी बहुत प्रभावी है। यह कहानी जीवन-यथार्थ का खामोश कोहराम है जहाँ स्थितियाँ और समय की सुलगती आँच का अनुभव छुपा है। पंकज सुबीर और भी नाम छूट रहे हैं। खराब याददाश्त की खामियाजा यह भी हो सकता है कि मैं कोई और महत्वपूर्ण नाम भूल रहा हूँ।


अनुराधा गुप्ता :  हिन्दी कहानी में आलोचना के वर्तमान से आप कितना संतुष्ट हैं?
भालचन्द्र जोशी : हिन्दी कहानी की आलोचना की स्थिति काव्य-आलोचना जैसी तो नहीं है। एक तो लम्बे समय तक हिन्दी कहानी की आलोचना नई कहानी पर केन्द्रित रही। हिन्दी कहानी की आलोचना नई कहानी आन्दोलन के बगैर जैसे अधूरी है। लेकिन एक लम्बे अंतराल के बाद सुखद अचरज पैदा करने वाला बदलाव आया है। आप कहानी लेखन में नई पीढ़ी की बात कर ही थीं, अरे आप देखें कहानी आलोचना में जो पीढ़ी और जितनी संख्या सक्रिय है इतनी समृद्ध पीढ़ी सुखद अचरज देती है। पहले ऐसा कभी हुआ? वैभव सिंह, राहुल सिंह, राकेश बिहारी, संजीव कुमार, आशुतोष कुमार, नीरज खरे, अरूण होता, राम विनय शर्मा, फिर अच्युतानंद मिश्र हैं। पंकज पाराशर, प्रांजल धर, बजरंग बिहारी तिवारी, विभास वर्मा, कृष्ण मोहन झा, विनोद तिवारी, पल्लव, अवधेश मिश्र, आशुतोष, अरूणेश शुक्ल, अमिताभ राय, राजीव रंजन गिरि और युवा आलोचकों में एक नई पीढ़ी बन रही है मृत्युंजय पांडेय, प्रियम अंकित, मनोज कुमार सिंह, अंकित नरवाल, जगन्नाथ दुबे, और हाँ अनुराधा गुप्ता : यानी आपके नाम के बगैर तो यह सूची पूरी नहीं होगी।


अनुराधा गुप्ता :  एक पाठक के रूप में आपको किस तरह की रचनाएँ अच्छी लगती हैं?
भालचन्द्र जोशी : एक पाठक की तरह वही रचना अच्छी लगती है जो पूरी पाठकीय तसल्ली दे। मन या तो पूरे दिन आन्दोलित रहे या खुश रहे कि अच्छी रचना पढ़ने का सुख मेरे पास है।


अनुराधा गुप्ता :  कहानी और उपन्यास में क्या सिर्फ आकार का अंतर है? उपन्यास में ऐसी कौन सी विशेषताएँ होती है जो लम्बी कहानी से उसे तात्विक रूप से अलग करती हैं?
भालचन्द्र जोशी : अरे क्यों मेरी खिंचाई कर रही हैं या कॉलेज में स्टूडेंट्स से पूछते रहने का अभ्यास है यह? महज आकार का अंतर तो है नहीं। यह तो पाठ्यपुस्तकों के लिए उपयोगी सवाल है। मैंने तो उपन्यास इसलिए लिखा कि मुझे लगा कि जो कहना है वह लम्बी कहानी में भी नहीं आ पाएगा। यह भी कहा जा सकता है कि कथा सीमा के दबावा के चलते यथार्थवादी चेतना के विस्तारित रूप के लिए जो लिखित कथा-गद्य रूप सामने आया वह उपन्यास रहा। उपन्यास एक लम्बे कालखण्ड की तफसील का अवसर तो देता है। इतिहास को ठहर कर साँस लेने की जगह मिलती है। उसमें उस समय और समाज की छवियाँ ज्यादा स्पष्ट और फैलाव के साथ आ सकती हैं।


अनुराधा गुप्ता :  अपने पूर्ववर्ती और अपने समकालीन कथाकारों में आपकी क्या राय है? तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो क्या फर्क दीखता है?
भालचन्द्र जोशी : यह पीढ़ी अंतर वैचारिकी के स्तर पर उतना नहीं है जितना समय और समाज में आए बदलाव से रचना के कहन में बदलाव आता है। नई कहानी के लेखकों ने अपने से पूर्ववर्ती पीढ़ी को नकारा तो निराधार नहीं। नई कहानीमें जीवन यथार्थ की प्रस्तुति के आधार पर भिन्नता थी। समय के प्रति एक सजग दृष्टि और सामाजितकता को लेकर दायित्व बोध उनकी रचनात्मकता के केन्द्र में था। युवा कहानीकार मेरे मित्र उमा शंकर चौधरी ने वसुधा के युवा अंक में कहीं लिखा था कि, -‘‘हिन्दी के इतिहास में नए भाव-बोध और नए शिल्प के लिए नई कहानी और युवा कहानी याद की जाएँगी।’’ कृपया मेरा अनुरोध है कि नई कहानीसिर्फ नए शिल्प के लिए नहीं याद की जाती है। नई कहानी ने जीवन यथार्थ के कहन के उस बदलाव पर जोर दिया जो उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ी से नितांत भिन्न था। इसी तरह सातवें दशक की कथा पीढ़ी जिसमें ज्ञानरंजन, रवींद्र कालिया, काशी नाथ सिंह, ममता कालिया आदि हैं। इन्होंने यथार्थ की प्रस्तुति के अलावा ग्रहण और कहन को अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से अलग किया। यहाँ भाव बोध के बदलाव की बात की जाती रही। फिर उसके बाद तो बाजार के दबाव ने कहानी की संरचना, शिल्प, भाषा में अराजक होने तक छूट देने की घोषणा की।


अनुराधा गुप्ता :  आपके व्यक्तित्व और लेखन में सबसे बड़ा किसका योगदान है? आपके जीवन में वो कौन है जो भालचन्द्र जोशीको भालचन्द्र जोशीबनाता है?
भालचन्द्र जोशी : खुद आगे होकर दुख बटोरने के उत्साह ने, मेरी कमियों, कमजोरियों और मेरी अव्यवहारिकता, मेरी भावुकता ने। एकाकीपन के प्रति बढ़ती ललक ने, मन में कोई गलत बात छिपा कर, दबा कर नहीं रख सकता हूँ। बगैर किसी परिचय के भी कमजोर की तरफदारी में बगैर सोचे-समझे उतर जाता हूँ। फिर किसी बाहुबली से मार क्यों न खाना पड़े! गलत बात, गलत हरकत के प्रति अपनी असहमति दर्ज करने से पहले अपनी असहमति को चतुराई या चापलूसी की भाषा से पॉलिश नहीं करता हूँ। एक गँवईपन मेरे भीतर हमेशा से रहा है। उसी के चलते सीधे और स्पष्ट रूप से अपनी असहमति प्रकट करता हूँ जिसे भद्र समाज में गँवारूपन माना जाता है। घर-परिवार, दोस्त समझाते भी हैं, कोशिश भी करता हूँ, लेकिन यह गँवईपन जाता नहीं है। एक धोखा खाने के बाद अगला धोखा खाने को तत्पर रहने की नासमझी, अपनी अव्यवहारिकता, भावुकता, मुर्खता और अनेक खामियाँ, नुक्स, कुछ क्षुद्रताएँ और अनेक दुर्बलताओं ने ऐसा बनाया है।


(कथादेश, जनवरी 2019 से साभार.)

000

अनुराधा गुप्ता



 सम्पर्क 
अनुराधा गुप्ता 
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
कमला नेहरू कॉलेज, दिल्ली वि.वि.
दिल्ली
मोबाईल 9968253219



टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'