राजेन्द्र कुमार की कविताओ पर शिवानन्द मिश्र का आलेख ‘हमें सब पता है उस्ताद’
राजेन्द्र कुमार कुछ
उन कवियों में से एक हैं जो चुपचाप अपने रचना कर्म में सक्रिय रहने में विश्वास करते
हैं. उनकी जनपक्षधरता से हम सभी परिचित हैं. राजेन्द्र कुमार जी ने अभी अपने जीवन के
75 साल पूरे किये हैं. राजेन्द्र कुमार की कविताओ की एक आलोचनात्मक पड़ताल की है युवा
कवि और कहानीकार शिवानन्द मिश्र ने। आज पहली बार पर प्रस्तुत है शिवानन्द मिश्र का यह
आलेख ‘हमें सब पता है
उस्ताद’।
राजेन्द्र कुमार जी
का नाम उन कवियों में शुमार है जो अपनी जनपक्षधरता के लिए जाने जाते हैं. राजेन्द्र जी नकारात्मक परिस्थितियों से भी सकारात्मक ऊर्जा ग्रहण करने की बात करते हैं
जिसकी मिसाल उनका काव्य संग्रह ‘ऋण गुणा ऋण’ है. उनका मानना है कि हर कोशिश चाहे वह छोटी हो या बड़ी, अपने आप में बगावत
है उस जड़्ता से, उस नकारात्मकता से
जो हमारे आस-पास फैली है. इस बगावत की चाह में वो किसी असाधारण और भव्य की ओर नहीं
जाते बल्कि अपने आप को साधारण और आम-जन के साथ पाते हैं और कहते हैं..... “लोहा लक्कड़ तो हम ही हैं न!”
राजेन्द्र कुमार जी
के अब तक तीन काव्य संग्रह आ चुके हैं, ‘ऋण गुणा ऋण’, ‘हर कोशिश है एक
बगावत’ और ‘लोहा लक्कड़’. ‘ऋण गुणा ऋण’ का प्रथम संस्करण 1978
में 'चित्रलेखा' प्रकाशन से आया था
जिसका नया संस्करण अभी हाल में कुछ अन्य कविताओं के साथ 2014 में 'साहित्य भंडार' ने प्रकाशित किया
है. इस संग्रह की कुछ कविताएं आपातकाल के दौर में लिखी गई थीं जब पत्र-पत्रिकाएं
और किताबें सेंसर हो कर प्रकाशित होती थीं और उनके पन्ने जगह-जगह काली स्याही से
पुते होते थे. सेंसर की मार इन कविताओं पर भी पड़ी. बहरहाल, ये कविताएं अपने
मूल रूप में संग्रह में प्रकाशित हैं; ‘पावस की शाम’, ‘बारिश से पहले का
अँधेरा’. ये बड़ी बात कही जा
सकती है कि ऐसे समय में जब बड़े-बड़े लेखकों और लेखक संगठनों ने अपनी पक्षधरता छोड़
सत्ता-प्रतिष्ठानों का अनुसरण किया, डॉ. राजेन्द्र कुमार जैसे चंद साहित्यकारों ने अपनी जनपक्षधरता नहीं
छोड़ी. आपातकाल ने बहुतों को बदलते देखा. ‘मिट्टी के ढेले’, उन व्यक्तियों, उन प्रतिमानों और
प्रतिष्ठानों के प्रति लक्षित कर लिखी गई कविता है जो परिस्थितियों के प्रतिकूल
होते ही अपना वजूद उसी तरह खो देते हैं जैसे बारिश में मिट्टी के ढेले बह जाते
हैं. वही मिट्टी के ढेले जो बारिश से पहले पत्थर की तरह दिख रहे थे, अब बारिस के
साथ.............
“घुल गये पिघल गये-
मिट्टी के ढेले-
आप ही आप
और फिर, तरल बन बह गये
चुपचाप/”.
‘पावस की शाम’ उसी मोह भंग और
क्षोभ का विस्तार है. ‘आदान-प्रदान’ पढ़ते हुए निराला की ‘संध्या सुंदरी’ की याद आती है लेकिन जितने कोमल और सुंदर शुरू के दो छंद हैं उतने अच्छे
बाद के दो छंद नहीं लगते. शायद इसलिए कि इनके केंद्र में अब 'मानव' आ जाता है लेकिन
ये भी उतनी ही कसी हुई भाषा में कही जा सकती थी. एक बेहद अच्छी कविता बाद के दो
छंदों से बिगड़ सी गई है. ‘सभ्यताक्रांत’ कविता, कवि द्वारा आज के समय और समाज को तथाकथित सभ्यता और सभ्य होने की
आत्ममुग्धतता से बाहर निकलने की एक सलाह है. ‘हवाएं और अखबार’ बेहद अर्थपूर्ण
कविता है. इस कविता में ‘अखबार’ नहीं ‘सच’ दम तोड़्ता है और
शहर तो मुर्दा है ही जिसके नथुनों में पैठ कर हवाएँ रोज साँस लेते रहने का वहम
उगलती हैं. ‘आतंक’ रुढ़िवादिता से
निकल कर उसे संशय के तराजू में तौलने और आगे निकलने की कविता है. ‘नकाबपोश’, हर समय
और समाज में प्रासंगिक कही जा सकने वाली कविता है........
“जाने किस अधिकार से
समय-असमय हमारे घर के
दरवाजों की दरारों से ताँक-झाँक करता है/”
पिछले दिनों
एक फर्मान जारी हुआ था कि कुल 10 संस्थाएँ आपके कम्प्यूटर,
लैपटॉप और मोबाइल खंगालने के लिए,
ताकाझाँकी करने के लिए अधिकृत कर दी गई हैं. और कमाल की बात है
कि इस बात पर उस तरह की कोई बगावत या प्रतिरोध का स्वर भी नहीं उठा. कविता की अगली
पंक्ति देखिए........
“हमारी आँत में बगावत की जो ग्रंथि है
उसका स्राव गजब का पाचक है
वह सब कुछ पचा देता है जो हम निगलते हैं
अनुकूल-प्रतिकूल!/”.
‘पता नहीं’ कविता सांप्रदायिक
सौहार्द्र के आड़े आती नारेबाज उग्र भीड़ की ओर इशारा करती है जो आपसी खाई को पाटने
की ओर बढ़े हाथों के बीच आती है और सब कुछ बदल जाता है. ये बदलाव सकारात्मक न हो कर
नकारात्मक होता है. इसी फर्क की ओर कविता इशारा करती है और हमें आगाह भी करती है. ‘विपर्यय’ स्त्री विमर्श की
कविता है......
“सुना है, तुम्हारी मेज पर अब
अधपढ़ी किताब नहीं
अधबुना स्वेटर होता है/”.
‘चंद्रग्रहण को देख कर’, एक वैज्ञानिक सोच
की कविता है. जहाँ मानव तार्किकता और प्रगतिशीलता की ओर बढ़ रहा है वहीं पूरनमासी
और अमावस की आड़ में छिपी दकियानूसी रूढ़िवादी सोच, बिचारी दिखती है।
“हर कोशिश है एक
बगावत”, अंतिका प्रकाशन से
2013 में प्रकाशित हुआ राजेन्द्र कुमार का दूसरा काव्य संग्रह है. वस्तुत:, ये शीर्षक ही अपने
आप में उस प्रगतिशील सोच को आगे बढ़ाता है कि हार जीत से बढ़ कर उस जड़ता और
यथास्थितिवाद की सोच से बाहर निकलने की सोच ही बगावत की बात है. कोशिश बड़ी है ना
कि परिणाम....
“हर सार्थक शुरुआत
प्रकृति से ही बागी होती आई है और
सफलता-असफलता तो महज सूचनापट्ट
लिखा रह जाता जिन पर-
‘यहाँ पहुँच कर ऐसे खत्म हुआ जाता है.”
‘सावधान सड़क बन रही
है’, उस तथाकथित विकास
की खिल्ली उड़ाती हुई कविता है जिसके नाम पर उन्ही का शोषण हो रहा है जिनके विकास
के लिए इस तरह के निर्माण कार्य होते हैं. ‘परदे’, रुढ़िवादिता के विरुद्ध
परिवर्तनकामी कविता है....
“कोई तो आए
जो ले चले हमें उन मंचों पर
.......जहाँ हम गिरें, तो कुछ ओझल हो
जहाँ हम उठें, तो कुछ परिवर्तित हो./”
‘दिए गए नाम को लेकर’, इंसान में
इंसानियत को तलाश करती हुई कविता है.
“सबसे ज्यादा खूबसूरत
तब लगता है मुझे अपना नाम-
जब यह किसी के होंठों पर होता है,
और मेरा दिल
कह उठता है कि पुकारा जा रहा है मुझे-
सिर्फ मुझे,
किसी हिंदू या मुसलमान को नहीं!”
“हमारा समय खराब समय है
लोग अब सोचने ज्यादा लगे हैं
युवकगण निर्लज्ज हो गए हैं-
प्रेम भी खुल कर करते हैं
और बहस भी
औरतें कुलटा हो गई हैं
सिर हिला रहीं हैं दासी बनी रहने से
.....कहते रहें, जो कहते हैं
कि हमारा समय खराब है
समय है हमारा-
हम क्यों हों शर्मिंदा?
बूढ़ा होने की हमें कोई उतावली नहीं है.”
“खेत अब उनके हैं
जो खाने से ऊबे
कमाने को आतुर हैं
बीज अब उनके हैं
जिन्हें
सब कुछ अपने नाम से पेटेंट
करा लेने की हड़्बड़ी है
........जगहें हमारे लिए
मुर्दाघरों में हैं”
इसी संग्रह में कुछ कविताएँ ‘कविता के किरदार’ शीर्षक के अंतर्गत
रखी गई हैं जो बहादुरशाह जफर, भगत सिंह जैसे ऐतिहासिक किरदारों के साथ-साथ अमरकांत, निराला, शमशेर, अज्ञेय,
केदारनाथ अग्रवाल जैसे साहित्यकारों के ऊपर लिखी गई हैं. बहादुरशाह पर लिखी कविता
में राजेंद्र जी कहते हैं........
“तुम
बदनसीब थे
ऐ मेरे बुजुर्ग-मरहूम
कि दफ्न के लिए
दो गज जमीन भी तुम्हें न मिल सकी
कू-ए-यार में! हम अपने नसीब को क्या कहें
दफ्न होने
के लिए हमें आज पूरा मुल्क मिला है
पर मयस्सर नहीं इंच भर भी जमीन
जीने के लिए.”
“लोहा-लक्कड़”, 2017 में साहित्य
भंडार से प्रकाशित राजेन्द्र कुमार जी का तीसरा काव्य संग्रह है. इस संग्रह की
कविताओं से ये बात साफ हो जाती है कि हमारा कवि पूँजीवादी व्यवस्था के साथ खड़ा न
हो कर मेहनतकश मजदूरों के साथ खड़ा है।
“सोना उछले या गिरे हमें क्या ........
हथौड़ा-भर जब भी होंगे
हम ही होंगे
लोहा-लक्कड़ हम ही हैं न!”
इसी संग्रह की
कविता, ‘लौटना आदिवासी
भरोसे का’, जल-जंगल और जमीन
पर पूँजीवादी ताकतों की घुसपैठ और शोषण के विरुध्द खड़े होने का भरोसा दिलाती है. ‘के अड़सठ’, भूख और मुनाफे के
बीच की खाई को दिखाती हुई कविता है...
“हमें बोरों में बंद कर
मजदूरों की पेट की कीमत पर
उनकी पीठ का भार बना
ट्रकों पर लाद दिया गया है/
………………बोरों में बंद होंगे हम
खुलने को सिर्फ वहाँ
जहाँ ‘भूख’ को
मिटा कर लिखा जा रहा होगा ‘मुनाफा’”।
वहीं दूसरी ओर ‘सिर्फ तीन ईंटें’, कविता, अमीरी गरीबी की
खाई को तीन ईंटों से परिभाषित कर देती है. कहाँ तो एक वर्ग ईंटों का संग्रह आलीशान
अट्टालिका के लिए करने की सोच रहा है तो वहीं एक तबका बस तीन ईंटों का जुगाड़ करने
की जुगत कर रहा है कि एक अदद चूल्हा बना ले और पेट भर ले. कविता समाज के इस विद्रूप
चेहरे की ओर इशारा करती है. 'ट्रैफिक जाम में साइकिल', मशीनीकरण पर श्रम की श्रेष्ठता को सिद्ध करती कविता है. ‘वाह तबला’, एक व्यंग्यात्मक
कविता है. इसमें कहीं ना कहीं कवि का मौन बोलता है कि हमें सब पता है उस्ताद, कौन अच्छा है, तुम्हारी कला या ये
उत्पाद! तुम्हारा चारा या तुम्हारी बंशी जिसमें तुम हमें
फांसने आए हो. काश ये हर आम आदमी समझ पाता. ‘घसियारे’, में सहकारिता का
संदेश है और हर उस अवांछित बढ़ोत्तरी पर वार करने की सीख देती हुई कविता है जो
मनुष्य और मनुष्यता के लिए अवांछित है. ये
सही मायने में समाजवाद को परिभाषित करती हुई कविता कही जा सकती है. ‘कुछ भी नहीं किया
मैंने, सिर्फ प्यार’, एक बेहद नर्म और
मुलायम सी कविता है जो उस एहसास को बयान करती है कि कैसे ये दुनिया बस प्यार करने
मात्र से खूबसूरत हो जाती है. ‘ओ गैलीलियो’, रूढ़िवादिता के विरोध में एक वैज्ञानिक सोच को आगे रखती हुई कविता है. ‘हँसी’,
‘दो अक्टूबर 2014’, ‘30 जनवरी का
मौन’, अच्छे दिन’
और 'काला धन उवाच'
जैसी कविताएँ समकालीन राजनैतिक छलावे और विद्रूपताओं की ओर इशारा करती हैं.
शिवानंद मिश्र |
सम्पर्क
मोबाईल : 7860365851
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंशिवानन्दजी!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ....