शिव कुशवाहा की कविताएं


शिव कुशवाहा

रचनाकार परिचय-

नाम- शिव कुशवाहा
जन्मतिथि-  5 जुलाई , 1981
जन्मस्थान- कन्नौज ( उ प्र)
शिक्षा - एम ए (हिन्दी), एम. फिल.,नेट, पी-एच.डी.


प्रकाशन-
छायावादी काव्य की आत्मपरकता ( शोध पुस्तक),
'तो सुनो' काव्य संग्रह प्रकाशनाधीन, ।


अन्य-
उत्तर प्रदेश, मधुमती, प्राची, ककसाड़, सृजन सरोकार, कविकुम्भ, लहक, युद्धरत आम आदमी, पतहर, जनकृति, दलित अस्मिता, दलित वार्षिकी , सच की दस्तक,  तीसरा पक्ष, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, अम्बेडकर इन इंडिया, कलमकार, नवपल्लव , लोकतंत्र का दर्द , पर्तों की पड़ताल, शब्द सरिता, निभा, नवोदित स्वर , ग्रेस इंडिया टाइम्स , अमर उजाला काव्य, हस्तक्षेप, उदय सर्वोदय  आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर काव्य रचनाएं प्रकाशित।

सम्प्रति- अध्यापन




पहले हम जिस ग्लोबल वार्मिंग की बात सुना करते थे अब वह हकीकत में तब्दील हो चुका है. मौसम से ले कर ऋतुओ की आवाजाही भी प्रभावित हुई है. धरती लगातार जंगल विहीन होती जा रही है. अनेक जीव जंतु अब अतीत बन कर रहे हैं. विकास के चक्कर में हम अपनी उस धरती और उसके पर्यावरण को लगातार तबाह करते जा रहे हैं जिसके बिना हमारे वजूद की कल्पना तक नहीं की जा सकती. हम उस पानी को भी बर्बाद करने से नहीं चूकते जो जीवन का आधार है और जो धरती के अलावा और कहीं भी नहीं मिला है. आज के कवि हर उस समस्या को शब्दांकित करने की चुनौती को स्वीकार कर रहे हैं जिससे मनुष्यता जूझ रही है. शिव कुशवाहा ऐसे ही युवा कवि हैं जो साहस के साथ आज की समस्याओ को भी अपनी कविता का विषय बना रहे हैं. आज पहली बार पर प्रस्तुत है युवा कवि शिव कुशवाहा की कविताएं.  


शिव कुशवाहा की कविताएं


जंगल खत्म हो रहे हैं


प्रकृति के सबसे सुरम्य
होते हैं जंगल
उनमें रहने वाले
पशु, पक्षी और आदिवासी
मानते हैं उसे अपना पालनहार.

आज की इस सदी में
सुरक्षित नहीं हैं जंगल की अस्मिता
नदी, पहाड़, हवा, रोशनी
जंगल के साथ ही
धीरे धीरे हो रहे हैं विलुप्त.

जारी किये जा रहे हैं फरमान
कि बेदखल किया जाए
उन्हें उनकी मिट्टी से
उनकी जमीनों से , उनके घरों से
उनके पूरे के पूरे अरमानों पर
फेरा जा रहा है पानी
छीना जा रहा है उनका आसमान
रह रहे हैं जो सदियों से
इन जंगलों की गोद में.

जंगल केवल जानवरों के
आशियाने नहीं होते
उनमें रहती हैं सदियों से
चली आती परंपराएं
अब जंगल खत्म हो रहे हैं,
साथ ही साथ खत्म हो रही हैं
जंगल की सभ्यताएं
और उनमें रहने वालों की
संस्कृति, भाषा और अस्मिता भी..
    

तुम कहाँ हो वसन्त



तुम्हारे स्वागत में
पंछी अब नहीं गाते गीत
भौरें भी नहीं करते गुंजन
धरती अब नहीं करती नृत्य
पेड़ की हरी पत्तियां झुलस कर
दुनियां को बना रही हैं बदरंग.

फूलों की रंगत तब्दील हो रही है
तब्दील हो रही हैं श्वेतवर्णी नदियां
ढह रहे हैं वे सभी मानक
जो मनुष्यता को बचाए रखने के लिए
होते हैं बहुत जरूरी.

तुम समय की धड़कन सुनो
मशीन बन चुका आदमी
सुबह से शाम तक नहीं रुकता
तुम्हारे नैसर्गिक मोहपाश का आकर्षण
धीरे-धीरे हो रहा है विलुप्त.

तुम देख सको तो देखो,
बहुत तेजी से उग रहे हैं
कंक्रीट के जंगल
संबंधों पर जम रही है
मोटी बर्फ की चादर
सूख रही संवेदना की गहरी नदी
तुम कहाँ हो वसन्त,
मुरझाए हुए समय की टहनियां
अब सूख रही हैं...



राह के अंतिम छोर पर




टूटते हुए परिवेश में
सुकून देता है हरा भरा बगीचा
लाल, नीले, गुलाबी, पीले रंग
मोह लेते हैं मन को.

हरी भरी घास
कालीन की मानिंद
कराती है सुखद अहसास
दूर दूर तक आंखों के सामने
बिखरी हरीतिमा
पल्लवित करती है सुकोमल भाव

हवा के मंद मंद झोंके
बहा ले जाते हैं
आकाश में बादलों के बीच
तैर जाते हैं कुछ कोमल अहसास
स्वप्निल दुनियां के आर पार
ढूंढते हैं अपना खोया हुआ अस्तित्व

चलना ही जीवन का आख़िरी
विकल्प है, फिर भी
रहना नहीं चाहते हम
राह के अंतिम छोर पर
निकल जाना चाहते हैं
क्षितिज के उस पार
जहाँ कलरव का नामोनिशान न हो..


काल्पनिक तूलिका

कल्पना के कोरे कैनवास पर
उकेरा है एक चित्र
जो है बेबस और निराश
पलकें सांझ की मानिंद
दिखाई देती हैं खामोश.

आंखों में उमड़ता वेदना का सागर
हिलोरें ले रहा हृदय की गहराई में
और पलकों के धीरे से मुंदने से
बयां  हो गए हैं अनकहे दर्द
जिन्हें महसूस किया
कि लहरें सागर की और कुछ नहीं
वे तो हैं उमड़ते आंसू,
कि सागर का खारापन ही
आंसू की असंख्य बूंद हैं.

कल्पना के एक बिम्ब में
बन रहा अलक्षित सा कोई अक्स
जो खोज रहा हो स्वयं में अपना ही अस्तित्व
अनजाने में जो निहार रहा हो
शाम के धुंधलके में
खोया हुआ अपना प्रतिबिम्ब

काल्पनिक तूलिका
बादलों के पीछे खीचती है
शब्दों की एक प्रेम-श्रंखला
जो आकाश के नीले रंग में विस्तार पा कर
चित्रकार के मानस पटल पर हो जाती है अंकित..


सड़कें

धूल भरी सड़क के किनारे
देखना चुपचाप
आते जाते हुए लोगों को
असंख्य उम्मीदों का
एक ऊंचा पहाड़
ढो रहे कंधों पर..

आगे निकलने की होड़ में
दिखाई देते हैं
वो लोग मुझे
सबसे पीछे
जो समय को बांध लेते हैं
जीवन के साथ
एक पल के लिए भी
सांस लेने की फुर्सत नहीं
सिर्फ चलना ही है
जिनका मकसद..

तेज चलती हुई सड़कें
दौड़ते हुए लोगों के लिए
बन जाती हैं
जिंदगी की रफ्तार
जहां कोई भी
नहीं देखता ठहर कर
संवेदना के दरख़्त सूखते हुए
दिखाई देते हैं
चारो ओर..

जहर उगलते आबो-हवा
से जूझते हुए
निकल जाना चाहता है मन
बहुत दूर
जैसे पंक्ति का आखिरी आदमी
बोझिल हो चुके
जीवन के एकांत से
निकलना चाहता है चुपचाप
उसी तरह सड़कें भी
छोड़ देना चाहती हैं सबका साथ..



सम्पर्क 

C/O श्री विष्णु अग्रवाल
लोहिया नगर, गली नं - 2
जलेसर रोड़ , जनपद- फिरोजाबाद ( उ प्र)
पिन- 283203


सम्पर्क सूत्र- 07500219405


E mail- shivkushwaha.16@gmail.com

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