शशांक पाण्डेय की कविताएँ

 
शशांक पाण्डेय


आगे बढना समय की ही नहीं जीवन की भी नियति है. मनुष्य आज इसीलिए दुनिया का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है कि उसने सामूहिकता की भावना के साथ अपने अर्जित ज्ञान को भविष्य की बेहतरी के लिए न केवल साझा किया है बल्कि उस परम्परा को लगातार आगे बढाया है. लेकिन प्रतिगामी विचार हमेशा उसके लिए चुनौतियाँ खड़ी करते रहते हैं. फिर भी मनुष्य इसीलिए मनुष्य है कि वह मुश्किल घड़ी में भी उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ता. युवा कवि शशांक पाण्डेय की कविताएँ इस परम्परा को आगे बढ़ाती दिखती हैं. वे नदी के उस रूपक के साथ आगे बढ़ते हैं जिसमें नदियाँ समय और जीवन का वाहक बन जाती हैं. शशांक लिखते हैं – ‘नदियाँ निरंतर आगे ही बढ़ती रही है/ अपने सबसे बुरे दिनों में भी नदियाँ/कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखी होंगी/ फिर सोचता हूँ/ दुनियाँ के सभी मनुष्यों को/ नदी की तरह ही हो जाना चाहिए/ हमेशा-हमेशा के लिये/ आगे की ओर जाने के लिये.’ कविता की दुनिया में इस नए नवेले कवि का यह पहला कदम है. कवि को इस कदम की मुबारकवाद देते हुए आज हम इनकी कविताओं से रु ब रु होते हैं. तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं शशांक पाण्डेय की कविताएँ.  
          


शशांक पाण्डेय की कविताएँ 

  

  मछलियाँ


मछलियाँ किसी देश के लिये क्रान्ति नहीं ला सकती
जब वे एक विशाल हृदय से निकलती है
और मर जाती है
हमेशा के लिये,
जब भी इस नामुराद दुनिया से
विदा लेते हुए
मछलियाँ गाती होंगी कोई क्रंदन गीत
क्या आपने सुना है उसे
बकरियों की मिमियाहट भरी आवाज़
मैंने अनेकों बार सुनी है
कसाईयों के हाथों से निकल भाग जाने की
उनकी छटपटाहट भी
मैंने कई-कई बार देखा है
लेकिन मछलियों की पनियाई आँखों से
गिरते आँसू को
हम लोगों ने बहुत कम बार ही देखा होगा
पिता जी जब भी मेले जाते
मैं भी उनके पीछे हो लेता
बाजार जाता
तो बहुत रंग-बिरंगी दुनिया देखने को मिलती
पिता जी मेले में मिट्टी के बने घोड़े खरीदने को कहते
दुकानदार से हाथी का दाम पूछते
लेकिन मैं सब कुछ हटा कर
एक कोने में पड़ी
मछलियों को एकटक देखता रहता
क्योंकि इन सब में
मुझे मछलियाँ बहुत पसंद आती
किसी कसाई के हाथों में
छटपटाती हुई मछलियाँ
कुछ देर बाद अचानक अचेत हो जाती
और मुझे उनकी आँखों से
उनके निर्दोष होने का पता चलता
मैं दुनिया में मनुष्यों की तरह
मछलियों को भी हमेशा-हमेशा के लिये
एक लंबी उम्र देना चाहता हूँ
और जीवित देखना चाहता हूँ
यह जानते हुए भी कि
मछलियाँ किसी देश के लिये क्रान्ति नहीं ला सकती।।




  
मैं लौटना चाहता हूँ


धीरे-धीरे ही सही
मैं लौटना चाहता हूँ
अपनों की ओर
अपने खेतों की ओर
अपनी जमीन की ओर
अपने गाँव की ओर
वहाँ रह कर थोड़ा सुस्ताऊँगा
और फिर काम पर लग जाऊँगा
यह जानते हुए  कि
अभी दुनिया में बहुत काम बाकी है
जानता हूँ पूरा न सही
कुछ काम तो करूँगा ही
जिससे मेरे पिता की 'जमीन' और मजबूत हो सके।।



 
नदियाँ


  जब भी
 
मैं दुनियाँ की सारी नदियों को देखता हूँ
 
तो विचलित हो जाता हूँ
 
जहाँ से देखिए
 
जिस नदी को देखिए
 
जिस तरह से उन्हें महसूस कीजिए
 
नदियाँ निरंतर आगे ही बढ़ती रही है
 
अपने सबसे बुरे दिनों में भी
 
नदियाँ
 
कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखी होंगी
 
फिर सोचता हूँ
 
दुनियाँ के सभी मनुष्यों को
 
नदी की तरह ही हो जाना चाहिए
 
हमेशा-हमेशा के लिये
 
आगे की ओर जाने के लिये।।

     
सम्पर्क-

मो. -9554505947

मेल-shashankbhu7@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 

टिप्पणियाँ

  1. 'पहलीबार' में कविता का प्रकाशित होना,सच में मेरे लिये गर्व की बात है।मेरे माता- पिता के लिये गर्व की बात है।संतोष सर का केवल शुक्रिया अदा नहीं करूँगा बल्कि आने वाले समय में यह आपका नया नवेला कवि उम्मीद से भर रहा है कि आपको इससे भी बेहतर कविता भेजेगा।बाकी कविता में प्रयुक्त पेंटिंग के लिये विजेंद्र सर बेहतर चुनाव किये है।शुक्रिया साथी

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