प्रज्ञा की कहानी ‘मालूशाही! मेरा छलिया-बुरांश’।
प्रज्ञा |
प्रेम अपने आप में बिल्कुल अनोखा होता है। एक बार हम जिससे प्रेम करने
लगते हैं उससे आजीवन जुदा नहीं हो पाते। प्रेम अपनी कहानी अपने अंदाज़ में अपने तरह से ही
लिखता है। हाल ही में नया ज्ञानोदय में प्रकाशित प्रज्ञा की लम्बी कहानी ‘मालूशाही!
मेरा छलिया-बुरांश’ पढ़ते हुए हम प्रेम के उस रूप से परिचित होते हैं, जो समस्त परम्परागत मान्यताओं से अब तलक लोहा लेता रहा है।
प्रज्ञा की यह लम्बी कहानी है जिसमें एक ऐसी प्रवहमानता है जो पाठक को अन्त तक अपने से बांधे रखती है।
धरा अन्त तक हकीकत को भांपने में असमर्थ रहती है और जब हकीकत से दो-चार होती है तो
स्तब्ध रह जाती है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं प्रज्ञा की कहानी ‘मालूशाही! मेरा
छलिया-बुरांश’।
मालूशाही! मेरा छलिया-बुरांश
प्रज्ञा
हर रोज़ लगातार बढ़ रही तपिश अब बुरी तरह जला रही थी। गर्मी से शिथिल
देह के नामालूम से रोएं भी अब ठंडक के लिए हाहाकार करने लगे। उस पर धोखेबाज़ बादल
आस दिखा कर रोज़ मुकर रहा था। जीतती हुई बाज़ी आखिरी दांव में हार जाने जैसा मंज़र
होता। इस बार अप्रैल की शुरूआत में ही सुबह तीखी गर्मी और शाम को बादलों की
लुका-छिपी का अजब-सा मौसम था। यों बाहर के बेदर्द मौसम को तमन्नाओं से भरा दिल
अपने माफिक बना लेता है पर वो भी बेअसर साबित हो रहा था। बाहर का मौसम धरा के मन
से मेल खा रहा था। जो हाहाकार बाहर था वही मन में भी। यों उकताहट और झल्लाहट धरा
के स्वभाव का हिस्सा नहीं थी। अपने काम को बेहतर अंजाम वह दे रही थी पर एक ही जैसे
काम को बार-बार करने में अब उसे न कोई ऊर्जा महसूस हो रही थी न ही खुशी मिल रही
थी। स्टूडियो में एसी की ठंडक भी उसे कोई सुकून दे पाने में असफल थी।
कल ब्रॉडकास्ट होने वाले ‘हमसफर’ के स्पेशल एडिशन की एडिटिंग करते हुए धरा बड़ी
शिद्दत से दो बातें महसूस कर रही थी कि ये कार्यक्रम कहीं से भी स्पेशल नहीं और
इसकी एडिटिंग भी निहायत बोरिंग हो रही है। हर हफ्ते कभी प्रेमी रहे शादी-शुदा सफल
जोड़ों को स्टूडियो में बुलाना, रिकार्डिंग
से आधा घंटा पहले स्टूडियो के बाहर वी. आई. पी. लाउंज के गाढ़े लाल रंग के सोफों
में धंस कर ऑडियंस को पसंद आने वाले और जोड़ों की सुविधा के मुताबिक सवाल बनाना।
जोड़ों के पसंदीदा गानों की लिस्ट से गाने ढूंढना और एक घंटे के कार्यक्रम में
प्रोमो, उसकी सिग्नेचर ट्यून, जोड़ों का स्वागत, परिचय, बातचीत, उनके
पसंदीदा गीतों के साथ लंबे सरकारी विज्ञापनों के प्रसारण में धरा की उंगलियाँ जिस
तेज़ी से कंसोल पर पड़तीं मन उतना ही मुरझाता। क्या ये वही काम था जिसके लिए धरा ने
प्रोग्राम एग्ज़ीक्यूटिव अभिलाष सिंह से मिन्नतें की थीं? शुरू-शुरू में वह कितनी खुश थी। रोज़ नए जोड़ों
को खोजने के लिए कितनी कोशिशों को अंजाम देती। रिकार्डिंग से पहले कितने फोन करती
थी जोड़ों की पसंद-नापसंद पूछने के लिए कि कार्यक्रम उसकी उम्मीदों से कहीं ज्यादा
खरा उतरे। एक बार तो डी. जी. ने अपने रूम में बुलाकर उसकी तारीफ भी की थी और
अभिलाष सर तो ये कार्यक्रम उस पर छोड़ कर पूरी तरह मुक्त हो गए थे। धरा के साथ
नियुक्त हुए कितने ही ट्रांसमीशन एग्ज़ीक्यूटिव्ज़ ऐेसे काम पाने को तरसते थे। लेकिन
अब न कार्यक्रम कोई जोश भर रहा था न ही नए जोड़े। काम अपनी गति से चल रहा था। किसी
को कोई शिकायत भी नहीं थी पर धरा का मन उचाट रहने लगा। अतिथि दम्पति की बातों से
स्टूडियो में शोर का सैलाब-सा उठता। कुछ हँसी, कुछ
गमगीन वाकये और एक घंटा पूरा।
“ धरा
मैडम! स्टूडियो में बैठे-बैठे तो ऐसे ही ऊबोगी। यहाँ नई कहानियाँ नहीं मिलेंगी।
ज़रा बाहर निकलो। ताज़ी हवा को नथुनों में भरो, आँखें
खोलो, एक अंगड़ाई लो। दुनिया कहानियों से भरी पड़ी है।” स्टेशन ए. एस. डी. मेधा ने धरा की दिक्कत समझते
हुए समाधान सुझाया। अपनी ऊब का जिक्र धरा उनसे कई दफा कर चुकी थी।
“ पर
मैडम उसके लिए तो...।”
“ इस
साल के स्पेशल ‘हमारी धरोहर’ के लिए तुम्हारे नाम का प्रपोज़ल मैंने दे दिया है और ए. डी. जी. से
बात भी कर ली है। एकदम नयी जानकारियों से भरा फीचर लाना है। डी. जी. मैडम ने भी
ज़बानी हामी भर दी है। फिर कोई कपल है जिसके बारे में बताते हुए कह रही थीं कि तुम ‘हमसफर’ के
लिए उनसे रिकार्डिंग भी कर लाना... वो खुद तुमसे बात करेंगी।
“पर मैंने तो पहले फील्ड के कार्यक्रम किए नहीं।
मैडम! ये मेरा पहला मौका होगा।”
“ मौका
तो हमेशा पहला ही होता है धरा!"
मेधा मैडम की बात सुनकर धरा के मन में संशय और खुशी के दो विरोधी तार
एक साथ झनझनाए। मन एक ओर बोरियत से परे सुनहरे ख्वाब सजाने को मचलने लगा तो दूसरी
ओर नई चुनौती मन में खलबली भी मचा रही थी। धीरे-धीरे दो भाव कब एक-दूसरे से जुड़ते
चले़ गए और संशय पर खुशी की पकड़ मजबूत होती चली गई, धरा को पता ही नहीं चला। अगले ही दिन डी. जी. गीता पंत ने धरा को
बुला लिया। मेधा भी साथ ही बैठी थीं।
“तुम
बताओ धरा! कर लाओगी प्रोग्राम?” डी.
जी. ने कहा तो धरा ने स्वीकृति में सिर हिलाया।
“तो
तैयारी करो। स्टाफ हमारे स्टेशन का होगा और बाकी अरेंजमेंट्स वहीं के स्टेशन से हो
जाएँगे।”
“अपनी
पूरी कोशिश करूंगी मैडम! पर मुझे जाना कहाँ है? और वहाँ
किस कपल से मिलना है?”
“‘हमारी
धरोहर’ के लिए उत्तराखंड पर बढ़िया-सा फीचर करना है।
पुराने घिसे-पिटे कार्यक्रमों से बिल्कुल अलग और वहीं से मनिल और मुक्ता की अच्छी
सी कहानी भी कर लाना। काफी साल पहले एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में दोनों मिले थे।
भई! कमाल की जोड़ी है। बाद में भी कई बार फोन पर बात हुई। चाहते हुए भी उनका
कार्यक्रम नहीं रखवा पाई। अब तो बातचीत हुए कई बरस बीत गए। तुम्हारे जरिए मेरा ये
मलाल शायद दूर हो जाए। वैसे वहाँ कई लोक कलाकार हैं जो रेग्युलर बेसिस पर हमारी
यूनिट को कार्यक्रम देने आते हैं पर मनिल जी ज़रा हट कर हैं। उनका पता मेरी पुरानी
डायरी में होगा, देखकर बता दूंगी और फीचर की सारी जानकारी
अल्मोड़ा की लोकल यूनिट दे देगी। ध्यान रहे फीचर एकदम नया होना चाहिए । एक पंथ दो
काज हो जाएँगे और हफ्ते भर तक इस गर्मी से तुम्हें थोड़ी राहत भी मिलेगी।” हँसते हुए उन्होंने अपनी बात खत्म की तो मेधा
और धरा ने भी अपनी हँसी उनकी हँसी में शामिल कर दी।
धरा को यकीन नहीं था उसकी मुश्किल इतनी जल्द हल हो जाएगी। दायित्वों
से धरा ने कभी जी नहीं चुराया, दायित्व
को सफल बनाने की चुनौती अक्सर वह खुद को दिया करती थी। बड़े दिन बाद आज फिर उसने
अपने आपको यह कठिन चुनौती दी। घर से निकलते हुए उसने सिर उठाकर आसमान को देखा।
बारिश का नामोनिशान आज भी नहीं था पर धूप आज उसे कुछ उजली महसूस हुई जैसे सफर पर
निकलने से पहले पीठ थपथपा रही हो। घंटों की यात्रा ने धरा को थकाया जरूर पर उसके
उत्साह को बनाए रखा। कोसी नदी के साथ यात्रा करते अल्मोड़ा स्टेशन पहुँच कर अगले
दिन अपनी ड्यूटी ज्वाइन करते ही धरा काम में जुट गई। अल्मोड़ा यूनिट ने
लोकगीतों-कथाओं सम्बन्धी कुछ पुरानी रिकार्डिंग्स धरा को दे दीं। नज़दीक के
जागेश्वर, बागेश्वर, लखुडियार
से ज़रूरी जानकारी धरा को एक-दो दिन के भीतर इकट्ठी करनी थी। मूर्तिकला और
शैलचित्रों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण लोगों के साक्षात्कार भी करने थे। अल्मोड़ा
स्टेशन की पैक्स यूनिट के गोकुल रावत ने धरा की हरसंभव सहायता की। काम के दौरान
घूमना भी हुआ। जागेश्वर की हरियाली और ठंडक ने उसे तरोताज़ा कर दिया। वहाँ के
संग्रहालय से होते हुए सुंदर रास्ते में उसकी आँखें विस्तार और आसमान छूती ऊंचाइयाँ
देख कर भी थक नहीं रही थीं। प्रकृति के अनगढ़ बिखरे सौंदर्य को पी जाने की अद्भुत
लालसा धरा ने अपने भीतर महसूस की। काम से कुछ मुक्त होने पर डी. जी. मैडम के दिए
कोसानी के एक पते वाला कागज़ निकाल कर धरा ने दिए हुए नम्बर पर फोन किया।
“क्या
गीता पंत ने नम्बर दिया है आपको?” एक
मीठा पर सचेत-सा स्वर अचकते हुए मोबाइल की तरंगों से कान में गूंजा।
“जी!...तो
आप दोनों से कब और कहाँ मुलाकात हो सकेगी? आप
अपनी सुविधा से बता दीजिए।”
दृढ़ आवाज़ में धरा ने कहा।
“मनिल
के समय का तो कोई भरोसा नहीं है पर मैं आपसे अनासक्ति आश्रम में मिल सकती हूँ। यदि
आप मुझसे अकेले मिलना चाहें...।” दूसरी
तरफ से आती आवाज़ ने बहुत स्पष्ट जवाब दिया।
धरा के मन में एक अजीब-सा
द्वंद्व उठा। कार्यक्रम में तो दोनों का होना ज़रूरी है और यहाँ तो सिर्फ मुक्ता
हैं, मनिल आ पाएंगे, संशय है। उसने महसूस किया कि डी. जी. गीता पंत का नाम सुन कर स्वर
बातचीत के लिए थोड़ा अनुकूल लगा पर बहुत रोमाँच से भरा नहीं, जैसा अक्सर कार्यक्रम
में बुलाए जाने वाले मेहमानों का रहता है। तनिक झुंझलाहट के बाद धरा ने महसूस किया
अच्छा ही हुआ जो रिकार्डिंग से पहले उसने एक मुलाकात तय कर ली ताकि बातचीत खुल कर
हो सके। इस कार्यक्रम को वह उम्मीद से बेहतर अंजाम देना चाहती थी। यात्रा के चौथे दिन
की सुबह धरा अल्मोड़ा का काफी काम निबटा कर कोसानी पहुँच गई। यहाँ उस दम्पति से
मिलने के साथ धरा को फीचर सम्बन्धी काम भी करना था।
कोसानी के रेस्ट हाउस में नाश्ते के बाद, मुक्ता जी के पहुँचने से पहले ही धरा ने अनासक्ति आश्रम का रूख किया। कोसानी के अनुपम सौंदर्य में इस जगह से उसे दूर बर्फ ढके पहाड़ दीख रहे थे। ढलवा पहाड़ियों पर हरे कालीन-सी प्रकृति बिछी थी। चढ़ाई चढ़ते पेड़, ढलानों से उतरते पेड़ और झुंड में बतियाते पेड़ उसे बहुत लुभा रहे थे। इस अनंत विस्तार में धरती के कालीन से खड़े होते गगनचुंबी पेड़ों को देख कर लग रहा था जैसे नीले आसमान में भी जगह-जगह हरा रंग छिटक गया हो। आश्रम में छाई नीरव शांति और प्रकृति जैसे एकमेक हो रही थी। धरा ने दूर से देखा और अनुमान लगाया इन्हें ही मुक्ता होना चाहिए। हरे बार्डर की नीली साधारण सूती साड़ी में सामने से आती एक गरिमावान छवि ने सहज ही धरा को आकर्षित किया। उन्होंने साड़ी के पल्ले को एक कंधे से दूसरे पर लेते हुए सीधे हाथ से उसके छोर को संभाला हुआ था। वे बेहद धीमे-धीमे कदम बढ़ा रही थीं। चेहरे पर सुकून की रंगत थी। नैन-नक्श बहुत सुंदर हों ऐसा तो नहीं था पर पूरे व्यक्तित्व में एक अनूठापन था कि किसी के सामने से गुज़रें तो लोग नज़र उठा कर जरूर देखें। धरा ने कुछ देर प्रतीक्षा की शायद उनके पति पीछे से आ रहे हों पर पीछे कोई नहीं था। मुक्ता जी के नज़दीक आने पर वह झिझक के घेरे से निकल कर अपने अनुमान के बुलंद हौसले से भर कर बोली-
“आप
ही मुक्ता मैडम हैं?” फोन से कन्फर्म न करके धरा ने अपनी छठी इंद्री
पर भरोसा करते हुए थोड़ी उतावली दिखाई।
“तुम
धरा?...” घाटी में गूंजते संगीत से ये दो शब्द बाहर आए।
अधेड़ उम्र की एक महिला धरा के सामने थी। ऊंचा कद, लंबा चेहरा,
खुला रंग और माथे पर एक खास चमक। आश्रम के एक
बड़े कक्ष के बाहर घास पर दोनों इत्मीनान से बैठ गईं। बातों का सिलसिला धरा ने ही
शुरू किया और जल्दी ही महसूस किया उसके लिए ये काम आसान नहीं होगा। मुक्ता सामने
होते हुए भी अपनी ओर से कम ही बात कर रही थीं।
“मैडम!
दरअसल मैं आप दोनों के जीवन की सच्ची कहानी जानना चाहती हूँ और अपने श्रोताओं को
सुनवाना चाहती हूँ पर हमारे साथ मनिल सर का होना बेहद ज़रूरी है। आप दोनों से
बहुत-से सवाल करने हैं। आपकी ज़िंदगी से जुड़े।”
धरा ने यह कहते हुए बहुत तफसील के साथ अपनी अपेक्षाओं को ही जाहिर
नहीं किया बल्कि उन कार्यक्रमों के उदाहरण भी दिए जहाँ दम्पतियों की बातचीत पर
सराहना भरे कितने फोन और मैसेज उसे मिले थे। अपनी बातों के दौरान धरा देख पा रही
थी कि मुक्ता को उसकी बातों में कोई खास दिलचस्पी नहीं है पर उसे गीता मैडम के आगे
नक्कू बनना गवारा नहीं था इसलिए उसने अपनी ओर से बातचीत जारी रखी।
धरा की ताबड़तोड़ छलांग लगाती उतावली कह लें या अपने काम को ले कर
अतिरिक्त सावधानी, मुक्ता की नज़रें उसके चेहरे पर टिक गईं। वह धरा
की आँखों में आँखें डाल कर उसे या उसके काम को समझने की कोशिश कर रही थी। धरा का
मनिल को जल्द से जल्द बुला लेने का आग्रह उसे प्यारा लगने लगा। सामने बैठी
पच्चीस-छब्बीस साल की एक जल्दबाज़ युवती को अपनी मुस्कान से मुक्ता ने पहला
सकारात्मक संकेत दिया। धरा की आँखें पहले आश्चर्य से चौंकी और फिर वह भी अपनी
बातों को विराम देती मुस्कुरा दी।
“तुम्हारे
गालों के इन गहरे भंवरों में अब तक कोई डूबा या नहीं?” मुक्ता के अचानक किए इस हमले से धरा का समूचा
शरीर क्षण भर को जड़ हो गया। केवल उसका दिल बहुत तेज़ी से धड़का। कुछ पल बीते और एक
संकोच भरी मुस्कुराहट उसके कसकर बन्द किए होंठों पर तैरी।
“यानी
अभी सरगम के सात तार पहचान तो लेती हो पर झूम कर उन्हें गाया नहीं है?” धरा ने गालों पर दोनों हाथ रख कर अपने उन मोहक
गढ्डों को छिपा लिया। हालांकि हमला बेहद शालीन और लयात्मक था। उसे लगा मुक्ता और
उसके बीच खड़ी अपरिचय की दीवार दरकने का यह शुभ संकेत है। उसे पहली बार लगा कि अपने
काम को ले कर अक्सर वही दूसरों की निजी ज़िंदगी में झांक कर सच निकाल लिया करती थी।
काम के दौरान उसकी ज़िंदगी में किसी अपरिचित के झांकने का यह पहला मौका था। शायद
स्टूडियो की चारदीवारी और समय की पाबंदी लोगों को ये इत्मीनान नहीं दे सकती थी जो
इस खुली हवा ने दे दिया। कल फोन पर सुनी आवाज़ और आज देखी मुक्ता की छवि से परेशान
धरा की पेशानी पर चिन्ता की गाढ़ी हो रही लकीरें ज़रा-ज़रा छंट गई पर इन आत्मीय
शब्दों का स्रोत क्या है वह जान न सकी।
“धरा!
तुम्हारे चेहरे पर बच्चों जैसी मासूमियत मुझे बहुत भली लगी। ये तो नहीं कह सकती
मैं और मेरी बातें तुम्हारे कितने काम की होंगी पर मैं अपना समय तुम्हें देने को
तैयार हूँ। आज मुझे कुछ काम है फिर मनिल का इंतज़ार भी हमें करना होगा। नया दिन, नई सुबह लाएगा। सच कहूँ...मैंने न ऐसे इंटरव्यू
कभी दिए हैं न देना चाहती हूँ। वैसे तुमसे मिल कर मैं आज तुम्हें मना करने के
इरादे से ही आई थी पर तुम्हारी भोली मुस्कान और हम दोनों से मिलने की तुम्हारी
बेसब्र उतावली ने मुझे पिघला दिया।”
धरा के कंधे पर हाथ रखकर उसे हलका-सा दबाकर मुक्ता ने एक अपनेपन से
धरा को छुआ और चली गईं। धरा इस मुलाकात से अचंभित भी थी और संतुष्ट भी। मुक्ता की
स्पष्टवादिता ने उसे प्रभावित किया। उनके जाने के बाद धरा आश्रम के प्रार्थना भवन
में कुछ देर बैठी पर उसका मन कल होने वाली बातचीत की तरफ लगा था। उसे लगा शायद ये
उसकी उम्र ही है जो अनासक्ति आश्रम में भी तमाम आसक्तियों में गिरफ्त है।
मुक्ता के बताए पते पर पहुँच कर धरा ने पाया उसका घर बेहद पुराने
किस्म का है। नीचे एक कमरा बना था जिसमें कुछ बच्चे खेल-कूद कर रहे थे। वहाँ से
ऊपर जाती सीढ़ियों से घर में दाखिल होने से पहले आस-पास चौकोर छज्जे का घेरा था। छत
ढलवां थी। दरवाज़ा खटखटाने से पहले उसने देखा छज्जे पर ही एक कोने में कुछ मर्तबानों
और प्यालों में पौधे रोपे हुए हैं। घर के साधारण वेश से धरा सामान्य हुई। उसे
उम्मीद थी आज काम पूरा हो जाएगा। मुक्ता ने बड़े प्यार से उसे भीतर बुलाया। कमरे के
भीतर फर्नीचर पुराना लेकिन साफ-सुथरा था। एक बड़ी-सी खिड़की से बाहर फैली प्रकृति घर
का हिस्सा बनी झूम रही थी। धरा के लिए पानी लाईं मुक्ता ने बता दिया कि मनिल तो अब
तक घर नहीं लौटे। धरा की उम्मीद, नाउम्मीदी
में बदल गई। उसका उदास चेहरा देख कर मुक्ता ने उसे भरोसा दिलाया कि मनिल से उसकी
बात हुई है। वह आजकल में लौट आएंगे। इस बीच मुक्ता से बात करने का पर्याप्त समय
धरा को मिल जाएगा। वैसे भी धरा को यहाँ अभी दूसरे जरूरी काम भी निबटाने थे। कुछ
दिन ही उसके पास बचे थे।
“तो
बताओ धरा! क्या जानना चाहती हो हमारे बारे में?” चाय
का प्याला और बिस्किट धरा को देते हुए मुक्ता ने कहा।
“हमारे
कार्यक्रम के पहले सवाल से ही शुरू कर देते हैं मैडम! आप लोग एक-दूसरे से कैसे
मिले?” मुक्ता ने रूटीनी सवाल की तरह ही पूछा पर
मुक्ता विस्तार से जवाब देने के अंदाज़ में पूरे इत्मीनान से तख्त पर दीवार का
सहारा लेकर बैठ गईं।
“ये
बात आज से तीसेक साल पहले की है। उस साल भी बसन्त लगने वाला था। धरती खिल कर
मुस्कुराने वाली थी पर मेरे लिये मुस्कुराने की सारी वजहें खत्म-सी हो गईं थीं।
मेरे लिये बड़ा सवाल था अब मेरे चेहरे पर कभी हँसी सजेगी? उसी साल मेरे पति की हत्या हुई थी।”
शुरूआत में ही यह सुन कर धरा
एकाएक ठिठक कर चौंकी पर मुक्ता बोलती रहीं।
“हमारी
शादी को ज्यादा समय नहीं हुआ था। ज़िंदगी अपनी गति से चल ही रही थी कि जमीन के झगड़े
में धोखे से उन्हें किसी ने मार डाला। मुकदमा चला पर हासिल कुछ नहीं हुआ। मैं काफी
समय अपने ससुराल रही फिर मायके आ गयी। कहीं भी जाती, हँसने की कोशिश करती पर हर बार मेरी हँसी का आसमान सिमटा दिया जाता। “हाय! बेचारी, सारी उमर का रोना है”- छलनी
कर देने वाले शब्दों से धरती को चीर कर
मुझ बेचारी को उसमें जिन्दा दफन कर दिया जाता। मेरी हँसी पर एक सचेत लगाम कस दी
जाती। हर दिन सोचती आदमी गया है या मैं भी उसके संग चली गयी हूँ? ज़िंदगी से जो चाहा था वो मुझे नहीं मिला फिर भी
जो मिला था उसमें मैं खुश रहने की कोशिश कर रही थी पर पति के मरने के बाद इस
दुनिया में जीते हुए भी मुझको मृत रहना था। जिस्म हो जो धड़कता हो पर वो हरकत न
करे। दुनिया भर में आवाज़ें हों, शोर
हो, हँसी हो पर मुझ तक आने के सब रास्ते उनके लिये
बन्द हों। मेरे लिये सिर्फ दबी सिसकियाँ हों और दुनिया के कान हों जिन्हें मेरी
सिसकियाँ सन्तुष्ट ही नहीं प्रसन्न रखती हों। मैं रोज़ सोचती आखिर कितने दिन? मेरे सपने, मेरी
चाहनाएं, मेरी चंचलता तो पति-सी मुर्दा नहीं हुई थीं।
बसन्त फिर आने वाला था पर मेरे लिये भी सौगात लेकर आ रहा है मैं कहाँ जानती थी? होली के बाद पहाड़ सुर्ख होने लगे थे। बुरांश के
गुच्छेनुमा फूलों ने पहाड़ पर ज्वालामुखी रच दिया था और तभी मेरा छलिया-बुरांश जाने
कहाँ से प्रगट हो गया। कोई और नहीं तुम्हारे मनिल सर।”
चाय का प्याला धरा के हाथ में पूरी चाय समेत रह गया। आँखें
विस्फारित-सी मुक्ता के चेहरे पर जमी थीं। जब तक वह घूंट भरती मुक्ता के जीवन का
एक बड़ा रहस्य अपनी अधूरी शक्ल में सामने आया। यानी मनिल उनके पहले पति....।”
“हाँ
धरा! मनिल वो नहीं था जिनके साथ बिरादरी के सामने, गाजे-बाजे के साथ मुझे विदा किया गया था।”
“फिर
आप उन्हें कब से जानती थीं?”
“हम
तो बचपन के साथी थे। हमारे घर पास-पास थे। मैं तीन-चार साल की थी जब कपकोट की घाटी
से मनिल का परिवार हमारे झोपड़ा गाँव आया था। बस तभी से हम साथ खेले और बड़े हुए।
मार-पिटाई, भाग-दौड़, पढ़ाई-लिखाई
एक-दूजे के संग।”
“अभी
आपने उन्हें छलिया क्यों कहा? क्या
छल किया उन्होंने आपके साथ?”
“अरे!
नहीं। जैसा तुम सोच रही हो वैसा कुछ नहीं। मनिल का बचपन हँसी-मज़ाक और मौज-मस्ती के
रंगों से खिला था। एकदम बेपरवाह। उसके मज़ाक की आदत को मैंने एक दिन छल कह दिया और
फिर वह छल उम्र के साथ कब उसे छलिया बना गया मैं समझ ही नहीं सकी। खेल-खेल में छल
करने की उसकी आदत थी। भूख लगती तो ताबड़तोड़ खाता। मैं घूरती तो जोर-जोर से खांसने
लगता। मैं पानी लाने को दौड़ती तो ठहाका लगाता। मुझे दौड़ने को कहता और खुद हार मान कर
बैठ जाता। पर जैसे ही मैं सुस्ता कर बैठती वो मंजिल तक दौड़ जाता। ऐसा था मेरा
छलिया।” अपनी हँसी में स्मृति को भरपूर जीते हुए मुक्ता
ने कहा।
“तो
क्या उन्होंने प्रेम में आपको छला?” धरा
अपनी जिज्ञासा न रोक पाई।
“ छलिया
था, ठग नहीं था। उसके सपनों और रिश्तों की दुनिया
बहुत बड़ी थी। न ही उसके सपनों की ज़मीन, ज़मीन
पर ठहरी रही न ही उसके रिश्ते की चौहद्दी घर की चौखट तक। उसका प्यार तो सारी
दुनिया के लिए था। उस दुनिया के लिए जो उस जैसी उड़ान उड़े। ऐसी उड़ान जिसमें प्यार
ही प्यार हो। ऐसा प्यार जो कोई फर्क न रखे बस प्यार देखे, प्यार दे और प्यार पाए। लेकिन कुछ बड़ी होने पर
मुझे लगने लगा ये प्यार सिर्फ मुझे ही मिले। मेरी चाहना दिन-दिन इच्छा के पहाड़
चढ़ती रही। छलिये से कुछ कह नहीं पाती थी सारा प्यार अपनी कविताओं में उंड़ेलती रही।
मैंने उसे कभी कोई कविता नहीं सुनाईं... उसके पास वक्त ही कहाँ था? उसे पहाड़ों के गीत गाने थे, गीतों पर नाचना था, घाटियों की कहानियाँ सुननी थीं, किस्सों को नृत्य और अभिनय में ढालकर दूर-दूर पहुँचाना
था। इधर मेरी शादी तय हो गई और वो अपनी लगन में कभी यहाँ तो कभी कहाँ। मेरा सपना
हमारा न बन सका। कभी जान न सकी कि उसने कभी मेरा सपना देखा भी या नहीं? हमारे एक हो सकने वाले सपने को लील गई
मायानगरी।”
धरा ने मुक्ता के चेहरे को ग़ौर से देखा। मुक्ता की खामोशी यादों के
घर-द्वार में घूम रही थी पर वहाँ निराशा का कोई चिह्न धरा को ढूंढे से नहीं दिखा।
मुक्ता का चेहरा ताज़गी से भरपूर था। यह सब धरा के लिए एक पहेली जैसा बनता जा रहा
था। जब दिशाएं अलग हुईं तो दोनों मंज़िल पर कैसे पहुंचे ? मुक्ता खिड़की से बाहर कुछ निहार रही थी पर धरा
ने उसके चेहरे पर नज़रे जमाए हुए कहा- “तो
मनिल सर हीरो बनना चाहते थे? नाम
और खूब सारा पैसा कमाना?”
सहसा मुक्ता ज़ोर से हँसी और बोली- “पैसा? हमेशा बस जीने लायक पैसे रहे उसके पास। कला ऐसी
थी कि जहाँ खोदता सोना निकाल लेता पर मेरा छलिया कमाने की फिक्र और जोड़ने की चिन्ताओं
से परे रहा। उसे दुनिया को अपना हुनर दिखाना था। घर का रूपया-पैसा भी उसे रोक नहीं
पाया। भाईयों ने क्या लिया?
क्या छोड़ा?- उसने
कभी नहीं जाना। मन की मौज के संग उसे बहना था...बहता गया। वो मंडलियों के साथ
बागेश्वर, जागेश्वर, कोसानी, चमोली कहाँ-कहाँ नहीं घूम रहा था और मैं
गृहस्थिन बन कर भी उसे मन में बसाए रही।”
“मुक्ता
मैडम! मुझे मेरे पहले सवाल का ही हल नहीं मिला...आप लोग मिले कैसे? मेरा मतलब है कब से साथ हैं?”
“इतनी
उतावली धरा! कितनी जल्दी है तुम्हें कहानी पूरी जानने की। कहानी अभी तो सही तरह
पकी भी नहीं। ध्यान रखो अधपकी कहानी कभी स्वाद नहीं देती। धीमी आंच पर पकने दो, इसका स्वाद पूरे जीवन उतरेगा नहीं... यही जानना
चाहती हो न कि हम कब से साथ हैं- समझ लो जबसे हमारे पहाड़ पर बुरांश हैं, तब से। बचपन से आज तलक मेरा साथी, मेरा बुरांश, मेरा छलिया बुरांश।”
धरा हैरान नज़रों से मुक्ता को देखे जा रही थी और मुक्ता किसी वेगवती
नदी के किनारों से परे तेज़ बहाव के संग थी। धरा ने महसूस किया मुक्ता की तरलता
जैसे किसी चट्टान से टकरा गई और टकराते ही कहानी भी पथरीली सड़क पर चल निकली।
“पति
के गुजरने के साल भर बाद मैं अपने मायके झोपड़ा में ही थी। आस के सारे दरवाजे़ जब बन्द
थे तो एक दिन भटकता हुआ मेरा छलिया लौट आया। फिर जो घटा उसकी किसी ने कल्पना भी
नहीं की थी। खुद मैंने भी नहीं। उसने न मुझसे कुछ पूछा, न जाना, पहली
दफा मेरा हाथ थामा और ले गया सीधा मुझे मेरे पिता के सामने –
“मुक्ता
मुझे सौंप दो....ये मेरी है।”
छलिये की आँखों में एक जुनूनी चमक थी जो उसके जोगी-से रूप के साथ मेल
नहीं खा रही थी। अनासक्त बाने में आसक्ति से भरी आँखें।
“एक
तो लड़की, ऊपर से इसके पति की मौत फिर तू हमारी जाति का
भी नहीं?” पिता क्रोध में चीखे।
“क्या
राजुला, मालूशाही की जाति की थी? दोनों की जाति अलग, हैसियत अलग। पर तुम तो उसे अपने पहाड़ की अमर
प्रेम कहानी कहते हो? समझ लो वही कहानी तुम्हारे सामने आज जीती-जागती
खड़ी है।”
“वो
कहानियाँ हैं लड़के! सिर्फ कहानियाँ...उनमें सच कहाँ होता है? वो बस वक्तकटी के किस्से हैं। मन के भरम।”
“भरम? तो ये भरम अब तक तुम्हारे गीतों में क्यों जीते
हैं? पीढ़ी दर पीढ़ी तुमने उनकी कथा को क्यों
पाला-पोसा-सींचा? राजुला तो विवाह के बाद भी मालूशाही को ही मिल
गई थी। तुम कहते हो वो सच्चे प्रेमी थे। यदि ये प्रेम भरम है तो तुमने इसे विश्वास
की तरह क्यों फैलाया? अपनी लोक-कहानी पर तुम्हारा गर्व भी क्या झूठा
है?”
मेरा हाथ, छलिये से छुड़ाते मेरे पिता चीख रहे थे। छलिये
का परिवार भी खामोश न था। आस-पास के लोगों के लिए भी नया तमाशा था। लोग मज़े ले रहे
थे पर छलिये की माँ ही उसके साथ थी। मैं हैरान थी। वह अकेला था पर उसने मेरा हाथ न
छोड़ा। लोगों ने मारा-पीटा तक पर वह अपनी बात से न फिरा।”
“फिर
क्या हुआ?”
“फिर
वह हुआ जो सबके लिए किस्से-कहानियों में होता है। मेरा छलिया सबके सामने बोला- ‘आस के बादल क्षण भर को छिप भले जाएं घुमड़ते हैं, गरजते हैं और बरसते हैं। मुक्ता! चलेगी मेरे
संग? मेरा एक हाथ मजबूती से पकड़े उसने अपना दूसरा
हाथ बढ़ाया और मैंने एक पल गवांए बिना उसे थाम लिया। बरसों से इसी हाथ का इंतज़ार
किया था। अचानक दुनिया के डर धुंधले होने लगे। खौफनाक आवाज़ों के शिकंजे ढीले पड़ने
लगे। बड़ी-बड़ी आकृतियाँ न जाने कब सिमटती हुईं अपने अक्स खो बैठीं। पूरी खामोशी में
खुले आसमान और पक्की धरती के बीच, लोगों
के तानों-कोसनों से बेपरवाह हमारे दिल मिल गए। पूरी वादी हमारी आज़ाद धड़कन की सरगम
गा रही थी, जिसके सामने सिर्फ आरोह का स्वर था। हमारे मन
मिले और बुरांश मुस्कुरा दिए।”
धरा के आगे समूचा दृश्य अपनी पूरी हलचल सहित साकार हो उठा। मिलन की
यह नयी दास्तान उसके सामने थी जिसका हर हर्फ साहस से भरा था। इस कहानी के सिरे
जैसे-जैसे उसे मिल रहे थे वह एक रोमाँच से गुज़र रही थी। उसकी सारी इंद्रियाँ इस
कथा के मोहपाश में बिंधी जा रही थीं। इस प्रेम की गंध, स्पर्श, शब्द, रूप, रस
सब उसे अपनी आगोश में लिए जा रहे थे। ये कहानी और कहानियों से भिन्न थी। इसके सिरे
मिल कर भी पूरे नहीं मिल रहे थे। मुक्ता के सुनाने का तरीका भी शायद कहानी सुनाने
वालों की तरह सीधा-सरल नहीं था। हर बार कहानी में नए प्रतीक और उनसे बनते नए रूपक।
हर बार मुख्य सड़क से चलती कहानी भाग कर किसी पगडंडी की शरण ले लेती। मनिल, छलिया भी और बुरांश भी? और ये लोककथा के मालूशाही और राजुला? फिर मुक्ता-मनिल की शादी की बात आ गई पर
मायानगरी की कहानी तो बीच में छूट ही गई।
एक गहरी सांस ले कर धरा ने पूछा- “तो
मनिल सर के मायानगरी से लौटने पर आप लोगों की शादी हुई।”
मुक्ता ने एक क्षण को धरा की तरफ देखा और ठठा कर हँस दी।
“पगली!
जिस संबंध को सबने नकारा उसे सबके प्रमाण की क्या जरूरत ? हमने कसकर हाथ थाम ही लिया था। अब तुम इसे चाहो
तो शादी कह सकती हो। हमें सात वचनों ने नहीं एक सच्चे वचन ने बांध लिया-प्रेम
ने... फिर निभाने को एक वचन काफी है, न
निभाने को सात सौ भी कम।”
धरा एकटक मुक्ता को देखती रही। तो इस बार भी अपनी जल्दबाज़ फितरत के
साथ उसने इन दोनों की कहानी से जो निष्कर्ष निकाला था वह गलत निकला। खुद पर उठी
खीज के साथ उसने मुक्ता को देखा तो देखती रह गई। खिड़की से आती हवा उनके बालों को, उनके गालों पर खेलने का पूरा मौका दे रही थी।
मुक्ता घुटनों में दोनों हाथों को बांधे हवा की दिशा में देख रही थीं। न बालों को
समेटने की कोई कोशिश, न खिड़की को बन्द करने का प्रयास। धरा को पहली
बार उनका चेहरा बेहद सुंदर लगा। जीवन का अपार संतोष और उसे व्यक्त करती उनकी
मुस्कुराहट ने उन सफल दम्पतियों की शक्लों से मुक्ता को अलग किया जो जीवन की
आपाधापी में भागते-दौड़ते स्टूडियो आकर आधा-पौना घंटे में अपनी पूरी कहानी कह देते
थे।
“आज
की क्लास कब शुरू होगी? कल वाला खेल भी अधूरा है।”
धरा ने देखा कमरे की नीरवता को भंग करता एक बच्चा दोनों हाथ कमर पर
रखे, दरवाज़े पर खड़ा था। इससे पहले वो कुछ कहती
मुक्ता बोल पड़ीं- “धरा! अब मेरे काम का समय हो गया। चलो, मैं तुम्हें अपने बच्चों से मिलाती हूँ।”
इस घर का जीना चढ़ने से पहले धरा ने जिस कमरे को पहले-पहल देखा था
मुक्ता उसे वहीं ले गईं। अलग-अलग उम्र के कई लड़के-लड़कियाँ वहाँ मौजूद थे। धरा ने
जाना कई बरसों से बच्चे यहाँ आते रहे हैं। वे अपनी मर्जी से यहाँ खेलते-कूदते, गाते-नाचते हैं और खेल-खेल में कुछ पढ़ते-सीखते
हैं। कमरे की दहलीज़ से ही पूरे कमरे का नज़ारा धरा के सामने था। एक बड़े से कमरे में
फैली दरी पर बच्चे अपने करतबों में मस्त थे जो धरा को देख कर सकुचा गए। मुक्ता ने
उसे कमरे में बुलाया पर धरा ने समझ लिया कि आज उसके हिस्से का समय खत्म हुआ। वैसे
भी उसे ‘हमारी धरोहर’ के सिलसिले में पंत वीथिका का काम भी पूरा करना था। अगले दिन घर पर
समय बिताने की बजाय मुक्ता ने उसे मुख्य बाज़ार से भीतर जाती एक जगह पर मिलने के
लिए बुलाया। धरा ने बाय की मुद्रा में हाथ हिलाया तो मुक्ता बच्चों से घिरी हुई
बोलीं- “हो सकता है कल तुम्हारी किस्मत चमक जाए और मनिल
तुम्हें वहाँ पर मिलें।”
रात धरा जब होटल के कमरे में लौटी तो उसके साथ दिन भर की थकान थी।
उसने कमरे में खाना मंगवाया ही था कि अचानक डी. जी. मैडम की कॉल देखकर वह हैरानी
में पड़ गई। काम की जानकारी ले कर उन्होंने
पहाड़ी जोड़े के विषय में पूछताछ की।
“दोनों
से बात हो गई ? हो सकेगी उनकी रिकार्डिंग?”
धरा ने पूरी उम्मीद जताते हुए जल्द काम खत्म करने की बात गीता मैडम
से कह तो दी पर उसकी हैरानी लगातार सवाल लिए खड़ी थी कि आखिरी जिस कार्यक्रम के लिए
प्रोग्राम एग्ज़ीक्यूटिव को जानना चाहिए था उसके बारे में डी. जी. मैडम क्यों पूछ
रही हैं? कुछ देर बैड पर बैठे-बैठे तेजी से पांव हिलाने
की अपनी आदत के चलते धरा का ध्यान बात के दूसरे सिरे पर गया। उसकी बात तो अभी
मुक्ता से ही हुई है। वो भी आधी-अधूरी। मनिल का तो कहीं अता-पता ही नहीं। न जाने
कब लौटेंगे? फिर धरा ने सिर को झटका। मुक्ता ने कहा है कि
कल नयी जगह पर मिलना है। हो सकता है वहीं मनिल भी मिलें। धरा की पूरी रात इसी
उधेड़बुन में बीती। वो अटकलें लगाती रही क्या मुक्ता बच्चों के किसी एन. जी. ओ. के
संग जुड़ी हैं? उसने सोच लिया आज का दिन मनिल के साथ बातचीत और
उनके काम-धाम के बारे में अच्छी तरह जान कर कल रिकार्डिंग फाइनल करेगी, आखिर गीता मैडम को खुश भी करना है।
अगली सुबह धरा के लिए अपार चिन्ताओं का सबब लिए शुरू हुई। यों इस
सरकारी रैस्ट हाउस से बाहर का नज़ारा आज बहुत अच्छा था। डाइनिंग रूम के काउंटर पर
बैठे नौजवान ने धरा से घूमने के लिए जाने का आग्रह किया पर उसकी जान को कई काम
बाकी थे। आज बादल न होने की वजह से दूर हिमालय की चोटियाँ साफ दिखाई दे रही थीं पर
धरा का मन परेशान था। रात तक संतुष्टि थी कि प्रेम-कहानी के कुछ सिरे उसे मिल गए
हैं, उनींदी सुबह ने जता दिया कि वह न अब तक उन
दोनों के काम-काज, बाल-बच्चों के बारे में जान सकी है, और न अचानक मायानगरी से मनिल के लौट आने का
कारण पता चला है। उसे लगा जो किस्सा रात भर अधजगे उसने बुना इस सुबह ने उसके सारे
फंदे उधेड़ डाले हैं। किस्से की बनती शक्ल मिट-सी गई। धरा ने ठान लिया आज जितना
जानना है जान कर, कल या परसों रिकार्डिंग करनी ही होगी। नाश्ता
करके उठी तो गोकुल रावत का फोन आ गया। काम की कुछ बातों के बाद धरा बाहर निकली।
रैस्ट हाउस से निकल कर मुख्य बाज़ार से आगे की चढ़ाई पर ही उसे मुक्ता दिख गईं। अपनी
स्नेहपूर्ण मुस्कान से उन्होंने धरा का स्वागत किया। राह दिखातीं वो कुछ आगे बढ़ीं।
रस्ते में इधर-उधर की बातें हुईं। कुछ देर बाद धरा शॉल और कुछ ऊनी कपड़े बनाने वाली
एक खड्डी के सामने थी। बाहर ही एक आदमी टेबल पर तरह-तरह के रंगों वाले शॉल, मफलर और कम्बल की दुकान सजाए बैठा था। धरा का
दिल धड़कने लगा कि हो न हो इसी जगह पर आज उसकी मुलाकात मनिल से होने वाली है। दोनों
भीतर की ओर बढ़ीं। जगह बहुत बड़ी नहीं थी। अंदर बारह-पंद्रह बुनकर परंपरागत हथकरघों
पर काम कर रहे थे। खटखट-खटाखट की आवाजें उस कमरे में गूंज रही थीं। एक कोने में
पावरलूम भी लगा था। मुक्ता से हर व्यक्ति पूरे आदर से बात कर रहा था पर धरा की आँखें
मनिल को ढूंढ रही थीं।
“धरा!
यहाँ तुम्हें मनिल मिल जाएँगे।” सहसा
मुक्ता बोलीं। धरा को वह कमरे के पीछे बने एक छोटे ऑफिसनुमा कमरे में ले गई। कमरे
के बाहर मुक्ता के नाम की तख्ती लगी थी। कमरे में कोई नहीं था। धरा और मुक्ता
दोनों वहाँ बैठ गए।
“ कहाँ
हैं?” धरा जिज्ञासा को रोक न सकी।
“बरसों
से यहीं हैं। इस जगह की हर आवाज़ में। हाँ धरा! झोपड़ा से भाग निकले हम लोगों की
शरणस्थली बनी कोसानी। सबसे छिपा कर मनिल की माँ ने जो रूपये दिए थे वो भला कितने
दिन काम आते? यहाँ आ कर कुछ दिन काम की तलाश में भटकते हुए
मनिल इस जगह पहुँच गए। इस जगह के मालिक एक बुज़ुर्ग आदमी थे। बरसों से यहाँ अकेले
रहते थे। पुराने बुनकरों के संग काम की हालत कमज़ोर थी। मनिल को साज-संभाल और
हिसाब-किताब के काम के लिए उन्होंने रख लिया। हमारे जीवन की शुरूआत प्यार और मेहनत
के मिले-जुले रंगों से हुई। हमें इसी जगह ने जीवन दिया। दो-तीन महीनों बाद की बात
है एक कारीगर दौड़ता हुआ घर आया कि मालिक ने अभी बुलवाया है। घबराहट में मैं जैसी
बैठी थी वैसी ही उसके संग चल दी। वहाँ पहुँच कर जो देखा उसे इस जीवन में कभी नहीं
भूल सकती।
“इसे रोक ले मुक्ता! न जाने क्या हो गया आज?” मालिक बोले।
मैंने देखा दुनिया से बेखबर मनिल अपनी धुन में करघे के सांचे पर नीले
धागों पर लाल डिज़ायन उकेर रहा था। तेज़ी से उसकी उंगलियाँ धागों का डिज़ायन डालतीं
फिर वह करघे के दोनों पैडल को हरकत दे कर और हाथ से करघा चलाते खटखट की ध्वनि के
साथ ताना-बाना रच रहा था। ठीक ऐसे जैसे उसकी आँखों ने जिंदगी का ताना-बाना रचने का
हुनर जान लिया हो। मैं जानती थी उसके मामा बुनकर थे। मामा के पास रह कर उसने इस
काम को सीखा भी था पर आज उसका जुनून सबको साफ दिख रहा था। मैं उसकी धुन पहचानती थी
इसीलिए न रोका, न टोका। उसके बाद वह रूका भी नहीं। उसने खड्डी के जर्जर शरीर में नया खून
भरना शुरू किया। धीरे-धीरे हम दोनों ने यहाँ का काम संभाला और इस जगह ने हमारे
सपनों को।
“तो
मनिल सर मायानगरी से हार मान कर लौटे थे? क्या
हुआ उनके सपने का?” धरा का सवाल मुक्ता के लिए हाजिर था।
“नहीं
धरा! हथकरघे पर कारीगर बने मनिल को देख कर मुझे भी लगता था कि मेरा छलिया इस बार
अपने ही हाथों छला गया। घर का सपना पूरा करने में उसका सपना मर रहा है। मेरे भीतर
हर पल एक टीस उठती। एक दिन उसने राज़ खोला-
“मायानगरी
ने मेरे भरम तोड़ डाले मुक्ता! मैं वहाँ खूब भटका। होते होंगे कला के कद्रदान, लोक-कला को निखार-संवार कर दूर-दूर तक पहुँचाने
वाले पर मुझे तो उपहास ही मिला। जितने दिन वहाँ रहा बार-बार लगता रहा मेरे आगे एक
गढ्ड़ा है अंधेरे से भरा, खूब गहरा। जिसके किनारे फिसलन है। दिन बीतने
लगे और फिसलन बढ़ती रही। रातों को लगता मैं लगातार फिसल रहा हूँ। गढ्डे में गिरने
से खुद को बचाते हुए मेरा पूरा शरीर भरपूर ज़ोर लगाता पर मैं समझ गया यही मेरा अन्त
है। लगता मेरी कोहनियाँ और घुटने छिलते जा रहे हैं। गले की नसें मदद को चीख रही
हैं पर कोई सुनने वाला नहीं है। एड़ियाँ काई में रगड़ खा रही थीं पर कोई हाथ नहीं था
जो मुझे संभाले। मेरी तमाम हिम्मत उम्मीद छोड़ ही बैठी थी कि न जाने कैसे मेरी आँखों
के आगे हमारा बचपन घूम गया। सामने दिखा फूलदेई का त्यौहार। हम दोनों थाल में कितने
सारे फूल सजाए घर-घर घूम रहे थे। तू अनोखी, बालों
में बुरांश सजाए इतरा रही थी। हम जोर-जोर से फूलदेई का गीत गा रहे थे। उसी समय
मैंने ग़ौर से तेरा चेहरा देखा। मैं सन्न रह गया। मुझे तेरी आँखें दिखाईं दीं।
उनमें शिकायत भरी थी। एक तेज तूफान-सा आया। मैं पूरी ताकत से उससे लड़ता रहा पर
तेरी शिकायती आँखें सामने रहीं। मेरी एड़ियाँ क्षण भर को थमीं कि काई मुझे फिर
गढ्डे में खींचने लगी। मैंने कोहनियों को ज़ोर से ज़मीन में गढ़ा दिया। मुझे सुनाई
दिया मायानगरी जाने से पहले तेरा आखिरी शब्द- ‘छलिया’। कान में यही शब्द देर तक गूंजता रहा। मन पर
चोट देता रहा। तेरी सारी छवियाँ लगातार आँखों के सामने गुज़रने लगीं और मैंने जो
देखा उस पर यकीन न हुआ। गढ्डे में रौशनी दिखाई दी। मैंने सुना गढ्डे से बार-बार एक ही शब्द गूंजने लगा-राजुला-राजुला।
फिर तूफान थम गया, गढ्डा शान्त था न काई, न फिसलन पर मेरी आँखें अपनी राजुला को ढूंढ रही
थीं। मैंने जान लिया मालूशाही-राजुला की जिस कहानी को जिन्दा रखने मैं इतनी दूर
आया वो मेरे कितनी करीब थी और मैंने उसे खो दिया।”
“फिर?” मुक्ता के अचानक चुप हो जाने से कहानी में
व्यवधान पड़ गया।
“फिर
क्या चल पड़ा मेरा मालूशाही,
जोगी बन कर अपनी राजुला की तलाश में। उसे उसकी
राजुला मिली और मुझे मेरा छलिया बुरांश... मालूशाही मेरा। हमारी लोककथा जीवन में
उतर आई।”
“उन्हें
उनकी राजुला तो मिल गई लेकिन उनका सपना तो बीच राह में भटक ही गया?” एक क्षण के संतोष में डूबी धरा फिर असंतुष्ट हो
गई।
“धरा!
जब सपने और ज़िंदगी एकमेक हो जाते हैं तो भटकाव कहाँ रहता है?”
एक गहरी बात मुक्ता ने जिस सहजता से कह डाली धरा अवाक देखती रह गई।
उसके सामने मनिल के दो रूप साकार हो रहे थे। कहाँ अपनी ही सुनने वाला मनमौजी और कहाँ
तिनका-तिनका घांसला रचने वाला प्रेमी। आज मनिल से मिलने की उसकी इच्छा और बलवती हो
गई।
“बौजी!
खाना खा लो।”
अचानक एक महिला बुनकर दोनों को खाने के लिए बुलाने आई। धरा ने सुना
हैंडलूम के सारे यंत्रचालित स्वर शान्त हो गए हैं और इंसानी सुर गूंज रहे हैं।
दोनों ने मिल कर खाना खाया। मुक्ता ने धरा के घर-परिवार के बारे में बहुत कुछ
पूछा। कमरे की अल्मारी पर रखी एक एल्बम उठा कर धरा को मनिल की तस्वीरें दिखाईं।
कहीं बुनकरों के साथ गाते-नाचते-बांसुरी बजाते। अनेक यात्राओं के फोटोज़ में
मस्तमौला मनिल को देख कर धरा की आँखें चमक उठीं। खाना खाने के बाद चाय की इच्छा ने
ज़ोर मारा। बाहर एक चाय वाले के यहाँ चाय पीते हुए धरा ने पूछा- “आप लोगों के बाल-बच्चे?”
“देखे
नहीं थे कल तुमने?”
“कहाँ?... अच्छा वो आपके घर? पर वो तो....।”
“हाँ
कितने सारे हैं न? और मेरी उम्र की तुलना में ठीक नहीं बैठ रहे
होंगे। मैं तो लगभग उनकी दादी-नानी की उम्र की हूँ...यही न?” मुक्ता फिर से हँसी।
“क्या
कहीं और रहते हैं?” इतना तो धरा ने हिसाब लगा ही लिया था कि अब तक
तो उन बच्चों की शादी भी ही गई होगी।
“सभी
बच्चे हमारे हैं धरा! हमारी दुनिया तो यहाँ आकर इतनी बड़ी हो गई कि कौन अपना है कौन
पराया कभी देखा ही नहीं। कल देखे बच्चों में से भी कितनों के माँ-पिता हम दोनों की
गोद में खेले हैं। कभी कमी महसूस नहीं हुई कि हमारा अपना कोई बच्चा नहीं। सभी तो
अपने हैं न? हर दिन इनके साथ हम अपना बचपन जीते हैं। बसंत
के साथ साल के स्वागत में फूलदेई का त्यौहार आता है तो सुबह दरवाज़े पर सब बच्चे आ
खड़े होते हैं फूल लिए, गीत गाते- “फूल
देई, छम्मा देई... दैंणि द्वार-भर भकार...”
धरा अर्थ का अनुमान लगाती मुक्ता के गीत को जानने की कोशिश करने लगी।
मुक्ता ने उसकी आँखों के भाव से ही उसकी दिक्कत भांप ली।
“जानती
हो क्या कहते हैं? यह दरवाज़ा हमेशा फला-फूला रहे। यहाँ से कभी कोई
भूखा न जाए, यहाँ के भंडार भरे रहें। हम इस देहरी को प्रणाम
करते हैं...यों समझ लो धरा! हमारी देहरी पर इनका प्यार हर साल अपनी खुशबू बिखेरता
चला आ रहा है।”
धरा के मना करने के बावजूद दोनों गिलास उठाए मुक्ता उन्हें रखने चली
गईं। वहीं रूक कर दुकानदार से अपनी बोली और मीठे लहजे़ में बातचीत करने लगीं। धरा
की दृष्टि उन पर बराबर टिकी रही पर मन जैसे किसी मनोरम घाटी में घूमने चला गया। हर
रंग के फूलों की घाटी जहाँ हवा और पानी का संयुक्त संगीत था। बहुत सारे पंछियों के
गीत थे। उस घाटी में मुक्ता और मनिल के साथ ढेर सारे बच्चे और यहाँ के कारीगर थे।
धरा की आँखों के सामने एक बड़ा-सा परिवार
था जिसने हर मुसीबत में खुशियाँ बांटना सीखा था। धरा, मुक्ता के जितना नज़दीक आ रही थी उसके बारे में
जानने को उत्सुक होते हुए भी वह एक शीतल संतोष को मन की अतल गहराईयों तक महसूस कर
रही थी। मुक्ता के व्यक्तित्व में एक चुम्बकीय आकर्षण था जो बेहद साधारण होते हुए
भी अपनी सहजता में अनुपम था। यों स्टूडियो में आने वाले अनेक जोड़ों से भी वो
प्रभावित होती आई थी। मुक्ता के साथ बिताए समय ने उसे सोचने पर मजबूर कर ही दिया
कि स्टूडियो में कुछ समय में प्रभाव जमाना अधिक आसान है पर एक व्यक्ति से बार-बार
मिलने पर एक अनुभूति पहले से नई और प्रगाढ़ होती जाए यह खासियत हरेक के साथ संभव
नहीं। सबसे अहम बात तो ये कि धरा के मन में उन्हें जानते हुए भी और जानने की प्यास
बरकरार थी।
“क्या
आज आप मेरे रैस्ट हाउस में मेरी मेहमान बन कर रह सकती हैं?...यदि आपको परेशानी न हो।” हिचकते हुए धरा ने अपनी बात मुक्ता से कह ही
दी।
“और
पीछे से तुम्हारे मनिल सर आ गए तो?... मुझे
वहाँ न पाकर परेशान होंगे और फिर अगली सुबह मेरे बच्चे मुझे न पाकर मायूस हो जाएँगे।” मुस्कुराते हुए मुक्ता मैडम ने कहा।
“मनिल
सर आपको फोन कर लेंगे और क्या? आप
चली जाइएगा, सिंपल। और आपके कुछ घंटों का साथ तो इस दूरदराज
से आए बच्चे को भी मिल सकता है न? ”
एक प्यारा-सा आग्रह करती हुई धरा अचानक आगे बढ़ कर मुक्ता के सीने से
जा लगी। दोनों की मुस्कुराहट कब हँसी में बदली किसी ने न जाना। रैस्ट हाउस पहुँच कर
धरा जैसे मुक्ता की माँ की भूमिका में उतर आई। खाने-पिलाने की खातिरदारी से ले कर
उनके हर आराम का ध्यान रखने की छोटी से छोटी बात भी उसके लिए बड़ी हो गई। जब तलक
मुक्ता की एक हल्की-सी चपत और मीठी झिड़की धरा को नहीं मिली वह शान्त न हुई। रैस्ट
हाउस के अपने कमरे के बाहर से दूर तक फैली पहाड़ियाँ को निहारती दोनों, आरामकुर्सी पर बैठ गईं। ऊँचे नीले समुद्र में
अनगिनत छोटी-बड़ी लहरों-सी पहाड़ियाँ धरती के फैलाव को समेटे हुए थीं।
“आप
सर को बहुत प्यार करती हैं न?” माहौल
में छाई शांति की गरिमा से बिना छेड़छाड़ किए एक मंद्र स्वर धरा ने छेड़ा। मुक्ता के
चेहरे के शान्त स्मित ने हामी भरी।
“हालांकि
मैं उनसे नहीं मिली हूँ पर मुझे आप दोनों एक-दूसरे के पूरक लगते हैं। सर यहाँ नहीं
हैं पर आपकी सारी बातों में वही हैं। मालूशाही-राजुला की लोककथा मैंने पढ़ ली है।
पहाड़ की सबसे अमर प्रेम-कथा। राजघराने का मालू और साधारण घर की राजुला-जिनका प्रेम
असंभव को संभव कर देता है। आप लोग वाकई उसी लोककथा के किरदार लगते हैं। दोनों का
अटूट प्रेम, परिवारों के बीच जाति-हैसियत की दीवारें, प्रेम में आने वाली बाधाओं से परे प्रेम की
मिसाल।”
“और
सारी दीवारों के बीच भी मालूशाही के प्यार को जिलाए रही राजुला। एक की चाहत और
दूसरे की पक्की लगन। मैं प्रेम में आसमान बन गई और मेरा छलिया मेरी पक्की-सी धरती।” मुक्ता पहाड़ी लहरों में डूबी हुईं बोलीं।
“दुनिया
ने किसी और के घर भेज दिया पर राजुला अपने मन की चाहत संग जीती रही।” धरा ने लोककहानी का सिरा मुक्ता-मनिल की कहानी
से ठीक जोड़ दिया।
“और
मालूशाही भी जोगी बनकर जीत लाया अपनी राजुला को दूसरी दुनिया से और तब बनाई
उन्होंने अपनी दुनिया। मौत भी उसे हरा न पाई। पर धरा! हमारी कहानी भले ही लोककथा
से मिलती-जुलती है लेकिन जहाँ लोककथा खत्म होती है दरअसल हमारी कहानी तो वहीं से
शुरू होती है। और ये कहानी तो अभी तक लिखी ही जा रही है इसका अन्त कब लिखा जाएगा
कौन जानता है।”
धरा ने गौर से मुक्ता को देखा वो अपनी बात कहते हुए भी पहाड़ियों में
खोई थीं। धरा के एकटक देखने से बेखबर। धरा को जाननी थी वह कहानी जो मिलन के बाद
लोककथा में खत्म हो चुकी थी और मुक्ता के यहाँ आगे बढ़ रही थी। धरा को याद आया
मुक्ता ने कल बताया था वह कविताएँ लिखती हैं।
“आप कविताएँ
लिखती हैं, कुछ सुनाइये न।”
मुक्ता की निगाह धरा की आँखों से टकरा कर कुछ पल खामोश रही।
“जानती
हो मनिल ने कितनी बार कहा अपनी कविताएँ हमें दो। हम उन्हें कहानियों में उतारेंगे।
मैं अपने रचे गीतों में तुम्हारी कविताएँ पिरो दूंगा। पर मुझे हमेशा लगता रहा यह
मेरा बहुत निजी, बहुत कोमल भाव है। इसे साझा कर दूंगी तो ये
फिसल जाएगा। लुढ़क कर किसी वादी में खो जाएगा। मुझसे रूठ जाएगा। कुछ कविताएँ मनिल
को सुनाईं भी थीं पर सोचती हूँ इस बार सारी की सारी उसे सुना ही डालूं। उसे, उसी से तो मिलवाना है। आखिर मेरा छलिया और
कितना धैर्य रखेगा?”
“मनिल
सर क्या हमेशा इतने दिन के लिए आपको अकेला छोड़ कर निकल जाते हैं?” धरा ने सोचा ये सवाल जरूर मुक्ता को परेशान कर
देगा पर मुक्ता ने चेहरे पर पूरी सौम्यता बरकरार रखते हुए कहा- “वो तो हमेशा मुझे ले जाने की जिद करता है। कई
बार मन में आता है तो उसके साथ चली भी जाती हूँ। गीत-नृत्य की उसकी पूरी मंडली है
और फिर अल्मोड़ा, नैनीताल, चमोली
कितनी ही जगह उसकी दोस्तियाँ हैं और उसके काम को चाहने वाले लोग हैं। पर मेरे अपने
काम भी तो हैं। मेरे बच्चे,
ऑफिस का काम और फिर मेरी कविताएँ-इन्हें कौन
संभालेगा? मेरे छलिये को तो जगह-जगह ले जाना है अपना सपना
और उसका कहना है तुम अपने सपने को सींचो-पालो-आनंद लो।”
“अरे
हाँ! ये तो मैं भूल ही गई। कुछ बताइये सर के सपने के बारे में।”
“हमारा
जीवन कैसे शुरू हुआ तुम जान ही गई हो। मालिक के काम को राह पर लाने में मनिल ने
दिन-रात एक करते हुए दसियों साल निकाल दिए। किसे पता था अलमस्त छलिया मेहनत का राग
भी उतनी ही खूबसूरती से जीवन में उतार लेगा जैसा संगीत-तान, गान और अभिनय। छलिए ने जी लगा कर कड़ी मेहनत की।
धीरे-धीरे मालिक ने भी निश्चिंत हो कर उस पर कई जिम्मेदारी सौंप दीं। फिर एक दिन
खुशहाल जिंदगी हमें सौंप कर मालिक भी गुजर गए। विदेश बसे उनके बच्चों ने न अपने
पिता के जीवन में साथ दिया न उनकी मौत के बाद कोई आया। अब यहाँ जो है सबका है। सब
काम करते, कमाते हैं। हम सब आज भी खुद को मालिक का बच्चा
ही मानते हैं। मुझे तो देख ही रही हो ऑफिस का सारा काम मैं संभाल लेती हूँ, मनिल अब अपने सपने को अधिक समय देते हैं।”
परी-कथाओं-सी ये कहानियाँ सुनकर धरा आनंद की एक ऐसी भूमि पर खुद को
खड़ा महसूस कर रही थी जहाँ साझे एहसासों की नमी थी। वहाँ संबंधों के अंखुए फूट रहे
थे जो विश्वास की शाख पर अनेक फूल खिलाने वाले थे।
“आपने
तो कई तरह के काम किए हैं और सर ने? मुक्ता
की कहानी पर मंत्रमुग्ध धरा के सवाल अब भी बहुत थे।
“उसने
अपना सपना पूरा किया।”
“उसे
तो पहाड़ की कहानियों को जिंदा रखना था और कहानी के रास्ते हमारे प्यार को।
गीत-नाच-अभिनय सब कहानी में ढलते गए पर ये काम इतना आसान कहाँ था? एक जैसा सपना देखने वाले लोगों को तो उसने ढूंढ
लिया पर सपने से सबकी आशाएं अलग थीं। मंडली बनी पर किसी का सपना धन था तो किसी का
बड़ा नाम। पर मेरे छलिए के लिए सपना मतलब- एक जीवित कहानी। उसकी धुन पक्की थी।
धीरे-धीरे उसे अपनी तरह के कुछ संगी मिल गए। सालों बीते पर उस धुन का रूप-रंग न बदला।
आज भी वैसी की वैसी है।”
“कितना
निराला रहा आप लोगों का जीवन। अपना सपना आपने अपने जीवन में प्रेम के साथ पूरा
किया।”
“हाँ
धरा! एक ऐसा प्रेम जहाँ अकेली मुक्ता नहीं, न
अकेला मनिल। न कोई शिकायत,
न नाराज़गी। छलिये ने कहा था- “मेरी कहानी और
तेरा बुरांश दोनों अब एक हैं। दोनों हमारी मिट्टी के रंग हैं। जब तक हम हैं न
हमारा प्रेम कम होगा, न ये रंग।” बस
उसके बाद न कुछ और पाने की लालसा है न कुछ
खो देने का डर। कभी-कभी सोचती हूँ कि जिंदगी को भरपूर जीते हुए सभी अपेक्षाओं से
दूर रहना ही तो अनासक्ति है।”
धरा के आगे जैसे एक जादू घट रहा था। प्रेम की मिसाल खड़ी हो रही थी जो
कहानियों से निकल कर ज़िंदगी में आ गई थी। मनिल से मुलाकात की उसकी बेचैनी जो आज
ज़रा शान्त थी सांझ के इस पहर दोबारा समस्त इच्छाओं के संग आकार लेने लगी।
“मैडम!
किसी को नहीं बताया पर आपसे कहने में मुझे खुशी मिलेगी, मैं भी एक ऐसे ही साथी का ख्वाब देखती हूँ।
बिल्कुल मनिल सर जैसा।”
मुक्ता की आँखें धरा के चेहरे पर स्थिर हो गईं। कुछ पल धरा के लिए
ठिठके से खड़े रहे कि मुक्ता ने पलकें झपकीं और चुप्पी तोड़ी- “धरा! जीवनसाथी में
मर्द नहीं उसके भीतर एक नन्हीं दूब, उमंग
भरा बचपन, एक बहता झरना,उड़ते परिंदे, दृढ़ चट्टान, मुक्त हवा और पक्की धरती खोजना। मेरे छलिये ने मुझे बदतर हालातों में
हँसना सिखाया है, जीने के गुर सिखाए। जानती हो बुरांश सारे पहाड़
पर आग-सा दहकता है पर पूरी धरती और इंसान की प्रकृति को तरल रखता है। उसने खुद
जलकर मुझे मेरी खो गयी मुक्ता से मिलवा दिया। कहता है वही काम करो जिसमें तुम्हें
खुशी मिले।”
“आप
बहुत लकी हैं मैडम!...और मनिल सर भी।”
“कल
आएगा तो जान लेना उसकी ज़बानी कि वो कितना लकी है पर इस समय मुझे तो ऐसा नहीं लग
रहा कि मैं लकी हूँ। कहाँ तो यहाँ ला कर तुम मेरे स्वागत में लग गईं थीं कहाँ अब
कुछ पूछ भी नहीं रहीं। घर बुला कर भूखा सुलाने का इरादा है क्या?”
धरा मारे शर्म के जमीन मे गढ़ गई। आज का खाना धरा कमरे में खाने के
मूड में नहीं थी। बाहर चांदनी ठंडक लपेटे मिली। दोनों गेस्ट हाउस से बाहर खुले
आंगन को पार कर के बड़े़ से डाइनिंग हॅाल की तरफ बढ़ीं। सारा दिन घूम कर थके-हारे
टूरिस्ट बेसब्री से खाने का इंतज़ार कर रहे थे। एक खाली टेबल की ओर दोनों बढ़ ही रही
थीं कि कांउटर पर बैठे नौजवान से धरा से कहा- “आपके लिए बुरांश वाला सिरप मंगवा
दिया है। बढ़िया हैल्थ टॉनिक है। जाते समय ले जायें याद से... और हाँ आपने बुरांश
देख लिए? नीचे तो कई पेड़ कट गए हैं और कुछ पिछले साल की
आग में बर्बाद हो गए थे पर यहाँ गैस्ट हाउस से ऊपर जो कॉटेजेज़ बनी हैं वहाँ आपको
कई पेड़ मिल जाएंगे।”
इससे पहले धरा मुस्कुराती या शुक्रिया कहती उस नौजवान ने मुक्ता को
देख कर, चौंकते हुए पूछा- “अरे आप यहाँ कैसे? कितने दिन बाद देखा आपको। आखिरी बार बस मनिल जी
वाले कार्यक्रम में मिले थे।”
वह ,मुक्ता से बहुत उत्साह से मिला पर धरा ने महसूस
किया कि वह जवाब में संकोच में भर कर मुस्कुराईं। टेबल पर आगे बढ़ने के लिए मुक्ता
ने कदम बढ़ाया ही था कि उसकी आवाज़ ने फिर से उन्हें रोका।
“मनिल
जी! जैसा कलाकार और प्यारा इंसान यहाँ कोई दूसरा नहीं। बूढ़े-बच्चे, आदमी-औरत सब उनके दोस्त। स्टेज पर उतरते तो समाँ
बांध देते। क्या अंदाज़, क्या गायकी, क्या
अभिनय... मैं उनके कलाकार को मिस करता हूँ।” एकाएक
उसकी आवाज़ में उदासी घुल गई। दो पल सबके बीच मौन रहा और फिर मुक्ता ने अपने हाथ को
धरा की पीठ पर ले जाते हुए आगे बढ़ने का संकेत किया। धरा के कदम उस नौजवान की बात
सुन कर ठिठक से गए। वह उस चुप्पी को पढ़ने की कोशिश कर रही थी जो अभी-अभी दोनों के
बीच एक हलचल मचा गई थी। धरा सोच में पड़ गई कि उसने मुक्ता से ऐसा क्यों कहा? हो सकता है अब मनिल सर की उम्र उन्हें अभिनय की
इजाज़त नहीं देती होगी। उसने तुरंत अपने सवाल का उत्तर भी खुद ही दे डाला। चारों
तरफ के शोर में उनकी टेबल पर सिर्फ बर्तनों की आवाज़ें थीं।
“क्या
सर अब अभिनय नहीं करते?” देर से खदबदाते मुक्ता के सवाल ने आखिरकार शक्ल
अख्तियार की।
“मनिल तो कहानी को भरपूर जीते हैं, मंच तो बहुत छोटा हिस्सा है। हर बार कहानी में
नयी जान डाल देना उनकी खासियत है। कभी मूल कथा में कोई पुराना गीत, कभी कोई दूसरी लोककथा पर मालूशाही-राजुला की
कहानी से उन्होंने कोई छेड़छाड़ नहीं की। कितनी मंडलियों ने उनकी नकल की पर खरे सोने
के आगे सोने के पानी की चमक कहीं ठहरी है भला? उन्हीं
की नकल पर बुरांश के गीत गाने का चलन लोककथाओं में शुरू हुआ। पर जहाँ मनिल मेरे
बुरांश को कहानी से जोड़ कर हमारे प्रेम के महीन तार बुन रहे थे वहाँ लोगों ने
बुरांश की खूबसूरती की जगह उसे बेचने की कलाकारी शुरू कर दी। हमारे गीत, गीत न रह कर व्यापार होने लगे। फूल जैसे
इंसानों ने कारोबारी होकर गीतों, किस्सों
और फूलों को बिकना सिखा दिया। मनिल के भीतर का बच्चा, उसके भीतर जीता हिम्मती युवक और पकी उम्र में
जिंदगी से भरा आदमी भला कैसे चुप रहता? बुरांश
के साथ न जाने कितनी राजुलाओं की उम्मीद बनकर भटकता रहता है और अब तो मैं भी जाने
लगी हूँ मंडली के साथ। धरा ने पहली बार मुक्ता को किसी गहन चिंतन में डूबा पाया।
बाहर चमक रहे चांद पर अचानक एक बादल छा गया।
धरा के लिए वह रात बहुत ही लंबी थी। जाने क्या कारण था कि नींद ही
नहीं आई। आखिर सुबह के चार बजे उसने उठ कर धीरे से अपना फोन उठाया। फोन की रौशनी
में साथ सो रहीं मुक्ता को देख कर उसके मन में प्यार उमड़ आया। रात न सो पाने की
सारी चिड़चिड़ाहट भाग खड़ी हुई। सीधे हाथ की कोहनी सिर के नीचे दबाए मुक्ता का चेहरा
एक मासूम बच्चे की तरह लग रहा था। रात वाली चिन्ता की रेखाएं उस पर अंकित नहीं थी।
उन्हें देखने के बाद जैसे ही धरा की नज़र मैसेज बॉक्स पर पड़ी, गीता मैडम का मैसेज दिखाई दिया- “जल्दी काम
पूरा करके ड्यूटी ज्वॉइन करो।” एक
पल की राहत फिर बेचैन करवट लेने लगी। यों तो धरा ने ‘हमारी धरोहर’ सम्बन्धी सारा काम कर लिया था और मुक्ता की कही कई बातें भी रिकॉर्ड
कर लीं थीं पर दम्पति के रूप में दोनों की बातचीत अभी बाकी थी। मुक्ता ने कल धरा
से मनिल के आने की बात कही तो थी। धरा ने भरोसे की डोर थामे रखी और गीता मैडम को
सारी बात संक्षेप में समझाते हुए मैसेज कर दिया। कुछ देर बाद बाहर उजाले की किरणें
फूटने लगीं। मुक्ता भी संतोष की नींद लेकर जागीं और कुछ देर बाद धरा को जूते पहना कर
कॉटेजेस के रास्ते से बुरांश दिखाने ले गईं। दिन ने एक धीमी हरकत से जागना शुरू कर
दिया था पर बाहर लोग दिखाई नहीं दे रहे थे। गैस्ट हाउस से निकल कर कुछ सीढ़ियों के
बाद बिना सीढ़ी एक रास्ता ऊपर की ओर जा रहा था।
“ध्यान
से धरा! नीचे चीड़ पिरूल सब तरफ बिखरा है। कदम जमा कर नहीं रखोगी तो फिसल जाओगी।”
मुक्ता ने कहा ही था कि एक बेध्यान
कदम रखकर धरा कुछ कदम नीचे फिसल गई। दोनों तेजी से हँसी। धरा ने देखा जमीन पर
नोंकदार सुईंयों-सी तीलियाँ की चादर फैली है। चीड़ से गिरी ये तीलियाँ सूख कर चिकनी
हो चली थीं। जरा ऊपर चढ़े तो बहुत से पेड़ इंतज़ार में खड़े दिखाई दिए। मुक्ता बताने
लगीं-चीड़, मोरू, अयार
और वो देखो हरे दुशाले पर लाल गुलाल जैसा मेरा बुरांश। धरा चहक उठी। बुरांश, चीड़ के मुकाबले लंबा नहीं था पर उसके चटख लाल
रंग के फूल इस पहाड़ी में आग की तरह दहक रहे थे। कुछ पेड़ पहाड़ी की उतराई में कमर
मोड़े खड़े थे तो कुछ सीधे उठे। कुछ गर्दन झुकाए तो कुछ बाहें फैलाए। याँ
इक्का-दुक्का बुरांश धरा ने नीचे भी देखे थे पर तब वह उन्हें कहाँ पहचानती थी। आज
मुक्ता ने ही उसे बुरांश से मिलवाया। दोनों अपने-अपने बुरांश से मिल रही थीं। एक
के लिए जो पेड़ था दूसरी के लिए पूरी कायनात।
“इसका
स्पर्श दुनिया का कोमलतम स्पर्श है धरा! इसने कितने मौसम झेले पर इसके तने ने मुझे
कभी नहीं खुरचा। हमेशा सहलाया । मेरे सपनों में भी इसकी गुच्छेनुमा घंटियाँ बजतीं
हैं। मेरे दिल में दर्द की हर चट्टानों को इसने खिलखिलाती नदी बना दिया। इसने मेरी
देह से ज़ख्म के सारे निशान धुंधले करके मिटा दिए। जानती हो इसने मेरे लिए पतझड़ को
भी पत्तों-फूलों से लाद दिया है। अब मेरे सारे मौसम बुरांश के मौसम हैं।”
पेड़ से अपनी पीठ और नज़रें आसमान में टिकाए मुक्ता किसी अनजाने लोक की
यात्रा पर निकल गईं थी। उनकी समूची देह से राग का झरना बह रहा था। धरा महसूस कर
सकती थी उसका मधुर संगीत,
उसकी तरलता और एक जीवन की पूर्णता। धरा के
समक्ष बुरांश और मनिल एकमेक हो रहे थे। धरा ने उसे छुआ तो किस्सों से निकल कर
बुरांश आज अपने समूचे अस्तित्व के साथ उसके जीवन में आ गया। बहुत देर तक दोनों
अपने-अपने राग में डूबी रहीं। पहाड़ पर सूरज की आहट और पेड़ों से छनती धरती की चादर
पर जब सूरज लेटने को आया तो दोनों गैस्ट हाउस की ओर मुड़ीं।
कमरे की टेबल पर सुबह की पहली चाय, अखबार और बुरांश सिरप बिल सहित प्रतीक्षा में मिला।
“असली
मिठास से तुम मिल आई हो धरा! अब इसे ले जाकर क्या करोगी?”
सिरप बॉटल की ओर इशारा करती मुक्ता ज़ोर से हँसी।
“आपके
छलिया बुरांश से भी आज मैं मिल ली हूँ। काश! उन्हें देख भी पाती। लेकिन आज शाम ही
लौटना है।”
धरा ने देखा उसकी बात पर मुक्ता शरमा-सी गई हैं। उनके चेहरे पर
बुरांश का रंग छिप नहीं सका। नाश्ता करके मुक्ता ने धरा को आत्मीयता से गले लगा कर
विदा ली। तय हुआ कि यहाँ से निकलने से पहले धरा ऑफिस होते हुए उनसे मिल कर जाएगी
और इस बीच मनिल आ गए तो मुक्ता उसे सूचित कर देंगी और फिर स्टूडियो में रिकार्डिंग
कर ली जाएगी। धरा के अधूरे रह गए काम को ले कर मुक्ता को भी कम अफसोस नहीं था।
मुक्ता ने सामान पैक करते हुए गीता मैडम को फोन करना जरूरी समझा। उसने काम पूरा न
होने की विवशता को सच्चाई के साथ गीता
मैडम को बता दिया। गीता मैडम ने सिर्फ इतना ही कहा- ‘कि तुमने मुक्ता और मनिल को
जान लिया न? कम से कम तुम्हारे मन को स्टूडियो की कहानियों
से अलग जीवन की कहानी मिली गई।’
दिन तेज़ी से भाग रहा था। धरा को अभी स्टेशन जाकर रिकॉर्डर आदि जमा
कराना था। कुछ ज़रूरी कागज़ लेने थे। गोकुल रावत सहयोग के लिए खासतौर पर कोसानी आए।
सारी रिकॉर्डिंग्स अभी लेपटॉप में ट्रांसफर भी करनी बाकी थीं। स्टेशन जा कर ये
सारा काम करते हुए धरा को आज ढंग से खाने का समय भी नहीं मिला। सारा काम खत्म कर के
जब उसने मुक्ता के ऑफिस का रूख किया तो उसे तेज़ भूख लगी। बाज़ार से खाने का सामान
लेते हुए उसे लगा मुक्ता जी से अंतिम भेंट पर उन्हें कोई तोहफा देना चाहिए फिर
उनके लिए कुछ खरीदते हुए उसने एक तोहफा मनिल सर के लिए भी खरीद लिया। हालांकि
कोसानी के लोगों के लिए उन्हीं के बाज़ार से तोहफा खरीदना कुछ अटपटा ज़रूर लग रहा था
पर धरा को कहाँ मालूम था कि ये रिश्ता इस कदर खास हो जाएगा। तोहफा खरीदते समय एक
बार धरा का मन धड़का कि हो सकता है अब तक मनिल सर लौट आए हों। इसी आशा में धरा ने
तेज़ी से कदम बढ़ाए। वहाँ लोग अपने-अपने काम में लगे थे पर मुक्ता कहीं नहीं दिखाईं
दीं। यहाँ तक कि धरा उस दिन दिखाए ऑफिस में भी उन्हें ढूंढ आई पर वहाँ कोई नहीं
था।
“आप
बौजी को ढूंढ रही हैं?”
धरा ने पीछे से आती आवाज़ की दिशा में पलट कर देखा तो सामने वही औरत
खड़ी थी जिसका लाया खाना उसने और मुक्ता ने इसी ऑफिस में खाया था। धरा को पता चला
मुक्ता किसी जरूरी काम से बाहर निकल गईं हैं और उसे बाद में फोन करेंगी। धरा की
तरफ एक लिफाफा बढ़ाते हुए उसने कहा- “ये आपके लिए दे गईं हैं।”
धरा ने तुरंत खोल कर देखा। हरे रंग के मफलर पर चटख लाल बुरांश सजे
थे। उसने बड़े प्यार से भेंट को सहलाया।
“ये
मनिल सर और मुक्ता मैडम को आप मेरी ओर से दे देना।” दो अलग बॉक्स मुक्ता ने उस महिला को थमाए जिनमें दो कलाकृतियाँ उसने
बाज़ार से बड़ी मुश्किल से ढूंढी थीं।
“दद्दा
को?” महिला ने अचरज से धरा को देखा।
“उनसे
मिल नहीं सकी तो सोचा उनके लिए...” धरा
ने अधूरा-सा स्पष्टीकरण दिया।
“उनको
कैसे?... उन्हें गुजरे तो कई साल बीत गए।”
धरा की सारी इंद्रियाँ जड़ हो गईं । काटो तो खून नहीं। जिस इंसान से
मिलने का बेसब्र इंतज़ार कर रही थी वह जीवित ही नहीं है पर वो तो रोज़ उन दोनों की
बातों में जीता-जागता खड़ा था। धरा को लगा जैसे अचानक सारी दिशाएं खामोश हो गईं
हैं।
“पर
मैडम ने तो ऐसा कुछ नहीं कहा...आज भी कह रही थीं कि उनसे मिलना यहाँ हो जाएगा।” धरा की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।
“ बौजी
मानती हैं कि एक दिन उनका छलिया लौट आएगा जैसे एक बार पहले भी मौत को छल कर लौट
आया था... इसीलिए उनके नाम और काम को जिंदा रखती हैं। आज भी दद्दा की मंडली के संग
जाना पड़ा दीनापानी की तरफ। खबर आई है वहाँ के जंगल में आग लगने से पेड़ों को नुकसान
हो गया है। यही नहीं पिछले साल भी जगह-जगह भागती रही थीं दद्दा के गीतों के साथ जब
ठंड के मौसम में भयानक गर्मी पड़ने पर समय से पहले बुरांश खिल आए थे। बुरांश पर कोई
खतरा आते ही तड़प जाती हैं। कहती हैं जब तक जिएंगी बुरांश के लिए ही। कहती हैं मेरा
छलिया आकर पूछेगा तुमने हमारे सपने का क्या किया?”
“आपको
लगता है मनिल सर लौटकर आएंगें?” भर्राए
हुए गले से धरा ने पूछा।
“गुज़रा
आदमी कभी लौटा है?...पर बौजी मानती हैं- ‘मालूशाही-राजुला कभी मर सकते हैं क्या?
हर साल बुरांश के मौसम में उनका प्यार और गहरा हो कर सारे पहाड़ को लाल करता रहेगा।’ कहती हैं- ‘विश्वास रखो उसीमें सब कुछ है।”
हर साल बुरांश के मौसम में उनका प्यार और गहरा हो कर सारे पहाड़ को लाल करता रहेगा।’ कहती हैं- ‘विश्वास रखो उसीमें सब कुछ है।”
मन पर पड़ी तेज़ चोट के गहरे असर के बावजूद मुक्ता के जीवन की अमिट
यादें और अभी-अभी खुले इस रहस्य ने धरा को
ऐसी तृप्ति का एहसास कराया जिसके बाद कुछ पल के लिए ही सही पर सारी चाहनाएं
खत्म-सी हो जाती हैं। उसने महसूस किया कुछ किस्सों में जिंदगियाँ रोप दी जाती हैं
पर जब जिंदगी एक सच्ची कहानी बन जाए तो कितनी जिन्दगियाँ उसके प्रिज़्म से निकल कर तर जाती हैं।
सम्पर्क
ई-112, आस्था कुंज अपार्टमेंट्स
सैक्टर-18, रोहिणी, दिल्ली-89
मोबाईल - 9811585399
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि
मालूशाही मेरा छलिया...बुरांश'
जवाब देंहटाएंकहानी का शीर्षक जितना आकर्षक, कहानी उतनी ही रोचक, मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी है।
'मालूशाही मेरा छलिया...बुरांश' कहानी धरातल पर प्रेम, विश्वास एवं जीवन संघर्ष का सफल व्याख्यान है।
आज आधुनिक प्रौद्योगिकी (तकनीकों) प्रधान वर्तमान दौर में खुद को समाज में अर्थव्यवस्था के हिस्से के रूप में स्थापित करने के संघर्ष के बीच अपने सपनों को जीनें एवं साकार करने की चाह होना, जिसमें गहन् प्रेम, विश्वास का सुकूं भी शामिल हो।
कहानी मुख्यतः तीन पात्रों मनिल, मुक्ता व धरा के ईर्द- गिर्द रची हुई है। जो लोककथाओं की अमर प्रेम गाथा मानी जाने वाली राजुला-मालूशाही व बुरांश के फूलों के प्रतीकों में रोचक होने के साथ-साथ जिज्ञासा भी बनाएं रखता है, जिसमें धारा प्रवाह होने के साथ ही जीवन के प्रति यथार्थ को जीने, महसूस करने एवं जीवन गति को बनाएं की गंभीरता का भी संदेश है।
'मालूशाही मेरा छलिया...बुरांश' कहानी जीवन में सपनों को जीने की चाह व प्रेम में होने की पूर्णता के साथ-साथ इन विषयों के संबंध में सामाजिक दृष्टिकोण की भी परिचायक है। जो संघर्षों का आधार है।
अंततः कथानक की रचनात्मकता अत्यंत प्रभावशाली है, जो प्रेम की गहराईयों के साथ-साथ यथार्थ के संघर्ष से सरोकार भी रखती है।
'मालूशाही मेरा छलिया...बुरांश' कहानी की लेखिका प्रिय कहानीकार प्रज्ञा मैम को अनंत हार्दिक बधाई...��☺️��
वाह बहुत सुन्दर कहानी ।
जवाब देंहटाएंहमनाम की सुंदर प्रेम कहानी पढ़ी। बधाई हमनाम
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-12-2018) को "कुम्भ की महिमा अपरम्पार" (चर्चा अंक-3189) (चर्चा अंक-3182) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक बेहतरीन प्रेम की दास्तान, जिसमें प्यार उस व्यक्ति से तो है ही साथ में उसके हमेशा साथ होने की एक अंतहीन तलाश से भी है. जिसे उसके अब न होने के बावजूद उसके सपनों को पूरा करने में ही उसका साथ मुक्ता देख रही है. Pragya मैम आपको एक अच्छे दास्तानगो के रूप में निरंतर उभरते हुए देख रहा हूँ. मैंने एक चीज़ बड़े अदब के साथ गौर किया है हर अगली कहानी पहले से उम्दा लगी है. हर बार ऐसा लगता रहा है कि हां इसी बेहतर कहानी की तलाश थी. इतना उतार-चढाव एक कहानी में और कहानी कभी भी कही से टूटती न हो. लगा कि अब क्या होगा और फिर लगता है कि कहानीकार को बहुत कुछ कहना बाँकि है. और वो हर कुछ कहेगा जिसे उसे पूरी तसल्ली से कहना है. कहानीकार कहता भी है और पाठक तत्पर होकर सुनता रहता है कभी-कभी खुद को कुरेदता भी है जैसे कि धरा खुद को कुरेदती है. मेरा हमसफर कैसा हो ? वो हर समस्या जो निजी जिंदगी की होती है, जो घर बार में उसने झेला है, जो समाज की जरूरत है चाहे वो सामाजिक दायरा हो या फिर प्राकृतिक आपदा, सम्बन्ध चाहे भौतिक हो अथवा सुख-दुःख या सरोकार का, आपके पात्र ने जिन्दा हकीकत से अपने पाठक को रूबरू करके दिखाया है...
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