विपिन चौधरी
पहली बार पर आप विपिन चौधरी की कवितायें पहले ही पढ़ चुके हैं. इस बार प्रस्तुत है विपिन की कहानी 'लोग कहते हैं.'
लोग कहते हैं
कई दिनों बाद आज दोपहर के वक्त देवपुरा गांव के ऊपर बिजली देवी की मेहरबानी हुई है. वर्ना अक्सर तो रात को एक दो घंटों के लिए खेतों में पानी लगाने के नाम पर ही श्रीमती बिजली देवी दर्शन दिया करती है. सोनतारा मौसी जून के इस कहर ढाते गर्म महीने में अपनी रोज़ की आदतानुसार पानी में निचोडी हुई सफ़ेद चादर ओढ़ कर चित सोयी हुई है, इस शिखर दोपहरी की शुष्क हवा में उनकी चादर की नमी काफी पहली ही सूख गयी है. बूढी सोनतारा मौसी की भारी-भरकम देह पर वैसे भी गर्मी की मार कुछ ज्यादा ही पड़ा करती है और वह गर्मी से छुटकारा पाने के लिए कुछ ना कुछ देसी तरकीबें भी सोच लिया करती है.
गांव के रेतीले टिब्बे वाले इलाके में रात भले ही सुहावनी हो जाती हो पर दिन के वक्त सूरज मियां अपने बगल में रखे आग के गोले को अपने दोनों हाथों से धरती की तरफ धकेल दिया करते हैं.
सोनतारा मौसी के चारों पोते-पोतियां पीछे के कमरे में अपने-अपने बस्तों के मुँह
खोल कर उबासी मारते हुए पढ़ने में जबरन जुटे हुए हैं उन्हें कल के दिन अपनी तेज़तर्रार मास्टरनी के डर ने ही किताबों को हाथों में थमा रखा है. सात लोगों की मौजूदगी के बावजूद दोपहर के सूनेपन में गले तक डूबा हुआ घर भाँय-भाँय कर रहा है.
खोल कर उबासी मारते हुए पढ़ने में जबरन जुटे हुए हैं उन्हें कल के दिन अपनी तेज़तर्रार मास्टरनी के डर ने ही किताबों को हाथों में थमा रखा है. सात लोगों की मौजूदगी के बावजूद दोपहर के सूनेपन में गले तक डूबा हुआ घर भाँय-भाँय कर रहा है.
कुछ देर पहले ही सोनतारा मौसी की दोनों बहुएं अपने खेत में अपने पतियों को रोटी दे कर लौट आई हैं. घंटे भर बिस्तर पर कमर सीधी करने के बाद सोनतारा मौसी के बड़े बेटे राममहेश की पत्नी ने ठीक २ बजे टेलीविजन के कान को उमेठ दिया है. तब टीवी स्क्रीन पर एकता कपूर के धारावाहिक की रंग-बिरंगी नायिकाएं अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज करवाती दिखाई देने लगी हैं. ‘किसका पति’ नाम के इस धारावाहिक की कहानी पिछले एक हफ्ते से वहीं की वहीं अटकी हुई है जिसमें एक खलनायिका सी दिखने वाली महिला हमेशा की तरह नया प्रपंच कर घर के शांत माहौल को फिर से आतंकित करती दिखाई दे रही है.
टेलीविज़न की आवाज़ सुन कर सोनतारा मौसी अपने ओबरे से उठ कर बीच के कमरे में आ गयी है, घर में पहले जो श्वेत-श्याम टीवी हुआ करता था उसमे सोनतारा मौसी की रूचि ना के बराबर थी पर जबसे घर में रंगीन टीवी आया है तो बूढ़ी सोनतारा मौसी का मन भी मचल उठता है टीवी पर नाचती गाती, रंग-बिरंगी तस्वीरें देखने को. हालांकि मौसी की आँखें टी.वी. में जगमगाते हुए कुछ रंगीन कतरे ही देख पाती है पर मौसी उतने में ही राजी है.
इस वक्त सोनतारा मौसी घर के ठीक बीच वाले कमरे के दायें कोने में रखी हुई मूंज की खाट पर जम गयी है.
दोनों बहुएं नाटक देखते-देखते हंसी-ठिठोली कर रही हैं, एक दूसरे के कान के पास अपने मुँह लगा कर फुसफुसा कर दोनों ने ज़ोर से एक ठहाका लगाया और मौसी का तीसरा नेत्र जाग्रत हुआ.
दोनों बहुओं की लाख सावधानी के बावजूद सोनतारा मौसी को अपनी बड़ी बहू की बेहूदी ठिठोली का आखिरी सिरा पकड़ में आ गया है.
“हमारे बच्चों की दादी ने तो उस जमाने में ही गुल खिला दिए थे नाटक वाली इन औरतों के ये कारनामें तो फिर भी कम है. ये तो भई नए जमाने की बालाएं हैं”.
सोनतारा मौसी समझ गयी थी उसकी दोनों मुहँज़ोर बहुएं हमेशा की तरह अपनी बूढ़ी सास को निशाना बनाने से बाज़ नहीं आ रही हैं.
बहुओं के इस बेहूदा मजाक से सोनतारा मौसी का मन खिन्न हो उठा. वह टेलीविजन के सामने से उठ कर ओसारे में पड़ी खाट पर आ बैठी और मन ही मन कुछ कुनमुनाने लगी. फिर घड़ी भर कुछ सोच, बाएं हाथ का सहारा ले कर उठी, अपनी नसवार की डिबिया कुर्ते की जेब में डाल, जैसे तैसे पांव में जूते पहन भरी दोपहरी में चुपचाप अपनी बाल सखी गुणवंती के घर की राह हो ली.
बूढ़ी सोनतारा मौसी गाँव की अधकच्ची गलियों से अपने गठियावात से फूले हुए पांवों को घसीटती चली जा रही थी. रास्ते में जगह-जगह लगी ईंट की भट्टियों के करीब से आती हवा इस तरह अपनी लपटें छोड रही थी मानों किसी ने हवा में आग की अच्छी खासी मिलावट कर दी हो. सिर पर अंगोछे का मंडासा मार ईंटों से भरा तंसला लिए कामगार आदमी और औरतों इस मुस्तैदी से अपने-अपने काम में जुटे हुए थे. उनके जिस्मों ने इस प्रचंड गर्मी को परास्त करने की ठान ली हो कुछ इस तरह वे गर्मी को चुनौती दिए हुए थे.
तभी सामने से आती गर्म हवा की लहर ने सोनतारा मौसी की आँखों को एकदम से बंद करने को मजबूर कर दिया.
‘घणी कसूती बाल चाले स आज तो’, मौसी खुद से बडबडाई, उसके कपडे का जूता आगे से फट गया था जिससे गर्म जलती हुई बालू रेत जूते के भीतर घुस कर सोनतारा मौसी को बेतरह परेशान करने लगी थी. लाठी का सहारा लेकर आज पहली बार मौसी घर की चारदीवारी से बाहर निकली थी, जिसके कारण वह अपने भीतर थोड़ी सी हिम्मत महसूस कर रही थी वर्ना तो वह पिछले कुछ दिनों पहले पांव फिसलने से लगी चोट से इतनी भयभीत थी कि घर से बाहर निकलने के नाम से ही डर रही थी.
कल ही सोनतारा मौसी के छोटे पौते सुदर्शन ने बांस की लंबी लाठी थमाते हुए उसे कहा था
‘दादी, ये ले लाठी इसके सहारे कमर सीधी करके चला कर.”
“रे बेटा ईब या कमर सीधी कोनी होवे”, मौसी असहाय हो कर बोल उठी थी.
गाँव के आंगन से उठाया हुआ जीवन का एक भरपूर टुकड़ा
दस पन्द्रह मिनट के बाद सोनतारा मौसी, अपनी मुहँबोली बहन गुणवंती के घर में नज़र आने लगी थी.
बीजने से हवा करती हुई मुख्य दरवाजे के सामने बैठी थी गुणवंती, सोनतारा मौसी को देखते ही उसने अपनी बहु को ज़ोर से हुंकारा मारा.
‘री बहू तेरी मौसी आई स भीतर तह एक मुढ्ढा तो ले आ’.
जी, माँजी,
कहाँ रखा है
बहू कान्ता महीन स्वर में बोली
तेरी जेठानी वाले कमरे में देख. वहाँ नहीं मिला तो परले हाथ वाले ओबरे में देख, कुर्सी पड़ी होगी वो ही ले आ.
सोनतारा मौसी, गुणवंती की मुहँबोली से ज्यादा मुहँलगी बहन है, अपने मायके नूरपूर गांव में दोनों सहेलियों ने खूब जम कर मीठी मस्तियाँ की हैं, वे भी कुछ खास ही दिन थे जब दोनों बच्चियाँ अपने-अपने घरों के काम-काज से फुर्सत पाते ही गांव की कच्ची गलियों में निकल आती और खूब फुदकती चहकती. खो-खो ओर कब्बडी का खेल तो हर रोज़ का शगल होता था. रामदेव फौजी की छोरी मीना, बलवंत मास्टर की छोटी बेटी चंचल और सोनतारा- गुणवंती की चौकड़ी खूब धूम मचाती. इन चारों सहेलियों की रलमिल दोस्ती पर चक्रवात उस वक्त टूटा जब सोनतारा और गुणवंती की शादी तय कर दी गयी. सगाई होते ही दोनों लड़कियों को जैसे घर के बाड़े में रोक दिया गया, उनके खेलने पर भी पाबंदी लगा दी गयी और दो ही महीने के भीतर दोनों सहेलियां अपने घर वालों की थमाई हुई ससुराली दुनिया के चित्रपट में इस कदर गुम हो गयी फिर बरसों के बाद बुढापे के ढहते हुए दौर में दोनों के मिलने का संयोग बैठ सका. दोनों जब दुबारा मिली तो इस कदर टूट कर मिली कि देखने वाले आज के दौर की इस सुहानी दोस्ती पर इर्ष्या कर बैठता. आज भी चार पांच दिन मुलाकात के अंतराल में दोनों सखी आपस में गांव भर की बातें ना कर लें तब तक दोनों के कलेजे की व्याकुलता शांत नहीं होती.
पिछले कुछ दिनों से सोनतारा मौसी को ज्वर चढ आया और उसपर फिसल कर गिर जाने से वह अपनी खाट में सिमट कर रह गयी थी. इस बीच सखी गुणवंती के छोटे बेटे का विवाह भी इसी हफ्ते संपन्न हो गया, गुणवंती अपने घरेलू व्यापार में व्यस्त हो गयी थी कि सोनतारा की खबर भी ना ले सकी.
कहते हैं दोस्ती कहीं दूर नहीं जाती सो ये दोस्ती भी कहीं नहीं गयी और
बचपन की इस चुलबुली दोस्ती के पुनः मिलन का संयोग दस साल पहले बना जब गुणवंती के पति सूबेदार सूरज सिंह, रिटायरमेंट के बाद सपत्नीक अपने पुश्तैनी गांव देवपुरा की सरज़मी पर लौट आये तब के बाद से ही सोनतारा मौसी और गुणवंती की बचपन की आधे में छुटी हुई दोस्ती इस बुढापे में आ कर पूरी हुई और ना केवल पूरी हुई बल्कि और भी गहरी छनती चली गयी और आज भी जब ये दोनों सहेलियां बचपन के पीछे कहीं छूटे हुए मुहावरों को फिर से गढती हैं तो आसपास की हवा, बहनापे के सुर ताल-लय में बहने लगती है.
आज इस वक्त गुणवंती अपनी नई बहू को आवाज़ देते हुए एक पल को भूल गयी कि बहू कान्ता को इस ससुराल में आये हुए महज दो ही दिन हुए हैं. वह ठीक से अपने ससुराल के भूगोल से परिचित नहीं हो सकी है. इस बात का भान होते ही, गुणवंती अपनी भूल सुधारती हुई बोली.
‘ठहर तुझे ना मिलने का कुछ, मैं ही लेकर लाती हूँ’
नहीं माताजी, आप बैठे रहो मैं ढूँढ कर लाती हूं.
दो पल में नई नवेली बहुरिया कान्ता ने मुढ्ढा ला कर फर्श पर होले से आगे की ओर खिसका दिया. कान्ता के हाव-भाव से मीठी कोमलता टपक रही थी और गुणवंती अपनी छुईमुई बहु के कोमल स्वभाव के ओस में भीगी जा रही थी.
बैठ सोनतारा बैठ, गुणवंती सोनतारा की तरफ एकटक देखते हुई बोली. अब कैसी तबीयत है तेरी.
‘बस टेम आ लिया स ए गुणवंती’, सोनतारा चेहरे पर दुःख की सिलवटे समेटती हुई जैसे एक-एक शब्द को चबा-चबा कर बोल रही थी.
भारी-भरकम देहधारी सोनतारा मौसी मुढ्ढे पर विराजते ही नई बहू पर नज़र टिकाते हुए बोली,
“कद-काठी तो सुथरी स बहु की, देखण में भी सुथरी लगे स, दहेज चोखो लाई है के ना”.
सोनतारा की मुहफटता से सोनतारा अच्छे से वाकिफ थी एक पल को कौंधने के बाद वह सोनतारा को कुछ बोलने को हुई. पर
सोनतारा कुछ सुने तब ना वह तो बेखबर हो लगातार बोले ही चली जा रही थी.
“सुरजा नम्बरदार की बहू चालीस तोले सोना लाई थी. पूरे गांम मह रुक्का पड़ गया था. आजकल की बहू तो टूम-ठेकरी भी घणी ना लांदी.”
बरसों शहर में रह चुकी गुणवंती हिंदी और हरियाणवी दोनों परोसने में खूब माहिर है. हिंदी बोलते-बोलते वह किसी भी वक्त तेज़ी से हरियाणवी में शिफ्ट हो जाती है और दूसरी और सोनतारा मौसी टूटी-फूटी हिंदी ही बोल पाती है.
कहीं कान्ता बहू को बुरा ना लगे सोनतारा मौसी की कोई बात यह सोच कर कुछ ऊँची आवाज़ में गुणवंती बोल उठी,
‘हाँ हाँ खूब धन लाई है मेरी बहु और चेहरा देख कर तो तूं हैरान हो जायगी सोनतारा, बहु हीरे की कनी से कम ना है.’
अपनी सास की बात पर बहूँ के एकाएक फुर्ती से आ गयी वह अपनी सास गुणवंती का वाक्य पूरे होने से पहले ही झुक कर सोनतारा मौसी के पाँव दबाने लगी.
‘जीती रह बेटी, जुग जुग जी, अपने ससुराल प राज जमा”
यह कहने के साथ ही सोनतारा मौसी ने नई-नवेली बहु का सतरंगी घूंघट पलट दिया.
“साची चाँद का टुकड़ा लाई स ईब काल तो तू गुणवंती. पहली आली बहू तो टाट पर पैबंद लागे स. उसते इक्कीस स या बहु और गौरी भी घणी स.
‘थारी माहरी तरियाँ काली कलूटी कोणी’
कह कर सोनतारा मौसी ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी,
सोनतारा की इस छेड से गुणवंती का मुहं हल्का सा मलिन पड़ गया. नई बहू पास में बैठी थी और उसके आगे खुद गुणवंती को कमतर नहीं दिखना चाहती थी. वैसे भी संसार की कौन सास चाहती है कि वह अपनी बहू के आगे फीकी दिखे. यूँ भी गुणवंती कौन सी कम थी. पांच फुट ७ इंच लंबी, सुन्दर लंबा चेहरा, सुतवा नाक. उसकी बेटी और बेटियों की सहेलियां तो अपनी माँ गुणवंती के चेहरे का मिलान अभिनेत्री डिम्पल कपाडिया से किया करती थी. सच भी था गुणवंती की भूरी-बदामी आंखे तो पूरी उस अभिनेत्री जैसी ही खूबसूरत थी. हाँ, रंग जरूर थोडा सांवलेपन के नजदीक जा बैठता था और ऊपर से अपने पति सूबेदार सूरज सिंह की लाडली थी गुणवंती और खुदा के फज़ल से आज भी है. घर की हर कमरे की दीवार पर गुणवंती की तस्वीर नुमाया ना हो यह हो ही नहीं सकता. ये अलग बात है कि गुणवंती सभी तस्वीरें लगभग एक ही पोज़ में खिंचवाया करती थी. वैसे भी निपट निरक्षर औरतें फोटो खिंचवाते वक्त ज्यादा शगल करना पसंद नहीं सो गुणवंती भी एकदम तन कर फोटो खिचवाती हैं, कुछ इस तरह अकड कर जैसे कैमरे को देखकर एकदम सहम गयी हो. पति और बच्चों के लाख बार समझाने और मजाक उड़ाने के बाद भी गुणवंती की यह आदत नहीं गयी. आज भी कैमरे को अपने सामने पाते ही वह ‘सावधान’ की मुद्रा में आ जाती हैं. जब वह शहर में अपने पति के साथ रहा करती तो ज्यादातर सिल्क की साड़ी ही पहना करती थी और सिर पर पल्ला नहीं रखती थी. पूरी मेम के से ठाठ थे गुणवंती के. पर बाद में पति सूरज सिंह के सेवा अवकाश के बाद अपने पुश्तैनी गांव में आकर रहने पर परम्परानुसार सिर पर पल्लू रखना ज़रुरी हो गया गुणवंती के लिए. गुणवंती के पति का मन ठेठ देहाती था उनका मानना भी था, जैसा देश हो वैसा ही इंसान का भेष भी होना चाहिए. गाँव में आने के कई दिनों बाद तक तो गुणवंती को अपने सिर के पल्लू का होश ही नहीं रहता था. जब उसके पति की टेढ़ी निगाहें उस पर टिकती तो वह हडबड़ाहट से एकदम अपना पल्लू ठीक कर लेती और बड़बड़ाते हुए बोल उठती “इस उम्र में भी आप हमें चैन से जीने नहीं देते”
कुछ देर पहले सोनतारा मौसी द्वारा बोले गए उस झटकेदार बोल से उबर कर गुणवंती बाहर निकली तो सामने क्या देखती है कि
नई बहू कान्ता अब भी सोनतारा मौसी के पांव दबाये जा रही है और सोनतारा मौसी, कान्ता के सोने के बड़े वाले हार को थाम कर बड़े गौर से देख रही है. मौसी के इस तरह गर्दन उचक कर देखने से नई बहु की गर्दन में खिंचाव आ रहा है पर सोनतारा मौसी को इस बात का अहसास नहीं है और नयी-नवेली बहू भी शर्म के तकाज़े से चुप है.
गुणवंती को एकबारगी उन दोनों पर एक साथ ही गुस्सा आया पर गुस्से को अपनी जीभ के अगले हिस्से में ही समेट कर उसने कहा
‘अरी बहू बस कर, बहुत हुआ’ और अपने बाएं हाथ से कान्ता की पीठ पर थपकी देती हुई कहने लगी.
“ईब भीतर जा के तेरी पेटी मह तै जेवरा आला डिब्बा ले आ.
कान्ता धीरे से बिना किसी आवाज़ के उठी और सामने के कमरे में जाकर भीतर से दो मिनट में ही लौट आई उसके हाथ में एक बड़ा सा डिब्बा ला था जो उसने अपनी सास गुणवंती की गोद में रख दिया.
गुणवंती ने अपनी बड़ी बहू सुमित्रा को खरीद कर सोना डाला था. पर छोटे बेटे की बहू को उसने अपने परिवार का वह पुश्तैनी सोना दिया था जो उसकी सास ने कभी नई बहू के तौर पर उसे चढाया था, ज्यों का त्यों वह सोना गुणवंती ने अपनी इस छोटी बहू कान्ता को भेंट कर दिया, जेवर देते हुए गुणवंती ने अपनी बहू को यह हिदायत भी दी कि वह इनमें से किसी भी जेवर को तुड़वा-गलवा कर कोई दूसरा जेवर ना बनाये, घर की पुरानी विरासत को हमेशा सहेज कर रखे. औरतों का जेवर प्रेम यहाँ भी खूब ज़ोर मार रहा था.
और दूसरी ओर थी सोनतारा मौसी, जो पूरे गांव में अपने जेवर प्रेम के लिए प्रसिद्ध हुआ करती थी. अपनी जवानी के भरे-पूरे दिनों में वह ऊपर से लेकर नीचें तक जेवरों से ढकी रहती थी. वो तो जाता समय अपने साथ उसके सारे जेवर ले गया और आज उसके पास नाक की एक सोने की कील के सिवा कोई दूसरा जेवर नहीं है.
उसी वक्त गुणवंती को भी जैसे कोई जरूरी बात याद आई, पुरानी परछाईयों से पिंड छुटा कर वह थकी सी आवाज़ में बोली तो लागा जैसे अपनी सहेली का दुःख गुणवंती ने ओढ़ लिया हो.
‘बहु यह सोनतारा एक ज़माने में सोने की पूरी की पूरी खान हुआ करती थी’
सोने से लदी-फदी सोनतारा को मैंने तो सिर्फ तस्वीरों में ही देखा पर गांव के लोग बतातें है सोनतारा एकदम सेठानी लगा करती थी उन दिनों.’
अपने सहेली की बात सुन सोनतारा भी द्रवित हो उठी थोड़ी हुलस कर बोली, ‘ईब तो सारा राज़ पाट खत्म हो गया तेरी इस सोनतारा मौसी का बहू.
कीमे कोनी बचा आज के बखत.’
छोटी बहु समझदार थी माहौल को ग़मगीन होता देख. बातों का रुख दूसरी ओर मोड लिया और सोनतारा मौसी की तरफ मुखातिब हो कर बोली
‘मौसी मुझे पारंपरिक जेवर सुन्दर तो बहुत लगते हैं पर इनका नाम क्या है और इन्हें कहाँ पहना जाता है मुझे तो ये भी नहीं मालूम’.
तब सोनतारा अपने रंग में लौट आई झट से बोली.
‘ल्या उरै ल्या, खोल इस डिब्बे नै.
बहु ने अपनी छोटी सी पेटी का ढक्कन उलट दिया जिसके भीतर ढेर सारे जेवर सांप की तरह अपनी काया सिकोड़े हुए बैठे थे.
सोनतारा मौसी एक-एक जेवर को उठा कर एक मास्टरनी की तरह बहू को समझाने लगी.
यो देख यो स पैरां की कड़ी,
ये छैलकडे, अउर पाती, नेवरी, गिट्टियां आली, झाँझन, ये पैजेब देख.
ये सारी पैरां की टूम( जेवर) स.
कदे तो मेरी पींडियां पर पैजेब रहा करदी, मौसी अपनी सलवार का पौंचा ऊपर कर के अपने पैर दिखाने लगी, फिर खुद मुग्ध हो कर अपने पैरों को देखने लगी जैसे अपने गुजरे हुए पुराने दिनों में लौट गयी हो. मेरे पैरां की पींडियां पर इन खिनायोडे मोराँ नै देख ए बहु (मौसी ने अपने पैरों पर मोरों के टैटू बनवा रखे थे)
अरे बहुत सुंदर हैं. लग रहा ही कल ही नए गुदवाएं गए हैं. बहू कान्ता चहकती हुयी बोली.
अर यो नाड़ा सै. मौसी के एक लंबे से जेवर को उठाते हुए कहा, इसने उरे कमर में नाड़े की ढाल टांगा करैं स..
फिर हंसते हुए सोनतारा मौसी ने उसे अपने कमर पर लपेट लिया और बोली यो देख, मेरा बाजना नाड़ा.
कान्ता मुस्कुराते हुए बोली, अच्छा जब भी मैं, ‘बाजंदे मेरा नाडा’
गीत सुना करती थी तब सोचती थी कि भला नाडा कैसे बज सकता है.
इस पर सोनतारा मौसी ठठा कर हंस पड़ी.
अर देख ये स हाथां के कडुले, हथफूल या...गले की हंसली. तेरी चांदी की टूम तो मने बता दी, बाकी सोने आली टूम कदे और बताउंगी ईब तो नाड( गर्दन) दुःखण लागी मेरी.
सोनतारा मौसी अपनी गर्दन को दोनों तरफ घुमाती हुई बोली
‘ईब तेरी जेठानी ने रुक्का मार दो कप चा बनान खातर’.
दीदी तो ऊपर चौबारे की सफाई कर रही हैं. मैं बना कर लाती हूँ, छोटी बहू अब तक दोनों सखियों से सहज रिश्ता बना चुकी थी.
नहीं बहू तू रहने दे. अभी तो हथेलियों की मेहंदी भी नहीं उतरी है. अबकि बार मायके से लौट कर आयेगी तब घर के कामकाज में हाथ बंटाना.
‘जा टीनू को कह दे, दो कप चाय ही तो बनानी है’. गुणवंती बोली.
‘ठीक है मांजी’, कह कर कान्ता,
टीनू को बुलाने के लिए भीतर चली गयी.
गुणवंती इस बात अच्छी तरह से जानती है कि उसकी बड़ी बहू सुमित्रा, सोनतारा मौसी की तरफ देखना भी गंवारा नहीं करती.
पर घर की बहू होने के कारण वह कभी सीधे-सीधे अपना गुस्सा प्रकट नहीं करती है. गुणवंती यह भी अच्छे से जानती है उसकी अपनी बहु और पूरा गांव क्यों सोनतारा मौसी से खार खाता है. पड़ोस के कालू की बहू ने गुणवंती की बड़ी बहू सुमित्रा के कान इस कदर भर रखे हैं कि पूछो ही मत.. हर गांव में एक खासी चुगलखोर औरत हुआ करती है जिसका स्वास्थ्य उसकी चुगलियों की खुराक से ही बना रहता है. कालू की बहू भी ठीक उसी तबियत की औरत है.
जब भी सोनतारा मौसी, गुणवंती से मिलने उसके घर आती है तो हर बार की तरह सुमित्रा बहु माथे पर त्योरियां डालते हुए चाय-पानी बना ही लाती है और ये सिलसिला आज तक चला आ रहा है और आज भी ऐसा ही होने वाला है. ऐसा भी नहीं है कि हमारी सोनतारा मौसी कुछ समझती बुझती नहीं. सोनतारा मौसी तक सुमित्रा की नाराजगी संप्रेक्षित हो ही जाती है.
तभी ऊपर चौबारे से नीचें झांक कर देखती हुई बड़ी बहू सुमित्रा ने अपनी सास गुणवंती को कहा,
‘माँजी टीनू को आवाज़ देना ज़रा’ झाड़ू ले आए ऊपर.
‘बहू टीनू रसोई में है ठहर मैं लेकर आती हूँ’.
कहती हुई गुणवंती खुद ही उठ कर कोने में पडी झाडू ले कर ऊपर चौबारे की सीढियां चढ़ने लगी. उसे देख सुमित्रा तेज़ी से नीचे आ कर सास के हाथ से झाड़ू लेकर चुपचाप ऊपर लौट गयी.
गुणवंती ने देखा सुमित्रा के चेहरे की रेखायें कुछ खिची-खिची सी हैं.
कल उसके बेटे रमेश ने नयी बहू कान्ता को लेकर अपनी पत्नी सुमित्रा को तंग करने के उद्देश्य से कुछ ठिठोली की थी उसी बात से सुमित्रा खिन्न है.
रमेश तो पैदायशी शरारती है, बदमाशी की उसी आलम में उसने अपनी पत्नी को छेड़ते हुए कह दिया कि
‘नई बहु के आते ही उसके कमरे में पंखा लगाया जा रहा है देख लेना अब तेरी पूछ इस घर कम हो जायेगी और दोनों दीदियाँ भी नई बहु के आगे पीछे घूम रही हैं तुझे तो उन्होंने कभी नहीं सजाया,
अरे नहीं ऐसा कुछ नहीं है कान्ता के बाल खूब लंबे है उसे सुलझाने में मुश्किल होती है ना, सुमित्रा ने अपनी ओर से सफाई देते हुए जवाब दिया.
तो क्या उसके मायके में कोई ना कोई उसके बाल संवारने की ड्यूटी में लगा रहता है.
मुझे क्या मालुम सुमित्रा मुहँ बना कर बोली, आप खुद ही पूछ लीजिए नयी बहू से.
जब सास गुणवंती के कानों में पति-पत्नी की नोक-झोंक पडी तो वह बोल उठी. बेटा रमेश तुम तो हमेशा औरतों की तरह चुहल करते रहते हो .
अच्छा माँ क्या औरतें ही चुहल कर सकते हैं मर्द नहीं, कह कर वह ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा.
चल बदमाश, गुणवंती अपने इस मलंग लड़के की बदमाशियों से पीछा छुडवा कर बाहर आंगन में आ गयी.
सच तो ये था रमेश खुद अपने छोटे भाई गणेश की नई ब्याहता की सुंदरता और सुगढ़ता को देख ठगा सा रह गया था. कान्ता एक ताजगी की तरह घर में महकती घूम रही थी जबकि उसकी पत्नी सुमित्रा ने जब बहु के रूप में इस घर में पाँव रखा था तो, सबने पहली ही झलक में अच्छी तरह देख-भान लिया था कि नयी बहू तो हद तक फूहड़ता की रानी है. बात-बात पर उसे टोकना पड़ता था, हर काम करवाने से पहले उसके सामने सावधानी का अलार्म बजाना पड़ता था. यही कारण था जब रमेश अपनी इस ब्याह्ता को अपने साथ शहर ले कर जाने लगा तो उसे बार-बार यही डर सताता रहा कि कहीं दोस्तों के सामने सुमित्रा की उलजुलूल हरकतों से उसकी खिल्ली ना उड़ जाए.
शहर में आने के शुरुआती दिनों में एक बार रमेश और उसका छोटा भाई गणेश सुमित्रा के साथ खरीददारी करने एक आलीशान मॉल में गए तो सुमित्रा के भरी भीड़ के बीच अपने शरीर को फूहड़ तरीके से खुजलाने को देख रमेश और उसके देवर गणेश ने सुमित्रा को कस कर डपट दिया. सुमित्रा नई-नई अपने ससुराल में आई थी तो अपने मायके की लायी हुई सारी चीजों मुस्तैदी से ताला भीतर बंद कर देती थी. यह सब देख कर एक दिन सुमित्रा के देवर गणेश सिंह ने उसे टोक ही दिया. “भाभी इस घर में तुम्हारी सुई जितनी चीज़ भी गुम नहीं होगी इतना ताला ठोकी करने की जरुरत नहीं है”.
उसके बाद ही सुमित्रा ने यह चौकसी कम की. इसी तरह खाना बनाने का भी शऊर नहीं था उसे ढेर सारा खाना पका लेती जो इंसानों के खा चुकने के बाद ढोर-डंगरों के काम आता. ठेठ गांव की पैदाईश सुमित्रा लाख समझाने से भी सुधर ना सकी और कहाँ यह कान्ता कोमलता की बेल और एकदम सुगढ़-सरल लड़की जिसकी चाल-ढाल, हाव-भावों में बला की नफासत टपकती थी.
इस घड़ी भी बड़ी बहु सुमित्रा फूहड़ता का परिचय देती हुई ज़ोर-ज़ोर से झाड़ू लगा रही है.
गुणवंती को छत से उडती धूल की धांस अपने नुथने में घुसती महसूस हुई और उसकी साँस लडखडाने लगी, उसने ज़ोर देते हुए सुमित्रा को आवाज़ लगाई.
“बहु ज़रा धीरे-धीरे झाड़ू लगा धूल यहाँ नीचें तक आ रही है.
इधर नई बहु कान्ता को अपने ससुराल आये हुए ४६ घंटे बीत चुके थे पर वह समझ नहीं पा रही है कि ससुराल में उसके लिए कौन सा कमरा ठीक किया है. पहला दिन तो रतजगा में गीतों से घिरी औरतों के बीच बैठे- बैठे ही बीत गया. जिस कमरे में कान्ता को पहले-पहल बैठाया गया था वहाँ उसके और पति गणेश के थापे की रस्म का कार्यक्रम था. अब उस सजी –संवरी दीवार वाले छोटे कमरे में उसका मायके से लाया हुआ सामान अटा दिया गया है और इधर कान्ता के ससुराल वालों का विचार यह हैं कि आज की ही बात है. कल सुबह नयी बहु अपने मायके चली जायगी और जब एक हफ्ते के बाद मायके से आयेगी तब सब चीजें व्यस्थित कर उन दोनों नवदम्पतियों में लिए नए कमरे का इंतजाम हो जायेगा .
गुणवंती की कोलकत्ता में रहने वाली बड़ी बेटी रीना की बेटी है टिंकू. दसवीं कक्षा में पढ़ती है परिपक्व और प्रखर आजकल वह नयी बहू की सहेली बन गयी है. जो बात नई बहू होने के शर्म के दबाव में कान्ता किसी से नहीं कह पाती वह बात आसानी से टिंकू से शेयर कर लेती है.
ससुराल में आने के कुछ घंटे के बाद ही टिंकू, कान्ता की जुबान बन गयी थी. टिंकू कभी कहती
‘बाथरूम जाना है मामी को’.
‘मामी को कपडे बदलने हैं’
मामी को नींद आ रही है
अपनी सुंदर मामी के बगलगीर ही बनी रहती टिंकू.
“शहर आली चा बनाई है छोरी ने, उरे गाम मह तो जमा चासनी आली चाय बनावे स बेटी. के नाम स तेरा तावला सा बोल्या भी कोणी जांदया
गुणवंती ने कहा- टिंकू
उधर से टिंकू बोल उठी -नहीं लावण्या
इस पर गुणवंती और बहु कान्ता जोरों से हंस पड़ी
के, लावणा सोनतारा ने मशक्कत से नाम दोहराने की कोशिश की.
रहण दे सोनतारा तेरे बस की बात कोनी, गुणवंती ने ठिठोली की.
इस बीच बड़ी बहु सुमित्रा ज़ोर से पैर पटकती नीचें आ गयी.
दीखन तह कतीए रह गया मने तो, सोनतारा मौसी का बोलना धाराप्रवाह जारी था.
डॉक्टर को दिखा लो अपनी आँख मौसी, नयी बहु ने कहा, मैं जानती हूं गाँव की महिलाएं अमूमन अपनी आंखे दिखाने में परहेज़ करती हैं, मेरी दादी ने अपनी धुंधली आखों में ही पूरी उम्र निकाल दी इस जिद में की उसे कौन सा पढ़ना लिखना है.
सच कह रही थी छोटी बहू, सोनतारा मौसी भी नहीं जानती थी की उन्हे कम दिखने लगा है बस अपनी बढ़ती उम्र को ही कोसती रहती थी हर वक्त.
“बहू मेरे तो घुटने भी कती ऐ रह लिए किस-किस का इलाज करवाऊ, दो टूक मिल जा टेम पार वो ऐ बड़ी बात स”. उठते उठते सोनतारा मौसी ने फिर अपने गठिया के दर्द को चिर परिचत अंदाज से कोसा.
सोनतारा को जाते देख सुमित्रा बहु ने मौसी की पीठ पर अपनी कड़क जुबान से जैसे वार किया. “ सोनतारा मौसी को तो गप्पे लड़ाने से ही फुर्सत नहीं है. एक हम हैं जिसे काम- काज से घड़ी भर भी फुर्सत नहीं मिलती.
गांव देवपुरा की सोनतारा मौसी और उनके जीवन की कद- काठी
देखने में सोनतारा मौसी कोई खूबसूरत महिला नहीं है पर जैसा की देवपुरा गाँव का मुखिया अपने पुरुषवादी दंभ में अक्सर कहा कहता है.
“लुगाई तो लुगाई ही होती है.” जाहिर है टोंट की बोली में वह इस वाक्य में स्त्री के पक्ष में अच्छाई पेश नहीं करता, उसके चेले-चपाटे भी उसकी इस सोच को हवा दिया करते हैं. इस कहानी में हमारा सरोकार उस सोनतारा मौसी से है जो देवपुरा गांव की बहु, नूरपुर गाँव की बेटी, जमींदार सूबेदार सूरज सिंह की ब्याहता गुणवंती की रिश्ते की मुहबोली बहन के रूप में जानी-पहचानी जाती है, अगर सोनतारा मौसी के इस परिचय से आप संतुष्ट ना हुए हो तो सरकारी स्कूल के मास्टरों की माँ और दो मुहंफट-बददिमाग बहुओं की सास और इससे आगे बढ कर सोनतारा मौसी के परिचय में जो जनश्रुति है वह है सोनतारा मौसी यानी, दो खस्मों की लुगाई.
तो दो खस्मों की यह लुगाई, माफ करिएगा सोनतारा मौसी को उसके सामने तो सभी मौसी-मौसी कहा कहते पर उसके पीठ मोडते ही उसी वाक्य का उपयोग कर डालते जिसका प्रयोग हमनें ऊपर किया है.
वैसे तो सोनतारा मौसी गुणवंती की दूर के एक गरीब रिश्तेदार की बेटी थी और उसका ब्याह गुणवंती के साहूकार पिता ने दान दक्षिणा देकर करवाया था. एक तरह से उन्होंने सोनतारा की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर उठा ली थी. पढाई तो उस वक्त लड़कियों से काफी फासला बनाये हुए थी सो जब सोनतारा चौदह साल की हुई तो साहूकार ने अपनी लाडली बेटी गुणवंती के ससुराल में से ही एक किसान लड़के को दूंढ कर उससे सोनतारा की शादी करवा दी. सोनतारा का गरीब पिता, साहूकार के इस दरियादिली से कृत-कृत हो उठा. मासूम सोनतारा दो साल तक तो अपनी शादी के सपनों में ही डूबती उतरती रही थी. लेकिन उसके सभी सपनें उस वक्त हवा हो गए जब दो वर्ष के बाद उसका गौना हुआ. ससुराल की देहरी में पग धरते ही सोनतारा के नाजुक पावों में जैसे एक-एक कांटे चुभने लगे.
उसके सास-ससुर बरसों पहले दिवंगत हो चुके थे ससुराल में जेठ और जेठानी का हुकुम चलता था और जेठानी थी साक्षात् चुड़ैल का नवीनतम अवतार. मासूम सोनतारा दस साल तक अपनी जेठानी के ज़ुल्म दिन रात सहती रही. प्रताडना के इस नर्क से छुटकारा उस वक्त मिला जब सोनतारा और उसके पति को दूसरे नंबर के जेठ ने अपने पास रहने के लिए इंदौर बुला लिया, ये जेठ बीमार रहा करते थे सो सेवा-टहल के लिए दोनों पति-पत्नी ने इंदौर का टिकट कटवा लिया. जेठ ने अपने शहर की एक छोटी सी मिल में सोनतारा के पति की नौकरी लगवा दी. दूसरे नंबर के ये जेठ सुजान सिंह कई साल पहले गांव से निकल इंदौर बस गए थे.
इस बीच बड़े लड़के की शादी करवा कर माँ-बाप गुज़र गए और उनकी शादी की किसी ने और खुद जेठ सुजान सिंह ने सुध नहीं ली. अकेले अविवाहित जेठ के घर में सोनतारा और उसके पति के आ जाने से घर की रौनक बढ़ चली थी. बरसों- बरस जेठ के घर में रहते, जेठ की सेवा टहल करते-करते ना जाने कब और कैसे जेठ नाम का उस दूसरे पुरुष ने एक दिन सोनतारा के लिए मर्द का रूप धारण कर लिया. ये तो कुछ समय के बाद ही जान सकी सोनतारा कि यह सब सोची समझी चाल थी उसके पति और जेठ की बीच. ये सब अक्समात नहीं घटा था.
इस प्रकरण में उसके अपने पति की मौन सहमति सोनतारा को एकबारगी हिला गई थी, फिर खुद ही सोनतारा ने इसे अपनी नियती मान कर इसे स्वीकार कर लिया था. जिसके कारण ही उसके जेठ की हिम्मत बढ़ती चली गयी. अब वह दो पुरुषों के बीच में मौनता धारण करती हुयी एक कठपुतली की तरह पेश आती. दिन जिबह होते जा रहे थे और सोनतारा अपने में ही सिमटती रहती और कर भी क्या सकती थी. उसके आगे कुआ था पीछे खाई.
सच है छुपा कर रखी जाने वाली चीजें ज्यादा जल्दी सामने आती हैं और यह भी देर तक छुपी ना रह सकी. गांव से जो भी शख्स इंदौर आता उसे लाख छुपाने के बाद भी इस सोनतारा, उसके पति, और जेठ सुजान सिंह के त्रिकोण का भान हो ही जाता. जंगल में आग की तरह यह बात फ़ैलती गयी और साथ ही सोनतारा पर दो खसम रखने का ठप्पा भी गहराता चला गया.
इस बीच जब भी सोनतारा अपने ससुराल जाती तो गांव की सभी महिलायें उससे बात करने से कतराती और यदि करती भी तो खोद-खोद कर ढके-छुपे किस्से पूछा करती. गाँव की अपने सगे-सम्बन्धियों और अपने साथ इस गांव में ब्याह कर आई बहुओं का यह बर्ताव सोनतारा को भीतर तक दुःख देता. वह खुद भी तो पत्थर ही बन गयी थी अपने साथ घटी परिस्तिथियों के चलते. बाद के कुछ साल तक अपने ससुराल जाने का उसका मन ही ना हुआ. सोनतारा मौसी के पति ही साल में एक दो बार खेती-बाड़ी की देखभाल को चले जाते जेठ का तो गांव से वैसे भी कोई नाता नहीं था.
साल दर साल सोनतारा मौसी उसी कहानी को दोहराती चली गयी. उसके जीवन की इस तिकोनी कहानी का समापन उस वक्त हुआ जब उसका पति मिल की एक चलती हुई मशीन की चपेट में दम तोड़ गया और उसके एक साल बाद ही एक दिन जेठ भी ह्रदयाघात भी चल बसा, पीछे रह गई थी निरक्षर सोनतारा और उसके दो छोटे बच्चे. सोनतारा अपने पड़ोसियों की मदद से जैसे तैसे ससुराल देवपुरा आ गयी और गांव वालों की टेढी नज़रों से बचती बचाती हुई अपने हिस्से के जमीन के टुकडे पर खेती कर गुज़र बसर करने लगी.
बेचारी सोनतारा मरती क्या ना करती, ससुराल में वही जालिम जेठानी थी जो नित नए हथकंडे सोनतारा को परेशान करने के लिए अपनाती. इधर सोनतारा के सारे गहने और यतन से जोड़ी गयी जमा पूंजी, बच्चों की पढाई में खत्म होने लगी. उस पर गाँव की महिलाएं सोनतारा से रूह ना जोड़ती. बेचारी सोनतारा किसी से बोले, बात किये बिना ही अपना दुखडा हजम करती रहती. दिन बीतते ना बीतते उसके दोनों लड़के गांव के स्कूल में मास्टर हो गए. फिर सोनतारा के घर आई बहुएं जो हुबहू सोनतारा की जेठानी जैसी ही थी.
बुढी हो चली सोनतारा के दुःख एक पखवाडे तक गोल –गोल कर घूमते रहे और चक्करघिन्नी की तरह घूम-घूम कर सोनतारा की पांवों के नज़दीक आ टकराते. दोनों बहुओं के कानों तक सोनतारा के अतीत की कतरनें भी पहुँच गयी थी जिसको केंद्र में ला कर दोनों बहुएं दिन-रात अपनी सास सोनतारा को ये बोल सुना-सुना कर पटकनी दिया करती थी.
‘दो-दो खसमों की कमाई से भी पेट नहीं भरा इस औरत का तो अब हम कैसे भरेंगे.”
करवट लेते नए जमाने की नई बहू
कभी सोनतारा की बाल सखी गुणवंती के पति इंडियन आयल की नौकरी में थे. देश के कई हिस्से में उनका तबादला होता रहा. वे गर्मियों की छुट्टियों में अपने पुश्तैनी गांव देवपुरा जरूर आते. इस दौरान जब भी गुणवंती परिवार के साथ अपने ससुराल पहुँचती, उस के पीछे-पीछे उसकी सखी सोनतारा के तमाम किस्से भी पहुँच जाते.
‘सोनतारा की जेठानी ने सोनतारा की नाक में दम कर रखा है, बेचारी सोनतारा दिन-भर खेतों में खटती रहती है, सोनतारा का दूसरा बच्चा भी पेट में रह गया है, सोनतारा अपने पति के साथ इंदौर चली गयी है. वहाँ जाकर उसने अपने दूसरे नंबर के जेठ को काबू में कर लिया है आदि, आदि....सोनतारा से जुडे कई किस्से देवपुरा की रेतीली हवाओं में परिक्रमा करते रहते. गुणवंती को अपनी बचपन की सहेली के साथ घटने वाले हादसों से बेहद चोट पहुँचती फिर भी कभी-कभार वह खुद सोनतारा विरोधी लहर की चपेट में आ जाती. उसे सोनतारा पर गुस्सा आने लगता तो कभी वह विश्वास करती की सोनतारा जैसी नेक महिला कभी भी गलत नहीं हो सकती उसे जबरन गलत बना दिया गया है और अब तो वह दोहरी तरह से विधवा हो कर अपने दम पर गुज़र- बसर कर रही है पर गांववाले अब भी उस मजबूर और लाचार महिला से सहानुभूति नहीं कर पा रहे हैं.
कुछ वर्षों बाद जब गुणवंती के अपने ससुराल में हमेशा के लिए बस गई तो सोनतारा को बैठने, गिला-शिकवा और स्नेह भरा एकलौता घर मिल गया. इन दोनों सखियों के मेल मिलाप चलता रहता. ऊपर गुणवंती के घर की झलक इसी मेल-मिलाप की एक बानगी भर थी.
इस बीच गुणवंती की छोटी नई-नवेली बहु कान्ता अपने मायके भी दो बार हो आई. उसे अपने ससुराल में आये चार महीने हो गए है. अब वह पूरी तरह से रम गयी है ससुराल के माहौल में. उसके डॉक्टर पति गणेश ने यह फैसला लिया है कि वे दोनों इस महीनें के अंत में दिल्ली जा कर अपने जीवन की नई शुरुआत करेंगे और कान्ता अपनी वकालत की पढाई जारी रखेगी.
आज भी गुणवंती के आंगन में सोनतारा मौसी, गुणवंती और छोटी बहु कान्ता की महफ़िल अभी-अभी भंग हुई थी. सोनतारा लाठी टेकती हुई अपने घर चली गयी है. कान्ता अपनी सास गुणवंती के साथ बैठी हुई है. प्रसंग सोनतारा का ही चल रहा है.
गुणवंती चेहरे पर अवसाद की खड़ी रेखाओं में घिरी हुई बोल रही है.
‘बेचारी सोनतारा के घुटनों में अब ज्यादा दर्द रहने लगा है. जम कर अपने खेतों में काम कर सोनतारा ने दिन-रात एक कर दिये थे. देर रात तक खेतों में पानी की बारी आने पर अकेली ही लगी रहती.अपने बच्चों को लिखाया पढाया और देखो कलयुग की मार उसके अपने बेटे भी बहुओं की देखा देखी अपनी माँ को तंग करने लगे हैं. दूसरों को क्या कहे अपनी सुमित्रा भी सोनतारा से यूँ चिढती है जैसे इसका कुछ ले कर खा रखा हो बेचारी ने.
कान्ता इन दोनों सहेलियों की रसरंग से भरी बैठक में आंनद उठाया करती थी. रात घिर आई थी दोनों सास बहु जब इस महफ़िल से उठने लगी तो सामने की कच्ची रसोई में बाजरे की खिचड़ी हारे में रखती हुई बड़ी बहु सुमित्रा ने हमेशा की तरह अपने मुहँ से एक कुटिल बाण छोडा,
इस औरत को काम धाम तो है नहीं रोज़ आ जाती है यहाँ गप्पे मारनें, बड़ी चालू चीज़ है यह बुढिया, जवानी में इसने अपने जेठ को फंसा रखा था और दो- दो आदमियों की कमाई पर मौज मारा करती थी. उस वक्त इस औरत का घमंड देखते ही बनता था तब सारे गांव की औरतों की छाती पर इसके जेवरात देख कर सांप लौटा करते थे. अब इस बुढापे में दोनों में से कोई खसम नहीं बचा,इसकी बहुएं और बेटे भी अब इसे घास नहीं डालते तब रोती पिटती यहाँ चली आती है.
सुमित्रा दीदी की बात सुन गुणवंती तो कुछ नहीं बोली पर छोटी बहू उसी वक्त बोल उठी. इसमें सोनतारा मौसी का क्या कसूर था भला सुमित्रा दीदी, जो कुछ भी हुआ मौसी के पति की सहमति से ही हुआ और तुम नहीं जानती हो क्या हमारे समाज में एक औरत को जीने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं औरत की मजबूरी को आज तक किसीने समझा है भला.
कान्ता के चेहरे का तेज़ देखते ही बनता था उस वक्त. सास गुणवंती को जैसे एक बड़ी राहत मिली हो सोनतारा के पक्ष में अपनी बहू को बोलता हुआ सुन कर.
मुस्कुरा कर बोल पडी गुणवंती, हाँ ठीक ही कह रही है तू बहु. मुझे खुशी हुई तेरी बातें सुन कर. कोई तो बड़ी समझ वाला है इस घर में. कह कर गुणवंती अपना पल्लू ठीक करते करते चारपाई से उठ खड़ी हुई और ऊपर आकाश की और देखते हुए बोली
“गप्पें मारते-मारते साँझ हो गयी है देखो, लो नलके भी आ गए, ज़रा पीने के लिए ताज़ा पानी का एक घड़ा तो भर ले कान्ता.
sunder kahani
जवाब देंहटाएंकोई भी बड़ी कथा अपने स्थानीय परिवेश से ही निकलती है ..जैसे कि विपिन की यह कहानी | आप स्थानीय हुए बिना वैश्विक नहीं हो सकते ...| एक सार्थक कहानी के लिए विपिन को बधाई
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