चंद्रशेखर की जेल डायरी पर हरिवंश का आलेख

 

चंद्रशेखर



10 नवंबर 1990 और 21 जून 1991 के बीच भारत का प्रधान मंत्री एक ऐसा व्यक्ति बना जो एक सामान्य कृषक परिवार का था। यह व्यक्ति थे चंद्रशेखर जी। वे अखिल भारतीय कांग्रेस के सम्मानित सदस्य थे। हरिवंश के अनुसार कांग्रेस में चंद्रशेखर अकेले ऐसे व्यक्ति थे, जो पार्टी की सबसे महत्वपूर्ण व निर्णायक समिति (कांग्रेस वर्किंग कमिटी) के चुने गए सदस्य थे। आपात काल का विरोध करने के कारण उन्हें जेल में डाल दिया गया। जेल में रहते हुए ही उन्होंने जो जेल डायरी लिखी वह आपात काल को जानने के लिए एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। चंद्रशेखर की यह डायरी उनकी वैचारिक दृढ़ता का आईना है। चंद्रशेखर ऐसे दुर्लभ प्रधानमंत्रियों में से एक थे जो साहित्यिक सरोकारों से भी गहरे तौर पर जुड़े हुए थे। उनकी डायरी से ही पता चलता है कि उन्होंने कामू की अनेक किताबें पढ़ी। ‘प्लेग’, ‘अ सर्टेन डेथ’। पर, एक किताब का जिक्र बार-बार आया है, वह है, ‘रिबेल’ (विद्रोही)। 'रिबेल' में उनकी दिलचस्पी इस हद तक थी कि निर्मल वर्मा के एक लेख में उसका एक उद्धरण देख कर उन्होंने उनका पूरा लेख पढ़ डाला और फिर उस पर अपनी स्पष्ट प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। यह बात 6 दिसंबर, 1975 की डायरी में दर्ज है। उसे साथ-साथ जी भी रहे थे। रेणु की ‘परती परिकथा’ को उन्होंने जेल में ही पढ़ा। मुल्क राज आनंद की ‘कुली’, डेविड मोरे का उपन्यास, ‘जूडा ट्री’, इलाचंद्र जोशी का ‘जहाज का पंक्षी’, दोस्तोएव्स्की का ‘द इडियट’ व ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’। उन्होंने जेल में जो जिस ढंग का साहित्य पढ़ा, उससे बहुत सारी चीजों का पता चलता है। फ्रेंकल की ‘मैन्स सर्च फॉर मीनिंग’ से ले कर टालस्टाय की ‘अन्ना केरेनिना’ तक उन्होंने पढ़ा। आठ जुलाई चंद्रशेखर जी की पुण्यतिथि है। पहली बार की तरफ से हम उनकी स्मृति को नमन करते हैं। हरिवंश जी का यह आलेख हमने 26/06/2025 के 'पायनियर' से साभार लिया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चंद्रशेखर की जेल डायरी पर हरिवंश का महत्त्वपूर्ण आलेख 'आपातकाल : चंद्रशेखर की जेल डायरी'।


'आपातकाल : चंद्रशेखर की जेल डायरी'


हरिवंश


यह आपातकाल की पचासवीं वर्षगांठ है। कांग्रेस में चंद्रशेखर अकेले ऐसे व्यक्ति थे, जो पार्टी की सबसे महत्वपूर्ण व निर्णायक समिति (कांग्रेस वर्किंग कमिटी) के चुने गए सदस्य थे। उन्हें इंदिरा जी ने आधी रात को गिरफ्तार करवाया। उस चंद्रशेखर को समझने के लिए उनकी ‘जेल डायरी’ सबसे प्रामाणिक स्रोत है। इसे आजाद भारत के आपातकाल में लिखा गया। जेल में। यह ‘जेल डायरी’ चंद्रशेखर को ही नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति, राजनेताओं के चरित्र को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। तत्कालीन घटनाओं की जानकारी भी इसमें है। 


आपातकाल में मुल्क में केवल दो ही नेता ‘तन्हाई’ में रखे गए। चंद्रशेखर और जॉर्ज फर्नांडिस। चंद्रशेखर का स्वाभिमान व व्यक्तित्व अनूठा था। गिरफ्तारी के बाद उन्हें रोहतक (हरियाणा) ले जाया गया। वहां के एक बड़े नेता (शायद मुख्यमंत्री बंसी लाल, जो चंद्रशेखर के शुभचिंतक और मित्र थे) ने कलेक्टर को निर्देश दिया कि स्वास्थ्य के आधार पर चंद्रशेखर को अस्पताल में भर्ती करवाया जाए। कलेक्टर ने उनसे मुलाकात की। डॉक्टर ने बार-बार कहा कि वे अस्वस्थ हैं, लेकिन चंद्रशेखर ने हर बार दो टूक जवाब दिया, ‘मैं बिल्कुल ठीक हूं।’ कलेक्टर ने अलग ले जा कर समझाने की कोशिश की। जेल की हालत ठीक नहीं, आप वहां कैसे रहेंगे? चंद्रशेखर का जवाब उनके व्यक्तित्व को दर्शाता है। कहा, वह मेरे हितैषी हैं, उनके स्नेह के लिए धन्यवाद। बाहर निकलूंगा तो मित्रता निभायेंगे। कुछ दिनों बाद अचानक रात में उन्हें पटियाला जेल भेज दिया गया। दिल्ली के निर्देश पर। जहां वे रिहाई से कुछ दिनों पहले तक रहे।


चंद्रशेखर, रोहतक जेल में बंद थे। सुल्तान सिंह और जिलाधिकारी उनसे मिलने आए। कुछ सहूलियत देने की बात की। वह लिखते (27 जून, 1975) हैं, ‘व्यक्तिगत आवश्यकताओं और सुविधाओं की बात चलायी। मैंने अस्वीकार कर दिया, पर मुझे अच्छा लगा। कम-से-कम इन्होंने खबर तो ली। कितने लोग हैं, जिनके लिए अब कदाचित् मेरा अस्तित्व ही नहीं है। मेरी बात छोड़ दें, घर वालों के साथ भी साधारण शिष्टाचार निभाना आवश्यक नहीं समझते। कितनी निकटता थी, पर कितने क्षुद्र हो सकते हैं ये लोग। जिसको सब लोग गिरा हुआ समझते हैं, दुष्ट की संज्ञा से संबोधित करते हैं, उसमें कहे जाने वाले सभ्य और शिष्ट लोगों से अधिक संवेदनशीलता है, ममत्व है। अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को समझने की क्षमता है। सुल्तान सिंह से मैंने अवश्य कहा कि अगर वह कुछ करा सकें, तो अशोक, बीजू, पीलू और राजनारायण का कहीं विशेष प्रबंध करा दें या यहीं कुछ अन्य सुविधाएं उपलब्ध करा दें।’


यह सब उनकी डायरी में दर्ज है। भाषा, भाव, ज्ञान, बौद्धिक गहराई व लेखन शैली के लिहाज से ‘जेल डायरी साहित्य’ में यह श्रेष्ठ डायरियों में से एक है। चंद्रशेखर अपनी चीजों को सहेज कर रखने में बेहद लपरवाह थे। न व्यवस्था थी। इसी लिए उनसे जुड़े, उस दौर के दस्तावेज अब कम ही बचे हैं। न अखबारों की कतरनें ही हैं। न चंद्रशेखर की ऐसी कोई आदत कि वे उन्हें संजोते। चंद्रशेखर को पब्लिसिटी (प्रचार) से कभी लगाव नहीं रहा। इस मामले में वे बिल्कुल औघड़ थे। वह करीब 19 महीने जेल में रहे।


आपातकाल हटा। तब पहली बार यह डायरी छपी। 1977 में। इसका विमोचन बड़ी सादगी से हुआ। इसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई मौजूद थे। बताते हैं, भवानी प्रसाद मिश्र और अज्ञेय जैसे साहित्यकारों ने इसकी भाषा-शैली और भाव की मुक्तकंठ प्रशंसा की। यह डायरी भारतीय राजनीति और नेताओं की असलियत समझने की साहित्यिक निधि है।


पहले संस्करण की प्रतियां, सीमित थीं। 1986 में चंद्रशेखर से डायरी के पुनर्प्रकाशन की बात की। चंद्रशेखर ने मूल पांडुलिपि का जेरोक्स उपलब्ध कराया। हमने संपादित किया। ‘कवि जी’ (चंद्रशेखर के पुराने आत्मीय मित्र) को छपवाने का जिम्मा सौंपा गया। किन्हीं कारणों से काम योजनानुसार पूरा न हो सका। फिर भी, जो संस्करण छपा, उसका लोकार्पण हुआ। नामवर सिंह ने विमोचन किया। सादे समारोह में। अंतत: दो खंडों में चंद्रशेखर के 75वर्ष पूरे होने पर यह छपी। ‘मेरी जेल डायरी’ नाम से। राजकमल प्रकाशन से। 2002 में। 


1975 में आधी रात को आपातकाल लगने की घोषणा हुई। जेपी की गिरफ्तारी की सूचना मिली। तड़के 3:30 बजे। वह टैक्सी से पहले गांधी शांति प्रतिष्ठान गए। फिर संसद मार्ग थाने। चंद्रशेखर ने पूछताछ की। जेपी की गिरफ्तारी का कारण जानना चाहा। वह लिखते (26 जून, 1975) हैं, ‘एक ही सवाल मन में उठता रहा। क्या हो रहा है? क्या करूं? कुछ राह नजर नहीं आती।’ थाने में ही एक पुलिस अधिकारी ने बताया, आपके खिलाफ भी वारंट है। एक अधिकारी ने अलग ले जा कर कहा कि आपके लिए संदेश है। एक टेलिफोन नंबर दिया। बात कर लीजिए। उन्होंने वहीं से फोन किया। विजय संघवी (उस दौर के बड़े पत्रकार), तब थाने में ही मौजूद थे। उन्होंने अपनी किताब में भी इसका जिक्र किया है। लिखा है, ‘मैंने दूर से देखा, चंद्रशेखर ने फोन पटक दिया और जेल चले गए।’ 


दो प्रमाणिक स्रोतों या किताबों में ये सूचनाएं मौजूद हैं। इंदिरा जी के मामले में राजनारायण जी के वकील रहे व बाद में लोकदल के सांसद जे. पी. गोयल ने तथ्यों के हवाले से इसे लिखा है। अपनी किताब, ‘सेविंग इंडिया फ्रॉम इंदिरा : अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इमरजेंसी’ में। दूसरी ओर फोन पर मैडम गाँधी खुद थीं। उन्होंने चंद्ररशेखर से कहा कि आप इसका (इमरजेंसी का) समर्थन करिए। कल आपको उप प्रधानमंत्री बनाएंगे। कैबिनेट में शामिल करेंगे। विजय संघवी ने भी इसे अपनी किताब, ‘द कांग्रेस : इंदिरा टू सोनिया गांधी’ में दर्ज किया है।


चंद्रशेखर को वारंट पा कर संतोष हुआ। पहले वह दुविधा में थे। लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें रास्ता दिखाया। उन्होंने लिखा (26 जून, 1975), ‘जो कुछ हो रहा था, उसका साथ देना मेरे लिए असंभव था। कैसे कोई कह दे कि भारत का भविष्य एक व्यक्ति पर निर्भर है। इतनी चाटुकारिता, इतनी दासता अपने से संभव नहीं।’ खुद चुनी हुई, इस गिरफ्तारी ने उन्हें मानसिक राहत दी। लेकिन आजादी छीनने का दर्द भी था। वह लिखते (26 जून, 1975) हैं, ‘लोगों से मिलना, उनकी सुनना, उन्हें सुनाना—यह सब बंद हो गया। बेचैनी हुई। ऐसा लगा, जैसे कुछ लोग अनिश्चित काल के लिए बिछड़ गए।’





आपातकाल के दौरान चंद्रशेखर की गिरफ्तारी कोई साधारण घटना नहीं थी। उनकी ऊंची राजनीतिक हैसियत के बावजूद उन्हें जेल में डाला गया। वे लिखते (13 अक्तूबर, 1975) हैं कि एक दिन उनसे मिलने आए एक जेल कर्मचारी ने कहा, ‘किसी गलतफहमी के कारण मुझे गिरफ्तार कर लिया गया है, किसी ने चुगली की होगी। इंदिरा जी को समझ में बात आ जायेगी और मैं जल्द ही इस जेल से चला जाऊंगा। बड़े विश्वास के साथ वह यह बात कहता था। किसी संत का चेला है, उस संत ने इसे कहा था कि इंदिरा जी पुराने जन्म की कोई रानी हैं, बड़ा तप किया था उन्होंने, उन्हें कोई हिला नहीं सकता। मैं उसकी बात चुपचाप सुनता रहता था। आज वह अचानक मुझसे उलझ गया, कहने लगा कि मैं क्यों यहां पड़ा हूं? बाहर क्यों नहीं जाता? यहां रह कर क्या करता हूं? बाहर हजारों लोगों की मदद कर सकता था और इंदिरा जी को भी समझा सकता था, मुझे सलाह दे रहा था कि मैं उन्हें पत्र लिखूं और पूछूं-किस अपराध में गिरफ्तार कर रखा है। बड़ी देर तक में ये सब बातें सुनता रहा, फिर ऊब-सा गया। मैंने कहा कि जेल में पड़े रहना किसे अच्छा लगता है, पर मैं क्या कर सकता हूं। क्या तुम चाहते हो कि मैं जेल में भेजे जाने के कारण इंदिरा जी से हाथ जोड़ कर फरियाद करूं कि मुझे वे रिहा कर दें। फिर वह बोल उठा, नहीं।’


जे. पी. गोयल ने एक और घटना का जिक्र किया है। अपनी किताब, ‘सेविंग इंडिया फ्रॉम इंदिरा : अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इमरजेंसी’ में। आपातकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा गांधी के खिलाफ याचिका थी। वकील वी. एम. तारकुंडे ने गोयल से कहा कि चंद्रशेखर से जेल में जा कर बात करें। वह कांग्रेस वर्किंग कमेटी के निर्वाचित सदस्य थे। अगर वह हेबियस कॉर्पस याचिका दायर करते, तो सुनवाई की गुंजाइश बनती। गोयल जेल में मिले। चंद्रशेखर ने साफ इनकार किया। बोले, ‘यह मेरा नैतिक संघर्ष है। मैं अदालती लड़ाई नहीं लड़ूंगा।’ यह थी उनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता। डायरी में वह लिखते (23 अप्रैल, 1976) हैं, ‘ब्रह्मानंद और शांति पटेल ने मुकदमा दायर करने की बात की। लेकिन मुझे यह उचित नहीं लगा। इस मुकदमेबाजी से क्या हासिल होगा?’


10-12 महीने बाद इंदिरा जी के यहां से चंद्रशेखर के पास पटियाला जेल में दूत भेजे गए। चंद्रशेखर से जेल में जा कर मिलो। उनकी ‘जेल डायरी’ में यह दर्ज है। एक दिन पहले अधिकारियों ने बताया कि कोई मिलने आएगा। नाम नहीं बताया। अगले दिन जेल में चहल-पहल थी। दिल्ली से दूत आया। चंद्रशेखर ने जलपान के बाद बात शुरू की। कलेक्टर ने एकांत की व्यवस्था की। पर, चंद्रशेखर ने कहा, ‘कोई जरूरत नहीं। हम टहलते हुए बात करेंगे।’ दूत ने संदेश दिया। मैडम गांधी, कम्युनिस्टों से परेशान थीं। कुछ नया करना चाहती थीं। चंद्रशेखर का सहयोग चाहती थीं। जवाब में चंद्रशेखर ने दो टूक कहा, ‘मैं कम्युनिस्ट विरोधी नहीं हूँ। मतभेद हैं, पर उनकी मदद नहीं कर सकता।’ दूत ने पूछा, ‘फिर जेल से आपकी रिहाई का क्या होगा?’ चंद्रशेखर का जवाब था, मैं पूरी जिंदगी जेल में काटने को तैयार हूं। उनकी वैचारिक दृढ़ता अटल थी। करीब 18 महीने की तन्हाई ने उनके इरादों को और मजबूत ही किया।


कुलदीप नैयर की आत्मकथा में भी यह प्रसंग है। जेल से छूटने के कुछ महीनों बाद नैयर, कमल नाथ से मिलने गये। तब कमल नाथ, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ बोर्ड में रखे गए थे। आपातकाल में। वह, संजय गांधी के अत्यंत विश्वस्त थे। नैयर की कमल नाथ से मुलाकात हुई। 1976 के अंतिम दौर में। पूछा कब चुनाव कराने जा रहे हैं? कमल।नाथ ने बताया कि चंद्रशेखर से बात करने के लिए दूत भेजा गया है। ‘मैडम गांधी’ के करीबी। वह कई बार चंद्रशेखर से मिले। पर, चंद्रशेखर अपने जवाब पर अडिग।


कुछ महीनों बाद चंद्रशेखर दिल्ली लाए गए। नरजबंद कर के। अभी जेल से रिहाई नहीं हुई थी। तब तक अधिकतर नेता, जेल से रिहा हो चुके थे। फिर दिल्ली में जसवंत मेहता (गुजरात के गृहमंत्री) श्रीमती गांधी के दूत बन कर मिले। चार बार। एक बार मैडम गांधी से मिल, तो लीजिए। इंदिरा गांधी मिलना चाहती थीं। इस सिलसिल में चंद्रशेखर अपनी डायरी (04 जनवरी, 1977) में लिखते हैं, ‘यदि मुझे प्रधानमंत्री से कोई बात करनी होगी, तो जेल से बाहर होने के बाद ही करूंगा। मैं इतना अवश्य पूछना चाहता हूँ कि यह सब रोष किस बात पर?’ उनकी यह स्पष्टता उनकी वैचारिक दृढ़ता को दिखाती है।


याद रखिए, सत्ता के सहारे जीने वाले ये लोग परिवर्तन के झोंके झेल नहीं पाते। चंद्रशेखर जेल की तन्हाई में क्या सोचते थे, इसकी झलक (14 मार्च, 1976) को मिलती है। ‘आज यह सोचता रहा कि मैंने क्या खोया और क्या पाया? यदि जो हो रहा है, उसको समर्थन देता, तो आत्मग्लानि के अतिरिक्त और क्या मिलना था। यदि उससे बचना था, तो आज जिस स्थिति में हूं, उससे अधिक सम्मानजनक और क्या हो सकता था? पिछले दिनों बाहर रहते हुए भी मैं अपने को कितना अकेला पाता था। वह अकेलापन कितना मर्माहत कर देता था। उसका अनुभव मुझको है, उसकी तुलना में आज का एकाकी जीवन अधिक संतोषजनक है। कुछ न करते हुए भी संघर्षरत होने की एक अनुभूति होती है, जो स्वयं में प्रेरणादायिनी है। इसी कारण सब उलझनों के बावजूद अपने को मानसिक और शारीरिक दोनों दृष्टि से अधिक स्वस्थ पाता हूं।’ 


पर, चंद्रशेखर को जेल क्यों हुआ? वह अपनी गिरफ्तारी का कारण भी बताते (13 मार्च, 1976) हैं, ‘सही बात तो यह है कि मैंने उस वक्तव्य में अपना नाम जोड़ना स्वीकार नहीं किया, जिसमें कांग्रेस के सम्मानित सदस्यों ने कहा था कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व के अतिरिक्त भारत के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है।’ चंद्रशेखर ने इसे स्वीकार नहीं किया। आगे वह लिखते हैं, ‘अगर मैं वह सब करता, तो आज जो कर रहा हूं, वह कैसे संभव होता?’ उनके मित्रों ने बार-बार आग्रह किया कि वह, इंदिरा जी से मिल लें। उनके ऊपर दवाब बनाए जा रहे थे। पर, वह नहीं मिलें। उन्होंने इसका कारण अपनी जेल डायरी में बताया (13 मार्च, 1976) है, ‘ यदि मैं उनसे मिल लेता और समर्थन में सब कुछ करने को तैयार हो जाता, तो मैं भी समाजवादी और देशभक्त कांग्रेसियों की श्रेणी में सम्मिलित हो जाता। ऐसा नहीं किया तो अब प्रतिक्रियावादी और राष्ट्रद्रोही लोगों के साथ जोड़ दिया गया। यदि उस समय में किसी दबाव या कमजोरी में वह सब कर भी देता, तो आज जो हो रहा है, उसे कर पाना कहाँ तक संभव था?’


चंद्रशेखर ने ताउम्र सिद्धांतों, विचारों व मूल्यों की राजनीति की। आपातकाल में उन्होंने आत्मसम्मान चुना। जेल की तन्हाई को गले लगाया। प्रलोभनों को ठुकराया। उनकी डायरी उनकी वैचारिक दृढ़ता का आईना है। वह लिखते हैं, ‘राजनीतिक विवाद चलेगा। लेकिन कीचड़ उछालने से क्या लाभ? जेल ने मुझे सोचने का अवसर दिया।’ 


चंद्रशेखर जेल में ही थे। कृष्णकांत मिलने आये। उनकी माँ भी साथ थीं। उनका सारा जीवन संघर्ष में ही बीता था। अंग्रेजी जमाने में जेल में रहीं। तेरह महीने लाहौर जेल में काटें। उनके पति, बेटे-बेटियाँ, सब जेल में रहे। कृष्णकांत के पिता जी देश की आजादी की लड़ाई के बड़े नेता रहे। लाला अचिंत्य राम। वह लाला लाजपत राय के सहयोगी थे। केंद्र की पहली सरकार में उन्हें मंत्री बनाने का प्रस्ताव पंडित जी ने दिया। उन्होंने इसे ठुकरा कर समाज सेवा चुना। ऐसा त्यागी, बलिदानी और संघर्षशील परिवार उनका था। चंद्रशेखर उनसे मिलकर भावुक हो उठे। दोनों की आँखें भर आयीं। चंद्रशेखर ने अपनी ‘जेल डायरी’ में लिखा (21 मई, 1976) है, 'उन्होंने (कृष्णकांत की माँ) मुझसे कहा कि तुम्हीं पांच लोग सही कांग्रेसी हो। मैंने ही उनसे पूछा था कि कृष्णकांत के मन पर कांग्रेस से निकाले जाने पर उन्हें कैसा लगा? मैंने इस बात पर पहले भी कई बार सोचा। सही बात तो यह है कि मैं अपने को कांग्रेस में अपरिचित जैसा पाता था। कोई साम्य नहीं, कोई एकात्म नहीं। सोचने का तरीका अलग। राजनीतिक आचरण के संबंध में मान्यताएं बिल्कुल भिन्न, फिर बिना मेरे कुछ किये अलगाव हो गया, तो कुछ खला नहीं।’


1974 में मोरारजी देसाई, गुजरात विधानसभा भंग करने की मांग को ले कर आमरण अनशन पर बैठे। कांग्रेस में रहते, चंद्रशेखर व मोरारजी के संबंध तनावपूर्ण रहे थे। पर उनके आमरण अनशन की खबर पा कर चंद्रशेखर मिलने गए। आमरण अनशन पर बैठे मोरारजी से पूछा, आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? चंद्रशेखर इस प्रसंग के बारे में अपनी जेल डायरी में लिखते ( 06 अक्तूबर, 1975) हैं। ‘इसका उत्तर उन्होंने एक प्रश्न से प्रारंभ किया। मुझसे उन्होंने पूछा कि क्या मेरा ईश्वर में विश्वास है? मैंने स्पष्ट कहा कि मैं यह नहीं कह सकता कि मेरा ईश्वर में विश्वास है। पूर्ण अविश्वास है यह भी कहने की स्थिति में मैं नहीं हूं। मेरे लिए यह एक अनजान पहेली है और उसके आधार पर मेरे लिए कुछ कहना संभव नहीं। मोरारजी भाई ने मुस्कराते हुए बड़े धीरे से कहा कि यही मेरी कठिनाई है। उनके लिए स्थिति स्पष्ट है, उनकी ईश्वर में अटूट आस्था है और उनका विश्वास है कि उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। यदि उसकी इच्छा यह है कि उनके जीवन का अंत इस प्रकार हो तो इसमें चारा क्या है? यदि नहीं तो इंदिरा बेन को उनकी बात माननी होगी।’ मोरारजी से मिल कर चंद्रशेखर सीधे संसद आए। संसद में जगजीवन बाबू, यशवंतराव चव्हाण से मिले कि आप लोग कुछ करें? मोरारजी अनशन पर हैं, तो दोनों लोगों ने हाथ खड़ा कर दिया। फिर दोनों ने कहा कि आप (चंद्रशेखर) ही कुछ करिए? उसी दिन शाम में वह इंदिरा जी के पास गये। इंदिरा गांधी से मुलाकात की। बताता कि मोरारजी से मिल कर आया हूँ। उनकी चर्चा की। इंदिरा जी पहले झुंझलाईं। नाराज हुईं। फिर चंद्रशेखर ने साफ शब्दों में कहा, ‘आप निर्णय कर लीजिए कि आप गुजरात खोने को तैयार हैं या सारा भारत।’ फिर इंदिरा जी ने कहा की आप मोरारजी से बात कीजिए। इस तरह गतिरोध खत्म हुआ। 


यह साहस उस ‘युवा तुर्क’ में ही था। सबसे ताकतवर सत्ता के सामने अकेले दो टूक, बेबाक बातें कहना। जो सही माना, वह कहना। सच बोलना। उनकी यह बेबाकी आपातकाल से ठीक पहले भी दिखी, जब कांग्रेस कार्यसमिति में जे पी की आलोचना के लिए प्रस्ताव आया। चार घंटे बहस चली। सभी कांग्रेसी एक तरफ, चंद्रशेखर अकेले। अंत तक अकेले चंद्रशेखर ने इसका विरोध किया। कहा, ‘इंदिरा जी, मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं, जो प्रस्ताव लाया गया है उसका मैं विरोध करूंगा। यदि प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया गया, तो इस प्रस्ताव की सार्वजनिक रूप से निंदा करूंगा। इसका नतीजा यह होगा कि आप मुझे पार्टी से निकालने के लिए विवश होंगी। मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है, पर इसे स्पष्ट कर देना अपना कर्तव्य समझता हूं।’ 


अंतत: इंदिरा जी ने इस प्रस्ताव में जे पी का नाम नहीं डालने को कहा। यह दृढ़ता उस व्यक्ति की थी, जो सत्ता की चमक से नहीं, बल्कि सिद्धांतों की रोशनी से प्रेरित था। साफ है, वह सत्ता के सामने झुकने को तैयार नहीं थे।


जेल में चन्द्रशेखर कैसा साहित्य पढ़ रहे थे? डायरी में अनेक किताबों का जिक्र मिलता है। उनके मार्मिक प्रसंग भी हैं। डायरी से पता चलता है कि उन्होंने कामू की अनेक किताबें पढ़ी। ‘प्लेग’, ‘अ सर्टेन डेथ’। पर, एक किताब का जिक्र बार-बार आया है, वह है, ‘रिबेल’ (विद्रोही)। 'रिबेल' में उनकी दिलचस्पी इस हद तक थी कि निर्मल वर्मा के एक लेख में उसका एक उद्धरण देख कर उन्होंने उनका पूरा लेख पढ़ डाला और फिर उस पर अपनी स्पष्ट प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। यह बात 6 दिसंबर, 1975 की डायरी में दर्ज है। उसे साथ-साथ जी भी रहे थे। रेणु की ‘परती परिकथा’ को उन्होंने जेल में ही पढ़ा। मुल्क राज आनंद की ‘कुली’, डेविड मोरे का उपन्यास, ‘जूडा ट्री’, इलाचंद्र जोशी का ‘जहाज का पंक्षी’, दोस्तोएव्स्की का ‘द इडियट’ व ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’। उन्होंने जेल में जो जिस ढंग का साहित्य पढ़ा, उससे बहुत सारी चीजों का पता चलता है। फ्रेंकल की ‘मैन्स सर्च फॉर मीनिंग’ से ले कर टालस्टाय की ‘अन्ना केरेनिना’ तक उन्होंने पढ़ा।


चंद्रशेखर का जीवन और उनका आपातकाल के दौरान का संघर्ष, प्रेरित करता है। बताता है, सत्ता के सामने सच बोलना और सिद्धांतों पर अडिग रहना कितना महत्वपूर्ण है? कठिन भी। वह चरित्र क्या आज की राजनीति में है?



हरिवंश



(श्री हरिवंश जी राज्यसभा के माननीय उप सभापति हैं।)

टिप्पणियाँ

  1. सत्ता के सामने सच बोलना और अपने सिद्धांत पर अडिग रहना आज की राजनीति में नहीं दिखता।
    चंद्रशेखर जी बागी बलिया के सपूत थे। हरिवंश जी ने उनकी जेल डायरी के जिन प्रसंगों का उल्लेख किया है वह चंद्रशेखर जी के व्यक्तित्व की खूबियों को समझने के लिए पर्याप्त है।चन्द्रशेखरजी ने जेल में बंदी रहना स्वीकार किया लेकिन सिद्धांत से हटना कबूल नहीं किया। ऐसे दृढ़ संकल्प शक्ति के धनी चंद्रशेखर जी को बार बार प्रणाम।
    हरिवंश जी के लिखे इस आलेख को पढ़वाने के लिए धन्यवाद 🙏
    जितेन्द्र धीर

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