देवेन्द्र आर्य का आलेख 'दलित कविता बनाम जनवादी कविता: संदर्भ मलखान सिंह'
मलखान सिंह |
इस बात में कोई दो राय नहीं कि दलित कविता ने हिंदी कविता को एक नया आयाम प्रदान किया है. जनवादी कविता उस जन की बात करती है जो सर्वहारा है. देवेंद्र आर्य ने कवि मलखान सिंह के हवाले से दलित
कविता बनाम जनवादी कविता की एक पडताल की है. आज पहली बार पर प्रस्तुत है कवि आलोचक देवेन्द्र आर्य का आलेख 'दलित कविता बनाम जनवादी कविता: संदर्भ मलखान सिंह.
दलित कविता बनाम जनवादी कविता: संदर्भ मलखान सिंह
देवेन्द्र आर्य
कवि मलखान सिंह को पढ़ते हुए दलित कविता
और जनवादी कविता के द्वन्द्व, परस्पर
सम्बन्ध, विरोध और वर्तमान हिन्दी कविता की
जनचेतना का प्रश्न बार-बार उठता है। बात की शुरुआत मलखान सिंह की कविता ‘भूख’ से करते हैं। यह कविता उनके पहले
संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ (प्रथम प्रकाशन 1996 सौजन्य मूलचन्द गौतम) में छपी है।
मेरे सामने ‘सुनो ब्राह्मण’ का तीसरा मगर रश्मि प्रकाशन लखनऊ से
छपा पहला संस्करण (2018) है।
रश्मि प्रकाशन ने ही उनके दूसरे संग्रह ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ (2019) भी प्रकाशित किया है। इन दोनों पुस्तकों में मलखान की कविताओं पर
आलेख भी हैं। इस आलेख का आधार इन्हीं दोनों संग्रहों से लिया गया पाठ है। बात ‘भूख’ कविता की हो रही है।
भूख, ग़रीब दलित का शाश्वत यथार्थ है। भूख पर
इतनी बहुअर्थी और मुकम्मल कविता अन्यत्र शायद न मिले। मिले भी तो इतनी गहरी
पीड़ा और व्यंजना के साथ न मिले
‘‘भूख, आंख खुलते ही तुझे
चौखट पर बैठे देखा है
देखा है कि तुझे आंगन में पसरा देख
मेरी मां फूट-फूटकर रोयी है।’’
भूख शाश्वत यथार्थ इसलिए है कि गरीब दलित की एक नहीं अनेक पीढ़ियां
उसके जबड़े में रही हैं, आज
भी हैं। दलित के लिए भूख जहां त्रासदी है, क्रूर जबड़ा है, कुत्ते का गू है, फटा बांस है, वहीं भूख को दलितों के विरुद्ध हथियार
के रूप में इस्तेमाल करने वालों के लिए, उसे महामारी बनाने वालों के लिए वही भूख जालिम का हाथ है, अंगद का पांव है, तुलसी का बिरवा है, ‘‘जो गैल चलते हमारी/टोपियां उछालता
है/और पशुवत जीने को बाध्य करता है’’।
कविता भूख से लड़ने की संकल्पना के साथ आगे बढ़ती है- ‘‘भूख! यहां से लड़कर जिंदा रहने की
तैयारी में कवि सूअर को आहार बनाने की तरफ़ इशारा करता है। यह अनायास नहीं रहा होगा
जब दलितों ने भूख से व्यथित हो कर मांसाहार के लिए कुरआन में हराम करार दिए गए और
हिन्दूधर्म शास्त्रों में घृणित (गू खाने वाला) जानवर सूअर को पालना और खाना शुरू किया
होगा। कविता में यही घिनौनी भूख जो पहले एक स्थिति मात्र थी, अब हथियार बनती है और ‘आका’ के हाथों को तोड़ डालती है।
मलखान की ‘भूख’ कविता एक ऐतिहासिक दलित कविता है। दलित
शब्द का आग्रह न हो तो हर कोण से मुकम्मल कविता है, अपने कथ्य, शिल्प, मुक्ति की राह दिखाने की सार्थकता के
साथ। मगर अपने आलेख में कंवल भारती एक नयी बहस खड़ी करते हैं- ‘‘यह दलित चिंतन की विडम्बना है कि वह
जाति की पीड़ा को ही दलित कविता में देखना चाहता है, भूख की पीड़ा को नहीं, भूख पर लिखने वाले कवि को वह जनवादी और
कम्युनिस्ट कह कर नकार देता है।’’ (सुनो
ब्राह्मण, पृ.21)। यानी जनवादी कविता, दलित कविता से भूख और जाति के विषय पर
अलग होती है। क्या वास्तव में जाति की पीड़ा, भूख की पीड़ा से अलग है? क्या भूख और जाति में कोई
अन्तर्सम्बन्ध नहीं है? जाति
की पीड़ा की प्रधान चिंता और समाधान अगर अम्बेडकर के पास है तो भूख के समीकरण को मार्क्स
बेहतर ढंग से समझते और हल कर पाते हैं। अम्बेडकर ने स्वयं कहा था कि हमें जाति
(ब्राह्मणवाद) के मोर्चे पर भी लड़ना है और भूख-गरीबी (पूंजीवाद) के मोर्चे पर भी
लड़ना है। कंवल भारती दलितों के ‘जातीय
पूर्वाग्रहों’
के कारण मलखान की भूख कविता के न पढ़े
जाने की चर्चा करते हैं- ‘‘दलित
चेतना की वह सबसे मार्मिक और सशक्त कविता है।’’ फिर दलित अध्येताओं द्वारा क्यों नहीं
पढ़ी गयी यह कविता? और
पढ़ी गयी तो सराही क्यों नहीं गयी? क्या
सिर्फ़ इसलिए कि भूख कविता को वामपंथी आलोचकों ने सराहा? क्या इसलिए कि इस सराहना से मलखान के
जनवादी खेमे द्वारा हाइजैक कर लिए जाने का ख़तरा था? मलखान ताउम्र दलित कवि ही बने रहें, इसलिए ज़रूरी समझा गया कि ‘भूख’ की अवहेलना की जाए? साक्ष्य के रूप में श्यौराज सिंह बेचैन
का वक्तव्य देखें- ‘‘जो
दलित साहित्य गैर दलितों को रूचिकर लगता है, वह अच्छा होकर भी संदेह के घेरे में आ
जाता है’’ (देखें दलित वार्षिकी में प्रकाशित मेरा
लेख, ‘बीच का रास्ता’ भी होता है जो यश प्रकाशन से आई आलोचना
पुस्तक ‘शब्द असीमित में संकलित है)।
दलित कविता वैचारिक रूप से दो हिस्सों
में बंटी नज़र आती है। एक तरफ वे दलित कवि-आलोचक जो अपनी पहचान हर हाल में दलित के
रूप में बनाए रखना चाहते हैं और सारी जातीय, सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का निदान
अम्बेडकरवाद में ढूंढते हैं तो दूसरी तरफ वह ख़ेमा है जो न केवल अम्बेडकर बल्कि मार्क्स
के विचारों को भी दलित-गरीब की मुक्ति के लिए अपरिहार्य मानता है। एक को दोस्त और
दूसरे को दुश्मन समझने की प्रवृत्ति के पीछे की पूंजीवादी साजिश को समझना होगा।
कविता के संदर्भ में जनवादी कविता को जिन अर्थों में दलित कविता होना है, उन्हीं अर्थों में दलित कविता को
जनवादी बनना पड़ेगा। पहचान के संकट के भय से हम परिवर्तन की सही राह धूमिल नहीं कर
सकते। कंवल भारती इसे ‘जातीय
पूर्वाग्रह’ के रूप में सही पकड़ रहे हैं। ‘‘मेहनतकश हाथ में सब तंत्र होगा’’, कम्युनिस्ट विरोधी दलित लेखकों के लिए
यह एक पंक्ति भी मलखान को कम्युनिस्ट या जनवादी घोषित करने के लिए काफी है।’’ (कंवल, वहीं) सवाल यह है कि यदि मेहनतकश हाथों
में तंत्र आने में आपत्ति है तो क्या ब्राह्मणों, पूंजीपतियों और शोषकों के हाथों में
तंत्र रहना चाहिए? ‘मजदूर’ जनवादियों का मुहावरा है जिसे इस्तेमाल
करने पर दलितवादियों को एतराज़ है। भले ही मलखान अपनी कविता ‘फटी बंडी’ में मजदूर वर्ग के भीतर व्याप्त
ब्राह्मणवाद को भी चिन्हित करते हैं जहां फटी बंडी एक दलित मजदूर की जातीय स्थिति
है जो कम्युनिस्टों की भाषा में ‘सर्वहारा
मजदूरों’ के बीच भी दलित के कंधे से लटकी रहती
है।
दलितों के कम्युनिस्ट विरोधी रवैए का
असर यह है कि वे लगातार दलित चेतना के मायावतीकरण का शिकार हो रहे हैं, अवसरवादी दलित नेतृत्व के जाल में
फंसते जा रहे हैं जिसे पर्दे के पीछे से सवर्ण-ब्राह्मणवादी नेतृत्व ने बिछा रखा
है। ‘‘कितना मजबूत जाल है ब्राह्मणवाद का’’ जिसे मलखान सिंह अपनी हस्ताक्षर कविता ‘सुनो ब्राह्मण’ में छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं। मगर
देखना होगा कि जातीय चेतना और संघर्ष से लबरेज यह शानदार कविता क्या वास्तव में
ब्राह्मणवाद को खत्म करती दीखती है या सिर्फ ब्राह्मण को। शीर्षक ही व्यक्तिनिष्ठ
है- सुनो ब्राह्मण! जिसका हुंकारी पारने के लहजे में फौरी उत्तर होगा- ‘हां, कहो चमार!’ ब्राह्मण के अंत की आकांक्षा को ही
ब्राह्मणवाद का अंत समझ लेने का ही परिणाम है, दलित ब्राह्मणवाद जिसकी ओर स्वयं मलखान
एक अन्य कविता- ‘एक
नया ताड़ वृक्ष’
में इशारा करते हैं। कंवल भारती इसी
महीन भटकाव की बात कर रहे हैं जो न सिर्फ दलित कवियों में बल्कि जनवादी कवियों में
भी है जो जाति विमर्श को सिरे से नकार देने और केवल आर्थिक परिवर्तन को सारी
समस्या का समाधान मान लेते हैं। जाति उल्मूलन के लिए जातीय द्वेष की कविताएं, आग से आग बुझाने काम करना चाहती हैं और
जनवादियों पर मूलाधार और अधिरचना के बखेड़े में मुद्दों को भटका देने का आरोप लगाती
हैं (कविता कामरेड)। चौथी राम यादव अपने आलेख, ‘‘यात्रा का प्रस्थान बिन्दु तलाशती
कविताएं’’ में लिखते हैं- ‘‘भावुकतावश यहां मलखान सिंह ने सरलीकरण
का मार्ग अपना लिया है।’’ प्रश्न
उठना स्वाभाविक है कि क्या कामरेड कविता सरलीकृत भावुकता से उपजी है या उसके पीछे
अतिरेकी अम्बेडकरवादी दृष्टि है जो ‘‘अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद के बीच गहरी खाई होने का भ्रम पैदा’’ करती है। छद्म मार्क्सवादी ही नहीं
छद्म अम्बेडकरवादी भी होते हैं और उनके उदाहरण को ले कर कामरेड जैसी कविता लिखना
ठीक नहीं है। ‘‘ऐसे गम्भीर विमर्श को कविता का विषय
बनाते समय एक प्रखर इतिहासबोध और सावधानी भी अपेक्षित है।’’ यह बात वही चौथी राम कह रहे हैं जो
मलखान की कविताओं के सिलसिले में ‘दलित
नवजागरण’ की भी चर्चा करते हैं और मलखान की
कविताओं में लक्षित आक्रोश को प्रतिरोध की संस्कृति से जोड़ कर देख पाते हैं। सवाल
यहां यह भी उठ सकता है कि क्या मलखान ने यह कविता अपने ऊपर लगने वाले जनवदी टैग को
नोंच फेंकने और दलित समुदाय में ही श्रेष्ठतम बने रहने की नीयत से तो नहीं लिखी
थी। ‘‘दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, कलावादी सौन्दर्यशास्त्र का विरोधी और मार्क्सवादी
सौन्दर्यशास्त्र से भी बहुत कुछ अलग और स्वतंत्र है।’’ फिर भी दोनों के बीच सामंजस्य के इतने
बिन्दु हैं कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। शरण कुमार लिम्बाले का हवाला चौथीराम
जी देते हैं- ‘‘मार्क्सवादी साहित्य और दलित साहित्य
दोनों मनुष्य केन्द्रित जीवनवादी और यथार्थवादी साहित्य हैं’’ वे सुझाव देते हैं- ‘‘मलखान की कविताओं को हिन्दी की जनवादी
कविताओं के साथ रख कर भी पढ़ा जा सकता है।’’ कहीं दलित कविता और जनवादी कविता के
बीच दुराव ने कविता का नुकसान तो नहीं किया है? ‘‘दलित साहित्य आन्दोलन को अम्बेडकरवाद
के साथ-साथ मार्क्सवाद को भी स्वीकार करना होगा’’ (कंवल भारती)। बेशक जब आप मूलाधार से
भटके होंगे तो अधिरचना आपको भटकी हुई अतृप्त संतुष्टि देगी। ‘‘यही वजह है कि दलितों के सारे रेडिकल
संघर्ष खत्म हो चुके हैं। उन्हें आरक्षण मिलता रहे, बाकी नीतियों, योजनाओं और सुधारों से उन्हें क्या
लेना-देना?’’
(कंवल भारती)
अजय तिवारी मलखान सिंह की उनकी ‘‘स्थितिगत विशेषताओं और सीमाओं के सीमित
दायरे में बांधने’’ के
प्रयास की निन्दा करते हैं। ‘‘दलित
की अस्मिता को वर्ण तक सीमित रखने का नज़रिया दलित साहित्य को मुक्तिकामी प्रयासों
से अलग रखने का समर्थन करता है।’’ जबकि
‘‘मलखान सिंह की कविता दलित के श्रमिक
रूप को स्वीकार करती है।’’ गांवों
में जो गरीब दलित व्यक्ति है, वही
सर्वहारा है। ‘‘ऊंची जातियों के ‘गरीब’ कुछ अपवादों को छोड़ कर सर्वहारा नहीं
बनते... भारत में खेतिहर मजदूर का मतलब हरिजन होता है और हरिजन का मतलब खेतिहर
मजदूर’’ (संभावनाओं की तलाश: किशन पटनायक) इस
असली सर्वहारा का पूरा जीवन, दहशत
की दिनचर्या में गुज़रता है। उसके लिए यह गांव आदमखोर है। खाने-पीने-जीने की अन्य
सुविधाओं की बात छोड़िए, नित्य
क्रिया के लिए खेत जाते भी डर लगता है कि कहीं किसी खतरे में न पड़ जाएं।
‘‘लगता
है कि अभी
बस अभी ठकुरसुहाती मैड़ चीखेगी
मैं अधशौच ही खेत से उठ जाऊंगा।’’
ये काव्य पंक्तियां व्यक्ति के भीतर लगातार घुमड़ रही आशंका और दहशत
के माहौल को इतनी शिद्दत से बयान करती हैं कि आप सिर्फ महसूस करके, तिलमिला के रह जाओ। कुछ कहोगे तो भदेस
हो जाओगे। मलखान की सधी कलम पहली बार ऐसी अमानवीय, दारुण स्थिति को जिसमें आप मल विसर्जित
भी नहीं कर सकते, कविता
का विषय बनाती है। नींद से जाग पड़ना, बुलौवा आने या कोई हादसा हो जाने पर खाना छोड़ कर उठ भागना, ऐसे चित्र तो आपको अन्यत्र मिल सकते
हैं, पर टट्टी करते-करते बीच से उठ जाना, टट्टी सरक जाने का मुहावरा मूर्त होते
देखना, यह कविता में पहली बार सम्भव किया
मलखान ने और वो भी सपाट लाइनों में बिना किसी बिम्ब और व्यंजना के। क्या कोई
जनवादी कविता डर की इस पराकष्ठा को इतने कम शब्दों में इससे बेहतर बयान कर पाएगी।
नहीं, और इसीलिए जनवादी कविता को दलित
संवेदना से समृद्ध होने की जरूरत है।
स्वयं दलित समाज के लिए ‘मुझे गुस्सा आता है’ कविता कई सवाल खड़े करती है। जो कुछ भी
बदलाव आया है,
वह केवल पुरुष-समाज के संदर्भ में ही
आया है। वही पितृसत्तात्मक समाज जो सवर्णों के यहां है, दलितों के यहां भी है। आम्बेडकर जाति
व्यवस्था को स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण के साथ भी देखते थे। (डा. अम्बेडकर:
चिंतन के बुनियादी सरोकार: डा. रामायन राम, देखें पृ.55) जाति व्यवस्था, स्त्री की यौनिकता और समाज में आए
बदलाव को परखती है यह कविता। पहले मां कमाती थी, अब जोरू कमाने लगी है। पेट पालने का
निकृष्टतम काम,
जो पहले सास के जिम्मे था, अब बहू के जिम्मे हैं। बदलाव यह आया है
कि पहले मां के साथ पिता भी निकलते थे, बेगार के लिए, आज
वे बैठ कर कविता लिख रहे हैं और उनका बेटा (यानी तीसरी पीढ़ी) स्कूल गया है। जिसकी
पत्नी शाम के चूल्हे के लिए मैला उठाने गयी है वह इत्मीनान से कविता लिख रहा है।
यह कविताई हरामखोरी के अलावा क्या कही जाएगी? वैसी ही हरामखोरी जो सवर्णों में है।
पसीना दूसरे बहाएं, खाएं
हम। सकारात्मक यह है कि बेटा स्कूल गया है। ज़ाहिर है कवि महोदय भी स्कूल गए ही
होगे तभी कविता लिख पा रहे हैं। मगर ‘शिक्षा बाघिन का दूध है’ से प्रेरित कवि को पता है कि स्त्री इस
दूध की हकदार नहीं है। यह है जाति के साथ जुड़ी यौनिकता जिसकी चर्चा बाबासाहब कर
रहे थे। कविता यह बताती है कि बाघिन का दूध पीने से सियार (कुजात) शेर (सुजात)
नहीं हो जाता। यहीं पेट और पूंछ के बीच गहरे संबंध का रूपक है। मगर पेट का पूंछ से
क्या रिश्ता है?
पूंछ अगर तनती है तो केवल खतरे या
संघर्ष के समय,
फुंफकारते समय। सवर्ण मूंछ तानते हैं, दलित का बेटा पूंछ तान रहा है। इसके
पहले मलखान एक अन्य कविता में लिख चुके हैं-
‘‘मैं
आदमी नहीं हूं स्साब
जानवर हूं
दो पाया जानवर
जिसे बात-बात पर मनुपुत्र मां चो... बहन चो...
कमीन कौम कहता है।’’
तो सिरा पकड़िए कि दोपाए जानवर का बेटा पूंछ ही तो तानेगा, अपमान के प्रतिशोध में, गुर्राते समय। पूंछ खाते समय, पेट भरने की प्रक्रिया में, या तो मगन डोलती मिलेगी या पिछवाड़े से
चिपकी हुई। तनेगी नहीं। तो फिर पूंछ का पेट से रिश्ता बना या स्वाभिमान से
अपमान/प्रतिशोध/प्रतिशोध से?
मलखान की कविता में ‘आक्रोश’ पढ़ने वाले आलोचकों की बड़ी मलामत की गयी
है कि वे गुस्से को आक्रोश में रिड्यूस कर रहे हैं जबकि यह कवि का विद्रोह है।
मलखान आलोच्य कविता में स्पष्ट करते हैं-
‘‘गुर्राने
का सीधा सपाट अर्थ बगावत है
और बगावत महाजन की रखैल नहीं
जिसे जो चाहे नाम दे दो-रंग दे दो
न ही हथेली का पूआ
जिसे मुंह खोलो - गप्प खा लो।’’ (मुझे गुस्सा आता है)
आप प्रश्न कर सकते हैं कि गुर्राने का अर्थ बगावत कैसे होता है? हां आक्रोश ज़रूर हो सकता है। गुर्राना
गुस्से का इज़हार है जिसमें आक्रोश प्रकट होता है। सूरज बडत्या लिखते हैं- ‘‘दलित साहित्य को ‘आक्रोश’ का साहित्य कहना उसके पूरे विरोधी और
वैचारिक तेवर को भोथरा कर देने का जाति-वर्चस्ववादी प्रयास से ज्यादा और कुछ भी
नहीं कहा जाएगा... हिन्दी के प्रखर वामपंथी विद्वान बजरंग बिहारी तिवारी तो मलखान
की कविता को वेदमंत्रों की आहुति सदृश शब्द ‘भास्वर आक्रोशजनित’ कविता का स्वर कह कर दलित साहित्य की
जड़ों में मट्ठा डालने का असफल प्रयास करते दीखते हैं, जो उचित नहीं।’’ (महास्वप्न: सुनो ब्राह्मण पृ. 44)। प्रसंगवश याद दिला दूं कि दलित कवि
की कविताओं को सर्वप्रथम पुस्तकाकार रूप से सार्वजनिक करने का काम मूलचन्द गौतम ने
किया था, निःशुल्क, निःस्वार्थ तब मलखान आज के दलित कवि
शिरोमणि नहीं थे। बजरंग बिहारी तिवारी के दलित साहित्य को हिन्दी पाठकों के बीच
लाने के उनके योगदान की चर्चा शायद यहां ठीक न समझी जाए पर बडत्या जी दलित साहित्य
की तरह अपने पास कोई दलित शब्द कोष भी रखे हैं, यह मुझे नहीं पता। दरअसल उद्धृत कविता
में एक शब्द ‘महाजन’ जो जाहिर है सवर्ण ही होगा, बडत्या जी को मोटीवेट कर रहा है- ‘‘बगावत महाजन की रखैल नहीं।’’ अब उन्हें ‘भास्वर’ शब्द से आपत्ति है या ‘आक्रोश’ से या इस शब्दयुग्म से ही, नहीं पता। पता सिर्फ यह है कि यह ‘भास्वर आक्रोश’ उन्हें वेदमंत्रों की आहुति सदृश दिखता
है। चूंकि बजरंग बिहारी तिवारी हैं तो वेदमंत्र की संगति बनती ही है, और तब जब उन्हें लांछित करना ही
उद्देश्य हो मगर उन्हें पता होना चाहिए कि ‘आहुति’ शब्द की संगति ‘स्वाहा’ के साथ ही होती है।
बात कविता पर ही की जाए तो बेहतर है। ‘‘मुझे गुस्सा आता है का एक बिन्दु इतना
स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक है कि उसके लिए मलखान की संवेदनाओं की सराहना करनी
होगी। हर पिता अपने पुत्र की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहता है।
‘‘मेरे
खुद के थूथन पर
अनगिनत चोटों के निशान हैं।
जिन्हें अपने बेटे के चेहरे पर नहीं देखना चाहता।
बस इसीलिए उसकी गुर्राहट पर
मुझे गुस्सा आता है
साथ ही साथ डर लगता है।’’
ये अत्यन्त मार्मिक पंक्तियां हैं जिन्हें बडत्या शायद बगावत से मुंह
मोड़ना, डरपोंक होना मान लें, क्यों कि बेटे की गुर्राहट पर गुस्सा आ
रहा है और डर भी लग रहा है। खैर, पिता
को डर इसलिए लग रहा है कि बगावत हथेली का पूआ नहीं है जिसे मुंह खोलो गप्प खा लो।
प्रश्न यहां है कि ‘‘बगावत
को महाजन की रखैल नहीं’’ कहने
का क्या अर्थ है? रखैल
की अपनी कोई अस्मिता नहीं होती, वह
एक तरह से जबरिया (चाहे लोभ चाहे भय या दुराचार के कारण) संबंध है। तो क्या बगावत
महाजन की हवेली में बंधुआ खाती-पीती, मजा लेती-देती रखैल है? बगावत हथेली का पुआ नहीं, बहुत संघर्ष, उत्सर्ग, इच्छा शक्ति और समय लेने वाली
प्रक्रिया है जिसे पूरा कर पाना वाकई जिगरे का काम है, यह बिम्ब जितना सार्थक है, उतना ही निरर्थक है महाजन की रखैल वाला
बिम्ब। निरर्थक ही नहीं नकारात्मक भी। जबर्दस्ती, कविता में जबर्दस्त अपील पैदा करने
वाली पंक्तियां लाने का आकर्षण मलखान के यहां रहा है। कवि के भीतर एक
आलोचक-सम्पादक का होना इसीलिए जरूरी होता है। कविता में पिता जहां एक तरफ बेटे की
सुरक्षा से चिंतित है, वहीं
उत्प्रेरित भी। यही मानव स्वभाव का नैसर्गिक द्वन्द्व है, और इसी से दिशा भी निकलती है जो दशा
बदलने के लिए भीतर के दहशत से संघर्ष करती है।
‘‘बेटे
को फफकते देखता हूं तो
सूखे घाव दुसियाने लगते हैं।
बूढ़ा खून हरकत में आ जाता है।
और मन किसी बिगड़ैल भैंसे सा
जुआ तोड़ने को फुंकार उठता है।’’
जिंदाबाद मलखान सिंह, इस
बात को समझने और कविता में उतरने के लिए कि बगावत जमीन पर उतरने के पहले मन में ही
उतरती है। स्वयं चाहना कि बेटा बगावत करके खतरे में न पड़े और स्वयं बेटे की बगावत
को प्रशंसात्मक दृष्टि से देख कर उत्साहित होना, यही क्रांतिकारिता का गृहस्थ सत्य है।
एक बहुत अच्छी,
यथार्थपरक, मनोवैज्ञानिक और बगावत के लिए उत्प्रेरित
करती कविता में काश ये भटकाव न होते तो यह मलखान की सर्वाधिक सार्थक कविताओं में
होती।
अगर चर्चा बजरंग जी की हुई है तो देखते चलें कि मलखान की कविताओं पर
उनकी क्या टिप्पणियां रही हैं। ‘मलखान
सिंह घनीभूत दलित संवेदना के कवि हैं। यह संवेदना चार स्तरों से होकर निर्मित हुई
है। पहले स्तर पर दलित यातना का तीव्र बोध है। यातना वैयक्तिक नहीं, सामुदायिक है।... यातना के इस पूंजीभूत
रूप को कवि ने अपनी रचना की पूंजी बनाया है। दूसरे स्तर पर मलखान सिंह ने उन
कारणों की पहचान की है, जो
इस यातना के जिम्मेदार रहे हैं। तीसरे स्तर पर उत्पीड़नकारी, ब्राह्मण केंद्रित समाज व्यवस्था का
संपूर्णतः नकार है और चौथे स्तर पर उनका भास्वर आक्रोश व्यक्त है। यह आक्रोश उन
ताकतों के बरखिलाफ है, जो
दमन का सिलसिला टूटने नहीं देतीं और समतामूलक समाज बनाने की हर कोशिश को नाकाम
करने में जुटी रहती हैं।’’.... ‘‘वस्तुस्थिति का ज्ञान, विचारशीलता, भविष्य दृष्टि और वैकल्पिक जीवन दर्शन-
ये चार चीजें ऐसी हैं जो गुस्से को आक्रोश में बदलती है और टिकाऊ कविता को जन्म
देती हैं।’’...
‘‘परम्परया जिसे
हम जनवादी कविता के नाम से पुकारते हैं उसमें ‘जाति-पांति’ का, ‘भोगी हुई यातना’ का आधार-स्रोत के रूप में उल्लेख नहीं
होता। यह सिर्फ दलित लेखन का अनिर्वाय अभिलक्षण माना जाता है।’’ (दलित संवेदना और मलखान सिंह की कविताएं:
बजरंग बिहारी तिवारी, पृ.
51 एवं 53)
एक अन्य दलित कवि असंग घोष की कविताओं
के सिलसिले में युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार गुस्से को दलित लेखन का प्राणतत्व
मानते हैं। ‘‘पीड़ा बोध और आक्रोश को हम एक दूसरे से
पृथक नहीं कर सकतें।’’ परमार
मलखान और असंग घोष की तुलना करते हुए लिखते हैं- ‘‘उनका (असंग घोष) आक्रोश हिंदी कविता की
लोकधर्मी परम्परा के लिए उपलब्धि है...। इस संदर्भ में वे मलखान सिंह के बराबर के
कवि हैं। उनका आक्रोश मलखान सिंह से ज्यादा आक्रामक है।’’ (लहक: अंक 31, फरवरी-मार्च 2019, पृ.16-17) यहां मैं सिर्फ यह दिखना चाह रहा हूं
कि मलखान के सिलसिले में ‘आक्रोश’ शब्द का इस्तेमाल कोई ब्राह्मणोचित
अपराध नहीं है। इस आलेख का विषय मलखान और असंग घोष की कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन
नहीं है। यहां परमार ने दलित कविता के सिलसिले में (और अलग से वाम कविता के लिए
भी) लोकधर्मी परम्परा की महत्वपूर्ण बात उठाई है। जो कवि जितना ही जमीनी होगा, उसकी कविता में लोक तत्व, लोकभाषा, लोक चिंता, लोक चेतना और लोक संघर्ष, उतनी ही शिद्दत से उपस्थित मिलेगा।
मलखान की कविताएं उससे भरी पड़ी हैं और यही तत्व उन्हें जनवादी कवियों के बीच भी विशिष्ट
बनाता है। ‘‘जाति पांति’’ का और ‘‘भोगी हुई’’ यातना का आधार स्रोत के रूप में उल्लेख
जनवादी कविताओं में भले न मिलता हो, पर
परकाया प्रवेश और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की चेतना तो वहां है ही- अंतर यह है कि
जनवादी कविता का प्रस्थान बिन्दु जाति नहीं वर्ग रहा है (यानी जाति का नकार) और
कृषकों के प्रति एक वर्ग के रूप में यह समझ रही है कि वे अनुयायी तो हो सकते हैं, अगुवायी नहीं कर सकते जबकि दलित कविता
का प्रस्थान बिन्दु गांव है। भारत के संदर्भ में कृषक समाज का अर्थ पिछड़ी जातियां
है और मजदूर का अर्थ खेतिहर मजदूर। जनवादी कविता का आधार शहरी मजदूर रहा है जिसमें
निहित जातिगत और गै़र बराबरी को जनवादी या तो पकड़ नहीं पाए या उन्होंने जानबूझ कर
इस तत्व की अवहेलना की। याद कीजिए मलखान की कविता ‘फटी बंडी’ और ‘कामरेड’। समाज के जमीनी तबके तक पहुंचने के
लिए विचारधारा एक रास्ता है। जनवादी कविताएं इसी राह की अन्वेषी रही हैं। एक दूसरा
रास्ता है जो समाज के जमीनी तबकों के सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक हित चिंतन की राह
चलते हुए विचारधारात्मक संघर्ष और संगठन की ओर जाता है। यह दूसरी प्रणाली दलित
कविताओं ने अपनायी। उद्देश्य दोनों का एक है पर रास्ते अलग होने के कारण एक लगातार
हाइपोथिटिकल साबित होता रहा, दूसरा
ज़मीनी।
कल्पना कीजिए, यदि मलखान दलित कवि नहीं होते तो क्या
वे ‘सुनो ब्राह्मण’ लिख पाते? और अगर मलखान जनवादी कवि होते तो क्या ‘कामरेड’ जैसी कविता लिख पाते जो ‘‘भारतीय मार्क्सवादियों के कछुआ धर्म पर
दलित उत्पीड़न के मामले में उनकी चुप्पी पर’’ (बजरंग बिहारी तिवारी) पर एक टिप्पणी
है। जनवादियों के यहां ‘जन’ एक अमूर्त पद है, अधिक से अधिक गांधी दर्शन वाला ‘अंतिम आदमी’। परन्तु दलित कविताओं में ‘जन’ या आम आदमी पूरी तरह मूर्तमान है। शायद
यही मूर्तिमत्ता कविता के बहुआयामी कलात्मक सौन्दर्य-बोध और गहन आस्वाद में बाधक
भी है जिसे अब दलित आलोचक भी महसूस करने लगे हैं और इसीलिए बचाव में बार-बार
संघर्ष चेतना को ही दलित सौन्दर्यबोध के रूप में रेखांकित करते हैं। कविता के हक
में है कि जनवादी कविता ‘जन’ की वामवीयता से मुक्त हो और दलित कविता, कविता के और करीब आए। आप कुछ भी कहें, कुरुपता को सौन्दर्य का प्रतिमान नहीं
बनाया जा सकता। आप अपने काले होने को ही अपनी ब्युटी का बना रहे हों, ब्लैक पैंथर की तरह हों वहां तक तो ठीक
है पर यदि आपके मुंह पर जबरिया कालिख पोती गयी है या आपने कालिख पोतने-पोतवाने को
परम्परा बना लिया है तो उसे आपका सौन्दर्य नहीं समझा जा सकता है। ‘‘एक श्रेष्ठ रचना को वहां रख कर
विश्लेषित करना चाहिए जहां वह समस्त विश्वदाय के निमित्त हो। न केवल दलित
हस्ताक्षर के रूप में अपितु बतौर एक श्रेष्ठ कवि मलखान सिंह की कविताओं का पाठन
अनिवार्य है। तमाम वाद और विमर्श जो आपके सामाजिक परिवेश की उपज हैं, मूलतः एक समूचा विचार नहीं, साहित्येतिहास में उनकी सीमाएं और बने
हुए सिद्धांत हैं। किसी भी श्रेष्ठ साहित्य का वर्णन, विश्लेषण वादों और विमर्शों के दायरे
में ही करना उस रचना के मूल व्यापक सरोकारों को सीमित कर देना है, क्योंकि एक श्रेष्ठ कलाकृति हर युग में
हर परिवर्तन के साथ नए अर्थ प्रदान करती है।’’ (फटी बंडी का बोध: जाति का महाआख्यान:
नमस्या, पृ. 62 सुनो ब्राह्मण) क्या आपको नहीं लगता
कि निहित स्वार्थों ने हिन्दी की समकालीन प्रगतिशील जनवादी कविता को मलखान सिंह
नामक एक श्रेष्ठ कवि से वंचित कर दिया। आज दलित कवि के रूप में मलखान चाहे जितने
बड़े हों, हिंदी कवि के रूप में उनकी कोई गिनती
नहीं है। नुकसान किसका हुआ? क्यों
हुआ? क्या नमस्या की टिप्पणी के आलोक में
डा. कर्मानंद आर्य अपनी टिप्पणी पर पुनर्विचार करना पसंद करेंगे। वे तो अभी युवा
हैं और उन पर स्थापित होने का अतिरिक्त दबाव नहीं है- ‘‘वे जनवाद के नहीं, शुद्ध दलितवाद के कवि हैं’’ (स्याह और अंधेरे का सूरज: डा. कर्मानंद
आर्य, पृ. 87, ज्वालामुखी के मुहाने)
मलखान सिंह शुद्ध दलितवाद के कवि क्यों
हैं? यह शुद्ध दलितवाद होता क्या है? अशुद्ध दलितवाद की क्या पहचान है? जवाब कर्मानंद की टिप्पणियों में ढूंढा
जाना चाहिए। ‘‘मलखान सिंह भय के मनोविज्ञान के कवि
हैं।... उनकी कविता में लोकोत्तर चमत्कार हमें दिखाई देता है...। सदियों का संताप
झेल कर किसी भी इंसान के स्वर, संयत
भाषा के नहीं हो सकते। मनुवादी व्यवस्था की यही तल्खी उनकी कविताओं के मूल में है।’’ ‘भय का मनोविज्ञान’, ‘असंगत भाषा, लोकोत्तर चमत्कार ये कुछ शब्द हैं
जिन्हें मलखान सिंह की कविता के संदर्भ में देखने से ज्यादा जरूरी होगा दलित
आलोचकों के संदर्भ में देखना। भय का मनोविज्ञान और संयत भाषा की कमी कवि में चाहे
हो न हो, आलोचकों में अवश्य है। भय कि कही मलखान
पूरी हिंदी कविता जगत में न स्वीकार कर लिए जाएं; हमारा क्या होगा? अपनी इस टिप्पणी के लिए कर्मानंद कितने
गंभीर हैं, पता नहीं पर जाने अनजाने उन्होंने दलित
कविता और उसके सौन्दर्य शास्त्र को अलग ढंग से समझने का सूत्र अवश्य उपलब्ध कराया
है। मलखान यदि दलित कविता के आइकन हैं, जो कि वे हैं, तो
दलित कविता वास्तव में ‘भय
के मनोविज्ञान’
की कविता है। भयग्रस्त आदमी शंकाग्रस्त, दुविधाग्रस्त भी होता है। कौन दोस्त, कौन दुश्मन? उलजलूल न सही सामान्य हरकतें नहीं करता, यानी सामान्य कविताएं नहीं लिखता। वही
कविताएं लिखता है जो उसके भीतर के भय से उबरने में उसके लिए एक साधन भी होती हैं, तनाव से मुक्त होने का। याद कीजिए
मुक्तिबोध को,
हिंदी कविता के आइकन मुक्तिबोध, जिन्हें सीजोफ्रेनिया (मनोरोग) को रोगी
बताया गया। क्या यह अनायास है कि कंवल भारती उन्हें दलित कविता का मुक्तिबोध कहते
हैं। मुक्तिबोध स्वप्न में बुनते हैं। मलखान दलित मुक्ति का महास्वप्न बुनते हैं।
स्वप्न में कुछ ‘लोकोत्तर
चमत्कार’ सदृश होता ही है, तभी तो वह यथार्थ कम स्वप्न होता है, ‘जाति का महाआख्यान’ (नमिता के शब्द)। रही भाषा तो भय के
मनोविज्ञान की भाषा संयत कैसे हो सकती है? मलखान अपनी कविताओं में उग्र भाषा का
तो उपयोग करते ही हैं पर असंगत भाषा का प्रयोग कत्तई नहीं। यह उग्रता चाहे जितनी
असंगत हो क्यों कि संयत रह कर आप उग्र हो ही नहीं सकते और दलित कविता में उग्रता
उसकी विशिष्टता है। दलित कविता संयत भाषा में लिखी, संयमी कविता नहीं है। तो आंकलन करें कि
क्या यही कुछ गुण शुद्ध दलितवाद के होते हैं? जो दलित कविताएं संयत भाषा में
लोकोत्तर नहीं,
लोक यथार्थ की सामान्य अभिव्यक्ति करती
हैं वे छद्म दलित कविताएं है? जनवादी
कविताओं से दलित कविताओं का अलगाव क्या इन्हीं बिन्दुओं पर नहीं होता? तो क्या जनवादी कविताएं ही छद्म दलित
कविताएं हैं? क्या मलखान यदि जन्मना दलित नहीं होते
तो उन्हें प्रगतिशील जनवादी कवि ही कहा जाता?
भारतीय समाज में हम या तो दलित पैदा
होते हैं या सवर्ण। पैदाइशी हिन्दू और मुसलमान की तरह। आप कितनी भी कोशिश कर लें
हिन्दू से शत प्रतिशत मुसलमान या मुसलमान से शत प्रतिशत हिन्दू ट्रांसफार्म नहीं
कर सकते। अधिक से अधिक आप नास्तिक हिंदू या नास्तिक मुसलमान हो सकते हैं। जहां
कहीं थोड़ा भी अंतर या अन्तर्विरोध उभरा, आप पर इल्जाम लगेगा ही लगेगा कि आखिर आप हैं तो हिंदू ही (या हैं तो
मुसलमान ही)। यही हाल सवर्ण और दलित का है। फिर रास्ता क्या हो? कोई बीच का रास्ता जहां हम पूरी तरह न
सवर्ण रहें न दलित। हमें इंतजार करना होगा जब भारतीय समाज में हम कम्युनिस्ट पैदा
होंगे। अभी तो हम कम्युनिस्ट बनते हैं, पैदा नहीं होते। इंसान के रूप में पैदा होने की यह प्राथमिक स्थिति
है कि हम धर्म के संदर्भ में प्रोटोजोवा (अमीबा) पैदा हों। धर्म रीढ़-विहीन।
मलखान सिंह कहीं-कहीं एक शब्द में बहुत
बड़ी बात कह जाते हैं।
‘‘मैं
गांव में हूं
जाति छप्पर में आ टंगी है
काले झण्डे सी।’’ (फटी
बंडी कविता)।
अब जरा कविता से बात की जाए। यह झंडा काला ही क्यों है? लाल क्यों नहीं? छप्पर में काला झण्डा विरोध का प्रतीक
माना जाए, जैसे किसी को काले झण्डे दिखाए जाते
हैं, लाल नहीं। लाल तो विद्रोह का प्रतीक
है। छप्पर में टंगे हुए काले झंडे सी जाति, आपकी अंधेरी जिंदगी, अपमान और विरोध को प्रदर्शित करती है
और ‘फटी बंडी सी’ के रूपक को और गहरा अर्थ देती है-
‘‘जाति
कंधों में आ फंसी है
फटी बंडी सी।’’
जिसके कंधों से जाति की फटी बंडी टंगी है, उसी के छप्पर में जाति काले झण्डे सी
टंगी है। एक तरफ जाति स्थिर है, जन्मना, झोपड़े में टंगे काले झंडे सी तो दूसरी
तरफ प्रगतिशील,
कंधे पर टंगी फटी बंडी सी। जहां जहां
आप जाएंगे जाति की फटी बंडी आपकी पहचान बताती आपके साथ यात्रा करेगी, आपकी लाचारी सी। और जब वापस अपने ‘दगड़े’ में आएंगे तो भी जाति का काला झंडा
आपके मन मस्तिष्क पर फहराता रहेगा, भले
ही आप अपने ‘दगड़े’ में जाति मुक्त होने के लिए फटी बंडी
उतार भी दें। यह झंडा आदमखोर भले न हो, भले ही बंडी आदमखोर हो पर जाति का यह काला झंडा चैनखोर तो है ही। और
दोनों मिल कर बराबर एहसास दिलाते रहते हैं कि तुम दलित हो। अपनी झोपड़ी में भी दलित
और बाहर भीड़ के बीच भी। कविता का अंत बर्फीली दुश्मनी में बदलता दिखता है। बर्फीली
दुश्मनी जिसमें उसका सवर्णवाद और मेरा दलितपन दोनों सुरिक्षत (फ्रोजन) रह सकते हैं, लम्बे समय तक। अगर कभी गुस्सा आएगा भी
तो
‘‘दोनों
एक दूसरे की पतलूपन फाड
मादरजात नंगे हो जाएंगे।’’
सवाल यह है कि अंततः हासिल क्या है? नंगई। सिर्फ नंगई? शायद यह कवि की चेतावनी भी है कि
व्यक्तिगत विरोध का हश्र यही होगा।
किराए के मकान के लिए दर-दर भटकते एक
दलित की व्यथा-कथा ‘छत
की तलाश’ कविता में उभारी गयी है।
काव्य-कला-सौन्दर्य प्रतिमानों पर खरी उतरती हैं मलखान की ये पंक्तियां-
‘‘अफसोस, एक भी छत
सर ढंकने को तैयार नहीं।’’
पूरी बस्ती खुदा परस्तों और बुत परस्तों में बंटी हुई है। कवि दरवाजे
पर दस्तक नहीं ठोकर मार कर, उसे
ढहा कर एक ऐसा मकान बनाना चाहता है जहां
‘‘मेहनतकश
हाथ में
सब तंत्र होगा’’।
इतनी सरलता और हड़बड़ी दलित कविता में जनवादी तेवर तो पैदा कर सकता है
पर उसे यथार्थवादी नहीं बना सकता। इन नमाज़ी और तिलकधारी दरवाजों के अलावा बस्ती
में मेहनतकश हाथ भी होंगे, भले
ही
‘‘हर
आला दरवाजे पर पहरा खड़ा है और
मेरे खुद के लोगों पर
न घर है न मरघट।’’
इन आला दरवाजों पर पहरेदार/ चौकीदार किस तबके से आते हैं? कविता बिना आर्थिक शोषण की चर्चा किए, बिना श्रम और पूंजी की विडम्बना दिखाए, बिना सामूहिक चेतना जगाए, ठोकर मार कर एक ऐसे मकान की कल्पना
करती है जिसमें मंच और सारे तंत्र मेहनतकश के हाथ में होंगे। यहां सद्भावना और
बंधुत्व की संकल्पना तो की जा सकती है, पर क्रांति की नहीं। तंत्र का मेहनतकश हाथों में आना बिना क्रांति के
सम्भव है क्या?
बस एक ठोकर पर्याप्त है क्रांति के लिए, सिनेमाई डाइनामाइट की तरह? जनवादी (क्रांतिकारी) कहे जाने की
लालसा कवि को हाइपोथिटिकल बना देती है, यथार्थवादी नहीं। जब कि दलित कविता का पहला सूत्र भोगा हुआ यथार्थ
है। अप्रसांगिक नहीं यह कहना कि मलखान की तमाम कविताएं भोगा हुआ यथार्थ नहीं हैं।
धार्मिक (हिन्दू और मुसलमान) और जातीय (दलित) वैमनस्य को दूर करने से ही
विश्व-आंगन का सपना कैसे पूरा होगा जबकि विभाजन केवल धार्मिक-जातीय ही नहीं, आर्थिक भी है। न सही मार्क्सवाद, अम्बेडकरवाद ही सही। अम्बेडकर भी तो
कहते हैं कि हमें ब्राह्मणवाद से ही नहीं, पूंजीवाद से भी लड़ना है। फिलहाल दलित
आंदोलन दो भागों में बंटा हुआ है। एक तो राजनैतिक लोकतंत्र का आन्दोलन और दूसरा
सामाजिक लोकतंत्र का आंदोलन। राजनैतिक लोकतंत्री आंदोलन, दलित-बहुजन के नाम पर बनी अवसरवादी
पार्टियों का एजेंडा है जिसका मकसद सत्ता पर बैठना है न कि कोई सामाजिक बदलाव।
जबकि सामाजिक लोकतंत्र का एजेंडा केवल साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों के पाले में डाल दिया
गया है। भाषण कीजिए, कविता
लिखिए, आरक्षण का लाभ उठाइए और चुप रहिए।
मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के अलावा जो
तीसरी परिवर्तनकामी धारा है वह है गांधीवाद जिससे असहमति के मुद्दे पर जनवादी और
दलित दोनों सहमत हैं- दोनों ने अपनी कविताओं में गांधी का सकारात्मक चित्र नहीं
उकेरा है। सही बात तो यह है कि गांधी उन दोनों की कविताओं में बतौर विषय कहीं हैं
ही नहीं। जबकि हकीकत यह है कि गांधी की सियासी उपयोगिता चाहे जितनी क्षरित हुई है, उनकी सामाजिक और कुछ मायनों में आर्थिक
उपयोगिता इधर लगातार महसूस की जा रही है और गांधी तथा उनके गांधीवाद का
पुर्नमूल्यांकन हो रहा है। दलित साहित्यकारों को अपने गांधी विरोध के रिटैरिक पर
नए सिरे से सोचना चाहिए। इसी तरह ईश्वर विरोध पर तो दलित कविताएं खूब लिखी जा रही
हैं परन्तु स्त्री-विषयक कविताएं दलित कवियों के यहां नदारद हैं। जबकि प्रगतिशील
जनवादी कविताओं का एक प्रमुख स्वर स्त्री-स्वर भी है। आम्बेडकर जाति विमर्श को
स्त्री विमर्श से जोड़कर देखना प्रस्तावित करते रहे हैं। जाति का प्रश्न स्त्री की
स्वतंत्रता और उसके अधिकारों के प्रश्न से विमुक्त नहीं है। पर यह मुद्दा मलखान की
कविताओं में कहीं नहीं है।
अपनी प्रतिबद्धता जल्दी से जल्दी, प्रखर से प्रखर भाषा में व्यक्त करने
की मलखान की मंशा के पीछे माहौल से फ़ायदा उठाने का भाव भी कहीं-कहीं झलकता है।
राजनीति करे तो करे, पर
जब साहित्य भी यही करने लगता है तो उसके एकांगी, एकरेखीय और अंततः सतही, फतवेबाज हो जाने के ख़तरे बढ़ जाते हैं।
इस तरह के आरोप जनवादी कविता पर भी लगते रहे हैं। दलीय दृष्टि को रचने और राजनीति
के लिए साहित्य को औजार बना देने, कविता
को सायास निष्कर्षात्मक निष्पत्तियों तक ले जाने और हर हाल में मजदूरों किसानों को
विजयी दिखाने की ललक ने जनवादी कविता से कविता की संवेदनात्मक गहराई छीन ली।
जनवादी कविता यानी कविता के नाम पर बयानबाजी, पोस्टरबाजी। जनवादी कविताओं की
वायवीयता को पहचानते हुए ही दलित कविता ने अपनी अलग पहचान बनायी है। मगर कभी-कभी
चमकदार जनवादी होने/ दिखने के जो अकादमिक फायदे रहे हैं, उनके प्रति दलित कविता आकर्षित होती जा
रही है। जबकि दलित विमर्शकार जनवाद को ब्राह्मणवाद से जोड़कर देखते रहे हैं। इधर एक
स्थिति जनवाद बनाम दलित ब्राह्मणवाद की भी बनती दिख रही है।
‘‘दलित शब्द के अर्थ को ‘स्टेटस सिम्बल’ के स्तर पर ले जा कर स्थापित करना ही
दलित आन्दोलन और संघर्ष का लक्ष्य निश्चित होना चाहिए।... मायावती दलितों के लिए
कोई काम करें अथवा न करें, लेकिन
उनके शासनकाल में दलित का आत्मबल तो बढ़ता ही है।’’ (दलित
विमर्श: विकल्प का साहित्य: कुछ टिप्पणियां कुछ सवाल, मूलचंद सोनकर, पृ. 1 व 4) इस स्थापना के पहले खण्ड से कोई असहमति
नहीं हो सकती परन्तु यह एक राजनैतिक रूप से सही बयान भले हो, साहित्यिक एवं सामाजिक रूप से सही नहीं
है। हीन भावना दूर हो और जातिगत स्थिति को चिढ़ौनी बनने देने से बेहतर है, गर्व से कहो कि हम चमार हैं। परन्तु
राजनीतिक ठगी यही से शुरू होती है। गर्व से कहो हम हिन्दू हैं की उग्रता के
राजनैतिक दोहन की तरह। फायदा वहां न गरीब दलित को पहुंचा न यहां गरीब हिन्दू
को। ‘‘आरक्षणवादियों की दिलचस्पी जाति
व्यवस्था को खत्म करने में नहीं है... जमीन की लड़ाई में जोरू और जाति आएगी ही, बिना उसके लड़ाई हो नहीं सकती...। भारत
में खेतिहर मजदूर का मतलब हरिजन है और हरिजन का मतलब खेतिहर मजूदर। हरिजन होने के
खिलाफ जब तक उसकी चेतना नहीं बनती तब तक उसमें वर्ग चेतना भी नहीं पैदा हो सकती...
जाति के खिलाफ हरिजन विद्रोह के साथ ही भूमि संघर्ष शुरू होता है... हरिजनों को
बराबरी देने का काम भी तब तक अधूरा रहेगा, जब तक हिन्दू धर्म का पुनर्जन्म संबंधी
और भाग्य संबंधी मान्यताओं को खत्म नहीं किया जाता। हरिजनों को बराबरी देने का काम
तब तक अधूरा रहेगा जब तक जमीन का सवाल हल नहीं किया जाता। अम्बेडकर ने इन दोनों
पहलुओं को अपने आंदोलन में जोड़ा’’।
(संभावनाओं की तलाश: किशन पटनायक)
मगर कांशीराम-मायावती ने क्या किया? ये लोग आरक्षण नीति या शूद्रों के
जागरण का जाति व्यवस्था तोड़ने के लिए उपयोग नहीं करते हैं, सिर्फ अपने अंदर एक विशिष्ट वर्ग पैदा
करने या राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए हथकंडे के रूप में उसका इस्तेमाल
कर रहे हैं। ‘‘आश्चर्य की बात यह है कि समग्र
अम्बेडकर विचार में साम्राज्यवादी आर्थिक विचार का महत्वपूर्ण अंश है, लेकिन अम्बेडकरवादी राजनेता पूंजीवाद
को निर्विरोध चलने देना चाहते हैं’’ (वहीं
पृ. 37-38)। यहां दलित साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी बढ़ जाती
है। मूलचंद वाजिब सवाल उठाते हैं- ‘‘क्या
ऐसा नहीं लगता कि वैचारिक धरातल पर दलित आज भी वहीं ठहरा हुआ है जहां पर डा.
अम्बेडकर उसे छोड़ गए थे? वह
धर्म की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाने के स्थान पर बौद्ध धर्म अपनाने की अनुत्पादक
होड़ में शामिल है।... जातिविहीन वर्ग विहीन समाज की कल्पना करने वाले डा. अम्बेडकर
ने धर्म विहीन समाज की बात क्यों नहीं की जब कि वे इस तत्व से भली भांति भिज्ञ थे
कि इस देश में वर्ण और जाति के बिना धर्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती... यह
बीमारी का भटकाव है या प्रत्यारोपण?’’ इस
प्रश्न का हल ढूंढने में केवल और केवल मार्क्स हमारी मदद करते हैं। जनवाद और
दलितवाद में तिरसठ का रिश्ता किसके हक में है इसे दलित कवि कब सोचेंगे?
मलखान सिंह की कविता ‘आखिरी जंग’ में कवि को
‘‘धरती
में गड़ा स्थूल लिंग
अग्रज एकलव्य का कटा अंगूठा प्रतीत होता है।’’
यहां ‘अग्रज’ शब्द अनावश्यक है और केवल अतिरिक्त
पक्षधरता दिखाने के आकर्षण में इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि एकलव्य स्वयं एक बड़ा सर्वमान्य
दलित प्रतीक है। दूसरी बात यह कि कविता में ईश्वर को लिंग की पहचान बनाया गया है।
पूरा देवत्व महादेव के इसी लिंग की अश्लीलता का शिकार है, भले ही लिंग कितना भी नैसर्गिक हो।
योनि में धंसा लिंग तो तार्किक है पर योनि
में धंसा ‘अग्रज एकलव्य का अंगूठा’ किस बात का प्रतीक है? क्या लिंग से जो काम सवर्ण ले रहे थे, योनि के उपयोग के संदर्भ में, वहीं काम दलित अंगूठे से ले रहे हैं? यह एक अनर्गल सा माइंडसेट है और उसके
पीछे विरोध और प्रतिबद्धता को जल्दी से जल्दी और प्रखर भाषा में प्रस्तुत करने की
उतावली है। दलित कवि का जनवादी तेवर!
‘‘तेरी
अर्द्धकुम्भाकार योनि पर
बिखरी लाल पंखुरियां
रोती बिलखती आंखों से छीने गए
सपने प्रतीत हैं।’’
प्रश्न किया जा सकता है कि ये क्या असफल संभोग के सपने हैं? और वह भी सामूहिक! क्या इसे सामूहिक
बालात्कार का प्रतीक-भाव मान लिया जाए जिसमें महिला के रोते-बिलखते परिजनों के
आंसू पंखुड़ी रूप में मौजूद हैं। इसी कविता में शुरुआती दो अच्छे बिम्ब इस अनावश्यक
योनि-विडम्बना में असावधानी के कारण धूमिल पड़ जाते हैं-
‘‘हमारी
पीठ को सहलाने पर
बैल के पके कंधों का दर्द भी
हलका लगेगा तुझे।’’
पके हुए कंधे का बिम्ब अप्रतिम, अछूता नायाब बिम्ब है जिसे कोई किसान/ हलवाह
कवि ही महसूस कर पाएगा, बाकियों
के लिए तो वह मात्र घट्ठा है। मुझे नहीं पता कि यह मलखान का भोगा हुआ यथार्थ है या
परकाया प्रवेश यथार्थ।
मलखान सिंह की कविताएं, दलितों के लिए गढे़ गए सौन्दर्य शास्त्र
की सीमाओं का लगातार अतिक्रमण करती हैं और कविता के सौन्दर्य शास्त्र और आस्वाद के
साथ जमीनी यथार्थ को व्यक्त करती हैं। भाषा की शालीनता बनाए हुए भी और कविता में
कविता को बचाए हुए भी, जनवादी
कविता से अलग दलित कविता को खड़ा किया जा सकता है। शिल्प सौष्ठव पर ध्यान देते हुए
भी दलित कविता,
ब्राह्मणवादी कविता से टक्कर ले सकती
है। एक गहरी टीस भी कविता में आक्रोश पैदा कर सकती है, जैसे अधशौच उठ जाने वाला बिम्ब। हर समय
जाग मजूरा जाग किसाना करने वाली, कविता
के अंत में लाल सूरज उगाने वाली जनवादी कविता के हश्र से दलित कविता सचेत है। दलित
कविता में तथाकथित सवर्ण सौन्दर्य शास्त्र का निर्वहन करते हुए अपनी बात कहने का
ढब देखना हो तो देवेन्द्र कुमार बंगाली की कविता देखिए-
‘‘काश
महारानी पद्मिनी चिता में
जलने के बजाय सोलह हजार रानियों के साथ लैस हो कर
चित्तौड़गढ़ के किले की रक्षा करते हुए मरी नहीं
मारी गयी होतीं।
तब तुम्हारा और तुम्हारे देश का
भविष्य कुछ और होता।’’
एक दलित कवि कविता में यह आग तब पैदा कर रहा था जब हिन्दी में दलित
विमर्श पैदा ही नहीं हुआ था। जाहिर है कि यह जनवादी कविता का तेवर जिसे दलित कवि
देवेन्द्र कुमार इतनी पोख्तगी के साथ उठा रहे थे कि उन्हें स्वयं के दलित कवि का
विश्लेषण लगा कर चर्चित होने की आवश्यकता ही नहीं महसूस हुई। मलखान उसी परम्परा के
शिल्प-सधे दलित कवि हैं जो दलित कविता में कविता की मिट्टी पलीद करने के विरुद्ध
हैं। ‘एक नया वृक्ष’ की ये पंक्तियां मेरी बात की ताईद
करेंगी-
‘‘आज तक
मुट्ठी भर सुख के लिए
कितने सागरों को हाथों से धोया
कितने पर्वतों को कंधों पर ढोया है।
कितनी बंजर जमीन पर बसंत वन बोया है।
लेकिन हमारे हिस्से हर बार आए हैं उजाड़ घर
गाय का मूत रचा
गोबर पुता इतिहास
जिसके पन्ने-पन्ने पर
उत्पीड़न और अपमान के
प्रतिमान टंगे हैं
बिछी हैं नफ़रत और पाखण्ड की बेजोड़ तहरीरें।’’
मलखान के यहां दलित कविता अपनी पहचान
अपने दलित-व्यवहार से नहीं, अपनी
दलित-दृष्टि से बनाती हैं। दलित कविता, कविता का कोई फ्रेम नहीं है, शिल्प नहीं है। यह एक अलग, आन्दोलनात्मक माइंडसेट है, एक अलग नज़रिया जो उसे जनवादी कविता से
आगे ले जाती है। मलखान इस हिरावल दस्ते में अग्रणी हैं।
‘‘उफ़
ये कैसा तांता है
कि हमारी बस्ती का
जो भी चतुर सुजान
नगर को जाता है।
डूबता है दलदल में
जंगलों के बीचोबीच एक नया ताड़ वृक्ष
और उग आता है।’’
यह बयान पोलिटकली भले करेक्ट न हो सामाजिक यथार्थ और कविता के
निर्भीक नज़रिए से एकदम करेक्ट है। जो बात राजनीति नहीं बोलती, वह कविता बोलती है। यह आत्मालोचना ही
वह स्वस्थ मनःस्थिति है जो कविता के तमाम दलित-व्यवहार से अलग है।
यदि कहूं कि ‘हमारे गांव में’ कविता, मलखान की सर्वोत्तम कविताओं में है, सुनो ब्राह्मण से भी बेहतर, तो यह अतिशयोक्ति न होगी। समकालीन दलित
कविता का आइकन है यह कविता जो वर्ण और जाति के विरोधाभासों, टकराहटों को कलात्मक ढंग से रचती है-
‘‘हमारे
गांव में नम्रता
जन की खास पहचान है
और उद्दण्डता हरि का बांकपन...
झुकी कमर ने बताया
कि बेगार चाहे चिलम थमा कर ली जाए
या लाठी दिखा कर
दोनों में कोई बुनियादी फर्क
नहीं है।’’
शोषण के विभिन्न तरीकों की पहचान करती है यह कविता।
मलखान की कविता ‘सफेद हाथी’ को पढ़ते हुए मेरी प्रतिक्रिया थी कि
इसे नीले हाथी के रूप में क्यों न पढ़ा जाए। ‘कागज का घोड़ा’ कविता में मलखान लिखते हैं-
गणित यह है भाई जी कि
हमारी थाली का दूध पीते हैं सईस लोग
और दालभात स्साला
हाथी साब खाता है।’’
यह हाथी साब कौन है? क्या
यह सफेद वाला हाथी है या नीला वाला? थाली
का दूध गणेश जी पी रहे हैं। न सही हाथी, हाथी का सिर तो है। चोखा माल सवर्ण गणपति के हिस्से चला गया है और
पेट भराऊ दाल-भात हाथी साब के हिस्से में। यह है सवर्ण-दलित राजनीति का गठजोड़।
अम्बेडकरवाद का कांशीकरण और उसका माया प्रोजेक्ट। घोड़ा कागज पर
‘‘भात
खाता है
कि घोड़ों के विकास पर पैसा पानी सा बहाया जाता है
लेकिन हमारे हिस्से कभी-कभी लीद भी नहीं आती है।’’
इतनी प्रखर है मलखान की राजनैतिक चेतना जो बार-बार कविता के दलित
सौन्दर्य शास्त्र और दलित-दृष्टि की परिधि का अतिक्रमण करती है। इसे यदि जनवादी
कविता न कहें तो दलित कविता क्यों कहें?
‘‘आप
ही बताएं अब
कैसा यह अनूठा तंत्र
ढोंग तंत्र
जातितंत्र
या कहें जोंक तंत्र?’’
मलखान सफेद हाथी के साथ नीले हाथी (जाति तंत्र) के गठजोड़ से बने ‘जोकतंत्र’ की बात कर रहे हैं। यह है दलित कविता
में मलखान का जनवादी योगदान जहां कविता के लिए शोषक की कोई जाति नहीं होती।
ब्राह्मणवाद सिर्फ सवर्णों में ही नहीं, दलितों में भी है।
शिल्प-सौष्ठव और भाषा की विशिष्ट दलित
भंगिमा के लिए मलखान अलग से पहचाने जाते हैं। यह नयी भाषा, नया मुहावरा है जिसमें गांव सोता-जागता
है। जिसमें लोक बोलता है। सवर्ण कवि धूमिल के बाद कविता में भदेसपन को परिमार्जित
करते हुए देसीपन की दलित भंगिमा भाषा में गढ़ने का काम मलखान ने किया है जहां
तुकांत अश्लीलता नहीं पैदा करता। मलखान के यहां खुरदुरेपन का तुक है। कृपया तुक को
श्लेष में ग्रहण करें तो और भी अर्थ खुलेंगे। मलखान दांत चियार हंसने को ‘दांत फाड़’ हंसना कहते हैं। चियारना और फाड़ना के
अंतर को महसूस कीजिए। एक अन्य कविता, ‘मैं निराश नहीं हूं मित्र’ में वे मौसम को जूता दिखाने का मुहावरा गढ़ते हैं। धूप को पीलिया के
रूप में बिम्बित करते हैं। (सफेद हाथी) मैं अजय तिवारी के इस मूल्यांकन से सहमत
हूं कि मलखान को ‘‘अपना
कवित्त साबित करने के लिए और कवि के रूप में अपनी स्वीकृति के लिए ‘अलग’ सौन्दर्य शास्त्र की ज़रूरत नहीं है।’’ (अच्छी कविता की ज़मीन: अजय तिवारी, सुनो ब्राह्मण, पृ.33) दिक्कत सिर्फ यह है कि यह बात अजय
तिवारी कह रहे हैं जो बजरंग बिहारी तिवारी और देवेन्द्र आर्य की तरह सवर्ण हैं।
फिर तो इसमें उनकी मंशा ज़रूर गड़बड़ होगी। मगर स्वतंत्रता तो हमें भी है कि हम मलखान
को खींच कर खांटी दलित कवि के रूप में पैट्रोनाइज करने की स्वार्थ-नीति के लिए
दलित कविता की फ्रेंचाइजी लिए बैठे दलित आलोचकों की मंशा पर शक करें। इस दलित
साहित्य-मंशा से कितना भला मलखान का हुआ, कितना दलित कविता का और कितना कविता का? प्रश्न उलट के भी किया जा सकता है कि
मलखान पर दलित कवि का ठप्पा लगाने से कितना नुकसान मलखान का हुआ और कितना
प्रगतिशील जनवादी काव्य-धारा का। शायद मलखान भी इसी दुविधा में ताउम्र जिए कि वे
स्वयं को दलित कवि कहलवाएं या जनवादी। दलित कवि कहलाने के आकर्षण में वे भोथरी, सपाट, एक रस पंक्तियां कविता में घुसा देते
हैं। ‘धरती की गति’ कविता में लिखते हैं-
‘‘दूसरे
की मेहनत पर
कब्जा जमाने वाले सांप
तुम्हारे पैर नहीं होते
तुम्हारी हवेली की ढहती हुई बुनियादें
यही सब तो कह रही हैं खुल के
मदांध हो तुम
तुम तो नहीं समझते
कि गर्जन चाहे बंदूक की हो
या बादल की
धरती की गति को नहीं बदल पाती।’’
क्या मतलब हुआ? ये
पंक्तियां मंचीय बयान भले हो कविता नहीं है।
बंदूक क्रांति का भी प्रतीक है और जुल्म
का भी। बंदूक की गर्जन और धरती की गति का बदलाव इस पर निर्भर है कि बंदूक किसके
हाथ में है। इसी बंदूक से अन्याय होता है और यही बंदूक अन्याय के खिलाफ़ भी उठती है। सवाल सिर्फ हाथ का है। क्या मलखान
इस कविता में अहिंसा के दर्शन (गांधीवाद) से प्रभावित है? आप बंदूक से होने वाले परिवर्तन और
बादल से होने वाले परिवर्तन को एक ही तराजू पर नहीं तौल सकते। धरती की गति को बादल
प्रभावित करेंगे ही करेंगे। बादल की तीन गतियां हैं- वृष्टि, अतिवृष्टि और अनावृष्टि (सूखा)। भला
इनमें से किसी भी गति से धरती कैसे नहीं प्रभावित होगी। इन्हीं तरह की पंक्तियों
के आधार पर दलित कविताओं को दूसरे दर्जे की कविता कहा जाता रहा है। वैसी ही
वायवीयता, अतार्किकता, जैसी जनवादी कविताओं में गढ़ी जाती रही।
मलखान की कविताओं का दूसरा संग्रह- ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ पहले संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ के लगभ 22 सालों बाद आया (प्रथम संस्करण 2019)। इन लगभग 25 वर्षों में कवि में कितना बदलाव आया
है इसकी बानगी संग्रहों के समर्पण से पढ़ने का प्रयास करते हैं। सुनो ब्राह्मण, ‘गांव, घर और नगर के उन सभी संगी-साथियों के
जिनके साथ रहकर उद्दण्ड सांढ़ो का डट कर मुकाबला किया’ को समर्पित है जबकि ज्वालामुखी के
मुहाने उन्हें समर्पित है’’ जो
वर्णविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध हैं।’’ पहले संग्रह के समर्पण में झलक रही
उद्दंडता दूसरे संग्रह के समर्पण में नहीं है। वहां एक प्रतिश्रुति है- वर्णविहीन
(अम्बेडकरी चेतना) और वर्गविहीन (मार्क्सवादी चेतना) समाज बनाने का संकल्प।
हिन्दुस्तान बिना वर्ण (जाति) की समाप्ति के वर्गविहीन समाज नहीं बन सकता, इसे कवि ने समझा। इस संग्रह की कविता, ‘हमारे दिन हमारे रात’, सुनो ब्राह्मण में रह गयी (छूट गयी)
बातों के लिए लिखी गयी प्रतीत होती है। लगभग वही शिल्प। दुहराव की हद तक अधिकतर
बातें।
‘‘देखना
चाहते हो?
तो आओ हमारे साथ
हमारी बस्ती में एक रात
बिता कर तो देखो
बिना ओढ़न-बिछावन के
यहां तो पूरी की पूरी रात
अलाव सिलगाते निकलती है।’’
इस कविता में सब कुछ वही है सिवा ‘सुनो ब्राह्मण’ वाली ललकार के। पहले का उछिद्दर सा
दिखता, टीज करता हुआ लहजा और आक्रोश यहां
आते-आते अधिक काव्यात्मक, गहन
और संवेदनात्मक चुभन में बदल गया है। मगर आंदोलनधर्मियों को सुनो ब्राह्मण का
भभकता तेवर अधिक पसंद आएगा क्योंकि वह दलितों के सम्मेलन का पोस्टर बन सकता है।
इसके बावजूद ‘‘सुनो ब्राह्मण’’ का पहला खण्ड वास्तव में बेहतर कविता
है जो दलितों की वस्तुगत स्थिति के बारे में सवर्णों को बांह पकड़ कर साक्षात्कार
कराती है और उनमें एक अपराध बोध, एक
तरह का प्रायश्चित भाव जगाती है कि उनके बाप दादाओं ने और स्वयं उन्होंने भी अल्प
मात्रा में ही सही, दलितों
की पीड़ा को नहीं समझा और उन पर अत्याचार किए। अत्याचार आज कम भले हुए हों, बंद थोड़े न हो गए हैं। परन्तु कविता का
दूसरा खण्ड दलित कविता की प्राथमिकी (एफ. आई. आर.) है जहां बदले का भाव अधिक पैदा
होता है। यह स्थिति जो कविता पैदा कर रही है, किसके हक में है? खत्म ब्राह्मण को करना है या
ब्राह्मणवाद को। क्या ब्राह्मण का नाश ही ब्राह्मणवाद का नाश है? तो फिर दलित ब्राह्मणवाद कैसे पैदा हो
रहा जिसे ताड़ का एक वृक्ष बयान करता है। बिना आर्थिक ढांचे के बदले, क्या धार्मिक-सामाजिक ढांचा बदला जा
सकता है? दलित साहित्य को यहां से सोचना होगा और
वह सोच भी रहा है। दलित द्वारा दलित विषय पर, दलित के लिए लिखा साहित्य ही दलित
साहित्य है, इस रूढ़ि से नई पीढ़ी मुक्ति पा रही है।
वह समझ रही है कि ‘‘आधुनिक
सभ्यता एक विश्वव्यापी व्यवस्था है और इसकी रीढ़ है साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था। इस
व्यवस्था के उन्नत हिस्से के शिष्टाचार, आपसी सम्पर्क और कला शैली को देखकर दूसरे हिस्से के लोग ललचाते जरूर
हैं, लेकिन स्थिति बदलती नहीं। हमारी
अस्पृश्यता, जाति-प्रथा या सामंतवाद टूटता नहीं है; उस विशाल व्यवस्था में अंगीभूत होने के
लिए थोड़ा बहुत रूपांतरित हो जाता है, जैसे कि एक लकड़ी को दूसरी लकड़ी से जोड़ने के लिए कहीं काटना पड़ता है, कही नोंक या सुराख बनाना होता है। उसी
तरह सामंतवाद,
जातिवाद या अस्पृश्यता जैसी स्थानीय
व्यवस्था को विश्व व्यवस्था के अंगीभूत करने के लिए उसको उतना ही रूपांतरित करना
पड़ता है...। अभी तक साम्राज्यवाद और पूंजीवाद को आकर्षक बनाने के लिए यह कहा जाता
है कि कम से कम उससे पुरानी व्यवस्थाएं (सामंतवाद जैसी) खत्म हो जाती हैं।’’ (संभावनाओं की तलाशा, किशन पटनायक, पृ. 24)।
‘ज्वावालामुखी के मुहाने’ संग्रह में ईश्वर, देवताओं और धार्मिक अध्यात्म दर्शन से
टकराती कविताएं हैं। इस संग्रह की भाषा पहले की अपेक्षा क्लिष्ट और उलझाऊ है। सरल
सीधी भाषा में धारदार कविताएं लिखने वाला कवि दो दशक उपरांत भाषा में उलझाऊ क्यों
होने लगा? कहीं यह नई कविता का क्लिष्टता-राग तो
नहीं, जो कि उसकी विशेषता मान ली गयी है। आम
जन से कटी भाषा,
भाषाई ब्राह्मणवाद है जो दलित कवि में
नहीं ही होना चाहिए। ख़ास तौर पर वह कवि जो अपने अशिक्षित, अल्पशिक्षित तबके को कविता के माध्यम
से चेतना सम्पन्न बनाना चाह रहा हो, उन्हें
‘कुत्ता घसीट जिंदगी’ (नहीं चाहिए-1 कविता) से निकालना चाह रहा हो। कविता
पर दलित कविता होने के आग्रह का दबाव (आतंक) इतना अधिक है कि वह प्रकृति का भी
जातीकरण करने लगता है। सूरज को बीमार, धूप को पीलियाग्रस्त कहने (सफेद हाथी) से आगे बढ़ कर अब कवि सूरज को
जनेऊधारी बता रहा है-
‘‘यह
जनेऊधारी सूरज
तुम्हें ही मुबारक हो।’’ (नहीं चाहिए - 2
कविता)
इस प्राकृतिक सूरज से अलग अपना बिना जनेऊ वाला कृत्रिम (शायद सुपर
जेन सेट) सूरज बनाने की योजना कवि प्रस्तावित करता है- जो
‘‘हमारी
टूटी खाट पर
संग-संग सोएगा
तोड़ेगा पहाड़
जाति, धर्म, राज्य, भाषा के नए-नए भाग
नयी आग घोलेगा।’’
कवि के इस मुंगेरी सपने के पीछे क्या कारण है? सूरज किसी का नहीं, सबका है, उसकी रौशनी और ऊर्जा का जो सही और अपने
हक में इस्तेमाल कर ले। आप अक्षम हैं तो सोलर लैम्प नहीं बना पाएंगे। सक्षम हैं तो
सन-बर्न से भी सचेत रहेंगे। कविता इतिहास नहीं होती पर इतिहास दृष्टि से सम्पन्न
बेशक होती है। कविता विज्ञान नहीं होती पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण उसमें अवश्य होना
चाहिए। नया सूरज उगाने का मुहावरा जनवादियों का गढ़ा हुआ है। परन्तु वहां सूरज
इसलिए उगाया जाता है क्यों कि वर्तमान सूरज गहन अंधकार को भेद पाने में सक्षम है
नहीं है। ज़ाहिर है यह सूरज व्यवस्था का प्रतीक है। पर कविता में इसके सूत्र भी
होने चाहिए कि हम सूरज को अंधेरे से जोड़ें। मलखान को नया सूरज इसलिए चाहिए क्यों
कि उन्हें सच-झूठ, स्वर्ग-नर्क, देवी-देवता ‘तुम्हारे’ नहीं चाहिए। वे ऐसा सूरज तुम्हें ही
मुबारक कहते हैं। कोई भी सूरज को जनेऊ पहनाने से उसे स्वर्ग-नर्क से जोड़ेगा, जो कि वह है नहीं। देवी-देवता, सच-झूठ यह सब व्यवस्था जन्य हैं न कि
प्रकृतिजन्य।
मलखान का शिल्प न तो लम्बी कविता का
शिल्प है न ही फैंटैसी का शिल्प है। जहां जहां वे अपने शिल्प में, अपनी गढ़ी-स्वीकार की खाई-पचाई भाषा में
कविता रचते हैं वहां-वहां वे अद्वितीय होते हैं। मसलन- सुनो ब्राह्मण, कागज का घोड़ा, हमारे गांव में, महज इत्तेफाक नहीं है, पतित पावनी गंगा, ज्वालामुखी के मुहाने, आजादी, फटी-बंडी आदि। ‘फटी बंडी’ से स्मरण आती है एक और कविता ‘सूर्योदय’ जिसमें भी फटी बंडी की चर्चा है। फ़र्क
यह है कि फटी बंडी वाली बंडी आदमखोर है, वहीं सूर्योदय वाली बंडी मर्दमार है।
‘‘लांघ
सब खाई-खंदक
निपट अंध गलियों को
जड़ से उखाड़ फेंका
मर्दमार बंडी को।’’
इस मर्दमार बंडी का अर्थ मैं समझ नहीं पाया। हो सकता है इसलिए कि
सवर्ण हूं। शायद कोई दलित आलोचक इसका भाष्य करे।
‘एक नया ताड़ वृक्ष’ के कथ्य को और चैरस, गहरा तथा राजनैतिक समझ से भरपूर बनाती
है कविता, ‘आरक्षण’। व्यक्तिगत लानत यहां सामूहिक लानत
में बदल गयी है। ‘‘जंगलों
के बीचोबीच नया ताड़ वृक्ष नहीं बल्कि ताड़ वृक्षों का ही जंगल उग आया है।’’ यह दलितों के आहत स्वाभिमान और बार-बार
ठगे जाने की कविता है। ठगों में अपने भी शामिल हैं। जातीय शोषण, उत्पीड़न, अपमान और सवर्ण व्यवस्था से विद्रोह और
उसका एक ही आग्रह- ‘आरक्षण’। आम्बेडकर के लिए आरक्षण से ज्यादा
जरूरी मुद्दे थे, जाति
विनाश, शिक्षा का विस्तार, और धार्मिक समानता। ‘‘अगर कोई पिछड़ा नेता आरक्षण को ही अपना
लक्ष्य मानता है, बाकी
तीन लक्ष्यों को नहीं अपनाता तो उसको जातिवादी कहना गलत नहीं होगा।’’ (किशन पटनायक, वही, पृ.55) शिक्षा और जाति के विनाश पर कवि खामोश
है। प्रेम, प्रकृति और रागात्मक संबंधों पर भी
मलखान के यहां कोई कविता नहीं है। यह उनकी कविताई का खंडित व्यक्तित्व है या पूरी
दलित कविता का। जवाब यही आएगा कि यहां जीने के लाले पड़े हैं। और आपको शिक्षा, प्रेम, प्रकृति और रागात्मक संबंधों की सूझ
रही है। मगर इस सच से मुंह मत मोड़िए कि भोगा हुआ यथार्थ दलित रचनाकारों के लिए अब
दो पीढ़ी पुराना हो चुका है। आगामी दलित कविताएं भोगे हुए यथार्थ पर क्या स्टैंड
लेंगी, देखना होगा। जनवादी कविता के साथ यही
मध्यवर्गीय छद्म क्रांतिकारिता धुन के रूप में लगी थी। खाता-पीता शहरी बुद्धिजीवी
गांव की काली स्मृतियों और गरीब, किसान-मजदूर
के शोषण और अन्याय की कविताएं लिख रहा था जिनमें कोई नई पहल नहीं दिख रही थी। तब
अस्सी के दशक में देवेन्द्र कुमार बंगाली लिख रहे थे-
‘‘बहुत
हो चुका
फलों का बंटवारा किसी मैदान में न हो कर
उसी पेड़ के नीचे हो तो ज्यादा अच्छा है
अच्छा ही नहीं बल्कि तुम्हारे हक में।’’
(बहस
ज़रूरी है: देवेन्द्र कुमार)
एक दलित कवि जनवाद से जुड़ कर आर्थिक शोषण को पकड़ रहा था और अपने ढंग
से कविता में उसका निदान (तर्कपूर्ण) निकाल पा रहा था।’’... देवेन्द्र कुमार चाहते हैं कि
घास और पत्तियां तर्क करें
हो सकता है इससे संवाद की कोई स्थिति पैदा हो
वनस्पतियों की दुनिया में
और फूल डालों का सहारा लेना छोड़ दें।’’
(परिसंवाद
कविता)
यही डाल ही तो व्यवस्था है। उन्हें पता है कि इच्छा और ज़रूरत के
अनुसार/ गांव की नाक शहर में बजती है (याद्दाश्त कविता) और जादूगर सबसे पहले लोगों
की नजर बांधता है।’’ आज
का यह जादूगर कौन है? क्या
हमारी नज़रें बांध नहीं दी गयी हैं कि हम वही देखें जो महामहिम दिखाना चाहते हैं।
जो दलित आलोचक दलित विमर्श के नाम पर
अपनी कलात्मक अक्षमताएं और संकीर्ण दृष्टि, उथली समझ और स्वार्थ को छिपाना चाहते
हैं उन्हें देवेन्द्र कुमार बंगाली को पढ़ना चाहिए। ‘‘दलित की लड़ाई कल सामंतवाद से थी। आज
ब्राह्मणवाद से है। ब्राह्मणवाद एक सामाजिक व्यवस्था है तो पूंजीवाद राज्य की
व्यवस्था। ब्राह्मणवाद पूंजीवाद की रखैल है।’’ (दलित परिवेश और मलखान सिंह: आर. डी. आनन्द)
पूछा जाना चाहिए, क्या
अब सामंतवाद खत्म हो चुका है? आपकी
प्राथमिकता ब्राह्मणवादी रखैल से संघर्ष की है या पूंजीवाद से जिसने उसे रखैल बना
रखा है। ‘‘भारत में ब्रितानी साम्राज्यवाद ने
सामंतवाद को नए सिरे से संगठित किया। यह स्वाभाविक था कि उसके साथ-साथ जाति व्यवस्था
भी मजबूत हो गयी। ...शास्त्र को जानने वाले लोग भी कह देते हैं कि आधुनिक सभ्यता
के प्रभाव में अस्पृश्यता, जातिभेद
जैसी चीजें खत्म हो जाएंगी... अगर शोषितों के समाज में सामंतवादी या जातिवादी
व्यवस्था है तो वहां इन व्यवस्थाओं को साम्राज्यवाद या पूंजीवाद तोड़ता नहीं है, अपने अंदर अंगीभूत करने के लिए अपने
साथ उसका समन्वय कर लेता है।’’ (किशन
पटनायक, पृ. 23-24, वहीं) आप मूलाधार छोड़ कर अधिरचना पर
लड़ते रहिए।
बंगाली जी के साथ ऐसा सिर्फ इसलिए संभव
हो सका क्योंकि उन्होंने अपना नाता हिन्दी की वामपंथी, प्रगतिशील जनवादी काव्य धारा से जोड़े
रखा। वरना उन्हें पता था कि
‘‘इतिहास
की दौड़ में वह केवल पीछे ही नहीं छूट जाता।
बल्कि जूतों में कील सा
हमेशा के लिए जड़ दिया जाता है
इसी का नाम जाति प्रथा है।
गुलामी की एक लम्बी परिकथा है।’’
(आधुनिक
हिन्दी कविता के पहले दलित कवि देवेन्द्र कुमार बंगाली: संपादक देवेन्द्र आर्य)
यहां से चल के मलखान ने कम
से कम मौसम को जूता तो दिखाया ही। मगर क्या इतनी यात्रा पर्याप्त है?
डा. कर्मानन्द आर्य जैसे नयी पीढ़ी के
दलित कवियों को शायद महसूस हो रहा है कि दलित कविता से मलखान-स्वर परिवर्तित होना
चाहिए। यदि ऐसा है तो यह न केवल दलित कविता बल्कि पूरी प्रगतिशील जनवादी कविता
धारा के लिए शुभ है। संघर्ष ही नहीं समरसता भी मनुष्यता के लिए आवश्यक तत्व है।
यहां कर्मानन्द की कविता, ‘काव्य-प्रयोजन
की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना अप्रासंगिक न होगा-
‘‘बदलने
के लिए नहीं
बदलाव के लिए लिखिए
लिखिए कि शर्म से झुक जाए सामंत का माथा
ढह जाए अभिमान
ब्राह्मण अपना बाभनपन छोड़ दे
पिछड़े छोड़ दें पिछड़ापन।
लिखंदड़ों की तरह मत लिखिए
लिखिए कि बह पड़े नदी
सामने खड़ी हो जाए सदी
उमड़ आए समुद्र
आंखें हो जाएं नम
मिलें दरिद्रनारायण
लिखिए कि मरने के ठीक पहले
जैसे लिखी जाती है वसीयत
फांसी के ठीक पहले जैसे लिखी जाती है इच्छा।...
कबीर की तरह लिखो
फाड़ दो सत्ता का कागज
लिखे वह जो लिखा नहीं गया सदियों से।’’
आप स्वयं तय करें कि सुनो ब्राह्मण से आगे दलित कविता का सांस्कृतिक
प्रतिरोध इस काव्य प्रयोजन में दिखता है या नहीं। दलित कविता के ठेलामार रवैए से
इतर कविता को कविता के ढांचे और सांचे में लिखने की कोशिश शुरू हो चुकी है। अपने
लिए थोड़ी कमतर कसौटी का अनुग्रह कवि नहीं चाहता, जैसे देवेन्द्र कुमार ने नहीं चाहा था।
दलित कविताओं का यह नया जनवादी तेवर होगा।
एक सीमित, संकुचित उद्देश्य और अम्बेडकरवाद के
भक्तिभाव को लेकर चल रही दलित कविता को अपने भविष्य के बारे में पुनर्विचार करना
चाहिए। ‘‘जातिविहीन, वर्गविहीन समाज की कल्पना करने वाले
डा. अम्बेडकर ने धर्मविहीन समाज की बात क्यों नहीं की। कोई भी विचार अंतिम नहीं, न कोई विचारक अंत्य परीक्षण से परे।’’ (मूलचन्द सोनकर) मलखान सिंह पर लहक-30 में आर. डी. आनन्द का एक लेख है- ‘नहीं चाहिए तुम्हारा स्वर्ग’, जिसमें वे तटस्थ और तार्किक निष्कर्ष
पर पहुंचते हैं। मगर जिसे दलित साहित्यकार आलोचक स्वीकार नहीं करना चाहेंगे। ‘‘दलित साहित्यकारों को पढ़ते और उन पर
लिखते समय मुझे कोई क्रांतिकारी सिद्धांत, कोई क्रांतिकारी संगठन, कोई क्रांतिकारी रणनीति, कोई क्रांतिकारी रणकौशल, कोई क्रांतिकारी आचारसंहिता का दर्शन
नहीं होता। सभी दलित साहित्यकार कहते हैं कि ब्राह्मणवाद खत्म करना है और यह
अम्बेडकरवाद के रास्ते से ही सम्भव होगा। लेकिन अम्बेडकर पर दलित साहित्यकार एकमत
नहीं हुआ। सभी के अपने अपने अम्बेडकर हैं। दलित साहित्यकारों ने कौन-कौन सहयोगी
शक्तियां हैं और कौन-कौन सी दुश्मन शक्तियां हैं, का अभी तक खुलासा नहीं किया। दलित
साहित्यकारों को ब्राह्मणवादी सवर्ण और प्रगतिशील सवर्ण में अंतर करना होगा।’’ कही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। बिना
प्रगतिशील वाम चेतना के, दलित
कविता पानी में लाठी पीटती रहेगी, वैसे
ही जैसे जनवादी कविता बिना जाति विषमताओं और दलित चेतना से सरोकार रखे कृत्रिम
होती चली गयी। ‘‘जाति धर्म, उत्पादन और उत्पादन के साधनों पर कब्जा
के वर्चस्व को लेकर टिकी है। उत्पादन के उद्देश्य बदल दो और उत्पादन के साधनों पर
सामूहिक मालिकाना व राष्ट्रीयकरण हो... क्रांति ही उपाय है।’’ (लहक - 30, पृ.100) यही अम्बेडकर का राजकीय समाजवाद है।
मलखान सिंह के मन में जनवाद और दलितवाद
के लेकर दुविधा थी। अपनी पुस्तक ‘सुनो
ब्राह्मण’ में उनका कवि कथन है- ‘‘पूर्ण को एक साथ न पकड़ पाने की छटपटाहट
ही अंश के रूप में मेरी कविताओं को जन्म देती चलती है।’’ पूर्णता कहीं नहीं, न जनवाद में, न दलितवाद में। मलखान जिंदा होते तो
शायद इन बातों पर नए सिरे से सोचते।
सम्पर्क
देवेन्द्र आर्य
‘आशावरी’, ए-127, आवास विकास कालोनी,
शाहपुर, गोरखपुर-273006
मोबाइल: 7318323162
देवेन्द्र आर्य जी द्वारा मलखान सिंह जी की कविताओं पर बहुत सटीक और सूक्ष्म विश्लेषणात्मक समीक्षा पढ़ना बहुत अच्छा लगा। मलखान की कवितायेँ व्यवस्था पर करारा चोट करती हैं। आक्रोश जब चरम पर होता है तब उसे जग जाहिर होने से कोई नहीं रोक सकता है , उसे सबके सामने आना ही होता है
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