विजय प्रताप सिंह की गज़लें





                                                                       

विजय प्रताप सिंह ने अरसा पहले कुछ उम्दा कविताएँ लिखी थीं। बहुत दिनों तक उनका कुछ भी लिखा जब सामने नहीं आया तो ऐसा लगा जैसे वे अपने रचनाकार से सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे हैं। लेकिन तसल्ली की बात है कि उन्होंने उम्मीदपरक वापसी की है। यह वापसी इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि मुक्त छन्द में कविताएँ लिखने वाला कवि ग़ज़ल अब गज़ल को साध रहा है। शिल्प के स्तर पर भले ही कोई इन ग़ज़लों में मीन मेख निकाले, कथ्य के स्तर पर उन्होंने कोई समझौता नहीं किया है और उनका रचनात्मक तेवर बना हुआ है। अपनी एक ग़ज़ल में विजय लिखते हैं : 'अपनी ज़ुल्मतों का तुम हिसाब क्या दोगे/ कभी पूछ बैठे हम तो जवाब क्या दोगे।' इसी ग़ज़ल की अगली कुछ पंक्तियाँ उन अहमकों को इस बात का अहसास कराते हुए इस तरह की हैं : 'तुम्हें गुरुर है कि तुम दे सकते हो सब, नाउम्मीद हों आँखें तो ख्वाब क्या दोगे।' विजय ने अपनी कुछ ग़ज़लों को  नामचीन शायरों की चर्चित पंक्तियों के सहारे आगे बढ़ाया है। ऐसे में कभी- कभी अनुकरण का भ्रम होता है। इस सन्दर्भ में विजय को सजग रहते हुए अपनी पंक्तियाँ, अपने मुहावरों की खोज खुद करना होगा। आज पहली बार पर प्रस्तुत हैं विजय प्रताप सिंह की गज़लें।



विजय प्रताप सिंह की गज़लें


(1)


’’बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना’’
जो भी हो मुझे सब बतलाए हुए रहना।

सीने से न लग पाना या मुझसे बिछड़ जाना,
तुम प्यार को आंखों से जतलाए हुए रहना।

आंखों की ये फितरत है बादल की तरह रोना,
बादल की तरह आंसू बरसाए हुए रहना।

बेचैन हॅू मैं कितना सोते हो सुकूं से तुम,
मुश्किल है यहां दिल को बहलाए हुए रहना।

बे-फिक्र सी मस्ती का आलम वो कहां अब है,
थोड़ी सी भी पी लेना, लहराए हुए रहना।

इक ऐसा करिश्मा जो कैसे तुम्हें आता है,
इक बात को बातों में उलझाए हुए रहना।

इंसान की फितरत का पहलू एक ये भी है,
अपनी ही सच्चाई को झुठलाए हुए रहना।

कहीं पी न भटक जाए जरा दूर से ले आना,
उसे हाथ पकड़ के राह दिखलाए हुए रहना।


(मुनीर नियाज़ी जी की एक ग़ज़ल से प्रभावित हो कर)




(2)


इस तरह ज़िन्दगी रायगां न करे,
मजबूर कोई इतना हो ख़ुदा न करे।

बा-अदब कोई शम्आ से रौशन हो सहर,
बे-अदब कोई घर चिरागां न करे।

झुकते हुए कंधे प मेरे सर रख दे,
कोई इतना भी करे अगर ज़्यादा न करे।

जिस हाल में मैं  हूँ मुझे रहने दे,
अब बुरा न करे कोई अच्छा न करे।

दयार-ए-दिल मेरा ये लुटने के लिए है,
या तेरा न करे कोई मेरा न करे।

सबे फुरकत है और कोई महरम भी नहीं,
यादे ज़िंदा से भी मुझको रिहा न करे।

ये उम्मीद के आंसू ये कतरात लहू के,
सियासत की बस्ती है ये क्या न करे।




(3)


मेरा सब साज़-ओ-सामान बिक जाता,
मेरी दुकां, मेरा मकान बिक जाता।

एक तेरी याद से ठहर गये वरना,
मेरा सब कुछ मेरा ईमान बिक जाता।

बिक सकता है इस सियासत में सब,
इंसान बिकता है, अरमान बिक जाता।

दिखावे से मैं बहुत दूर हूँ वरना,
बाज़ार में मेरा सामान बिक जाता।

वो नाम जो तुम्हें विरसे में मिला है,
बेच लो जब तक वो नाम बिक जाता।



(4)


’’ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया,’’
साक़ी-ओ-मीना-ओ-जाम पे रोना आया।

तू था तो फूलों की महक आती थी,
बगैर तेरे तो गुलदान पे रोना आया।

यूं तो महज वादों पे बहल जाते हैं,
ख़ून-ओ-ख़ंजर पे नियाम पे रोना आया।

इक आवाज़ पर उठ कर जो चले आते थे,
आज उनकी जगह पैग़ाम पे रोना आया।

जिन दरख़्तों के साये में सुकूं मिलता था,
आज उनके ही दर-ओ-बाम पे रोना आया।

(शकील बदायूंनी की एक प्रसिद्ध ग़ज़ल से प्रभावित हो कर)





(5)


उन्हीं राहों से जो गुजरा तो तेरी याद आई,
दिखा ख़्वाब में तेरा मुखड़ा तो तेरी याद आई।

रात भर भूल जाने की बस क़वायद थी,
रूप सुब्ह का जो निखरा तो तेरी याद आई।

कर के नेकी तू तो डाल चुका था दरिया में,
काम मेरा ही कोई बिगड़ा तो तेरी याद आई।

आहों की डोरी में अश्कों की माला का,
मोती कोई टूट के बिखरा तो तेरी याद आई।

सादगी से भरी उस रात की बात का,
तीर सीने में कोई उतरा तो तेरी याद आई।



(6)


अपनी ज़ुल्मतों का तुम हिसाब क्या दोगे,
कभी पूछ बैठे हम तो जवाब क्या दोगे।

बेवजह  राह  में  दीवार  देने  वालों,
जाने आने के लिए तुम बाब क्या दोगे।

तुम्हें गुरूर है कि तुम दे सकते हो सब,
नाउम्मीद हों आंखें तो ख़्वाब क्या दोगे।

ताउम्र  हम  जो  कांटो  पर  चले  हैं,
सैलाब  में  हैं  अब  गुलाब क्या दोगे।

हार  पर  मेरी  ताली  पीटने  वाले,
जीता कहीं अगर तो खि़ताब क्या दोगे।



(7)


’’वो जो हममें तुममें क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो’’
कभी हममें तुममें भी प्यार था तुम्हें याद हो कि न याद हो।

वो राह  भर तेरे  साथ में  तेरा हाथ  लेकर हाथ  में,
कहीं छांव में ज़रा बैठना तुम्हें याद हो कि न याद हो।

इक फूल था  मेरा हमसफ़र तो फूल थी मेरी रहगुज़र,
वो सफ़र जो तेरी चाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो।

वो देर तक तुम्हें देखना वो जो प्यार से तुम्हें चूमना,
वो टूटकर मेरा चाहना तुम्हें याद हो कि न याद हो।

कभी धूप थी कभी छांव थी कभी चाह थी कभी आह थी,
वो था ज़िन्दगी का सिलसिला तुम्हें याद हो कि न याद हो।

(नोट- मोमिन की एक प्रसिद्ध ग़ज़ल से प्रभावित हो कर)



(8)


ये क़िस्सा तो उसकी ज़िन्दगी का नहीं,
ये मकां है ज़रूर  उस मक़ीं का नहीं।

वो गया कभी तो  पलट कर नहीं देखा,
मसअला बस यही है, बेरूख़ी का नहीं।

दिल तोड़ कर  भी  वो ले लेता है दिल,
जवाब उस शख़्स की सादगी का नहीं।

प्यार  दे कर  बदले में मांगता है प्यार,
वह आदमी ज़रूर इस सदी का नहीं।

जो ले गया है दिल अब मांगता है सर,
ठिकाना  सचमुच  मेरी  खुशी का नहीं।



(9)


नफ़रतें ये किसी दिन पिघल जायेंगी,
आंख से अश्क बन के निकल जायेंगी।

आदतन जख़्म  देना  मुसव्विर  मेरे,
सूरतें  जिस तरह भी बदल जायेंगी।

तेज़ से  तेज़तर  हों अभी  धड़कनें,
कभी  धड़कनें  फिर संभल जायेंगी।

भूख  से  ये  विलखती हुईं पीढ़ियां,
इक न इक दिन अचानक मचल जायेंगी।

चुनौतियां  रहेंगी  कोई    कोई,
तुम कहते रहो आज कल जायेंगी।



(10)


ये माना कि अभी उम्र में छोटा है बहुत,
जीवन के तजुर्बों को मगर देखा है बहुत।

गुमसुम सा रहता है वो बहुत चुप रहता है,
वर्षों से मसाइल पर वो बोला है बहुत।

कहते हैं इक वादे पर कट जाती है इक उम्र,
कटना तरे वादे पर इक लम्हा है बहुत।

सो गया है मुसाफिर वो मक़ाम पर आ कर,
सोने दो उसे जी भर उसे सोना है बहुत।

हँसता है वो पागल तो हँस लेने दे उसे,
मंजिल के हर गाम़ पर वो रोया है बहुत।




(विजय प्रताप सिंह आजकल जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी मैनपुरी के रूप में कार्यरत हैं.)  


पत्राचार का पता-



विजय प्रताप सिंह द्वारा श्री रितुरन्जय सिंह,

निवासी- ई- 503, कलपतरू अपार्टमेंट,

वरदान खण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ (उ0प्र0)

पिन कोड- 226010



मोबाइल नम्बर- 7398025280, 808169949

टिप्पणियाँ

  1. Super..Tiger is back. Vijay ji your ghazals are so factual that everyone can connect oneself with his own life. I would like to listen these lines in your voice in next meeting.

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    उत्तर
    1. जरूर। बहुमूल्य टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।

      हटाएं
  2. सवाल इस बात का नहीं कि विजय हिंदी से उर्दू में आ गये या शिल्प के लिहाज से गजलों में उतनी कसावट नहीं है सबसे महत्वपूर्ण ये है कि रचनात्मक व्यक्तित्व अपने मूल स्वभाव में ही डूबता है अौर विजय एक लम्बे अरसे से विभिन्न पदों पर अपनी जिम्मेदारीयो को बखूबी निभाते हुए अपने मूल स्वभाव में लौट आए हैं और लौटे भी है तो पूरी खनक के साथ । बेशक उन्होंने कुछ ग़ज़लें कुछ शायरों से प्रभावित हो कर लिखीं और इसका जिक्र भी ईमानदारी से किया है । दूसरी तरफ अपनी मौलिक शैली भी विकसित की जब वो कहते है ,प्यार दे कर बदले में मांगता है प्यार
    वो आदमी ज़रूर इस सदी का नहीं। या
    इस तरह ज़िन्दगी रायगां न करे,
    मजबूर कोई इतना हो ख़ुदा न करे।
    झुकते हुए कंधे प मेरे सर रख दे,
    कोई इतना भी करे अगर ज़्यादा न करे।
    जिस हाल में मैं हूँ मुझे रहने दे,
    अब बुरा न करे कोई अच्छा न करे।
    या।
    रूक जाते हैं क़दम और थक जाती है बाहें,
    कांधा एक ही अर्थी को बराबर कौन देता है।
    इनकी रचनाओं की खासियत ये भी है कि ये शब्दों के आडम्बर या शिल्प के मकड़जाल में नहीं उलझते अपनी बात बहुत सहजता से कह देते हैं और वो बड़ी सहजता से दिल को छू जाती है।
    इस तरह की लाइनों से विजय न सिर्फ वतर्मान में अपनी दमदार उपस्थिति दिखाते हैं वरन भविष्य में भी कुछ महकते हुए गुलाब की उम्मीद देते हैं।
    शुभकामनाओं सहित

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  3. अतिसुन्दर, सराहनीय........... सादर,

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