कैलाश बनवासी की कहानी 'बस के खेल और चार्ली चैप्लिन'
कैलाश बनवासी |
निश्चित रूप से आज के दौर हम तकनीकी रूप से सबसे अधिक समृद्ध हैं। सोशल मीडिया पर अत्यन्त सक्रिय भी। लेकिन यह भी एक कड़वी हकीकत है कि हम संवेदना के स्तर पर लगातार पिछड़ते चले जा रहे हैं। मुझे तो इस बात का डर है कि आगे के दिनों में संवेदना महज किताबी शब्द बन कर ही न रह जाए। कैलाश बनवासी ने अपनी इस मार्मिक कहानी 'बस
के खेल और चार्ली चैप्लिन' के माध्यम से कुछ ऐसे ही इशारे किए हैं जो हमारी लगातार क्षरित होती हुई संवेदनशीलता पर प्रहार करती है। दुखद तो यह है कि इसका शिकार भी वही लोग हैं जिन्हें हम श्रमिक नाम से जानते-पहचानते हैं। दुर्भाग्यवश तकनीक की तरह ही वे सोशल मीडिया से भी दूर हैं। दोनों जगह इनके नाम पर बाजीगरी हो रही है जबकि आज भी मजदूरों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। बहरहाल इसी भावभूमि पर आधारित कहानी - 'बस
के खेल और चार्ली चैप्लिन' आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। इस कहानी के कहानीकार हैं युवा एवं सुपरिचित कथाकार कैलाश बनवासी। आज की यह पोस्ट हमारे लिए इसलिए भी विशेष है कि पहली बार पर प्रकाशित यह 600वीं पोस्ट है।
'बस के खेल और चार्ली चैप्लिन'
कैलाश बनवासी
मैं अभी-अभी बस में चढ़ा हूँ, और चढ़ने के साथ ही एक झटका-सा लगता है, पल भर में मानो दुनिया बदल जाती है। एकाएक। मैं हतप्रभ रह जाता हूँ!
यों यह रोज हो रहा है,खासकर इन दिनों...। बस में चढ़ते ही, दुनिया सहसा बदल जाती है...।
जब कि, अभी कुछ देर पहले तक,गाँव के सरकारी स्कूल से-जहाँ मैं पढ़ाता हूँ- छुट्टी के बाद साइकिल से लौटते हुए, मन ही मन में कितना खुश था! बहुत ही खुश! जैसे अनायास और अकारण ही। कि जैसे आज का काम पूरा हुआ-इसकी खुशी! और इस समय, गाँव से दुर्ग शहर के अपने घर लौटते हुए मैं अक्सर ही खुश रहता हूँ। मेरे सामने होते हैं गाँव के लीपे-बुहारे साफ-सुथरे घर, घर के सामने बने चैरा में बहुत फुरसत से बैठे और गप्प हाँकते बूढ़े-बूढि़याँ, वहीं गली या मैदान में खेलते-कूदते हुए बच्चे...आपस में हँसते, चिढ़ाते और शोर मचाते। गली में बोरिंग से पानी भरती किशारियां, स्त्रियां...। मेरा मन रम जाता है उनके घरों में, उनके गाय-बैलों में, जो अपने गीले काले नथुनों से सूँ-सूँ करके सांस लेते हैं, जो पुआल खाने में जुटे हैं, जिनके गले में बंधी घंटियां गरदन के हिलने की लय में टुनटुनाती हैं, आसपास की हवा एक अजीब, उष्णीय गंध से भर गई है जो गाय-बैलों, गोबर और पुआल से मानो एक साथ फूट रही है। देखता हूँ कि अपने बियारा में धान की मिंजाई करते वे कितने आनंदित हैं, घर के छोटे बच्चे बैलगाड़ी में बैठे हुए हैं एक-दूसरे से सटे। और झगड़ते।... और गुजरते हुए देखता हूँ यहाँ के खेत, मैदान, तालाब, पेड़, तरह-तरह के पंछी, और शाम का आकाश जिसमें धीरे-धीरे लाली भर रही है... देखता हूँ किसानों को जो अपने खेतों से पिछले चार महीने की मेहनत की कमाई-धान- बैलगाड़ी में लादे लौट रहे हैं, पैदल, मंथर गति से। उन्हें किसी किस्म की कोई जल्दी नहीं है, बल्कि श्रम से थके उनके सांवले चेहरों पर काम के पूरे हो जाने का गहरा सुकून है। मैं इनमें खो-सा जाता हूँ। और दिसम्बर की सांझ के नर्म सिंदूरी आलोक में यह सब देखते हुए मैं जैसे किसी अनाम सुख से भर जाता हूँ! इसे ठीक-ठीक व्यक्त कर पाना कठिन है मेरे लिए। जैसे कि यह सब देखना ही मानो धीरे-धीरे मेरे भीतर कोई सुख सिरजते जाते हैं...अपने-आप।
मुझे इस समय घर लौटने की कतई जल्दी नहीं रहती। यहाँ के माहौल और आबो-हवा का मुझ पर कुछ ऐसा असर होता है कि यहाँ की लाल-भूरी कच्ची सड़क पर मेरी साइकिल भी इनकी बैलगाड़ी के मानिंद चलने लगती है, धीरे-धीरे। ऐसा लगता है, जितनी देर इन सब के संग रहलो,उतना ही अच्छा! हालांकि रोज ही रहता हूँ।
मुझे दुर्ग जाने वाली बस पकड़ने के लिए गाँव
से चार किलोमीटर दूर मुख्य सड़क तक
पहुँचना होता है। वहाँ ‘लक्ष्मण साइकिल स्टोर’ में अपनी साइकिल छोड़
कर बस पकड़ता हूँ।
...बस में भीड़ ऐसी है कि पैर धरने की जगह नहीं। लोग सीटों के अलावा सीटों के बीच की संकरी गैलरी में किसी तरह ठंसे हुए हैं। यहाँ गरमी है, और एक-दूसरे से चिपके खड़े लोगों की देहों से उठती हुई पसीने की खारी और चिपचिपी गंध...। साथ ही भेड़-बकरियों की तरह से भरा गए देहातियों और उनके ढेर सारे बोरों,पोटलियों की गंध है। ये इधर रोज ही अपने माल-असबाब के साथ, जाने कहाँ-कहाँ से निकल कर आ जाते हैं,जैसे मधुमक्खी के छत्ते पर किसी ने ढेला फेंक दिया हो और मधुमक्खियाँ जोरों से भनभनाती हुईं यहाँ-वहाँ तितर-बितर हो रही हों! वे लोग सचमुच अपने माल-असबाब की ही तरह इस बस में किसी तरह ठंसे पड़े हैं। ये स्थिति न तो बस कंडक्टर के लिए कोई नई चीज है न ही रोज के यात्रियों के लिए। हाँ, लेकिन सभ्य-जनों को जरूर लगता होगा- ‘अरे,कहाँ से आ गए ये गंवार? जरा देखो इनको! पूरा घर-गिरस्थी उठाकर चले जा रहे हैं! तरह-तरह के बोरे, टीन-टपरे, संदूक-बक्से! तिस पर अपने इतने सारे बच्चे!’
...बस में भीड़ ऐसी है कि पैर धरने की जगह नहीं। लोग सीटों के अलावा सीटों के बीच की संकरी गैलरी में किसी तरह ठंसे हुए हैं। यहाँ गरमी है, और एक-दूसरे से चिपके खड़े लोगों की देहों से उठती हुई पसीने की खारी और चिपचिपी गंध...। साथ ही भेड़-बकरियों की तरह से भरा गए देहातियों और उनके ढेर सारे बोरों,पोटलियों की गंध है। ये इधर रोज ही अपने माल-असबाब के साथ, जाने कहाँ-कहाँ से निकल कर आ जाते हैं,जैसे मधुमक्खी के छत्ते पर किसी ने ढेला फेंक दिया हो और मधुमक्खियाँ जोरों से भनभनाती हुईं यहाँ-वहाँ तितर-बितर हो रही हों! वे लोग सचमुच अपने माल-असबाब की ही तरह इस बस में किसी तरह ठंसे पड़े हैं। ये स्थिति न तो बस कंडक्टर के लिए कोई नई चीज है न ही रोज के यात्रियों के लिए। हाँ, लेकिन सभ्य-जनों को जरूर लगता होगा- ‘अरे,कहाँ से आ गए ये गंवार? जरा देखो इनको! पूरा घर-गिरस्थी उठाकर चले जा रहे हैं! तरह-तरह के बोरे, टीन-टपरे, संदूक-बक्से! तिस पर अपने इतने सारे बच्चे!’
ये सारे रेलवे स्टेशन जा रहे हैं। वहाँ से फिर अपने-अपने गंतव्य की ओर जाने के लिए बंट जाएंगे- टाटा, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद, हैदराबाद, श्रीनगर, पठानकोट...।
भीड़ में मैं भी खड़ा हूँ। इन्हीं में से एक यह परिवार है जो ऐन मेरे आगे खड़ा है-सामने से दो सीट पीछे। ये चार लोग हैं-पति, पत्नी और दो बच्चे। पति काले रंग का दुबला-पतला और ठिगना आदमी है, अलबत्ता मेहनत-मजदूरी के कारण देह कसी हुई है। साथ में पत्नी, छोटे कद की सांवली स्त्री। इनके साथ दो छोटे-छोटे बच्चे हैं... एक तीन-साढ़े तीन साल का लड़का... और उससे बमुश्किल एकाध साल बड़ी लड़की। दोनों ही बच्चे निहायत दुबले-पतले। चारों बिलकुल निरीह और दयनीय नजर आ रहे हैं, खासकर इस समय। और बच्चे तो इस भीड़ में ऐसे गुम हैं कि किसी को दिखाई भी नहीं दे रहे। दोनों को दरअसल साथ की सीट से एकदम सटा के ऐसे खड़ा कर दिया गया है कि किसी को दिखाई नहीं पड़ रहे।
‘एला अपन गोदी म बइठा ले मेडम!’’
अभी-अभी ही औरत ने बालक के बगल की सीट पर बैठी दो लड़कियों से हँस कर, अनुरोध में कहा है।
‘‘नहीं। हमारे पास जगह नहीं है।’’ लड़कियों ने साफ मना कर दिया है।
दोनों ही अपना चेहरा स्कार्फ से बांधे हुए हैं, देखने के लिए आँख भर जगह मात्र छोड़ कर। ऐसे स्कार्फ बांधना हमारे छोटे से बड़े होते शहर का जाने कैसे, इधर की किशोरियों-युवतियों का अपना एक फैशन-सा बन गया है। जान पड़ता है जैसे इन्हें अपनी पहचान किसी कारण से अपने परिचितों से ही छुपानी है! इनमें से एक ने जो कुछ लंबी, गोरी और भरे देह की है, चटख पीले रंग का सूट पहना है, जबकि दूसरी थोड़ी छोटी, दुबली और सांवली है। दोनों में गोरी ही ज्यादा वाचाल नजर आती है सांवली की तुलना में। व्यक्ति के स्वभाव बनने में भी ‘कलर फैक्टर’ ही मुख्य काम करता है जैसे। मुझे ये दोनों लड़कियाँ हाल-फिलहाल नौकरी में आयीं जान पड़ती हैं। मैडम हैं। शायद दोनों एक ही स्कूल में पढ़ाती हैं। साथ ही लौट रही हैं। संभवतः इस बस की नियमित सवारी, जिनके लिए कंडक्टर जगह रोक कर रखता होगा...। ये दोनों ही बाइस-चौबीस की उम्र की हैं।
लड़कियाँ बस के हालात से बेखबर इस समय अपनी बातचीत में डूबी हैं।
गोरी बता रही है,‘‘मालूम है, बी.एस-सी. फाइनल में प्रेक्टिकल के दिन मेरे साथ क्या हुआ था?’’
‘‘तू बताएगी तभी तो जानूंगी।’’
‘‘अरे, मैं भी ऐसी भुलक्कड़ हूँ न... अपने बायो प्रेक्टिकल एक्जाम की डेट ही भूल गई थी! और मैं मजे से भाभी के संग सबेरे मार्केट चली गई थी। वहाँ से आयी तो मेरे को स्ट्राइक हुआ... कुछ भूल रही हूँ कर के...। तभी फट् से याद आया, अरेऽऽ..आज तो मेरा प्रेक्टिकल एक्जाम है! दो बजे से! मैंने घड़ी देखी, पौने दो गए थे। मैं तुरंत भागी! वैसेच! मार्केट गई थी तो हाई हिल की सैंडिल पहने थी, उसी को पहने-पहने काँलेज गई! तू सोच...त्रिवेदी सर ने क्या सोचा होगा मेरी हाई हिल सैंडिल देख के...?’’
सांवली ने हँस कर उसे छेड़ा, ‘‘अरे यार, जब सामने इतना सुंदर चेहरा हो तो
त्रिवेदी हो कि चतुर्वेदी, भला
कोई नीचे क्यों देखेगा? हाँ?’’
लगा, गोरी अपनी सुंदरता के लिए उसके इस कमेंट पर मन ही मन बहुत खुश हो थोड़ा शरमा गई है, पर प्रकट में बोली, ‘‘देख-देख...मैं कुछ नहीं बोल रही हूँ, न...? तू ही बोल रही है...अपने मन से।’’
कुछ देर के बाद गोरी ने तंग भाव से कहा, ‘‘छिः रे! इतनी गंदी गाड़ी है न ये। एक तो इतनी भीड़! उपर से ड्राइवर भी इतने मरियल चाल से चला रहा है।’’
‘‘ तो तू अपनी स्कूटी क्यों नहीं ले आती रानी साहिबा?’’ सांवली पूछती है।
‘‘अरे, वो बिगड़ी पड़ी है,इसीलिए तो।पर छतीस किलोमीटर रोज आना-जाना भी तो मुश्किल है। पर वैसे भी मुझे अपनी स्कूटी निकालनी है।’’
‘‘अच्छा! तो चल मेरे को बेच दे न। कितने तक बेचेगी?’’
‘‘यही दस-पंद्रह तक बेचूंगी। हार्डली चारी साल तो हुए हैं खरीदे।’’
‘‘बाप रे, दस-पंद्रह!’’ सांवली ने मुँह फाड़ लिया।
‘‘ तो और क्या? तू क्या हजार-पाँच सौ में खरीदेगी?’’
‘‘नई रे, इतना कम थोड़े ही। पर पंद्रह तो महंगा है।’’
‘‘ महंगा है तो महंगा है। जा मेरे को नई बेचना है। पैंतालिस-पचास का रेट चल रहा है, मैडम! अभी वो चार ही साल चली है...वो भी सिंगल हैंण्डिड! मेरे सिवा और कोई छूता भी नहीं मेरी गाड़ी को। पापा ने मेरे बर्डे पर गिफ्ट किया था। और पता है, मेरा ड्रीम क्या है?’’
‘‘ मेरे को कैसे पता होगा?’’
‘‘मेरा ड्रीम तो कार लेने का है। येस! आय विल बाय अ ब्रेण्ड न्यू कार!’’
‘‘वाऊ!’’
‘‘लेकिन अभी नहीं। कुछ साल बाद।’’
‘‘तब तक सेलेरी भी बढ़ जाएगी। है ना? देख, कार तो मुझे भी खरीदनी है। ऐसा कर पहले तू खरीद ले। पुरानी हो जाएगी तो मेरे को बेच देना।’’
‘‘अरे, ये तेरा सेकेंड हैण्ड वाला क्या चक्कर है? पहले मेरी स्कूटी...फिर मेरी कार... फिर कहीं ये तो नहीं बोलेगी कि तेरा हसबेण्ड? क्यूँ,तेरे को लाइफ में नया कुछ भी नहीं चाहिए? हर चीज सेकेण्ड हैण्ड? कहीं हसबेण्ड भी तो नहीं चाहिए सेकेण्ड हैण्ड...।’’
‘‘चुप यार,तू भी न...?’’
‘‘अरे, मैं अपने से कहाँ कुछ बोल रही हूँ, तू जो बोल रही है, वोई तो मैं बोल रही हूँ। वैसे आइडिया बुरा नहीं है...। दे आर एक्सपिरिएंस होल्डर...नइ...?’’ वह हँसने लगी।
‘‘अरे चुप। कुछ भी बकवास करती रहती है तू तो।’’
‘‘नइ यार, मैं तो मजाक कर ही थी।’’
‘‘बाइ द वे कौन-सी कार खरीदेगी? आइ टेन?या डिजायर...? या फिर मर्सिडीज...?’’
‘‘अरे नहीं बाबा । मैं तो ‘आरटिगा’ खरीदूँगी।’’
‘‘वाऊ! ‘मेरे डैड की मारूति’ वाली!’’ वह खुशी और ईर्ष्या से चहकी।
बस रास्ते के हर गाँव में रूकती है। इस बीच बस की सवारियां और बढ़ चली थी। बस कंडक्टर आने वाली सवारियों को इधर ही भेजता जाता था और लोगों से कहता जाता था-थोड़ा पीछे सरको भाई्! और पीछे! अभी तो और सवारी आ जाएंगे!
सामने खड़ा एक देहाती डोकरा कंडक्टर पर बड़बड़ाया - ‘‘पूरा त भरा गे हे! अउ कतेक ल चढ़ाबे?’’
इधर दोनों लड़कियाँ बातचीत बंद कर अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हो गई हैं। सांवली लड़की ने बड़ी स्क्रीन वाली अपनी मोबाइल में फेसबुक खोल लिया है, जिसमें आए कमेन्ट और पोस्ट वो तेजी से देख रही हैं।उसकी नेलपालिश से रंगी अंगुलियाँ बहुत तेजी से अपने मोबाइल की स्क्रीन को स्क्राल कर रही है जिसमें कोई भी चित्र कुछ सेकेंड से अधिक नहीं ठहर पाता। इस खोजा-खोजी में कुछ दिलचस्प दिख जाता तो पल भर ठिठक जाती, फिर आगे बढ़ जाती। वहीं इसी तरफ बैठी गोरी लड़की मोबाइल पर कोई गेम खेलने में व्यस्त हो गई है। जैसे अपने ही खालीपन से उकता कर उसने अपना टाइमपास करने यह गेम आन कर लिया। इसमें हेविवेट बाक्सर माइक टाइसन नुमा एक हृष्ट-पुष्ट, ऊँचा-पूरा निग्रो अपने हाथ में मशीन गन लिए सड़कों पर खतरनाक तेजी से भाग रहा है और उसके रास्ते में जो भी आए उन्हें बिलकुल बेधड़क, बहुत बेरहमी से भूनता जा रहा है। वह ऊँची-नीची सड़कों पर तमाम ट्रैफिक नियमों की ऐसी-तैसी करता बेहद हिंसक और अराजक तरीके से कूदता-फांदता भाग रहा है। वह आकामक ‘हीरो’ लड़की के हाथों का खिलौना था जिसे उसकी उंगलियां मन माफिक दौड़ा रही थीं...बगैर कुछ सोचे...मजे लेती हुई। स्क्रीन का वह अराजक हीरो इतने खतरनाक तेजी से कूदता-फांदता था और गोलियां चलाता था कि देखके सिहरन होती थी, एक पल को मन में भय होता था कि यदि कहीं यह जंगली ‘हीरो’ गेम से बाहर निकल आया तो क्या होगा?
मैडम उसके भागम-भाग और हत्याओं में एकदम निमग्न थी। उसे रत्ती भर भी याद नहीं था कि ठीक उसके दाहिने बगल में ही तीन बरस का एक नन्हा मासूम बहुत देर दबा-दबा छुपा-सा खड़ा है, सहमा हुआ-सा। वह लड़का चुपचाप, एक डरी हुई उत्सुकता से उसके मोबाइल पर चल रहे दृश्यों को देख रहा था। पता नहीं क्या सोच रहा है? या इस समय शायद वह कुछ भी सोच सकने से परे है...।
जबकि बच्चे के पिता ने उसे व्यस्त देखा तो वह मेरी ओर देख कर मुस्कराया, इस भाव से कि चलो, बच्चे का मन कहीं तो लग गया है, कि वह अपने खड़े रहने की तकलीफ भूल कर इसमें खोया हुआ है...।
मैंने पाया, बस में इस समय ऐसे बहुत-से लोग थे जो अपनी सीट पर बैठे थे और इसी तरह अपने मोबाइलों पर व्यस्त थे- कोई फेसबुक पर या कोई नेट पर, या कोई गाने सुनने में। अपना समय काटते। गाँवों से आए लोग खड़े-खड़े उन्हें चुपचाप बस ताक ही रहे थे, किसी अजूबे की तरह। कुछ पूछने में भी हिचकिचाते। हालांकि उन्हें काफी दूर जाना था। उनमें से किसी ने कंडक्टर से पूछा था, आगे सीट मिल ही के नहीं? कंडक्टर ने तुरंत,बगैर कुछ सोचे जवाब दिया था- मिल जाएगा।
ये लोग सचमुच गंवार है क्या? बस में जहाँ-तहाँ उनके मोटरा, पोटली, टुकना, गंजी या बोरे रखे देख कर एकबारगी मेरे मन में आता है। यहाँ तक कि डाइवर के बोनट पर भी इनका सामान रखा था, जो ये अपने साथ ले के जाएंगे। हर जगह ऐसी ही विकट परेशानी उठाते हुए, हर जगह साहब-बाबू की नजर में गंवार, उजड्ड कहलाते, उनकी डांट-गालियाँ सहते हुए...। यहाँ तक कि जहाँ काम करने ये जा रहे हैं, वहाँ भी बाबू, ठेकेदार, या मेट अथवा सुपरवाइजर की मार-गाली ही खाएंगे। अपने गाँव-घर से बेघर हो रहे इन लोगों की कुल आकांक्षा बस इतनी ही रहती है कि अपने इन खाली दिनों में काम करके वे कुछ पैसे जोड़ लें, ताकि वह पैसा कल उनके काम आ सके... बेटा-बेटी के ब्याह में... घर की छप्पर-छानी सुधरवाने में, एक-दो कमरा बनवाने में...। और यह सब ये परदेस में अपना पेट काट के, नून-बासी चटनी खा कर जोड़ेंगे...। अपने मनोरंजन के लिए इनके पास अपना सस्ता मोबाइल मात्र ही है, जिस पर फुल वाल्यूम में छतीसगढ़ी गाने सुनते हुए ये जैसे किसी तरह अपना ‘होना’ बचाए रखते हैं। उसे सुनते हुए ही ये अपने गाँव, घर या संगी-साथियों को याद कर लेंगे... जितना उनको ऐसे किसी मौके पर याद आ सकता है, उतना ही... घीरे-धीरे फिर वह भी धुंधला होता जाएगा...।
मुझे पता है,स्टेशन के पास वाले चैक में बस के पहुँचते-पहुँचते साँझ का अँधेरा कुछ गहरा चुका होगा, और बस के रूकते ही ये वहाँ उतर जाएंगे, इनके द्वारा धड़ाधड़-धड़ाधड़ अपना सामान उतारने के बावजूद कंडक्टर इनको गरियाता हुआ और जल्दी करने को बरजता रहेगा, बस के शेष यात्री फिर अपने घर पहुँचने में होने वाली देरी के लिए इन देहातियों को कोसने लगेंगे...। फिर कुछ ही देर में ये सारा सामान अपने सिर, कंधों पर लाद कर ये चल देंगे, बगल में बच्चा भी इनकी गोद में लटकता या झूलता रहेगा...कुछ पल के बाद इनकी आकृतियाँ शहर की भीड़ और साँझ के अँधेरे में धीरे-धीरे खो जाएंगे...।
यह
दृश्य इन दिनों लगभग रोज ही देख रहा हूँ। मैं इन लोगों के बारे में सोच रहा हूँ, ये परदेस जा रहे हैं, कमाने-खाने।
माई-पिल्ला! अपनी इसी गिरस्थी को ले कर।
पीछे इनका गाँव छूट रहा है, जहाँ इनका अब तक का समय बीता है, बचपन, यारी-दोस्ती, खेत-खार, घर-दुआर, गाय-बैल...सब छूट रहा
है। इन सबके छूटने के दुख को संग
लिए-लिए ये परदेस जा रहे हैं। गाँव से निकलते समय अपने परिजनों से मिल कर रोए होंगे, और रोते-रोते कहे
होंगे- ‘अब जावत हन...। दया-मया ल धरे रहिबे संगवारी...।’
यदि कोई देखना चाहे उनके दुख,तो बस जरा ध्यान से देखते ही एकदम दिखाई पड़ जाएंगे-पानी पर पड़ गए तेल की तरह सतह पर तैरते हुए।
इस समय कंडक्टर पीछे से टिकट काटता आ रहा है- ‘हाँ, आपका भाईजी? आपका मैडम? टिकट हो गया ? कहाँ का?’ ऐसी भीड़ में भी वह दुबला-पतला कंडक्टर बड़े कौशल से लोगों के बीच जगह बनाता टिकट काट रहा था।उसे इसकी आदत है। बीच मंझधार में नाव खे लेने जैसी दक्षता के साथ।
‘‘इतना काहे को भर रहे हो?’’ जींस-टी-शर्ट और गागल पहने एक लड़के ने-जो खड़ा था- काफी गुस्से से उस पर बमका- ‘‘इतनी भीड़ में तो साला खड़ा होना भी मुश्किल है!
कंडक्टर ने उसे अद्भुत अप्रत्याशित शांति से जवाब दिया-‘‘देखो भाई, जब मैं कहूंगा तो आपको बुरा लगेगा। मैं आपको बुलाने तो नहीं गया था? अगर आपको इस बस में नहीं जाना है तो आप टिकट का पैसा वापस लेकर उतर जाओ।’’
लड़का निरुत्तर हो गया।
कंडक्टर जब हम तक पहुँचा तो मैंने उसे चेताया, ‘‘अरे-अरे, देख के! यहाँ एक छोटा बच्चा है!’’
बच्चा? कंडक्टर जैसे होश में आया। उसे तो नीचे देखने की सुध ही नहीं थी। उसे तो जैसे केवल खड़े लोगों की मुंडियों की गिनती करने की आदत है। वह घबराया, इसलिए कि ऐसे कोंटे में पड़े-पड़े बच्चे को कुछ हो-हवा गया तो? उसने देहाती पर गुस्सा किया-‘‘अरे यार, ये यहाँ-कहाँ पड़ा है? इसको इधर क्यों डाल दिया है?’’
उसके कहने से देहाती को भी तैश आ गया, ‘‘अरे,तो यहाँ जगा कहाँ है? जगा रही तभे त बइठाही।’’
कंडक्टर ने अपने दोनों हाथों से पकड़ कर उसे कोने से ऐसे बाहर निकाला मानो वह बच्चा नहीं, दड़बे की एक मुर्गी हो! उसने बच्चे को अपने कंधे के भी ऊपर हवा में उठा लिया, उसके लिए उचित जगह तलाश करते। आश्चर्य कि बच्चा इस बखत भी बिल्कुल ऐसे चुप था गोया ऐसे चुप रहने की उसकी कोई पक्की ट्रेनिंग हुई हो! या कि वह भी यात्रा में बार-बार ऐसे उठा-पटक वाले तमाशे का आदी हो गया हो! बच्चा तो वैसे ही निरीह और कमजोर था, और दयनीय,जैसे जादू या तमाशा दिखाने वालों के बच्चे प्रायः हुआ करते हैं। अंतर इतना था कि इसके कपड़े फटे-पुराने नहीं थे, और देह भी मैली नहीं थी। इसके माता -पिता ने इसे अपेक्षाकृत संवार के रखा था।
कंडक्टर बड़बड़ाया, ‘‘अरे यार, तुम लोग भी न बच्चे को नीचे में कचरे के माफिक डाल दिये हो? कहीं कुछ हो हवा गया तो साली हमारी ही मुसीबत!
‘‘तो कोनो जगा बइठा दे एला!हम मन त कहत-कहत थक गेन!’’ कंडक्टर की भलमनसाहत का लाभ उठाने की गरज से आदमी बोला।
अब वह बच्चा कंडक्टर के हाथों में था तो यह जैसे उसकी जिम्मेदारी हो गई थी। उसने बच्चे को बगल में बैठी मैडम के गोद में जबरदस्ती डाल दिया, यह कहते हुए कि थोड़ी देर के लिए इसे बिठा लो, मैडम।
‘‘अरे-अरे!’’ मोबाइल में गेम खेलती मैडम गुस्से से चीखी, ‘‘हटाओ इसको यहाँ से! ये मेरा नहीं है!’’
यह कहने पर आसपास के लोग हँस पड़े तो मैडम को अहसास हुआ उसने कुछ गलत कह दिया है।
कंडक्टर भला हँसी-मजाक के इस मौके को कब छोड़ने वाला था। बोला, ‘‘मैं कब कह रहा हूँ मैडम बच्चा आपका है। मैं तो ये कह रहा हूँ कि इसको अपनी गोद में थोड़ी देर के लिए बिठा लो।’’
‘‘नइ! मैं किसी को अपने गोद में नहीं बिठाती! किसी दूसरे को दो। हटाओ यहाँ से!’’ मैडम ने बहुत सख्ती से कहा।
कंडक्टर ने उसके तेवर देखे तो समझ गया कहना बेकार है। फिर उसने सोचा कि ये तो मेरे रोज की पैसेंजर है, नाराज करना ठीक नहीं होगा। तब उसने दूसरी सीट पर बैठे एक मोटी मूँछ वाले मोटे आदमी को देना चाहा, ‘‘भाई साब, इस बच्चे को गोद में बिठा लो।तो वह भी मानो अपनी नींद से जागा, ‘‘अरे नहीं-नहीं! क्या करते हो? किसी दूसरे को दो!’’
मैं देख रहा था, वह बच्चे को लिए-लिए आस-पास घूम रहा है, उसके लिए कोई जगह तलाशते।
मुझे सहसा आभास हुआ, कि मैं चार्ली चैप्लिन की कोई फिल्म देख रहा हूँ... बीसवीं सदी के शुरूआती दौर की कोई मूक और श्वेत-श्याम फिल्म, जिसमें चार्ली चैप्लिन उस गँवइ बच्चे को गोद में लिए-लिए बस में घूम रहा है... एक सीट से दूसरी सीट, उसको कहीं बिठाने मात्र के लिए बार-बार अपनी टोपी उतार कर उनसे अनुरोध करता...अपनी आंखों से, होठों से भद्र-जनों से याचना करता, चिरौरी करता। और बस में उस दौर के कुलीन लोग सवार हैं- उद्योगपति, अफसर, व्यवसायी या जमींदार! कोट पहने मोटी-मोटी मूँछ वाले रौबदार लोग! और बहुत कीमती विक्टोरियन रेशमी घरारेदार गाउन पहनी मोटी स्त्रियां! सब उसे बुरी तरह दुत्कार-फटकार रहे हैं, लेकिन कोई भी उसकी मदद नहीं कर रहा। आखिर में किसी ने भी उसको जगह नहीं दी है...।अब चैप्लिन के मासूम-से मसखरे चेहरे पर अपने हार जाने की एक निरीह हँसी है, लेकिन इस हँसी में चिथड़ा-चिथड़ा हो चुकी उसकी आत्मा की अकथ पीड़ा है, छटपटाहट है, और बहुत गहरी उदासी है... समुद्र जैसी गहरी उदासी...।
और मैं पाता हूँ, हार कर कंडक्टर ने बच्चे को वापस उसी कोने में छोड़ दिया है जहाँ से उसने उठाया था। और अपने बाकी काम निपटाने आगे बढ़ गया है...।
बगल की सीट वाली लड़की अपने गेम में फिर उसी तरह मगन हो गई है। जैसे आस-पास और कुछ है ही नहीं!
बच्चा अपनी भोली आंखों से फिर उसके मोबाइल स्क्रीन पर हो रहे कूद-फांद को देख रहा है।
अबकी बच्चे के मजूर पिता ने मुस्कुरा कर अपने बेटे का दिल बहलाने के लिए कहा है- ‘‘अरे,देख तो बेटा...मेडम हा का खेलत हे!’’
इस पर बच्चा जरा-सा खुश होकर मुस्कुरा दिया है।
सम्पर्क-
कैलाश बनवासी,
41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा,
दुर्ग (छ.ग.)
मोबाईल - 98279 93920
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
एक अच्छा चयन...बनवासी जी की एक कहानी दिसंबर 2015 के अंक में भी प्रकाशित हुई है...अभी ज्ञानपीठ समाचार मिला है..ज्ञात हुआ है ज्ञानपीठ से भी बनवासी जी का कहानी संकलन 'बाजार में रामधन' प्रकाशित हुआ है...आप दोनों को साधुवाद.
जवाब देंहटाएंवागर्थ में...
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