अमरेन्द्र कुमार शर्मा की कविताएँ



अमरेन्द्र कुमार शर्मा
                   

कवि, आलोचक अमरेन्द्र कुमार शर्मा का जन्म 1 जनवरी 1975 को हुआ.
आलोचना की इनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं - 
'आपातकाल : हिंदी साहित्य और पत्रकारिता' और 'आलोचना का स्वराजकाव्य-संग्रह प्रकाशनाधीन
दर्जनों पत्रिकाओं और अख़बारों में कविता और आलोचना लेख प्रकाशित.  
साहित्य के साथ कला माध्यमों और सामाजिक विज्ञान के रिश्ते पर लगातार चिंतन और लेखन
आजकल ज्ञान के विकास में नदी, यात्रा और स्वप्न के रिश्ते की पड़ताल.
सम्प्रति - महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्विद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद केंद्र में अध्यापन




युवा आलोचक अमरेन्द्र कुमार शर्मा एक बेहतर कवि भी हैं कविता का उनका धरातल पुख्ता है इसलिए भी कि यह कवि नदी को धरती के पुरातत्व में तब्दील होने से पहले ही अनुवादित कर लेना चाहता है यह अनुवाद इसलिए भी अहम् है कि नदियों से मनुष्य का नाता सदियों पुराना है ध्यातव्य है कि नदियाँ जीवन का अजस्र स्रोत भी हैं इनके बिना धरती की कल्पना ठीक वैसी ही होगी जैसी कि प्राण के बिना देह की कल्पना आइए आज पढ़ते हैं भरे-पूरे प्रेम के इस आकांक्षी कवि की नवीनतम कविताएँ


अमरेन्द्र कुमार शर्मा की कविताएँ

एक भरा - पूरा प्रेम


धरती की सारी नदियाँ मुझमें उतर रही है
और समुन्दर पिछली सदी से देख रहा है मुझे
मैं स्तब्ध और अचम्भित हो रहा हूँ
आत्मा पर उदासी की एक अछोर लकीर
वर्तुलाकार घूम रही है
इससे पहले की नदियाँ सुख जाएँ
या कि समा जाये समुन्दर में
और धरती पर नदी पुरातत्व का हिस्सा हो जाए
मैं जल्दी से नदी का अनुवाद कर लेना चाहता हूँ
एक भरा पूरा अनुवाद
एक भरी पूरी नदी
एक भरा पूरा समय
मैं एक भरा पूरा प्रेम कर लेना चाहता हूँ। 




क्रम में नहीं  है जो 


1

मैं धरती का
सबसे पहला खानाबदोश
एक ऐसे  अनाज के पौधे की खोज में भटकता हूँ
जो भर सके धरती पर समान रूप से सभी भूखों का पेट,
जिससे बची रह सकें प्रेम और कलाएँ।

2

एक दुनिया
जो रोज बनती है मेरे साथ-साथ
मिट जाता है प्रेम
मेरे संवेदनाओं के ध्रुवांतों में।

3

कुछ कम नहीं हैं गम
मेरे समय के कपड़े की सफेदी पर दाग
मेरी दुनिया की देह पर एक बड़ा सा घाव 
खाली कनस्तरों के तिलचट्टे 
रेंगते है रोज -
मेरे निखालिस सपनों  के तलछट में।

4

मेरी इच्छाओं  के आग्नेय में तुम रोज जन्म लेती हो
और खिलती हुई पामीर के पठार से चली आती हो दण्डकारण्य
मेरे भीतर का लावा पसरता है तुम्हारी आत्मा के तहखाने में।


मैं देश हूँ
स्त्री के सपनों का हन्ता देश
मुझमें समाई हैं, हजार-हजार हाथों वाली नदी
जिसमें डुबोता हूँतमाम रतजगों के सपने
निगलता हूँ स्त्री का सम्पूर्ण वैभव
उजाड़ता हूँ उसके अस्मत का रेशा-रेशा
महानगरों से लेकर  कस्बों तक
अपने पुरातन तिर्यक भंगिमाओं में।

6

साहित्य के कोने से कोई एक धीमी हँसी
कला का कोई एक धीमा रुदन गढ़ता है।
साहित्य के बड़े से किले के परकोटे से एक तेज अट्टहास
भयभीत कर जाता है।
सावधान, वह साहित्य का ईश्वर है -

7

हम हमेशा एक ही कविता लिखते रहते हैं
बार-बार दुनिया के हर हिस्से  में।
एक ही चित्र बनाते हैं - विभिन्न रंगों और कूचियों के भिन्न आकारों से
एक ही राग गूंजता है हमारे बीच भिन्न ध्वनियों में।

8

अपने समय को ज्यादा उदार, न्यायपूर्ण
और उत्तरदायी बनाने की चाह में
अपनी भाषा और अपने भूगोल के ताने-बाने में
हमारी भाषा परिवर्तित हो रही है एक जींस, एक उत्त्पाद में
अपनी ही भाषा की गिरफ़्त में हूँ।





ख़ुदकुशी एक शब्द है जिसे जिंदा रहते भी जिया जा सकता है



द्वन्द से भरे इस समय में
जब ध्वनियाँ खिलखिला रही थी
और दुनिया की तमाम वस्तुएं
अपना आकार खो रही थी  
विचार के इकहरे हो जाने की लगातार संभावना थी
तब, जब, पड़ोस में बैठा कोई पंडित
अपनी शिखाओं में गिरह बाँध रहा था
ठीक उसी वक्त
हत्या की एक खबर
अखबारों में चमकती हुई उभर आई थी
और आसमान में उड़ती हुई चिड़ियाँ
अपनी उड़ान भूलने लगी थी
पंख पसारना विस्मृत हो रहा था,
दीमकें तेजी से चाट रही  थी पुस्तकालयों  की वे तमाम किताबें
जिसे पढ़ा जाना जरूरी था
ताकि बची रहे सकें विचार की दुनिया और मनुष्यता भी,
नदियों की धाराएँ भटकने लगी थी
उसके सुख जाने का खतरा अवश्यंभावी था
और नदियों के किनारे बसे गाँवों में उजाड़ पसरने लगा था 
हमारे देश के बच्चे कि जिसमें 
विचार को इकहरे हो जाने के खतरे से बचाने की संभावना थी  
 उनको अच्छरों को चीन्हने में मुश्किलें आने लगी थी  
खतरा सर के ठीक बीचो-बीच था
और ख़ुदकुशी महज एक खबर थी
मैं थरथराते समय में था। 







बारिश में बुदबुदाते हुए एक काली कविता

उसने कहा,
मैं पाब्लो नेरुदा से चार साल छोटा हूँ
या कि मुझसे चार साल बड़े हैं पाब्लो नेरुदा
उसने ऐसा क्यों कहा?
 
उसने कहा,
छपे हुए  कागज का मूल्य चार रूपए किलो
और बिना छपे सादे कागज का मूल्य चालीस रुपए किलो
फिर क्यों कागज काला करें
उसने ऐसा क्यों कहा?
 
उसने कहा,
आप शायद नहीं जानते
मैंने बेच दी है करोड़ों रुपए वाली किताब छापने की अपनी संस्थान
क्योंकि, मेरे मरने के बाद
बेच देगी मेरी बीबी चार रुपए किलो के भाव से सारी किताबें
और किताबों को पढ़ने के लिए बचाया जाना जरूरी है
उसने ऐसा क्यों कहा?
 
वह नहीं उठता अपनी कुर्सी से अभिवादन में किसी रचनाकर के आने से
किसी आयकर अधिकारी के आने पर कुर्सी के हत्थे पर लड़खड़ाते वह जल्दी से उठता है
चाय, कौफी, ठंडा, पानी उसके लिए हड़बड़ाहट में  मंगा लेता है एक साथ
वह ऐसा क्यों करता है?
 
भादो की साँझ है
और उसके जीवन की साँझ का छाता है उसके पास
वह विदा लेता है मुझसे
कल मिलने के वादे के साथ, अगर जिंदा बचे रह सके तो
उसके चेहरे पर पाब्लो नेरुदा की उदास मुस्कान है
मैं बिना मुस्कुराहट के मुस्कुराता हूँ
और विदाई का हाथ उठा देता हूँ
मेरी जेब में मुड़े-तुड़े सादे कागज हैं
जिसपर लिखी जा चुकने वाली अदृश्य कविता है
एक काली कविता।  


  भूख का रंग
क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं कभी नहीं जानूँगा
हिमालय के दूसरी तरफ
बर्फ से ढके सर्पीले रास्ते के मोड पर बसे हुए गाँव में
प्यार का भाग्यशाली रंग क्या है
और मेरे पुरखों ने उस रंग  को कितनी बार ओढा था। 
क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं कभी नहीं जानूँगा
खेत से कटाई के बाद उठा लिए गए फसल के बाद
खेत में छूटे हुए बिखरें दानों  को चुनती हुई स्त्री के बच्चों के
भूख का रंग क्या है।  

लौटना

लौटना कभी भी लौटने की तरह नहीं होता
लौटने में लौटने के लिए कुछ छूट जाता है हमेशा
जो छूट जाता है, वह लौटना नहीं होता
तुम लौटना एक दिन
पिछली बारिश से बेखबर
बारिश की तरह
जिसमें लौटना शामिल न हो
प्रेम में लौटना
लौटना नहीं होता 
जैसे संदर्भ के नेपथ्य का कोई  संदर्भ नहीं होता।


सम्पर्क-
मोबाईल -   09422905755
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं