शम्भु गुप्त का आलेख 'हिन्दी में सभ्यता-समीक्षा का विरल उदाहरण: उदय प्रकाश'



उदय प्रकाश

उदय प्रकाश ने कविता एवं कहानी के साथ-साथ प्रचुर मात्रा में सृजनात्मक लेखन भी किया है उनके इस सृजनात्मक लेखन पर एक विहंगम दृष्टि डालने का प्रयास किया है शम्भु गुप्त ने तो आइए पढ़ते हैं शम्भु गुप्त का यह आलेख 'हिन्दी में सभ्यता-समीक्षा का विरल उदाहरण: उदय प्रकाश।'

हिन्दी में सभ्यता-समीक्षा का विरल उदाहरण: उदय प्रकाश
                                               
शम्भु गुप्त


उदय प्रकाश का कथेतर गद्य उनके कथात्मक गद्य जितना ही, बल्कि उससे कुछ ज़्यादा ही सृजनात्मक है। कथात्मक गद्य को तो सृजनात्मक होना ही होना है; रचनाकार की असल सृजनशीलता वहाँ देखी जाती है, या देखी जानी चाहिए, जहाँ वह कथा से भिन्न गद्य लिखता नज़र आता है। कुल मिला कर यहीं, इसी मैदान में उसके शौर्य की परीक्षा होती है। गद्य तो आए दिन लोग लिखते ही रहते हैं। कथेतर गद्य ज़्यादातर अध्यापकों/ विश्वविद्यालयों के शिक्षकों द्वारा लिखा जाता है। कौन नहीं जानता कि सृजनशीलता की दृष्टि से वह किस स्तर का होता है! वह अपनत्व और निजता से रहित नीरस गद्य होता है, जिसमें उनके अकादमिक अहंकार की प्रतिध्वनियाँ बख़ूबी सुनी जा सकती हैं। अकादमिक अहंकार भी कैसा? ऐसा कि हम हैं, साहित्य के आचार्य! हमें सलाम करो! हम जो लिख या कह रहे हैं (पता नहीं वे क्या लिख और कह रहे होते हैं!) वह इदमित्थम् है। ऐसा न कभी हुआ है, न होगा; भूतो न भविष्यति। शायद इसी अहम्मन्यता का नतीज़ा है कि विश्वविद्यालयों के इन विभागों में ज़्यादातर कहीं कोई नयापन, मौलिकता, वैचारिक टटकापन देखने में नहीं आता। ये लोग लगातार लकीर के फकीर बने रहे आते हैं। उदय प्रकाश देवी शंकर अवस्थी के हवाले से इसकी लानत-मलामत करते हैं। देवी शंकर अवस्थी पर लिखे अपने लेख में अन्त में उनका यह उद्धरण वे देते ही तो हैं कि- ‘‘विश्वविद्यालयों की स्थिति और भी भयंकर मिलेगी... पुराना सिरका बना कर साहित्य को स्वीकार किया जाता है। अपवादों की बात मैं नहीं करता पर सामान्य तौर पर हिंदी का अध्यापक नयी प्रतिभाओंनये साहित्य और नयी परिस्थितियों के प्रति नितांत अप्रबुद्ध है। जहाँ कहीं भी इन विद्यापीठों के प्रचंड दबावों से बच कर कुछ व्यक्ति इनमें अध्यापक-पदों पर आ सके हैं उन्हें इस दबाव का अनुभव होता होगा कि वे अपने विभागों में किस तरह अस्पृश्य हैं, सारी शैक्षिक परंपराओं, साहित्यिक मानदंडों के वे हत्यारे माने जाते हैं।’’ (ईश्वर की आँख, वाणी/द्वि. सं. 2007; पृ. 228)। ऐसी ठस स्थिति जब हो तो भला उनके किसी भी काम में सृजनशीलता कैसे और कहाँ से आ सकती है। विश्वविद्यालयों का जि़क्र इसलिए भी और किया जाना ज़रूरी है कि यह वह जगह है जहाँ रचना और रचनाकार के लिए अनेक तरह की भौतिक और आधिभौतिक सम्भावनाओं के दरवाज़े खुल सकते हैं, बशर्ते कि वहाँ तैनात अध्यापक नई प्रतिभाओं, नए साहित्य और नई परिस्थितियों के प्रति प्रबुद्ध रहें! इस प्रबुद्धता के लिए जो कुछ ज़रूरी है, वह दरअसल यह है- ‘‘...वास्तव में आवश्यकता इस बात की है कि एकेडमिक अध्ययन और जीवंत लेखक एवं विचारधाराओं के संयोजन और सम्मिलन पर ध्यान दिया जाये।’’ (वही)।

उदय प्रकाश विश्वविद्यालयी विभागों से जो उम्मीद कर रहे हैं, वह कितनी दुर्वह है, व्यावहारिक तौर पर कितनी मुश्किल है, इसका अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि नामवर सिंह जैसा व्यक्ति भी ऐसा नहीं कर पाया! उदय प्रकाश सीधे-सीधे न कह, बात को कुछ इस तरह पेश करते हैं; हालाँकि तीर उसी निशाने पर जा  कर लगता है, जिस पर लगातार उनकी आँख है- ‘‘मैंने डॉ. नामवर सिंह की लगभग समस्त पुस्तकें पढ़ी हैं। आलोचनापत्रिका में उनके द्वारा समय-समय पर लिखे जाने वाले महत्वपूर्ण और बहुचर्चित संपादकीय भी पढ़े हैं लेकिन मैंने कभी उन्हें हर साहित्यकार के जीवन-मरण, उसकी वास्तविक सामाजिक उपयोगिता और हैसियत तथा ज्ञान-विज्ञान के अन्य अनुशासनों- जैसे समाज विज्ञान और प्रकृति विज्ञान आदि के समानांतर- सामान्य तौर पर मानविकी और खास तौर पर साहित्य की अनुशासनात्मक तथा सामाजिक स्थिति से जुड़े अनिवार्य और आज अत्यंत महत्वपूर्ण हो उठे प्रश्नों पर बहुत गंभीरता से कुछ सोचते हुए नहीं पाया है।’’ (वही, पृ. 224-25)।

हिन्दी में शायद ही कभी इस पर बात हो सके कि ऐसा आखि़र क्यों कर होता है कि इतनी सारी सुविधाएँ, इतनी सारी सम्भावनाएँ, इतने सारे अवसर होते हुए भी विश्वविद्यालयों में सृजनशीलता क्यों नहीं पनप पाती! कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि चूँकि विश्वविद्यालयीय विभाग सत्ता के संकेन्द्र हैं, इसलिए वहाँ भी लगभग वे सभी कबीलाई तत्व लगातार सक्रिय रहते हैं और प्रभावी भूमिका में होते हैं, जो राजनीतिक सत्ता के गलियारों में पाए जाते हैं। विश्वविद्यालय अकादमिक सत्ता के केन्द्र होते हैं और अकादमिक सत्ता किसी माने में राजनीतिक सत्ता से कमतर नहीं। बल्कि शातिरपन में यह कहीं ज़्यादा बारीक़ और मारक होती है। जो हो। हम विश्वविद्यालयीय अध्यापकों के गद्य की सृजनशीलताहीनता की बात कर रहे थे। यह प्रसंग इसलिए भी ज़रूरी था कि उदय प्रकाश को आज तक यह मलाल है कि वे किसी विश्वविद्यालय में अध्यापकी नहीं पा पाए। लेकिन यह सच नहीं है। उन्हें इसके कई अवसर मिले हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है, शुरू शुरू में उन्हें यह नौकरी मिली थी। और अभी-अभी दो-एक साल पहले भी वे किसी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बनाए गए थे। पर मालूम पड़ा कि चल नहीं पाए और छोड़ कर जाना पड़ा। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि उदय प्रकाश में वह क़ाबिलियतनहीं है, जो यहाँ फिट होने और एडजस्ट करने के लिए ज़रूरी है। लेकिन एक तरह से यह ठीक ही हुआ और है कि उदय प्रकाश में वह क़ाबिलियतनहीं रही; अन्यथा हिन्दी एक इतने उद्भट प्रतिभाशाली कथाकार के अस्तित्व से महरूम रह जाती! हिन्दी के न जाने कितने प्रोफ़ेसर आए और चले गए! इतिहास का कूड़ेदान भी शायद ठीक से उन्हें नसीब नहीं हुआ।

उक्त प्रकरण से एक और तथ्य स्पष्ट होता है कि कथेतर गद्य की सृजनशीलता के उद्गम स्रोत भी लगभग वे ही हैं, जो कथात्मक गद्य के हो सकते हैं। यानी कि कास्ट, क्लास और जेण्डर की परिसीमाओं से मुक्ति। डि-कास्ट, डि-क्लास और डि-जेण्डर होकर शब्द की ओर आना। मेरा यह स्पष्ट मानना है कि उदय प्रकाश इस प्रक्रिया में काफी सफल हुए हैं और सम्भवतः इसी कारण अपने लिए एक विषाल पाठक-वर्ग जुटा सके हैं। किसी भी जाति, वर्ग या जेण्डर का व्यक्ति हो, उनके ऐतिहासिक महत्व और अपरिहार्यता से कोई इन्कार नहीं कर सकता।

यह एक दुरूह सवाल है कि हम दो-टूक रूप से यह सुनिश्चित कर सकें कि उदय प्रकाश किस ख़ेमे से तआल्लुक़ रखते हैं। निश्चय ही ख़ेमेबाज़ी शब्द सुनने में बेहद ही बुरा और अशोभनीय लगता है लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि हिन्दी में लेखक की नियति लगभग ख़ेमेबाज़ी से ही तय होती है। सबसे पहले तो यह कि आप वामपंथी हैं या कलावादी? कलावादी हैं तो शुद्ध-विशुद्धतावादी हैं या समाजवादी कलावादी? शायद हिन्दुस्तान में ही समाजवादी कलावादी जैसा ख़ेमा मिलता है, जो कुल मिलाकर लोहियावादी हैं, जो सुविधानुसार अपसरण करते रहे हैं। इनकी नींद वामपंथ का नाम आते ही हराम हो जाती है और ये अपने आपको उससे बचाने के लिए इधर से उधर और उधर से इधर होते रहते हैं। हालाँकि कुछ खाँटी कि़स्म के लोहियावादी अभी भी पाए जाते हैं लेकिन ये अपवादस्वरूप ही हैं। इन्होंने विचारधारा से कभी विचलन नहीं पैदा होने दिया। इन्हें आज भी बेहद सम्मान से सुना-पढ़ा जाता है। इसके सबसे बड़े उदाहरण इस समय विजय बहादुर सिंह हैं, जिन पर ख़ुद उदय प्रकाश ने एक अच्छा-ख़ासा लेख लिखा है- विजय बहादुर सिंह: विदिशा के विष्णु-स्तम्भ’ (नयी सदी का पंचतंत्र; वाणी प्र. सं. 2008)। इस लेख में अपनी चिरपरिचित कथात्मक शैली में एक छोटी-सी मुलाक़ात को ससन्दर्भ उदय प्रकाश किस तरह एक यादगार ऐतिहासिक अवदान में बदल देते हैं, यह देखते ही बनता है। बात छोटी-सी थी। कोई और होता तो धन्यवाद-आभार-नमस्कार की औपचारिकताओं में उसे बराबर कर लौटाते हुए अपनी वापिसी का रास्ता नाप लेता। लेकिन फिर उसे उदय प्रकाश कौन कहता! उदय प्रकाश इस छोटी-सी मुलाक़ात को-जिसे वे ख़ुद उड़ंतू ढंग से मिलना’ (वही; पृ. 344) की संज्ञा से अभिहित करते हैं- दो लेखकों की तीसरी चीज पैदा करने वाली सृजनात्मक मुलाक़ात में तब्दील कर देते हैं तो यह उदय प्रकाश  की अहैतुक और अकूत प्रतिभा का ही कमाल माना जाएगा। लेकिन प्रतिभा तो एक अमूर्त और अदृश्य अवयव होता है। जो मूर्त और दृश्यमान होता है, वे व्यक्ति की कुछ प्रवृत्तियाँ और वृत्तियाँ होती हैं, उसके कार्य-कलाप होते हैं, उसकी क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ होती हैं जो तय करती हैं कि व्यक्ति कितने पानी में है! विजय बहादुर सिंह पर रागभोपालीके जनवरी 2004 में छपे अपने इस लेख में उदय प्रकाश पर्याप्त व्यक्तिगत हैं। उनकी यह निजता ही वस्तुतः उनकी प्रतिभा के टटकेपन का ईज़ाद करती है। उदय प्रकाश कई बार अपने लेखन में इतने ज़्यादा निजी हो जाते हैं कि उनकी क़ाबिलियत ही नहीं, उनकी कमज़ोरियाँ भी बड़ी आसानी से पकड़ी जा सकती हैं। ग़ज़ब यह है कि जिन्हें कथित तौर पर हम कमज़ोरियाँ कहते हैं, उदयप्रकाश के मामले में वह भी क़ाबिलियत बन जाती है। यह सचमुच आश्चर्य है। लेकिन इसका आधार इतना प्रत्यक्ष और भौतिक है कि आश्चर्य कुछ भी नहीं है। हमें आश्चर्य यह इसलिए लगता है कि हम इस तरह की निरभ्र निजता के अभ्यस्त नहीं हैं। न अभ्यस्त हैं और न हमें यह काम्य है। यह निजता दरअसल व्यक्ति को एक तरह की असुरक्षा में डालती है। हालाँकि जैसा कि मैंने कहा, यह असुरक्षा भी प्रतिभा की उद्भटता का एक ज़बर्दस्त संस्रोत है; लेकिन हमारा दुनियावी मन यह ज़ोखि़म हमें उठाने नहीं देता। हम सुरक्षा में ही जीने और सुरक्षा में ही मर जाने के आदी बने रहते हैं। 

उदय प्रकाश को इससे उलट, हम देखते हैं कि असुरक्षित होने और बने रहने में आनन्द आता है। दरअसल सुरक्षा की जो क़ीमत व्यक्ति को चुकानी पड़ती है, असुरक्षा का जोखि़म उससे सस्ता पड़ता है। सुरक्षा में जो निश्चिन्तता है, वह नींद और आलस्य पैदा करती है जबकि असुरक्षा हमें बेचैन करती है, जो आगे चल कर सृजनशीलता में पर्यवसित हो सकती है। मेरा अन्दाज़ है कि उदय प्रकाश हिन्दी के ऐसे अकेले लेखक हैं जो जितना असुरक्षित होते हैं, उतना ही गहन सृजनशील उनका वज़ूद बनता चलता है। मेरा अन्दाज़ यह भी है कि उदय प्रकाश के समूचे व्यक्तित्व और कृतित्व की अन्तरानुवर्तिता और अन्तर्सम्बद्धता/अन्तरावलम्बन की सही-सही पड़ताल यदि की जाए तो श्रेष्ठस्तरीय सृजनात्मकता के कई टटके मानक वहाँ अभिविन्यस्त मिलेंगे। जैसे कि विजय बहादुर सिंह पर लिखे इस छोटे-से और नामालूम-से लेख में रचनात्मक आलोचना/आलोचक के कई मौलिक अभिलक्षण मौज़ूद मिलेंगे। सब जानते हैं कि उदय प्रकाश आलोचना और विषेशतः हिन्दी के आलोचकों से किस क़दर चिढ़ते हैं। इसमें ताली हालाँकि दोनों हाथों से बजी है लेकिन हम यहाँ लेखक के पक्ष को वरीयता देते हुए आलोचना को एक बार फिर अन्तरावलोकन और आत्मालोचन का आग्रह करना चाहते हैं क्योंकि यह उसका एक सहजात कार्य-सम्भार है। आलोचना को अपनी स्कैनिंगनिरन्तर करते रहना चाहिए ताकि यदि कोई वायरसया स्पाईवेयरया मालवेयरया इसी तरह का कोई और अवांछित और सांघातिक तत्व वहाँ घुस जाए या घुसने की कोशिश  करे तो तुरन्त उसे क्वारेंटाइनया नेस्तनाबूद किया जा सके। जो लोग ऐसा नहीं करते, उन्हें पैंतरे बदलने पड़ते हैं और अपने तर्कों को कुतर्कों का सहारा देना पड़ता है। यहीं से आलोचना की विश्वसनीयता का सवाल दरअसल पैदा होता है। आलोचना अविश्वसनीय हो; आलोचना पर इससे बड़ा इल्ज़ाम कोई दूसरा नहीं हो सकता। लेकिन कुछ लोग ख़ुद प्रासंगिक- दरअसल चर्चा में- बने रहे आने के चक्कर में पूरी आलोचना को जैसे ठेके पर लिए फिरते हैं। आलोचना इस ठेकेबाज़ी और पैंतरेबाज़ी से मुक्त हो, इसका एक ही रास्ता है। और वह रास्ता यह है- 

अति सूधौ सनेह कौ मारग है जहाँ नैंकु सयानप बाँक नहीं। 

मुझे नहीं मालूम, विजय बहादुर सिंह की उदय प्रकाश से क्या रिश्तेदारी है या विजय बहादुर सिंह ने परस्परं प्रशंसयन्ति अहो रूपं अहो ध्वनिःके तहत उदय प्रकाश पर कुछ अद्वितीय लिखा हो या आगे ऐसा कुछ लिखवाना हो कि उदय प्रकाश यहाँ उन पर लट्टू हुए जा रहे हैं! मुझे सचमुच नहीं मालूम। हाँ, यह ज़रूर मालूम है कि उदय प्रकाश जैसा प्रशंसा के मामले में काइयाँ आदमी बिना किसी ठोस रचनात्मक आधार के किसी की ऐसी दिलखोल प्रशंसा नहीं करेगा! जो हो। व्यक्तिगतताओं से ऊपर उठकर हम वस्तुगतता पर आएँ! मुझे नहीं लगता कि उदय प्रकाश, विजय बहादुर सिंह के प्रति किसी तरह के आग्रह या आशंसा के तहत ऐसा लिख रहे थे। 

देखने की चीज यह है या होनी चाहिए कि उदय प्रकाश जो कुछ लिख रहे थे, उसमें कुछ सच्चाई किंवा वस्तुनिष्ठता थी या नहीं? विजय बहादुर सिंह के वैयक्तिक गुणों के मार्फ़त आलोचना की जिस आत्मीयता, तरलता, सहजता-सरलता, पारदर्शिता, संवेदनात्मकता, स्थानिकता इत्यादि की बात उदय प्रकाश उठाते हैं, वह कहीं कुछ माना रखती है या नहीं? या यह केवल एक लेखक की सुविधामूलक झौंक थी कि जिससे हमें अपना काम निकलवाना है, उसकी थोड़ी तारीफ़ कर दो और बस! जैसा कि मैंने पहले कहा, उदय प्रकाश इतने भले इन्सान नहीं हैं। उनमें यदि यह क़ाबिलियतहोती तो वे भी किसी अच्छी-ख़ासी नौकरी में होते और मज़े कर रहे होते। हिन्दी के बहुत सारे प्रोफ़सरों की तरह वे भी गुड़ खा कर लीद कर रहे होते! (अर्जुन घोड़े राज के, खा गुड़ लीद बनायँ -अर्जुन कवि)। यहाँ दोनों पक्ष लगभग समान धरातल पर खड़े हैं। दोनों की ही कोशिश यह है कि शब्द की दुनिया सहज-सरल, आत्मीयताओं से भरी हुई और पारदर्शी हो। मसलन उदय प्रकाश हंस’ (1994) में प्रकाशित अपने आत्मतर्पण सरकारें पलटती हैं जहाँ हम दर्द से करवट बदलते हैंमें एक जगह एक ऐसी सनसनीखेज़ बात सामने लाते हैं कि जी हलकान होने लगता है। अपनी कहानियों पर अनेक लोगों द्वारा किसी और की कृतियों की नकल होने का कथित आरोप लगाए जाने की शातिराना चाल का ज़वाब देते हुए पहले तो वे एक सामान्य-सा नैतिक आग्रह सबसे करते हैं कि- ‘‘*** एक-दूसरे को अपना प्रतियोगी मान कर जो द्वेषमय वातावरण लेखकों ने बना रखा है उसे बदलना होगा। *** रचना के धरातल पर कोई भी किसी का प्रतिद्वन्द्वी नहीं होता।’’ (ईश्वर  की आँख; पृ. 20)। लेकिन अगले ही पैराग्राफ़ में अपनी खाँटी उदयप्रकाशीयशैली में इन लोगों से कुछ इस तरह मुखातिब होते हैं- ‘‘ऐसे लोग, स्पष्ट है कि ईमानदार नहीं हैं। *** ये वे तत्व हैं जो साहित्य में घुसे हुए लंपट तत्व हैं। इनके बारे में पता करिए, वे अपने दफ्तरों में चापलूस, परिवार में पत्नी प्रताड़क और जीवन-व्यवहार में अनैतिक होंगे। उनकी हीनताओं और क्षुद्रताओं ने उन्हें ऐसा बना रखा है।’’ (वही)। यानी कि साहित्य एक तरफ़ और व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरी तरफ़। और इन दोनों के बीच एकदम छत्तीस का आँकड़ा। यानी कि इधर भी लम्पटता और उधर भी! हर तरफ़ लम्पटता का राज! इस लम्पटता का आखि़र तोड़ क्या है? उदय प्रकाश इसी तोड़ के बतौर आलोचना में विजय बहादुर सिंह का नाम प्रस्तुत करते हैं। ऐसे और भी नाम हो सकते हैं, लेकिन फि़लहाल यह! यह व्यक्तिगतता नहीं है, बल्कि एक व्यक्ति के माध्यम से एक अवधारणा या सिद्धान्त स्थापन’ (द्रष्टव्य, वही, पृ. 16) की कोशिश है। उस लम्पटता का विकल्प यह विजयबहादुरीयता ही हो सकती है- ‘‘एक पारदर्शी सरल-सहज, संवेदनात्मकता में भीगी हुई विजयबहादुरियनहँसी। जिस तरह स्नेह का मारग’ ‘अति’ ‘सूधोहोता है, जहाँ सयानेपनकी किसी वक्रता की गुंजाइश नहीं, वैसे ही ऐसी पवित्र, उन्मुक्त, स्वच्छ जल जैसी हँसी भी हर किसी के वश की बात नहीं। यह हँसी तो मीर के शब्दों में- एक भारी पत्थर है’, जो हर किसी के उठाए नहीं उठ सकती।’’ (नयी सदी का पंचतंत्र; पृ 342)। इस भारी पत्थर को उठाने के लिए किसी ख़ास ताक़त की ज़रूरत नहीं होती। इसके लिए सिर्फ़ इतना पर्याप्त है कि आप आत्मीय, तरल और पारदर्शी तरीक़े से मुस्करा सकें- वही आत्मीय, तरल, पारदर्शी मुस्कान।’ (वही, पृ. 344)। यहाँ सचमुच उदय प्रकाश का हमें कायल होना पड़ता है कि किस तरह हँसी और मुस्कान के इस रूपक के एक श्रेष्ठस्तरीय और काम्य आलोचना-मानक की तथ्यात्मकता में पर्यवसित या क्रियान्वित होते जाने की प्रक्रिया का वे खुलासा करते दृष्टिगत होते हैं। यह दरअसल विजय बहादुर सिंह नहीं, आलोचना की एक ऐसी प्रक्रिया की तलाश की बात है, जिसकी जड़ें अपनी देशजता में होती हैं, जो अपनी परम्परा, अपनी स्थानिकता, अपनी स्वदेशीयता में स्व-स्थ होती है। यह कोई हवाई या नास्टेल्जिक अवधारणा नहीं है। यह एक सम्भव स्थिति है। विजय बहादुर सिंह यहाँ एक निमित्त हैं। असल मन्तव्य है, वह आलोचना-प्रणाली, जो अपनी जैसी लगे। जैसा कि विजय बहादुर सिंह के विषय में उदय प्रकाश ने यह लिखा है- ‘‘हिन्दी की आलोचना और चिन्तन में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। मार्क्सवाद को उन्होंने किसी जड़ राजनीतिक सिद्धांत की तरह नहीं, एक ऐसे माध्यम के बतौर बरता है, जिसमें भारतीय दर्शन मीमांसा और विचारों को समन्वित करने की तरलता और नम्यता है। *** वे दुर्खीम और फूको की तरफ बढ़ने से पहले, गाँधी, आचार्य नरेन्द्र देव, लोहिया, रानाडे और अंबेडकर को उलटना-पलटना ज्यादा पसन्द करते हैं। इसीलिए उनके विचारों में विश्वसनीयता  और प्रामाणिकता अधिक होती है। वे हिन्दी आलोचना के ऐसे चिन्तनशील तोते नहीं हैं, जो सिर्फ पश्चिम की रटंत दोहराता है। विजय बहादुर जी भारतीय काव्य और दार्शनिक चिन्तन की परम्पराओं को पर्याप्त वरीयता देते हैं, इसीलिए वे हमारे समय के ऐसे विरल आलोचकों-विचारकों में से हैं जो हिन्दी समाज के विमर्श को पश्चिम का उपनिवेश बनने से बचाते हुए दिखते हैं।’’ (वही, पृ. 344-45)।


जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, उदय प्रकाश अकेले ऐसे लेखक हैं, जो आलोचना पर इतनी गम्भीरता, व्यापकता और अपनापे के साथ बात करते हैं। हिन्दी में आलोचना के छत्ते को कोई छेड़ता नहीं है। ज़्यादातर लेखक व्यक्तिगत सम्पर्कों इत्यादि के मार्फ़त आलोचकों को पटा कर अपना काम निकलवाते रहते हैं। एक तरह की मिलीभगत इस मामले में अमूमन देखी जाती है और आये दिन आलोचना आरोपों के कठघरे में खड़ी मिलती है। इस मिलीभगत से हालाँकि लेखकों का भी नुकसान होता है पर आलोचना का तो जैसे इससे ठप्पा ही बैठ जाता है। न लेखक का न आलोचक का, बल्कि इस मिलीभगत से सबसे ज़्यादा नुकसान सृजन की नैतिकता और पाठकों का होता है, जो किसी बेहतर निदर्श और विकल्प की तलाश  में शब्दों की दुनिया में आते हैं। उन्हें जब यहाँ भी वही सौदेबाज़ी, लेन-देन, तुष्टीकरण, पक्षपात, एकध्रुवीयता इत्यादि देखने को मिलती हैं, जो सत्ता की राजनीति के गलियारों में देखी जाती हैं तो उनका साहित्य सम्बन्धी बिम्ब यक़ायक़ छिन्न-भिन्न हो आता है और उन्हें लगने लगता है, जैसे वे फिर किसी अंडरवर्ल्ड की स्वयंभू दुनिया में आ पहुँचे हैं! यहाँ भी वही खुला खेल फ़र्रुख़ावादी चालू है और लोग वन-टू का फ़ोर करने में लगे हैं! ऐसी न आलोचना को पढ़ने का मन करे, न उस रचना को, जिस पर वह लिखी गई है! ऐसी आलोचना साहित्यिक उददेश्य के लिए होती भी नहीं है, यह साहित्येतर मक़सदों के लिए होती है; जैसे कि कोई पद लेना है या पुरस्कार, किसी को अपना महत्व दिग्दर्शित कराना है और कुछ उपलब्ध करना, आदि-आदि। इस तरह की प्रायोजित आलोचना की यदि एक बार चट पड़ जाए तो वह जि़न्दगी भर छूटती नहीं है। आजकल बड़े-बड़े लोग इसकी गिरफ़्त में आ गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि खुले बाज़ार के उपभोक्तावाद का असर हमारे लेखकीय आचरण पर भी पड़ा है। यह उल्लेखनीय है कि भूमण्डलीकरण के इस नए बेहया दौर-दौरे में भी व्यक्तिगत आचरण की नैतिकता की बात उदय प्रकाश बराबर अपने उसी पुराने अन्दाज़ में उठाते रहे हैं, जैसा पहले वे करते थे। उनके इस तरह के मन्तव्य पहले भी यहाँ लिए गए हैं, अब उनके कुछ साक्षात्कारों के मार्फ़त, जो समय-समय पर विभिन्न महत्वपूर्ण रचनाकारों द्वारा लिए गए हैं, फिर कुछ उद्धरण देना आवश्यक प्रतीत होता है। मसलन ओम निश्चल को दिए गए अपने काफी लम्बे साक्षात्कार कथा अपने समय में भाषा को लिखने का आख्यान हैमें वे व्यक्तिगत/ पारिवारिक नैतिकता की बात को फिर उठाते हैं- ‘‘मैं तो उन्हीं लोगों से पूछँगा कि आपने अपने जीवन में कभी कोई दोस्ती निभाई है क्या। संबंधों को निभाने की जो गरिमा और उत्तरदायित्व होता है, क्या आपने सचमुच उसका भार सँभाला है कभी। मेरे तो विवाहित जीवन के ही 26 वर्ष हो गए। जरा ऐसे लोगों से पूछिए कि उनकी पत्नियाँ कहाँ हैं? मेरा तो मानना है कि जो मनुष्य अपने पारिवारिक संबंधों में ईमानदार नहीं हो सकता, वह चाहे स्त्री हो या पुरुष, वह रचना और लेखन या समाज के किसी भी अन्य क्षेत्र में ईमानदार और मौलिक नहीं हो सकता। मुझे आप कितना भी कंजर्वेटिवया पुरातनपंथी मानें, मैं निजी और सामाजिक, दोनों तरह के जीवन को परस्पर अविभाज्य मानता हूँ। संयम, उत्तरदायित्व, अनुशासन और सहिष्णुता के बिना आप स्वतंत्र लेखन करते हुए अपना परिवार और जीवन नहीं चला सकते। जो अपने दांपत्य जीवन में लंपट होता है, वह राजनीति में अमरमणि त्रिपाठी ही होता है। एक भ्रष्ट  अपराधी, सत्ता और पूँजी भले उसके पास हो।’’ (अपनी उनकी बात; प्र. सं. 2008, वाणी; पृ. 107)। 

कोई माने या न माने पर व्यक्तिगत जीवन की इस बेईमानी और लम्पटता का असर अनिवार्यतः हमारे शब्द निर्माण पर पड़ता है, फिर चाहे वह आलोचना ही क्यों न हो! यह बेईमानी और लम्पटता परावर्तित हो कर अपनी छाया लेखन पर डालती है और हमारे विवेचन, निर्वचन, निष्कर्षों इत्यादि को न केवल प्रभावित बल्कि संचालित भी करने लगती है। धीरे-धीरे फिर यह हमारा स्वभाव ही बनता चला जाता है। फिर तो हमारी कसौटी और पैमाना ही बदल जाते हैं और हम आलोचना नहीं आरोप लिखने लगते हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि उदय प्रकाश अपने लेखों, टिप्पणियों, स्तम्भों और साक्षात्कारो में तो सही ही, कबीर, रैदास, नामदेव, निराला, मुक्तिबोध, भवानी प्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय, मंटो, भुवनेश्वर, लोर्का, ब्रेख़्त, पाब्लो नेरूदा, बेंजामिन मोलाइस आदि का बार-बार जि़क्र और स्मरण करते हैं। यह सूची और भी लम्बी है; कुछ नाम यहाँ बागी के बतौर दिए गए हैं। जिन लोगों के नाम यहाँ आए हैं, उनकी ईमानदारी और अडिग मूल्यनिष्ठा उदाहरण की तरह याद की जाती हैं। उदय प्रकाश  ही नहीं, और बहुत-से लोग इन्हें इसी रूप में लेते हैं। यह ईमानदारी और मूल्यनिष्ठा कोई ऊपर या बाहर से अवधारण किया हुआ अलंकरण नहीं, इनके व्यक्तिगत स्वभाव का एक सहज/सहजात-सा हिस्सा है। यह उल्लेखनीय है कि भवानी प्रसाद मिश्र का यह सुप्रसिद्ध काव्यांश बार-बार उदय प्रकाश के यहाँ उद्धृत होता है-

‘‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख। 
और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।’’ 

(ईश्वर  की आँख; पृ. 235, नयी सदी का पंचतंत्र; पृ. 123)।

ईश्वर की आँखवाले लेख भवानी भाई: कविता के गांधी का अंतमें इन पंक्तियों के बाद उदय प्रकाश की यह टिप्पणी देखने लायक़ है- ‘‘हर कोई जानता है कि बड़ा होने के लिए केशव और कबीर के अलग-अलग रास्ते हैं। हजूरी, दरबारी और हरी श्रेणी के लोग तो केशव को बड़ा बनाते हैं लेकिन कबीर का रास्ता तो साधारण जनता के जीवन यथार्थ की ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों से हो कर गुजरता है। भवानी भाई ने निराला या नजीर की तरह यह पगडंडी ही चुनी। उन्होंने शास्त्र या शास्त्रकार की बहुत परवाह नहीं की।’’ (ईश्वर की आँख; पृ. 235-36)। यहाँ प्रसंगवश स्मरणीय है कि भवानी प्रसाद मिश्र का साहित्यिक उद्धार जिस व्यक्ति ने किया, वह कोई और नहीं; स्वयं विजय बहादुर सिंह थे- ‘‘भवानी प्रसाद मिश्र की कविता को जड़ मार्क्सवादी सत्तापरस्त आलोचकों की उपेक्षा के अंधकार से वापस कविता के केन्द्र में ला कर उन्होंने जो महत्वपूर्ण कार्य किया है, कई बार उसकी तुलना डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा निराला की रचनाशीलता की आलोचना के युगान्तरकारी कार्य से करने का मन होता है।’’ (नयी सदी का पंचतंत्र; पृ. 345)। विजय बहादुर जी यह काम कैसे कर पाए, किस क़ाबिलियत के चलते यह सम्भव हो पाया; यह पीछे हमने देखा। हिन्दी में ऐसा कभी-कभी ही हो पाता है और कोई-कोई ही कर पाता है, यह एक बहुत ही कड़वी सच्चाई है। यह क्यों नहीं हो पाता; इतने सारे लोगों, इतने सारे हिन्दी-विभागों और उनके आचार्यों-अध्यापकों, इतने सारे लेखकों-आलोचकों-सम्पादकों इत्यादि के रहते-होते भी जब यह नहीं हो पाता तो शक होता है कि दाल में कहीं कुछ काला तो नहीं है! आखि़र यह क्या बात है कि समय हमसे कुछ माँग रहा है और हम या तो हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं या किसी का इन्तज़ार कर रहे हैं या कुछ तय नहीं कर पा रहे हैं कि करें तो क्या करें! 

ऊपर से देखने में बात बहुत आसान और सीधी लगती है पर ऐसा दरअसल है नहीं। असल बात कुछ और है। और वह यह है कि भगत सिंह पैदा तो हो पर हमारे यहाँ नहीं, पड़ोसी के घर पैदा हो! और हम? हम आखि़र क्या करेंगे? करेंगे क्या; यह भी कोई पूछने की बात है भला! हम कर तो रहे हैं, जो हम कर रहे हैं! हम क्या कर रहे हैं आखि़र? हम दरअसल यह कर रहे हैं- ‘‘आज का मौजूदा साहित्यिक परिदृश्य तो बेहद निष्क्रिय सिर और भयावह रूप से सक्रिय धडों वाले कवियों-साहित्यकारों से भरा हुआ है। *** उनका धड़ बेहद सक्रिय है। बीस-तीस वर्षों से उन्होंने कुछ नहीं लिखा है। भविष्य में भी वे कुछ नहीं लिखेंगे। वह किसी नेता का, किसी पार्टी, किसी महन्त का किसी मठ, किसी मिलिटेंट का किसी हिंसा या किसी कट्टरपंथी का किसी जेहाद के बारे में दिया गया एक असाहित्यिक, अ-रचनात्मक और घटिया भाषा में एक बयान होगा वह साहित्य नहीं होगा। *** समकालीन साहित्यिक परिदृश्य ऐसे सक्रिय धड़ों से ही भरपूर है, जिनके ऊपर अनगिनत निष्क्रिय सिर रखे हुए हैं जो इस वक्त कहीं न कहीं साहित्य खाने को जाने के लिए फोन मिला रहे हैं।’’ (नयी सदी का पंचतंत्र; पृ. 88-89)। 

आशातीत रूप से सक्रिय इन धड़ों और इन पर रखे निष्क्रिय सिरों की कारगुज़ारियों का ही शायद यह शर्मनाक परिणाम है कि हिन्दी में हर तरफ़ आपाधापी/अफ़रा-तफ़री मची है। यहाँ कुछ भी ठिकाने से नहीं है। हो सकता है, उदय प्रकाश कुछ ज़्यादा ही तल्ख़ हो रहे हों लेकिन उनकी बातों में कुछ ऐसी नंगी सच्चाइयाँ हैं कि यक़ायक़ आप उनसे मुँह नहीं मोड़ सकते। इस क्रम में आलोचना ही नहीं, हिन्दी की अकादमिक सत्ताधारिता की भी कई परतें खुल पड़ी हैं। ओम निश्चल को दिए इस इण्टरव्यू में ही इतनी सारी बातें आ गई हैं कि कहीं और जाने की ज़रूरत ही नहीं है। ये बातें सारांशतः इस तरह हैं- 

1. कई बार तो लगता है कि आलोचना दरअसल साहित्य का नहीं, मूलतः राजनीतिक संस्कृति’ (कल्चर ऑफ पालिटिक्स) का हिस्सा है। आलोचना उत्पीड़नकारी और मनुष्यविरोधी सत्ता के प्रतिरोध का सांस्कृतिक या साहित्यिक-बौद्धिक उपक्रम नहीं बल्कि सत्ता द्वारा प्रजा (सब्जेक्ट) के उत्पीड़न का ही एक सरोगेटऔजार बन चुकी है। इसके खेल और चरित्र को समझने के लिए साहित्य के पाठ की नहीं, अपने समय में सक्रिय सत्ता की विभिन्न संरचनाओं और राजनीति के पाठ को समझना चाहिए। हिन्दी में आलोचना और आलोचकों के पतन की गाथा तो अब युवा पीढ़ी के बीच एक आम ख़बर और सूचना की तरह है। हिन्दी में दरअसल अकादमिक और सृजनात्मक अर्थों में आलोचना का अस्तित्व है ही नहीं। (अपनी उनकी बात; पृ. 97-98)। 

2. *** आलोचना व्यावहारिक अर्थों में एक सृजनेतर पावर टूलहो चुकी है। किसी भी रचना की व्याख्या अब सौन्दर्यशास्त्र का नहीं, सत्ता विमर्श का क्षेत्र रचता है। आलोचना अब समाज और विचार के सूत्रों से मुक्त हो कर इस बाजार-काल में एक पण्य में बदल गई है।

 
3. आज की आलोचना पूँजी और सत्ता की जिन अन्य संरचनाओं से निर्धारित हो रही है, उसमें विज्ञापन, राजनीति और वर्चस्व के दूसरे केन्द्र भी हैं। हिन्दी की आलोचना में ईमानदारी का अभाव बहुत पहले से रहा है। प्रशस्ति, अनुकीर्तन और वृन्दगान करने वाली आलोचना ने स्वयं को सन्दिग्ध बना डाला है। (वही; पृ. 121)। 

4. सम्भवतः वस्तुपरकता और ईमानदारी की अनुपस्थिति ने काव्य आलोचना को प्रशस्तियों के वागाडम्बरों से भरी हुई कचरा गाड़ी में तब्दील कर दिया। डिसआनेस्टीऔर जुगाड़बाज़ीसे भरपूर है आज की छद्म आलोचना। (वही; पृ. 122)।

5. मुझे कई बार लगता है कि आलोचना अपने किसी चहेते कवि की प्रशंसा  में कई बार विस्मृति का अँधेरा भी पैदा करती है, जहाँ अतीत की कई महत्वपूर्ण कविताएँ लम्बे अरसे के लिए खो जाती हैं। गगग मुझे ऐसा लगता रहा है कि कवियों को बनाने में यानी उनकी छवि को निर्मित करने में और कुछ खास तरह की कविताओं पर सबका ध्यान केन्द्रित करने के पीछे कुछ लेखक संगठनों और उनसे जुड़े आलोचकों का हाथ रहा है जिसके कारण हिन्दी कविता का जो बड़ा और विविध क्षेत्र था, वह अपनी सम्पूर्णता में सामने नहीं आ सका है। (वही; पृ. 132)।

इन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। जब तक ऐसा नहीं किया जाएगा, सन्देह का वातावरण बना ही रहेगा और आलोचना समुचित रूप से विकसित नहीं हो पाएगी। आज ये तो कल कोई और इसी तरह की भाषा में उसे गरियाता चलेगा। अतः यह आवश्यक है कि कुछ किया जाए कि आलोचना की मुख्य समस्या एकेडेमिक्सऔर आब्जेक्टिविटीकी कमी’ (वही; पृ. 143) से निज़ात पाई जा सके।

उदय प्रकाश उक्त के अतिरिक्त तथा इससे भी महत्वपूर्ण और इसकी असल जड़ पर;  इससे पहले ही इस इण्टरव्यू में ही प्रहार कर चुके हैं। वह असल जड़ है- आलोचना का औपनिवेशीकरण। प्रसंग यह था कि ओम निश्चल द्वारा यह प्रश्न किया गया कि आपकी कहानियों में फैंटेसी कला की जो कोशिश की गई है, उसकी प्रेरणा कहाँ से ली गई है? क्योंकि हिन्दी में तो इस कला का अभाव दिखाई देता है। इसका मतलब यह किन्हीं दूसरी भाषाओं से ली गई है! (उधार)। (द्रष्टव्य; वही; पृ. 107)। उदय प्रकाश जैसे इस सवाल पर बिफर जाते हैं और दे-दनादन ऐसे-ऐसे तथ्य खोलते चलते हैं कि हिन्दी-आलोचना के पूरे स्वरूप पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता महसूस होने लगती है। कहते हैं- ‘‘जिस जादुई यथार्थवाद को हिन्दी की कहानी में लाने का अभियोग मेरे ऊपर कुछ आलोचकों द्वारा लगाया गया, उसका आधार यह था कि जैसे यह कोई विदेशी शैली है। मैंने तब भी कहा था और आज भी इसे दुहरा रहा हूँ कि इसके पीछे स्वयं हिन्दी आलोचना का वह मस्तिष्क काम कर रहा था, जो अभी तक अपने औपनिवेशिक अतीत से मुक्त नहीं हो पाया है। यथार्थवाद, आलोचनात्मक यथार्थवाद, स्वच्छन्दतावाद,  नई समीक्षा आदि-इत्यादि वे आलोचनात्मक पद (टर्म) हैं जो सीधे-सीधे पश्चिम की नकल से आए हैं।’’ (वही; पृ. 108)। इसके ठीक आगे वे नामवर सिंह की किताब कविता के नए प्रतिमान में निबद्ध शीतयुद्ध की सारी बासी और व्यर्थ हो चुकी भाषा तथा एलेन टेट, जान का रैसम, एफ. आर. लीविस जैसे मार्क्सवादी  नहीं बल्कि अमेरिकी नव-समीक्षकों की उधार ली हुई पदावली’ (वही) की बात उठाते हैं और निष्कर्ष देते हैं कि ‘‘आश्चर्य है कि हिन्दी आलोचना के औपनिवेशीकरण पर कभी कोई रचनाकार और आलोचक प्रश्न नहीं उठाता।’’ (वही)। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे फिर कहते हैं कि ‘‘आलोचना दरअसल पश्चिमी पदावलियों से आक्रान्त है, उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं जो मौलिक हो, ऐसा कुछ भी नहीं, जो स्वतन्त्रता के बाद के अकादमिक अनुशीलन, शोध और सृजनात्मक अनुचिन्तन के परिणाम से उपजा हो। उसने अब तक पश्चिमी  रेडीमेड गारमेंट से काम चलाया है। मैं तो कहना चाहूँगा कि स्वदेशीकरण की सबसे पहली जरूरत हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में है।’’ (वही; पृ. 109)।

उदय प्रकाश की स्वदेशी आलोचना की परिभाषा की पड़ताल यदि की जाए तो यह एक सुखद आश्चर्य हमें अनुभव होगा कि उसमें एक प्रकार की वैश्विक वर्गगतता अन्तर्निहित है और इसी वैश्विक वर्गगतता के अन्तर्गत वे यूरोपीय औद्योगिकीकरण और पश्चिमी आधुनिकता से उत्पन्न आख्यान शैली के विकल्प के बतौर तीसरी दुनिया के लातिन अमरीकी देशों और इसी के साथ भारतीय समाज की परम्परागत और अत्यन्त ही समृद्ध और सशक्त जादुई यथार्थवाद की इस आख्यान शैली को प्रस्तुत करते हैं। यह विकल्पधर्मिता अपने स्वयं के देशकाल-वातावरण का अनिवार्य तक़ाज़ा है। यह स्वदेशीयता नस्लवादी और सम्प्रदायवादी नहीं है; जैसा कि मैंने कहा, यह अपनी स्वयं की ज़रूरतों के हिसाब से अपना रास्ता ख़ुद तलाश ने की एकदम आवश्यकीय प्रक्रिया के अन्तर्गत है। जादुई यथार्थवाद की इस प्रकार की अभिव्याख्या हिन्दी में अन्य लोगों ने भी की है। यहाँ उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उदय प्रकाश भारतीय समाज को भी इस प्रविधि का हिस्सा मानते हैं। कहना न होगा कि भारत के सम्मिलित होते ही यह प्रविधि/आख्यान शैली एक प्रकार की वैश्विकता ग्रहण कर लेती है। एक ऐसी वैश्विकता, जो न केवल वैकल्पिक है बल्कि प्रतिरोधी और प्रतिदर्शी भी है। उदय प्रकाश लिखते हैं- ‘‘*** जादुई यथार्थवाद तो तीसरी दुनिया के उन लातीनी अमेरिकी देशों की आख्यान शैली थी, जिसे औपनिवेशिक सांस्कृतिक दासता से अपने आख्यान को मुक्त करने की चेष्टा में वहाँ के कथाकारों ने निर्मित किया था। उसका सबसे बड़ा कारण यह था कि यूरोपीय देशों से आयातित या थोपी गई आख्यान शैली में, जो कि वस्तुतः वहाँ के औद्योगिकीकरण और पश्चिमी आधुनिकता के गर्भ से निकली आख्यान शैली थी, वह तीसरी दुनिया के समाजों के यथार्थ को व्यक्त कर पाने में समर्थ नहीं थी। क्योंकि वे समाज अभी भी पारम्परिक समाज थे, पिछड़े हुए थे। आधुनिकता ने उन्हें पूरी तरह रूपान्तरित नहीं किया था यूरोप की तरह।’’ (वही; पृ. 108)।

अपने भारतीय समाज को इस अनुक्रम में जोड़ते हुए उदय प्रकाश ने लिखा- ‘‘हमारा समाज भी, यह न भूलें कि एक पूर्व आधुनिक (आधुनिकेतर) ग़रीब परन्तु पारम्परिक समाज है। लेकिन मिथकों, लोकगाथाओं, दन्तकथाओं, पौराणिक किस्सों आदि से सम्पन्न इस समाज की सामुदायिक स्मृतियों की विपुल विविधता का कोई मुकाबला पश्चिम का एकात्मक समाज नहीं कर सकता। उनकी सभ्यता और संस्कृति की जड़ें भी उतनी गहरी नहीं हैं जितनी हमारी या पूरब के देशों की हैं।’’ (वही; पृ. 108-09)। और इसके आगे अपने स्वयं के बारे में- अपनी आख्यान शैली के विषय में- जो कुछ वे कहते हैं, वह एक प्रकार से एक मौलिकता या खाँटीपन की खोज का एक प्रकार का दुर्लभतम प्रयास ही कहा जाएगा। अपनी आख्यान शैली के विकास की प्रक्रिया का खुलासा करते हुए यह जो कुछ वे लिखते हैं, वह एक बेमिसाल वाक़या ही कहा जा सकता है; ख़ासतौर से हिन्दी के निरन्तर औपनिवेशीकरण के स्वदेशी प्रतिरोध के मद्देनज़र-‘‘मैंने वारेन हेस्टिंग्स का साँड़कहानी लिखते हुए मिथक और यथार्थ के सम्मिश्रण के माध्यम से एक दूसरे धरातल पर पश्चिम और पूरब के मुठभेड़ को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया और इसकी मूल प्रेरणा मुझे कहीं विदेश से नहीं, अपनी ही भाषा के एक ऐसे लेखक से मिली थी, जिसे हिन्दी के आलोचक कथाकार या उपन्यासकार तक नहीं मानते जबकि मेरी दृष्टि में भारतीय उपन्यास की आख्यानात्मक संरचना के धरातल पर वह सबसे विलक्षण और अपूर्व कथाकार हैं। उनका नाम है आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। चारु चन्द्रलेख’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथामें उन्होंने इतिहास और पुराण, स्वप्न और यथार्थ, अतीत और वर्तमान को मिलाकर एक ऐसी ही कथालीला का अद्भुत आविष्कार किया था।’’ (वही; पृ. 109)। कोई आलोचक यदि कोशिश करता तो वाॅरेन हेस्टिंग्स का साँड़की यह कथालीला-आधारभूमि बाक़ायदा खोजी जा सकती थी। लेकिन किसे इतनी फुर्सत है कि वह इस तरह का मौलिक योगदान वाला काम कर सके। सब सुनी-सुनाई और कही-कहाई बात पर लकीर के फकीर की तरह चलते रहते हैं। लगभग यही कारण है कि हिन्दी आलोचना में मौलिक उद्भावनाएँ कभी-कभी ही और बमुश्किल ही आ पाती हैं। उदय प्रकाश ने खिन्नता के साथ लिखा- ‘‘लेकिन जब आलोचकों की निगाह अपनी पार्टी, सत्ता-संस्थान और निजी स्वार्थों में लगी हो तो किसी रचनाकार पर आरोप लगाने के पहले उसकी रचना का अनुचिन्तन कोई क्यों करे!’’ (वही)। निश्चय ही इस कथालीलाके भारतीय सन्दर्भों की खोज करना और तदनुसार कहानियों और उपन्यासों की पुनर्व्याख्या न केवल बेहद दिलचस्प होगी बल्कि कथा की रचना-प्रविधियों के कई नए क्षितिज भी इससे खुल सकेंगे।

इस बात से बहुत कम लोग परिचित होंगे कि उदय प्रकाश के भीतर रचनाकार के साथ-साथ एक बड़ा ही गम्भीर, तेज-तर्रार और बेबाक़ आलोचक भी बैठा रहा है। आलोचक के बतौर अपनी कोई पहचान उन्होंने नहीं बनने दी; रचनाकार ही बने रहे; लेकिन समय-समय पर आवश्यक तानुसार या विवशतावश जो कुछ आलोचनात्मक उन्होंने लिखा, वह ईश्वर  की आँखके खंड-4आकलनमें तथा नयी सदी का पंचतन्त्रके समीक्षाखंड में संकलित है। यह तो वह सामग्री है जो सीधे-सीधे आलोचना/समीक्षा के बतौर लिखी गई है। इसके अतिरिक्त इन तीनों गद्य-पुस्तकों में उदय प्रकाश  का आलोचनात्मक विवेक ओर-पोर छाया हुआ है। उदय प्रकाश का यह आलोचनात्मक विवेक साहित्य से ले कर राष्ट्रीय -अन्तरराष्ट्रीय राजनीति, विश्व की राजनीतिक व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था, सामाजिक संरचनाओं, सांस्कृतिक परिदृश्य और परिघटनाओं, विभिन्न राजनीतिक दल, दुनिया भर की लगभग हर क्षेत्र की महानतम एवं महत्वपूर्ण हस्तियों और उनकी जीवन-चर्या, वैश्विक एवं स्वदेशी य इतिहास की महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय घटनाओं जिन्होंने समय की धारा को भिन्न दिशा दे दी, विभिन्न ललित एवं उपयोगी कलाओं, दुनिया भर की विभिन्न विचारधाराओं और विमर्षों, बहसों, सामान्य एवं लोकजीवन के विविध पक्षों आदि-आदि इत्यादि सबकुछ तक धरती से ले कर आसमान तक और आसमान से लेकर पाताल तक परिव्याप्त है। इन तीनों किताबों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि उदय प्रकाश पढ़ने के मामले में किसी जिन्न से कम नहीं हैं। और ग़ज़ब ये कि यह सब पढ़ा लिखा बराबर उन्हें याद रहता है। और कुछ इस तरह याद रहता है कि जैसे किसी बच्चे की हथेली दबाओ तो ख़ून की लालिमा पारदर्शी त्वचा के भीतर दौड़ती दिखाई देगी! उदय प्रकाश चाहे कुछ लिखें या बोलें या किसी को इंटरव्यू दें; अन्तहीन ज्ञान की बेहिसाब धारा उनके यहाँ से फूट पड़ती दिखाई देगी। ख़ास तौर से उनका इंटरव्यू करने वाले को पूरी तैयारी और होमवर्क के साथ उनके सामने जाना होता है। अन्यथा उसकी गिल्लियाँ पलक झपकते वे उड़ा देंगे। हिन्दी में ऐसे बहुपठित और बहुसंज्ञानित लोग अत्यल्प हैं। अपने-अपने अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञ बहुतेरे मिल जाएँगे लेकिन एक साथ इतनी व्यापक जानकारियाँ, और वे भी पूरे आलोचनात्मक और वैमर्शिक विवेक के साथ; यह बहुत ही विरल है। उदय प्रकाश एक वाक्य बोलते हैं, तो एक साथ तीन-तीन सन्दर्भ उसमें चले आते हैं। यह आदतन होता है; यह लगभग अब स्पष्ट है। कोई चाहे तो इसे अपच कह सकता है, लेकिन यह अपच इसलिए नहीं है कि उदय प्रकाश जहाँ जिस तथ्य की पुष्टि या अपनी बात के समर्थन में जो भी सन्दर्भ या उल्लेख लाते हैं, वह इतना सटीक और उपयुक्त और अद्यतन होता है कि पाठक देखता ही रह जाता है! जैसे कि ऊपर हमने आलोचना के एक पाॅवर टूलमें तब्दील हो जाने की जो बात की थी, तो उसकी पुश्टि में उदय प्रकाश उदाहरणों और सन्दर्भों की जो झड़ी लगाते हैं, वह देखते ही बनता है। इस प्रसंग में रेमंड विलियम्स, सूज़ान सोंटैग जैसे मार्क्सवादी आलोचकों के साथ-साथ ब्रेख़्त के हवाले आते हैं (वही; पृ. 97) तो आगे त्रिलोचन का यह जुमला भी लाना वे नहीं भूलते कि आलोचक है नया पुरोहित इसे खिलाओ’ (वही; पृ. 121)। इस क्रम में किस-किस आलोचक ने किस-किस लेखक के साथ क्या-क्या और कैसी गड़बडि़याँ कीं, इसके ब्यौरे भी निबद्ध हैं। सचमुच यह देखकर हैरानी और ईर्ष्या होती है कि उदय प्रकाश इतना सब कैसे, कब जान-समझ लेते हैं।

जैसा कि मैंने कहा, उदय प्रकाश के आलोचनात्मक विवेक और पकड़ का दायरा केवल साहित्य तक सीमित नहीं है। वह सभ्यता के लगभग हर विषय और बिन्दु को अपने पूरे दायित्व-बोध और अन्तर्दृष्टि के साथ समेट कर चलता है और एक नए आलोक में इनकी नई अभिव्याख्या प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। दिनमानसे लेकर कथादेश’, ‘राष्ट्रीय सहाराआदि पत्र-पत्रिकाओं में लिखे गए नियमित स्तम्भ, समय-समय पर हिन्दी की अनेकानेक पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर लिखे गए लेख, टिप्पणियाँ-यह लगभग हज़ार-आठ सौ पृष्ठों की सामग्री फि़लहाल है- उदय प्रकाश के आलोचनात्मक विवेक और अंतर्दृष्टि की पुख़्ता सबूत हैं। जिसे हम सभ्यता-समीक्षाकहते हैं, हिन्दी में उदय प्रकाश उसके एक विरल उदाहरण हैं। जहाँ तक हिन्दी में व्यावहारिक समीक्षा में उदय प्रकाश के योगदान की बात है, तो इस दृष्टि से ईश्वर की आँखपुस्तक का आकलन शीर्षक खण्ड तथा नयी सदी का पंचतन्त्रका समीक्षाशीर्षक खंड देखा जा सकता है, जिनमें उन्होंने सौमित्र मोहन, अकविता, नक्सलवादी कविता, गिरिराज किशोर, मधुसूदन आनन्द, विष्णु नागर, निर्मल वर्मा, मंज़ूर एहतेशाम, मनोहर श्याम जोशी, अखिलेश, नरेन्द्र जैन, केदार नाथ सिंह, कुमार विकल, असद जै़दी, विजेन्द्र, हरिनारायण व्यास, सोमदत्त, राजीव सक्सेना, ज्ञान चतुर्वेदी, हरिचरन प्रकाश, धीरेन्द्र अस्थाना आदि लेखकों की रचनाओं पर खुल कर लिखा है। निश्चय ही उदय प्रकाश पेशेवराना आलोचक नहीं हैं। प्रोफ़ेशनली तो वह एक कथाकार ही हैं, लेकिन जैसा कि मैंने पहले भी कहा, मूलतः आलोचक न होते हुए भी जो आलोचनात्मक गहराई, रचना की पकड़, सतर्क और प्रामाणिक विश्लेष्ण-क्षमता इत्यादि चीजें उदय प्रकाश में हमें मिलती हैं, वे अच्छे-अच्छे स्वनामधन्य आलोचकों को छकाने के लिए पर्याप्त हैं। यह भी ठीक हो सकता है कि ये समीक्षाएँ किसी पत्रकारीय मज़बूरी, सम्पादकीय दबाव या अपनी ख़ुद की पसन्द-नापसन्द के वशीभूत हो कर लिखी गई हों। लेकिन यदि इस आधार पर हम आलोचना का आकलन करेंगे तो बहुत-कुछ तो हमें यूँ गँवाना पड़ जाएगा! बहरहाल। देखना हमें यह है कि उदयप्रकाश अपनी समीक्षाओं में नया कुछ दे पाते हैं या नहीं? तो, इसमें कोई दो-राय नहीं है कि ये समीक्षाएँ पर्याप्त मौलिक और अपनी तरीक़े की अलग हैं। हिन्दी में लेखकों द्वारा आलोचना की एक सुदृढ़ लम्बी परम्परा रही है। ये आलोचनाएँ लेखकों द्वारा परस्पर एक-दूसरे पर भी हैं और स्वतन्त्र रूप से अन्यान्य लेखकों, प्रवृत्तियों, कृतियों इत्यादि पर पेशेवर आलोचनाएँ भी हैं। हालाँकि व्यक्तिगत पसन्द-नापसन्द का सन्दर्भ यहाँ प्राथमिकता के साथ है। हिन्दी में इस तरह की समीक्षाओं की जो प्रथा और प्रणालियाँ रही हैं, वे चूँकि व्यक्तिगत पसन्द-नापसन्द के तहत हैं, अतः वस्तुगतता के स्थान पर आग्रह-दुराग्रह, हिसाब बराबर करने जैसी स्थितियाँ भी कई बार यहाँ पैदा हो जाती हैं। मैं यह पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि उदय प्रकाश इस प्रतिक्रियावाद से यहाँ लगभग पूरी तरह मुक्त हैं। वे आवश्यकतानुसार अपने चयनित लेखक पर रिऐक्टकरते हैं, लेकिन धीरे-धीरे यह प्रतिक्रिया एक मुकम्मल आलोचनात्मकता की ओर आगे बढ़ने लगती है। इस प्रक्रिया से प्राथमिक तौर पर व्यक्तिगत झुकाव होने के बावज़ूद उनका विश्लेषण और आकलन अपने निष्कर्षों में नितान्त वस्तुगत और तटस्थ हो आता है। विजय बहादुर सिंह, रघुनन्दन त्रिवेदी, नवीन सागर, असद ज़ैदी, सौमित्र मोहन, विष्णु नागर, निर्मल वर्मा, केदार नाथ सिंह, कुमार विकल, सोमदत्त, धीरेन्द्र अस्थाना आदि के विषय में दिए गए उनके निष्कर्ष मेरी इस बात की तस्दीक़ करेंगे। अपनी इसी आलोचनात्मक वस्तुगतता के चलते उदय प्रकाश के इन लेखों का महत्व है। इस वस्तुगतता के साथ एक ख़ास कि़स्म का निजीपन इन लेखों की मौलिकता और टटकेपन की जान है, जो एक लेखक-आलोचक की आलोचना में ही पाया जाता है। पेशेवर आलोचना कई बार इस निजता से महरूम रह जाती है। वह ख़ुद भी इसे अपने यहाँ जगह देने से बचती है और, कहीं और भी इसे वह यदि उपस्थित देखती है, तो वहाँ भी नाक-भौं सिकोड़ने लगती है; जबकि सच्चाई यह है कि इस निजता से आलोचना में एक तरह की अपूर्वता और अद्वितीयता (ऐक्सक्लूसिवनेस) आती है। उदय प्रकाश की ये आलोचनाएँ इसी अर्थ में महत्वपूर्ण हैं।


आधार-ग्रन्थ -
1.    ईश्वर  की आँख: उदय प्रकाश;  वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली; दूसरा संस्करण-2007
2.    नयी सदी का पंचतन्त्र: उदय प्रकाश ; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली; प्रथम संस्करण-2008
3.    अपनी उनकी बात: उदय प्रकाश ; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली; प्रथम संस्करण-2008
                                    


सम्पर्क -                                                             
प्रोफ़ेसर स्त्री­ अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
पोस्ट: हिंदी विश्वविद्यालय, गांधी हिल,
वर्धा (महाराष्ट्र)­ 442 001
मोबा. 8600552663,

 
ई-मेल - shambhugupt@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)  

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं