अवनीश यादव की कविताएं

अवनीश यादव


राष्ट्रवाद एक ऐसा टर्म है, जो अपने आप में अत्यन्त संकुचित होने के साथ साथ संकीर्ण भी होता है। धर्म, जाति, भाषा, बोली की तरह राष्ट्र भी ऐसा कारक है जिसके नाम और लोग बिना कुछ सोचे समझे एकजुट हो जाते हैं। इसकी बुनियाद दरअसल उस भय पर  आधारित है जिसके मूल में विरोधी देश का कल्पित डर होता है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में महात्मा गाँधी के राष्ट्रवाद और रवींद्रनाथ ठाकुर के अंतरराष्ट्रीयतावाद के बीच अक्सर टकराहट होती रहती थी। बहरहाल आजादी के पहले के राष्ट्रवाद की प्रकृति से आज के राष्ट्रवाद की प्रकृति बिल्कुल अलग है। आज के हमारे राष्ट्रवाद का मूलाधार उस पाकिस्तान का कल्पित भय है जो खुद कई तरह की समस्याओं से जूझ रहा है। वैसे पाकिस्तानी हुक्मरान भी अपनी जनता का ध्यान हिन्दुस्तान की तरफ केंद्रित कर राष्ट्रवाद को बखूबी भुनाते रहे हैं। यह क्रम आज भी जारी है। कब तक यह ऐसे ही चलता रहेगा, कहा नहीं जा सकता। बहरहाल सुकून की बात है कि हमारे रचनाकारों का एक बड़ा वर्ग राष्ट्रवाद के इस तिलिस्म से भलीभाँति परिचित है। अवनीश यादव उभरते हुए युवा कवि हैं जिनकी कविताओं में एक निखार स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अपनी एक कविता में अवनीश लिखते हैं 'यह आपका नहीं/ आज का राष्ट्रवाद है/ आपके नहीं/ अपने चश्मे से देखने के लिए प्रतिबद्ध। आज पहली बार पर प्रस्तुत है युवा कवि अवनीश यादव की कुछ नई कविताएँ।

अवनीश यादव की कविताएं

जाति कार्ड 

इस देश में कार्डों की भरमार है
आधार कार्ड
वोटर कार्ड 
पैन कार्ड
राशन कार्ड -
परिचयात्मक कार्डों के अलावा भी कार्ड हैं
जो सामाजिक प्रतिष्ठा का शिलापट्ट भी 
मसलन -
शादी कार्ड 
तिलक कार्ड 
जन्मदिन कार्ड
उद्घाटन कार्ड -
ये इतने कीमती हैं कि
गलती से एक चूक भी 
गहरे से गहरे दोस्तों के हृदय में मोटी दीवारे खड़ी कर देते हैं 
एक ऐसी दीवार,
जिसमें खिड़की लगाना भी
राजगीर अपनी तौहीन समझता है।
               
 2

ठीक इसी समाज में 
एक बेहद जरूरी कार्ड और भी है 
जिसकी पैठ इतनी गहरी कि-
हर प्रस्तुति में जीभ-लपलपाये हाज़िर हो जाता है
जिसकी जड़ें इतनी संवेदनशील
कि सदैव अपने अनुकूल ही मिट्टी ढूंढती है 
मिट्टी अनुकूल न होने पर -
हर संतुलन असंतुलित 
हर समांगी विषमांगी
और हर घुलनशील 
अघुलनशील हो जाता है।


3

फ़ैसला कर चुका था वह 
जिंदगी के डोर की
पर उसके अपने ही पहरेदारों ने 
बगैर इस कार्ड के प्रवेश नहीं दिया 

संतुष्टि इस बात की-
अक्सर सुनाई पड़ता है
इस कार्ड के खात्मे पर
उनके कई लंबे वक्तव्य हैं
जो आज भी सुरक्षित है

     
यदि धूमिल जी होते 


सोचता हूँ यदि आज धूमिल होते 
तो क्या लिखते
'पटकथा' या 'भाषा की रात'
या इसी सरीखे कुछ और
पर संशय 
कहीं 'वाचाल कथा' तो नहीं


टूटे चश्मे से रामचरितमानस 


पढ़ने और पढ़ाने के क्रम में
यदि चश्मा टूट जाए 
तो आप क्या करेंगे?

शब्द के जिस अल्हड़पन पर फ़िदा हो 
ऊंगलियों की लापरवाही भरे दरेर से टूटा 
वहीं रुक जाएंगे- 'अगला टर्न' कह कर 
या टूटने के गहरे हरे ज़ख्म पर  अफ़सोस जतायेंगे 

यकीनन वह दोनों नहीं किया 
पढ़ाता रहा अपने कर्तव्यों के गिरेबान में झांकते हुए 
क्लास खत्म हुई
बच्चे प्रसन्न दिखें 
सिर्फ एक विद्यार्थी जिसकी भंगिमा क्लास में सामान्य थी
टटके बाहर आ  कर मिला 

दु:ख इस बात का नहीं था उसे- 
कि हाय सर का चश्मा टूट गया 
बल्कि इस बात का था
कि टूटे चश्मे से कैसे पढ़ा सकते हैं
'विश्व प्रसिद्ध-पवित्र ग्रंथ

उन्होंने हँस कर टाल दिया 
भला यह भी कोई मुद्दा है!

बात यहीं खत्म नहीं हुई 
विद्यार्थी ने जोर दे कर कहा -
यदि मैं खबर कर दूं -
बाहर बैठे उन आकाओं तक
जो आजकल अपने एक सूत्रीय कार्यक्रम- 
'राष्ट्रवाद का प्रमाण पत्रबांटने में मशगूल हैं

सोचिए! ठहर कर सोचिए
उनके लिए यह खबर,
महज़ ख़बर नहीं,
मुख्य ख़बर होगी -
ठोस! गरिष्ठ! अपनीय!
अखबार के मुखपृष्ट पर 
कच्ची डकार के साथ उलीचने के लिए-
कि 'टूटे चश्मे से शिक्षक ने पढ़ाया रामचरितमानस

मान्यवर,
यह आपका नहीं 
आज का राष्ट्रवाद है 
आपके नहीं 
अपने चश्मे से देखने के लिए प्रतिबद्ध



उन्हें डर लगता है 


दरअसल अब उन्हें बाघ से कम
बागों से अधिक डर लगता है

उन्हें डर लगता है -
धरने पर अपने अधिकारों के लिए बैठी महिलाओं से,
नन्हें-नौनिहालों की तोतली जुबां से निकले इंकलाबी नारों से

उन्हें डर लगता है 
हां, उन्हें डर लगता है 
जागरुक होते नागरिकों से 
रोजगार मांगते विद्यार्थियों से
काम मांगते मजदूरों से 
दाम मांगते किसानों से


मजदूर और उसकी मजदूरी

मजदूरी का कोई धर्म नहीं होता 
उसका परिचय कर्म से होता है 
लाट साहबो को उनका चाम प्यारा नहीं,
काम प्यारा होता है

यही वह पड़ाव  है 
जहां पर कमोबेश वे असलियत को पहचानते हैं 
सिर्फ पहचानते ही नहीं 
स्वीकार करते हैं 

यह लेबर चौराहा -
चार पग के घेरे में सिकुड़ा
चार हज़ार मजदूरों का 'रोजगार कार्यालय'
शहर से सटे गांवों से अल-सुबह चल कर,
गैती, फावड़ा, तसला, तगाड़ी, करनी
और जांगर की डिगरियां लिए उपस्थित हो 
'रोजगार' की अर्जियां देते हैं 

विद्यार्थियों की भांति 
यहां भी रोजगार  के लिए
मारकाट/गलाकाट प्रतियोगिता कम नहीं 

वहां देखो,
एक कार ठहरी 
जांगर का एक कुनबा टूट पड़ा
मालिक हम इससे बढ़िया और सस्ते में करेंगे,
तू-तू, मैं-मैं के बीच 
मालिक मुनाफे की ओर बढ़ता जा रहा 

पसीने की एक सीमा कुछ घंटों के लिए नीलाम 
बाकी दूसरे कार के इंतज़ार में -

बचा जांगर का यह कुनबा 
अपनी डिगरियां लिए
ठीक उसी तरह वापस जाता है जैसे -
शगुन  के रूप में वापस की गई,
खिचड़ी की बोरी 

घबराए नहीं 
बिल्कुल भी नहीं 
जो कार से गए हैं 
वो कार से वापस नहीं आएंगे 

कार, पसीना, आराम 
और नाश्ता का पूरा जी. एस. टी. काट कर 
जांगर का वजीफ़ा 
तू-तू, मैं-मैं और दुत्कार
के साथ दिया जाएगा

अफ़सोस इसी बात का
न जाने कब हम
पसीने की कीमत को पहचान पाएंगे!


सम्पर्क

मोबाईल - 9598677625

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं