विजय मोहन सिंह से अमरेन्द्र कुमार शर्मा की एक ख़ास बातचीत
विजय मोहन सिंह |
बहुमुखी प्रतिभा वाले विजय मोहन सिंह का
अभी हाल ही में गुजरात में निधन हो गया। वे एक कहानीकार के साथ-साथ उपन्यासकार, बेहतर
आलोचक, उम्दा सम्पादक और फिल्म संगीत के अच्छे जानकार थे। वे अपनी तरह के अनूठे
आलोचक थे जिन्होंने बनी बनायी लीक से इतर अपनी अवधारणाएँ विकसित की और उसे दो-टूक व्यक्त
करने में कभी नहीं हिचके। ‘गोदान’ हो, ‘राग-दरबारी’ हो या ‘हमजाद’ जैसी नामचीन
कृतियाँ, विजय मोहन जी ने हमेशा अपनी अलग राय व्यक्त कीं। कहानी में विजय मोहन जी
उस ‘हिडेन फैक्ट’ के सशक्त पक्षधर थे, जिसमें कहानीकार को अपनी कहानी में पाठकों
के लिए बहुत कुछ छोड़ना होता है। जिन दिनों विजय मोहन सिंह वर्धा विश्वविद्यालय में
‘राईटर्स इन रेजिडेंस’ नियुक्त हुए थे, डॉ. अमरेन्द्र कुमार शर्मा ने उनसे एक ख़ास
बातचीत की थी जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
विजय मोहन सिंह से
अमरेन्द्र कुमार शर्मा की एक ख़ास बातचीत
आप वही ‘एक बँगला
बने न्यारा’ वाले
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - आपका जीवन और आपकी रचना-प्रकिया?
विजय मोहन सिंह - मैं ठीक- ठीक कहाँ का रहने वाला हूँ, बताना मुश्किल है।
मेरा जन्म कहीं और हुआ, परवरिश कहीं और हुई। पिता कहीं और के थे। पिता को नवासे पर
नानी ने अपने यहाँ बुला लिया था। पिता दो भाई थे, वे बांसगांव तहसील
के बेलघाट गाँव के थे। पिता जी रायबरेली जिले के शिवगढ़ स्टेट में मैनेजर के पद पर
काम करते थे, मेरा जन्म वहीं हुआ था। मैं अपनी नानी के
यहाँ तीन साल की उम्र में शाहाबाद, डुमरांव (बिहार)
पहुँचा। वहीं से आठ साल की उम्र में बनारस पढ़ने के लिए गया था। मेरे साथ शुरू से
ऐसा रहा है कि किसी एक जगह टिक कर मैं कभी नहीं रह सका। बनारस में राजघाट के पास
थियोसोफिकल सोसाइटी का स्कूल था, उसी में दाखिला हुआ। स्कूल के बाद बनारस में ही उदयप्रताप
सिंह कालेज जो राजपूतों का था, में आगे की पढाई
की। इसी कॉलेज में नामवर सिंह. केदारनाथ सिंह, शिवप्रसाद सिंह
आदि साहित्यकारों ने पढाई की। इसी कॉलेज में विश्वनाथप्रताप सिंह, अर्जुन सिंह भी पढ़े हुए थे। मेरी इंटरमीडिएट की पढाई इलाहबाद के इविंग क्रिश्चियन कॉलेज
में हुई। बी.ए., एम.ए. और पी-एच.डी. की पढाई बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में
हुई। यहीं अध्यापक के रूप में नामवर सिंह मिले। सहपाठी के रूप में विश्वनाथ
त्रिपाठी, शिवप्रसाद सिंह मेरे साथ थे। साहित्यक माहौल से मेरा परिचय
बनारस में ही हुआ।
मेरे लेखन की
शुरुआत बनारस में ही 1956 में हुई। मेरी पहली कविता और कहानी ‘ज्ञानोदय’ पत्रिका जो उस समय कलकत्ता से
निकलती थी में प्रकाशित हुई। एक पत्रिका थी ‘युग प्रभात’ जो केरल के कोजीकोड से
निकलती थी, इस पत्रिका में 1960 तक कई लेख और मेरी
कहानियाँ छपी। 1960 में ही मेरी एम. ए. की पढाई पूरी हुई और उसी वर्ष 4 नवम्बर को मैं महाराजा कॉलेज, आरा में पढ़ाने के लिए चला गया। उसके बाद ‘कल्पना’ जो हैदराबाद से निकलती थी और ‘कहानी’ जो इलाहाबाद से निकलती थी, में कई
कहानियाँ छपीं। बाद में दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका ‘नई कहानी’ में भी कई कहानियाँ छपीं।
1960 में ही मेरी पहली किताब छपी ‘छायावादी कवियों की आलोचनात्मक दृष्टि’। 1970 में मेरा पहला कहानी संग्रह ‘टट्टूसवार’ छपा। सन 1965-66 के दौरान मेरे पटना के एक मित्र थे शंकर दयाल सिंह, उनका एक प्रकाशन था पारिजात प्रकाशन, उनके लिए मैंने एक किताब लिखी ‘अज्ञेय : कथाकार और विचारक’।
‘कृति’ नाम से एक
पत्रिका श्रीकांत वर्मा निकालते थे। उस दौरान उन्होंने नए कवियों के नाम पर एक
सीरीज शुरू की। हर अंक में किसी एक नए कवि की चार-पांच कविताएँ और उस कवि का परिचय
वे छापते थे। इसी सीरीज में प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, ज्ञानेंद्रपति, जितेन्द्र कुमार आदि छपे। मैं भी इसी सीरीज में छपा था। 1960 के बाद मैंने कविताएँ कम लिखीं हैं।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - साठ
के दशक के कहानी आंदोलनों में आपकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है, उन
भूमिकाओं और अपनी रचनाओं के बारे में विस्तार से बताएँ?
विजयमोहन सिंह - 1960 का दशक कहानियों का एक ऐतिहासिक दौर था। कहानियों पर आलोचनात्मक निबंध लिखे जाने और छापे जाने का
दौर भी विकसित होता जा रहा था। नई कहानी आंदोलन के वृहत्रयी मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव नए
तेवर के साथ मौजूद थे। उन्हीं दिनों नामवर सिंह का कहानियों पर चर्चित कॉलम ‘हाशिए पर’ बेहद पसंद किया जा रहा था।
1966 के आसपास लगा कि कहानी में महत्वपूर्ण बदलाव आने लगा है। भाववोध, शैली, भाषा, विषय, जिंदगी को देखने
का नजरिया सभी स्तरों पर यह बदलाव परिलक्षित हो रहा था। लगभग पन्द्रह-बीस कहानीकार
की एक जमात थी जो कहानी को नए तरह से लेकर आ रहे थे। इन कहानियों और कहानीकारों के
तेवर को देखते हुए मुझे यह सूझ आई कि इन कहानीकारों को लेकर एक संग्रह तैयार किया
जाए, मैंने इसकी तैयारी करनी शुरू कर दी। मेरे
सहित कुल चौदह कहानीकार और सभी की दो- दो कहानियाँ यानि
कुल अट्ठाईस कहानियों को संग्रह के लिए चुना, इसमें मैंने एक
लम्बी भूमिका लिखी है। यह भूमिका मेरी किताब ‘आज की कहानी’ में भी संकलित है। इनमें
मैं, ज्ञानरंजन, रविन्द्र कालिया, महेंद्र
भल्ला, प्रमोद कुमार, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, अक्षोभेश्वरी प्रताप, गुणेन्द्र सिंह
कपानी, श्रीकांत वर्मा, रामनारायण शुक्ल (प्रयाग
शुक्ल के बड़े भाई), मधुकर सिंह, गंगाप्रसाद विमल, विजय चौहान शामिल थे | संग्रह का नाम दिया ‘साठ के बाद की कहानियाँ’। सबसे बड़ी दिक्कत इसके प्रकाशन की
और उससे ज्यादा दिक्कत इसके वितरण की आई। विष्णुचन्द शर्मा जो मेरे मित्र थे उन
दिनों नागरी प्रचारणी सभा के प्रकाशन से जुड़े हुए थे, उन्होंने कहा कि मैं इसे छाप दूँगा। प्रकाशन का पैसा
धीरे-धीरे दीजियेगा। किताब एक हजार रूपये में छप गई जिसका भुगतान मैंने धीरे-धीरे
कर दिया। अब दिक्कत थी इसके वितरण की। उन दिनों नामवर सिंह राजकमल प्रकाशन के
सलाहकार हुआ करते थे, सो उनके कहने पर वितरण के लिए मैंने यह संग्रह राजकमल
प्रकाशन के पास भेज दिया,
लेकिन बाद में राजकमल प्रकाशन ने इसे वापस भेज दिया। कायदे से इसका वितरण तो नहीं हो सका लेकिन ‘साठोत्तरी कहानी’ नाम से एक आंदोलन चल
निकला। इसकी समीक्षाएं ‘दिनमान’, ‘धर्मयुग’
में आयीं। लेकिन इस संग्रह की चर्चा उतनी नहीं हो सकी जितनी होनी
चाहिए और आज भी नहीं होती वह भी तब जबकि उसके नाम से कहानी में एक आंदोलन खड़ा हुआ, एक प्रवृति की पहचान हुई।
‘साठ के बाद की
कहानियाँ’ संग्रह आने के बाद यह जरूर हुआ कि इन सभी कहानीकारों का एक रिश्ता बनता
गया, दोस्ती होती गई, बैठकें होने लगी। 1970 में जब मेरा पहला
कहानी संग्रह ‘टट्टूसवार’ छप कर
आया उसी समय अन्य कहानीकारों का भी पहला कहानी संग्रह छप कर आने लगा था।
1970 तक आते-आते जबकि मैं उस समय, ‘हिंदी उपन्यासों
में प्रेम की कल्पना’ विषय पर बच्चन सिंह के निर्देशन में पी-एच.डी. कर रहा था
समीक्षाएँ लिखने लगा। उन दिनों नामवर सिंह ‘आलोचना’ पत्रिका में थे, उन्होंने 1968-69 के दौरान मुझसे ढेर सारी समीक्षाएँ लिखवाईं। 1975 तक आते-आते मैंने कहानी कम और आलोचना ज्यादा लिखीं। आरा से
त्यागपत्र दे कर मैं 1972 में दिल्ली आ गया था। मैं बीच- बीच में दिल्ली आया करता था।
इसलिए दिल्ली के लिए मैं नया नहीं था। दिल्ली में आने के
बाद मैं मनोहरश्याम जोशी के ‘साप्ताहिक
हिंदुस्तान’ में कॉलम लिखने लगा था। ‘दिनमान’, ‘नवभारत टाइम्स’ में
भी लिखता रहता था। मैंने 1980-85 के दौरान फिल्मों पर खूब लिखा, अभी हाल तक ‘जनसत्ता’, ‘नवभारत टाइम्स’ में लिखता रहा हूँ।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - आपके
साथ ऐसा रहा है कि आप एक जगह पर बहुत दिनों तक टिक कर रह नहीं सके, अपनी रचनाधर्मिता और अपने जीवन के लिए आप इसे किस तरह से याद करना चाहेंगे?
विजयमोहन सिंह -
आरा से दिल्ली आने के कुछ ही दिनों बाद मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में नौकरी मिल
गई। उस समय विजेन्द्र स्नातक अध्यक्ष थे, उन्होंने नियुक्ति
की थी। इसी दौरान मेरे पी-एच. डी. के गाईड आदरणीय बच्चन सिंह हिमाचल प्रदेश
विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्यक्ष बनाये गए। हिंदी का विभाग नया था, इसलिए वहाँ उन्होंने मुझे बुलाया, मैं उनका आदेश टाल नहीं सकता था सो वहाँ पहुँचा। जब वहाँ
साक्षात्कार के लिए पहुँचा तो देखा कि साक्षात्कार बोर्ड में विजेन्द्र स्नातक हैं, उन्होंने मुझे खूब डांट लगाई। मैं क्या करता? बहरहाल, मैं 1975 में दिल्ली
विश्वविद्यालय से हिमाचल प्रदेश पहुँच गया। 1978 में बच्चन सिंह
सेवानिवृत्त हुए। 1980 तक मैं शिमला में रहा। शिमला में रहते हुए मैं लिखने का
काम सबसे कम कर सका। कोर्स पढ़ाने के कारण भी कम लिखना हुआ और वहाँ कई तरह की
शारीरिक दिक्कत भी आने लगी थी। शिमला में रहते हुए गंभीर रूप से बीमार पड़ा। शिमला में
रोजाना बहुत चढ़ाई करनी होती थी जिसका हृदय पर असर हुआ। दिल्ली में अपने घरेलू
डॉक्टर से जाँच करवाई। डॉक्टर ने कहा कि आपको जिंदगी या शिमला में से एक को चुनना
होगा। 1980 में शिमला से लम्बी छुट्टी लेकर दिल्ली आ गया। 1980 में ही मेरा दूसरा कहानी संग्रह ‘एक बांग्ला बने न्यारा’
राधाकृष्ण प्रकाशन
से प्रकाशित हुआ। बहुत दिनों तक मेरी पहचान ‘एक बंगला बने न्यारा’ वाले लेखक के
रूप में होती रही, उन दिनों जहां भी जाता लोग बोलते देखो यहीं है ‘एक बंगला
बने न्यारा’ के लेखक। इसी के आस-पास कहानियों पर मेरी एक और किताब आई- ‘आज की
कहानी’। उसके बाद ‘कथा- समय’ नाम से एक और किताब आई।
1992-93 में मेरा एक और कहानी संग्रह ‘शेरपुर पन्द्रह मील’ प्रकाशित
हुई। इस संग्रह के साथ भी मेरी वही पहचान दुहराई गई जो मेरे दूसरे कहानी संग्रह के
समय थी। दिल्ली में लोग कहने लगे थे, ‘अच्छा-अच्छा आप
वही हैं शेरपुर पन्द्रह मील वाले’। इसके बाद एक और कहानी संग्रह ‘गमे-हस्ती कहूँ किससे’ आई। इसके बाद क्रमश कुछ आलोचना की किताब आई। मसलन ‘हिंदी
उपन्यास’, ‘भेद खोलेगी बात ही’।
विजय मोहन सिंह |
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - आप
स्वयं की लिखी किस रचना को महत्त्वपूर्ण और अपने से नजदीक मानते है?
विजयमोहन सिंह -
यह कहना तो मुश्किल है लेकिन ‘शेरपुर पन्द्रह
मील’ और ‘एक बंगला बने न्यारा’ को पसंद करता हूँ।
वैसे अच्छी कहानी मेरे द्वारा अब तक नहीं लिखी गई।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - आपका
‘भारत भवन’ भोपाल और फिर उसके बाद दिल्ली के ‘हिंदी आकदमी’ में आना कैसे संभव हुआ?
विजयमोहन सिंह -
भारत भवन तो मुझे
अर्जुन सिंह ले आये थे। भारत भवन में मुझे साहित्यक गतिविधियों को संचालित करने
वाली इकाई ‘वागर्थ’ का संचालक
बनाया गया था। वहाँ से ‘पूर्वग्रह’ और ‘साक्षात्कार’ पत्रिका निकलती थी। ‘साक्षात्कार’ के संपादक थे सोमदत्त। ‘साक्षात्कार’
में मेरी आलोचनाएं छपती थीं और ‘पूर्वग्रह’ में मेरी कहानियों छपती थीं।
1990 में मध्य प्रदेश
के मुख्यमंत्री बदल गए। वहाँ सुन्दरलाल पटवा आ गए थे।
अशोक वाजपेयी का
भी तबादला कर दिया गया था,
इसलिए मैं भी भारत भवन छोड़ कर फिर से दिल्ली आ गया।
1990 में जब दुबारा
दिल्ली आया तो रहने के लिए एक कमरे का जनता फ़्लैट शाहपुरजाट में लिया। एक पुराने
मित्र ने यह फ़्लैट दिलवाया था। जब हम वहाँ शिफ्ट हुए तो ठीक से वहाँ बिजली भी नहीं
आई थी। धीरे-धीरे शाहपुरजाट में मिलने वाले लोग आने लगे। यहाँ अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, भीष्म साहनी आदि
आने लगे थे। खाने-पीने का दौर चलने लगा था। कल की चिंता हम नहीं करते थे। मेरे लिए
इन लोगों ने ही चिंता की। इसी दौरान भारत के प्रधानमन्त्री चंद्रशेखर बने। इसी समय
दिल्ली के लेफ्टीनेंट गवर्नर मार्कण्डेय सिंह बनाये गए।
मार्कण्डेय सिंह
नामवर सिंह के साथ पढ़े थे। नामवर सिंह के कहने पर
ही मार्कण्डेय सिंह ने मुझे हिंदी अकादमी, दिल्ली का सचिव
बनाया। इसी समय दिल्ली को राज्य का दर्जा मिला और वहाँ के मुख्यमत्री बी.जे.पी. के
मदनलाल खुराना बनाये गए। एक तरह की दिक्कत हिंदी अकादमी में यहीं से शुरू हुई। इसी समय का एक वाकया मुझे याद है, एक दिन हिंदी अकादमी के मेरे दफ्तर में एक सज्जन मदनलाल
खुराना की चिट्ठी लेकर आये जिसमें ‘कैलास मानसरोवर यात्रा : शिवजी से साक्षात्कार-वार्ता’
नाम की किताब की पांच सौ प्रतियाँ हिंदी अकादमी को खरीदने के लिए कहा गया था। मैंने
मुख्यमंत्री को चिट्टी लिखी किताब नहीं खरीदी जा सकती है। इसे लेकर बहुत हंगामा
हुआ। मुख्यमंत्री का कार्यालय धीरे-धीरे असहयोग करने लगा। उन्हीं
दिनों मेरे द्वारा लेखकों को पुरस्कार देने की फाईल पास किये जाने के लिए
मुख्यमंत्री कार्यालय भेजा गया। यह फाईल
बहुत दिनों तक मुख्यमंत्री ने अपने टेबल पर रोके रखी। बाद में गवर्नर के हस्तक्षेप से यह फाईल पास होकर आई। इन
दिक्कतों के बीच हिंदी अकादमी में काम करना मुश्किल होता जा रहा था सो मैंने 1995 में हिंदी अकादमी के सचिव पद से इस्तीफा दे दिया। फिर उसके
बाद मैंने नौकरी कभी नहीं की। सोच लिया ‘अब न नसानी अब न नसौहों’।
7 अप्रैल 2013 को यहाँ (वर्धा) से फिर दिल्ली चला जाऊँगा।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - अपने जीवन की ऐसी कौन सी स्मृति है जिसे आप बार -बार
याद करते हैं या याद करना चाहते हैं?
विजयमोहन सिंह - ऐसी कोई स्मृति नहीं है। मेरा जीवन सादा और सपाट रहा है।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - बीसवीं
शताब्दी का ऐसा कौन सा आंदोलन या ऐसी कौन सी घटना को आप याद करना चाहेगें, जिसने आपके लेखन और जीवन को प्रभावित किया?
विजयमोहन सिंह - जाहिर है दूसरा विश्व युद्ध जिसने पूरी मानव जाति को प्रभावित
किया और आज के दौर में भूमंडलीकरण जिसने एक देश को दूसरे देश से जुड़ने में मदद की।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - आप अपने प्रिय लेखक और
प्रिय पुस्तकों के बारे में बताएँ?
विजयमोहन सिंह - विदेशी लेखकों के रूप में कहूँ तो कहानीकार के रूप में
टालोस्तोय, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, चेखव और काफ्का
प्रभावित करते रहे हैं। कवि के रूप में
टी.एस. एलियट, रिल्के, नेरुदा और ब्रेख्त
को पसंद करता हूँ।
आलोचक के रूप में टी. एस. एलियट और चिंतक तथा दार्शनिक के
रूप में निश्चित रूप से सार्त्र मुझे बेहद प्रभावित करते हैं।
भारतीय लेखकों में
कथाकार के तौर पर पहले शरतचंद को फिर टैगोर को पसंद करता हूँ।
हिंदी लेखकों में
कथाकार के रूप में प्रेमचन्द और अज्ञेय को जिनका मेरे लेखन पर प्रभाव रहा है पसंद
करता हूँ, कवि के रूप में जयशंकर प्रसाद और आलोचक के रूप में
रामचन्द्र शुक्ल को पढ़ता रहा हूँ।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - कवि के रूप में मुक्तिबोध को क्यों नहीं?
विजयमोहन सिंह -
मुक्तिबोध को एक बुद्धिजीवी, चिंतक के रूप में
पसंद करता हूँ। मेरी हिंदी में पसंदीदा किताब ‘गोदान’, ‘शेखर : एक जीवनी’, ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘मैला आंचल’ है | भारतीय उपन्यासों में ‘गृहदाह’ (शरतचंद), ‘गोरा’ (टैगोर), ‘छह बीघा जमीन’ (फकीर मोहन सेनापति) को पसंद करता हूँ। विदेशी उपन्यासों में ‘अन्ना कारेनिना’ मुझे बेहद पसंद है।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - आप
अपने जीवन में प्रेरणा पुरुष (रोल मॉडल) किसे मानते हैं?
विजयमोहन सिंह - दरअसल इस कांसेप्ट के ही खिलाफ हूँ। मैं ‘शक्ति की मौलिक
कल्पना’ या किसी अदृश्य शक्ति के भी खिलाफ हूँ।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - आप
अपने जीवन के पसंदीदा रंग के बारे में क्या कहेंगे?
विजयमोहन सिंह - सफेद।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - आपका
पसंदीदा फूल और पेड़ कौन सा है?
विजयमोहन सिंह - फूलों में खुशबूदार फूल सभी पसंद हैं। आम का पेड़ मुझे पसंद है।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - अपने पसंदीदा व्यंजन के बारे में क्या कहेंगे?
विजयमोहन सिंह - इडली को पसंद करता हूँ।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - आपके जीवन का पसंदीदा उत्सव कौन सा है?
विजयमोहन सिंह - कोई
नहीं, उत्सवहीन है मेरा जीवन।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - भारतीय संगीत में अपनी रुचियों के बारे में बताएं?
विजयमोहन सिंह - शास्त्रीय संगीत वाद्ययंत्र (इंस्ट्रूमेंटल) के रूप में निखिल बनर्जी के सितारवादन को पसंद करता हूँ। गायन में आमिर खां और कुमार गंधर्व को सुनना पसंद है। फिल्म संगीत में पुरुष गायक के तौर पर तलत महमूद, महिला गायिका के तौर पर लता मंगेश्कर और संगीतकार के तौर पर नौशाद, मदन मोहन को सुनना पसंद है।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा – आपके जीवन में मित्रों का क्या महत्व रहा है। आप किन मित्रों को याद
करना चाहेंगे?
विजयमोहन सिंह - मित्रों
का मेरे जीवन में बड़ा महत्व रहा है। मित्रों में मैं केदारनाथ सिंह जो स्कूल के
दिनों से आज तक हैं। काशीनाथ सिंह, रविन्द्र कालिया
जैसे मित्रों को याद करता हूँ।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में अतिथि लेखक के तौर पर आप एक वर्ष
रहे। आप अपने लेखकीय जीवन में इसे किस तरह से याद रखेंगे?
विजयमोहन सिंह - मैं
अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में वर्धा आया। वर्धा मेरे जीवन में अनेक दृष्टियों से
अविस्मरणीय रहेगा। यह मैं मुहावरे में नहीं कह रहा हूँ बल्कि सीधे - सीधे कह रहा
हूँ। यहाँ का माहौल, वातावरण यहाँ की टोपोग्राफी जो दिल्ली के विपरीत है काफी
आकर्षित करती हैं।
अमरेन्द्र
कुमार शर्मा - वर्तमान समय में कहानी और नए कहानीकारों पर कई तरह की बहस हो रही है।
ऐसे में कहानी और कहानीकारों की नई सम्भावनाओं
पर आप क्या कहना चाहेंगे?
विजयमोहन सिंह -
कविता से अधिक कहानी का भविष्य देखता हूँ। कविता में सबसे कम संभावना है और कथा-साहित्य
में अधिक संभावना है। कथाकारों में कोई एक नाम नहीं लेना चाहूँगा। इनमें कई
संभावनाशील हैं। वर्तमान समय में कहानीकारों की एक जमात, एक जत्था है। इसमें कौन सबसे आगे आएगा कहना मुश्किल है। आज जो आगे है वो
पीछे हो सकता है जो आज तीसरे नंबर पर वह पहले पर हो सकता है। सैद्धान्तिक तौर पर
किसी एक नाम लेना उचित नहीं है।
कवि, आलोचक अमरेन्द्र कुमार
शर्मा का जन्म 1 जनवरी 1975 को हुआ।
‘आपातकाल : हिंदी
साहित्य और पत्रकारिता' और ‘आलोचना का स्वराज' आलोचना की दो
पुस्तकें प्रकाशित; काव्य-संग्रह
प्रकाशनाधीन, दर्जनों पत्रिकाओं
और अख़बारों में कविता और आलोचना लेख प्रकाशित। साहित्य के साथ
कला माध्यमों और सामाजिक विज्ञान के रिश्ते पर लगातार चिंतन और लेखन /आजकल ज्ञान
के विकास में नदी, यात्रा और स्वप्न के रिश्ते की पड़ताल।
सम्प्रति - महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्विद्यालय, वर्धा में अध्यापन।
सम्पर्क-
सहायक प्रोफेसर
क्षेत्रीय केंद्र,
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
24/28 सरोजनी नायडू मार्ग, सिविल लाइंस, इलाहाबाद - 211001 (उ.प्र.)
फोन- 0532- 2424442
(पोस्ट में प्रयुक्त स्वर्गीय विजय मोहन सिंह के चित्र हमें सुधीर सिंह के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं.)
जवाब देंहटाएंवाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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