प्रचण्ड प्रवीर का आलेख 'आधुनिक काव्य आलोचना के मूल्यात्मक प्रतिमान : अङ्किता आनन्द की कविताएँ '

  



कविता दुनिया की सर्वाधिक लोकप्रिय विधाओं में से एक है। लेकिन कविता की कोई ऐसी परिभाषा नहीं है जिसे ले कर सभी लोग एकमत हो सकें। कविता क्या है? क्यों है? किसलिए है? इसे ले कर बौद्धिक वर्ग ही नहीं कवि भी अलग अलग तरह से सोचते हैं और अपने विचार सामने रखते हैं। प्रचण्ड प्रवीर युवा चिन्तक हैं। कविता को ले कर प्रवीर ने कुछ महत्त्वपूर्ण बातें की हैं। इसके लिए उन्होंने अङ्किता आनन्द नामक ऐसी कवयित्री की कविताओं का हवाला दिया है, जिनका कोई संग्रह भी अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। प्रवीर उस लीक पर नहीं चलते जो सामान्यतया पहले से खींची हुई होती है। उनकी सजग दृष्टि हर तरफ रहती है और अपने चिन्तन के लिए वे इस तरह के नायाब मोती चुन ही लिया करते हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रचण्ड प्रवीर का आलेख 'आधुनिक काव्य आलोचना के मूल्यात्मक प्रतिमान : अङ्किता आनन्द की कविताएँ '।



आधुनिक काव्य आलोचना के मूल्यात्मक प्रतिमान : अङ्किता आनन्द की कविताएँ


प्रचण्ड प्रवीर 



नाट्यशास्त्र में गीत-सङ्गीत के सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध उक्ति है कि जो सीधे-सीधे कहा नहीं जा सकता, वही गाया जाता है। भरत मुनि यह स्थापित करते हैं कि गीत के लिए स्वर, लय, ताल आदि प्रमुख घटक नहीं होते किन्तु रञ्जकता अवश्य होती है। समकालीन समादृत कवि विनोद पदरज मुक्तिबोध के हवाले से कहते हैं सङ्गीत के पश्चात कविता ही सर्वाधिक अमूर्त कला है। अमूर्तन की तरतमता और उपलब्धि को समझाते हुए उनका मानना है कि सङ्गीत की तरह कविता कई बार सुनी जाती है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि गीत को बार-बार गाया जाता है, कविता को भी कई बार नवीन अर्थों में समझते हुए पढ़ा जाता है, किन्तु गद्य के साथ ऐसा कम ही होता। मैं इस कथन में आंशिक सत्यता देखता हूँ। यह ठीक है कि कविता और गद्य में प्रमुख अन्तर रञ्जकता के प्रकार को ले कर है। गद्य के अर्थ की बहुस्तर होना ही उसके समझे जाने का पर्याय होता है। ऐसा कई लोग मानते हैं कि शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की ‘श्रीकान्त’ अलग-अलग उम्र में भिन्न अर्थ को प्रकाशित करती है, जोकि पाठक के वय पर निर्भर हो। कह सकते हैं कि यही कारण है कि महान उपन्यास अलग-अलग उम्र के लिए भिन्न अर्थ को उजागर करता है। ऐसा महान काव्यों के साथ भी होता है। किन्तु बहुधा ऐसा देखा जाता है कि कविता में नवीन अर्थों का चित्त में उन्मेष होना, हमारी अपनी समझ की अपर्याप्तता या अनुभवहीनता को इंगित करता है। 


  किन्तु इस दृष्टान्त में यशदेव शल्य जैसे दार्शनिकों की मौलिक आपत्ति उठती है, वह यह कि कविता को आस्वाद्य माना जा रहा है या भोग की वस्तु समझी जा रही है। ऐसा मानना कविता की गरिमा को कम करता है। इसको मानने का सीधा परिणाम यह होगा कि ‘प्रतिरोध की कविता’ तथा भिन्न वादों की कविताएँ पूरी तरह निरस्त हो जाएँगी। इससे राजनैतिक संघर्ष कुन्द पड़ जाएगा और खड़े झण्डे झुक जाएँगे या कहें तो काले झण्डे सफेद हो जाएँगे। हमें क्रान्ति के झण्डों और उनके बहुरङ्गों से मतलब नहीं है क्योंकि हम विवेकपूर्ण स्वातन्त्र्य के पक्षधर हैं। जब तक उनका स्वातन्त्र्य शेष नागरिकों के लिए हानिकारक न हो, प्रतिरोध चलता रहे। हमारी ऐसी तटस्थता बहुतों को आपत्तिजनक लगेगी कि साहब, आप हमारे विरोध के प्रति सहानुभूति नहीं रखते, उल्टे इसका मज़ाक उड़ा रहे हैं। हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम कवि के कवि-कर्म के प्रति वैसा ही दृष्टि रखते हैं जैसा जगत् का व्यक्ति के प्रति दृष्टिकोण है कि आपकी चीख-पुकार, आपत्ति-विपत्ति, विनाश- समूल संहार से जगत् के चलते रहने पर कोई असर नहीं पड़ता। मानवता का इतिहास कभी भी दु:खों से मुक्त नहीं हुआ है और यदि सर्व दुख उन्मूलक दृष्टि अपनाते हैं कि निकट या सुदूर भविष्य में सारे कष्ट मिट सकेंगे तो ऐसी आशावान् दृष्टि के प्रति  हम उपेक्षा रखते हैं। फिर तो काव्य जगत् संसार भाव जगत का संसार है। इसलिए कवि-कर्म पर पहली प्रतिक्रिया घोर उपेक्षा की ही होनी चाहिए। 


  फिलहाल मूलभूत प्रश्न है कि कविता को भोग या आस्वाद की वस्तु कैसे मान ली जाय जब कि प्रतिरोध की कविताएँ अपने स्वरूप में ज्ञानात्मक हैं। यहाँ ज्ञानात्मक कहने का आशय अच्छे-बुरे का पक्ष ले कर निर्णय के अर्थ में हैं। इस सम्बन्ध में पहली बात हमें समझनी चाहिए कि ज्ञान वस्तुत: आस्वादात्मक ही होता है। ज्ञान की विश्रान्ति जब तक आस्वाद्यरूप में न हो, वह ज्ञान नहीं होता। इसके पीछे दसवीं सदी के काश्मीर शिवाद्वयवाद के आचार्य अभिनवगुप्त की पूरी तर्क संरचना है, जिसमें अभी जाने की आवश्यकता नहीं है। संक्षेप में निकटतम इतना ही कि अज्ञान के निवारण से तृप्त होना, ज्ञान का आस्वाद है।


  काव्य आलोचना के सम्बन्ध में मेरी समझ से मूलभूत समस्या परिभाषा की है। यही समस्या आलोचकों की भी हो जाती है जब वह समकालीन आलोचना लिखने बैठते हैं। उनके लेखन का सार होता है – इसी कशमकश में लिखे जा रहा हूँ किसे याद रखूँ किसे भूल जाऊँ? बहरहाल, हर आलोचक अपने पसन्द का स्त्रीवादी, दलितवादी, प्रवासीवादी, क्षेत्रवादी, पूर्वपंथी, पश्चिमपंथी, उत्तरपंथी, दक्षिणपंथी कवि और उसकी प्रतिबद्धता को ले कर लिखते हैं।


  प्रश्न यह उठता है कि अगर राजनैतिक प्रतिबद्धता के प्रति उदासीनता को सही माना जाय तो काव्य आलोचना के मूल्यात्मक प्रतिमान कैसे होंगे जबकि आज की सारी की सारी कविता तृतीय लिंग, यौन विमर्श, कहने के अधिकार और ‘समझा देने के अहंकार’ के शोर से डूबी हो तो? नए कवि अपनी कविता में चुन-चुन का अनुल्लेखनीय अपशब्द लिखते हैं और इस पर वे यदि यह सोचते हैं कि उनकी भड़ास वहाँ पहुँचेगी जहाँ पहुँचनी चाहिए तो इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा?


  अव्वल तो यह है कि जो अन्यायी है या पक्षपाती है, वह बमुश्किल ही साहित्य पढ़ेगा, और तो और आपका लिखा कुछ पढ़ेगा। जब बड़ी मुश्किल से साहित्य पढ़ा जाएगा तो उस पर क्या खाक असर होगा कि हम उनसे मोहब्बत कर के सनम हँसते भी रहे, रोते भी रहे?  ऐसी स्थिति में आशा यही है कि समाज जागेगा और न्याय की गतिशील धारणा में हमारा प्रतिरोध कुछ असर करेगा। इसका एक दृष्टान्त ऐसा समझिए। एक कविता लिखी जाती है जिसका सार है अपने माँ-बाप पर हाथ मत उठाइए। इसके पीछे के तमाम तर्क कि माँ-बाप ने आपको पाल-पोस कर बड़ा किया। किन्तु यह बताइए कि जब हम मातृ-पितृभक्त हों तो ऐसी ‘प्रेरणादायक’ कविताओं का क्या करें? जाहिर है कि कूड़े के डब्बे में फेंक दें। 


  इस तौर पर यह क्यों न माना जाय कि साहित्य संसार के अधिकांश जन नैतिक रूप से गिरे और नीच हैं, जिन्हें समझाने के लिए भड़ास की शक्ल में प्रतिबद्धता की कविताएँ लिखी जा रही हैं। और जिनके विरोध में लिखी जा रही है वह पढ़ेंगे नहीं, फिर ऐसी क्रान्ति वाली कविताओं को ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ में सुन कर खुद को दोषी मानें और दोष मुक्त होने के लिए आकण्ठ रस रंजन करें, क्योंकि दोस्तोव्योस्की ने सिखाया ही है कि हम सभी सब के सामने सभी चीजों के गुनाहगार हैं।


  इस गुत्थी की कड़ी ऐसी सुलझती है जब हम मानते हैं कि समता का सही अर्थ ‘पक्षपातविहीन’ होना है। जब हम यह स्वीकार करते हैं कि आज के दौर की कविताएँ गीत बनने के लिए नहीं, बल्कि काव्यात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं जो एक बार पढ़ने-सुनाने हेतु हैं। वरना ‘बचपन की मोहब्बत को दिल ने ना जुदा करना’ जैसे गीत में कोई काव्यात्मक चमत्कार नहीं दिखेगा, लेकिन वैसी रञ्जकता हज़ार हिन्दी कविताएँ सिर पटक-पटक पैदा नहीं कर सकती जो ‘आवाज़ मेरी सुन के दिल थाम लिया करना’ सुनने में हैं। हमने यह स्वीकार कर लिया है कि रञ्जकता कविता में आवश्यक गुण नहीं है, साथ ही वाञ्छनीय भी नहीं।


  एलेक्जेण्डर पोप (१६८८-१९७४) ने कहा था कि मानवता का सम्यक अध्ययन एक मनुष्य है। (The proper study of mankind, is man). मैं यह मानता हूँ कि हमारी वर्तमान काव्य परिदृश्य की प्रवृत्तियों को समझने के लिए किसी एक उभरते सम्भावनाशील कवि या कवयित्री का सम्यक अध्ययन पर्याप्त है। इस नाते मैंने इस आलेख में प्रतिभाशाली और संभावनाशील कवयित्री अङ्किता आनन्द की कविताओं का चयन किया है। मेरी जानकारी में इनका कोई काव्य संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है किन्तु इनकी कई कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में, वेब मैगजिनों में प्रकाशित और चर्चित रही हैं। इनकी कविताओं की अभावगत विशेषता है कि इनमें यौनिक उन्माद, अश्लीलता या अपशब्दों का पूर्ण निषेध है। प्रतिरोध है किन्तु शालीनता के दायरे में शिष्टता के आवरण में हैं।


  अङ्किता आनन्द की कुछ काव्यात्मक अभिव्यक्तियाँ इस तरह कि हैं जिससे आज की कविता की मुख्य प्रवृत्तियों को रेखाङ्कित किया जा सकता है। वे कविताएँ इन अर्थ में अच्छी हैं कि वे अपने उद्देश्य में सुस्पष्ट हैं और व्यञ्जना के सहारा लिए बगैर, मात्र अभिधा और लक्षणा में अपनी बातें कहती हैं। 







मृत घोषित


उसके आख़िरी दिनों में

कभी टूथपेस्ट के ट्यूब को

दो टुकड़ों में काटा हो,

तो तुमने देखा होगा

कितना कुछ बचा रह जाता है

तब भी जब लगता है

सब ख़त्म हो गया।

ज़िंदगी का कितना बड़ा टुकड़ा

अक्सर फ़ेंक दिया जाता है

उसे मरा समझ।


  कविता की शीर्षक कवयित्री का अनुपस्थिति, रिक्तता और अभाव के विरुद्ध आशा के अर्थ में संघर्ष हैं। ऐसी ही रिक्तता के लिए अमरीकी कवि विलियम स्टैनले मर्विन (१९२७-२०१९) की एक प्रसिद्ध कविता अनायास स्मरण में आ जाती है - 


बिछोह


तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे ऐसे बींध गयी हैं

जैसे धागा एक सुई में

जो कुछ भी मैं करता हूँ इसके रङ्ग में सिल जाता है। 


  कवयित्री की दृष्टि आशावादी और नवोन्मेष लिए हुए है। उनकी कविताओं में दु:ख और तकलीफ भी हैं किन्तु वह उनकी आशाओं पर भारी नहीं पड़ता। जैसे कि हम उनकी इन कविताओं में देख सकते हैं  - 


सामग्री


एक उदास कहानी मुझसे छेड़े गए सभी अभियान भुलवा सकती है

हींग के छौँक की महक मुझे कृतज्ञ आँसू रुलवा सकती है

पिछ्ले खोए के लौटने की उम्मीद जगा

मौसम से लड़ कर खिला एक फूल हाथ पकड़ मुझे उठा सकता है

बंद जाली के कोने से घुसा दुष्ट कबूतर

मुझे ढिठाई, बेहयाई के फ़ायदे गिनवा सकता है

लड़के के रोने से मैं दुनिया के खिलाफ़ तलवार साध सकती हूँ

लड़की के हँसने पर मेरी रुकी साँस आज़ाद हो जाती है

दोस्त की माफ़ी मुझे फिर से जिला देती है

टटोलने भर से इनमें से कुछ तो हाथ लग ही जाता है

एक और खेल के लिए मैं फिर तैय्यार हो जाती हूँ


  आखिरी पंक्ति दरअसल कविता को अनुप्राणित करती है कि कवयित्री जीवन के उतार-चढाव को खेल की तरह लेती है। इन सीधी बातों में कवयित्री अपनी शक्ति और क्षमता की सीमाओं दोनों का निर्वहन करती है। उनका उत्साह घटनाओं के बरअक्स वार करने को तैय्यार बैठा है।


सबूत


हाँ, आप सही थे

एक बार फिर


हाँ, आपने तो पहले ही कहा था

एक दिन मुझे एहसास होगा

कितना मुश्किल है

अकेली औरत होना


हाँ, मुझे याद है

मैंने आपकी बात नहीं सुनी थी

जब आपने कहा था


पर दरअसल

सुन तो मैं रही थी

हर रोज़

आपसे, कि कितना मुश्किल है ये


देख रही थी

आपको रोज़ ये कहते हुए,

मेरे लिए

ऐसा होना

मुश्किल बनाते हुए।


  उपरोक्त कविता पढ़ते हुए रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता ‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ की आखिरी पङ्क्तियों का स्मरण हो जाता है। 


हँसो हँसो जल्दी हँसो

इसके पहले कि वह चले जाएँ

उनसे हाथ मिलाते हुए

नज़रें नीची किए

उसको याद दिलाते हुए हँसो

कि तुम कल भी हँसे थे!





  ऐसा नहीं है कि यह कविताएँ रघुवीर सहाय की कविताओं का अनुकरण है, बल्कि ये कविताएँ विद्रूपता को और दुश्चरित्रता को उसी तर्ज़ पर सामने ले आती है। कहने का अर्थ है कि आधुनिक कविताओं की प्रमुख प्रवृत्तियों में पहली व्यञ्जना की उपेक्षा करते हुए अभिधा और लक्षणा पर आश्रय है। यह कहना अन्यथा नहीं है कि मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और विष्णु खरे ने इस परम्परा का पोषण किया है जिसमें व्यञ्जना की पूर्ण अनदेखी की गयी है, जिसे लगभग पूरी हिन्दी कविताओं ने अपना लिया है। शब्द शक्ति और अलंकारों के अन्तर्सम्बन्ध को देखें तो हम पाएँगे कि अभिधा (अनुप्रास), लक्षणा (उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिश्योक्ति) और व्यञ्जना (श्लेष, यमक, वक्रोक्ति, कटाक्ष) में से समकालीन कविता व्यञ्जना को गौण कर चुकी है। बहुत कम ही कवि आर्थिक व्यञ्जना का प्रयोग करते हैं, यदि है भी तो वह ऐसी है कि तात्कालिकता में आसानी से भुला दी जा सके। 


  अब हम आते हैं अपनी शुरूआती कथन पर जहाँ हमने यह विचार किया था कि कविता की रञ्जकता नवीन अर्थों को उन्मेष ले। सहज प्रश्न है कि अभिधा और लक्षणा शब्द शक्ति क्या नवीन अर्थों को प्रकट कर सकती है?


  इसका सरल उत्तर है ‘हाँ।‘ क्योंकि अर्थ की परिपूर्णता श्रोता (रसिक) के शब्दग्राह्यता के सामाजिक और व्यक्तिगत अनुभव पर आश्रित हैं। इसलिए आधुनिक कविता उन अर्थों में निरर्थक और निष्प्राण नहीं है किन्तु किञ्चित मात्र कविताएँ ही शक्तिशाली हैं। 


  आधुनिक हिन्दी काव्यात्मक अभिव्यक्तियों की दूसरी प्रमुख प्रवृत्ति स्पष्ट पक्षधरता में है जिसमें एक पक्ष को ‘खल’ और दूसरे को ‘संघर्षशील’ मानने का द्वैत स्थापित है। मैं समझता हूँ इस तरह की पक्षधरता हमारे समय के साहित्य के घोर पतन का सूचक है। अगर किसी भी स्थिति में हर पक्ष की गहराई में नहीं उतर पाना बौद्धिक कमजोरी है। मैं समझता हूँ इस तरह का ‘ज्ञान’ आस्वादात्मक होते हुए भी अपनी संरचना में बेस्वाद और हेय है। इसका दृष्टान्टत महाभारत के सभी पात्रों की स्वयं को सही सिद्ध नज़र आने में हैं, किन्तु फिर भी पाण्डव ही नायक है। वेदव्यास की पक्षधरता पाण्डवों के साथ है, कौरवों और कर्ण के साथ नहीं। दरअसल हमारे समय की स्पष्ट पक्षधरता ‘स्वयं को सही सिद्ध करने में’ अधिक नज़र आती है। वह कुछ ऐसा है कि कवि ने ठेका ले रखा है समाज में खल को एकदम ठीक पहचानने का, और उन सबको दुरुस्त करने के लिए फुटपथिया मंजन और चूर्ण बेचने का। ऐसा इसलिए है कि कवि जीवन को समग्रता में नहीं देख पा रहे। जब जरा, मृत्यु, बिछोह, मिलन, उमंग, प्रकृति, आत्मा, पाप, पुण्य - यह सभी विषय कविता से बाहर हैं तो पक्षधरता के लिए राजनैतिक एजेण्डे के अलावा क्या बचता है? 


  समकालीन काव्यात्मक अभिव्यक्तियों की तीसरी और प्रमुख प्रवृत्ति जाने अनजाने में ‘तात्कालिक पूर्वज’ का अनुकरण करने में दिखती है। इसका उदाहरण मैं देता हूँ वह है बिहार में ‘लालू चालीसा’ और उसके जवाब ‘लालू पचासा’ में। हिन्दी में लोकप्रिय साहित्य की पैरवी करने वाले कभी भी इन रचनाओं को साहित्य में गिनना तो दूर चर्चा भी नहीं करना चाहेंगे, जहाँ रचनाकारों ने तुकबंदी और छंद मिला कर ‘हनुमान चालीसा’ और रामचरित मानस की नकल करने की कोशिश की। हम यह नहीं देखना चाहते कि आम जनता में अभी भी पारम्परिक कविता को लेकर ऐसा उत्साह है कि गुमनाम कवि ‘चालीसा’ और ‘पचासा’ लिखने की शक्ति रखते हैं। 


  मैं यह कहना चाहता हूँ कि हिन्दी साहित्य की अकादमिक चारदीवारियों ने अपने ‘क्षुद्र मानक’ बनाए जो कि पश्चिम की नकल अधिक रहें। हिन्दी में छायावाद को लगभग इस अर्थ में निपटा दिया गया कि आज शुद्ध और परिष्कृत हिन्दी में लिखना ‘कङ्काल साधना’ माना जाने लगा है। शुद्ध वर्तनी में लिखना बहुतों के लिए पढ़ने में कठिन और दूभर हो गया है। यहाँ तक कि प्रमुख पत्रिकाएँ मेरे नाम की वर्तनी बहुत कहने पर शुद्ध नहीं छापना चाहती, दूसरे शब्दों में संयुक्ताक्षर का निषेध करती है।


  सहज प्रश्न यह उठता है कि इन प्रवृत्तियों को बुरा समझा जाय या अच्छा।


  ईमानदारी का बात यह है कि ऐसा निर्णय बहुत कठिन है। भाषा गतिशील होती है। कालप्रवाह में अनेकों बाह्य कारण होते हैं जो भाषा और साहित्य को प्रभावित करते हैं। किन्तु यह बात हमें समझनी चाहिए कि मूल्य आविष्कृत नहीं किए जाते, बल्कि अन्वेषित किए जाते हैं।


  एक समय के साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ मूल्य नहीं होती बल्कि किन्हीं मूल्यों के अनुगमन में मापे जाने योग्य लक्षणिका हैं। अगर मूल्य न्याय स्थापित करना हो तो समझा जा सकता है क्योंकि वह शाश्वत मूल्य है, किन्तु राजनैतिक प्रतिबद्धता अपने आप में कोई मूल्य नहीं, क्योंकि वह विज्ञान की तरह ‘सात्त्विक’ नहीं है। वह केवल सत्य, स्वातन्त्र्य, न्याय आदि को पाने का जरिया हो सकती है। 


  हमें विचारना चाहिए कि वह क्या चीज है जो कवि या साहित्यकार को अपने समय से अलग भी जीवित रख सकती है? कविता में वह कौन से तत्त्व हैं जो आकर्षित करते हैं और इसे मनोरम और रञ्जक बनाते हैं? वो क्या चीज है जो हमें मीर और ग़ालिब की तरफ बार-बार खींचती है? शायद वहाँ से कोई नया रास्ता निकले।

 

दिनांक - 13 अगस्त 2023

 

टिप्पणियाँ

  1. प्रचण्ड प्रवीर15 अगस्त 2023 को 11:44 am बजे

    इस आलेख के साथ पूर्ववर्ती आलेख को भी पढ़ा जाना चाहिए

    https://anunad.com/2023/06/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b5%e0%a5%8d%e0%a4%af-%e0%a4%86%e0%a4%b2%e0%a5%8b%e0%a4%9a%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%ac%e0%a5%8b%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%95.html

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